प्रकरणपञ्चिका
शालिकानाथः
प्रकरणपञ्चिका



श्रीमत्प्रभाकरगुरुतन्त्रधुरन्धरेण महामहोपाध्याय-शालिकनाथमिश्रेण प्रणीता

प्रकरणपञ्चिका न्यायसिद्ध्याख्यया व्याख्यया विषमस्थलटिप्पराया च समलङ्कृता ।।

विषयानुक्रमणिका सम्पाद्यताम्


    1---शास्त्रमुखस्य
        1---शास्त्रमुखप्रकरणस्य प्रतिपाद्यविषयनिर्देंश:।
        2---भाट्टमतेन मामांसाशास्त्रानारम्भपूर्वपक्ष:।
        3---भाट्टमतेनाऽध्ययनविधिमुपजीव्य मीमांसाशास्त्रारम्भसमर्थनम्।
        4---भाट्टसम्मतपूर्वोत्तर-पक्षयोर्निरास:।
        5---प्राभाकरमतेन मीमांसाशास्त्रानारम्भपूर्वपक्ष:।
        6---जरत्प्राभाकरमतेन पूर्वपक्ष:, तन्निरासश्च।
        7---शालिकमतेन पूर्वपक्ष:।
        8---शालिकमतेन सिद्धान्त:।
        9---जरत्प्राभाकरमतेन सिद्धान्तवर्णनम्।
        10---गुरुमतेन मीमांसाशास्त्रारम्भसमर्थनोपसंहार:।

    2---नीतिपथस्य
        11---शद्बस्याऽर्थासंस्पर्शित्वशङ्कानिरासरूपप्रकरणार्थप्रतिज्ञा।
        12---तत्र पूर्व: पक्ष:। 13---तत्र सिद्धान्त:।

    3---नयवीथीप्रकरणस्य
        14---सर्वं ज्ञानं यथार्थमिति प्रतिज्ञा
        15---तत्राऽन्यथाख्यातिवादिमतेन पूर्व: पक्ष:
        16---अख्यातिवादसिद्धान्त:
        17---तिक्तो गुडड्डत्ध्;:, पीतश्शंख:, अलातचक्रं, स्थाणुर्वा पुरुषो वेत्यादीनां यथार्थत्वसमर्थनम्।
        18---सर्वं ज्ञानं यथार्थमिति प्रतिज्ञायां सिद्धसाधनदृष्टान्तासिद्धिवारणम्।

    4---जातिनिर्णायस्य
        19---प्रकरणप्रतिपाद्यविषयनिर्देश:
        20---जातिर्विकल्पविलसितमिति बौद्धमतेन पूर्वपक्षोपन्यास:।
        21---जातिविषये प्राभाकरसिद्धान्तनिर्देश:
        22---सौगतपूर्वपक्षस्य जातिव्यक्त्योव्र्यतिरेकाव्यतिरेकविकल्पजालेन विस्तरेणोपपादनम्
        23---बौद्धमुखेन वैशेषिकसिद्धान्तनिराकरणम्।
        24---सौगतपूर्वपक्षस्योपसंहार:।
        25---स्वमतेन जातिविषये सिद्धान्तकथनम्।
        26---जातिनिरूपणप्रसङ्गेन प्राभाकरसम्मतानां द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य-समवाय-शक्ति-संख्या-सादृश्य-क्रमाणां नवानां पदार्थानां निरूपणम्। अत्र न्यासिद्धिव्याख्याया क्रमस्याऽतिरिक्तपदार्थत्वव्यवस्थापनमिति विशेषो द्रष्टव्य:।
        27---अवयवेष्ववयिनो वृत्तिविकल्पने बौद्धोक्तानां दूषणानां निरास:।
        28---जातिव्यक्त्योर्भेदे सहोपलम्भनियमोपपत्तिप्रदर्शनम्
        29---नित्याया जातेरर्थक्रियाकारित्वशङका-समाधाने।
        30---समवायसमर्थनम्, वैशेषिकमतादस्य विशेषश्च।
        31---सत्ताजातेर्निराकरणम्।
        32---सत्ताविषये ब्रह्मसिद्धौ मण्डड्डत्ध्;नमिश्रेणोक्तस्याऽर्थस्याऽनुवाद-निरासौ।
        33---प्रमाणसम्बन्धयोग्यत्वमेव सत्त्वमिति स्वमतेन सत्प्रतीतिसमर्थनम्।
        34---सन्मात्रग्राहिप्रत्यक्षमिति मण्डड्डत्ध्;नमतनिरास:।
        35---शद्बत्वजातिनिराकरणम्, स्फोटनिरासश्च
        36---भाट्टसम्मताया ब्राह्मणत्वादिजातेरुपन्यास:।
        37---तन्निरास:।
        38---स्वमतेन ब्राह्मणत्वादेरुपाधिरूपत्ववर्णनम्।
        39---सामान्याभ्युपगमे युक्तिकथनम्।

    5---अमृतकलाया:।
        40---प्रमाणलक्षणम्।
        41---प्रभाकरसम्मतप्रमाणजातिनिर्देश:
        42---मेयमातृप्रमासु साक्षात्प्रतीति: प्रत्यक्षलक्षणकथनम्।
        43---प्रमाणफलभावनिरूपणम्
        44---अनुमाननिरूपणम्।
        45---शास्त्रनिरूपणम्
        46---उपमाननिरूपणम्
        47---अर्थापत्तिनिरूपणम्
        48---अनुपलब्धिप्रमाणनिराकरणम्
        49---"अभावोऽपि प्रमाणाभावो नाऽस्तीत्यर्थस्याऽसन्निकृष्टस्य" इत्यादिभाष्यसन्दर्भस्याऽभावलक्षणनिराकरणमुखेनाऽर्थपरिछेदकत्वात्प्रमाणानां पूर्वोक्तप्रमाणपञ्चकपरत्वमेवेति कथनम्।

    6---प्रमाणपारायणस्य।
        50---प्रकरणार्थप्रतिज्ञा।
        51---अविसंवादिज्ञानं प्रमाणमिति धर्मकीत्त्र्युक्तस्य लक्षणस्य धर्मोंत्तराचार्येण समर्थितस्याऽनुवाद:
        52---तन्निरास:
        53---भाट्टसम्मतस्य तस्माद्दृढं यदुत्पन्नमित्यादि वार्तिकोक्तप्रमामलक्षणघटितदढपदव्यावत्र्याभावप्रदर्शनमुखेन तन्निरास:।
        54---"इदं रजतम्" "समेदं मुखमि"त्यादौ ज्ञानद्वयव्यवस्थापनम्।
        55---प्रभाकरसम्मतमनुभूति: प्रमाणमिति प्रमाणलक्षणम्।
        56---धारावाहिकज्ञानानां प्रमाण्यसमर्थनम्
        57---गौतमोक्तस्य प्रत्यक्षलक्षणस्य प्रत्यक्षपरिच्छेदस्य सपरिकरस्याऽनुवाद:।
        58---तस्य निरास:
        59---नैयायिकसम्मतसंयोगादिषड्ड्डित्ध्;वधसन्निकर्षेषु संयोग---संयुक्तसमवाय---समवाया एव प्राभाकराणामभिमता इति स्वसिद्धान्तकथनम्।
        60---गौतमोक्तलक्षणघटकाऽव्यपदेश्यविशेषणव्यावत्र्योपक्षेप-प्रतिक्षेपौ।
        61---अव्यभिचारित्वं व्यवसायात्मकत्वं न प्रत्यक्षलक्षणमपि तु प्रमाणलक्षणमिति कथनम्।
        62---इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नमिति प्रत्यक्षलक्षणस्याऽनुमित्यादिप्रमितौ स्वात्मनि प्रमातरि चाऽसम्भवोपन्यास:।
        63---धर्मकीर्तीयस्य कल्पनापोढमभ्रान्तमिति प्रत्यक्षलक्षणस्य सपरिकरस्य सावान्तरविशेषस्याऽनुवाद:।
        64---तन्निरास:
        65---वृत्तिकारसम्मतस्य प्रत्यक्षलक्षणस्योपन्यास-निरासौ।
        66---प्रत्यक्षसूत्रस्य स्वमतेनेदं रजतमित्यत्र रजतज्ञानस्य स्मृतिरूपतां दर्शयितुमिति तात्पर्यवर्णनम्।
        67---प्रभाकरमतेन "साक्षात्प्रतीति: प्रत्यक्षमि"ति प्रत्यक्षलक्षणोपन्यास:।
        68---चक्षुरादीनामिन्द्रियाणां सद्भावे भेदे च प्रमाणोपन्यास:।
        69---प्राभाकरमतेन मनस्साधनप्रकार:।
        70---तस्याऽणुपरिमाणत्वकथनम्।
        71---वसुबन्धोर्मनस्साधनप्रकारस्याऽनुवाद---निरासौ।
        72---चक्षुरादीनामिन्द्रियाणामसाधारणविषयकथनम्।
        73---ऐन्द्रियकस्य द्रव्यस्य चातुर्विध्यप्रदर्शनम्।
        74---स्वमतेन रूपादीनां गुणानां निर्देंश:।
        75---अत्र न्यायसिद्धिटीकायां गुणानां लक्षणोदाहरणाभ्यां निरुपणं विशेषो द्रष्टव्य:
        76---निर्विकल्पक-सविकल्पकभेदेन प्रत्यक्षस्य द्वैविध्यकथनम्।
        77---बौद्धा निर्विकल्पकप्रत्यक्षमेव प्रमाणमभ्युपगच्छन्ति। शाब्दिकशिरोमणिर्भर्तृहरिस्सविकल्पकप्रत्यक्षमेव प्रमाणमित्यन्यतरस्याऽचारिताथ्र्यादुभयोरावश्यकतेति निरूपणम्।
        78---"लब्धरूपे क्वचित्किञ्चिदि"ति मण्डड्डत्ध्;नमिश्रवचनस्याऽभिप्रायकथनम्।
        79---मितौ मातरि च प्रत्यक्षत्वनिरूपणम्।
        80---गुरुमते विषयापेक्षया प्रमाणान्तरत्वव्यपदेश इति कथनम्।
        81---ज्ञानस्य स्वप्रकाशत्वनिरूपणम्।
        82---ज्ञानस्य स्वयम्प्रकाशत्वेन सौत्रान्तिकमतेन पूर्व: पक्ष:।
        83---सौत्रान्तिकमतेन विज्ञानवादमतस्य निरास:।
        84---विज्ञानवादिमतस्य मीमांसकमतेन निरास:।
        85---"जाग्रत्प्रत्ययो निरालम्बन: प्रत्ययत्वादि"ति विज्ञानवाद्युक्तस्याऽनुमानस्य विरूद्धत्वादिहेत्वाभासोद्भावनम्। 86---ज्ञानानुमेयत्ववादिनो भाट्टस्य ज्ञानास्वप्रकाशत्वे शङ्का-तन्निरासश्च।
        87---आत्मन: कर्मकर्तृत्ववादिनो मतेऽनुभवविरोधप्रदर्शनम्।
        88---ज्ञानस्याऽनुमेयत्वनिरास:।
        89---अयङ्घट इति ज्ञानं घटमहं जानामीत्यनुव्यवसायेन गृह्यत इति नैयायिकमतनिराकरणम्।
        90---ज्ञाते त्वर्थे पश्चादनुमानादवगच्छतीति भाष्यस्याऽभिप्रायवर्णनम्।
        91---प्रमाणफलभावस्याऽनैयत्यप्रतिपादनम्।
        92---विज्ञानवादिमते प्रमाणफलभावस्याऽनुपपत्तिप्रदर्शनम्।
        93---सापेक्षज्ञानं स्मृतिरिति प्रभाकरविजयोक्तस्मृतिलक्षणनिरासमुखेन संस्कारजन्यं ज्ञानं स्मृतिरिति शालिकोक्तलक्षणस्य समर्थनम्।
        94---विषयेन्द्रियनिरूपणावसरे हेमचन्द्रोक्तानां केषां प्राणिनां कानि कानीन्द्रियाणीति तदीयग्रन्थसन्दर्भस्योद्धरणम्। 95---"द्रव्य-जाति-गुणेष्वि"ति शालिकोक्ते प्रमेयत्रैविध्ये शङ्का-समाधाने।
        96---द्रव्याश्रय: कर्मभिन्नो गुणे द्रव्येषु तरतमभावेन वर्तमानो गुणो द्रव्यपरतन्त्र इति च न्यायसिद्धिव्याख्यानुसारेण गुणलक्षणस्य त्रैविध्यनिरूपणम्।
        97---अजसंयोगनिराकरणम्।

    अनुमानपरिच्छेदस्य।
        98---अनुमानलक्षणम्।
        99---"ज्ञातसम्बन्धस्ये"त्यादिभाष्यस्य कुमारिलभट्टोक्तव्याख्योपन्यास-निरासौ।
        100---प्राभाकरमतानुसारेण व्याख्यानप्रदर्शनम्।
        101---अविनाभावनियमो व्याप्तिरिति धर्मकीत्र्युक्तस्याऽविनाभावनियमस्योपन्यास:।
        102---"कार्यकारणभावाद्वा" इति प्रमाणवार्तिकस्य व्याख्यानम्।
        103---वैशेषिकोक्तस्यानुमेयेन सम्बद्धमित्यादिपद्यस्योपन्यास:।
        104---अनुपलब्धिलिङ्गस्य प्रतिषेधरूपत्वं तत्र प्रज्ञाकरगुप्तस्य वचनं प्रमाणमिति प्रतिपादनम्। 105---अविनाभावनियमस्य निराकरणम्।
        106---अस्येदं कारणं कार्यमित्यादिवैशेषिकोक्तानां पञ्चानां सम्बन्धानामुपन्यासनिरासौ।
        107---स्वमतेन व्याप्तिकथनम्।
        108---सम्बन्धनियमे प्रमाणविचार:।
        109---प्रभाकरसम्मतसम्बन्धनियमावधारणम्।
        111---अनुमानस्य स्मृतिरूपत्व-शङ्का-निरासौ।
        112---अनुभवरूपत्वेनाऽनुमानस्य प्रामाण्यव्यवस्थापनम्।
        113---अनुमानस्य प्रत्यभिज्ञारूपत्वशङ्का-निरासौ---
        114---निरुपाधिकसम्बन्धी व्याप्तिरिति स्वमतोपन्यास:।
        115---ज्ञातसम्बन्धनियमस्येत्यनुमानलक्षणघटकीभूतानां विशेषणानां सार्थक्योपन्यास:
        116---प्रत्यक्षबाधोदाहरणम्।
        117---अनुमानबाधोदाहरणम्।
        118---शब्दश्श्रोत्रग्राह्यो न भवति गुणत्वादित्यनमानस्याऽनुमानेन बोधान भवतीति दिङ्गनागस्य मतोपन्यास-निरासौ 119---शास्त्रेणानुमानबाधोदाहरणम्
        120---उपमानार्थापत्तिभ्यामनुमानबाधोपन्यास:
        121---असाधितविषयस्याऽनुमितिहेतुत्वशङ्का-निरासौ
        122---स्वमतेनाऽनुमानकारणपरिगणनम्।
        123---यत्र बाधितविषयत्वं निश्चितम्, तत्राऽनुमानं नोत्पद्यते, यत्र तु विषयबाधा सन्दिग्धा, तत्राऽनमानमुत्पद्यत इति कथनम्
        124---असत्प्रतिपक्षस्याऽनुमितिहेतुत्वशङ्का-निरासौ
        125---अनुमानस्य प्रमेयद्वैविध्यनिरूपणम्
        126---कर्मविषये मण्डड्डत्ध्;नमिश्रमतस्याऽनुवादो भावनाविवेकस्थतत्प्रकरणस्याऽनुवादश्च
        127---तन्निरास: कर्मविषये भाट्टप्रस्थान-प्राभाकरप्रस्थानयो: खण्डड्डत्ध्;न-मण्डड्डत्ध्;नप्रणालीप्रदर्शनम् 128---शक्तिनिरूपणम्
        129---अभावकारणतानिरास:
        130---स्वार्थ-परार्थभैदेनाऽनुमानद्बैविध्यनिरूपणम्।
        131---नैयायिकोक्तस्य प्रतिज्ञाद्यवयवपञ्चकस्याऽऽधिक्येन बौध्दोक्तावयवद्वयस्याऽत्यनृतसाकाङ्क्षत्वेन तद्व्व्युदसनपूर्वकमवयवत्रैविध्यवर्णनम्।
        132---वैधम्र्यदृष्टान्तनिराकरणपूर्वकं साधम्र्यदृष्टान्तनिरूपणम्
        133---साधम्र्य-वैधम्र्ययोर्विकल्पशङ्का-तन्निरासौ
        134---हेत्वाभासविषये न्यायसूत्रभाष्यवार्तिकादिमतेन हेत्वाभाससङ्ग्रह:
        135---अनुमानफलनिरूपणम्

    शास्त्रपरिच्छेदस्य
        136---शास्त्रलक्षणनिर्देश:
        137---शब्दत्वस्योपाधित्व-निरूपणम्
        138---स्फोटवादस्योपन्यास-निरासौ
        139---वर्णानुभवजनितसंस्कारस्य स्मृतिहेतोस्संस्काराद्वैलक्षण्यप्रतिपादनम्
        140---शब्दार्थयोस्सम्बन्धरूपौत्पत्तिकत्वाक्षेप-निरासौ
        141---शास्त्रलक्षणेऽसन्निकृष्टविशेषणप्रयोजननिरूपणम्
        142---प्राभाकरमतेन चोदनासूत्रस्य तात्पर्यवर्णनम्
        143---सर्वेषां पदानां साक्षात्परम्परया वा नियोगापरपर्यायकार्यपरत्वमिति प्राभाकरसिद्धान्तरहस्योपन्यास:
        144---कथं वेदार्थ: कार्यरूप इति ब्रह्मसिद्धिकृतो मण्डड्डत्ध्;नमिश्रस्या। क्षेपोपन्यासनिरासौ 145---वेदान्तानामुपासनापरत्वसमर्थनम्
        146---लौकिकशब्दस्य प्रमाणान्तरत्वसङ्का-निरासौ
        147---वेदस्याऽप्रमाण्यशङ्का-निरासौ
        148---वेदानां पौरुषेयत्वशङ्का-निरासौ
        149---बुद्धवचसामपौरुषेयत्वशङ्का-समाधाने
        150---चित्राक्षेप-परिहारौ
        151---स्मृतेर्नित्यानुमेयवेदमूलत्वनिरूपणम्।
        152---भाट्टसम्मतस्य कल्पितवेदमूलत्वस्य निराकरणम्।
        153---शास्त्रेऽध्याहारनिरूपणम्।
        154---अध्याहारस्वरूपकथनम्।
        155---स्वर्गशब्दार्थविषये मतान्तरोपन्यासनिरासपूर्वकंस्वमतेन स्वर्गपदार्थनिरूपणम्।
        156---विकृतौ प्राकृतोपकारस्याऽतिदेश इति भाट्टमतनिराकरणपूर्वकं प्राभाकरमतेन विकृतौ प्राकृतोपदेशनिरूपणम्। 157---भाट्टसम्मतोपमानातिदेशकत्वनिरसनेन स्वमतेनोपमानस्यानतिदेशकत्वकथनम्।
        158---शास्त्रैक्य-शास्त्रभेदयो: प्रयोजकनिरूपणम्।
        159---शास्त्रभेदनिरूपणम्।
        160---अनुबन्धसाध्यभेदाभ्यां शास्त्रभेद इति प्राभाकरसिद्धान्तवर्णनम्; शब्दान्तरेणाऽनुबन्धभेदवर्णनम् 161---अभ्यासाद्विषयभेदनिरूपणम्।
        162---"य एवं विद्वान् पौर्णमासीं यजेत" इत्यत्राऽभ्यासस्याऽपवादत्वकथनम्। 163---अग्नेयाद्याधारादीनामङ्गप्रधानभावनिरूपणम्।
        164---गुणादनुबन्धभेदनिरूपणम्।
        165---संज्ञयाऽनुबन्धभेदनिरूपणम्।
        166---प्रकरणान्तरस्याऽनुबन्धभेदकत्वकथनम्।
        167---संख्याया अनुबन्धभेदकत्वनिरास:।
        168---अनुबन्धभेदेन शास्त्रभेदनिरूपणम्।
        169---शास्त्रस्याऽनुमानाद्भेदोपन्यास:।
        170---शास्त्रलक्षणघटकविशेषणानां सार्थक्यप्रतिपादनम्।
        171---स्मृतिशिष्टाचारयो: श्रुत्यैकान्तरितत्वद्व्यन्तरितत्वाभ्यां भेद इति भाट्टमतम्, प्राभाकरमते उभयोर्वेदमूलकत्वेन साम्यमिति विशेष:।

    उपमानपरिच्छेदस्य
        172---उपमानलक्षणम्।
        173---सादृश्यस्याऽनतिरिक्तत्वशङ्का-निरासौ।
        174---सादृश्यस्य पदार्थान्तरत्वप्रतिपादनम्।
        175---उपमानप्रमाणस्य प्रत्यक्षादिनाऽगतार्थत्वनिरूपणम्।
        176---उपमानलक्षणघटकविशेषणानां सार्थंक्यनिरूपणम्।
        177---गौतमीयस्योपमानलक्षणस्याऽनुवाद-निरासौ।

    अर्थापत्तिपरिच्छेदस्य
        178---अर्थापत्तिलक्षणम्; अर्थापत्तिविषये भाट्टप्रस्थान-प्राभाकरप्रस्थानयोर्वेलक्षण्यप्रदर्शनम्। 179---अर्थापत्तेरनुमानेऽन्तर्भावशङ्का-निरासौ।
        180---अनुमानार्थापत्त्योस्सामग्रीभेदाद्वैलक्षण्यनिरूपणम्।
        181---अर्थापत्तिविषये मतान्तरनिरूपणम्।
        182---अर्थापत्तेव्र्यतिरेकव्याप्त्या गतार्थत्वशङ्का-निरासौ।
        183---भाट्टसम्मतायाश्श्रुतार्थांपत्तेरूपन्यास-निरासौ।
        184---अर्थापत्तौ सर्वत्राऽर्थस्सैव कल्पनमित्यर्थाध्याहारवादपक्षस्य समर्थनम्।

    अभाव परिच्छेदस्य
        185---प्रकरणार्थप्रतिज्ञा।
        186---भाट्टमतेन पूर्व: पक्ष:।
        187---अभावस्य प्रत्यक्षग्रहणाशङ्का-तन्निरासौ।
        188---अनुमानेनाऽभावग्रहणशङ्का-तन्निरासौ। 189---पादविन्यासादिव्यवहारान्यथानुपपत्त्याऽभावस्याऽऽवश्यकत्वकथनम्।
        190---प्राभाकरमतेन सिद्धान्त:।
        191---अभाववादिमतेऽनवस्था स्वमते तदभाव इति निरूपणम्।
        192---सम्भवस्य प्रमाणान्तरत्वनिराकरणम्।
        193---ऐतिह्यलोकप्रतिभानां प्रमाणान्तरत्वनिराकरणम्।
        194---ह्रस्व-दीर्घयो: प्रमाणान्तरत्वशङ्कानिरासौ।
        195---अभावस्याऽधिकरणात्मकत्वे ऋजुविमला-भाष्यपरिशिष्टयोस्संवाद:।
        196---अभावस्याऽधिकरणत्मकत्वे नैयायिकैरुद्भावितानामधिकरणानामानन्त्येनैकस्मिन्नाधाराधेयभावानुपपत्त्या शब्द-गन्ध-रसाभावानामप्रत्यक्षत्वापत्त्या चेति दूषणानां निरास:, तेषां दोषाणां नैयायिकमत एवाऽपादनम्। ज्ञानविशेषात्मकत्वमभावस्याऽभावस्याऽधिकरणात्मकत्वं जगन्मिथ्यात्ववादिनाऽद्वैतिनाऽपि स्वीकार्यं विज्ञानाद्वैतिवादप्रसक्ति:, तन्निरासश्च। खण्डड्डत्ध्;नखण्डड्डत्ध्;खाद्यकारेणोक्तस्य दूषणस्य निराकरणञ्चेति एतेषामर्थानां विस्तरेण प्रतिपादनम्।

    7---विलाञ्जनस्य
        197---प्रकरणार्थप्रतिज्ञा।
        197---वैशेषिकमतेन पूर्व: पक्ष:।
        199---वृद्धव्यवहारस्याऽनादित्वाक्षेप:।
        200---सिद्धान्त:।
        201---वृद्धव्यवहारस्याऽनादित्वसमर्थनम्।
        202---ईश्वरनिराकरणम्।
        203---वेदानामपौरुषेयत्वनिरूपणम्।
        204---ईश्वरविषये मतान्तरप्रदर्शनपूर्वकं भाट्टप्रस्थान-प्राभाकरप्रस्थानयोरीश्वरविषये सम्मति:। तत्रैव सूक्ष्मेक्षिकया स्वाभिप्रायस्य प्रकाशनम्।
        205---ईश्वरानङ्गीकारे नास्तिकत्वशङ्का-परिहार:।

    8---तत्त्वालोकोस्य
        206---प्रकरणार्थप्रतिज्ञा, अत्र सर्वेषां दार्शनिकानां मतोपन्यासश्च।
        207---अत्रैव प्राभाकरसिद्धान्तस्य श्लोकेनोपन्यास:।
        208---विज्ञानवादिमतेन शङ्का-निरासौ।
        209---इन्द्रियात्मवादशङ्का-निरासौ।
        210---देहात्मवादशङ्कानिराकरणे।
        211---तमसो निराकरणम्।
        212---शब्दाश्रयत्वेनाऽऽकाशसिद्धिप्रदर्शनम्।
        213---चार्वाकमतेन शङ्का-निरासौ।
        214---विज्ञानवादिमतेन शङ्का-निरासौ।
        215---अहङ्कारावलम्बनेन देहात्मप्रत्यवस्थान-निराकरणे।
        216---आत्मनि प्रत्यभिज्ञोपन्यास:।
        217---मनस्स्वीकारे प्रमाणोपन्यास:।
        218---शरीरत्रैविध्यनिरूपणम्, उद्भिज्जशरीरनिराकरणणञ्च।
        219---आत्मनि प्रमाणनिरूपणम्।
        220---संवित्तेस्स्वयम्प्रकाशत्वविचार:।
        221---दु:खनिवृत्तिरेव मोक्ष इति स्वमतवर्णनम्।
        222---अविद्यास्तमयो मोक्ष इति ब्रह्मसिद्धिकृतो मण्डड्डत्ध्;नाचार्यस्य मतानुवाद-निरसौ।
        223---आनन्दादिश्रुतिनां स्वमतेन व्याख्या।
        224---स्वमतेन मोक्ष-तत्साधननिरूपणम्।
        225---स्वमतेनाऽत्मनो विभुत्वव्यवस्थापनम्।
        226---आत्मना विभुत्वे भोगसाङ्कर्यशङ्का-समाधाने।
        227---ब्रह्मसिद्धिकारमतेनैकात्मवादे काल्पनिकी सुखदुखादिव्यवस्थेति शङ्कोपन्यासनिरासौ। 228---आत्मनानात्ववादिनां तार्किकाणाम्मतेन सुखदु:खसाक्षात्कारव्यवस्थानुपपत्तिरिति दोषप्रदर्शनपूर्वकं मण्डड्डत्ध्;नमतोपन्यास-निरासौ।
        229---शरीरस्य धर्माधर्मनिबन्धनत्वे शारीरकभाष्यकृताऽन्योन्याश्रयत्वप्रसङ्गेनाऽन्धपरम्परैषाऽनादित्वकल्पनेत्युक्त- दूषणस्य बीजाङ्कुरन्यायेन परिहार:।
        230---आनन्दावाप्तिर्मोक्षा:, अविद्यानिवृत्तिर्वेति अद्वैतवादिनां मतोपन्यासपूर्वकमात्मसमवेताशेषविशेषगुणोच्छित्तिरिति स्वपक्षस्थापनम्। श्लोकवार्तिकस्याऽऽत्मवादोक्तेनाऽर्थेन तन्त्रवार्तिकगतव्याकरणाधिकरणोक्तस्याऽर्थस्य विरोधपरिहारमखेन तयोस्सामञ्जस्योपपादनम्।

    9---न्यायशुद्धे:
        231---शब्दार्थसम्बन्धस्य नित्यत्वप्रतिज्ञा शब्दनित्यत्वस्थापनस्य प्रयोजननिर्देशश्च।
        232---पुरुषप्रयत्नानन्तरमुपलभ्यमानस्य शब्दस्योत्पत्तिपक्ष एव सामञ्जस्यम्, नाऽभिव्यक्तिपक्ष इति पूर्वपक्षप्रतिपादनम्। 233---"संयोगाद्विभागात्, शब्दाद्वा शब्दनिष्पत्ति:, वायुरापद्यते शब्दतामि"ति च मतद्वयोपन्यास-निरासौ। 234---प्रत्यभिज्ञाप्रमाणावलम्बनेन शब्दस्य नित्यत्वसिद्धान्तकथनम्।
        235---शब्दविषये वैयाकरणमतनिरसनपूर्वकं मीमांसकमतानुसारेण शब्दनित्यत्वस्थापनम्।
        236---"उत्पन्नो गकार:""विनष्टो गकार:" इति प्रतीतेध्र्वनिविषयत्वेन शब्दनित्यत्वेऽविरोधोपपादनम्।

    10---मीमांसाजीवरक्षाया:
        237---प्रकरणार्थप्रतिज्ञा।
        238---सौगतमतेन सर्वेषां पदार्थानां क्षणिकत्वोपपादनम्।
        239---एकदेशिमतेन क्षणभङ्गवादनिरास:।
        240---भाट्टमतेन वस्तुनो द्व्यात्मकतोपन्यास:, तन्निरासश्च।
        241---प्राभाकरमतेन जातिव्यक्त्योर्भेदोपन्यास:।
        242---प्राभाकरमतेन क्षणभङ्गवादनिराकरणम्।
        243---सौगतोक्तानां दूषणानां परिहार:।

    11---सवृत्तिकाया वाक्यार्थमातृकाया:
        244---अस्मिन्परिच्छेदे धात्वर्थमुख्यविशेष्यकशाब्दबोधवादिनां वैयाकरणानां भावनामुख्यविशेष्यकशाब्दबोधवादिनां भाट्टानाञ्च मतं निराकृत्य, नियोगापरपर्यायकार्यमुख्यविशेष्यकशाब्दबोधस्य निरूपणम्।
        245---प्राभाकरमतस्य सोपपत्तिकमुपन्यास:, निरवयवं वाक्यं निरवयवस्य वाक्यार्थस्य वाचकम् वाक्यान्त्यवर्ण एव वाक्यार्थस्य बोधक:, स्मृत्यारूढ़मेव वाक्यं वाक्यार्थं प्रतिपादयतीति मतत्रयस्योपन्यास:
        246---तन्निरास:।
        247---अन्विताभिधानवादस्योपक्षेप:।
        248---अन्विताभिधानवादानुपपत्तिशङ्का।
        249---तन्निरास:।
        250---"पदानि हि स्वं स्वमर्थमभिधान निवृत्तव्यापाराणि, इदानीमवगतास्सन्तो वाक्यार्थमवगमयन्ती"ति वाक्याधिकरणगतभाष्यसन्दर्भस्य स्वमतानुसारेण व्याख्यानम्।
        251---अत्र वार्तिकानुसारिणं केषाञ्चिन्मतेन शङ्का।
        252---तन्निरास:।
        243---आकाङ्क्षाविषये न्यायमतोपन्यास-निरासौ।
        254---स्वमतेनाऽऽकाङ्क्षानिरूपणम्।
        255---सन्निधिनिरूपणम्।
        256---योग्यतानिरूपणम्।
        257---योग्यताविषये मतान्तरोपन्यास-निरासौ।
        258---अभिहितान्वयवादं परित्यज्याऽन्विताभिधानवादस्वीकारे को हेतुरित्याक्षेप:।
        259---तन्निरास:
        260---अत्राऽऽकाङ्क्षा-योग्यता-सन्निधिमन्त: पदार्था वाक्यार्थीभवन्ति, न पुनर्वाक्यार्थमेव बोधयन्तीतिमतोपन्यास-निरासौ 261---अभिहितान्वयवादे शक्तिकल्पनाप्रयुक्तगौरवम्, अन्विताभिधानवादे तु लाघवमिति निरूपणम्।
        262---वाक्यार्थविषये कुमारिलभट्टमतोपन्यास:। अत्र पदार्था एव वाक्यार्थीभवन्तीत्येकं मतम्, अनन्वितावस्था हि पदार्था पदेनाऽभिहिता अन्वितावस्थां स्वसम्बन्धिनीं लक्षयतीति मतद्वयं निरस्य, वाक्यतात्पर्यानुपपत्त्या पदोपस्थापितै: पदार्थैर्वाक्यार्थो लक्ष्यते, "वाक्यार्थो लक्ष्यमाणो हि"इति न्यायात्।
        263---अस्मिन्विषये "सृष्टीरुपदधाति""पौर्णमासीं यजते""निषादस्थपति-रथघोष-मेधपत्यग्नीषोमाणां लक्षणकत्वप्रदर्शनम्। 264---गुरुमतेन लक्षणानिरूपणम्।
        265---पदानामन्वितार्थप्रतिपादने शक्तिस्वीकारश्श्रेयानिति प्रदर्शनम्।
        266---अन्विताभिधानेऽन्योन्याश्रयदोषशङ्का-परिहारौ।
        267---अधिकरणापरपर्यायेण न्यायेनैव वाक्यार्थनिर्धारणं भवत्यतो मीमांसाया इतिकर्तव्यतास्थानीयत्वम्। 268---एकवाक्यत्वसम्भवे वाक्यभेदोऽन्याय:, तदर्थं बहूनां स्थलानामुदाहरणप्रदर्शनम्।
        269---वाक्यार्थनिर्णये मीमांसाशास्त्रेण प्रतिपादिता न्याया अवश्यमादर्तव्या:, तैरेव वाक्यार्थप्रसङ्ग आपतन्तीनामनुपपत्तीनां निरास इत्युपपादनम्।
        270---अन्वितार्थाभिधायकानां पदानामेवाऽन्वयाभिधायकता जातिशक्तेव्र्यक्त्यभिधानमिवेति निरूपणम्।
        271---अत्रैव सिंहावलोकनन्यायेन वाक्याधिकरणगतभाष्याक्षराणो योजनम्।
        272---अभिहितसामान्यान्वयो विशेषान्वयमाक्षेप्स्यतीति प्रतिपादनम्।
        273---निरवयवं वाक्यं, वाक्यान्त्यवर्ण:, स्मृत्यारूढं पदकदम्बकम्प्रथमं पदम्, आख्यातपदमात्रम्, अनन्विता:, पदार्था वा, वाक्यार्थबोधनेऽसमर्था:, किन्तु पदान्येवाऽन्वयापरपर्यायवाक्यार्थबोधने समर्थानीति प्राकरणिकार्थोपसंहार:।
        274---वर्णातिरिक्तश्शब्द इति मतं निराकृत्याऽऽनुपूर्वीमन्तो वर्णा एव शब्द:, आनुपूर्वीमन्ति पदानि वाक्यमिति स्वसिद्धान्त कथनम्।
        275---समस्तवर्णविषया बुद्धि:, तस्या: प्रकारद्वयम्-सद्रूपान्त्यवर्णप्रत्यक्षम्, पूर्वेषु वर्णेषु स्मृतिरूपमिति स्मृत्यनुभवरूपा विचित्रा बुद्धिरर्थप्रतीतिहेतुरिति केषाञ्चिन्मतम्, सर्वंवर्णविषया स्मृतिरर्थप्रतीतिहेतुरित्यपरं मतम्। अस्मिन्पक्षद्वये चरमपक्ष एव शालिकाचार्येण स्वीकृतस्समर्थितश्चेति निरूपणम्।

    द्वितीयपरिच्छेदस्य
        276---कार्यविषये पूर्व: पक्ष:।
        277---तत्र सिद्धान्तनिरूपणम्।
        278---शब्द-तद्व्यापारयोर्भावनात्वशङ्का-निरासौ। 279---कुमारिलभट्टसम्मतायाश्शाब्दभावनायास्तन्त्रवार्तिकेऽर्थवादाधिकरणेंऽशत्रयविशिष्टायां उपन्यास:।
        280---तन्निरास:।
        281---पुरुषप्रवृत्तेस्साध्यत्वोपक्षेपप्रतिक्षेपौ।
        282---प्राशस्त्यज्ञानस्येतिकर्तव्यतात्वनिरास:।
        284---वार्तिकोक्तस्य दर्विहोमन्यायस्य दृष्टान्ताभावत्वप्रतिपादनम्।
        285---आख्यातानां भावनावाचित्वशङ्का-तन्निरासौ।
        286---आख्यातस्य व्यापारवाचित्वमिति पक्षस्य निराकरणम्।
        287---कार्याभिधायिनामेव लिङादीनां कृतिवाचित्वमतो देवदत्त: पाकं करोतीतृयत्राऽऽख्यातं कर्तृसंख्यां वक्ति, इति स्वसिद्धान्तकथनम्।
        288---मण्डड्डत्ध्;नमिश्रेण भावनाविवेके प्रकृत्यर्थातिरिक्त: प्रयत्न आख्यातार्थ इत्युक्तस्याऽनुवाद-निरासौ।
        289---कार्यवाचिनामेव लिङादीनां कृतिवाचित्वनिरूपणम्, दण्डिड्डत्ध्;न्यायस्य प्रकृतेऽप्रवृत्तिरिति कथनञ्च।
        290---प्रवृतिं्त प्रति कार्यताज्ञानं कारणमिति मतस्योपक्षेप:।
        291---इष्टसाधनत्वम्विद्ध्यर्थ इति ब्रह्मसिद्धि-विधिविवेकाद्यवलम्बनेनेष्टसाधनताज्ञानस्यैव प्रवर्तकत्वमिति मण्डड्डत्ध्;नमिरमतेन पूर्वपक्ष:।
        292---इष्टसाधनत्व-कृतिसाध्यत्वयोर्भेदेन कृतिसाध्यत्वेनाऽन्यथासिद्धत्वादिष्टसाधनत्वस्य न प्रवृतिं्त प्रति हेतुत्वमत: कार्यमेव विध्यर्थ:, "अनन्यलभ्य: शब्दार्थ" इति न्यायात्।
        293---प्रेष्यादिभेदेनाऽऽमन्त्रणादीनां भेदेऽपि कार्यत्वस्यानुगतत्वेन कार्यमेव लिङर्थ इति निरूपणम्। 294---कार्यस्वयपपरिष्करणम्।
        295---वेदवाक्यविमर्शेनाऽलौकिकार्ये नियोगापरपर्यायेशक्तिग्रहस्स्वर्गकामपदसमभिव्याहारात्।
        296---कामनायोगात्स्वर्गादीनां साध्यतेति वादिनो मण्डड्डत्ध्;नमिश्रस्य मतोपन्यास:।
        297---स्वर्गकामपदस्य न कर्तृपरत्वमपि तु नियोज्यपरत्वमिति प्रतिपादनमुखेन मण्डड्डत्ध्;नमिश्रमतस्य निरास:।
        298---स्वर्गशब्द: प्रीतिमात्रवाची, दण्डिड्डत्ध्;न्यायेन प्रीतिमात्रवाचित्वमिति भावनाविवेके मण्डड्डत्ध्;नमिश्रेणोक्तस्याऽनुवाद-तन्निरासौ। 299---यागस्य शक्तिरवान्तरव्यापारो वेति वार्तिकमतोपन्यास-निरासौ।
        300---देवताप्रसादस्य फलप्रयोजकत्वशङ्का।
        301---तन्निरास:।
        302---देवताप्रसादस्य फलप्रयोजकत्वाभ्युपगमे कार्यतावच्छेदक-कारणतावच्छेदक- सम्बन्धकल्पनाप्रयुक्तगौरवम्, देवताविग्रहादिपञ्चकनिराकरणपरस्य भाष्यस्य कर्मण: प्राधानयप्रतिपादने तात्पर्यम्, प्राभाकरमते तु नियोगापरपर्यायकार्यप्राधान्ये तात्पर्यमिति नावमिकदेवताधिकरणतात्पर्यवर्णनम्।
        303---यागस्य पुरुषसंस्कारकत्वशङ्का-निरासौ।
        304---क्रियाकार्यत्वशङ्का-निरासौ।
        305---कार्यं लिङादिवाच्यमिति स्वमतनिरूपणम्।
        306---गुरुमतसिद्धान्तरहस्यवर्णनम्।
        307---स्वर्गकामस्यैव लिङर्थकार्ये नियोज्यत्वेनाऽन्वय:, अत: सर्वत्र वाक्ये विषयनियोज्यान्वितं कार्यमेव वाक्यार्थ इति प्रतिपादनम्।
        308---नियोज्यान्विताभिधानं प्रायिकमिति कथनम्।
        309---प्रयाजादिषु नियोगान्तराभ्युपगमोपन्यास:।
        310---नियोगस्य स्वर्गादिकं भावयतो गुणत्वमाशङक्य, गर्भदासदृष्टान्तेन तन्निराकरणम्।
        311---विषयानुष्ठितौ सिध्यन्विधि: फलोत्पत्तौ सहकारिणमपेक्षत इति कथनम्।
        312---नित्यादिषु नियोगानभिधानशङ्का-परिहारौ।
        313---क्रियैव कार्यमिति पूर्वपक्षोपन्यास, निरासौ।
        314---अलौकिककार्ये शक्ति:, लौकिके क्रियाकार्ये लक्षणेति प्रतिपादनम्।

    12---विषयकरणीयस्य
        315---विषयकरणीये कार्ये धात्वर्थस्य विषयत्वेन करणत्वेनचान्वय इति निरूपणम्।
        316---विषयत्वेनैवाऽन्वितस्य धात्वर्थस्य करणत्वेनाऽन्वय:।
        327---सिंहावलोकनन्यायेन सर्वाख्यातेषु भावनाभिधानोपन्यास-निरासौ।

    13---अङ्गपरायणे प्रथमपरिच्छेदस्य
        318---सन्निपत्त्योपकारकस्याऽङ्गस्य चातुर्विध्यं तल्लक्षणं तदुताहरणञ्च।
        319---सन्निपत्त्योपकारकाङ्गविषये भाट्ट-प्राभाकरप्रस्थानयोर्विभागे वैषम्यप्रदर्शनम्।
        320---सन्निपत्त्योपकारकाङ्गवाक्येषु पृथग्विधीनभ्युपगच्छतां भाट्टमीमांसकानां शङ्का।
        321---सन्निपत्त्योपकारकस्थले सन्निपत्त्योपकारकाङ्गानां ग्राहकग्रहणात्प्रधानवाक्यार्थस्य नियोगस्यैव तत्राऽनुवाद इति कथनेन पूर्वोक्तशङ्कानिरास:, तदुपोद्बलकतया टीकाकारस्य वचनोपन्यासश्च।
        322---अवघातादीनां नियोगविषयत्वशङ्का-निरासौ।
        323---सन्निधानविषये शङ्का-निरासौ।
        324---अवघातादिष्ववान्तरापूर्वपङ्गीकुर्वतां भाट्टमीमांसकानाम्मतोपन्यास-निरासौ।
        325---स्वमतेन श्रुत्यादीनां विनियोगविधिसहकारित्वेनाऽभिमतानां स्वमतेनाऽविनियोजकत्वकथनम्।
        326---"न चाऽविहितमङ्गं भवति" इति कत्र्रधिकरणस्थभाष्यस्य "पुरुषप्रयत्नश्रवणमनुवाद" इति जञ्जभ्यमानाधिकरणगतस्य प्रतीयमानो विरोधो भाट्टमते दुष्परिहर:, स्वमते सुपरिहर इत्यादि विवेचनम्।
        327---द्वितीयार्थविवेचनम्, शेषित्वं द्वितीयार्थ इति मतस्य निराकरणम्।
        328---लिङ्गवाक्ययोरुदाहरणोपन्यास:, सन्निपत्त्योपकारकाणाँ प्रकरणविनियोजकत्वाभावकथनम्। 329---प्रकरण-स्थान-समाख्यानांसंनिपातिषु विनियोजकत्वाभावकथनम्, अभिधानेनग्राहकैदमथ्र्यम्, विनियोगेन कारकैदमथ्र्यम्, उपादानेनाऽधिकारनियोगकरणीभूतयागाद्यैदमथ्र्यमिनेत्यादि- विशेषमुखोपन्यासेन।
        330---सन्निपातिनामङ्गानामारादुपकारकत्वशङ्का-निरासौ।

    द्वितीयपरिच्छेदस्य
        331---अदृष्टप्रयोजन-दृष्टादृष्टप्रयोजनभेदेनाऽऽरादुपकारकस्य द्वैविध्योपन्यास:।
        332---आरादुपकारविषये एकदेशिनाम्मतोपन्यास:।
        333---एकदेशिमतनिरास:।
        334---अवान्तरापूर्वापढद्धठ्ठड़14;नवशङ्का-परिहारौ।
        335---दीक्षणीयादिष्ववान्तरापूर्वाक्षेप-समाधाने।
        336---भाट्टमतेनाऽवान्तरप्रकरणोपक्षेप:।
        337---स्वमतेनाऽवान्तरप्रकरणनिरासश्च।
        338---प्रयाजादिषु सौमिकविध्यन्तातिदेशशङ्का-निरासौ।
        339---प्रयाजादिषु स्वारसिक्या इतिकर्तव्यताकाङ्क्षाया असम्भवेऽपि लिङ्गरूपकारणा- न्तरसमुत्थयाऽपूर्वकल्पनोपपादनम्।
        340---प्रयाजादीनां विकल्पशङ्का-परिहारौ।
        341---प्रयाजादिष्वव्यक्तत्वसादृश्यात् सौमिकधर्मातिदेश इत्याशङ्क्य निराकरणम्।
        342---आश्रयिकर्मविषये भाट्टमतेन शङ्का।
        343---प्राभाकरमतेन समाधानम्।
        344---उत्पन्नकर्मगतसंख्याऽभ्यासापादिकेति निरूपणम्।
        345---"पशुना यजेते"त्यत्र पशुगतमेकत्वं समानाभिधानश्रुत्या कारकाङ्गं समानपदश्रुत्या पश्वङ्गमिति भाट्टसिद्धानतं निरस्य, स्वमतेन तस्यौपादानिकाङ्गत्वनिरूपणम्।
        346---उपादानाख्यप्रमाणस्य विषयोपन्यास:।
        347---विवरणमतेन क्रमस्याऽनभिधानोपन्यास:। निबन्धनमतेन क्रमस्याऽनभिधानेऽपि प्रयोगविधिनाऽपेक्षितत्वाद्ग्रहणमित्याद्युपन्यास:। अत्रैव विवरण-निबन्धनयो: प्रभाकरमिश्रप्रणीतत्वम्, क्रमविचारस्याऽऽनर्थक्यपूर्वपक्षोर्थवत्वेन सिद्धान्त इत्याद्युपन्यास:, अर्थादिषु क्रमो नाभिधीयत इति कथनञ्च। 348---क्रमस्य चोदनालक्षणत्वाक्षेप-समाधाने।
        349---यथाविनियोगमधिकार इति तिर्यगधिकरणसिद्धान्तोपन्यासेन पूर्वोंत्तराङ्गविशि- ष्टप्रधानयागविषयककार्यानुष्ठानसमर्थस्याऽधिकार:।
        350---अन्धादीनामनधिकार:, अशक्तानामङ्गवैकल्यसमाधानेन, अद्रव्याणां द्रव्यार्जनेन चाऽधिकारवर्णनम्, नित्यकर्मस्वङ्गविषये यथाशक्तिन्यायोपन्यासश्च।
        351---नैमित्तिकानामनुष्ठानं कादाचित्कं, प्रतिनिमित्तं नैमित्तिकस्याऽऽवृत्तिरित्युपन्यासश्च। 352---कार्यप्रमेयनिरूपणम्।
        353---भाट्टाभिमतानुमानोपमानयोरतिदेशाहेतुत्वनिरूपणम्, लिङादिना प्राकृतोपकारस्याऽभिधानञ्च। 354---विकृतावुपकारस्यौपदेशिकत्वोपन्यास:। उपकार इव पदार्थस्याऽतिदेश: स्वमतो- पन्यासेनोपकारपृष्ठभावेन पदार्थानामतिदेश इति भाट्टमतनिराकरणम्।
        355---उपकारस्य प्राकृतपदार्थोपस्थापकत्वनिरूपणम्। ऊहस्य शाब्दत्वनिरूपणम्।
        356---प्रसङ्गनिरूपणम्।
        357---भाट्टसम्मतस्याऽप्राप्तबाध-प्राप्तबाधभेदेन द्विविधस्य बाधस्योपन्यास:, तन्निराश्च। प्राभाकरमतेनाऽलिङ्गे लिङ्गव्यवहारप्रवर्तनेन तार्तीयस्य, चोदकेन तद्वद्भावेन च प्रापितानामङ्गानामबाधिताङ्गभावानामनुष्ठानलक्षणव्यवहारबाधनेन बाधव्यवहारोपपत्ते:, तार्तीय-दाशमिकयो: प्राप्तबाधाऽप्राप्तबाधविषयत्वेन भाट्टसम्मता व्यवस्था न घटत इत्यत्र निबन्धनटीकाया: प्रमाणत्वेनाऽवतारणम्। "अथ यत्र यत्रेत्यादे: तन्मिथ्या"इत्यन्तस्य श्रुतिलिङ्गाधिकरणोपसंहारगतस्य शाबरभाष्यस्योपरि वार्तिकेनोक्तस्य दूषणस्य तत्परिहारस्य च वार्तिककारीयस्य निरास:। प्रसङ्गेना "ऽत्रेदमुपदेशबाधविदोऽभिदधति" इत्यादिनिबन्धनटीकायास्त द्व्याख्याया ऋजुविमलाया निर्देश:। अत्रोपदेशबाधवित्पदेन शास्त्रदीपिकागतेन प्रभाकरमिश्रस्य ग्रहणमित्याशयस्य सोमनाथीयावलम्बनेन प्रदर्शनं स्वमतोपसंहारश्च।

    14---अतिदेशपारायणस्य
        358---प्रकरणार्थप्रतिज्ञा
        359---स्वसिद्धान्तस्योपन्यास:
        360---प्रकृति-विकृत्योर्विशेषोपन्यास:
        361---अतिदेशलक्षणम्
        362---एकदेशिमतेन दशमाद्यविरोधशङ्का
        363---तन्निरास:
        364---स्वमतेन दशमाद्यविरोधोपन्यास:
        365---स्वमतेन दशमाद्यसिद्धान्तवर्णनम्
        366---अन्यधर्माणामन्यधर्मत्वशङ्का-निरासौ
        367---भाट्टमतेऽनुपपत्त्युपन्यास:
        368---स्वमतेनोपपत्तिप्रदर्शंनम्
        369---स्वमतेनोपदेशशब्दार्थोपन्यास:, प्राकृतिविकृत्योविशेषकथनञ्च
        370---स्वमतोपन्यास:, उपदेशातिदेशयोभिन्नविषयत्बवादिभाट्टमते दोषोद्भावनम्
        371---स्मते पूर्वोक्तदोषाभाववर्णनम्, स्वमतेनोपदेशातिदेशयोर्विषपनिर्दैशश्च
        372---उपकारवत्पदार्थानामुपदिष्टत्वशङ्का, तन्निरासश्च

शास्त्रमुखं नाम प्रथमं प्रकरणम् सम्पाद्यताम्

प्रकरणार्थप्रतिज्ञा
स्वाध्यायविधिवाक्यार्थविचारे प्रयतामहे। प्रभाकरगुरोर्दृष्ट्या मीमांसारम्भसिद्धये ।। 1 ।।
भाट्टमतेन मीमांसाशास्त्रानारम्भपूर्वपक्ष:
अत्र केचिदाचक्षते - न मीमांसाशास्त्रमारम्भणीयमिति। तद्धि वेदवाक्यार्थविचारोपायभूतन्यायनिबन्धनम्। न च वेदवाक्यार्थो विचार्योऽस्ति, यो विचारस्य विषयभूत:। नाप्यसौ विचार्य निर्णीत: प्रयोजनमवकल्पते, अपुरुषार्थत्वात्। पुरुषार्थत्वे हि तस्य चोदनैव प्रमाणं स्यात्। न चाविवक्षितार्था सा प्रमाणं भवितुमर्हति। ननु शब्दानामौत्पत्तिकत्वादर्थपरत्वस्य नाऽविवक्षितार्थता युक्ता। सत्यमेवम्। वेदेनैव त्वन्यपरतामवगमयताऽविवक्षितार्थताऽऽपद्यमाना न शक्या वारयितुम्। तथाहि- स्वाध्यायोऽध्येतव्य इत्यत्र परप्रेरणात्मकविध्यवरुद्धा भावना तव्यप्रत्ययवाच्या प्रतीयते। सा च स्वभावतो भाव्यं करणमितिकर्तव्यताञ्चापेक्षते। तत्र1 न तावदध्ययनमेव समानपदोपात्तं भाव्यतया सम्बन्धमर्हति, अपुरुषार्थत्वात्। तस्मिन् हि भाव्यतया स्वीक्रियमाणे पुरुषप्रवृत्त्यनुपपत्ते: परप्रेरणात्मकविधिव्यापारभङ्गप्रसङ्गात्। नाप्येकवाक्यतया समभिव्याढिद्धठ्ठड़14;वयमाणस्य स्वाध्यायस्य भाव्यतया सम्बन्धोऽवकल्पते, विध्यानर्थक्यप्रसङ्गात्। अन्तरेणापि हि विधिं प्रतीयत एवाध्ययनेन स्वाध्यायोऽवाप्यत इति। न च व्रीहीनवहन्तीतिवन्नियमार्थो विधिरिति शक्यते वक्तुम्, अक्रत्वर्थत्वादध्ययनस्य। न खल्वध्ययनस्य हि क्रतावेव नियम्यन्ते, न तण्डुड्डत्ध्;लादिस्वरूपे। अवधातेनैव सम्पादितैस्तण्डुड्डत्ध्;लै: क्रतुफलसिद्धिरिति प्रमाणान्तरस्याविषयत्वात्तेनैव सिद्धिरिति न किंचिद्विरुद्धम्। स्वाध्यायस्वरूपग्रहणं त्वध्ययनेनैव सिध्यतीति नियम्यमानं मानान्तरविरुद्धम्, स्वयमनधीयानस्यापि परपुरुषाधीयमानस्वाध्यायग्रहणदर्शनात्। न चाध्ययनस्वीकृतेनैव स्वाध्यायेन क्रतुफलभावनासिद्धिरिति अक्रत्वर्थतया क्रतुसंस्पर्शाभावेन नियमानुपपत्तेरिति। एतेनैवार्थावबोधस्यापि भाव्यतया सम्बन्धो निरस्तो वेदितव्य:। तथा हि---यद्यप्यधीतात्स्वाध्यायात्फलवत्कर्मावबोधो दृश्यत इति तस्यैव भाव्यताऽवसीयते, तथापि विनापि विधिनाऽन्वयव्यतिरेकाभ्यामध्ययनस्यार्थावबोधसाधनत्वावमाद्विधिरनर्थक एव। न चाध्ययनेनैवार्थावबोधो भावयितव्य इति नियमविधेरर्थवत्ता, प्रकारान्तरेणापि तत्संभवान्नियमानुपपत्ते:। न चाध्ययनेनैवार्थमवबुध्यानुतिष्ठतां क्रतुफलभावनासिद्धिरिति नियम: संभवति, अक्रत्वर्थत्वादध्ययनस्य। 2तस्माद्विश्वजिन्न्यायेन स्वर्गे एव भाव्यतया कल्पयितव्ये प्राप्ते फलमात्रेयो3 न#िद्र्देशादित्यर्थवादिकमधुघृतकुल्यादितृप्तपित्रादिप्रसादलभ्यसर्वकामफपलावाप्तिरेव भाव्यतयाऽवसीयते। नन्वाद्याध्ययने न किंचिदार्थवादिकं फलं श्रूयते, तत्रैषामर्थवादानामश्रवणात्। धारणजपयज्ञविध्यर्थवादा ह्येते। तदाहुर्वार्तिककारमिश्रा:--- "4आद्ये त्वध्ययने नैव काचिदस्ति फलश्रुति:। धारणे जपयज्ञे च या साऽप्येवं निवारिता" ।। इति ।। सत्यमेवम्, तथापि तेषामतिदेशतोऽपि लब्धेर्युक्तैव तदीयफलस्य भाव्यता। तथा हि5 --- 6लिङादियुक्तेषु वाक्येषु द्वे भावनेऽवगम्येते, शब्दभावनाऽर्थभावना चेति। तत्र शब्दभावना परप्रेरणात्मिका। तस्या: पुरुषप्रवृत्तिर्भाव्यम्7। तया च प्रेरणया सह यो लिङादीनां वाच्यवाचकभाव: सम्बन्ध:, स तत्र योग्यतया करणम्। तदाहुर्वार्तिककारमिश्रा:---"लिङादयो हि प्रेरणां कुर्वन्त्यभिदधति चेति" झ्र्तन्त्रवा0 1. 2. 1.ट। प्रवत्र्यरुच्युत्पादनयोग्यतया चार्थवादिकी स्तुतिरितिकर्तव्यता। तदेवमध्ययनविधौ साक्षादश्रुतार्थवादके शब्दभावनाय#ामितिकर्तव्यताभूतार्थवादाकाङ्क्षिण्यां जपयज्ञाऽध्ययनादतिदेशेनाऽर्थवादा: स्वीक्रियन्ते। तदाहुर्वार्तिककारमिश्रा:---"अनुषङ्गानुमानाद्यैर्लभ्यन्तेऽन्येऽतिदेशत:" इति। ते चातिदिष्टा अर्थवादा अर्थभावनायां फलं समर्पयन्ति रात्रिसत्रवत्। एवमार्थवादिके फले भाव्यतयाऽवसितेऽध्ययनं समानपदोपात्तं करणाकाङ्क्षापरिपूरकत्वेन संबध्यते। एवञ्च 8यदैकस्मादपूर्वं तदेतरत्तदर्थमिति न्यायेन स्वाध्यायशब्दवाच्योऽक्षरराशिरप्यध्ययननिर्वृत्त्यर्थ एवावसीयते। एवञ्चान्यपरत्वादक्षराणां तेभ्योऽर्थप्रतिपत्तिरेवानुपपन्ना, व्युत्पत#्तिविरहात्। वृद्धव्यवहारे ह्यनन्यपराण्येवाक्षराण्यर्थावबोधकतया व्युत्पन्नानि। व्युत्पत्त्यपेक्षश्च शब्दोऽर्थावबोधक:। य: पुनरन्यपरेभ्योऽप्यक्षरेभ्योऽर्थावगम:।, स सामान्यतोदृष्टनिबन्धनानन्यपरत्वभ्रान्त्या भ्रान्तिरेवेति मन्तव्यम्। अप्रतीयमानश्चार्थो न व#िचारस्य विषय:, नापि प्रयोजनमिति विचारस्तावन्नारब्धव्य:, तदनारम्भे च तदपायभूतन्यायपरिज्ञानमप्यनुपयोगि। तदनुपयोगे च तन्निबन्धनं मीमांसाशात्रमनारम्भणीयमिति पूर्व: पक्ष:।। भाट्टमतेन मीमांसारम्भसमर्थनम्--- राद्धान्तस्तु स्वाध्यायोऽध्येतव्य इति स्वाध्यायस्य 9कर्मत्वावगमात्स एव भाव्यतयाऽवसीयते। यद्यपि नित्यत्वान्निर्वत्त्र्यकर्मता नास्ति स्वाध्यायस्य, विकार्यकर्मता वा, अध्ययनेन तस्य विकारानुपपत्ते:, तथापि प्राप्यतया तस्य कर्मता नानुपपन्ना। अत एव प्राप्यकर्मोदाहरणं वृत्तिकारस्य वेदाध्ययनम्। यच्च कर्म, तदर्थैव क्रिया युक्ता। सोऽयं श्रौतो विनयोग:। न च स्वाध्यायस्य सक्तुवच्छेषित्वमनुपपन्नम्, फलवदर्थावबोधोपयोगित्वात्। यद्यपि चार्थावबोधोपयोगित्वमध्ययनात्प्राङ्नावगम्यते, तथापि पश्चाद्भाव्यपि भवत्येव प्रयोजनम्। भाविनापि चोपयोगेन शेषित्वं नानुपपन्नम्, अग्निवत्। उत्पन्नानां ह्यग्नीनां विनियोगावगम:, न#ावगतविनियोगानामुत्पत्ति:। आहवनीयादिशब्दानामलौकिकार्थतया प्राग्व्युत्पत्त्यवगमादर्थानवगते: होमादिषु विनियोगासंभवात्। तथा चोक्तम्---"भूतभाव्युपयोगं हि द्रव्यं संस्कारमर्हति।"झ्र्झ्र्तन्त्रावा0 2. 1. 4.ट ननु चार्थावबोधोपयोगितया संस्कारविधिरनर्थक एवेत्युक्तम् इति। नानर्थक:, नियमार्थतयाऽर्थवत्त्वात्। ननु च नियमो न सम्भवति, अप्रतुसंस्पर्शित्वादित्क्तम्। तन्न सम्भवति स्वाभाविकार्थपरत्वानुसारेण क्रत्वनुप्रवेशे क्रतुसंस्पर्शिताया एवोचितत्वात्। यदि खल्वध्ययनविधे: क्रत्वनुप्रवेशिता नाश्रीयते, तदा शब्दानां वृद्धव्यवहारव्युत्पन्नानां स्वाभाविकार्थपरता हीयेत। जहत्स्वार्थत्वं च न न्याय्यमिति क्रतुफलभावनानुप्रवेश्येवाध्ययनसंस्कारो युक्त:। तत्र कर्मविधिष्वेवं नियमवर्णना अध्ययनाविर्भावितैरेव कर्मविधिभिरर्थमवबुध्यानुतिष्ठतां क्रतुफलभावनासिद्धिरिति। अर्थवादेषु त्वध्ययनाविर्भावितार्थवादप्ररोचिता: क्रियमाणा: क्रतव: फलभावनाय अलमिति। मन्त्रेषु पुनरध्ययनपरिगृहीतैरेव मन्त्रै: क्रतुषु पदार्थस्मरणं फलभावनाङ्गमिति। अध्ययननियमाश#्रितश्च कालनियमो व्रतादिनियमश्च। "श्रावण्यां प्रौष्ठपद्यां वा उपाकृत्य यथाविधि। युक्तश्छन्दांस्यधीयीत मासान्विप्रोऽर्धपञ्चमान्।।" झ्र्मनु. अ. 2, श्लो. 2,49,11ट "भवत्पूर्व चरेद्भैक्षमुपनीतो द्विजोत्तम:। भवन्मध्यं तु राजन्यो वैश्यस्तु भवदुत्तरम्।।" झ्र्मनु. अ. 2, श्लो. 2, 49, 11ट इति। एवञ्चानन्यपरत्वादक्षराणां फलवत्कर्मावबोधोत्पत्तेर्विचारस्य विषयप्रयोजनलाभाच्छास्त्रस्यारम्भणीयत्वम्, विषयप्रयोजनलाभे च विचारस्याध्ययनानन्तरमुपनिपतितत्वाद् गुरुकुलस्थितेरर्थवत्त्वात्तन्निवृत्तिमध्ययनानन्तरप्राप्तां स्मरद् "वेदमधीत्य स्नायाद्"इति स्मृतिवचनमपन्यायमूलं दर्शयन्नर्थावबोधपरतया स्वाध्यायस्य विवक्षितार्थतां मन्यमान: सूत्रकारो विचारस्य विषयं प्रयोजनं चाह "अथातो धर्मजिज्ञासा" झ्र्पू0मी0 1.1.1ट इति। एतच्च व्याख्यातम्--- "अथातो धर्मजिज्ञासासूत्रमाद्यमिदं कृतम् धर्माख्यं विषयं वक्तुं मीमांसाया: प्रयोजनम् ।।" झ्र्मीमांसाश्लोकवार्तिकम् 1. 1. 11.ट इति बहुरोपि 10तदयुक्तम्। न हि लिङादियुक्तवाक्येषु भावना भाव्यान्तरमपेक्षते, अपूर्वस्य भाव्यस्य स्वशब्देनाभिहितत्वात्। लिङादयो हि भाव्यकोटिनिविष्टप्रधानभूतापूर्वोपसर्जनतापन्नामेव भावनामभिदधतीति 11विषयकरणीये निपुणतरमुपपादितम्। अतो न पूर्वपक्षे भाव्याकाङ्क्षायामार#्थवादिकफलसम्बन्ध:। नापि सिद्धान्ते स्वाध्यायस्य साध्यतयान्वय:। कथं तर्हि विश्वजिदादिषु स्वर्गादिफलकल्पनम्? यथा तत्तथा निशम्यताम्--- यदपूर्व कार्यभूतं प्रतीयते तद् विषयत्वेन सम्बद्धकरणीभूतयागाद्यनुष्ठानाधीनात्मलाभम्। 12न च विना कत्र्रा तदनुष्ठानोपपत्ति:। नचाधिकारं विना कर्तृत्वलाभ:। नच नियोज्यमन्तरेणाधिकारसिद्धि:। न वाऽविशिष्टो नियोज्योऽवकल्पत इति विशेषणभावेन स्वर्गकामना परिकल्प्यते। स्वर्गकामना चेन्नियोज्यविशेषणं ततोऽग्निहोत्रादिवत् स्वर्गस्यापि नियोगत: सिद्धिरिति। भवत्वेवम्, अत्रापि तर्हि नियोज्यविशेषणतयैवार्थवादिकं फलं रात्रिसत्रवत्सम्बध्यताम्। न। अन्यतोऽनुष्ठानसिद्धे:। कुतोऽन्यत:? आचार्यकरणविधिप्रयुक्ते:। क: पुनराचार्यकरणविधि:? "उपनीय तु य: शिष्यं वेदमध्यापयेत् द्विज:। सकल्पं सरहस्य च तमाचार्यं प्रचक्षते"।। झ्र्मनु: 2. 140ट इति स्मरणानुमित: शिष्यमुपनीय वेदाध्यापनेनाचार्यकं भावेयदित्येवंरूप: अलौकिकञ्चाहवनीयादिवदाचार्यकमिति तन्निष्पत्त्युपायविधानं युक्तमेव। तत्रार्थादाचार्यीबुभूषत एवाधिकारो धनार्जननियमवत्। तत्र शिष्यं प्रति विहिततद्धिताचरणदक्षिणादानदर्शनात्तल्लिप्सोरेवाचार्यभवनेच्छा। यथा दीक्षणीयया दीक्षितत्वसिद्धि:, तथा वेदाध्यापनेनाचार्यत्वसिद्धि:। उपनयनं च क्त्वाप्रत्ययेनाध्यापनसमानकर्तृकमवगम्यमानमेकप्रयोगतया विना समानकर्तृकत्वासम्भवादङ्गाङ्गिभावेन च विना एकप्रयोगत्वानुपपत्तेराचार्यकभावनाकरणीभूतमध्यापनं प्रत्यङ्गत्वेनावतिष्ठते। तदाश्रित "श्चाष्टवर्षब्राह्मणमुपनयीते"त्यादिनियम:। उपनयनं न स्वभावत उपनेयासत्तिप्रयोजनकमिति तद्द्वारेणैव तस्याङ्गम्। न चाध्यापनं प्रत्यनुपयोगिन उपनेयस्यासत्तिरध्यापनोपयोगिनीत्युपनेयस्य कर्मापेक्षायामुपनयनं प्रक्रम्य "स्वाध्यायोऽध्येतव्य" इत्यध्ययनं विधीयमानमुपनेयस्य कर्मेत्यवगम्यते। अध्ययनं चाध्यापनोपयोगीति। सद्धिमेतत्। 13तेन स्वाध्यायमध्येष्यमाणस्य माणवकस्योपनयनम 14ध्यापनाङ्गमित्यध्यापनविधि: स्वाङ्गभूतमुपनयनं प्रयुञ्जानस्तस्यान्यत्रानुपपत्त्याऽध्ययनमपि प्रयुङ्क्ते।तत्प्रयुक्ताध्ययननिष्पत्त्या च लब्धसिद्धिस्स्वाध्यायाध्ययननियोगो नाधिकारान्तरमपेक्षते। अतो नायं विश्वजिन्न्यायस्य विषय:, नापि रात्रिसत्रन्यायस्य, अनन्यप्रयुक्तविषयनियोगगोचरत्वात्तयो:। अत एव प्रयाजादिनियोगेषु तयोरनवतार:। अन्यथा सिद्धान्तेपि कामश्रुतिप्रयुक्तमध्ययनमिति विद्यासाध्येष्वपि कर्मसु शूद्रादीनामधिकार: स्यात्। अतोऽध्यापनविधिप्रयुक्तत्वादध्ययनस्य येषामेवोपनयनं तेषामेव तत्प्रयुक्तमन्त्रलाभाच्छूद्रादीनामनधिकार:। एवञ्च विध्यन्तरप्रयुक्तेऽध्ययने न रात्रिसत्रन्यायेन पूर्वपक्षाशङ्कोचिता। न चातत्प्रयुक#्त्या पूर्व: पक्ष:, तत्प्रयुक्त्या च राद्धान्त इति युक्तम्। अतत्प्रयुक्तत्वे कारणाभावात्। यच्चोक्तं नियमार्थो विधिरिति। तदयुक्तम्। स्वाध्यायाध्ययनस्य नियोगनिष्पत्त्यर्थतया विधानेन वचनस्यार्थवत्त्वात्। स्वाध्यायोऽध्येतव्य इति तव्यप्रत्ययेन विधिरभिधीयते। न चावहन्त्यादिष्विव क्रतुविषयनियोगानुवादोऽयमवकल्पते, असंनिधानात् क्रतुनियोगानाम्। सन्न#िधानवशेनैव हि क्रतुनियोगप्रत्यभिज्ञानात्तत्र क्रतुनियोगानुवादोपगम:। न चेह सन्निधानमस्ति। नापि "पर्णमयी जुजूर्भवतीति"वत् पदार्थसम्बन्धमुखेन क्रतुनियोगप्रत्यभिज्ञानम्, स्वाध्यायस्य व्यभिचरितक्रतुसम्बन्धत्वात्, हुमित्येवमादीनामनर्थकानां स्वाध्यायान्तर्गतिदर्शनात्। यत एवात्र नियोग: साध्यतयाऽवगम्यते, अत एव स्वाध्यायस्य नेप्सितकर्मतया सम्बन्धोऽवकल्पते, एकस्मिन् वाक्ये साध्यद्वयविरोधात्। न च स्वर्गादिवत् स्वाध्यायस्य नियोज्यविशेषणतयाऽन्वयादविरोध:, अनियोगफलत्वात्स्वाध्यायग्रहणस्य। यदेव हि नैयोगिकं फलम्, तदेव साध्यतया नियोज्यविशेषणं नान्यदिति तृतीये दर्शितम्--- 15"अनमिज्ञो भवान्विषयनियोज्यानाम्" इत्यत्र। अतोऽध्ययनविषयनियोगप्रतिपादनेनैव तस्यार्थवत्त्वान्न क्रतुप्रवेशकल्पनया नियमार्थता विधे:। जरत्प्रभाकरमतं तत्खण्डड्डत्ध्;नं च। अन्ये पुनरेवं पूर्वपक्षयन्ति---अध्यापनविधिप्रयुक्तमध्ययनमध्यापनाङ्भूतम् तन्निष्पत्त्यर्थतया च स्वाध्यायस्यान्यपरत्वादविवक्षितार्थता--इति। तदयुक्तम्। प्रयुक्तिमात्रेण तादथ्र्यानुपपत्ते:। स्यान्मतम्--यथा 16प्रजापतिव्रतेषु स्वतन्त्रकत्र्रवगमात्तद्धेतुभूत#ाधिकारसिद्ध्यर्थं नियोज्यपरिकल्पनं, तथा प्रयुक्तिदर्शनात्तादथ्र्यम्--इति। तन्न। प्रयुक्तेस्तादथ्र्यव्यभिचारात्। असत्यपि तादथ्र्ये केवलोपकारकतामात्रेणाध्ययनस्य क्रतुविधिभि: प्रयुज्यमानत्वात्। कथं तर्हि 17पश्वेकत्वादेरङ्गत्वम्। न तावद्विभक्तिरेव क्रतुसम्बन्धितयैकत्वादिकमभिधत्ते येनारुण्यादिवद्वाक्येन विनियोग: स्यात्। विभक्तयो हि प्रातिपदिकार्थगतमेव स्वार्थ श्रुत्याभिदधति। नापि करणभूतस्यैकत्वमुच्यते, संख्यान्वितस्य वा करणत्वम्, करणत्वैकत्वयोर्युगपदभिधानात्। अतो न वैनियोगिकं शेषत्वं विभक्त्यभिहिताया: संख्य#ाया:। इष्यते च शेषत्वम्, तच्च प्रयुक्तिकृतमेव। मैवम्। न तत्रापि शेषत्वमौपादानिकं किन्तु लैङ्गिकमेव। वस्तुसामथ्र्यमेव लिङ्गमुच्यते। संख्या च स्वभावत एव संख्येयावच्छेदिकेति संख्येयार्थैव, किन्तु संख्येयभूतप्रातिपदिकार्थमात्रसम्बन्धे ग्राहकान्वयव्याघातापत्तेग्र्राहकीयभूतपश्वादिसम्बन्ध औपादानिक:। सन्न#िधिसमाम्नानमात्रेण हि विभक्त्यर्थस्यापि ग्राहकं प्रत्यैदमथ्र्येनान्वितस्यैवाभिधानम्, तदन्यथानुपपत्त्या च केवलाभिधाननिबन्धनं स्वरूपसम्बन्धमतिलङ्घ्य साधनीभूतसंख्येयसम्बन्धाध्यवसानमिति नौपादानिकं तत्रापि शेषत्वम्। भवतु तर्हि लिङ्गादेवाध्ययनस्यापि अध्यापने विनियोग:। नैवं भवितुमर्हति, सामान्यसम्बन्धबोधकप्रमाणसापेक्षत्वाल्लिङ्गविनियोगस्य। न चास्य सामान्यसम्बन्धबोधकं किञ्चिदस्ति प्रमाणम्। ननु च णिच्छØति: प्रकृत्यर्थभूतस्याध्ययनस्य शेषतामापादयतीति। तन्न। प्रयोजकव्यापारस्य प्रयोज्यव्यापारोत्पत्तिहेतुत्वाद्विपरीतशेषत्वापत्ते:। वाक्यप्रकरणस्थानसमाख्यानानि त्वध्ययनस्याध्यापनं प्रति विनियोजकतया नाशङ्कनीयान्येव। 18किञ्च टीकाग्रन्थविरोधश्चाङ्गत्ववादिनाम्। यत एवमाह भगवान्19 --- "प्रयोज्यत्वादनङ्गत्वाच्च20 भवति संशय:" इति।। तस्मादनङ्गतयैव पूर्वपक्षणीयम्। कथं पुनरनङ्गतया पूर्वपक्षयितुं शक्यते। उच्यते। सर्वो हि विधिरधिकारपर्यवसायी। नचाध्ययनविधौ कस्यचिदधिकारोऽस्तीत्युक्तमेव साक्षादश्रवणात्, अध्यापनविधिप्रयोज्यतया कल्पनानुपपत्ते:। तत्र य एवासौ प्रयोजकविधावधिकार: स एव प्रयोजनमिति युक्तम्, प्रथमोपनिपातित्व#ात्। यदपि च यस्यानङ्गं तदपि तस्य प्रयोजनं भवत्येव आधानस्येव होमादय इति। ननु चानन्तरभाविकर्मावबोधफलकतया अध्ययनस्याध्येतुरेवाधिकारोऽध्ययने प्रतीयते इति तत्प्रयोजनतैव स्वाध्यायविधेर्युक्ता अन्तरङ्गत्वात्। न। तस्योत्तरकालभावित्वात्। तुल्यायां हि प्राप्तावन्तरङ्गता बलीयसी। न चानयोरधिकारयोस्तुल्या प्राप्ति:। प्रथमोपनिपातित्वात्प्रयोकविध्याधिकारस्य उत्तरकालभावित्वाच्चार्थावबोधनिबन्धनस्याधिकारस्य। यदा चाध्यापनविध्यधिकारसिद्धिरध्ययनस्य प्रयोजनमित्यध्ययनविधिना बोधितं तदाऽध्ययननिष्पत्त्यर्थत्वात्स्वाध्यायस्य#ान्यपरत्वादविवक्षितार्थत्वम्। अविवक्षितश्चार्थो न विचारणीय इति वेदाध्ययनमात्रेणैव गुरुकुलस्थिते: कृतार्थत्वादध्ययनोत्तरकालं गुरुकुलनिवृत्तिरेव युक्तेति मत्वा स्मृतं "वेदमधीत्य स्नायाद्" । झ्र्बौ. गृ. सू. 6. 1ट इति अत्र च न स्नानमदृष्टार्थं विधीयते,किन्तु यो "ब्रह्मचारी न स्नायात्" झ्र्बौ. गृ. सू.ट इति अस्नाननियमस्तस्य पर्यवसानमेतदध्ययनाङ्गतया नियमानां तन्निवृत्तौ प्राप्तमुच्यते। अस्नाननियमतुल्यतया च गुरुकुलवासादीनामपि निवृत्ति: प्राप्तैवेति सकलब्रह्मचारिधर्मनिवृत्तिरेवाध्ययनानन्तरमुच्यते। एवं च#ाध्ययनविधिना विचारस्यानाक्षिप्तत्वात्तुदुपायभूतन्यायनिबन्धनं मीमांसाशास्त्रं नारम्भणीयमिति पूर्व: पक्ष:। स्वमतेन सिद्धान्त:। राद्धान्तस्तु--यद्यपि प्रयोजकविध्यधिकार: प्रथमभावी, तथापि तन्निष्पत्ति: प्रयोजनमिति न युक्तम्। किन्तु दृष्टार्थावबोधफलकतयाऽध्ययनोत्तरकालभाव्यप्यध्येतुरेवाधिकार: प्रयोजनतया युक्त आश्रयितुम्, कर्तृसमवायित्वात्। यत्कर्तृकं हि यत्कर्म तस्यैव तत्रैश्वर्यम#िति युक्तम्, अन्तरङ्गत्वात्। न च सहसैव विधिदर्शनादत्राधिकारपर्यवसानकल्पनाकारणमस्ति, परप्रयुक्त्यैवानुष्ठानस्य सिद्धत्वात्। यत्र खल्वधिकारपर्यवसानकल्पनामन्तरेण प्रागनुष्ठानं न लभ्यते, तत्रानुष्ठानात्प्रागनवगतोऽधिकार: तदनुप्रवेशात्साध्य:। इह त्वध्यापनविधिप्रयुक्त्यैवाधिकारपर्यवसानकल्पनामन्तरेणानुष्ठानं लब्धमिति प्राथम्यमकिञ्चित्करम्। अन्तरङ्गत्वादध्येतुरेवाधिकारो युक्त इति। तदेवमध्ययनविधेरन्यप्रयुक्त्यैवानुष्ठानसिद्धेर्नियोज्यो नास्ति। अधिकारी तु विद्यत एव। यदथ हि यत्कर्म स तत्राधिकारी। अर्थावबोधोपयोगेन चाध्येत्रर्थताऽध्ययनस्येति स तत्राधिकारी। स चायमधिकार: प्रागध्ययनान्नावगम्यते, अध्ययनोत्तरकाले चावगम्यते। स्वाध्यायाध्ययनं त्वेवमभिनिर्वत्र्यते-- "श्रावण्यां प्रौष्ठपद्या वाप्युपाकृत्य यथाविधि। युक्तश्छन्दांस्यधीयीत मासान्विप्रोऽर्धपञ्चमान्।।" झ्र्म. 4 अ.95ट तत:21 परं तु छन्दासि शुक्लेषु नियत: पठेत्। वेदाङ्गानि रहस्यं च कृष्णपक्षेषु सम्पठेत्।।" झ्र्म. 4. अ. श्लो. 98ट इति। इत्थं चाध्ययने क्रियमाणेऽङ्गाध्ययनसंस्कृतस्य वेदवाक्यादर्थावगमो जायते। स चायमध्येता मन्यते मदुपयोगिकर्मावबोधकतया मदर्थमध्ययनमिति। 22योऽयं वेदाध्ययनसीमांसाश्रवणयोर्मध्येऽधिकार:, सोऽयं 23तान्मौलिक: शास्त्रार्थ:। इममेव तावदधिकारमालोच्य पित्रादयोऽर्थदानादिना कांश्चिदानमय्य पुत्रादीनुपनाययन्ति। प्रबुद्धाश्च केचन स्वयमेवात्मानम्। अन्यथाऽध्ययनासंभवात्। अनुपनीतस्याध्ययननिषेधात्। "नाभिव्याहारयेद् ब्रह्म स्वधानिनयनादृते। 24स शूद्रेण समस्तावद्यावद्वेदान्न जायते।।" झ्र्म. अ. 2. श्लो. 172ट इति। एवं तावदध्यापनविधिं स्मृत्यनुमितमाश्रित्य राद्धान्तवर्णना कृता। विवरणसिद्धान्त:। 25अन्ये तु साक्षाच्छØताध्यापनविध्यनुसारेणैवमाहु:। यद्यध्यापनविध्यधिकारप्रयोजनता स्वाध्यायाध्ययनविधे: स्यात्, तदाऽध्यापनविधेरपिस्वाध्यायान्तर्गतत्वादविवक्षितार्थत्वेन तत्प्रयुक्ततापि न सम्भवति। 26स्वशाखा हि स्वाध्यायशब्देनोच्यते। साक्षादधीतश्चाध्यापनविधिर्नूनं केषांचिच्छाखिनां स्वशाखान्तर्गतो भवेदिति स्वाध्यायस्याविवक्षितार्थत्वेन तस्याप्यविवक्षितार्थत्वान्न प्रयोजकत्वमवकल्पते इति पश्चाद्भाव्यर्थावबोधोपयोगितयाऽध्येतुरेवाधिकारोऽध्ययनविधे: प्रयोजनमिति। ननु स्वाध्यायोऽध्येतव्य इति नियोगसिद्धेरवगमात्तन्निष्पत्त्यर्थत्वादध्ययनस्यान्यपरत्वादर्थविवक्षा दुर्भणैव। मैवम्। यदि केवलं नियोगनिष्पत्त्यर्थतैवाध्ययनस्य स्यात्स्यादेतदेवम्। यदा त्वर्थावबोधोऽपि प्रयोजनतया स्वीक्रियते, तदार्थऽपरताऽप्यस्तीति नाविवक्षितार्थता। कथं पुनरेकस्मिन्वाक्ये प्रयोजनद्वयम्। उच्यते। नियोगनिष्पत्तिरेव शाब्दं प्रयोजनम्, आर्थं त्वर्थावबोधनमिति न विरोध:। यच्च तदर्थावबोधाख्यं प्रयोजनं तन्न केवलाध्ययनसाध्यमिति अध्ययनविधिरेव स्वप्रयोजनसिद्धये विचारमाक्षिपति। विचारस्य च 27न्यायनिबन्धनत्वान्न्यायानां मीमांसाज्ञानगम्यत्वान्मीमांसाज्ञानस्य गुर्वायत्तत्वान्न वेदाध्ययनानन्तरं गुरुकुलान्निवर्तितव्यमिति मन्यमानो भगवान्सूत्रकार: पूर्वपक्षनयमूलतां स्मृतेर्दर्शयितुं धर्मजिज्ञासोपदेशमुखेनाध्ययनानन्तरभाविनीं गुरुकुलनिवृतिं्त प्रतिषेधन्निदमाह--- "अथातो धर्मजिज्ञासा" 28इति। वेदवाक्यार्थविचारविरोधिनी च गुरुकुलनिवृत्तिरेव केवला निवार्यते, न सकलेतरभिक्षाचरणब्रह्मचर्यादिधर्मनिवृत्ति:। असमाप्तसकलब्रह्मचारिनियमश्च न स्नातक इति न दाराधिगमेनऽधिक्रियते स्नातकस्य दाराधिगमस्मरणात्, "स्नातक:29 सद#ृशीं भार्यां विन्देद्" झ्र्गौ. ध. सू. अ. 4-1ट इति। तस्माद् गुरुकुले स्थित्वा सकलेतरब्रह्मचारिधर्मान्परित्यज्य वेदार्थो विचारयितव्य:, अविचारितस्यानिर्णीयमानत्वात्। अनिर्णीतवेदार्थश्चेद् गुरुकुलान्निवर्तेत, तत: कृतदारसंग्रह: श्रौताग्निहोत्रादिनित्यनैमित्त#िकधर्माधिकारापातात्तदनुष्ठानं कर्तुमसमर्थ: प्रत्यवेयात्। तस्मादध्ययनस्यानन्तरमेव वेदार्थो विचारयितव्य इति विचारोपायभूतन्यायनिबन्धनं मीमांसाशास्त्रमारब्धव्यमिति सिद्धम्। शास्त्रमुखं नाम गुरोराविष्कर्तुं गभीरमपि भावम्1 शालिकनाथेन कृतं प्रकरणमेतत्प्रसन्नतरम् ।। 2 ।। ।। इति महामहोपाध्याय श्रीशालिकनाथमिश्रप्रणीतायां प्रकरणपञ्चिकायां शास्त्रमुखं नाम प्रथमं प्रकरणं समाप्तम् ।।

नीतिपथो नाम द्वितीयं प्रकरणम् सम्पाद्यताम्

प्रकरणार्थप्रतिज्ञा।
अर्थासंस्पर्शिताशङ्का यथा शब्दस्य वार्यते। प्रभाकरगुरो: शिष्यैस्तथा यत्नो विधीयते ।। 1 ।।
पूर्वपक्ष:।
अत्र लौकिकवाक्यानां व्यभिचाराभिमानत:। अर्थासंस्पर्शितां केचिदाहु: शब्दस्य वादिन: ।। 2 ।। निश्चयोऽर्थस्य संस्पर्श: स चार्थाव्यभिचारिणा:। प्रत्यक्षादेरेव भवेच्छब्दस्तु व्यभिचारवान् ।। 3 ।। विनाप्यर्थं हि शब्देन प्रतीतिरुपजायते। अङ्गुल्यग्रेऽस्ति करिणां यूथमित्येवमादिना ।। 4 ।। नचात्र शक्यते वक्तुं शुक्तौ रजतबोधवत्। अग्रहाद् भ्रान्तिरेषेति कारणस्याविशेषत: ।। 5 ।। दुष्टा हि 30हेतव: कार्यं सम्पूर्णं कर्तुमक्षमा:। तेन भेदाऽग्रहो युक्त: शुक्तिकारजतादिषु ।। 6 ।। इह तु ज्ञानहेतुर्य: शब्द: स न विशिष्यते। विशिष्यते यस्तु वक्ता स ज्ञानस्य न कारणम् ।। 7 ।। वक्तापि यदि विज्ञानहेतु: स्यादिन्द्रिनयादिवत्। ततस्तस्याऽपि दोषेण भवेदग्रहणां तदा ।। 8 ।। वक्ता तु केवलं शब्दव्यक्तवेवोपयुज्यते। ज्ञानं तु शब्दमात्रेण निरपेक्षेण जन्यते ।। 9 ।। न च तस्येह दुष्टत्वं किंचिदप्युपलभ्यते। दोषश्चाग्रहणे हेतुस्तदभावे स्फुटो ग्रह: ।। 10 ।। तेन शब्दोपजनितं ज्ञानमेवेदमीदृशम्। अर्थं व्यतिक्रामतीति कुतस्तेनार्थनिश्चय:? ।। 11 ।। येनापि हि विना यस्य सद्भाव31 उपपद्यते। निश्चयस्तत्र तेनेति सुभाषितमिदं वच: ।। 12 ।। नन्वेवमाप्तवाक्येभ्य: कथं व्यवहृतिर्भवेत्?। व्यवहारो हि लोकस्य कथं स्यान्निश्चयं विना? ।। 13 ।। उच्यते व्यवहारो हि संदेहादपि लौकिक:। प्रायशो दृश्यते तेन च किंचिदिह दुष्यति ।। 14 ।। अपि चाप्तत्वमालोच्य वक्तुस्तत्रार्थनिश्चय:। मानान्तरवशेनापि कथंचिदुपपद्यते ।। 15 ।। वेदस्त्वलौकिकार्थत्वादभावाद्वक्तुरेव च। अहो बत दशां कष्टामुपनीतो हि पण्डिड्डत्ध्;तै: ।। 16 ।।

सिद्धान्त:।
अत्र प्रतिविधानाय यतन्ते मतिशालिन:। ज्ञानस्य व्यभिचारित्वं नयवीथ्यां निवारितम् ।। 17 ।। श्रूयतामवधानेन गतिर्नरगिरामपि। अनुमानात्पृथग्भावं तासां नेच्छन्ति सूरय: ।। 18 ।। वाक्यं हि पुरुषाधीनरचनं लौकिकं सदा। शङ्क्यमानायथार्थत्वं नार्थनिश्चायकं स्वत: ।। 19 ।। अन्योन्यानन्वितार्थानि पदान्यपि हि मानवा:। रचयन्तो विलोक्यन्ते तेन नान्वयनिश्चय: ।। 20 ।। केचित्तावद् भ्रमेणैव केचिदाशयदोषत:। प्रमादात्केऽप्यशक्तेश्च केऽप्यनन्वितवादिन: ।। 21 ।। तदुक्तानां पदार्थानां यद्यप्यन्वययोग्यता। तथाप्यनन्वितस्यापि दृष्टेर्नान्वयनिश्चय: ।। 22 ।। तत्र निश्चयशब्देन ज्ञानमेवाभिधीयते। अन्वयानिश्चये तेन ज्ञानमेवास्ति नान्वये ।। 23 ।। शङ्क्यमानायथार्थत्वरचनं तेन पुंवच:। श्रुतमात्रकमेवार्थे न तावन्निश्चयावहम् ।। 24 ।। यावद्वक्तुरविज्ञातं पूर्वभाविप्रमान्तरम्। विवक्षितार्थविषयमिन्द्रिनयार्थनिबन्धनम् ।। 25 ।। तस्य ज्ञानं च वाक्येन लिङ्गभूतेन गम्यते। ज्ञात्वैवार्थं ब्रवीतीति य एवमवधारित: ।। 26 ।। तस्य ज्ञानेन नियतं वाक्यं ज्ञानानुमापकम्। ज्ञानं चार्थाविनाभावि तेनार्थे।द्यपि विनिश्चय: ।। 27 ।। तत्रार्थे निश्चिते पश्चात्सोऽर्थो वाक्येन गम्यते। तस्यां दशायां वाक्यस्य तस्य स्यादनुवादता ।। 28 ।। पूर्वं तु32 लिङ्गभूतं तत् वक्तुज्र्ञानावधारणे। वक्तृज्ञानप्रसूतं हि वाक्यं तत्कार्यमिष्यते ।। 29 ।। कार्यात्कारणसिद्धिश्च सर्वेषामनुमानत:33। पौरुषेयमतो वाक्यं न शास्त्रमभिधीयते ।। 30 ।। एवञ्च सति लिङ्गस्य व्यभिचारोऽयमीक्ष्यते। न शास्त्रस्येति तस्य स्यादर्थासंस्पर्शिता कुत:? ।। 31 ।। लिङ्गस्यापि न चैवायं व्यभिचारोऽस्ति किन्तु य:। लिङ्गालिङ्गे न शक्नोति विवेक्तुं मूढ़चेतन: ।। 32 ।। तस्यालिङ्गे लिङ्गरूपसाधारण्यनिबन्धन:। लिङ्गसंव्यवहारोऽयं विपरीत: प्रवर्तते ।। 33 । श्रुतिलिङ्गाधिकरणे विस्तरेणैतदीरितम्। तेन न व्यभिचारोऽस्ति द्वयोर्लैङ्गिकशास्त्रयो: ।। 34 ।। नन्वर्थ एव प्रथमं पुंवाक्येम्योऽवगम्यते। अन्यथा हि कथं वक्तुर्धीर्विशिष्टाऽनुमीयते? ।। 35 ।। अर्थेनैव विशेषो हि निराकारतया धियाम्। नचाप्रतीतेनार्थेन विशेषश्चाऽवकल्पते ।। 36 ।। अत्र ब्रूमोऽयथार्थत्वशङ्कयाऽर्थो न निश्चित:। अनिश्चितश्च न ज्ञात इति तावद्व्यवस्थितम् ।। 37 ।। किंत्वज्ञातेऽपि 34वाक्यार्थे पदजाते श्रुते सति। विमर्शो35 जायते श्रोतुरीदृशो मतिशालिन: ।। 38 ।। अन्योन्यान्वययोग्यार्थं पदजातं ब्रवीत्ययम्। आप्तस्तेनामुना नूनं ज्ञातस्तेषां समन्वय: ।। 39 ।। न कदाचिदसंबद्धानर्थानेष विवक्षति। न वाऽप्रतीतसम्बन्धानिति दोषो न कश्चन ।। 40 ।। नन्वेवं तुरगारूढस्तुरङ्गं विस्मृतो भवान्। वेदप्रामाण्यसिद्ध्यर्थमुत्थितस्तत्प्रहीणवान् ।। 41 ।। लोकावगतशक्तिर्हि वेदे शब्दोऽवबोधक:। लोके च लिङ्गभावेन प्रतीतिर्भवताऽऽश्रिता ।। 42 ।। स्वयं त्विह समाधानमाचार्येण36 प्रदर्शितम्। शब्दस्याऽर्थेन सम्बन्ध इति दर्शयता सता ।। 43 ।। अन्वितार्थाभिधायित्वे पदानां हि स्थिते सति। विशिष्टा वक्तृधीज्र्ञातु शक्यते नान्यथा यत: ।। 44 ।। ज्ञातेषु हि पदार्थेषु श्रोता वक्तरि कल्पयेत्। अन्योन्यान्वयविज्ञानं नाऽन्यथेत्युपदर्शितम् ।। 45 ।। पदानां तत्पदार्थेषु शक्ति: स्वाभाविकी स्थिता। पुंवाक्येषु विसंवादशङ्कया सा तिरोहिता ।। 46 ।। वेदेषु त्वस्मर्यमाणकर्तृकेषु स्वरूपत:। प्रमाणान्तरसंस्पर्शरहितार्थावबोधिषु ।। 47 ।। न कर्तुरनुमानं स्याद्वाक्यत्वादिति लिङ्गत:। न कर्ता शक्नुयाद्वाक्यं कर्तुं कार्ये ह्यलौकिके ।। 48 ।। तेन वेदे विसंवादशङ्का नास्ति कथंचन। अर्थनिश्चयहेतुत्वादर्थसंस्पर्शिता स्थिता ।। 49 ।। व्यपगतवाङ्मलपङ्क: प्रोद्धृतपरयुक्तिकण्टकप्रकर:। सृष्ट: प्रगुणतरोऽयं शालिकनाथेन नीतिपथ: ।। 50 ।। इति श्रीमहामहोपाध्यायशालिकनाथमिश्रप्रणीतायां प्रकरणपञ्चिकायां नीतिपथो नाम द्वितीयं प्रकरणं समाप्तम् ।। 2 ।।

नयवीथी नाम तृतीयं प्रकरणम्। सम्पाद्यताम्

प्रकरणार्थप्रतिज्ञा---
यथार्थं सर्वमेवेह विज्ञानमिति सिद्धये। प्रभाकरगुरोर्भाव: समीचीन: प्रकाश्यते ।। 1 ।।

तत्र पूर्वपक्ष:---
तत्र तावदिदं केचिदूचिरे चारुचेतस:। भ्रमसन्देहविज्ञाने अयथार्थे उभे इति ।। 2 ।।
इदं रजतमित्येषा य शुक्तिशकले मति:। सा चेद्यथार्था भ्रान्तित्वं तदा तस्यास्तु कीदृशम् ।। 3 ।।
यथावस्थितवस्त्वाभमपि ज्ञानं यदा भ्रम:। प्रमाणेषु तदाऽऽपन्ना सर्वेषु र्भमरूपता ।। 4 ।।
विवेकाग्रहणं भ्रान्तिरिति चेन्नैतदीदृशम्। सुषुप्तेऽपि भ्रमापत्ते: सर्वभेदापरिग्रहात् ।। 5 ।।
भूदाग्रहे गृहीते च यदि स्याद् भ्रमरूपता। दूरात् सामान्यमात्रस्य दर्शनं स्यात् भ्रमस्तदा ।। 6 ।।
यथार्थदर्शनत्वे च बाधकोऽपि न युज्यते। अज्ञातभेदग्रहणैर्न बाधकमतिर्भवेत् ।। 7 ।।
यथार्थतापि चैतस्या: कथमित्यपि चिन्त्यताम्। एषा हि रजतत्वेन शुक्तिकामध्यवस्यति ।। 8 ।।
रजतत्वं न शुक्तेश्च रजतस्य न शुक्तिता। तयोरन्योन्यभिन्नत्वं प्रत्यक्षेणावधारितम् ।। 9 ।।
अथेयं रजतत्वेन न शुक्तिमवलम्बते। सामानाधिकरण्येन प्रतिपत्तिर्विरुध्यते ।। 10 ।।
रूप्यार्थिन: प्रवृत्तिश्च शुक्तौ स्यान्निर्निबन्धना। अग्रहोऽपि न भेदस्य प्रवृत्तौ कारणं यत: ।। 11 ।।
रजतप्रतिपत्तिश्च नेयमन्धस्य जायते। तेनेयमिन्द्रियाधीना संयुक्ते चेन्द्रियं धियम् ।। 12 ।।
समर्थमुत्पादयितुं शुक्तिसंयोगि चेन्द्रियम्। तेन सैवेन्द्रियेणेह रजतत्वेन गृह्यते ।। 13 ।।
स्यान्मतं शुक्तिकामात्रमिन्र्दियेणावसीयते। तदेव सदृशत्वेन रजतस्मृतिकारणम् ।। 14 ।।
सदृशप्रत्ययेनेह संस्कारोद्बोधहेतुना। तदित्युल्लेखरहिता रजते भवति स्मृति: ।। 15 ।।
स्मृतावस्यां मनोदोषात् तदित्यंशोऽवखण्डिड्डत्ध्;त:। तेनेन्र्दियानुकारित्वमन्यथासिद्धमित्यसत् ।। 16 ।।
अनुभूतेऽपि विषये तत्परामर्शवर्जितम्। न बोधं स्मृतिमिच्छन्ति धारावाहिकबोधवत् ।। 17 ।।
अपरोक्षपुरोवर्तिसामानाधिकरण्यत:। नेयं स्मृति:, किन्तु शुक्तौ भ्रान्तोऽयं रजतग्रह: ।। 18 ।।
स्मृत्युद्बोधनिमित्तं च स्वप्ने किञ्चिन्न विद्यते। पीतशङ्खावबोधे च द्विचन्द्रग्रहणे तथा ।। 19 ।।
दिङ्मोहालातचक्रादिभ्रान्तयश्च कथं पुन:। स्मृतित्वाश्रयणेनैता वर्णनीया यथार्थत: ।। 20 ।।
तेनेन्द्रियादिदोषेण जायन्ते भ्रान्तिबुद्धय:। बुध्यमाना वस्तुरूपमन्यथास्थितमन्यथा ।। 21 ।।
स्थाणुर्वा पुरुषो वेति सन्देहो योऽपि जायते। अभावात्तदृशोऽर्थस्य स यथार्थ: कथं भवेत्? ।। 22 ।।

सिद्धान्त:---
अत्र ब्रूमो--य एवार्थो यस्यां संविदि भासते। वेद्य: स एव नान्यद्धि विद्याद्वेद्यस्य लक्षणम् ।। 23 ।।
इदं रजतमित्यत्र रजतञ्चाऽवभासते। तदेव तेन वेद्यं स्यान्न तु शुक्तिरवेदनात् ।। 24 ।।
तेनान्यस्यान्यथाभानं प्रतीत्यैव पराहतम्। परस्मिन् भासमाने हि न परं भासते यत: ।। 25 ।।
नन्वेवं रजताभास: कथमेष 40घटिष्यति। उच्यते---शुक्तिशकलं गृहीतं भेदवर्जितम् ।। 26 ।।
शुक्तिकाया विशेषा ये रजताद् भेदहेतव:। ते न ज्ञाता अभिभवाद् ज्ञाता सामान्यरूपता ।। 27 ।।
अनन्तरञ्च रजते स्मृतिर्जाता तथापि च। मनोदोषात् 41तदित्यंशपरामर्शविवर्जितम् ।। 28 ।।
रजतं विषयीकृत्य नैव शुक्तेर्विवेचितम्। स्मृत्याऽतो रजताभास उपपन्नो भविष्यति ।। 29 ।।
धारावाहिकवन्नेयं स्मृतिरित्युदितञ्च यत्। उच्यतेऽनन्यगतित: स्मृतिरत्राऽवगम्तये ।। 30 ।।
न ह्यसन्निहितं तावत् प्रत्यक्षं रजतं भवेत्। लिङ्गाद्यभावाच्चान्यस्य प्रमाणस्य न गोचर: ।। 31 ।।
परिशेषात् स्मृतिरिति निश्चयो जायते तत:। तस्या: कारणसद्भावात्, धारावाहिकधीषु तु ।। 32 ।।
प्रत्युत्पन्नेन्द्रियग्रामसामग्रीग्रहकारणम्। ग्रहणस्मरणे चेमे विवेकानवभासिनी ।। 33 ।।
सम्यग्रजतबोधात्तु भिन्ने यद्यपि तत्त्वत:। तथापि भिन्ने नाभातो भेदाग्रहसमत्वत: ।। 34 ।।
सम्यग्रजतबोधश्च समक्षैकार्थगोचर:। ततो भिन्ने अबुध्वा तु स्मरणग्रहणे इमे ।। 35 ।।
समानेनैव रूपेण केवलं मन्यते जन:। अपरोक्षार्थबोधेन समानार्थग्रहेण च ।। 36 ।।
अवैलक्षण्यसंवित्तिरिति तावत् समर्थितम्। व्यवहारोऽपि तत्तुल्यस्तत एव प्रवर्तते ।। 37 ।।
समत्वेन च संवित्तेर्भेदस्याग्रहणेन च। मिथ्याभावोऽपि तत्तुल्यव्यवहारप्रवर्तनात् ।। 38 ।।
रजतव्यवहारांशे विसंवादयतो नरान्। बाधकप्रत्ययस्यापि बांधकत्वमतो मतम् ।। 39 ।।
प्रसज्यमानरजतव्यवहारनिवारणात् ।। 40 ।।
सन्निहितरजतशकले रजतमतिर्भवति यादृशी सत्या। भेदानध्यवसायादियमपि तादृक् परिस्फुरति ।। 41 ।।
साधारणं हि रूपं तस्या अस्याश्च विद्यते तेन। तन्मात्रप्रतिभानात् समानतामेव मन्यन्ते ।। 42 ।।
तत्तुल्यव्यवहार:43 प्रवृत्तिरपि युज्यते चात:। तद्विनिवारणकरणाद्बाधकता बाधकस्यापि ।। 43 ।।
एवं स्वप्नेऽपि वस्तूनि स्मर्यमाणानि सन्त्यपि। अनुभूतांशमोषेण भासन्ते गृह्यमाणवत् ।। 44 ।।
ग्रहणस्य विशेषो हि गृहीतग्रहणं स्मृति:। सा गृहीतांशमोषेण गृहीतिरिव44 तिष्ठति ।। 45 ।।
संस्कारोद्बोधहेतुश्च तत्राऽदृष्टं प्रकल्प्यते। विपरीतख्यातिपक्षेऽप्येषा तुल्या हि कल्पना ।। 46 ।।
अदृष्टस्य च हेतुत्वाज्जाग्रतस्तादृशी न धी:। अवस्थापि ह्यदृष्टस्य सामग्रीफलसम्भवे ।। 47 ।।
पीतशङ्खावबोधे च पित्तस्येन्र्दियवर्तिन:। पीतिमा गृह्यते द्रव्यरहितोऽप्स्विव तिग्मता ।। 48 ।।
शङ्खस्येन्द्रियदोषेण शुक्लिमा च न गृह्यते। केवलं द्रव्यमात्रन्तु प्रथते रूपवर्जितम् ।। 49 ।।
गुणे द्रव्यव्यपेक्ष45 च द्रव्ये च गुणकाङ्क्षिणि। भासमाने तयोर्बुद्धिरसम्बन्धं न बुध्यते ।। 50 ।।
सत्यपीतावभासेन समे भातो मती इमे। व्यवहारोऽपि तत्तुल्य:, एवमत्रापि युज्यते ।। 51 ।।
यत्तु नेत्रगतस्यापि कज्जलस्य न कालिमा। गृह्यते कारणं तत्र तेनेन्द्रियनिरोधनम् ।। 52 ।।
अतसीपुष्पसंकाशं यत् तावन्नेत्रमण्डड्डत्ध्;लम्। तत्रस्थमञ्जनं यत्तत् तेजोवृत्तिनिरोधकम् ।। 53 ।।
मण्डड्डत्ध्;लान्तरसंस्थन्तु यन्नाम नयनेऽञ्जनम्। तस्यानार्जवदोषेण नीलिमा नावगम्यते ।। 54 ।।
इन्द्रियोपरिभागेऽपि लिप्तेन स्वच्छभावत:। पित्तेन नायनं तेज: काचेनेव न रुद्ध्यते ।। 55 ।।
प्रसरन्नायनं तेजो ग्राहकं 46नानिन्द्रियस्थितम्। पित्तस्याऽग्रहणं सौक्ष्म्यात् प्रभायामिव तेजस: ।। 56 ।।
मधुरे तिक्तधीरेवं व्याख्याता पित्तवर्जिन:। तैक्त्यस्य रसहीनस्य गुडड्डत्ध्;स्य च परिग्रहात् ।। 57 ।।
तथा द्विचन्द्रबोधेऽपि भिन्नं द्वेधैन्द्रियं मह:। भिन्ने जनयति प्रख्ये एकस्मिन्नेव शीतगौ ।। 58 ।।
सम्वित्ती ते न भिद्येते तद्द्वित्वे सति मन्यते। भिन्नार्थबुद्धितुल्यत्वमत्रापि खलु पूर्ववत् ।। 59 ।।
स्मरतोऽप्येकतां तेन भ्रमोऽयमुपपद्यते। न हि स्मृतिप्रमोषेण सर्वत्रैव भ्रमो मत: ।। 60 ।।
दिङ्मोहेऽदृष्टसामथ्र्याद् दिक्स्वरूपानवग्रहात्। दिगन्तरस्वरूपस्य स्मरणाच्च भ्रमो मत: ।। 61 ।।
अलातचक्रेऽलातस्य भ्रमत: सर्वतो 47द्रुतम्। निरन्तरं धियो जाताश्चक्रबुद्धिसमा मता: ।। 62 ।।
कालभेदस्तु शीघ्रत्वाद्धियां तासां न लक्ष्यते। चक्रधीव्यवहारश्च तेनाऽस्मिन्नपि युज्यते ।। 63 ।।
अनेनैव प्रकारेण सर्वभ्रान्तिषु पण्डिड्डत्ध्;तै:। ऊहनीया हेतुभेदा यथार्थज्ञानसिद्धये ।। 64 ।।
स्थाणुर्वा पुरुषो वेति सन्देहेऽपि यदा द्वयम्। स्मर्यतेऽन्योन्यनिर्मुक्तं तदाऽर्थविरह: कुत:? ।। 69 ।।
यदि चार्थं परित्यज्य काचिद्बुद्धि: प्रवर्तते। व्यभिचारवती स्वार्थे कथं विश्वासकारणम्? ।। 66 ।।
नन्वत्राप्यरजतधीतुल्यताशङ्कया सम:। अविश्वासस्तत्र दोषविरहाच्चेद् विनिर्णय: ।। 67 ।।
सममेतद् विपरीतख्यातिपक्षेऽपि दृश्यते। अहो बत महानेष प्रमादो धीमतामपि ।। 68 ।।
ज्ञानस्य व्यभिचारे हि विश्वास: किंनिबन्धन:?। ज्ञानस्य व्यभिचारेऽपि ज्ञातं यत् सत्यमेव तत् ।। 69 ।।
अज्ञानमपि किन्त्वस्ति रूपभेदनिबन्धनम्। जिज्ञासा जायते येयं साप्यन्येन निवर्तते ।। 70 ।।
यत्नेनान्विष्यमाणेऽपि रूपं तच्चेन्न दृश्यते। तदा पूर्वैव संवित्तिस्त49 त्त्वेनाप्यपदिश्यते ।। 71 ।।
अयथार्थत्वपक्षे च ज्ञानं साकारमापतेत्। आकारो भासते यो हि ज्ञान एवावतिष्ठते ।। 72 ।।
अयथार्थस्य बोधस्य नोत्पत्तावस्ति कारणम्। दोषाश्चेन्न हि दोषाणां कार्यशक्तिविघातिता ।। 73 ।।
52भस्मकादिषु कार्यस्य विघातादेव दोषता। अग्नेर्हि रसनिष्पत्ति: कार्यं जठरवर्तिन: ।। 74 ।।
विद्यमानवस्तुरूपग्रहणे प्रतिबन्धृता। दोषाणामुपपन्नेति भ्रान्तिरग्रहबन्धना53 ।। 75 ।।
विषयाव्यभिचारित्वं साधयितुं सर्वसंविदामेषा। निरमीयत नीतिविदा शालिकनाथेन नयवीथी ।। 76 ।।
मिश्रशालिकनाथेन नयवीथीतिसंज्ञितम्। कृतं लोकहितार्थाय प्रभाकरमतं यथा ।। 77 ।।
इति श्रीमहामहोपाध्याय-शालिकनाथमिश्रप्रणीतायां प्रकरणपञ्चिकायां नीतिपथो नाम तृतीयं प्रकरणं समाप्तम्।।

जातिनिर्णयो नाम चतुर्थं प्रकरणम् सम्पाद्यताम्

प्रकरणार्थप्रतिज्ञा---
बहुधा जातिविषये विवदन्ते विपश्चित:। प्रभाकरमतेनायं तेषां प्रत्यास उच्यते ।। 1 ।। केचिदाचक्षते---जातिरिति विकल्पविलासितम् इति। एके तु सत्तीमपि जातिमाश्रयेभ्योऽभिन्नामनुमन्यन्ते। अन्ये तु भिन्नामप्यनुमेयामाहु:। अपरे तु भिन्नाभिन्नामिच्छन्ति। तथा अजातावपि जातिव्यवहारो बहुलमुपलभ्यते केषांचिदिति तन्निराकरणायेदमारभ्यते।

सिद्धान्त:-
जातिराश्रयतो भिन्ना प्रत्यक्षज्ञानगो55चर:। पूर्वाकारावमर्शेन प्रभाकरगुरोर्मता ।। 2 ।।

पूर्वपक्ष:-
नन्वाश्रय एव द्रव्यं जातेरसदिति सौगता:। तथाहि न परमाणुषु चतुर्विधेषु पार्थिवाप्यतैजसवायवीयेषु जातिराश्रिताऽभिमता, अनुवृत्ताकारप्रत्ययवियोगात्। भिन्नेषु यदभिन्ना जातिरुपेयते, तत्रानुवृत्ताकारावभासिनी बुद्धिरेव निबन्धनम्। न कस्यचिज्जन्तो: परमाणुषु करणपथविदूरवर्तिषु निपुणमपि निरूपयोऽनुवृत्ताकारावभासिनो मतिराविर्भवति। यापि चेयं परमाणुरिति मति:, सापि 56पारिमाण्डड्डत्ध्;ल्यलक्षणगुणकारणिका मीमांसकैरपि सङ्गीर्यते। पृथिवीत्वादिकमपि न तत्तदसाधारणगन्धादिगुणसमवायमात्रलब्धात्मलाभायां पृथिव्यादिबुद्धौ निबन्धनम्। न च स्थलेषु द्रव्येष जाति: समवेयात्, तेषामेव दुरुपगमत्वात्। न खलु स्थूलद्रव्यारम्भो57 घटते। तथा हि---द्व्यणुकादिक्रमेण स्थूलद्रव्यारम्भोऽभिधीयते, तत्र तावद् द्रव्यारम्भ एव न साधीयानिति मन्यामहे। न खलु तथैवैक: परमाणुरारभते। द्रव्यस्यैकाकिन: स्थूलद्रव्यान्तरारम्भकत्वानुपपत्ते:। न चैकैकद्रव्यव्यतिरिक्तमपरमारम्भकमस्ति। संयोगोऽपि च तयोरनुपपन्न एव। स हि नैकैकद्रव्यसमवेत:, नाप्यनेकद्रव्यसमवेत:। एकैकातिरेकेणाऽनेकस्याभावात्। एवञ्च प्रत्येकमेकद्रव्यसमवेतत्वाभावे, नानेकद्रव्यसमवेतत्वमपि सम्भवति। अनेनैव मार्गेण त्र्यणुकस्य त्रिमिद्व्र्यणुकैरारम्भणीयस्य महिमगुणशालिन: सम्भवो निरस्त:। तदेवं दूरभूता स्थवीयसामवयविनामारम्भसंकथा। अपि चावयविन: किमवयवेषु प्रत्येकं कार्त्स्न्येन वृत्ति: ? व्यासङ्गेन वा ? इति चिन्तनीयम्। न तावत् कार्त्स्न्येन वृत्तिमुपलभामहे, एकैकावयवगतस्य तस्याप्रतिपत्ते:। एकैकावयवगते च कम्पे रागे वा सकलस्यावयविन: कम्परागप्रतीतिप्रसङ्गात्। तथावयवान्तरे च कम्परागविरहे कम्परागविरहसमासक्ते:, अवयवी कम्पेत न कम्पेत, रज्येत न रज्येत चेति विषमां दशामाविशेत्। नापि व्यासङ्गेनावयविनो वृत्तिरवयवान्तरविरहात्। अवयवान्तरशालिनो हि केनचिदवयवेन क्वचन, केनचिदवयवेन क्वचनेति व्यासङ्गिनी वृत्तिरुपपत्तिमती। किञ्चैकैकत्रावृत्तेरवृत्तिरेव, एकैकातिरिक्तानेकाभावात्। किञ्च सकलावयवग्रहणे एव नियमेनावयवी ज्ञायेत, न च तथा सम्भवति, अवयवान्तरेणावयवान्तरतिरस्कारात्। न च प्रकारान्तरेण वृत्तिरिति वदितुं शक्यम्; अनुपपत्ते: प्रकारान्तरस्य। अवयवेभ्यश्चावयवी व्यतिरिच्यमानोऽव्यतिरिच्यमानो वा न प्रमाणेन सङ्गच्छते। व्यतिरिक्तो हि दिग्रहेऽपि ग्रहणं कदाचिदनुभवेत्। न खलु भिन्नयो: सहोपलम्भनियमो घटपटयोरिव। तद्वदवयव्यपि भिद्यमानो नावयवैरेव सहोपलभ्येत। कस्याञ्चिदपि दशायामननुभूयमानेष्वप्यवयवेष्वनुभूयेत। न चावयविनमवयवानुभवमन्तरेण केचिदुपलभन्ते। अव्यतिरिच्यमानस्तु नास्त्येवेति वचनभङ्गिमात्रेणोक्तं भवति। तदेवमवयवि द्रव्यमुपपत्तिभिरनुसन्धीयमानमेकान्ततो लीयते। कथं तर्हि स्थूलावभासिनी मनीषा समर्थनीया ? इत्थम्--उत्तराधरभावेन निरन्तरमुत्पन्ना: परमाणव एव समधिगतैन्द्रियकज्ञानजननयोग्यदशाविशेषा: प्रत्यक्षमीक्ष्यन्ते। तांस्तथाभूताननुसंदधतस्तद्बलभावी मानस एव स्थूलविकल्पो विजृम्भते, दूरादिव तरुषु निरन्तरेषु समनुभूयमानेषु वनमिति मति:। अत: स्थवीयसां द्रव्याणामाश्रयत्वेनाभिमतानामयोगाज्जातिरपि तदाश्रिता नाभ्युपगममर्हति। अपि च जातिरपि नेन्द्रियज्ञानविषया प्रतीयते, तस्या नित्यत्वेनाभ्युपगमात्। नहि नित्यं कस्मैचित्कार्याय पर्याप्तम्; तद्धि न शक्तस्वभावम्, नित्यं कार्योदयप्रसङ्गात्। अशक्तस्वभावं तु नित्यत्वादविचिकित्सयाऽशक्तिकं नित्यं न किञ्चित् कुर्यात्। न चाजनकमिन्द#्रिनयज्ञानविषयतामनुभवति। यो हि विषय: स्वस्यान्वयव्यतिरेकज्ञानमनुकारयति, स प्रत्यक्ष:। किञ्च समुन्मिषितचक्षुषश्चिराय विषयान्तरानुसन्धानव्यावृत्तचित्तस्य पुरोवर्तिनीं स्वस्तिमतीं कालाक्षीं वा साक्षात्कुर्वाणस्येव न जातिरपराऽवभासते। अन्यच्च न जातिरसौ पिण्डड्डत्ध्;#ै: सहोत्पद्यते, विनश्यति वा। तथोपगमे 58स्वरूपहानिप्रसङ्गात्। एका59 च जातिरनेकाधिष्ठाना प्रतिज्ञायते, उत्पत्तिमती विनाशिनी चान्याऽन्या स्यात्, विरुद्धधर्माध्यासस्य भेदापादकत्वात्। सेयं नित्या जातिरुदितवत्यां व्यक्तौ प्रतीयमाना नान्यत आगता, निष्क्रियत्वात्। न च तत्रैवासीत्, प्रागप्रतीते:। न च स्थितिरपि युक्तिमती, व्यक्तिरेव हि तस्या देशो नाकाशादि:, अनुत्पन्ना च व्यक्तिरिति क्वाऽवतिष्ठतामाकृति:। नचोत्पाद्येऽप्यवतिष्ठते। तदेषा जातिरवतिष्ठते, नावतिष्ठते च, इति सङ्कटमापतितम्। किञ्च व्यक्तेरभिन्नाझ्र्वाट ? भिन्ना वा ? उभयरूपा वा जातिरास्थेया ?। तत्र नाभिन्ना; तथाभावे व्यक्त्या सहोत्पादे विनाशे वा स्वरूपहानिप्रसङ्ग इति पुरस्तादुपन्यस्तम्। व्यक्तिमात्राङ्गीकारे च कोऽस्मत्पक्षस्य अस्य च भेद इत्यपि चिन्तयाऽन्त: सीदन्तु भवन्त:। अतो व्यक्तिमात्रमेवव तत्त्वमिति वदतां साहाय्यकमेवाचरितमनतिरेकिणीं जातिमुररीकुर्वाणै:। भिन्नत्वेऽपि पिण्डड्डत्ध्;ग्रहणमन्तरेण ग्रहणापत्ति:। उभयप्रतीतौ च सम्बन्धप्रतीतिसमापत्ति:60। अस्त्येवेति चेत्; महदिदं वैयात्यम्। क: खलु इह गवि गोत्वमिति मतिमभ्युपगच्छेत्, अन्यत्र निरस्तत्रपायन्त्रणात् भवत:। भिन्नत्वे च वृत्तिप्रकारो दुर्निरूप एव---किं व्यासङ्गिनी वृत्ति: ? उत प्रत्येकपरिसमाप्तिमतीति। एकत्र च परिसमाप्तावन्यत्र न वर्तेतेति पुनरपि स्वरूपहानिप्रसङ्ग:। व्यासङ्गोऽपि कालत्रयवर्तिनीषु व्यक्तिष्वनुपपन्न एव। प्रत्येकञ्च गौ: गौरिति प्रत्ययो विकल्पमात#्रमित्यङ्गीकृतं स्यात्। न चोभयरूपता, विरोधात्। न चोपलम्भबलेन विरोध एव नास्तीति चतुरस्रम्, तथाविधस्योपलम्भस्यैवासम्भावनीयत्वात्। अभिन्नाकारबुद्धिबोध्यं हि वस्त्वभिन्नमिति लौकिका: मन्यन्ते, विलक्षणाकारबोधविषयश्च भिन्नमिति। तत्र यदि विलक्षणाकारप्रतीतिसमये द#्वे वस्तुनी विलक्षणेनाकारेणावभातस्तदाऽभेदप्रतीतिदशायामेक आकारोऽनुभवनीय:---स जातिभागस्य ? तत्रैकस्य द्विरवभासोऽयं स्यान्न तु जातिजातिमतोरभेदावभास:। अथ---विलक्षणावप्याकारौ तादात्म्येनावसीयेते---इति मतम्। तत्रापि पर्यनुयोजनीय:---किमिदं तादात्म्यं नामेत#ि ? यद्येकाकारतेति ब्रूयात्; तर्हि पूर्वोक्तमेव दूषणमात्मसात्कृतम्। शब्दयो: सामानाधिकरण्यं तादात्म्यमिति चेत् ? 61अयुक्तमिदं, गौर्वाहीक इत्यादावतादात्म्येऽपि सामानाधिकरण्यदर्शनात्। उपचारस्तत्रेति चेत्। अत्रापि भिन्नजातिवादिन उपचारमेव मन्यन्ते। वयन्तु विवक्षामात्रपरतान्त्रा: शब्दा न वस्तुव्यवस्थापनायेशत इति सर्वत्र मन्यामहे। कथं तर्हि गौर्गौरिति नानाभूतासु व्यक्तिषु बुद्धिरनुवृत्तमाकारमुल्लिखन्ती समुपजायते ? तेनास्या एव बुद्धेद्र्रढिम्न: कारणमनुमास्यामहे। अस्ति तद्विशेषणं यदुपरागवशेनेयं भिन्नेष्वभिन्नाकारानुसन्धायिनी धीरुदीयत इति। तदपि न जातिसाधनसमर्थम्। कार्यभूता हि बुद्धिरेषा कारणमाक्षिपन्ती यदनन्तरमेवोपजायते तदेव कारणं कल्पयति, न पुनरप्रतीतमपरमपि किञ्चिदुपस्थापयति। सा चेयं स्वलक्षणविषयदर्शनसमनन्तरभाविनीति ता एव व्यक्तय: स्वनिर्भासा बुद्धीरुपजनय्य तन्मुखेन तामेकाकारानुभासिनीं धियमाविर्भावयन्ति। नितान्तभेदवतीनां च व्यक्तीनां कासांचिदेष महिमा न सर्वासामिति किमनुपपन्नम्। यथा ह्यत्यन्तभिन्ना अपि चक्षुरालोकमनस्संयोगा: एकसामग्रीसमुपनिपतिता एकविज्ञानोदयलक्षणं कार्यमारभन्ते, तथा व्यक्तयोऽपि किं नारभन्त इति नेदं प्रतिपत्तिकठिनम्। सा चेयं स्वाकारेणाभेदेनात्यन्तिकभेदयोगिनीनामपि व्यक्तीनां भेदं सम्वृणोतीति संवृतिरित्यनुगीयते। एषा च मनीषा न स्वलक्षणं विषयीकरोति, तस्य विशदावभासित्वात्, अस्याश्चाभिलापसंसर्गयोग्यार्थप्रतिभासत्वात्। अभिलापानाञ्च विशदाकारमवभासितुमशक्ते:, अभिलापमात्रेण तथाविधप्रतीत्यभावात्62। तेनैषा न स्वच्छाकारावभासिनी। नन्वेतत् प्रतीतिपराहतमुदितम्, गौरयमिति बुद्धौ विशदावभासात्। उच्यते---न विशदावभासित्वमवजानीमहे। तत्तु समानकालभाविनो निर्विकल्पप्रतययस्य स्वलक्षणावलम्बिन: प्रसादात्, तदभावे तथात्वानुपलम्भात्। न चैतद्वाच्यं कथमेकमेव वस्त्विन्द्रियैर्विशदावभासं अनुभूयते, शब्दैश्चा63विशदावभासमिति। भिद्यमानेऽपि बोधोपाये बोध्याभेदेबोधवैलक्षण्यानुपपत्ते:। नियताकारञ्च स्वलक्षणमनियताकारश्चास्यां बुद्धौ चकास्ति। तदेवं विशदाविशदतया नियतानियततया च स्वलक्षणस्य विकल्पाकारस्य च भेदे सत्यपि विकल्पा: साक्षात्परम्परया वा स्वलक्षणविषयदर्शनप्रभवतया स्वलक्षणग्रहणाभिमानिनो जायन्ते। तत एव तत्र प्रवर्तयन्त: पुरुषं व्यवहाराङ्गभावमनुभवन्ति। पारम्पर्येण वस्तुनि प्रतिबन्धादवस्त्वपि प्रतिबद्धं भवति, मणिप्रभायां मणिबुद्धिवत्। यथा हि खलु मणिप्रभायां मणिदीप्तायां मणिकिरणविषयिणी मणिबुद्धिरयथार्थतया भेदमजुषमाणापि मणिमनु प्रतिबद्धेति मणिसमधिगमनिमित्तं भेवत,

तथेयमपि वस्तुत: स्वलक्षणमगृढद्धठ्ठड़14;णत्यपि स्वलक्षणाद्दर्शनं, दर्शनतो विकल्प इति स्वलक्षणप्रतिबद्धा सती तत्प्राप्तये प्रभवति। निर्विकल्पकप्रत्ययसमधिगतस्वलक्षणप्रापकतया च स्मृतिरियमुच्यते। तत एव च गृहीतग्राहित्वादप्रमाणम्, अन्यथा वस्तुविषयतया वस्तुप्रापकतया च#ानुमानमिव प्रमाणमेव स्यात्। स चायं तस्याकार: प्रथमानो न ज्ञानस्यैव, बहिष्ट्वेनावभासात्। न चार्थगत एव; उक्तेन न्यायेन निरस्तत्वात्। किन्त्वयमसन्नेव ज्ञानमनु भासते शब्दमिव प्रतिशब्द:। एतच्च शास्त्रचिन्तका विवेचयन्ति, प्रतिपत्तारस्तु दृश्यविकल्प्यावर्थावेकीकृत्य बाह्यमेवानुन्यमाना व्यवहारेषु प्रवर्तन्ते, प्रवृत्ताश्चार्थप्रतिलम्भेनाविसंवादं मन्यन्ते। कथं पुनरेकत्वाध्यवसायो दृश्यविकल्प्ययो:, अतद्व्यावृत्ततया तत्सदृशत्वात्, यथा दृश्यस्यातद्व्यावृत्तता, तथा विकल्प्यस्यापि। तस्माज्जातिप्रत्ययो विकल्पमात्रम्, परमार्थतस्तु न जातिर्नाम किञ्चित्। अपि च द्रव्यसमवायिनी जातिरभिमता। न च गन्धादिव्यतिरिक्तं द्रव्यमुपलभामहे, चक्षुरादीनां प्रत्येकं रूपाद#िष्वेव व्यापारादिति पूर्वपक्षसंक्षेप:। सिद्धान्त:--- अत्रोच्यते---संविदेव हि भगवती विषयसत्त्वोपगमे शरणम्। गवादिषु च स्थूलाकारावलम्बिनी संविदुदीयत इति निर्विवादम्। नयवीथ्याञ्च निर्णीतं प्रमाणं स्मृतिश्च न: प्रत्यय इति। ननु तदेवासदिति मन्यते, अवयव्यादीनामेकान्ततोऽनुपपन्नत्वात्। उच्यते। न दृष्टे काचिदनुपपत्ति:। ननूक्ताऽवयविनोऽनुपपत्ति: आरम्भकाभावात्। अनुपपन्नेयमनुपपत्ति:; कार्यं प्रतीतं कारणकल्पनायां प्रमाणम्। न पुन: स्फुटावभासिकार्यं कारणाऽनिरूपणेऽपढद्धठ्ठड़14;नवमर्हति, तेनावयवा एव समासादितसंयोगलक्षणसाधारणगुणा अवयविन उत्पादका भविश्यन्ति। 64संयोगश्चैक एवानेकत्र वर्तते, एकैकत्र संयुक्तप्रत्ययानुदयात्, एकातिरिक्तानेकाभावेऽप्येकैव एव सद्वितीय आश्रय: संयोगस्येति न दोष:। ननु द्रव्यं एव तथोत्पन्ने संयोगविकल्पमाविर्भावयतो न तदतिरेकी संयोगो नाम कश्चिद् गुणविशेष:। तन्न, प्रत्यभिज्ञायेते हि द्रव्ये अनुवृत्ते। कादाचित्की च तयोरपरेयं दशा दृश्यत इति भवत्येव भेदसिद्धि:। स्थापिता च मीमांसाजीवरक्षायां प्रत्यभिज्ञा। अत: संयोगलक्षणसाधारणगुणासमवायिकारणोपगृहीता अवयवा एव समवायिकारणमवयविन उपपद्यन्ते। 65यश्चायमवयविनो वृत्तिविकल्पेन दोष उक्त:, सोऽप्यवयविन: प्रतीतौ स्थितायामनुपपन्न:। व्यासक्त एवावयवेष्ववयवी, नैकत्र जातिवत्परिसमाप्त:। अवयवान्तरैरपि च विना स तस्य कोऽपि महिमा, य एक एवानेकावयवानुस्यूत इति किं न कल्प्यते। यद्यपि चावयविन एकैकत्रावृत्तिस्तथापि नावृत्तिदोष:। संयोगसचिवा एवावयवा जनका आश्रयभूता यत: जनकतयैवाश्रयत्वात् समवायिकारणानाम्। अत एव संयोग: सद्वितीयाश्रय इति न दोष:। न च सकलावयवोपलम्भसापेक्षा तदुपलब्धि:, अवयविनस्तेभ्यो भिन्नत्वात्। न चैतावता एकावयवग्रहणेऽपि ग्रहणपर्यनुयोगो युक्त:, कार्यानुगुणत्वात् कारणकल्पनाया:। कार्यसिद्ध्यर्थं हि कारणं परिकल्प्यते न कार्यविनाशाय। तेन यावतामवयवानां ग्रहणे तदुपलम्भस्तावतामेवावगमस्तदवगमनिबन्धनमिति दर्शनबलेनाभ्युपेयते। 66भिन्नत्वेऽति तत एव सहोपलम्भनियम:, उपेयोपायभावात्। उपेयभूतोऽवयवी उपायपदवर्तिनश्चावयवा:। प्रत्येकं तु तेषां शक्यत एवासहोपलम्भोऽपि वक्तुम्, अवयवान्तरयोगिनोऽवयविनोऽपि परिग्रहे इतरावयवव्यतिरेकोऽपि सुदर्श एव। इयञ्च भेदसाधने युक्ति:---अन्वयव्यतिरेकाभ्यां हि वस्त्वन्तरत्वमवसीयते, अवगम्यमानोऽपि चावयवी विलक्षणबुद्धिगोचरतामावहत्येव। अवयवी हि स्थवीयानेको हृदयमागच्छति अवयवास्तु क्षोदीयांसो भूयांसश्च। स चायमवयवी महत्त्वाद्रूपवत्त्वाच्च चाक्षुष: स्पार्शनो वा, पार्थिवो वाम्भसो वा तैजसो वा। वायवीयस्तु महत्त्वात् स्पर्शवत्त्वाच्च स्पार्शन एव। द्व्यणुकस्तु चातुर्भौतिकोऽप्यमहत्त्वादप्रत्यक्ष एव। तस्य चामहत्त्वम्, 67अवयवबहुत्वमहत्त्वप्रचयविशेषाणां महत्त्वगुणकारणानामभावात्। गगनादीनां तु महतामपि रूपस्पर्शविधुरतया न प्रत#्यक्षगोचरतेत्यलमतिविस्तरेण। ननु सकलावयवसमाश्रितत्वादवयविनस्तिरोहितैरवयवै: सहेन्र्दियासन्निकर्षे कथमवयविना समागम:? न चासङ्गतमेव बहिरिन्द्रियमवबोधकमिति प्रतिज्ञा युज्यते, अवयवानामप्यसन्निकृष्टेन्द्रियबोध्यत्वापत्तेरिति। उक्तोत्तरमेतत, भिन्नत्वादवयविनोऽवयवान्तरासंयोगेऽपि संयोगबुद्धे: पटादिषूपपन्न एवेन्द्रियसन्निकर्षोऽवयविन:। तदनया दिशा तावदुपपन्नमाश्रयद्रव्यमाकृते: पृथुलम्। ननूक्तं रूपादिव्यतिरेकि द्रव्यं नोपलभ्यत इति, किमिदं पश्यतोहरत्वम्---प्रतीयते हि महानवयवी रूपादिव्यतिरेकी। अत एव जपाकुसुमसन्निधानाभिभूतरूपमपि स्फटिकद्रव्यं प्रत्यभिज्ञायते। कथं नामागृहीतं प्रत्यभिज्ञायेत। अपि च दर्शनस्पर्शनाभ्यामेकार्थग्रहणाद्रूपस्पर्शव्यतिरेकि द्रव्यं स्फुटतरप्रतीतं तत् नापन्होतुमुचितम्। अत एव वनादिषु बाधकप्रत्ययबलेन तत्कल्पना न प्रसरतीति दूरतयान्तरालाग्रहणनिबन्धनोऽयमभेदव्यवहार: प्रवर्तत इति। अवयविनि तु बाधकज्ञानं नास्तीति पुरस्तादावेदितम्। तेनाश्रयद्रव्याभावाज्जातेरपलाप: प्रलापमात्रमिति स्थितम्। यच्चेदमुदितं "नित्यतया जातेरात्मविज्ञानजननेऽपि न शक्ततेति" तदपि 68क्षणभङ्गनिराकरणपर्वणि विस्तरेण नित्यानामथक्रियाकारित्वसमर्थनेन प्रत्युक्तम्। मा वा स्वविज्ञानमपि जातिरजीजनत्। तथापि कथङ्कारंरसावप्रत्यक्षा। काममप्रत्यक्षा। अथवा न खल्वियमाज्ञा राज्ञ: कारणभूतस्यैव प्रत्यक्षेण भवितव्यमिति। यस्तु यत: प्रतीतये स तस्य विषय इति सर्वालौकिकम्। ननु प्रत्यक्षमप्यविसंवाद्येव प्रमाणम्। असंविवादश्च तस्मादात्मलाभात् अन्यतस्तु भवतो69ऽतथाभूतस्य वाऽभावेऽपि भावसम्भवान्नियमेन संवादायोगादिति बालादभ्युपेयं प्रत्यक्षस्य कारणमेव विषय इति। अत एव च प्रत्यक्षमनुमानं च द्वे एव प्रमाणे; तयोरेवार्थाविसंवादकत्वात्। प्रत्यक्षं साक्षादर्थेन प्रतिबद्धम्, अनुमानं त्वर्थप्रतिबद्धलिङ्गजन्यतया पारम्पर्येण प्रतिबद्धम्। यस्य तु न साक्षात्, नापि परम्परयाऽर्थप्रतिबन्ध:, न तस्य प्रमाण्यमुचितं, तस्य तदविसम्वादनियमाभावात्। अर्थाविसम्वादि च प्रमाणं व्यवजिहीर्षमाणा लौकिक#ा आद्रियन्ते इति। सिद्ध्येदयं मनोरथो यदि ज्ञानान्तरनिबन्धनोऽविसंवाद: प्रार्थनीय:। यद्विषयमेव च यज्ज्ञानं, तेनैव तस्मिन् विषये पर्युपस्थापिते नास्ति प्रत्ययान्तरनिबन्धनाऽविसंवादप्रार्थना। अर्थेनाऽप्रतिबद्धमपि च ज्ञानं स्वमहिमपर्युपस्थापितार्थमविसंवादकमेव संप्रवर्तते। तेनोत्पत्तिमात्र एव विज्ञानस्य परापेक्षा, न प्रामाण्येऽ70र्थाव्यभिचारलक्षणे। अत: सिद्धं शास्त्रादीनामपि अर्थप्रतिबन्धविरहिणां प्रामाण्यम्। एतदर्थमेव नयवीथ्यां "सर्वं ज्ञानं विषयाव्यभिचारि" इति प्रतिपादितम्। अतो नित्यायामपि जातौ भवत्येव प्रत्यक्षस्य प्रामाण्यम्। यत् पुनरुक्तम्---"एकभावेन मनसा समाकलयत: कालाक्षीं स्वस्तिमतीं वा नास्ति जातिप्रतीति:" इति। तदसिद्धम्, आकारो हि सा, प्रतीते चाकारे यदि परमर्थान्तरानुसन्धानविकलतया तस्यानुवृत्तिर्नावसीयते। अनुवृत्ता च जातिर्नानुवृत्ति:। अग्रहणेऽपि च धर्मस्य धर्मिणो ग्रहणं नानुपपन्नम्। अत एव च पिण्डड्डत्ध्;ान्तरसमधिगमे पूर्वाकारपरामर्शिनी मनीषा प्रत्यभिज्ञासमाख्यातोदीयते। यच्चोक्तम् "अनाश्रयतया तत्रैव प्रागनवस्थिता निष्क्रियतया चान्यस्मादनागच्छन्ती स्वरूपहानिप्रसङ्गेन व्यक्त्या सहानुपजायमाना कथं सम्बन्धमनुभवति जाति:" इति। तदिदं मायामोहजननं यथाजातजनोद्वेजनमात्रम्। संयोगो ह्युभयकर्मजो भवति मल्लयोरिव, अन्यतरकर्मजो वास्थाणुश्येनयोरिव, संयोगजो वा यथा तन्तुतुरीसंयोगादुत्पन्नस्य पटस्य तुरीसंयोग:। स च कर्म, प्राक्संनिधानं वाऽपेक्षते। समवायस्तु संयोगाद्विभिन्नो न कर्म, प्राक्सत्तां वाऽपेक्षते। यत एव तु पिण्डड्डत्ध्;स्योदय: समवायिकारणात्, तत एव जातिसमवायोऽपि तस्य उत्पद्यते। 71समवायञ्च न वयं काश्यपीया इव नित्यमुपेम:। 72विनष्टाथामपि व्यक्तौ न जातिरन्यत्र याति, न च तत्रावतिष्ठते, न विनश्यति, केवलं तद्व्यक्तिसमवायस्तस्या निवर्तते तेन तस्यानुपलम्भनम्। तथाहि---न याति निष्क्रियत्वात्, नावतिष्ठते व्यक्तिमात्राश्रयत्वात्, तदभावेऽवस्थ#ानांसम्भवात्, न च विनश्यति, पिण्डड्डत्ध्;ान्तरेऽपि प्रत्यभिज्ञायमानत्वादिति। विनाशो नामात्यन्तिकोऽनुपलम्भ 73इत्यमृतकलायां वक्ष्यते। अतो न सङ्कटं किञ्चित्। यच्च पिण्डेड्डत्ध्;भ्यो जातेरभिन्नत्वमुभयरूपत्वञ्च दूषितम्, तदस्माकं साहायकमेवाचरितम्। को हि नाम सचेतन: पदार्थान्तरप्रत्यभिज्ञामभेदाश्रयेण साधयेत्। को वा परस्परविरोधिनी एकस्य द्वे रूपे प्रतिजानीते। भेदवाद: पुनरस्माकमपि सम्मत एव। न च तत्र इहप्रत्ययापत्तिर्दोष:। प्रतीत्य ह्याधारमाधेयञ्च सम्म्बधं प्रतीयात्। सर्वञ्च रूपं रूपिग्रहणमन्तरेण न प्रतीयते। अत: समानेन्द्रियग्राह्यतया जातिरपि व्यक्तिप्रत्ययानुप्रवेशिनीति, न इह प्रत्ययसम्भव:। कर्मणि त्वनुमेये भवत्येव इहप्रत्यय:। वृत्तिविकल्पे तु कृत्स्नसमाप्तिरेवाङ्गीकरणीया। न चान्यत्रावृत्तिदोष:, प्रत्यक्षावगमाद्वृत्ते:। प्रत्यभिज्ञाया: स्थापितत्वात्। पृथग्ग्रहणं तु जातेरसिद्धमेव। व्यक्त्यन्तरे हि जाति: प्रतीयमाना प्राच्यपिण्डड्डत्ध्;परिहारेण प्रकाशते। उदीच्यपिण्डड्डत्ध्;परिहारस्तु प्राक्तनपिण्डड्डत्ध्;समधिगमसमये सिद्ध एवेति परिहृतनिखिलानुपपत#्तिकमुपपादितं गवादिषु साधारणाकारानुभवसिद्धं जातितत्त्वम्। उपपन्नञ्च प्रत्यक्षवेद्यत्वं जाते:, इन्द्रियव्यापारानुविधानेन प्रतीते:। संयुक्तसमवायलक्षणश्च सन्निकर्षोऽपि नानुपपन्न:। गौरयमिति च मतिर्विशदतरार्थनिर्भासिनी प्रथत इति चेत्। तन्न, तथाभावे प्रमाणाभावात्। शब्दमात्रेण तु केवलाकारपरिगृहीताकारप्रतीते: रूपान्तरानवभासाच्चाविशदावभास एव। ऐन्द्रियके तु सम्वेदने प्रचुरतरावयवरूपावभासाद्विशदावगम इति नाबाह्यविषयत्वापत्ति:। नन्वेषा जातिप्रतीतिर्भिन्नामेव व्यक्तिमभेदेनावगमयन्ती जायत इति भ्रान्तिरेषा न प्रत्यक्षं प्रमाणम्। इयन्तु भ्रान्तिर्निर्बीजा न युज्यत इति बीजभावेन जातिरनुमीयते, तत्समवायश्च। दृष्टा हि सन्तापसञ्चारितदहनपरमाणुसंवलितायोगोलके दहनाकारानुकारिणी प्रतीतिरिति। तदिदमुक्तोत्तरमपि पुन: पर्यनुयोज्यामहे विस्मरणापराधादिति मन्यामहे। भिन्ना हि जातिरवगम्यते। न खल्वाकारमाकारिणञ्चैकमेव मन्यामहे। केवलं शब्दप्रयोगे एव समाधिर्वक्तव्य:। तत्र च लौकिक: प्रयोग एव शरणम्। प्रयोगश्च श्रुत्या लक्षणया गौण्या वा वृत्त्या नानुपपन्न:। समवायस्तु भवतु वस्त्वन्तरे सिद्धेऽनुमेय:, प्रत्यक्षेण तदनवगमात्। आकृतिस्तु प्रत्यक्षप्रमाणसिद्धा नाऽनुमेया। नचानुमानमपि शक्यं शाक्येषु प्रतिबन्ध#ृष्वित्यलमतिविस्तरेण। सत्ताजातिनिराकरणम्। अत्र केचिद्गवादितुल्यतया द्रव्यगुणकर्मस्वपि सत्ताजातिमङ्गीकुर्वन्ति, भवति हि सर्वेष्वेव सत्सदिति प्रत्ययानुवृत्तिरिति संवदन्त:। तदिदमपरामृष्टजातितत्त्वानामुपर्युपरि जल्पितम्74। पूर्वरूपानुकारिणी यदि धीरुदीयते, ततोऽभ्युपेयेतैव जाति:। न च नानाजातीयेषु द्रव्येषु सर्षपमहीधरादिषु, गुणेषु गन्धरसादिषु वा समानाकारानुभवो भवति। कवेलं तु तत्सदिति शब्दमात्रमेव प्रयुज्यते। भवति च विनापि ज#ात्या पाचकमीमांसकादिशब्दप्रवृत्ति:। नन्वेवं शब्दप्रवृत्तिरपि नैकनिबन्धनमन्तरेणोपपद्यते। सत्यं, अस्त्येवोपाधिरेक: प्रमाणसम्बन्धयोग्यता नाम।75 76तत्रान्य: पण्डिड्डत्ध्;तम्मन्यो मन्यते---नन्विदमसमञ्जसमुच्यते सर्वत्र ह्युपाधिभेदमवगम्यौपाधिकशब्दानुविद्ध: प्रत्ययो भवति, न पुन: प्रागेव, सह वा। इह च प्रमाणमेव जायमानमस्तीत्येवमेव जायते। प्रमाणोदयोत्तरकालं ह्यनया भवितव्यम्। किञ्च सत्यपि प्रमाणयोगे किञ्चिदस्तीति गम्यते, किञ्चिच्चासीदिति, तथान्यद्भविष्यतीति। तत्र प्रमाणसम्बन्धस्य वर्तमानत्वात् सर्वत्र वर्तमानसत्ताप्रतययेन भवितव्यम्। तदतिरेकिणि तु सत्त्वे तस्य त्रेधा व्यवस्थानाद्युक्तस्त्रिधाऽवभास:। अपि च भूमितलनिखातेषु चिरतरकालवर्तिषु प्रलीनज्ञातृपुरुषेषुलिङ्गादिरहितेषु सकलप्रमाणप्रत्यस्तमयेऽपि वर्तमानसत्तासन्देह:। स च प्रमाणसम्बन्धातिरेकिणीं सत्तामन्तरेणानुपपन्न इति। तदिदमनाकलितपरवचनस्य केवलं गलगर्जितम्। उक्तमस्माभि: प्रमाणसम्बन्धयोग्यतोपाधिरिति। यदि हि प्रमाणसम्बन्ध उपाधिरिति वदेम, तत इत्थमुपालम्येमह्यपि। योग्यता तु प्रमाणसम्बन्धातिरिक्ता प्रमाणेनाऽवसीयत इति युक्त एवास्तीति प्रमाणोदय:। तस्याश्च त्रैकाल्यात् त्रैकाल्यावगमोऽपि समर्थित एव। तस्याश्च संशायिततापि युक्तैव। का पुनरियं प्रमाणसम्बन्धयोग्यता नाम। ननु नामान्तरेण महासामान्यमेवेदमुररीकृतम्। नैतदेवम्; यो हि महासामान्यं सत्तां सङ्गिरते, सोऽपि स्वरूपसत्तां पदार्थानां मन्यत एव। अन्यथा शशश्रृङ्गादीनामनुत्पन्नातिवृत्तानाञ्च किमिति महासामान्येन सम्बन्ध एव न स्यादिति पर्यनुयोगे, क: परिहार: ? तेन स्वरूपसत्तैव प्रमाणसम्बन्धयोग्यता। यस्य हि स्वरूपमस्ति, तत् प्रमाणेन परिच्छिद्यते। त्रैकाल्यमपि स्वरूपस्यैव युक्तम्, न च महासामान्यस्य, नित्यत्वात्। तथा संशयिततापि तस्यैव, न पुनरसंशयिते स्वरूपेऽपर: सत्तासन्देहो भवति। अथ नित्याया अपि सत्ताया: क: सम#्बन्धो य: स त्रिकाल:। तस्यैव त्रैकाल्यं कुत: ? नान्यदत्रोत्तरं स्वरूपत्रैकाल्यादित्यत:। तस्मात्स्वरूपसत्तोपाधिक एव सच्छब्दो न पुनरेक आकार: सत्ता नाम द्रव्यगुणकर्मणाम्। 77अपि च काश्यपीयानां जातिसमवायविशेषेषु स्वरूपसत्तोपाधिक एव सच्छब्द इत्यभ्युपगम:। तस्य च द्रव्यगुणकर्मस्वपि तथाभावोऽस्त्विति। तदेवमपाकृते पदार्थस्वरूपातिरेकिणि महासामान्ये सत्ताख्ये यत् स्वमनीषानिर्मितकुतर्कबलेन सन्मात्रविषयं प्रत्यक्षमिति साधितं, तदतिदूरोत्सारितम्। एतेनैव न्यायेन शब्दत्वमपि निरस्तं वेदितव्यम्। नहि ककारगकारयोरेकमाकारमनुगतं परामृशन्ती मनीषा समुन्मिषति। योऽपि चायं शब्दशब्द:, सोऽपि श्रोत्रग्रहणोपाधिलब्धप्रवृत्तिरिति न जातु जातिकल्पनायै विभवति। तदिदमपहस्तितम्, यदाहु: 78"शब्दत्वमेव तत्तदसाधारणाभिव#्यञ्जकध्वनिनिबन्धनतया नानावर्णपेण विषयीभवत् तस्य तस्यार्थस्यावगमाय कल्पत" इति। ब्राह्मणत्वादिजातिनिराकरणम्। अनयैव च दिशा ब्राह्मणत्वादिजातिरपि निवारिता। नहि नानास्त्रीपुरुषव्यक्तिषु पुरुषत्वादर्थान्तरभूतमेकमाकारमात्मसात्कुर्वान्ती मतिराविर्भवति। नहि क्षत्रियादिभ्यो व्यावर्तमानं सकलब्राह्मणेष्वनुवर्तमानमेकमाकारमतिचिरमनुसन्दधतोऽपि बुध्यन्ते। यदप्याहु:- 79यद्यप्यापातसंजातया धिया ब्राह्मण्यं नावसीयते, तथापि ब्राह्मणभूतमातापितृसम्बन्धानुसन्धानप्रभवायां बंद्धौ तच्चकास्तीति। तदपि च स्वमानसविसंवादि। अनुसन्दधानोऽपि मातापितृसम्बन्धं को जात्वेकमाकारमवबोद्धुं प्रभवति। यच्चोपदर्शितम्---यथा विलीनमाज्यं तैलादव्यत#िरिच्यमानं गन्धग्रहणसहकारिणा चक्षुषैव भिन्नमवगम्तय---इति। तदपि न सुन्दरम्। नहि तदानीं चाक्षुषस्य संवेदनस्य विषयातिरेक:, किंत्वनुमानमेव तत्र सर्पिष:। यस्तु निपुणदर्शो सूक्ष्ममपि रूपमीक्षितुं क्षम:, स चक्षुषैवाज्यजातिमपि प्रत्येति, न गन्धग्रहणमपेक्षते। नन्वेवं बढद्धठ्ठड़14;ववहीनम्, किंनिबन्धनो हि तदानीमाहवनीयादिसाध्यकर्मसु केषांचिदधिकारो नान्येषाम्; किंनिबन्धना च ब्राह्मणशब्दस्य प्रवृत्तिव्यवस्था इति। 80अत्रोच्यते। अनादौ संसारे जन्यजनकभावेन व्यवस्थितास्तावत् काश्चिदेव स्त्रीपुरुषसन्ततय: सन्ति, तासामन्योन्यव्यतिकरेण जाता: स्त्रीपुंसव्यक्तयो ब्राह्मणशब्दवाच्या:। अनिदम्प्रथमतया च सन्तते: सर्वेषां तत्सन्ततिपतितत्वात् सिद्धा ब्राह्मणशब्दवाच्यता। तेन सन्ततिविशेषप्रभवत्वमेव ब्राह्मणशब्दप्रवृत्तावुपाधि:। तत्प्रभवानामेव कर्मस्वधिकार इति न किञ्चिदवहीनम्। के पुनस्ते सन्ततिविशेषा:। न ते परिगणय्य निर्देष्टुं शक्यन्ते, किन्तु लोकत एव प्रसिद्धा: प्रत्येतव्या:। तथा च तज्जन्यत्वेऽवगते ब्राह्मणशब्दं प्रयुञ्जते लोका:। कथं पुनस्तज्जन्यत्मेव शक्यमवगन्तुम्, स्त्रीणामपराधसम्भवात् ? संभवन्ति हि पुंश्चल्यो स्त्रिय: परिणेतारं व्यभिचरन्त्य:। उच्यते। उक्तमेतत् दृश्यादर्शनमेवाभाव इति। यत्र यावत्युपलब्धिसामग्री, तावत्यां सत्यामपि यासां व्यभिचारो न दृश्यते, तासां नास्त्येव व्यभिचार इति लोकप्रमाणकमेतत्। अपि च अप्रमत्तै: स्त्रियो रक्षणीयास्तासु नास्त्येव व्यभिचारसम्भावनावकाश:। यासु त्वस्ति, माभूत् तदपत्येषु तत्सन्ततिप्रभवत्वनिश्चय:। न चैतावता यत्रापि निश्चय: शक्यस्तत्राप्यनिश्चय इति वक्तुं युक्तमिति। यच्च बढद्धठ्ठड़14;वीषु ज्वालास्वेकवर्तिवर्तिनीषु ज्वालात्वं सामान्यं प्रत्यभिज्ञागोचर: कैश्चिदिप्यते। तदपि गुरुरस्माकं न मृष्यति। स खल्वेवं निरीक्षञ्चक्रे अनन्यथासिद्धा बुद्धि: सामान्यकल्पनाबीजम्। इयं तु भेदाग्रहणेन शुक्तिकारजतप्रत्ययवदुपपद्यत इति नालं सामान्यम#ुपस्थापयितुम्। तेन भेदग्रहणपुरस्सरमभेदज्ञानं भिन्नेषु जात्यभ्युपगमे शरणमिति निरवद्यम्। शालिकनाथेन कृतं कृतमतिना जातिनिर्णयाख्यमिदम्। बहुविधविवादहरणं प्रकरणमुरुणाऽवधानेन ।। इति श्रीमहामहोपाध्यायशालिकनाथमिश्रप्रणीतायां प्रकरणपञ्चिकायां जातिनिर्णयो नाम चतुर्थं प्रकरणं समाप्तम्।

अमृतकला नाम पञ्चमं प्रकरणम् सम्पाद्यताम्


प्रमाणलक्षणम्। 82अनुभूति: प्रमाणं सा स्मृतेरन्या स्मृति: पुन:। पूर्वविज्ञानसंस्कारमात्रजं ज्ञानमुच्यते ।। 1 ।। न प्रमाणं स्मृति: पूर्वप्रतिपत्तेरपेक्षणात्। अन्योन्यनिरपेक्षास्तु धारावाहिकबुद्धय: ।। 2 ।। प्रभाकरसम्मतं प्रमाणजातम्। तत्र पञ्चविधं मानं प्रत्यक्षमनुमा तथा। शास्त्रं तथोपमानार्थापत्तीं इति गरोर्मतम् ।। 3 ।। प्रत्यक्षनिरूपणम्। साक्षात्प्रतीति: प्रत्यक्षं मेयमातृप्रमासु सा। मेयेष्विन्द्रिययोगोत्था द्रव्यजातिगुणेषु सा ।। 4 ।। सविकल्पाऽविकल्पा च प्रत्यक्षा बुद्धिरिष्यते। आद्या विशिष्टविषया स्वरूपविषयेतरा ।। 5 ।। सर्वविज्ञानहेतूत्था मितौ मातरि च प्रमा। साक्षात्कर्तृत्वसामान्यात्83 प्रत्यक्षत्वेन सम्मता ।। 6 ।। प्रमाणफलभावनिरूपणम्। मानत्वं संविदां बाह्यं हानादानादिकं फलम्। ज्ञानस्य तु फलं सैव व्यवहारोपयोगिनी ।। 7 ।। आपेक्षिकञ्च करणं मन इन्द्रियमेव वा। तदर्थसन्निकर्षो वा मानञ्चेत् पूर्वकं फलम् ।। 8 ।। अनुमाननिरूपणम्। ज्ञातसम्बन्धनियमस्यैकदेशस्य दर्शनात्। एकदेशान्तरे बुद्धिरनुमानमबाधिते ।। 9 ।। य: कश्चिद्येन यस्येह सम्बन्धो निरुपाधिक:। प्रत्यक्षादिप्रमासिद्ध: स तस्य गमको मत: ।। 10 ।। प्रमेयमनुमानस्य दृष्टादृष्टस्वलक्षणम्। परप्रत्यायनेच्छूनामनुमोदयसाधनम्84 ।। 11 ।। वचनं दूषणैस्सार्धमर्थादेतेन वर्णितम्। प्रत्यक्षवच्च 85वक्तव्या प्रमाणफलवर्णना ।। 12 ।। शास्त्रनिरूपणम्। शास्त्रं तु शब्दविज्ञानात् यदसन्निकृष्टार्थविज्ञानम् ।। 13 ।। उपमाननिरूपणम्। सादृश्यदर्शनोत्थं ज्ञानं सादृश्यविषयमुपमानम्। 86विषयोऽस्य वित्तिसिद्धो भिन्नो द्रव्यादिभावेभ्य: ।। 14 ।। सादृश्याद्दृश्यमानाद्यत् प्रतियोगिनि जायते। सादृश्यविषयं ज्ञानमुपमानं तदुच्यते ।। 15 ।। अर्थापत्तिनिरूपणम्। विना कल्पनयाऽर्थेन दृष्टेनाऽनुपपन्नताम्। नयता87 दृष्टमर्थं या साऽर्थापत्तिस्तु कल्पना ।। 16 ।। अभावेन गृहे भावो बहिष्कल्पनया विना। नयताऽनुपपन्नत्वं कल्प्यमानो88 बहिर्यथा ।। 17 ।। गम्यस्यानुपपन्नत्वमिह कल्पनया विना। मानान्तरविरोधेन सन्देहापत्तिलक्षणम् ।। 18 ।। देशेन हि विनाभावो न कदाचन दृश्यते। विनाभावेन सिद्धोऽपि तेन सन्देहमृच्छति ।। 19 ।। तत्सन्देहव्युदासाय कल्पना या प्रवत्र्तते। सन्देहापादकादर्थादर्थापत्तिरसौ89 स्मृता ।। 20 ।। 90यत्कल्पनां विना योऽर्थ: प्रतीतोऽप्येति संशयम्। तेन तत्कल्पनामेके त्वर्थापतिं्त प्रचक्षते ।। 21 ।। गमकस्यानुमाने तु विपक्षाऽसत्त्वलक्षणम्। गम्यतेऽनुपपन्नत्वं विना गम्येन वस्तुना ।। 22 ।। तत्सामग्रीविभेदेन भिन्ने एते परस्परम्। अर्थापत्त्यनुमानाख्ये प्रमाणे इति निश्चितम् ।। 23 ।। अनुपलब्धिप्रमाणनिराकरणम्। अभावाख्यं91 प्रमाणं ये षष्ठमाहुर्मनीषिण:। तेषां प्राभाकरैरेवं प्रत्यादेशोऽयमुच्यते ।। 24 ।। प्रमाणं खलु कस्यापि प्रमेयस्यावबोधकम्। 92तत्राऽभावस्य किं तावत् प्रमेयमिति चिन्त्यताम् ।। 25 ।। ननु नास्तीति बुद्ध्या93 तु बोध्यं यदुपकल्पितम्। अभावस्य प्रमाणस्य प्रमेयं तत् भविष्यति ।। 26 ।। भूतेलऽत्र घटो नास्तीत्येषा या जायते मति:। सा न भूतलमात्रे स्यात् प्रसक्तेर्घटवत्यपि ।। 27 ।। केवले भूतले चेत्स्यात्कैवल्यं तत्र कीदृशतम्। स्वरूपमात्रं नो तावद्धर्मान्तरमथोच्यते ।। 28 ।। प्रमेयान्तरमेवात्र तावताऽऽङ्गीकृतं भवेत्। तच्च नेन्द्रियविज्ञेयं तद्व्यापारानपेक्षणात् ।। 29 ।। स्वरूपमात्रे दृष्टेऽपि भावे दूरगतोऽपि सन्। कथंचिज्जातजिज्ञासो नास्तित्वं प्रतिपद्यते ।। 30 ।। तेन यत्राऽपि नास्तित्वं बुध्यते व्यापृतेन्द्रिय:। भावांशमात्रे तत्रापि प्रत्यक्षस्य प्रमाणता ।। 31 ।। नास्तित्वं च प्रमाणानामनुत्पत्त्यैव गम्यते। नास्तित्वप्रतिपत्तिर्हि तां विना नास्ति कुत्रचित् ।। 32 ।। योग्यप्रमाणानुत्पत्ते: कारणत्वपरिग्रहात्। अतिप्रसङ्गदोषोऽपि नावकाशमुपाश्नुते ।। 33 ।। अनुत्पत्तिश्च न ज्ञाता सती कारणमक्षवत्। तेन लिङ्गत्वशङ्काऽऽपि दूरादेव निराकृता ।। 34 ।। अनुत्पत्तिश्च विज्ञाता हेतुश्चेल्लिङ्गवद्भवेत्। अनवस्था प्रसज्येत नास्तित्वं न च सिद्ध्यति ।। 35 ।। किञ्च पादविहारादिव्यवहारश्च भूतले। न भूतलपरिच्छेदमात्रेणैव प्रवर्तते ।। 36 ।। प्रसङ्गस्तत्र दुर्वार: कण्टकाद्यन्वितेऽपि हि। अथ केवलभूभागपरिच्छेदात् प्रवर्तते ।। 37 ।। विकल्प्यं तत्र कैवल्यं ग्राह्यस्य ग्रहणस्य वा। ग्राह्यस्य चेत्पुरैवोक्तो दोषस्तर्हि प्रसज्यते ।। 38 ।। ग्रहस्य चेत्तदा सूक्ष्मजिज्ञासा निष्फलां भवेत्। जाता हि केवला 94संविद् व्यवहारस्य कारणम् ।। 39 ।। तेन भावं परिच्छिद्य व्यवहारे चिकीर्षति। दृश्यादर्शनसिद्ध्यर्थं युक्तं सूक्ष्मनिरीक्षणम्95 ।। 40 ।। अत्रोच्यते द्वयी संविद्-वस्तुनो भूतलादिन:। एका संसृष्टविषया तन्मात्रविषया परा ।। 41 ।। तन्मात्रविषया या च द्विधा साऽऽपि प्रसज्यते। प्रतियोगिन्यदृश्ये च दृश्ये च प्रतियोगिनि ।। 42 ।। तत्र तन्मात्रधीर्येयं दृश्ये च प्रतियोगिनि। नास्तित्वं सैव भूभागे घटादिप्रतियोगिन: ।। 43 ।। ननु संसृष्टबुद्ध्या य: पुरस्तादवधारित:। कथं तन्मात्रधीस्तत्र जाता भावो96 न तत्र चेत् ।। 44 ।। शक्यते तदभावेऽपि वक्तुं यो यत्र सन्नभूत्। तस्याभाव: कथं तत्र ब्रूयाच्चेत्तत्र कारणम् ।। 45 ।। तन्मात्रधिय एवास्तु 97वरं तत्कारणं तत:। तस्या: सम्प्रतिपन्नत्वाद्वादिनोरुभयोरपि ।। 46 ।। चक्षुर्वदपरामृष्टं न कारणमदर्शनम्। स्वापावस्थागतस्यापि 98प्रमाणत्वप्रसङ्गत: ।। 47 ।। विशेषापादिका तस्य न निषेधस्य दृश्यता। भावरूपो विशेषो हि नाभावस्योपपद्यते ।। 48 ।। अदर्शने निवृत्तेऽपि पुनर्भावस्व्य कस्यचित्। प्राङ्नास्तित्वं व्यपदिशन्त्यदृष्टस्य पुरा क्वचित् ।। 49 ।। दृश्यस्यादर्शनं तेन ज्ञातं सददबोधकम्। दृश्यादर्शनतस्तस्य ज्ञानं चेदव्य99 वस्थिति: ।। 50 ।। यदि तन्मात्रसंवित्तिरूपं स्यात्तददर्शनम्। तदा तस्या: स्वसंवित्तेरनवस्था निवर्तते ।। 51 ।। तेनाऽवश्याभ्युपेतव्यो विमर्शो दृश्यगोचर:। अदर्शनमभावो हि तन्मात्रानुभवात्मकम् ।। 52 ।। तन्मात्रानुभवश्चायं यददर्शनरूपित:। विमृश्यते भूतलादौ तदभावोऽ100पदिश्यते ।। 53 ।। तन्मात्रानुभवश्चायं न मेय: फलभावत:। किञ्च स्वयं प्रकाशोऽसाविति न्यायविदो विदु: ।। 54 ।। नास्तीति शब्दस्तत्रैव स्वसंवेद्ये प्रवर्तते। तेन नास्तीति विज्ञानन्यायेन न समागतम् ।। 55 ।। मेयाभावे ततो मानमभावाख्यं कथं भवेत्। घटसत्ता न लभ्या हि नासत्ता चोदितात्क्रमात् ।। 56 ।। अभावव्यवहारो हि नि:शङ्कगमनादिक:। तन्मात्रानुभवेनैव यथोक्तेन प्रवर्तते ।। 57 ।। यदा यस्य च दृश्यत्वे सत्यप्यनुपलम्भनम्। तदभावव्यवहृतिस्तदानीं संप्रवर्तते ।। 58 ।। सूक्ष्मकण्टकजिज्ञासाऽप्यत: सार्थकतां गता। तां विना न हि दृश्यत्वं सूक्ष्मसत्ताऽऽधिरोहति ।। 59 ।। व्यवहारप्रवृत्तिश्च दृश्यादृष्टिनिबन्धना। तेन दृश्यत्वसिद्ध्यर्थं 101युक्तं तस्मिन्निरीक्षणम् ।। 60 ।। नन्वेवं लक्षणग्रन्थस्यार्थस्तह्र्यस्य कीदृश:। मीमांसार्णवसम्भूतं पीयतां 102समयामृतम् ।। 61 ।। प्रत्यक्षाद्यपरिच्छेद्यमभावाख्यं 103चतुर्विधम्। प्रमेयं साधयत् मानमभावाख्यं वदन्ति ये ।। 62 ।। तन्निराकरणार्थोऽयं यत्नो भाष्यकृता कृत:। अभावोऽसंनिकृष्टस्य नास्तीत्यस्यावबोधक: ।। 63 ।। प्रमाणं न भवतीति प्रमाणाभाव 104 उच्यते। किं निराकरणस्येह फलमित्यथ चेन्मतम् ।। 64 ।। उच्यते लक्षणग्रन्थ: प्रत्यक्षादे: समथ्र्यते। प्रमाणं कार्यगम्यं हि सर्वत्रेति विनिश्चितम् ।। 65 ।। निश्चयश्च प्रमाणस्य कार्यमित्यपि संमतम्। निश्चयश्चेयमेवेति संवित्ति: सर्ववस्तुषु ।। 66 ।। सा च वस्त्वन्तराभावसंवित्त्यनुगमे सति। प्रमाणानुदयस्तत्र यत्राभावोऽवसीयते ।। 67 ।। तदा तेन सहैव स्यात् प्रत्यक्षादे: प्रमाणता। लक्षणं क्रियमाणं च तथाभूतस्य युज्यते ।। 68 ।। न कृतं च तथा तेन न कृतं साधुलक्षणम्। इमां शङ्कां निराकर्तु निराकरणमुच्यते ।। 69 ।। कथं पुनरियं शङ्का भवत्यत्र निराकृता। अभावाख्यो न मेयोऽस्ति यदर्थं प्रात्र्यते पुन: ।। 70 ।। प्रमाणानामनुत्पाद: साधु तल्लक्षणं कृतम्। इति पूर्वप्रमाणानां लक्षणानि समादधत् ।। 71 ।। भाष्यकार इमं ग्रन्थं चक्रे नाऽऽभावलक्षणम्। नन्वेवमपि 105 पञ्चाह शब्दं हित्वा कथं पुन: ।। 72 ।। भाष्यकार: प्रमाणानि चित्राक्षेपं समादधत्। उच्यते व्यवहारस्य हेतुभूतप्रसिद्धये ।। 73 ।। एवमाहोभयात्मापि व्यवहार: प्रतिष्ठित:। तत्र भावव्यवहृति: पञ्चस्वेवोपलभ्यते ।। 74 ।। अभावव्यवहारस्तु दृश्यादृष्टिविमर्शज:। सा हि भूभागसद्भावमात्रावच्छेदबन्धना ।। 75 ।। तदभावव्यवहृतिरिति प्रागेव दर्शितम्। मीमांसाजलराशेरशेषनयरत्ननिकषनिजधाम्न: ।। 76 ।। इति शालिकनाथ इमाममृतस्य कलामुदादहद्धीर:106 । इति महामहोपाध्यायश्रीशालिकनाथमिश्रप्रणीतायां प्रकरणपञ्चिकायाममृतकला नाम पञ्चमं प्रकरणं समाप्तम्।।

प्रमाणपारायणं नाम षष्ठं प्रकरणम्। सम्पाद्यताम्

प्रथम: प्रत्यक्षपरिच्छेद: सम्पाद्यताम्


प्रकरणार्थप्रतिज्ञा। स्वरूपसंख्यार्थफलेषु वादिभि: यतो विवादा बहुधा वितेनिरे। ततो वयं तत्प्रतिबोधसिद्धये प्रमाणपारायणमारभामहे ।। 1 ।। किं पुनरिदं प्रमाणं नाम ? न तावदविसंवादि ज्ञानं प्रमाणम्। स्मृतेरपि तथाभावप्रसक्ते:। अथ स्मृतिर्विकल्परूपतया परमार्थसत् स्वलक्षणमगृढद्धठ्ठड़14;णान्ती संवृतिसन्तमाकारमवस्तुभूतमुल्लिखन्ती द्विचन्द्रादिबोधवन्नाविसंवादिनीति मतम्। एवमपि नानुमानं प्रमाणं स्यात्। तस#्यापि विकल्परूपत्वात्। तर्हि विकल्परूपमनुमानमवस्तुविषयमपि वस्तुविषयमिवाध्यवसीयते, इत्यध्यवसीयमानवस्तुभूतस्वलक्षणाविसंवादितया तत्प्रमाणम्। स्मृतिरपि तथा स्यात्। सापि हि स्वलक्षणाध्यवसायिन्येव जायते। अपि चावस्तुभूतं स्वविषयं वस्तुतयाऽध्यवस्यच्छुक्तिकारजतब#ोधवत् कथमनुमानमविसंवादि। किञ्च यद्यनुमानं विकल्परूपतया स्वलक्षणं न गृढद्धठ्ठड़14;णाति, कथं तह्र्यध्यवस्यत्यपि। नहि ग्रहणादन्योऽध्यवसायो नाम। यो ह्याकारो न गृह्यते स कथमध्यवसीयेतापि। प्रतीतिविरुद्धं चेदमुच्यते "स्मृतिरनुमानवद् बाह्यं वस्तु न विषयीकुरुते" इति। विकल्पभूतयोरपि तयो: प्रत्यक्षप्रतीतवस्तुग्राहकत्वप्रतीते:। अथोच्येत---न वयं यथावस्थितार्थग्राहकमविसंवादकमभिदध्महे, किन्त्वर्थक्रियासमर्थवस्तुपरिप्रापकम्। यथाभूतं हि येन वस्तूपदर्शितं, प्रवृत्तोऽपि यदि तथाभूतमेव प्रतिलभते; तदा तदविसंवादिज्ञानं प्रमाणमुच्यते। तथा चोक्तम्---"प्रमाणमविसंवादिज्ञानमर्थक्रियास्थिति:। अविसंवादनं .......झ्र्प्र. वा. परि. 1-श्लो. 3.ट" इति तथा---"न108 ह्याभ्यामर्थं परिच्छिद्य प्रवत्र्तमानोऽर्थक्रियायां विसंवाद्यत" इति च। एवमपि स्मृते: प्रामाण्यापत्ति:। अथ मतं स्मृत्वाऽर्थ प्रवर्तमानो नियमेनाऽर्थ न प्रतिलभते इति। एवमपि भूतार्थविषयमनुमानमप्रमाणं स्यात्। नहि तदुपदर्शितार्थस्य प्रतिलम्भोऽस्ति। अथ यद्यप्यनुमानप्रतीतस्य भूतस्य वस्तुन: प्राप्तिर्नास्ति, तथापि तत्प्रतिबद्धलिङ्गजन्मतया तस्य प्राप्तियोग्यता तावदस्त्येव, तावता च तस्य प्रामाण्यमिति। एवमपि स्मृति: प्रमाणमापद्यते। स्मृतिरपि ह्यनुमानवदर्थे पारम्पर्येण प्रतिबद्धैव। यथा वढिद्धठ्ठड़14;नस्वलक्षणाद्धूमस्वलक्षणम्, ततश्च धूमदर्शनम्, ततश्च धूमविकल्प:, तस्माच्चानुमानमित्यनुमानमर्थेन पारम्पर्येण प्रतिबद्धत्वादर्थाविसंवादि अर्थप्रापणसमर्थम्, तथा स्मृतिरपि---अर्थादनुभव:, तत: संस्कार:, संस्काराच्च स्मृतिरित्यर्थप्रतिबद्धैवेति तत्प्राप्तियोग्यतया प्रमाणमापद्येत। यदि मन्वीत सत्यामपि प्राप्तियोग्यतायां स्मृतेर्यत् तया प्रापयितव्यं स्वलक्षणं, तदनुभवेनैव प्रापितमिति न प्रमाणं स्मृति:, अनुमानं त्वप्राप्तस्वलक्षणप्रापकतया प्रमाणमिति। एवमप्यर्थक्रियासमर्थवस्तुपरिप्रापकतामात्रं न प्रमाणलक्षणम्, किन्तु विशेषणमुपादेयम्, 109अप्राप्तप्रापकमविसंवादिज्ञानं प्रमाणमिति। अथोच्यते प्राप्तं प्रति प्रापकत्वमेवापरस्य नास्तीति। तदसत्। अर्थप्रतिबद्धता हि प्रापकता, सा च ज्ञानान्तरस्यापि नानुपपन्ना। यद्युच्येत न प्रापकतामत्रेण प्रामाण्यम्, अपि तु प्रवर्तकतयापि। तथा सति यत् प्रापयतिप्रवर्तयति, च तत् प्रमाणमिति। एतदपि न किञ्चित्। प्रवर्तकतापि ज्ञानान्तरस्यापि घटत एव। प्रवृत्ति योग्यार्थोपदर्शकत्वमेव प्रवर्तकत्वम् ; तच्च भूतार्थविषयानुमानस्येव स्मरणस्याप्यस्ति। प्रवर्तकत्वे च प्रमाणलक्षणा नुप्रवेशिनि निर्विकल्पकज्ञानानामप्रमाणता स्यात्, स्वयं व्यवहारप्रवर्तकत्वाभावात्। तदुत्थास्तु विकल्पा एव प्रापकतया प्रवर्तकतया च प्रमाणभूता: स्यु:। धारावाहिकज्ञानेषु च पूर्वज्ञानविषयार्थत्वादुत्तरेषां प्रमितित्वं न स्यात्। अथोच्येत। इष्यत एव तेषामप्रमाणतेति। तदयुक्तम्। लोके तेषु पूर्वस्मादविशिष्टत्वात् प्रमाणभावस्य। लौकिकं च 110प्रामाण्यं परीक्षकैरप्यनुसरणीयम्। अथ भिन्नत्वादर्थक्षणानां सर्वेषामप्यप्राप्तप्रापकत्वमस्तीति। तदसत्। क्षणभेदस्यापरामर्शान्न तदपेक्षा प्रमाणतोचितेति। क्षणिकता च 111मीमांसाजीवरक्षायां प्रतिक्षिप्तैवेति कृतमतिविस्तरेण। भाट्टाभिमतप्रमाणलक्षणखण्डड्डत्ध्;नम्। नापि 112दृढ़मविसंवाद्यगृहीतार्थग्राहकं प्रमाणमिति प्रमाणलक्षणमुपपद्यते। धारावाहिकज्ञानानामुत्तरेषां पुरस्तात्तनप्रतीतार्थविषयतया प्रामाण्यापाकरणात्। न च कालभेदावसायितया प्रामाण्योपपत्ति:। सतोऽपि कालभेदस्यातिसौक्ष्म्यादनवग्रहात्। अपि च दृढ़मिति किं निवत्त्र्यम् ? संशयज्ञानमिति चेत्, क: पुनरयं संशय: ? साधारणधर्मदर्शनादेकत्र अनेकधर्मावगमाद्वादिनामध्यवसीयमानविशेषाणां विप्रतिपत्तेश्चानध्यवसितविशेषे वस्तुन्यनियतविशेषविषयं विज्ञानं 113संशय इति तार्किका:। यथा सन्तमसतिरोहितविशेषे वस्तुन्यूध्र्वतामात्रदर्शनेन किमयं स्थाणुरुत पुरुष इति। तथा---प्रत्यक्षो वायु: स्पर्शवत्त्वात् पृथिवीवत्। तथा---अप्रत्यक्षो वायुररूपवत्त्वात् गगनवदिति। केचिन्नित्यं शब्दमाहु:, केचिदनित्यं इति वादिनां विवाद#ात् जिज्ञासोस्तत्त्वे संशयो भवति इति। तदसत्। यौ हि धर्मौ संशय्येते, तयोरेकमिदं ज्ञानं नोदीयते, किन्तु द्बे एते विज्ञाने विशेषणस्मरणे। तयोश्च विशेषणयोरेकस्यापि तस्मिन् धर्मिणि निश्चयो नास्तीत्येकान्ततो व्यवहारं प्रतिपत्ता प्रवर्तयितुमशक्नुवन् संशेत इव भवतीति, भवति संशयव्यवहार:। ये च स्मरणे तयोर्गृहीतग्राहितयैव प्रामाण्यं निरस्तमिति किं दृढ़ग्रहणेन। 114अविसंवादिग्रहणमपि सर्वज्ञानानामर्थाव्यभिचारादविशेषकम्। ननु शुक्तिकायां रजतमिदमिति ज्ञानं, प्रतिबिम्बज्ञानं च व्यभिचारि दृश्यते। नैतदेवम्। यदि रजतज्ञानं रजतविषयं न स्यात्, ततो व्यभिचरत्यर्थम्। रजतविषयत्वे तु को व्यभिचार:? ननु नेदं ज्ञानं रजतविषयम्, किन्तु शुक्तिकाविषयमेव। उच्यते। शुक्तिकाविषयमित्यस्य को।#़र्थ: ? किं याऽसौ शुक्तिकाव्यक्तिस्तामेव विषयीकरोति ? उत शुक्तिकात्वमेव। न तावद्शुक्तिव्यक्तिरनेन विषयीकर्तु शक्या। भिन्नत्वादाकारस्याकारिणश्च। न च समीचीनरजव्यक्तिरपि न रजतत्वबुद्ध्या गोचरीभवति, किं पुन: शुक्तिका व्यक्ति: ? शुक्तिकात्वं पुनरभासमानमेव विषय इति नोपपद्यते। अथोच्येत व्यवहारयोग्यतापत्तिर्विषयत्वमिति, तथापि शुक्तिकात्वमविषय एव। न हि तद् व्यवहारयोग्यतामापद्यते। अवभासमानतैव विषयत्वम्। तेन रजतत्वमेव विषय:। तच्च पुरोवर्तिनि न सम्भवतीति तद्विषयिणी स्मृतिरेवेयं कुतोऽस्या व्यभिचार:। प्रतिबिम्बज्ञानं तु मुखाद्यवभावं मुखादिविषयमेव। भास्वरे हि दर्पणादौ नयनरश्मिर्निपतित: प्रतिहत: परावृत्तो मुखादिना संयुक्तस्तदेव मुखादि गृढद्धठ्ठड़14;णाति। नन्वेवमपि सव्यदक्षिणविपर्यासो, देशविशेषान्यत्वपरिमाणाल्पत्वमहत्त्वप्रतिभासश्च निर्निबन्धन:। अत्राभिधीयते। मुखादेर्देशो न गृह्यते दर्पणादीनां त्वग्रहणमिति मुखादयस्तद्देशा इव भान्ति। अभिमुखेन मुखादिना नयनरश्मि: संयुक्त इति तथैव तदवगमात् सव्यदक्षिणविपर्यासो युक्त एव। अल्पत्वमहत्त्वे च दर्पणादे रश्मिप्रतिघातहेतोरल्पतया महत्तया च दोषभूतया मुखादिपरिमाणाग्रहणाद्दर्पणादिपरिमाणग्रहणाच्च मुखादिष्ववभासेते। तेन नास्ति व्यभिचार:। एवमादि च नयवीथ्यां निपुणतरमुपपादितमित्यनयैव दिशा सर्वत्र115 व्यभिचारो वर्जनीय इति नेदमपि प्रमाणलक्षणम्। प्राभाकरसम्मतं प्रमाणलक्षणम्। इदानीं स्वाभिमतं प्रत्यक्षलक्षणमाह। "प्रमाणमनुभूति:"116। न च स्मृते: प्रामाण्यापत्तिरिति दर्शयति---"सा स्मृतेरन्या" इति अथ का स्मृति:। "स्मृति: पुन:---पूर्वविज्ञानसंस्कारमात्रजं ज्ञानमुच्यते"। नचैवं धारावहिकज्ञानानां स्मृतित्वम्। इन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वात् पूर्ववत्। मात्रग्रहणाच्च प्रत्यभिज्ञानस्य न स्मृतित्वम्, इन्द्रिय117सचिवसंस्कारजत्वात्। अथ कथं स्मृतिर्न प्रमाणम्। तत्राह "न प्रमाणं स्मृति: पूर्वप्रतिपत्तेरपेक्षणात्"। स्मृतिर्हि तदित्युपजायमानां प्राचीं प्रतीतिमनुरुद#्ध्यमानां न स्वातन्त्र्येणार्थं परिच्छिनत्तीति न प्रमाणम्। स्मृतिप्रमोषस्तर्हि प्रमाणम्। न। सोऽपि पूर्वप्रतीतिसव्यपेक्ष एव। तज्जन्यसंस्कारमात्राधीनजन्मत्वात्। धारावाहिकविज्ञानेषु तह्र्युत्तरविज्ञानानि स्मृतिप्रमोषादविशिष्टानि कथं प्रमाणानि इत्यत्राह---"अन्योन्यनिरपेक्षास्तु धारावाहिकबुद्धय:"। व्याप्रियमाणे हि पूर्वविज्ञानकारणकलापे उत्तरेषामप्युत्पत्तिरिति न उत्पत्तित: प्रतीतितो वा धारावाहिकविज्ञानानि परस्परस्यातिशेरत इति युक्ता सर्वेषामपि प्रमाणता। यद्यनुभूतिमात्रं प्रमाणं, ततो रजतमिदमिति यद् भ्रान्तिविज्ञानं, तदपि प्रमाणं स्यात्। अत्रोच्यते। रजतमिदमिति नेदमेकं विज्ञानम्, किन्तु द्वे एते विज्ञाने ग्रहणस्मरणरूपे। तत्र रजतमिति स्मरणं तस्यानुभवरूपत्वाभावान्न प्रामाण्यप्रसङ्ग:। इदमिति विज्ञानमनुभवर#ूपं प्रमाणमिष्यत एव। भ्रान्तिरूपता रजतज्ञानस्यैव, ग्रहणव्यवहारप्रवर्तकतया 118व्यवहारे विसम्वादकत्वात्। येऽपि चैकमिदं विज्ञानं मिथ्याभूतमित्यास्थिषत; तेऽपि बाधकप्रत्ययाधीनं मिथ्यात्वमभ्युपगच्छन्तो नेदमंशस्य मिथ्याभावं वदितुमीशते, तत्र बाधकप्रत्ययाभावात्। बाधकप्रत्ययदशायामपीदमंशस्यानुवृत्ते:। एकमपि विज्ञानमर्थावच्छेदसमाश्रितभेदं प्रमाणमप्रमाणं च युक्तमेव। पीतशङ्खादिज्ञानं तर्हि प्रमाणं प्रसक्तम्। तत्र हि पीतिमा शङ्खस्वरूपञ्च द्वयमनुभूयत एव। नयनगतपित्तद्रव्यवत्र्ती हि पीतिमाप्यनुभूयत एवेति नयवीथ्यां निपुणतरमुपपादितम्। शङ्खस्वरूपे चानुभूतिरविसंवादैव। नायं दोष:। को नाम पीतशङ्खज्ञानमप्रमाणमाह, प्रमाणमेव हि तद्, यथार्थविषयत्वात्। विज्ञानद्वयन्त्वेतदेकविज्ञानसाधारणरूपम्, तत्रैकविज्ञानसाधारणरूपावमर्शाद#ेकविज्ञानसदृशव्यवहारप्रवर्तकतया व्यवहारदशायां विसम्वादमावहत् प्रमाणमपि सद् भ्रान्तमित्युच्यते। यत्र तु व्यवहारविसम्वादो नास्ति, तत्र भ्रान्तिरपि न व्यपदिश्यते। यथोष्णजलज्ञाने। तत्रापि न जलगतमौष्ण्यमनुभूयते, किन्तु वन्ढद्धठ्ठड़14;न्यवयवगतमेव। जलगतस्यौष्ण्यस्य च वन्हयसंयोगेनोत्पादनानभ्युपगमात्।पाकजो हि गुण: पाकान्तरेणैव निवर्तते। जलगतस्यौष्ण्यस्यानपेक्षितपाकस्यैवाग्निसंयोगविच्छेदेनैव निवृत्ति:। गत्वरा हि तत्र तेजोऽवयवा: सञ्चारितास्तेष्वन्यत्र गतेष्वपरतेजोऽवयवसञ्चरणविच्छेदे युक्तैवाऽपाकजत्वे पाकान्तरानपेक्षा औष्ण्यस्य निवृत्तिरिति, न पीतशङ्खादिज्ञानतुल्यत्वमुष्णजलज्ञानस्य। तस्मात् पीतशङ्खादिज्ञानं प्रमाणमेव भ्रान्तञ्चेत्यनवद्यम्। यस्तु विपरीतख्यातिवादी उष्णजलज्ञानमप्रमाणं भ्रान्तञ्चाह, तस्य सर्वलोकविरोध:। प्रमाणसंख्यानिरूपणम्। कतिविधं पुन: प्रमाणमित्यत्राह---"तत्र पञ्चविधं मानम्"। अनेनैकादिसंख्या, षडड्डत्ध्;ादिसंख्या च 119व्यवच्छिन्ना। का: पुनस्ता विधा इत्यत्राह--- शास्त्रं तथोपमानार्थापत्ती इति गुरोर्मतम्"। गौतमोक्तप्रत्यक्षलक्षणस्यानुवाद:। किं पुन: प्रत्यक्षस्य लक्षणम्। केचिदाहु:---120इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षमिति। इन्द्रियस्यार्थेन सन्निकर्षाद्यदुत्पद्यते ज्ञानं तत् प्रत्यक्षम्। तत्र स च सन्निकर्ष: षोढा भिद्यते---संयोग:, संयुक्तसमव#ाय:, संयुक्तसमवेतसमवाय:, समवाय:, समवेतसमवाय:, संयुक्तविशेषणता चेति,। तत्र संयोगात् पार्थिवाप्यतैजसवायवीयानां द्रव्याणां चक्षु:स्पर्शनाभ्यां ग्रहणम्। प्राप्यकारि चक्षु: बहिरिन्द्रियत्वात् त्वगिन्द्रियवत्। तैजसं तद् रूपप्रतीतिहेतुत्वात् दीपवत्। तस्य रश्मय: प्रसरन्तो द्रव्येण संयुज्यन्ते। ते च पृथ्वग्रा इति पृथून्यपि द्रव्याणि 121प्राप्नुवन्ति। नन्वेवं दूरे अर्थ इति सान्तरालग्रहणं न स्यात्, प्राप्तौ सत्यां दूरत्वासंभवात् प्राप्यकारित्वात् स्पर्शनवत्। किञ्च संयोगस्य गतिनिबन्धनत्वाद् गतिमतां च क्रमेणासन्नदूरगमनात् समकालमासेदुषां दवीयसां चार्थानां ग्रहणं नोपपद्यते। उच्यते--- 122भोगायतनापेक्षया सान्तरालग्रहणं तावदुपपन्नम्। समसमयसंवेदने तु केचित्परिहारमेवं वर्णयन्ति। सकलानर्थान्प्राप्ययुगपदुपस्थितेन बाह्येन तेजसा सहैकीभूतास्ते चाक्षुषा रश्मयो युगपद्ग्रहणहेतव इति। 123तदन्ये दूषयन्ति---इत्थं प्राप्तावभ्युपगम्यमानायामतिदूरव्यवहितानामप्यर्थानां ग्रहणं दुर्निवारम्। अन्येत्वाहु:---क्षेपीयस्तया तेषां रश्मीनां कालभेदानवग्रहाद्यौगपद्याभिमान इति। तदपरे नानुमन्यन्ते। अतिसन्निकृष्टेषु वस्तुषु गतिकालभेद: पद्मपत्रशतभेदवत् मा नाम अवसायि। 124अनेकयोजनसहस्त्रान्तरितेषु भूमिष्ठेष्वर्थेषु ध्रुवे च सदैव कालभेदानवसायो न बुद्धिमनुरञ्जयति। 125वयन्तु वदाम:---अदृष्टसापेक्षत्वाददोष:। नयनरश्मिभिरेकीभूतेऽपि बाह्ये तेजसि यावानेव तस्य भागोऽदृष्टवशेनोपलब्धिहेतुतयोपात्त:। तावानेवोपलब्धये प्रभवति, न सर्व इति, न सर्वोपलम्भो युगपत् भौमध्रुवादिसिद्धिश्च। ननु प्राप्यकारिणि नायने तेजसि काचाभ्रपटलतिमिरान्तरितेषु कथमुपलब्धि:। तैर्नयनरश्मेरप्रतिघातात्। ये126 पुनरप्राप्यकारि चक्षुराहुस्तेषां व्यवहितविप्रकृष्टार्थग्रहणं दुर्निवारम्। सन्निधान इव विप्रकर्षेऽपि स्फुटतरमणीयांसोऽप्यर्था गृह्येरन्। प्राप्य ग्रहण#े तु तेजोवयवानामप्रचुरतया युक्तमस्फुटदर्शनं दवीयसाम्, क्षोदिष्ठानामदर्शनम्। अथ कस्मादणु पार्थिवादि आकाशकालदिगात्मानश्च न प्रत्यक्षेण गृह्यन्ते। उच्यते---महत्वमनेकद्रव्यत्वं रूपविशेषश्च सन्निर्ष इव प्रत्यक्षहेतु:। 127अनेकद्रव्याभावात्परमाणोरदर्शनम्। अमहत्त्वाद्द्वयणुकस्य। आकाशादीनां त्वरूपत्वादद्द्रव्यद्रव#्यत्वाच्चेति वेतितव्यम्। तत्रेदं बोध्यम्---त्रिविधं द्रव्यं संयोगाद्दर्शनस्पर्शनाभ्यां गृह्यते। संयुक्तसमवायाच्च तद्गतगुणानां रूपादीनां कर्मणाञ्च ग्रहणम्। संयुक्तसमेवतसमवायाच्च गुणत्व-कर्मत्व-रूपत्वादीनाम्। समवायात् शब्दग्रहणम्। कर्णशष्कुलोपरिच्छिन्नगगनमेव श्रोत्रम्, तद्गुणश्शब्द इति तत्त्वालोके निपुणतरमुक्तम्। समवेतसमवायाच्च शब्दत्वप्रतीति:। संयुक्तविशेषणतयाऽभावग्रहणम्, अफलवती शाखेति। नैयायिकमतखण्डड्डत्ध्;नम्। 128तदयुक्तम्---यदि महत्त्वानेकद्रव्यतवरूपवत्त्वान्येव प्रत्यक्ष 129निमित्तम्, तदा वायोरप्रत्यक्षता स्यात्। न च वाच्यमिष्यत एवेति। स्पर्शनेन तदुपलम्भात्। स्पर्शमात्रं तेनोपलम्भते, न वायुद्रव्यमिति चेत्। शीतोष्णानुष्णाशीतस्पर्शेषूपलभ्यमानेषु प्रत्यभिज्ञायमानत्वाद्द्रव्यस्य। यदा हि तैजसमुष्णत्वं जलगतञ्च शीतत्वं वायोश्चानुष्णाशीतत्वं स्पर्शनेन वायौ वाति सति प्रतीयते, तदा प्रत्यभिज्ञायते द्रव्यं तदेवेदिमिति। तेन न स्पर्शमात्रप्रतीति:। तस्माद्रूपवत्त्वमिव स्पर्शवत्तापि प्रत्यक्षे हेतुरित्युसंख्यानं कर्तव्यम्। यच्च संयुक्तसमवेतत्वात्कर्मणां प्रत्यक्षत्वमुक्तम्, तदप्ययुक्तम्। तस्य संयोगविभागलक्षणफलानुमेयत्वात्130। एतच्च पञ्चिकाद्वये प्रपञ्चितम्, अत्रापि चानुमानपरिच्छेदे वक्ष्याम:। 131यच्च संयुक्तसमवेतसमवायाद्गुणत्वादीनां ग्रहणमिष्टं, तदपि तेषामभावादेवायुक्तम्। समवेतसमवायाच्च शब्दत्वग्रहणमप्येवमेवानुपपन्नम्। संयुक्तविशेषणतयाभावग्रहणमत्रैव132 133निराकरिष्याम:। अन्यच्च समवायविशेषणता नाम सन्निकर्षान्तरं किमिति नेष्यते। यथा गोरश्वस्य चान्योन्याभावप्रतीतये संयुक्तविशेषणता नाम सन्निकर्षान्तरमाश्रीयते134; तथा 135ककारखकारयोरपीतरेतराभावावगमाय समवेतविशेषणतालक्षणं सन्निकर्षान्तरमभ्युपगन्तुमुचितम्। तस्मार्त्तिविध एव सन्निकर्ष: प्रत्यक्षहेतु:---संयोग:, संयुक्तसमवाय:, समवायश्चेति। अव्यपदेश्यमिति किमर्थम् ? इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नस्य शाब्दताशङ्का136निराकरणर्थम्। यदा हि---रूपं रूपमिति 137जानाति रसं रस इति जानाति तदा शब्दसञ्जल्पसम्भवात् शाब्दताशङ्का कस्यचित् स्यात्। तन्निराकरणायाव्यपदेश्यमित्युक्तम्। न हीन्द्रियार्थसन्निकर्षजे ज्ञाने शब्दस्य व्यापृतिरस्ति, यतश्शाब्दता स्यादिति। 138तदिदमसङ्गतम्। लक्षणं हि प्रत्यक्षस्य वक्तव्यम्। येन रूपेण सजातीयविजातीयेभ्यो भेदस्तदेव लक्षणम्। तत्र तावत् शाब्दाद्भेद इन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वेनैव सिद्ध:। शब्दसञ्जल्पनानुवद्धिस्य प्रत्यक्षस्य श#ाब्दत्वाशङ्का शाब्दपरीक्षापर्वणि निराकर्तुमुचिता 139अनुमानशङ्केव सर्वस्य 140शाब्दस्य। अव्यभिचारिपदञ्चविपर्ययनिराकरणाय यदुक्तम्, तत् सर्वज्ञानानामव्यभिचारित्वादविशेषकमित्युक्तम्। व्यवसायात्मकतापि संशयनिवृत्यर्थं न वक्तव्या। स्थाणुर्वा पुरुषो वेति हि स्मृतिज्ञानद्वयम्; एतच्च नेन्द्रियार्थसन्निकर्षजमिति न तस्य प्रत्यक्षताप्रसक्ति:। किञ्चाव्यभिचारिपदेनैव संशयस्यापि व्यावृत्ति: सिद्धा:। तस्यापि यथाज्ञायमानार्थव्यभिचा रत्वात्। अपि चाव्यभिचारिता व्यवसायात्मकता च न प्रत्यक्षलक्षणम्, किन्तु प्रमाणलक्षणम्। तेन सामान्यत: प्रमाणलक्षणं कृत्वा, तद्विशेषस्य प्रत्यक्षस्य प्रातिस्विकं सजातीयविजातीयव्यावृत्तिसमर्थं लक्षणं वाच्यम्---"इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं प्रत्यक्षमिति। अस्मिन्नपि लक्षणेऽनुमानादिप्रमिति: स्वात्मनि, प्रमातरि च न 141प्रत्यक्षा स्यादनिन्द्रियजत्वात्। धर्मकीर्तीयस्य प्रत्यक्षलक्षणस्यानुवाद:। 142अपरे पुनराहु:---"कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षमिति। कल्पना---जात्यादियोजना, तया रहितं यद्विज्ञानं, तत्प्रत्यक्षम्। तथाभूतमेव तैमिरिकादीनां केशोण्ड्रड्डत्ध्;कादिज्ञानं प्रत्यक्षं मा प्रसाङ्क्षीदित्युक्तमभ्रान्तमिति। 143तच्चतुर्विधम्---इन्द्रियज्ञानम्, सर्वचित्तचैत्तानां स्वसंवेदनम्, मानसम्, योगिज्ञानञ्चेति। यदिन्द्रियाणामर्थेन सन्निकर्षादुपजायते, तदिन्द्रियज्ञानं पञ्चसु रूपादिषु पञ्चविधम्। सर्वज्ञानानां स्वसंवेदनं विकल्पविरहात्प्रत्यक्षम्। सुखादयस्तु 144विज्ञानाभ#िन्नहेतुकतया न तस्माद्भिद्यन्त इति तेऽपि स्वसंविदिता एव। मानसन्त्विन्द्रियज्ञानेन स्वविज्ञेयक्षणानन्तरक्षणसहकारिणा जन्यते। तस्य चेन्द्रियज्ञानग्राह्यस्यानन्तर एव क्षणो ग्राह्य:। ननु जन्यज्ञानसमये जनकस्यार्थक्षणस्यातीतत्वात्कथमर्थस्य145 प्रत्यक्षग्राह्यता। उच्यते---एतदेव ग्राह्यतवमर्थानां यदुत्पादकत्वं स्वरूपार्पकत्वञ्चेति। अर्थाकारं प्रत्यक्षं ज्ञानम्। अन्यथा निराकारा संवित्ति: कथं रूपादिसंवित्तिव्यवस्थां लभेत। अत एवार्थसारूप#्यं प्रमाणम्, तस्यैव व्यवस्थाहेतुत्वात्। अर्थेन सारूप्यं विज्ञानं घटयति नेन्द्रियादि, इति न तत्प्रमाणम्। नन्वेकस्याकारस्य प्रतीतेस्तस्य च ज्ञान एव 146अवस्थितत्वात्कथमर्थस्य प्रत्यक्षता। उच्यते---योऽर्थो ज्ञानस्याकारमात्मनोऽन्वयव्यतिरेकावनुकारयति, स प्रत्यक्ष इति न दोष:। 147किञ्च साकारता ज्ञानस्याश्रयणीया। अन्यथा स्वप्नादिष्वसति बहिरर्थे कस्याकर: प्रकाशेत। प्रकाशात्मकज्ञानाद्बहिर्भूतश्चाकार: कथं प्रकाशेत, जडड्डत्ध्;स्य प्रकाशायोगात्। अपि चार्थस्य वित्तेश्च सहोपलम्भो नियत:। स च भेदादनियमव्याप्ताद्व्यापकविरुद्धोपलब्ध्या148 निवृत्तोऽभेदेऽवतिष्ठमानोऽभेदमनुमापयति। 149भेदावभासस्तु द्विचन्द्रादिप्रतीतिवदनादिवासनानिबन्धन इति परिकल्पनीयम्। भूतार्थभावनाप्रकर्षपर्यन्तजञ्च योगिज्ञानम्। प्रमाणप्रतीतमर्थं परोक्षमपि भावयतो यद्भावनाया: परमे प्रकर्षे सत्यपरोक्षावभासं ज्ञानं जायते, तत्प्रत्यक्षम्। स्पष्टप्रतिभासत्वेन निर्विकल्पकत्वात्। न हि विकल्पानुविद्धस्य प्रत्ययस्यस्पष्टार्थप्रतिभासतास्तीति।

तन्निराकरणम्। 150एतदनुपपन्नम्। सविकल्पकविज्ञानानां151 जात्यादियोजनयोदीयमानानामिन्द्रियज्ञानानां प्रत्यक्षतापाकरणात्। अथोच्येत जातिगुणयोद्र्रव्यात्पृथक्त्वेनाग्रहणाद्भेद एव नास्ति। तेन ताभ्यामविद्यमानाभ्यां योजयित्वा जायमानं जातिगुणकल्पनाज्ञानं न प्रत्यक्षमिति। तदप्यसत्। 152एकैकद्रव्यव्यतिरेकेण द्रव्यान्तरे ग्रहणात्पृथक्त्वेनाऽग्रहणस्याऽसिद्धे:। एकस्मिन्नपि द्रव्ये द्रव्यान्तराद्व्यावर्तमाने अनुवर्तमानयोर्जातिगुणयोर्भेदावगमादिति जातिनिर्णये निर्णीतम्। कर्मकल्पना तु न प्रत्यक्षमित्यनुमतमेव, अनुमेयत्वात्कर्मण:। द्रव्यकल्पना तु विषाणी, दण्डड्डत्ध्;ीति च न प्रत्यक्षतामतिवर्तते, 153इन्द्रियव्यापारानुविधायित्वात्। नामकल्पनापि देवदत्तोऽयमिति प्रत्यक्षा, इन्द्रियव्यापारानुविधायित्वात्1 तत्र यद्यपि वर्णात्मकं नाम स्मरणनिविष्टम्; तेन सह वाच्यवाचकभावोऽपि स्मृतिसमारूढ़ एव। तथापि 154संज्ञी प्रत्यक्षतां न मुञ्चति। न हि संज्ञा, तत्सम्बन्धो वा तदानीमेकविज्ञाने विशेषणत्वेन प्रतिभात:। किन्तु एतौ स्मृतिसमारूढ़ावेव। संज्ञिनि हि दृश्यमाने प्रागनुभूतौ तौ स्मृतिमारोहत:। अत एवोक्तम्--- संज्ञा हि स्मर्यमाणापि प्रत्यक्षत्वं न बाधते। संज्ञिन: सा तटस्था हि न रूपाच्छादनक्षमा ।। इति अत: नामयोजनया जायमानं ज्ञानं न प्रत्यक्षमिति 155ये वदन्ति तेऽप्यनयैव दिशा निराकृता:। ऐन्द्रियके ज्ञाने नामयोजनाया: सम्भवात्। अपि च जातिगुणयोप्रत्यक्षत्वमिच्छतो न किञ्चित्प्रत्यक्षमवकल्पते156। न हि रूपशून्या काचिद्रूपिबुद्धिरस्ति। जातिगुणौ157 च रूपिणां रूपे। सर्वा हि प्रतीति: एवमित्युपजायते, प्रकारश्चैवंशब्दार्थ:। जातिगुणौ चार्थानां प्रकारभूतौ। अतस्ताभ्यां योजयन्त्येव सर्वाइन्द्रियप्रतीतिस्समुत्पद्यत इति निर्विषयं कल्पनापोढ़पदम्। अभ्रान्तपदमपि सर्वज्ञानानां स्थूलावभासित्वात् ग्राह्यग्राहकसंवित्तिभेदयोगित्वात्सौगतानां निर्विषयमेव। यच्च मानसं नाम प्रत्यक्षमुक्तं 158तद्धारावाहिकविज्ञानान्नातिरिक्तं मन्यामहे। स्यान्मतम्। 159अनुपरते इन्द्रियव्यापारे इन्द्रियज्ञानम्, उपरते त्वनन्तरक्षणप्रभवं मानसमिति। तदयुक्तम्---इन्द्रियव्यापारोपरमस्याप्यपरोक्षार्थप्रतीतिफलसम्भवे सत्यसिद्धत्वात्। यच्चातीतार्थविषयं मानसमित्युक्तम्। तदप्ययुक्तम्। वर्तमानस्याकारस्य प्रतीते:। न चायमाकारो वित्तेरेव;वेद्यतया वित्ते: 160पृथगवभासनात्, वित्तिर्हि वित्तितया, वेद्यश्चाकारो वेद्यतयाऽवभाति इति, न तयोस्तदात्मकतोपपद्यते। यच्चोक्तं भेदावभासो भ्रम इति। तदपि कारणाभावादयुक्तम्। न चार्थवित्तिव्यवस्थैव भेदहेतु:, निराकाराणामपि वृत्तीनां स्वभावत एव विशिष्टार्थसम्बन्धितया स्फुरणात्। अर्थसारूप्यञ्च यद्व्यवस्थाकारणमुक्तम्। तदसिद्धम्। स्थूलावभासित्वाज्ज्ञानानाम्, अणुरूपत्वाच्चार्थस्य। किञ्च यदि 161तत्सारूप्यं तदुत्पत्तिसंवेद्यतालत्तणम्, ततस्समानाकारस्य समनन्तरप्रत्ययस्यापि वेद्यता स्यात्। स्वप्नादिष्वपि बाह्यस्यवार्थस्याकार: स्मृतौप्रथत इति नयवीथ्यां साधितम्। यच्च जडड्डत्ध्;स्य प्रकाशायोगादित्यभेदकारणमुक्तम्। तदप्ययुक्तम्। जडड्डत्ध्;स्यैव प्रकाशसम्बन्धो घटते। 162तदात्मकता तु नेष्यत एव। अपि च यदि ज्ञानानतिरिक्तस्यैव प्रकाश:, तदा ग्राह्यग्राहकवित्तीनां भेदस्य कथं प्रकाश:। तस्यालीकस्य 163ज्ञानस्वरूपाननुप्रविष्टत्वात्। यच्च सहोपलम्भनियमादभिन्नत्वमाकारस्य वित्तेश्चोक्तम्। तदप्यसारम्। वित्तेर्भेदेऽप्यर्थस्य नियमोपपत्ते:। यैव हि संवित्ति:, सैव तस्यार्थस्योपलब्धिरिति कथमसौ तां विना प्रकाशेत। यच्च स्वसंवेदनं सर्ववित्तीनां प्रत्यक्षमुक्तम्। तदनुमन्यामहे एव। सुखादीनां यत् तदभिन्नहेतुतया तदभेदात्स्वसंवेदनमिष्टम्। तदनुपपन्नम्। हेत्वभेदस्यासिद्धे:। अर्थस्य ज्ञानहेतुत्वात्। ज्ञानस्य सुखादिनिमित्तत्वात्। असन्निहितेऽप्यर्थे ज्ञानमात्रात् स्वप्नादिषु सुखाद्युपपत्ते:। यच्च योगिज्ञानं प्रत्यक्षमिति मतम्। तदप्यसत्। प्रमाणविशेषो हि प्रत्यक्षम्। न च भूतार्थभावनाप्रकर्षपर्यन्तजस्य योगिज्ञानस्य प्रमाणतैव सम्भवति, स्मृतिरूपत्वात्। प्रमाणेन हि भूतभर्थं परिच्छिद्य या भावना, सा स्मृतिसन्ततिरेव। तत्प्रकर्षजमपि ज्ञानं स्मृतिविशेष एवेति न प्रमाणम्, न वा प्रत्यक्षमित्यलमतिविस्तरेण। वृत्तिकारमतस्यानुवादतन्निरासौ। 164यदपि केचिन्मन्यन्ते "तत्सम्प्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म सत् प्रत्यक्षम्" झ्र्1-1-4ट इति प्रत्यक्षलक्षणम्। तदप्यव्यापकत्वादलक्षणम्। स्वात्मनि लिङ्गादिजापि प्रतीति: प्रत्यक्षत्वेनेष्यते, सकलप्रतीतीनाञ्च स्वरूपं प्रति प्रत्यक्षताऽभिमतेत#ि, 165किमिदमुच्यते---तत्सम्प्रयोग इति। उच्यते---ये शुक्तिकारजतादिज्ञानादिष्वपि प्रत्यक्षतामाहु:, ते निराक्रियन्ते। प्रमेयेषु हि लोके तदेव प्रत्यक्षमित्युच्यते यद्विषयं ज्ञानम्, तेनैवेन्द्रियाणां सम्प्रयोगे पुरुषस्य यद् ज्ञानं जायते। न च शुक्तिकासम्प्रयुक्ते चक्षुषि यद्रजतज्ञानं जायते तदेवंविधतम्। तस्मान्न रजतज्ञानं प्रत्यक्षम्। रजतज्ञानं हि रजतविषयम्, न च रजतेनेन्द्रियं सम्प्रयुक्तम्, रजतस्य तत्रासन्निहितत्वात्। 166तस्मान्न रजतज्ञानं प्रत्यक्षम्। किन्तर्हि स्मरणं तत्, इति दर्शयितुं सूत्रमिदमिति वर्णनीयम्।

गुरुमतेन प्रत्यक्षलक्षणम्। स्वाभिमतमिदानीं प्रत्यक्षलक्षणमाह--- "साक्षात्प्रतीति: प्रत्यक्षमि"ति। ननु भावनाप्रकर्षपर्यन्तजा स्मृतिरपि साक्षात्कारवती प्रत्यक्षं प्रसज्यते। न। प्रमाणाधिकारात्। अनुभूति: प्रमाणम्, तद्विशेषश्च प्रत्यक्षमिति न 167स्मृते: प्रत्यक्षत्वापत्ति:। प्रत्यक्षस्य 168विषयमाह---"मेयमातृप्रमासु सा"। तत्र विभागमाह---"मेयेष्विन्द्रिययोगोत्था" द्रव्यजातिगुणेष्विन्द्रियसंयोगोत्था सा-प्रत्यक्षा प्रतीति: मेयेष्विन्द्रियसंयोगेन, तत्संयुक्तसमवायेन, समवायेन च जायते। कानि पुननिन्द्रियाणि ? घ्राण-रसन-नयन-त्वक्-श्रावणानि बाह्यानि, आन्तरञ्च मन:। किं पुनरेषामस्तित्वे, भेदे च प्रमाणम् ? उच्यते---विषयावबोधस्तावत्कादाचित्को दृश्यते, तस्य चात्मा समवायिकारणम्, असमवायिकारणेन विना कार्यं न जायते। तच्चासमवायिकारणं समवायिक#ारणप्रत्यासन्नं भवति। प्रत्यासत्तिश्च द्विधा दृष्टा---कार्यसमवायस्तत्कारणसमवायश्च। अग्निसंयोगो हि पाक्यद्रव्यसमवेतोऽसमवायिकारणभूतस्तत्रैव गन्धादिकमारभते। तन्तुरूपाणि पटकारणभूतेषु तन्तुषु समवेतानि पटरूपारम्भेऽसमवायिकारणानि। तत्र तावदात्मनो नित्यत्वात्तत्कारणसमवेतमसमवायिकारणं न भवतीत्यात्मसमवेतमेव गुणान्तरमसमवायिकारणमाश्रयणीयम्। तत्र नित्यद्रव्यसमवायिनो वैशेषिकगुणस्य द्रव्यान्तरसंयोग एवासमवायिकारणत्वेनावधारित:। पार्थिवपरमाणुषु रूपादयोऽग्निसंयोगमेवासमवायिकारणमाश्रित्योत्पद्यमाना: प्रतीता इत्यात्मनोऽपि बोधाख्यो धर्मो द्रव्यान्तरसंयोगमेवासमवायिकारणमाश्रयते। तस्य च द्रव्यस्य#ाश्रयभूतद्रव्यान्तरसद्भावे प्रमाणाभावादद्रव्यद्रव्यत्वं निश्चीयते1 द्विविधं चाद्रव्यद्रव्यम्--- परममहदाकाशादिकम्, परमाणुरूपञ्च। तत्रास्य द्रव्यान्तरस्य परममहत्त्वोपगमे संयोग एवानुपपन्न:। संयोगकारणाभावात्। यो हि संयोग: साक्षात्प्रतीयते, सोऽन्यतरकर्मज:, उभयकर्मज:, संयोगजो वा। तेन नियतकारणत्वेन संयोगस्यावगतत्वात्, तदभावे संयोग एव नास्तीति निश्चीयते। न च परमहतो: साक्षात्संयोगो 169भवति, न वाऽनुमातुं शक्यत इति पारिशेष्यादणुत्वमेव तस्य 170द्रव्यस्याश्रीयते। अणुत्वे च तत्कर्मवशादेव संयोगोदयो नानुपपन्न:। तत्कर्मोत्पत्तौ च प्रयत्नवदात्मन: संयोग एव कारणम्, शरीरकर्मवत्। प्रयत्नाभावे171 चादृष्टवदात्मसंयोगकारणता वायुतिर्यक्पवनवत्। तदुक्तम्--- 172अग्नेरूध्र्वज्वलनं वायोस्तिर्यक्पवनमणूनां मनसश्चाद्यं कर्म अदृष्टकारित, झ्र्वै. द. अ. 5. आ. 2. 13.ट मिति1 सुखद#ु:खेछाद्वेषप्रयत्नानुभवे यत्, तत् द्रव्यान्तरं मनश्शद्बाभिधेयं निरपेक्षं कारणम्, सर्वस्मृतिषु173 पूर्वग्रहणजनितसंस्कारोद्बोधसहकार्यनुगृहीतमिति 174विवेक्ततव्यम्। एतेन 175यदाहु:--- षण्णामनन्तरातीतं विज्ञानं यद्धि तन्मन:। झ्र्अभि. ध. को. स्था.-17ट इति, तदपि निराकृतम्। द्रव्यान्तरसंयोगस्यैव नित्यद्रव्यगतवैशेषिकगुणारम्भेऽसमवायिकारणत्वेन दृष्टत्वात्। रूपग्रहणे रूपवदालोकस्य निमित्तत्वदर्शनाद्रूपवदेवेन्द्रियं रूपग्रहणनिमित्तमिति कल्पनीयम्। तथा---गन्धवदेव गन्धग्रहणे निमित्तम्। तथा---स्पर्शवच्च स्पर्शग्रहणे निमित्तम्। रसवच्च रसग्रहणे निमित्तम्। शद्बवदेव शद्बग्रहणे निमित्तम्, इति वेदितव्यम्। तेन गन्धवत#्पार्थिवं घ्राणं गन्धग्रहणकारणम्, रसवच्चाम्भसं रसनं रसानुभवनिमित्तम्। रूपवच्च तैजसं चक्षू---रूपदर्शनहेतु:। वायवीयं स्पर्शवत् त्वगिन्द्रियं176 स्पर्शग्रहणहेतु:। शद्बगुणवच्चाकाशं श्रोत्रेन्द्रियं शद्बग्रहणहेतु:। इन्द्रियसम्बन्धापन्नस्यापि177चार्थस्य विषयान्तरासक्तचित्तस्याप्रतिपत्ते:178 मनस्संयोगापेक्षा इन्द्रियाणामाश्रहीयते। तेनाभ्यन्तराणां सुखादीनां ग्रहणे सन्निकर्षद्वयं कारणम्---आत्ममनस्संयोगाख्य:179 सन्निकर्ष:, सुखादिमनस्सन्निकर्षश्च संयुक्तसमवायलक्षण:। ब#ाह्यरूपादिग्रहणे च सन्निकर्षचतुष्ट्यं कारणम्---आत्ममनस्सन्निकर्ष:, मन इन्द्रियसन्निकर्ष:, द्रव्येन्द्रियसन्निकर्ष: रूपेन्द्रियसन्निकर्षश्च। 180प्रमेयविभागमाह-"द्रव्यजातिगुणेषु सा" इति। सा-इन्द्रियसंयोगोत्था प्रतीति: द्रव्यजातिगुणेषु भवति। स्पर्शवन्महत्त्वयुक्तं द्रव्यं पार्थिवम्, आप्यम्, तैजसम्, वायवीयञ्च, चतुर्विधमैन्द्रियकम्। तथाविधद्रव्योदयकारणम्, तत्र प्रमाणञ्च जातिनिर्णये निर्णोतम्। जातिसद्भावोऽपि जातिनिर्णय एवोक्त:। 181गुणस्तु---रूपरसगन्धस्पर्शा: संख्यापरिमाणपृथक्त्वानि संयोगविभागौ परत्वापरत्वे बुद्धिसुखदु:खेच्छाप्रयत्नाश्च प्रत्यक्षग्राह्या:। क्वचिद्द्रव्याग्रहणेऽपि रूपादीनां ग्रहणम्, रूपाद्यग्रहणेऽपि द्रव्यस्येति, नास्ति द्रव्यगुणयोग्र्रहणं प्रति नियम:। द्विविधा चेयं 182द्रव्यादिप्रतीति:। "सविकल्पाऽविकल्पा च प्रत्यक्षा बुद्धिरिष्यते"। इति। 183विभजति--- "आद्या विशिष्टविषया स्वरूपविषयेतरा"। इति। प्रथमं हि स्वरूपमात्रग्रहणं द्रव्यजातिगुणेषूपपद्यते184। तच्च स्वानुभवसिद्धम्। समाहितमनस्को हि विषयान्तरानुसन्धानशून्य इन्द्रियसंयुक्तं वस्तु साक्षादुपलभत इति स्वसंविदेवात्र प्रमाणम्। निर्विकल्पकनिरूपणम्। तस्य न स्वलक्षणमात्रं विषय:। जात्याद्यकारावभासस्य185 स्पष्टत्त्वात्। नापि सामान्यमात्रं186 विषय:। भेदग्रहणस्य प्रतीतिसिद्धत्वात्। 187"लब्धरूपे क्वचित् किञ्चिझ्र्ब्र. सि.टदित्यादि" यदुच्यते, तदितरेतराभावविषयम्, न तु वस्तुभेदविषयम्। 188वस्तुभेदप्रतीत्युत्तरकालं हि परस्पराभावोऽवसीयते। घटं घटाकारतया, पटञ्च पटाकारतया विदित्वाऽयं स न भवतीति 189तयोरितरेतराभावं प्रतिपद्यते। घटादिविज्ञानञ्च190 वस्त्वन्तरग्रहणानपेक्षमित्यप्रतीतेऽपि191 वस्त्वन्तरे, तद्ग्रहो नानुपपन्न:। तस्मात्सामान्यविशेषौ द्वे वस्तुनी प्रतिपद्यमानं प्रत्यक्षं प्रथममुपपद्यते192। किन्तु वस्त्वन्तरानुसन्धानशून्यतया सामान्यविशेषतया न प्रतीयते। अनुगतं हि सामान्यमुच्यते, व्यावृत्तिश्च विशेष:। न च वस्त्वन्तरानुसन्धानमन्तरेणानुगतिव्यावृत्ती प्रत्येतुं शक्यते। अप्रतिपद्यमानोऽपि च ते, शक्नोत्येव स्वरूपं तयो: प्रतिपत्तुमिति, निर्विकल्पकमसामान्यविशेषविषयम्। सविकल्पकनिरूपणम्। सविकल्पकन्तु तत्पृष्ठभावि त एव वस्तुनी सामान्यविशेषात्मना प्रतिपद्यते। ननु वस्त्वन्तरानुसन्धाने नेन्द्रियं समर्थम्। इन्द्रियसामथ्र्यसमुत्थञ्च प्रत्यक्षमिति, कथं सामान्यविशेषात्मकं प्रत्यक्षस्य विषय:। उच्यते---भवेदेतदेवं यदीन्द्रियाण्येव चेतनानिस्यु:; ज्ञानानि वा। आत्मा त्वेक: सर्वानुभवितव्यानुभविता संस्कारवशेन वस्त्वन्तरमनुसन्धदिन्द्रियेण192 सामान्यविशेषात्मना वस्तु शक्नोत्येव प्रत्येतुम्। तथा निर्विकल्पकेन सामान्यविशेषौ द्वे वस्तुनी प्रतिपद्यमानेनापि तयोर्भेदो गृहीतुं न शक्यते। न हि वस्तुभेदमात्रेण भेदबुद्धि:193, किन्तु धर्मान्तरग्रहोऽपि194 भेदबुद्धौ सहकारी। तेनानुगतिव्यावृत्ती धर्मान्तरभूतेऽगृढद्धठ्ठड़14;णत: सत्यपि सामान्यविशेषयोर्भेदे भेदबुद#्धिर्नासीत्, उत्तरकाले च वस्त्वन्तरानुसन्धानेन ते प्रतिपद्य भिन्नत्वमवसीयते। भेदे सति विशेषणविशेष्यभावावसाय इति, न निर्विकल्पकदशायां विशिष्टबुद्धि:। 195सविकल्पकदशायान्तु विशेषणविशेष्यभावमवगच्छति। गुणप्रतीतावपि निर्विकल्पकं न विशिष्टतया द्रव्यमवच्छिनत्ति, द्रव्यगुणयोर्भेदानवगमात्। अन्वयव्यतिरेकाभ्यां हि गुणजात्योद्र्रव्याद्भेदोऽवगम्यते196। न च निर्विकल्पकेऽन्वयव्यतिरेकाद्यनुसन्धानमस्तीति, तेन न 197भेदग्रह:, अगृहीतभेदञ्च तत् न विशिष्टतां ग्रहीतुमीष्टे इति सविकल्पक एव विशिष्टप्रत्यय:। नामकल्पनायामपि शद्बवाच्यताया: स्मर्यमाणाया एव 199विशेषणत्वम्। कर्मकल्पनाप्येवमेव व्याख्येया। 200प्रत्ययान्तरोपस्थापितेऽपि विशेषणे विशिष्टप्रत्ययो भवत्येव। आत्मन: प्रमातृत्वान्निर्विकल्पकपृष्ठभाविनश्च सविकल्पकस्य गृहीतग्राहित्वेऽपि धारावाहिकन्यायेन 201प्रमाणत्वं वेदितव्यम्। विशेष्यविशेषणभावातिरेकेणागृहीतग्राहकतापि सम्भवत्येव सविकल्पकस्य। अस्य च बाह्यवस्तुविषयत्वं जातिनिर्णये निर्णोतम्। न चेदमनिन्द्रियजं ज्ञानम्, इन्द्रियाधीनप्रवृत्तित्वात्। अपरोक्षार्थावभासो ह्ययं सविकल्पकप्रत्यय:। स तादृशो नेन्द्रियव्यापारमन्तरेणास्ति। त्रिपुट्या निरूपणम्। सम्प्रति मातरि मितौ च प्रत्यक्षं व्याख्यातुमाह--- "सर्वविज्ञानहेतूत्था मितौ मातरि च प्रमा। साक्षा202त्कर्तृत्वसामान्यात्प्रत्य203क्षत्वेन सम्मता"।। इति। 204या काचिद्ग्रहणस्मरणरूपाऽर्थप्रतीति:, तत्र साक्षादात्मा भाति। न ह्यर्थावभासिन्यात्मन्यनवभासमाने विषया भासन्ते। सर्वा हि प्रतीतिरेवमुपजायतेऽहमिदं जानामीति, न पुनर्जानातीत्येवं काचिद्बुद्धिरस्ति। तदा205 च स्वपरसंवेद्ययोरनतिशय सङ्गस्सयात्। न च 206प्रत्ययान्तरविषयत्वेन नियम: सम्भवति। एकप्रतीतिविषयत्वे युक्त एव सहोपलम्भनियम:। 207तस्मात्सर्वैरेव ज्ञानहेतुभिरात्मनि साक्षात्कारवती धीरुपद्यते। विषयापेक्षया प्रमाणान्तरत्वनिरूपणम्। नन्वेवं तर्हि सर्व प्रत्यक्षं प्रसक्तम् ? यदि मात्रभिप्रायम्। इष्टमेव। प्रमेयाभिप्रायमिति चेत्। न। सर्वत्र प्रमेयस्यापरोक्षत्वनियमाभावात्। स्मृतिष्वनुमानादिषु208 च न प्रमेयमपरोक्षम्। तेन 209प्रमेयापेक्षयैव प्रमाणान्तरत्वव्यपदेश इति मन्तव्यम्। सर्वाश#्च प्रतीतय: स्वयं प्रत्यक्षा: प्रकाशन्ते। तेन तासां स्वात्मनि युक्तमेव प्रत्यक्षत्वम्, प्रमाणत्वञ्च। ज्ञानस्य स्वप्रकाशत्वनिरूपणम्। मेय-मातृ-प्रमाणानां 210प्रतीतौ विशेष: क: ? उच्यते--- मेये मातरि च व्यतिरिक्ता प्रतीति: साक्षात्कारवती, मितौ त्वव्यतिरिक्ता। इदमहं गृढद्धठ्ठड़14;णामीति वा, इदमहं स्मरामीति वा त्रितयमेवावभासते। 211मेयमात्रवभासरूपा संविदेका। न तु 212तस्यां संविदन्तरं चकास्ति। न च सा नावभाति ? 213तदनवभासे सर्वानवभासप्रसङ्गात्। किञ्चाप्रकाशस्वभावानि मेयानि, माता च प्रकाशमपेक्षन्ताम्। प्रकाशस्तु प्रकाशात्मकत्वान्नान्य214मपेक्षते। जाग्रतो हि मेयानि माता च प्रकाशन्ते। सुषुप्तस्य तदा न तत् द्वयमपि प्रकाशते। न च तदानीं तद् द्वयमपि नास्त्येव, प्रबोधे प्रत्यभिज्ञानात्। तत्र प्रकाशात्मकत्वे तु सुषुप्तिदशायमापि तत् द्वयं प्रकाशेत। तस्मादप्रकाशात्मकं तत् द्वयमप्यङ्गीक्रियते। प्रकाशस्य त्वप्रकाशमानस्य सत्तैव नाभ्युपेयते। तस्मात्स्वयंप्रकाशसमय215 एव मेयमातृप्रकाश:। किञ्च स्वत एव यदुपपद्यते, न तत्र परापेक्षा युक्ता। मेयानां मातुश्च स्वयं प्रकाशो न नोपपद्यत इति, युक्ता तयो: परापेक्षा। मितौ च काचिदनु पपत्तिर्नास्तीति स्वयम्प्रकाशैव मिति:। सौत्रानितकमतेन पूर्वपक्ष:। तत्राहु:--- 216स्वयम्प्रकाशा चेन्मितिरभ्युपेयते, तदा निराकारस्य प्रकाशायोगादवश्यमाकारोऽभ्युपगमनीय:। 217एकश्चायमाकारोऽवभासते, तेन प्रकाश एव तदाकार इति युक्तम्। किञ्च निराकारत्वे प्रकाशस्य प्रतिकर्मव्यवस्था नोपपद्यते, न हि तस्य सर्वार्थेषु कश्चिद्विशेष:। अर्थाकारत्वे तु यस्याकारोऽसौ, तस्येति घटते प्रतिविषयव्यवस्था। तदाहु:---"न हि 218संवित्तिसत्तयैव तद्वेदना219 युक्ता, तस्या: सर्वत्राविशेषादविशेषप्रसङ्गात्, तान्तु सारूप्यमाविशत् तत्सरूपयद् घटयेत्" इति। अत अर्थसारूप्यमेव प्रमाणमिति युक्तम्। व्यवस्थापकतया हि प्रमाणानां प्रमाणत्वम्। अर्थसारूप्यञ्च व्यवस्थाहेतु:, न चक्षुरादिकम्, तस्यानेकार्थसाधारणत्वात्। किञ्च वित्तिसंवेद्ययो: सहोपलम्भो नियत उपलभ्यते, न कदाचिदपि वित्तिमन्तरेण वेद्यस्योपलब्धि:, नापि वित्तेर्वेद्यरहिताया:। ये च 220परस्परं व्यतिभिन्नावभासा भावा:, तेषां न सहोपलम्भनियम:। न घटस्य पटस्य नियमेन महोपलम्भ:, तेन भेदादनियमव्याप्तात् नियमो व्यावर्तमानोऽभेद एवावतिष्ठमानोऽभेदं साधयति। तदुक्तम्--- "सहोपलम्भनियमादभेदो नीलतद्धियो। झ्र्प्रमाण. वा.टरिति" एतेनैवन्यायेनाहमित्याकारकस्यालयविज्ञानस्य221 वित्तेश्चाभेदस्समर्थनीय:। 222कथं तर्हि 223ग्राह्यग्राहकाकारबुद्धय: परस्परं भिन्ना: प्रतिभासन्त इति। तदाहु:--- "224भेदश्च भ्रान्तिविज्ञानैर्दृश्येतेन्दाविवाद्वये।" प्र. वा. परि. 3 श्लो. 389। इति तथाऽपरमुक्तम्--- "225परिच्छेदोऽन्तरन्योऽयं226 भागो बहिरवस्थित:। ज्ञानस्याभेदिनो भिन्नप्रतिभासो ह्युपप्लव:।।" प्र.वा.परि. 2.श्लो. 212। इति। भेदभ्रान्तौ चानादिभेदवासनैव निमित्तम्। एतद्विचारणीयम्---येयमाकारविशेषयोगिनी प्रतीति:, सा किं 227बाह्यादर्थादुपजायते, किं वा समनन्तरप्रत्ययादिति। तदुक्तम्--- 228यदि बुद्धिस्तदाकारा सास्त्याकारविशेषिणी229। सा बाह्यादन्यतो वेति विचारमिदमर्हति ।। प्र. वा. परि. 3. श्लो.334। इति। तत्र सौत्रान्तिका मन्यन्ते---समनन्तरप्रत्ययमात्रादाकारविशेष इति न घटते, देशकालप्रतिनियमायोगात्। घटज्ञानानन्तरमपि पटज्ञानं जायते। 230यत्र च यदा बहिर्देशे घटोऽस्ति, तत्र यदि घटज्ञानमात्रमेव पटज्ञानोत्पत्तौ हेतु:, तर्हि यदा यत्र पटो नास्ति, तत्र तदापि पटज्ञानं स्यात्। न चैवमस्ति। अतोऽस्ति समनन्तरप्रत्ययादप्यधिकोऽर्थो ज्ञानाकारोऽपत्तिहेतु:। किञ्च यथा मरीचिकाजलज्ञाने जलार्थिन: प्रवृत्तस्यार्थक्रिया न सम्भवति, तथा सम्यग्जलज्ञानेऽपि231 न स्यात्। न ह्यर्थशून्यत्वाविशेषे सम्यग्जलज्ञानमिदम्, इदं नेति विभागोऽवकल्पते232 तस्माद्बाह्योऽर्थोप्यङ्गीकर्तुमुचित:233। विज्ञानवादिमतेन सौत्रान्तिकमतस्य निरास:। तदपरे234 भ्रान्तमिति मन्यन्ते। तथा हि---न तावत्क्वचिदर्थस्याकारवि235 - शेषाधायकत्वं साक्षादवगतम्, कल्पनीयन्तु तत्। तच्च दृष्टे समनन्तरप्रत्यय एव वरं कल्प्यम्। कार्यभूतज्ञानानां वैलक्षण्ये समनन्तरप्रत्ययवैलक्षण्यं हेतुरस्तु। तेन किञ्चिदेव ज्ञानंकस्यचिदेव कुत्रचिदेव कदाचिदेव हेतुरिति प्रतिनियमसिद्धि:। 236विज्ञानवादी चार्थक्रियामपि ज्ञानरूपामेव मन्यते। तेन किञ्चिदेव जलज्ञानमर्थक्रियाजननसमर्थं, 237किञ्चिच्च न इत्यपि प्रतिनियमसिद्धि:। अवश्यञ्चार्थमन्तरेण विशिष्टाकारज्ञानोत्पत्तौ समनन्तरप्रत्ययस्य सामथ्र्यमास्थेयम्। अन्यथा स्वप्नादिष्वाकारप्रतिभासप्रतिनियमो न स्यात्। न च देशान्तरकालान्तरवर्तिनामेव तत्र सामथ्र्यम्, अविद्यमानस्य सामथ्र्यायोगात्। 238अथानुभवजनितसंस्कारात्तत्राकारप्रतिभासनियम इति चेत्, अस्तु तावदेवम्। योऽसावनुभव:, सोऽपि तह्र्यत्रानुभवान्तरजनितसंस्कारादेवास्त्वित्यनया दिशा किमर्थाभ्युपगमेन। 239संस्कारोऽपि च संस्कारादिति, अनुभवपूर्वकमेव विज्ञानं कार्यकारणभावेन प्रवर्तते, तेनार्थानुभवाकारात् ज्ञानात् यदपरं विज्ञानं जायते, तत् विशिष्टस्वभावम्, ततोऽपि यदपरम्, तदपि विज्ञानं विशिष्टस्वभावमेवेति, विज्ञानस्वभावविशेष एव भावना, वासना, संस्कार इत्यादिभश्शब्दैव्र्यपदिश्यते। अर्थक्रियासम्वादयोग्यञ्च ज्ञानं प्रमाणम्, इतरच्च नेति प्रमाणाप्रमाणभेदोप्युपपन्न:। तस्माद्विज्ञानान्याकारविशेषयोगीनि हेतुफलभावेनानादिसन्तानवाहीनि सन्तु; तदतिरेकी न कश्चिदर्थो नामेति। विज्ञानवादिमतनिराकरणम्। अत्रोच्यते---यत्तावदुक्तं ज्ञानस्य साकारत्वसिद्धये नार्थसारूप्यमन्तरेण प्रतिकर्मव्यवस्थासिद्धिरिति। तदयुक्तम्; न हि 240कस्यचिदप्यर्थस्य स्वरूपमनुभूतं साकारविज्ञानवादिना। ज्ञानाकारपर्यवसितवृत्तित्वात्सर्वज्ञानानाम्। यस्य च स्वरूपमेव नावसितं, न तेन सह कस्यचित्सारूप्यपरिकल्पनम्। न चापि ज्ञानाकारोदयवशेनार्थो व्यवस्थाप्यमान: सरूपतया परिकल्पयितुं शक्यते। असरूपादपि 241कार्यगताकारोपपत्ते:। लाक्षरक्तबीजाङ्कुरावस्थाया विशेषानवगमेपि रक्तकार्यस्योत्पत्तिर्दृश्यते। न हि यदाकारं ज्ञानमुत्पद्यते, तदाकार एवार्थोज्ञानस्योत्पत्तौ निमित्तमित्यत्र 242किञ्चित्प्रमाणं प्रक्रमते। अपि च स्थूलाकारं ज्ञानमुत्पद्यते, 243परमाण्वाकारश्चार्थ:। साधारणाकारा बुद्धि:, 244असाधारणाकारश्चार्थ: इति, सारूप्यं245 किं भवति ? किञ्च सारूप्यमात्रेण वेद्यत्वे 246वेद्यवेदकभावव्यवस्था नोपपद्यते। एकार्थविषयाणां सन्तत्यन्तरविज्ञानानां वेद्यवेदकत्वानुपपत्ते:। अथोत्पादकम् 247स्वरूपार्पकञ्च वेद्यम्, तथापि धारावाहिकज्ञानं पूर्वं पूर्वं उत्तरस्य उत्तरस्य वेद्यं स्यात्। अथाकारविशेषाधायकं वेद्यम्; एवमपि पूर्वपूर्वविज्ञानमात्रं वेद्यमापद्यते। पूर्वं पूर्वं हि विज्ञानमाकारविशेषोदयकारणमित्युक्तम्। अपि च निराकारत्वे संविदा प्रतिकर्मव्यवस्था नानुपपन्ना। अर्थप्रतिबद्धव्यवहारविशेषप्रवृत्त्यनुगुणो हि पुरुषस्य धर्मविशेष:---संवेदनम्, तच्च स्वयम्प्रकाशम्। यत् अर्थप्रतिबद्धव्यवहारानुगुणतया प्रकाशते, तत् तदर्थसंवेदनमिति व्यवस्थाप्यते। सहोपलम्भनियमश्च भेदेऽप्युपपद्यते। यैव हि नीलधी:, सैव नीलस्योपलम्भ:। 248कथं नीलोपलम्भमन्तरेण नीलमुपलभ्यते। किञ्चानेनेदमप्यनिष्टमापद्यते। उपलम्भमन्तरेणाप्युपलभ्येतेति। सर्वस्यैव हि वस्तुनो न उपलम्भमन्तरेणोपलम्भ इष्यते। न ह्युपलम्भत एवोपलम्भ:। 250किञ्चोपलम्भोपलभ्ययोर्मेदोऽसहोपलम्भनियमव्याप्त इति, नियमस्ततो निवर्तमानोऽभेदे एवावतिष्ठमानस्तेन व्याप्तस्तं गमयेत्। उपलभ्योपलम्भयोस्तु भेदेऽपि नियम उपपद्यते। उपलभ्यमन्तरे251णोपलम्भासम्भवात्। तेन तयोर्भेदेऽपि सहोपलम्भनियमो दृष्टो नाभेदं साधयितुं252क्षम:। किञ्च---वित्तिवेद्ययोर्भेदेनापि सहोपलम्भनियमोऽस्तीति, तस्यापि वित्तिरूपत्वापत्तेर्वित्तेरेकत्वं हीयते, ततश्च भेद एव सहोपलम्भनियम 253इत्युपपद्यते। किञ्च योऽपि वित्तेर्वेद्यस्याभेदमाह, सोऽपि तावद्वेद्यप्रतिभासं 254नाऽवजानीते। तथा सति कथमनुमानमुत्पद्यते255। न हि प्रतितिविपर्ययेणानुमानस्यात्मलाभोऽस्ति। यदपि ज्वालादिष्वभेदानुमानम्, तदपि न प्रतीतिं 256स्वार्थात्प्रच्यावयति, किन्तु सैवेयं ज्वालेति ग्रहणस्मरणरूपे द्वे प्रतीती व्यवस्थितविषये दर्शयति। इह तु भेदप्रतीति: प्रत्येतव्यादेव व्यावर्तनीयेति, न तद्विरोधेनानुमानमुत्पद्यते। "भेदश्च257 भ्रान्तिविज्ञानैर्दृश्येतेन्दाविवाद्वये"। इति चानुपपन्नम्। न हि तत्र भेदो दृश्यते, किन्त्वेकस्मिन्नेव चन्द्रमसि नेत्रवृत्तिभेदेन द्वे प्रतीती जायेते। तयोरिन्द्रियवृत्तिभेदादभिन्नेऽपि चन्द्रमस्यर्थद्वयविषयं258 व्यवहारं विमूढ़ा: प्रवर्तयन्तीति, तत्र तत्रोक्तम्। यच्चेदमुक्तम्---स्वयम्प्रकाशाया: संविदोऽभ्युपगताया नीलाद्याकारोऽस्तीति। तदप्ययुक्तम्। संविदभिन्नतयाऽवभासमानस्याकारस्य 259संविद्रूपत्वानुपपत्ते:। निराकारा संवित्कथं प्रकाशेतेति चेत्। निराकारेति किमुक्तम् ? नि:स्वभावेति चेत्। 260तदसत्, संविद: संव#ित्स्वभावत्वाभ्युपगमात्। अथ नीलाद्याकारेति चेत्। केयं राजाज्ञा नीलाद्याकारेणैव प्रकाशितव्यम्, नान्येनेति। प्रकाशे तु सति 261यद् यथाभूतं प्रतीयते, तत्, तथाभूतमित्यभ्युपगमो युक्त:। यच्चोक्तं---स्वप्ने ज्ञानस्याकारोऽवभासत262 इति। तदप्ययुक्तम्। तत्रापि 263बहिरवभासित्वात्संविद:। न च सा बहिर्विषया न भवति। तस्या: 264पूर्वानुभवाहितसंस्कारोद्बोधवशेन पूर्वानुभूतवस्तुविषयत्वात्। कथं तर्हि पूर्वानुभूतत्वं नानुसन्धीयते, 265कथं वानुभूयमानत#्वाध्यवसानमिति। उच्यते। संस्कारोद्बोधनिमित्तेयं स्मृतिरिष्यते। संस्कारोद्बोधश्चाऽदृष्टनिबन्धन:। तस्य सुखदु:खहेतुत्वात्। स्वप्नेऽपि सुखदु:खानुभवात्। तेन 266तावत्येवांशे तददृष्टं संस्कारमुद्बोधयति, यावत्येव सुखं दु:खं वोपपद्यते। न चानुभूतांशस्मरणे सुखदु:खोदय इति, न च तत्र संस्कारोद्बोध:, नापि स्मृति:। अत एव च गृहीतांशानवधारणेऽनुभवमात्रमेवाशिष्यत267 इत्यनुभवाध्यवसायोऽपि समर्थित:। यत्पुनराहु:---जडड्डत्ध्;स्य प्रकाशायोगात्प्रकाशात्मक एवाकार इति। तदपि न चतुरस्रम्। जडड्डत्ध्; इति किमुक्तम् ? अप्रकाशात्मक इति चेत्, न अप्रकाशात्मकस्यैव प्रकाशाद्व्यतिरिक्तस्य एष काश इति प्रकाशादेव सिद्धम्। किञ्च चित्रपटज्ञाने268 नानाभूतानामाकाराणामेकप्रकाशात्मकत्वविरोधादसद्भूतत्वमेवाभ्युपगतम्। चत्रावभासेष्वर्थे षु यद्येकत्वं न युज्यते। सवैव तावत्कथं बुद्धिरेका चत्रावभासिनी।।। झ्र्प्र. वा. द्वि. प. श्लो. 208ट इति "चोदयित्वा," उक्तम्--- 269इदं वस्तु बलायातं यद्वदन्ति विपश्चित:। यथा यथाऽर्थाश्चिन्त्यन्ते विविच्यन्ते तथा तथा।। झ्र्प्र. वा. द्वि. प. श्लो. 205ट इति। यथा यथाऽऽकारा विचार्यन्ते, तथा तथाऽघटमाना विविच्यन्ते---शून्या भवन्ति--असद्भूता भवन्ति इत्यर्थ:। पवञ्च ते तावदाकारा असद्भूता: प्रकाशात्मानो न भवन्तीति, कथं प्रकाशन्ते। तथा ग्राह्यग्राहकसंवित्तीनां भेदोऽत्यन्तासद्भूत: प्रकाशाननुप्रवेशी कथं प्रकाशेत ? तथा 270प्रमेयविमर्शोत्थास्तु बाह्यार्थापढद्धठ्ठड़14;नवप्रकारा जातिनिर्णय एव प्रायशो विकल्प्य निराकृता इति, ते नेह प्रस्तूयन्ते। ये पुनर्जाग्रत्प्रत्ययानां स्वप्नप्रत्ययदृष्टान्तेन प्रत्ययत्वादित्यनेन हेतुना बाह्यार्थशून्यत्वं प्रतिपादयन्ति, तेषां बाह्यविषयसकलप्रतीतिविरुद्ध: पक्ष:। 271दृष्टान्तीकृतस्यापि स्वप्नादिप्रत्ययस्य बाह्यग्राह्यसमर्थनेन हेतोर्विरुद्धत्वं दोष:, दृष्टान्तस्य साध्यविकलत्वञ्चोद्भावनीयम्। तस्मात्स्वयम्प्रकाशत्वेऽपि संविदो न बाह्यग्राह्यापन्हव इति स्थितम्। संविद: स्वयम्प्रकाशत्वे शङ्कानिरासौ। 271ये त्वाहु:--- 273अङ्गुल्यगं यथात्मानं नात्मना स्प्रष्टुमर्हति। स्वांशेन ज्ञानमप्येवं नात्मना जातुमर्हति ।। झ्र्बृ.टीटइति। तत्र यदि कर्मकर्तृत्वानुपपत्तिरुच्यते, ततो न किञ्चिदवहीयते। न हि वयं कर्मकर्तृभावमभ्युपेम:। अथार्थप्रकाशरूपाया: स्वयम्प्रकाशता विनिवार्यते, तत: प्रतीतिविरोध:। किञ्च प्रतीतिबलेन 274यैरेकस्यात्मन: कर्तृकर्मभावोऽभ्युपगम्यते, कथमिव ते संविदोऽपढद्धठ्ठड़14;नुवीरन्।

अपि च ज्ञानमनुमेयमिष्यते। तदनुमाने नार्थसत्तामात्रं लिङ्गम्, तस्य तदविनाभावनियमाभावात्। अथार्थज्ञानमित्युच्यते, तदपि नोत्पत्तिमात्रेण लिङ्गम्। अनवभासमाने उत्पन्नानुत्पन्नयोरविशेषात्। न ह्यनवभासमानं लिङ्गं लिङ्गिनमनुमापयति। न चार्थज्ञानस्य ज्ञानन्तराधीनमवभासनम्। न च ज्ञानान्तरादवगम:। ज्ञानान्तरदवगमेन अवगमे चाऽनवस्थाप्रसङ्गात्। तस्मादर्थज्ञानं स्वयम्प्रकाशमेवाभ्युपेतव्यम्।275 एतेन ये सुखादिवन्मानसप्रत्यक्षं ज्ञानान्तरमेव ज्ञानसद्भावे प्रमाणमाहु:, तेऽपि निराकृता:। स्वयम्प्रकाशत्वेनाऽप्युपपत्तौ पराधीनत्वकल्पनाऽनुपपन्नेत्युक्तमेव। किन्तह्र्यनुमीयते? ज्ञानम्। ननु न तत् संविद: स्वयम्प्रकाशाया भिन्नमुपलभ्यते। सत्यम्, अत एवानुमीयते। ननु किं तदिति न 276विद्म:। 277संविदुत्पत्तिकारणमात्ममन:सन्निकर्षाख्यं तदित्यवगम्य परितुष्यतामायुष्मता। प्रमाणुलभावं 278विवृणोति--- "मानत्वे संविदो बाह्यं हानादानादिकं फलम्। ज्ञानस्य तु फलं सैव व्यवहारोपयोगिनी"।। इति। यदा प्रमिति: प्रमाणमिति भावसाधनमाश्रीयते, तदा संविदेव 279प्रमाणम्। तस्याश्च व्यवहारानुगुणस्वभावत्वाद्धानोपादानोपेक्षा: फलम्। प्रमीयतेऽनेनेति करणसाधने प्रमाणशब्दे आत्ममन:सन्निकर्षाद्यात्मनो ज्ञानस्य प्रमाणत्वे तद्बलभाविनी संविदेव बाह्यव्यवहारोपयोगिनीसती फलम्। 280"आपेक्षिकञ्च करणं मन इन्द्रियमेव वा। तदर्थसन्निकर्षो वा मानञ्चेत्पूर्वकं फलम्" ।। इति। यदा तु साधकतमस्य करणत्वात्तमपश्चातिशयार्थकत्वादतिशयस्य बाह्यापेक्षत्वादालोकाद्यपेक्षमिन्द्रियमेव प्रमाणम्, तस्य विषयसन्निकर्ष:, तस्य वा मन:सन्निकर्ष: प्रमाणम्, तदापि संविदेव फलम्, तदर्थप्रवृत्तत्वात् साधनानाम्। 281ये पुन: प्रमाणादभिन्नं फलमाहु:, तेऽपि वादिन: कार्यकारण्योरैक्याभावादेवोपेक्षणीया:। इति महामहोपाध्यायश्रीशालिकनाथमिश्रविरचितायां प्रकरणपञ्चिकायां प्रकाणपारायणो प्रथम: प्रत्यक्षपरिच्छेद: समाप्त:।

अनुमानपरिच्छेद:। सम्पाद्यताम्

 
    "ज्ञातसम्बन्धनियमस्यैकदेशस्य दर्शनात्। एकदेशान्तरे बुद्धिरनुमानमबाधिते" ।। 1 ।। इति। ज्ञात: सम्बन्धनियमो यस्य, तस्यैकदेशस्य दर्शनादेकदेशान्तरेऽसन्निकृष्टेऽर्थे या बुद्धि:, 282साऽनुमानमित्यर्थ:। सौगतमतानुवाद:। क: पुनरयं 283सम्बन्धनियम:? अविनाभाव:। स च तादात्म्यतदुत्पत्तिनिबन्धन इति केचत्। द्विविधो ह्यर्थ:---स्वविषयकबोधजनक:, अतज्जनकश्च। तत्राद्ये प्रत्यक्षमेव प्रमाणम्, इतरस्य तु सत्तानिश्चयो दुर्लभ एव। यज्जनितं हि यज्ज्ञानं, तत्तेन विना सत्तामलभमानं तस्य सत्तां निश्चाययितुमलम्। यस्य तु न स्वजनितं ज्ञानमस्ति, तस्य सत्ता कुतो निश्चीयेत। न चार्थान्तरजनितं ज्ञानं तत्सत्तां निश्चाययितुं 284समर्थम्, अविसंवा दनियमे कारणाभावात्। 285यत् स्वविषयकं ज्ञानम्, जनयति तस्य तदविनाभावित्वे तज्ज्ञानस्य युक्तोऽविसंवादनियम:।

पारम्पम्र्यणापि यत् यत्प्रतिबद्धम्, तत् तदविसंवादकं भवत्येव। धूमादिजन्यं पावकादिविज्ञानं धूमाद्यविनाभावि, धूमादिकमपि पावकाद्यविनाभावीति, तदविसंवादनियमोपपत्ति:। अविनाभावनियमश्च नाऽप्रतिबद्धस्योपपद्यते। प्रतिबन्धश्च286 तादात्म्येन, 287तदुत्पत्त्या वा सम्भवेत्, नान्यथा। तदुक्तम्--- 288कार्यकारणभावाद्वा स्वभावाद्वा नियामकात्। अविनाभावनियमोऽदर्शनान्न न दर्शनात् ।। झ्र्प्र. वा. परि. 3. श्लो. 30.ट इति। 289विपक्षेऽदर्शनमात्रान्नाऽविनाभावनियम:, नापि सपक्षे दर्शनमात्रादऽविनाभाव इत्यर्थ:। कार्यं हि कारणायत्तात्मलाभं न कारणेन विना भवितुमलमिति 290नियतकारणविसनाभावम्। यदात्मा यो भाव:, स तं विना कथं भवेदिति तादात्म्येऽपि युक्त एवाविनाभावनियम:। कार्यकारणभावावगम: 291प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यां सर्वत्र सम्भवति। सत्येवाग्नौ धूम उपलभ्यते, असत्यग्नौ सत्स्वपि तदितरकारणेषु नोपलभ्यत इति, 292इदमेव कार्यस्य कार्यत्वं, यत्तस्मिन्सत्येव भावोऽसति च तस्मिन्नभाव एव। तन्मात्रानुबन्धसिध्या च तादात्म्यसिद्धि:। तन्मात्रानुबन्धसिद्धिरपि विपक्षे बाधकप्रमाणप्रवृत्त्यायत्ता। बाधकञ्च प्रमाणमनुपलब्धिरूपमेव293। 294सर्वत्र निषेधानामनुपलब्धिनिबन्धनत्वात्। 295तदाहु:--- "यावत् कश्चित्प्रतिषेध: स सर्वोऽनुपलब्धेरेव"। झ्र्प्र. वा. तृ. प. 30 श्लो.ट इति। तन्निरास:। तदिदमनुपपन्नम्। तथाहि---अग्नौ सति धूम इति तावत्प्रत्यक्षेणावगम्यताम्, असति त्वग्नौ धूमो नास्तीत्यत्र किं प्रमाणम् ? नन्वनुपलब्धिलिङ्गकानुमानमेव। अनुपलब्धावपि तह्र्यविनाभाव: पर्येषितव्य:। स तावन्न तादात्म्येन, तन्मात्रानुबन्धसिध्या296 हि तादात्म्यंसिध्यति। तन्मात्रानुबन्धसिद्धिरपि 297विपर्यये बाधकप्रमाणप्रवृत्त्यायत्ता298। अनुपलब्धिरेव च बाधकं प्रमाणम्। 299सर्वत्र निषेधानामनुपलब्धिसाधनकत्वात्। बाधकप्रमाणभूतानुपलब्धावपि चोक्तेन न्यायेनानुपलब्ध्यन्तरापेक्षायामनवस्थाप्रसङ्गात्। नापि तदुत्पत्त्या, अनुपलब्धावविनाभावसिद्धि:। कार्यकारणभावस्यविपक्षानुपलब्धिसापेक्षत्वेनाऽनवस्थाप्रसङ्गादेव, तदेवं तदुत्पत्तेरविनांभावावसायो दुर्लभ:। तादात्म्येनापि तादात्म्यस्यानुपलब्धिनिबन्धनतया तन्मात्रानुबन्धसिद्धयधीनत्वादनवस्थाप्रसङ्गादेवाविनाभावो 300दुरवसाय:। किञ्च यदपि यस्य कार्यम्, तदपि तेन विना किमिति न भवति ? कारणाभावादिति चेत्। कारणाभावे कार्यं न भवतीत्येतदेव कुत: ? अकारणस्य नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा स्यादिति कादाचित्कत्वात् कार्यस्य कारणेन विना कार्यं न भवतीति निश्चीयते। तदुक्तम्--- 301नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा हेतोरन्यानपेक्षणात्। अपेक्षातो हि भावानां कादाचित्कत्वसम्भव:।। झ्र्प्र. वा. प. 3 श्लो. 34। इति।ट अत एव कारणान्तरादपि कार्यस्य सभ्भवो निरस्तो वेदितव्य:। कारणान्तरजन्मनो हि कार्यस्य द्वयमपि कारणं न स्यात्। एकत्र भवतोऽन्यत्राभावेऽपि भावात्, ततश्चाकारणत्वापत्ते:। कादाचित्कत्वविरोध इति चेत्, न, अनपेक्षितस्य नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वेत्यस्य 302नियमस्यप्रमाणाभावेनाऽनवक्लॄप्ते:। सापेक्षत्वं हि कादाचित्कत्वस्य व्यापकमुपलब्धम्। व्यापकाभावे व्याप्यं न भवतीत्यनपेक्षस्य कादाचित्कत्वानुपपत्ते:, नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा स्यादिति निश्चीयत इति चेत्, न; व्यापकाभावे व्याप्यं न भवतीत्यस्यैव 303नियमस्यानवकल्पनात्। किञ्चातदात्मनोऽतत्कार्यभूताच्च रसाद्रूपानुमानं न स्यात्, यदि तादात्म्यतदुत्पत्तिभ्यामेवाविनाभावनियम:। अथोच्येत रसस्तावत्कार्यतया रसहेतुमनुमापयति। प्रवृत्तिसामथ्र्यरूपोपादानकारणसहकारी च स: रसहेतू रसं न जनयतीति तादृशस्वहेत्वनुमानेन रसाद्रूपहेतो: प्रवृत्तिसामथ्र्यस्यानुमानम्। प्रवृत्तिसामथ्र्याच्च कारणात्कार्यभूतस्य रूपस्यानुमानमिति, तन्न: लोकस्येत्थमप्रतीते:। रूपमेव रसाल्लोक: प्रतिपद्यते, लौकिकी च प्रतीति: परीक्षकैरनुसरणीया। किञ्च यत्र तावत् कारणात्कार्यानुमानम्, तत्र न हेतो: कार्यत्वम्, नापि तादात्म्यमिति नाऽविनाभावनियमस्स्यात्। अपि च चन्द्रोदयात्समुद्रवृद्ध्यनुमाने, कृत्तिकोदयाच्च रोहिण्यासत्त्यनुमाने नैषापि कल्पना सम्भवति। तादात्म्येनापि यदनुमानं, तदपि न साधीय:। सिद्ध#ं हि लिङ्गं, साध्यं हि लैङ्गिकम्। न हि सिद्धस्य साध्यस्य च तादात्म्यमुपपद्यते। ननु परमार्थतो वृक्षत्वशिंशपात्वयोर्भेदो नास्तीति चेत्; न, वस्तुभूतसामान्यवादिनां भेदाभ्युपगमात्। काल्पनिकसामान्यवादिनां त्वभेदोऽपि नास्ति; भेदाभेदयोर्वस्तुविषयत्वात्। 304अपि च कथं काल्पनिकमेव धर्मधर्मिविभागमाश्रित्यानुमानानुमेयव्यवहार:, ततश्च कल्पनावशाद्भेद एव वृक्षत्वशिंशपात्वयो:। अथ भेदेऽपि शिंशपात्वमात्रानुबन्धित्वाद्वृक्षत्वस्य, शिंशपात्वं वृक्षत्वाविनाभावि। एवं तर्हि साधनधर्ममात्रानुबन्धित्वेनैवाविनाभावित्वं सिद्धम्। तच्चाकार्यस्याऽतदात्मेनोऽपि यदि सम्भवति, तदा तस्यापि गमकत्वमुपपन्नम्। सम्भवति चान्यस्यापि तदिति, इहैव वक्ष्याम:। वैशेषिकमतानुवाद:। एतेनैव न्यायेन 305येऽपि कार्यकारणभावसंयोगसमवायैकार्थसमवायविरोधाख्यान् पञ्च सम्बन्धान् "306अस्येदं कार्यं, कारणं, संयोगि, समवायि, एकार्थसमवायि, विरोधि चेति लैङ्गिकम्" झ्र्वै. द. 9-2-1ट इत्यनुमानकारणमाहु:, तेऽपि निराकृता:। समुद्रवृद्ध्यादौ यथोदितसम#्बन्धाभावेऽप्यनुमानदर्शनात्। संयोगसमवायैकार्थसमवायास्तु नानुमानोत्पत्तौ कारणम्। न हि कमण्डड्डत्ध्;लुना307 च्छत्रानुमानम्। नापि रूपादे: 308पृथिव्यनुमानम्। नापि रूपाद्रसानुमानम्। यच्च विरुद्धस्यानुमापकत्वोदाहरणम्। यथा---भूतं वर्षणकर्माभूतस्य वाय्वभ्रसंयोगस्यानुमापकम्, तथाऽभूतं वर्षणकर्म भूतस्य वाय्वभ्रसंयोगस्यानुमापकमिति। तन्निरास:। तदनुपपन्नम्, भावाभावयोह्र्यत्र गम्यगमकता। न च तयोर्विरोधोऽस्ति। 309अनुगमननियमनव्याप्तिरूपास्तु सम्बन्धा एवायुक्ता:,310 क्रियागर्भत्वात्सम्बन्धस्य। अग्न्यादीनां धूमादीन्प्रतित्यनुगमननियमनव्यापनक्रियासंभवात्311। स्वमतेन व्याप्तिकथनम्। तस्मात्कार्यकारणभावादय एव सम्बन्धा यस्य येन नियता"अव्यभिचारिण:, स हेतुरिति दर्शयितुं "ज्ञातसम्बन्धनियमस्ये"त्युक्तम्। धूमस्य कार्यस्य कारणसम्बन्धो नियत:, अग्नेस्त्वनियत:। तथा रसस्य रूपेण सहैकार्थसमवायलक्षण: सम्बन्धो नियत:, न रूपस्य रसेन। गन्धस्य पृथिव्या सह समवायलक्षणस्सम्बन्धो नियत:, न रसादीनाम्, अनया दिशा सर्वहेतुषु सम्बन्धनियमोऽनुसरणीय:। सम्बन्धनियमे प्रमाणविचार:। किं पुन: सम्बन्धनियमावगमे प्रमाणम् ? न तावत्प्रत्यक्षम्, तस्य सन्निहितदेशवर्तमानकालवस्तुविषयत्वनियमात्। येन हि प्रमाणेन सर्वदेशेषु सर्वकालेषु च धूमादीनां वढद्धठ्ठड़14;न्यादिसम्बन्धोऽवगम्यते, तेन तेषां सम्बन्धनियमोऽवसीयते312। न च प्रत्यक्षं तत्र समर्थम#्, 313कतिपयदेशकालावगतसम्बन्धमात्रेण च नियमो नावगम्यते, अग्नेरपि तथा सम्बन्धनियमप्रसङ्गात्। नाप्यनुमानेन सम्बन्धनियमावसाय:, अनवस्थाप्रसङ्गात्। शास्त्रं त्वपूर्वकार्यार्थविषयनियतप्रामाण्यमत्र शङ्कामपि न314 याति। तथोपमानमपि नात्र प्रमाणम् सादृश्यमात्रविषयत्वात्315। अर्थापत्तिरपि सम्बन्धनियमसापेक्षाऽनवस्थाप्रसङ्गादेव 316न प्रमाणम्। सम्बन्धनियमकल्पनया च विना कस्याऽनुपपत्ति:। धूमादीनामग्न्यादिकार्यत्वस्येति चेत्, न; वढिद्धठ्ठड़14;नकार्यस्यापि धूमस्यान्यकार्यत्वसम्भवात्। न दृश्यते तावदन्कार्यतेति चेत्, सत्यम्; तथापि शङ्कानिराकरणमशक्यम्। कारणभेदे कार्यभेदादेकस्यानेकस्मादुद्भावो नोपपद्यते इति चेत्। न। यद्यपि क्वचित्कारणभेदात् कार्यभेदो दृश्यते, तथापि न सर्वत्र तथैवेति न शक्यमवधारयितुम्। अतोऽग्निकार्यस्यापि धूमस्य देशान्तरे कालान्तरे वा कारणान्तरादपि317 सम्भवाशङ्कया न सम#्बन्धनियमाध्यवसानं युक्तम्। शतशोऽग्नौ धूमस्य दर्शनं, अनग्नावदर्शनञ्चच सम्बन्धनियममन्तरेण नोपपद्यत इति यद्युच्येत, तन्न, यत्र यदा च दर्शनमदर्शनं वा, तदा तत्र तेन सम्बन्धभावाभावाभ्यां तदुपपत्तेर्देशान्तरे कालान्तरे च भावाभावनिश्चयायोगादिति नार्थापत्त्या सम्बन्धनियमसिद्धि:। सम्बन्धनियमे मानसप्रत्यक्षशङ्कानिरासौ। 318कश्चित्--मानसं प्रत्यक्षमत्र प्रमाणमित्याह। 319तदयुक्तम्, मनश्चेद्बहिर्विषये कारणान्तरनिरपेक्षं प्रवर्तेत, तदा सर्व: सर्वदर्शो स्यादविशेषात्। अथ भूयोदर्शनसंस्कारसचिवं मनो बहिरपि प्रवर्तत इत्युच्यते। तन्न। संस्कारस्य स्मृतिमात्रहेतुत्वादधिकार्थपरिच्छेदासम्भवात्। यद्यपि 320सर्वप्रमाणसाधारणं मन:, तथापि सर्वं न मानसं प्रत्यक्षं, किन्त्वसाधारणकारणानुप्रवेशेन प्रमाणान्तरत्वव्यवहार:। एवञ्चेदसाधारणभूतभूयोदर्शनसंस्कारानुप्रवेशात्प्रमाणान्तरमिदमापतति। अपि च भूयोदर्शनविशेषादग्नावपि सम्बन्धनियमज्ञानं किं न स्यात् ? तथाभूतमपि धूमादि अÏग्न न व्यभिचरति, ततो नानुमानमिति चेत्; धूमोऽपि वÏढद्धठ्ठड़14;न न व्यभिचरिष्यतीति किं प्रमाणं ? किं चासत्यां गतौ मानसं प्रत्यक्षमिति 321कल्प्यते, अस्ति चान्या 322गतिरिति वक्ष्याम:। प्रभाकरसम्मतसम्बन्धनियमावधारणम्। अत्रोच्यते---अग्निधूमादीनां तावत्संयोगसम्बन्ध: प्रत्यक्षादिभिरवसीयते। तत्र संयोगो विशेषणत्वेन, गुणानां द्रव्यपरतन्त्रत्वस्वभावत्वात्। विशेष्यतया च स्वतन्त्रभूतं द्रव्यं प्रकाशते। देशकालावपि च विशेषणतयैवावभात:। सन्निहितदेशवर्तमानकालता हीदन्ता, सा तु विशेषणमेव। एवञ्च देशकालाभ्यां संयोगसम्बन्धस्य विशिष्टस्याऽवगति:। तथा हि---संयुक्तविमाविति हि 323प्रतिपत्ति:, न पुनरयमनयो: संयोग इति। तथा च देशकालानवच्छिन्न: प्रथममग्निधूमयो: संयोगलक्षण: सम्बन्धो द्वयोरप्यवगम्यते। तत्राप्यग्ने: कदाचिद्धूमासंयुक्तस्याप्यवगमात् संयोगासंयोगयोश्च परस्परविरोधात्कालभेदमाश्रित्याविरोध: परिकल्प्यते। तेनाग्नेर्धूमसम्बन्धस्य कालावच्छेदोऽनुप्रवेश्यते। धूमस्य नु कदाचिदप्यग्निसंयोगरहितस्यावगमो नास्ति। यद्यपि घटादिवत् धूमो विनाप्यग्निसंयोगं प्रवर्तते, तथापि यादृशस्याविच्छिन्नोदयस्य गगनतलवर्तिनो लिङ्गत्वमिष्यते, तादृशस्य नास्त्येवाग्निसंयोगविरहिणो दर्शनमिति, तस्याग्निसंयोगो देशकालावच्छिन्नो धूममात्रानुबन्धी नियत इति निश्चीयते। तथा च धूमसत्तैव कालान्तरे देशान्तरे वा प्रमाणमपेक्षते, न तु तस्यां सत्यामग्निसंयोग:। तस्य धूममात्रानुबन्धित्वेनावगमात्। नन्वग्नावसंयोगस्यापि दर्शनाददृष्टोऽप्यस्यासंयोगो धूमं प्रत्याशङ्कामावहति324। उच्यते---वन्हेराद्र्रेन्धनसंयोगोपाधिका 325धूमसंयोग इति, तदभावे भवेत् वढद्धठ्ठड़14;नेर्धूमसंयोगाभाव:। धूमस्य तु वढिद्धठ्ठड़14;नसंयोगो नौपाधिक:, कथमसौ न सम्भवतीत्याशङ्क्येत। कथमनौपाधिकत्वावगम: ? प्रयत्नेनाप्यन्विष्यमाणे औपाधिकत्वानवगमात्। 326तच्चैतद्भूयोदर्शनायत्तमिति मन्वाना आचार्या भूयोदर्शनमादृ327तवन्त:। नन्वेवं328 सम्बन्धनियमावसायसमय एव यावद्धूमादिभावितया अग्न्यादिसम्बन्धस्यावगमात्, धूमादिसत्तानिश्चयादधिकं निश्चेतव्यं नावशिष्यत इत्यनुमानं न प्रमाणं स्यात्। 329सत्यम्। स्यादेतत् यद्यनधिगतार्थगन्तृभवेत्प्रमाणलक्षणम्, अनुभूतिस्तु प्रमाणमित्युक्तम्। धूमाच#्चाग्निज्ञानमनुभवाकरं जायते धारावाहिकवत्। नात्र स्मृतिप्रमोषकल्पना, प्रत्युत्पन्नकारणसम्भवात्। अनुभवकारणासम्भवेन हि शुक्तिकारजतादिषु स्मृतिप्रमोष: प्रतीत्यनारूढ़ोऽप्याश्रीयते330। इह तु सम्बन्धनियमस्मरणमेकदेशदर्शनं चानुभवकारणमस्तीति यथाप्रतीति अनुभूतिरूपतैवाश्रयितुमुचितेति युक्तमेवानुमानस्य प्रामाण्यम्। अनुमानस्य प्रत्यभिज्ञारूपत्वनिरास:। केचित्तु देशकालातिरेकेण प्रत्यभिज्ञानरूपमनुमानमाहु:। तदपि निरस्तम्, लिङ्गस्य लैङ्गिकसम्बन्धनियम: सम्बन्धनियमावधारणसमय एव समवधृत:, अन्यथा सम्बन्धनियम एवानवगत: स्यात्। एतेन--- "331विशेषेऽनुगमाभाव सामान्ये सिद्धसाध्यता" । इति। एतदपि प्रत्युक्तम्, धूमवत्त्वाद्युपलक्षितानां देशविशेषाणां सम्बन्धनियमावधारणात्। यो यो धूमवान्, स सोऽग्निमानिति। "।य: कश्चिद्येन यस्येह सम्बन्धो निरुपाधिक:। प्रत्यक्षादिप्रमासिद्ध: स तस्य गमको मत:" ।। इति सङ्ग्रहश्लोक:। 322ज्ञातसम्बन्धनियमत्वञ्चैकदेशस्य स्मरणेनोपकारकम्। लैङ्गिकैकदेशसम्बन्धनियमं स्मरत: पुरुषस्य नियतसम्बन्धस्यैकदेशस्य दर्शनादेकदेशान्तरे या बुद्धि:, साऽनुमानम्। एकदेशश्चाश्रित उच्यते, एकदेशान्तर इतयत्राप्येकदेशशद्ब आश्रितवचन एव। न चाश्रितस्याश्रयमन्तरेण सम्भवोऽस्तीत्याश्रयापेक्षयामेकदेशाभ्यां न भिन्नस्याश्रयस्याक्षेप:, एकाक्षेपेणैवोपपत्ते:। अपि च "अन्तरशद्बोऽपि समानाश्रय एव समर्थितो भवति। अतश्चैकाश्रयाश्रितयोरेव गम्यगमकतोक्ता। 333उदाहरणे महानसादौ ज्ञाताग्निसम्बन्धनियमस्य धूमस्य पर्वतोपरिवर्तिनो दर्शनात्पर्वतनितम्बगतेऽग्नौ ज्ञानम्1 ननु पर्वतनितम्बोपरिदेशयोर्भेदान्नैकाश्रयाश्रयित्वं धूमाग्न्योरिति, कथमनुमानम् ? 334तस्माद्यदाश्रितोऽग्निसंयोगस्साध्यते, तदाश्रितञ्च धूत्वं हेतुरिति युक्तम्। उच्यते, न तावदेवं सर्वस्य लोकस्य प्रतीति:, किन्तु पर्वतादिगतमप्यÏग्न लोकोऽनुमिनोति। न चाश्रयभेद:, एकत्वात्पर्वतावयविन:, तदाश्रि तत्वाच्च धूमाग्न्यो:। नितम्बोपरिभागौ तु तस्यावयवाविति न कश्चिद्दोष:। 335अत्र च "ज्ञातसम्बन्धनियमस्ये"त्यनेन ज्ञातशद्बेनासाधारणस्याहेतुत्वमुक्तम्। यथा-पृथिवी रसवती गन्धवत्त्वात्। अस्त्येव हि गन्धाख्यस्यैकदेशस्य रसाख्येनैकदे336शान्तरेणैकार्थसमवायलक्षण: सम्बन्धो नियत:। स तु सम्बन्धनियमो न प्रतीतपूर्व:। पृथिवीव्यतिरेकेणान्यत्र गन्धस्यावर्तमानत्वात्। पृथिव्याश्च जिज्ञासितधर्मत्वात्। असाधारणस्य संशयहेतुत्वनिरास:। स चायमसाधारण: संशयहेतुरिति 337केचित्। तदयुक्तम्, यो हि येन सह सम्बद्धो दृष्ट:, स तत्र स्मृतिमुत्पादयितुमलम्, यश्चोभयधर्मसम्बद्ध: प्रतीत: उभयो: स्मृतिं जनयन्नेकस्योभयात्मकत्वविरोधात्सन्देहमापादयति। यस्य तु केनचिदपि न सम्बन्धोऽवधारित:, स क्वचिदपि स्म#ृतिं जनयितुं समर्थ इति कथं संशयं प्रसुवीत ? तस्माद्धर्मिस्वरूपवदसाधारणोऽपि न संशयहेतु:। "सम्बन्धग्रहणेन" च बाधकस्य हेत्वाभासत्वमुक्तम्। यथा---शब्द: नित्य: कृतकत्वादिति। कृतकत्वस्य नित्यत्वेन सम्बन्ध एव नास्ति, किन्त्वनित्यत्वेनैव सहाऽयं प्रतीतसम्बन्धनियम:, स्वसामथ्र्येनानित्यत्वमुपस्थापयन्नित्यत्वं बाधत इति सिषाधयिषितधर्मबाधद्बाधको हेत्वाभास:। "नियमग्रहणेन" हि साधारणस्य निरास:। यथा---शद्बे: नित्य: प्रमेयत्वादिति। प्रमेयत्वस्य हि नित्यत्वेन सम्बन्धोऽस्ति, ज्ञातश्च, किन्त्वनियत:, अनित्येष्वपि प्रमेयत्वदर्शनात्। संशयहेतुश्चायं नित्यत्वानित्यत्वोभयसम्बन्धावगमात्। उभयत्र स्मृतिजनकत्वादेकस्य च धर्मिणो नित्यानित्यत्वविरोधात्। स चायमनैकान्तिक इति गीयते। तथा"एकदेशदर्शनादि"त्यनेकदेशभूतस्य हेत्वाभासत्वमुक्तम्। यथा---व्योम प्रत्यक्षं रूपवत्त्वादिति। रूपवत्त्वं व्योमैकदेशत्वेनासिद्धम्। उन्मीलिते हि चक्षुषि गृहोदरादिषु338 यद्रूपमुपलभ्यते, तत्तैजसमौदकं वेत्युकक्तं तत्त्वालोके। तथा यस्य पक्षं प्रत्येकदेशत्वमनेकदेशत्वञ्च, तस्याप्यत एव निरास:। 339यथा--वेद: कृतक: उपाख्यानात्मकत्वादिति, विधिभागन्तूपाख्यानात्मकता न व्याप्नोति। ननु धूमोऽपि न हेतु: स्यात्। कृत्स्नपर्वतव्यापकत्वाभावात्। मैवम्। तत्रावयवी पर्वत एक:, तस्यैकदेश एव धूम:। इह तु न वेदावयव्येक इति युक#्तं भागासिद्धत्वम्। "दर्शनग्रहणेन" स्वरूपादिद्धं हेत्वाभासं दर्शयति। यथा,---बुद्धो धर्माधर्मौ प्रत्यक्षमीक्षते सर्वज्ञत्वादिति। न हि बुद्धस्य सर्वज्ञत्वं केनचिदपि प्रमाणेनावगन्तु शक्यत इत्युक्तम्। तथा विद्यमानस्याप्येकदेशस्य यावद्दर्शनं नास्ति, तावदहेतुत्वम्। यथा---अन्धकारे धूमस्य। "एकदेशान्तरे" इति 340स्वतन्त्रस्याग्नेर्गम्यत्वं निराकरोति। "अन्तरग्रहणेन" च भिन्नाधारयोर्गम्यगमकभावो निराकृत:। ननु चन्द्रोदयात्समुद्रवृद्व्यनुमाने, कृत्तिकोदयाच्च 341रोहिणीसन्निधानानुमाने कथं समानाश्रयत्वम् ? अत्रोच्यते---एककालवर्तित्वं चन्द्रोदयसमुद्रवृद्ध्यो: सम्बन्ध:, तत्र काल एवैक आश्रय इति। तथा कृत्तिकोदयरोहिण्यासत्त्योरप्येकाहोरात्रवर्तित्वमेव सम्बन्ध:, तेन कृत्तिकोदयादहोरात्र एवासन्नरोहिण्युदयोऽनुमीयते। एतेन मध्यगतनक्षत्रदर्शनादष्टमनक्षत्रास्तमयोदयानुमानमुक्तम्। अधोनदीपूराच्चोपरिवर्षणानुमानमप्येवं वर्णयितव्यम्1 एका हि नदी तत्राप्याश्रय इति। पित्रोस्तु342 ब्राह्मणतया यत् पुत्रस्य ब्राह्मण्यज्ञानम्, तदप्यनुमानिमति केचिदिच्छन्ति342, तत् प्राभाकरा नानुमन्यन्ते। ब्राह्मणभूताभ्यां344 पितृभ्यामुत्पत्तिरेव ब्राह्मणता, नान्या। तेन ब्राह्मणशद्बवाच्यस्त्रीपुंसप्रसूतत्वादन्यद्ब्राह्मण्यं नास्तीति 345नास्त्यनुमानस्यावकाश:। प्रत्यक्षबाधोदाहरणम्। "अबाधिते" इत्यनेन प्रमाणान्तरबाधिते विषये नानुमानमुत्पद्यत इति दर्शयति। 346यथा---347वन्हिरनुष्णो द्रव्यत्वादिति। ननु द्रव्यत्वस्यानुष्णत्वेन सह 348सम्बन्धनियम एव नास्ति, 349वढद्धठ्ठड़14;नावसत्यनुष्णत्वे द्रव्यत्वस्य दर्शनात् तेन सम्बन्धनियमाभावादनुमानानुदय:, न 350पुनर्बाधितविषयत्वादिति। उच्यते, यदि बाधितविषयेऽप्यनुमानमुत्पद्यते, तदा द्रव्यत्वस्य अनुष्णत्वेन सह सम्बन्धनियमाभाव एव न भवेत्। वढद्धठ्ठड़14;नेरप्यनुमानेनानुष्णत्वस्यासिद्धत्वात्। सर्वत्र ह्यनुमानेऽनुमित्सितविषयनिरपेक्षमेव 351सम्बन्धनियमावधारणमुपयोगि। द्रव्यत्वस्य च वढिद्धठ्ठड़14;ननिरपेक्षं सर्वत्राऽनुष्णत्वे सह सम्बन्धनियमावधारणं जातमिति, तद्बलेनानुमानोदये पाश्चात्योऽपि सम्बन्धनियमभङ्गो नात्मानं लभते। तस्माद्बाधितविषयत्वादेवानुमानानुदयात्सम्बन्धनियमोऽपि भज्यत इत्यबाधितविषयत्वमप्यनुमानस्य कारणम्। अतो द्रव्यत्वं वढद्धठ्ठड़14;नौ प्रत्यक्षबाधितविषयं नानुमानमुत्पादयति। अनुमानबाधोदाहरणम्। शब्द: श्रोत्रग्राह्यो न भवति गुणत्वादित्यनुमानस्य विषयोऽनुमानेन बाधित:। यद्विषया हि प्रतीतिर्यत्कारणिका, तदिन्द्रियं तस्य ग्राहकमुच्यते। शब्दविषयायाश्च प्रतीतेरन्वयव्यतिरेकाभ्यां श्रोत्रकारणकत्वमवगम्यते। अनुपहते श्रोत्रे शब्दप्रतीतिरुपजायते, उपहते चनोपजायत इति श्रोत्रान्वयव्यतिरेकानुकारिणी शब्दप्रतीति: श्रोत्रकारणिका; तदन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वं हि 352तत्कारणत्वेन नियतसम्बन्धम्। अत: शब्दप्रतीति: श्रोत्रकारणिका श्रोत्रान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वादित्यनुमानेन श्रोत्रग्राह्यत्वमवधृतम्, दिङनागमन्निरासौ। तद् यो हि353 वादीनास्तीत्याह, तस्यानुमानमनुमानेन बाध्यते। ननु सम्बन्धनियमग्रहणतत्स्मरणैकदेशदर्शनसापेक्षस्यानुमानस्यार्थान्तरावगमनिरपेक्षोत्पत्तिकं प्रत्यक्षं शीघ्रजन्मतयाऽवश्यम्भावि विषयापहारादुत्पतिं्त 354प्रतिबध्नातु, अनुमानस्यानुमानेन कथमुत्पत्तिप्रतिबन्ध इति वक्तव्यम्। उच्यते, येन नाम श्रोत्रग्राह्यत्वं शब्दस्य निराकर्तव्यम्, तेनावश्यं ग्राह्यग्राहकभावसम्बन्ध: प्रथममवगन्तव्य:, अन्यथा निषेधानवकल्पनात्। अवगतमेव वस्तु विषयान्तरे प्रतिषिध्यते, न तु सर्वथाऽनवगतम्। तेनास्य 355ग्राह्यग्राहकभावसम्बन्धमभ#्युपगच्छताङ्गीकृता तावदन्वयव्यतिरेकानुविधायिलिङ्गकस्यानुमानस्य प्रवृत्तिरिति, शीघ्रभाव्यनुमानमनुमानान्तरस्य विषयमपहरद्बाधकतां प्रतिपद्यते। यथाऽनुमानपूर्वकादनुमानात्प्रत्यक्षपूर्वकमनुमानं शीघ्रभावि, तथा प्रसिद्धाङ्गकमप्यनुमानं प्रसाध्याङ्गकादनुमानादाशुतरभावीति वेदितव्यम्। शास्त्रेणानुमानबाधोदाहरणम्। शास्त्रेण चानुमानस्य विषयापहार:। यथा---नास्ति 356कर्मफलसम्बन्ध इति। अवश्यम्भाविता च प्रत्यक्षवदागमस्याप्यनुसरणीया। उपमानबाधस्तु यथा---गौर्गवयसदृश इति। अर्थापत्त्या चानुमानस्य विषयपहार:। यथा---जीवन्नेव देवदत्तो वेश्मन्यविद्यमानो बहिरपि नास्तीति। असाधितविषयत्वस्यानुमितिहेतुत्वशङ्कानिरासौ। केचित्तु अबाधितविषयत्वमिवासाधितविषयत्वमप्यनुमानकारणमित्याहु:। प्रमाणान्तरसिद्धेऽपि विषये नानुमानं प्रवर्तते, यथा प्रत्यक्षावगते वढद्धठ्ठड़14;नावौष्ण्येन न तदनुमानम्। तत् प्राभाकरमतानुसारिणो नानुमन्यन्ते। सिद्धविषयमेव सर्वमेवानुमानमित्युक्तम्। यथा सम्बन्धनियमावधारणंसिद्धविषयम्, तथा प्रत्यक्षादिसिद्धविषयमपि किमिति 357नोपपद्यते। प्रमातारस्तु निवृत्तप्रमित्सा: सम्बन्धनियमानुसन्धानं प्रति नाद्रियन्त इति, नानुमानमुदेति। यदि चानुसंहितसम्बन्धनियमैकदेशदर्शनेऽपि विषयसिद्धौ नानुमानमुत्पद्यते, ततो भवेदेवासाधितविषयत्वमनुमानकारणम्, न चैवमस्ति। स्वमतेनानुमानकारणपरिगणनम्। तस्मात्पूर्णमिदमनुमानकारणरिगणनम्---नियतसम्बन्धैकदेशदर्शनम्, सम्बन्धनियमस्मरणम् 358अबाधितविषयत्वञ्चेति359। यद्यबाधितविषयत्वमप्यनुमानकारणम्, कथं तर्हि 360ज्वालाभेदग्राहिणोऽनुमानस्योदय:। प्रत्यक्षेण हि सैवेयं ज्वालेल्यभेदे प्रतीतेऽपि पश्चात् गृहोदरवर्तिप्रभामण्डड्डत्ध्;लदर्शनाद्361 भेदोऽनुमीयते। प्रभाविततिर्हि तेजोवयवविशरणमन्तरेण नोपपद्यते। अवयवविशरणे चावयविनो नियतो विनाश:। दृष्टो हि तन्तुविनाशे362 पटविनाश:। तेन विनष्टायां पूर्वज्वालायां, दृश्यमाना ज्वाला ततो भिन्नाऽनुमीयते। यथा पटे विनष्टे, दृश्यमान: पटस्ततो363 भिद्यते। 364पूर्वज्वाला विनष्टा विशीर्णावयवत्वात् पटवत्। दृश्यमाना ज्वाला विनष्टाया365 भिन्ना, तस्या#ं विनष्टायामप्युपलभ्यमानत्वात्, पटविनाशे पटान्तरवदिति। उच्यते---बाधितविषयत्वं यत्र निश्चितं, तत्रानुमानं नोत्पद्यते, यत्र तु विषयबाधा सन्दिग्धा, तत्रानुमानमुत्पद्यत एव। इह तु सैवेयं ज्वालेतिप्रतीतौ जातायामपि शङ्काऽवतरत्येव। सादृश्येन366 शुक्तिरजतयोरिव भेदानवसायादेवंविधा प्रतीतिर्भेदेऽपि दृष्टा। तेन किंभेदे1पि सादृश्येन भेदाग्रहणादेवंविधा प्रतीतिरुताऽभेदे367 वेति शङ्कोदयाद्बाधितविषयत्वं सन्दिग्धमिति 368नानुमानोत्पत्तिप्रतिबन्ध:। अत एव समानवर्तिकावर्तिनीषु बढद्धठ्ठड़14;वीष्वपि ज्वालासु ज्वालात्वं सामान्यं नाश्रीयते, भेदाग्रहेणापि प्रतीतेरुपपन्नत्वात्। वढद्धठ्ठड़14;नावुष्णत्वप्रतीतिरन्यथा सम्भावयितुमशक्येति, निश्चितं बाधितविषयत्वम्। अतस्तत्र युक्त 369एवानुमानोदयविरोध:। असत्प्रतिपक्षस्यानुमितिहेतुत्वशङ्कानिरासौ। 370अन्ये पुनरसत्प्रतिपक्षत्वमप्यनुमानकारणमाहु:371। यथोदितलक्षणो हि 372हेतुर्यथोदितलक्षणहेत्वन्तरप्रतिबद्धो नानुमानं किन्तु संशयम्। यथा-अप्रत्यक्षो वायुद्र्रव्यत्वे सत्यरूपत्वादित्यनेन प्रतिपक्षेण हेत्वन्तरेण प्रतिबद्ध: प्रत्यक्षो वायुर्महत्त्वे सति स्पर्शवत्त्वादित्ययं हेतुर्वायौ प्रत्यक्षत्वाप्रत्यक्षत्वसंशयमापादयति, न त्वनुमानं जनयितुमलमिति। 373तदनुपपन्नम्; यथोदितलक्षणयोर्हेत्वोरेकत्र समवायाभावात्, भावे वा वस्तुनो 374नित्यं संशयितधर्मत्वापत्ते:। तथाहि---अरूपत्वादियं हेतु: स्पर्शनेन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधायितया वायुप्रतीतेरनुमानबाधितविषय:। इदञ्चानुमानं यथा शीघ्रभावि, तथोदितमेव375 प्राक#्। प्रत्यक्षत्वं हि निषेधता क्वचिदवश्यं प्रत्यक्षत्वमङ्गीकरणीयम्, इन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधायि प्रत्यक्षमिति चाभ्युपेयम्1 ननु न स्पर्शनेन वायु: प्रतीयते, किन्तु स्पर्शमात्रमेव। नेत्युच्यते; स्पर्शान्तरप्रत्ययेऽपि द्रवयप्रत्यभिज्ञानात्। यदि स्पर्शमात#्रमेव स्पार्शनं भवेत्, तदा स्पर्शभेदे किं प्रत्यभिज्ञायेत ? ननु न वायो: स्पर्शभेद: सम्भवति। अनुष्णाशीतैकस्पर्श एव वायु:। तस्य तु तोयसम्पर्कात् तोयगत: शीतस्पर्श: प्रतिभाति, एवं तेज:संयोगादुष्णस्पर्श इति। उच्चते---सत्यं वायोरनुष्णाशीत एव स्पर्श:, तोयतेजोगतौ च शीतोष्णस्पर्शो, तथापि ताभ्यामभिभूतेऽनुष्णाशीतस्पर्शे शीतोष्णस्पर्शावपि प्रतीयेते, तदन्वयिनी प्रतिपत्तिश्च स्पर्शमात्रप्रत्यये नोपपद्यत इति वदाम:। तस्मादनुमानबाधितविषयत्वादरूपत्वादित्यप्रत्यक्षत्वं नोपस्थापयति, स्पर्शवत्त्वादित्येतदेव निष्प्रतिपक्षमनुमानं जनयति। तस्माद्यथोदितलक्षणस्सर्व एव सत्प्रतिपक्ष इत#ि नेदं पृथग्लक्षण्म्। अनुमानस्य विषयभेदनिरूपणम्। "प्रमेयमनुमानस्य दृष्टादृष्टस्वलक्षणम्" ।। 3 ।। इति 376द्विविधमनुमानस्य प्रमेयम्, किञ्चिद्दृष्टस्वलक्षणम्, यथा 377वढद्धठ्ठड़14;नयादि। किञ्चिच्चादृष्टस्वलक्षणम्, यथा---378कर्मादि। कथं पुनर्यस्य स्वलक्षणं न प्रतीतम्, तदनुमातुं शक्तये। येन सह हेतो: 379सम्बन्धनियम: प्रतिपन्न:, स तस्माद्धेतोरनुमातुं शक्यते। न चादृष्टस्वलक्षणेन सह सम्बन्धनियमावधारणं कस्यचित्सम्भवतीति, नादृष्टस्वलक्षणमनुमातुं शक्यते। उच्यते---सामान्यतोऽपि सम्बन्धनियमावगमो भवत्येवानुमानोत्पत्तौ निमित्तम्। यथा---यत् कादाचित्कं, तदागन्तुकाज्जायमानं दृष्टम्। यथा---तन्तुसंयोगेभ्य: पट:। कादाचित्कौ च द्रव्यस्य संयोगविभागाविति, ताभ्यामागन्तुकं किञ्चिद् वस्तु प्रतीयते। न च द्रव्यमेवागनतुकम्, तस्य प्रत्यभिज्ञानेन स्थिरत्वावगमात्। न च शक्यं वक्तुं भिन्नान्येव द्रव्याण्यत्यन्तसादृश्येनाप्रतीयमानभेदानि तत्प्रत्ययविषयाणीव भासन्ते ज्वालावदिति, द्रव्यभेदे प्रमाणाभावात्। ज्वालादिभेदे प्रमाणमुपन्यस्तमेव। संयोगविभागादिकार्योत#्पत्तिस्तु यथाप्रतीते द्रव्यस्थैर्येसत्यप्यागन्तुककर्माभ्युपगमेनाप्युपपद्यते इति, न द्रव्यभेदे प्रमाणमस्ति। मण्डड्डत्ध्;नाचार्यमतस्यानुवाद:। 380अत्र कश्चिदाह---न कर्मादृष्टस्वलक्षणम्, प्रत्यक्षत्वात्कर्मण:। तदाह भगवान्काश्यप:---"संख्या: परिमाणानि पृथकत्वं संयोगविभागौ परत्वापरत्वे कर्म च रूपिद्रव्यसमवायाच्चाक्षुषाणि" (वै. द. 4-1 11) इति। तथाहि---या गछत्ययमिति प्रतीति:, सा इन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुकारिणी, तदेव कर्मण: प्रत्यक्षत्वे प्रमाणम्। न च वाच्यं कर्मफलभूतसंयोगविभागविशेषबलेनैवेयं प्रतीतिरिति। तन्निबन्धनत्वे स्थाणावप्येकश्येनवियुक्ते श्येनान्तरसंयुक्ते चापत्ते:, चलित्वा स्थिते न चलतीति वर्तमानावभासप्रसक्ते:, विभागसंयोगयोर्वर्तमानत्वात्। अतीन्द्रियस्य व्योम्न: संयोगविभागयोरप्यतीन्द्रियत्वात् पतति पतत्रिणि 383पततीति प्रत्ययानुत्पत्तिप्रसङ्गात्। न च कर्मानुमातुं शक्यते। तद्धि न नित्यं, संयोगविभागयो: सर्वदोदयप्रसक्ते:। अनित्यत्वे तस्याप्यवश्यमसमवायिकारणमाश्रयणीयम्। तद्वरं संयोगविभागयोरेवास्त्विति न कर्मानुमाने किञ्चिदपि लिङ्गं समर्थम्। तदुक्तम्--- नित्यत्वे 381सर्वदा जन्म स्यात्संयोगविभागयो:।। अनित्यत्वेऽस्य यो हेतुस्तयोरेवास्तु तेन किम् ।। झ्र्भा. वि. श्लो. 20ट इति तन्निरास:। तदिदमसारम्---प्रत्यक्षेण गच्छति द्रव्ये, संयोगविभागातिरिक्तविशेषानुपलब्धे:। यस्त्वयं गच्छतीति प्रत्यय:, स संयोगविभागानुमितक्रियावलम्बन:। सा च क्रिया न स्थाणावनुमीयते। उत्पततश्श्येनस्य यो देशान्तरसंयोग:, तस्य ततो निष्पत्त्यनवकल्पनात्, 384तद्गतकर्मानुमानप्रसङ्गात्। निपततश्श्येनान्तरस्य प्राग्देशविभागोत्पत्तये कर्मान्तराश्रयणापत्तेश्च, श्येनगतयो: कर्मणोरनुमितयोरुपपद्येते तयोर्देशान्तरसंयोगविभागौ। तस्मात् 385स्थाणुश्चलतीति न युज्यते। चलित्वा स्थितस्यापि देशान्तरसंयोगेन क्रियाविनाशात् वर्तमानक्रियाप#्रत्ययानुत्पाद:। अतीन्द्रियत्वेऽपि व्योम्न: वियति विततालोकावयवसंयोगविभागनिबन्धनात्पतति 387पतत्रिणि पततीति विशिष्टबुद्धि:, 388तद्वशेन क्रियानुमानमपि तत्र सुकरमेव। 389न 390च कर्मानवकल्पनमपि दोष:। कर्महेतोस्संयोगविभागोत्पत्त्यसम्भवात्। तथाहि---शरीरदेशे तावत्प्रयत्नापेक्षादात्मशरीरसंयोगात्कर्मोत्पत्तिरवकल्पते। न च ततश्शरीरदेशसंयोगविभागयोरुत्पत्तिरवकल्पते। संयोगो हि स्वाश्रये, स्वाश्रयसमवेते वा द्रव्यान्तरे कार्यम#ारभत इति नियतम्। 391स्वाश्रये यथा---तन्तुसंयोगस्तन्तुषु392 पटमारभते। प्रचयाख्यश्च संयोगोऽवयवेषु समवेतस्स्वाश्रयसमवेतेऽवयविनि महत्त्वं जनयति, योऽपि संयोगस्संयोगं जनयति, सोऽपि तस्य स्वाश्रयस्वाश्रयसमवेतयोर्जनक:। तन्तुतुरीसंयोगो हि पटतुरीसंयोगस्य जनयितेष्यते। तस्य तुरी तावदाश्रय एव। पटोऽपि तन्त्वाश्रितत्वात्स्वाश्रयसमवेत:। आत्मशरीरसंयोगश्चात्मनि शरीरे च समवेत:, स कथं शरीरदेशे कार्यमारभेत ? तत्राऽसमवेतत्वात्, तेन सहैकार्थसमवायाभावाच्च। कर्म तु स्वाश्रये शरीरे जनयितुं शक्नुयादेवेति, कर्महेतोस्संयोगविभागावनुत्पद्यमानौ ततोऽन्यत्कारणं कल्पयन्तौ कर्मानुमापयत:। एतेन नोदनाभिघातात्मकौ कर्महेतू 393संयोगविभागौ व्याख्यातौ। नोदनाख्यो हि शरज्यासंयोगस्तयो:, तत्समवेते वा कार्यमाविर्भावयितुमलमिति, न ततश्शराकाशगतौ विभागसंयोगावुत्पतिं्त लभेयाताम्। तथाऽभिघातात्मकोऽपि वेगवन्मुसलोलूखलसंयोगो मुसलोलूखलसमवेत: कथमूध्र्वमुत्पततोमुसलस्याकाशस्य च विभागसंयोगावारभेत। यश्च वेगाख्यस्संस्कार: कर्महेतुरिष्यते, न ततोऽपि संयोगविभागावुपपन्नौ394। संस्कारस्य स्वाश्रय एव कार्यारम्भनियमात्। भावनाख्यो हि संस्कार आत्मनि समवेत आत्मन्येव 395स्मृतिलक्षणं कार्यं जनयन्दृष्ट इति, कथं वेगात्मा 396संस्कारश्शरवर्ती ज्याकाशेन तेजोवयवैस#्स्तिमितैश्च वायुभि: सह संयोगविभागावारभत इति शक्यमाश्रयितुम्। अतो न कर्महेत्वभिमतादेव संयोगविभागावुत्पद्येते इति, युक्तमेव ताभ्यां कर्मानुमानम्। न च कर्मणं: प्रत्यासन्नद्रव्यवर्तिकार्यारम्भनियमोऽवधारित:, तस्य कार्यावगम्यत्वात्। यादृशेन हि कार्येण यदनुमीयते, तादृशमेव तस्य कारणम्। यदि च तस्याश्रयनियमस्स्यात्, तदा कार्यमेव ततो नापेपपद्येत। तच्च कर्म सर्वमेव विभागपूर्वकं संयोगमारभते, किञ्चित्तुवेगाख्यं संस्कारमपि। अस्ति वेगाख्यस्संस्कार:, संयोगाच्च तस्योपरति:, मूर्तद्रव्याणि च तस्याश्रयभूतानीत्यादि प्रमेयपारायणे प्रपञ्चितम्। शक्तिनिरूपणम्। 397सर्वभावानां शक्तिरदृष्टस्वलक्षणापि कार्येणानुमीयते। अग्नेर्यथाभूतादेव दाहो दृष्ट:, तथाभूतादेवाग्नेर्मन्त्रौषधिप्रणिधाने कार्यं न दृश्यते। न तत्र दृष्टमेव स्वरूपं कारणम्। यद्धि दृष्टं कारणं तस्याऽजनकावस्थातो विलक्षणत्वाभावात्कार्यानुदयप्रसङ्गात्। 398यच्च खल्वजनकदशातो निरतिशयम्, तत: कार्यं नोत्पद्यते, कुण्ठादिव कुठारात्। यदा तु तत एव कार्यं दृश्यते, तदा तदवस्थातोऽस्त्येव वैलक्षण्यं तीक्ष्णत्वम्। अग्नौ च कार्यानुदयदशातो विलक्षणं न कार्योदयसमये प्रत्यक्षदृश्यं रूपमुपलक्ष्यते। भवितव्यञ्च वैलक्षण्येन, अन्यथा कार्यानुत्पत्तिप्रसङ्गादिति, कार्योत्पत्तेरतीन्द्रियं किञ्चिद्रूपं वढद्धठ्ठड़14;नेरनुमीयते। तस्य मन्त्रौषधिप्रयोगेण विनाशात्कार्यं नोत्पद्यते। न च वाच्यं मन्त्रौषधादिभिरतीन्द्रियं रूपं न किञ्चिद्विनाश्यते, किन्तु मन्त्रौषधादिसन्निधानेनैव 399कार्यानुदय इत#ि, कारणावैगुण्ये कार्योदयविघातासम्भवात्। अथोच्येत---मन्त्राद्यप्रयोगोऽपि कार्योत्पत्तिनिमित्तम्, सम्प्रयोगे चाप्रयोगो निवर्तत इति, अस्ति कारणवैगुण्यमिति। तन्न। अप्रयोगस्य च प्रयोगाभावरूपत्वात्, 400सर्वभावकार्याणाञ्च भावकारणनियतत्वदर्शनात्।, 401अभावस्य क्वचिदपि कार्ये जनकत्वाश्रयणानुपपत्ते:। यच्च तदतीन्द्रियमग्ने: स्वरूपम्, तत् शक्ति-सामथ्र्यादिशब्दवाच्यतया लोके प्रतीतम्। तस्य च कार्यानुत्पत्तौ द्वयी गतिरभिभव:, विनाशो वा। यत्र कदाचिदपि कार्यं न दृश्यते, तत्र विनाश एव। यत्र पुन: प्रतीकारवशेन कार्योदय:, तत्राभिभवमात्रम्। तस्य चैवं वढद्धठ्ठड़14;न्यादौ प्रसिद्धस्य सर्वभावेषु कार्योदयानुकूलं कार्योत्पादकत्वादेवानुमानेन परिकल्पनीयम्। तस्य च नित्याश्रयाश्रियस्य नित्यत्वम्, अनित्याश्रयाश्रितस्य तदुत्पत्तिकारणादेवोत्पत्ति:। संस्काराच्चास्याऽयमेव विशेष:। संस्कारो हि नाम नित्येषु नित्य:, अनित्येषु च कारणान्तरायत्त इति। परार्थनुमाननिरूपणम् "परप्रत्यायनेच्छूनामनुमोदयसाधनम् ।। 11 ।। वचनं दूषणैस्सार्धमर्थादेतेन वर्णितम्" ।। इति। अनुमानस्य द्वैविध्यनिरूपणम्। द्वेधाऽनुमानमुत्पद्यते-स्वयमनुसंहितयाऽनुमानोत्पादकसामग्र्या, परप्रयुक्तवाक्योद्बोधितया वा। तत्रानुमानोत्पत्तिसामग्रीप्रतिपादनेनैव तत्प्रतिपादकवाक्यस्वरूपमपि सूचितमेव। "तत्राबाधित402" इति प्रतिज्ञा। ज्ञातसम्बन्धनियमस्ये" त्यनेन दृष्टान्तवचनम्। "एकदेशदर्शनादिति" हेत्वभिधानम्। तदेवं 403त्र्यवयवं साधनम्। साध्यनिर्देश: प्रतिज्ञा। यथा-शब्दो नित्य इति। अनेन चानुमानस्य विषयो निर्दिश्यते। निर्दिष्टे च विषये तस्याऽबाधितत्वं शक्यतेऽवगन्तुम्। तथा "एकदेशान्तरे" इत्यनेनापि एकदेशान्तरभूतस्यानुमानविषयत्वमित्युक्तम्404। तदपि प्रतिज्ञावचनेन गम्यते। तेन साधनप्रयोगे प्रथमं साध्यनिर्देशाय प्रतिज्ञा कर्तव्या। एतेनैव प्रत्यक्षादिबाधितपक्षादिनिर्देश: पक्षाभास इत्युक्तो भवति। दर्शितानि 405प्रत्यक्षादिबाधोदाहरणनि। एकदेशस्य च साध्यत्वं दर्शयितुं सिद्धं धर्मिणमुद्दिश्य साध्यविधिर्दर्शयितव्य इति। अप्रसिद्धिविशेष्यक: पक्षाभास:। यथा---सर्वज्ञो वीतराग इत#ि। प्रतिज्ञाभासस्तु-माता मे वन्ध्येति, उद्दिश्य हि मातरं न वन्ध्यात्वं विधातुं शक्यते, तस्या अन्वयायोग्यत्वेनान्विताभिधानस्यासम्भवात्। यावज्जीवमहं मौनीत्यत्रानुमानबाध एव, न स्ववचनबाध:। शब्दश्रवणाद्धि कार्याच्छद्बोच्चारयितृत्वमनुमीयते। शब्दानुच्चारकत्वञ्च मैनित्वमित्यनुमानबाध एव। स्ववचनन्तु मौनितामाह, न पुनरमौनितामिति न तेन बाध:। गम्यैकदेशान्तरसम्बन्धनियमश्च गमकैकदेशस्य दर्शनीय: परस्येति, तदर्थं दृष्टान्तवचनं प्रयोक्तव्यम्। यावद्धि कÏस्मश्चिद्धर्मिणि एकदेशस्यैकदेशान्तरेणप्रमाणसिद्धस्सम्बन्धनियमो न प्रदश्र्यते, तावदनुमानमेवोत्पादयितुं न शक्यते। यत्र धर्मिण सम्बन्धनियमो दृश्यते, स दृष्टान्त:। यथा---महानसादि:। च चेत्थं दर्शयितव्य:--- पर्वतोऽग्निमानिति प्रतिज्ञाय, यो यो धूमवान्, स सोऽग्निमान्, यथा---महानसादिरिति। यस्तु साध्यविकल:, साधनविकल:, तदुभयविकल:, सम्बन्धनियमविकलश्च, स दृष्टान्ताभास:। यथा---शब्द: प्रयत्नोत्थस्तदनन्तरमुपलब्धे:, 406मूलोदकादिवत्। मूलोदकादिषु प्रयत्नोत्थत्वं नास्तीति, तत्सम्बन्धनियमो हेतोस्तत्र दर्शयितुमशक्य:, तथा---शब्दो नित्योऽमूर्तत्वाद् घटवदिति। घटस्य मूर्तत्वादमूर्तत्वं नास्तीति, तस्य नित्यत्वेन सम्बन्धनियमो दर्शयितुं न शक्यते। तथा-शब्दोऽनित्य: कृतकत्वाद् गगनवदिति। गगनेऽनित्यत्वं कृतकत्वञ्च नास्तीति, न तत्र सम्बन्धनियमश्श्क्यो दर्शयितुम्। यथा--- शब्दोऽनित्य: प्रमेयत्वात् द्रव्यवदित#ि। किञ्चिद्द्रव्यं नित्यं परमाण्वाकाशात्ममनोदिक्कालादिरूपम्; किञ्चिच्चाऽनित्यं द्व्यणुकादि। तत्र प्रमेयत्वस्याऽनित्यत्वेन सह सम्बन्धनियमो नास्तीत्यशक्यमेव दर्शयितुम्। येन च वचनेन सन्नपि साध्यसाधनयोस्सम्बन्धनियमो नाभिधीयते, तदप्याभास एव। तद्द्विविधम्-अप्रदर्शितसम्बन्धनियमम्, विपरीतसम्बन्धनियमञ्च। यथा---पर्वतोऽग्निमान् धूमवत्त्वान्महानसवदिति। यद्यपि महानसे वढिद्धठ्ठड़14;नधूमौ स्त:, तथापि यावत् धूमस्याग्निना सह सम्बन्धो नोच्यत#े, तावदगमक एव। तथा तस्मिन्नेव प्रयोगे यदैवमुच्यते---यो योऽग्निमान्, स स धूमवानिति, तदापि गमकत्वेनाऽभिमतस्य धूमस्य गम्यत्वेनाऽभिमतेनाग्निना सह सम्बन्धनियमस्याऽप्रदर्शितत्वाद् धूमस्य न समर्थितं गमकत्वमिति, साधनाभासत्वम्। सम्बन्धनियमं स्मरत 407एकदेशदर्शनादनुमानमुत्पद्यत इत्येकदेशं दर्शयितुं हेतुवचनं प्रयोक्तव्यम्; यथाऽग्निमत्त्वे साध्ये धूमवांश्चायमिति। तेन यस्यैकदेशत्वं नास्ति, तस्याभासत्वमुक्तमेव। येन वचनेन सदपि दर्शयितुं न शक्यते, तदप्याभास408एव। यथा---अवाचकशब्दप#्रयोगादय:। असाधारणादयश्च हेत्वाभासास्सर्व एवात्रापि योजयितव्या। हतुदृष्टान्तयो: क्रमेऽनियमवर्णनम्। दृष्टान्तहेतुवचनयोश्च प्रयोगे क्रमनियमो नादरणीय:। एकदेशदर्शनपूर्वकादपि सम्बन्धनियमस्मरणादन्तरं 409साध्यज्ञानं जायते, तथा सम्बन्धनियमस्मरणपूर्वकमप्येकदेशदर्शनमनुमानमुत्पादयत्येव, तत्रैकदेशदर्शनपूर्वक सम्बन्धनियमस्मरणं कुर्वता प्रतिज्ञानन्तरं हेतुवचनं प्रयोक्तव्यम्---पर्वतोऽग्निमान्धूमवत्त्वादिति। दृष्टान्तश्च यो यो धूमवान्, स स वढिद्धठ्ठड़14;नमानिति पश्चादुदाहर्तव्य इति। दृष्टान्तपुरस्सरे तु प्रयोगे प्रतिज्ञामुपादाय, यो यो धूमवान्, स सोऽग्निमान्महानसादिवदिति चाभिधाय, धूमवांश्चायमिति हेतुवचनं वक्तव्यम्। उपनयनिगमनयोर्वैयथ्र्यनिरूपणम्। 410अन्ये तु प्रतिज्ञानन्तरं धूमवत्वादिति हेतुमभिधाय, दृष्टान्तवचनं, ततोऽप्यनन्तरमुपनयं प्रयुञ्जते-धूमवांश्चायमिति। तत्र 411हेतुपनययोरन्यतरप्रयोगेणापि साध्यसिद्धेरुभयोपादानमनर्थकमिति 412मीमांसका:। तस्माद् धूमवत्त्वादयमग्निमानिति निगमनमप्यनर्थकमेव, यथोदितहेतुबलसिद्धत्वादर्थस्य। वैधम्र्यदृष्टान्तनिराकरणपूर्वकं साधम्र्यदृष्टान्तनिरूपणम्। वैधम्र्यदृष्टान्तोपादानं 413केचित्साधनवाक्ये कुर्वन्ति। यथा---यत्राग्निर्नास्ति, तत्र धूमोऽपि नास्ति। यथा---जलहद इति। तदनुपपन्नम्---साध्यधर्मसम्बन्धबलेन हेतोर्गमकत्वम्, तच्च साधम्र्य दृष्टान्तेनैव समर्थितम्। अथोच्येत तच्च साधम्र्यदृष्टान्तमात्रेणा साध्यधर्मवति हेतोर्वृत्तिरवगम्यते, न तद्विरहिणो निवृत्ति:। न च तया विना हेतोस्साध्यसम्बन्धनियमोऽवकल्पते। अतस्तदर्थं वैधम्र्यदृष्टान्तोऽप्युपादेय इति। तन्न। न हि साध्यधर्मवति हेतोर्वृत्तिमात्रं साधम्र्यदृष्टान्तेनोच्यते, किन्तु नियत एव साध्यधर्मसम्बन्धो 414निर्दिश्यते। तथाहि---साधनधर्मोद्देशेन साध्यधर्मविधिस्साधम्र्यदृष्टान्तेन क्रियते, तत्र धूमवत्तयोपलक्षणेन सर्वधूमवतामुद्दिष्टत्वात् प्रत्युद्देश्यं वाक्यपरिसमाप्तेस्सवषां धूमवतामग्निमत्ता विहितेति, नास्ति सम्भावना विनाप्यग्निना धूमो भवेदिति। उद्देश्यता च क्वचित् प्रथमप्रयोगेणाऽवगम्तये धूमवानयमग्निमानिति, क्वचिच्च यच्छब्दप्रयोगेण, यो धूमवान्, स वढिद्धठ्ठड़14;नमान् इति। प्रत्युद्देश्यविधानबलेनैव सिद्धां व्याप्तिमन्यतो निवृत्तिञ्च स्पष्टकर्तुं वीप्सावधारणवचनयो: प्रयोग: क्रियते---यो यो धूमवान् स सोऽग्निमानेवेति। तस्मात् सम्यक् साधम्र्यदृष्टान्तप्रयोगेणैव सम्बन्धनियमावगतेरनर्थकं वैधम्र्यदृष्टान्तोपादानमिति। साधम्र्यवैधम्र्ययोर्विकल्पशङ्का। अथोच्येत---मा भूत् दृष्टान्तद्वयोपादानम्, किन्तु विकल्पोऽस्तु, वैधम्र्यदृष्टान्तेनापि हि साध्यधर्मविरहिणमुद्दिश्य साधनधर्मविरहविधौ कृते सर्वसाध्यविरहिणां साधनधर्मविरहव्याप्त्यवगमादन्यत्र साधनधर्मोऽवकाशमलभमान: साध्यधर्मवत्येव वर्तत इति, साध्यधर्मसम्बन्धनियमावगतेर्वैधम्र्यदृष्टान्तेनापि हेतुत्वं समर्थितमेव भवतीति, तुल्यकार्यतया साधम्र्यवेधम्र्यर्दृष्टान्तयोर्विकल्पो न्याय्य इति। तन्निरास:। तदयुक्तम्---रृजुमार्गेणाऽर्थसिद्धौ न 415वक्रमार्गश्रयणं युक्तम्। यत:, साधम्र्यदृष्टान्तश्च साध्यसम्बन्धाव्यभिचारावगतौ रृजुमार्ग:, वैधम्र्यदृष्टान्तो वक्र इति 416नानयोर्विकल्पो युक्त:, अतुल्यत्वादुपायभावस्य। स्यान्मतं यथा साध्यसम्बन्धाविनाभावोऽनुमानम#ार्ग:, तथा तदभावाद्व्यावृत्तत्वमपि, तच्च वैधम्र्य दृष्टान्तेनोच्यत इति, विकल्पाश्रयणमिति। तन्न। व्यावृत्तेरभावरूपाया: क्वचिदपि कारणत्वासम्भवात्। सर्वकार्याणि417 भावसाधनानीत्युक्तम्। न च विपक्षव्यावृत्तिश्शक्यतेऽवगन्तुम् विपक्षाणामनन्तत्वात्, साध्यधर्मसम#्बन्धाव्यभिचाररूपस्तु सम्बन्धनियमो यथाऽवगन्तुं सुकर:, तथोदितमेव। तस्मात्सर्वत्र साधम्र्यदृष्टान्त एव418 प्रयोक्तव्य इति स्थितम्। यत एवंविधं समानम्। अतो दूषणमपि पक्षस्य प्रत्यक्षादिबाधितविषयत्वम्, अप्रसिद्धविशेष्यता च। हेतोर्दूषणमसिद्धत्वं (स्वरूपासिद्धत्वमेकदेशासिद्धत्व) मसाधारणत्वं साधारणत्वं 419बाधितविषयत्वञ्चेति। दृष्टान्तस्य च साध्यविकलता, साधनविकलता, संबन्धनियमविकलताउभयविकलता, विपरीतनियमता 420प्रतिज्ञादीनामवाचकपदप्रयोगश्चेति। प्रतिज्ञासन्यास-प्रतिज्ञाहान्योर्भेदनिरास:। 421प्रतिज्ञासन्यासाच्च 422प्रतिज्ञाहानिरभिन्नैव। प्रतिज्ञासन्यासोऽपि दूषणान्तरपूर्वकत्वाददूषणमेव। दूषितपक्षो हि वादी प्रतिज्ञामपढद्धठ्ठड़14;नुते। अत एव प्रतिज्ञान्तरमपि पृथग् दोषो न भवति। दूषितपूर्वप्रतिज्ञस्यैव 423प्रतिज्ञान्तरा424लम्बनात्। हेतुप्रतिज्ञाविरोध#ोऽपि न दूषणान्तरम्। अप्रसिद्धत्वे हेतोरसिद्धतैव दोष:, सिद्धत्वे वा तद्ग्राहकप्रमाणबाधात्पक्षस्य दोष:। 425अप्रसिद्धविशेषणतात्वदृष्टस्वलक्षणस्याप्यनुमानान्न दोष:। अनुमानफलनिरूपणम्426। 427प्रत्यक्षवच्च वक्तव्या प्रमाणफलवर्णना।" 12 ।। इति। यदाऽनुमितिरनुमानमिति, प्रमिति: प्रमाणमिति भावव्युत्पत्तिराश्रीयते, तदाऽग्न्यादिविषया लिङ्गदर्शनसापेक्षादात्ममनस्सन्निकर्षादुत्पन्नाऽधिगतिरेवानुमानं प्रमाणम्, फलञ्चोपादानादिक्रिया। यदा चाऽनुमीयतेऽनेनेत्युनमानम्, प्रमीयते चाऽनेनेति प्रमाणमिति करणव्युत्पत्त्याश्रयणम्, तदाऽऽत्ममनस्सन्निकर्षोऽनुमानम्, सम्बन्धनियमस्स्मरणम्, एकेदशदर्शनञ्च इतिकर्तव्यता, 428फलञ्च लैङ्गिकविषया प्रतीति:। साधकतमस्य करणत्वात्तमबर्थस्य चातिशयरूपत्वाद्व#्यवहितापेक्षया च सन्निहितस्याऽतिशययोगाल्लिङ्गदर्शनादीनां प्रमाणत्वम्। इति महामहोपाध्यायश्रीशालिकनाथमिश्रप्रणीतायां प्रकरणपञ्चिकायां प्रमाणपारायणे द्वितीयोऽनुमानपरिच्छेदस्समाप्त:।

शास्त्रपरिच्छेद:। सम्पाद्यताम्


    "शास्त्रं430 शब्दविज्ञानाद्यदसन्निकृष्टार्थविज्ञानम्।" इति। शब्दविज्ञानापेक्षादात्ममन431स्सन्निकर्षाद्यददृष्टार्थविषयं ।विज्ञानम्, तत् शास्त्रं नाम प्रमाणम्। शब्दत्वस्योपाधित्वनिरूपणम्। कश्शब्दोऽभिमत: ? वर्णा:, तेषामेव श्रोत्रग्राह्यत्वात्। श्रोत्रग्राह्ये हि वस्तुनि शब्दपदं वर्तते। न च सत्त्वशब्दत्वयोरतिप्रसङ्ग:, सत्तादिसामान्याभावात्। अनुवृत्ताकारावभासिनी हि बुद्धिस्सामान्यसिद्धौ निबन्धनम्। न च द्रव्यगुणादिष्वनुवृत्तमाकारं परामृशन्ती बुद्धिरुदेति, यतो महासामान्यं सत्ताख्यं प्रसिध्येत्। नापि ककारखकारादिष्वेक अकारोऽवभासते, यतश्शब्दत्वमभ्युपगच्छेम। सदादिप्रतीतिस्त्वौपाधिकी। प्रमाणग्रहणयोग्यतौपाधिक: सच्छब्द:। 432श्रोत्रग्राह्यतौपाधिकश्च शब्दशब्द:। स्फोटवादस्योपन्यास:। ननु वर्णारिक्तं पदमपि श्रौत्रमेव। तथाहि---वन-नव ।नदी दीनेत्यादिषु वर्णाभेदेऽपि पदान्यत्वं प्रतीयते। न च वाच्यं वर्णा एव पदम्। वन-नव-नदी-दीनेत्यादिषु क्रमभेदेन पदभेदबुद्धिरिति, वर्णानामक्रमिकत्वात्। देशनिबन्धनो वा क्रमो भवेत्, कालनिबन्धनो वा। उभयविध#ोऽपि न वर्णेष्वास्पदं लभते, तेषां सर्वगतत्वान्नित्यत्वाच्च। बुद्धिस्तु तेषां क्रमवती। तदनुरोधेन वर्णा अपि क्रमवन्त इति प्रत्येकं श्रवणेष्ववभासन्ते। एकक्षणवर्तिन्यान्तु पदबुद्धावेकस्यां बुद्धिनिबन्धनोऽपि क्रमो नोपपद्यत इति, कुतस्तद्भेदेनापि भेदप्रतिभासोपपत्ति:? किञ्च वर्णा बहव:, एकविषया च पदबुद्धिरिति, वर्णेभ्यो भिन्नं पदम्। 433किञ्च यदि वर्णेभ्यो भिन्नं पदं नाऽवभासते, ततस्तेभ्योऽर्थप्रत्यय एव नोपपद्यते। एकैकवर्णप्रतीतौ तावदर्थस्य नावगम:। न च सकलवर्णोपलम्भो युगपत्सम्भवति, वर्णानां क्रमोच्चारणात्। उच्चारणानुसारित्वाच्चोपलब्धे:। वर्णानाञ्च वाचकत्वे क्रमभेदे वक्तृभेदे चार्थप्रत्ययस्स्यात्। तस्माद्वर्णेभ्योऽसम्भवन्नर्थप्रत्ययस्तदतिरेकिस्वनिमित्तपदप्रतीतिं प्रसाधयति। तन्निरास:। उच्यते---वन--नव--नदी--दीनेत्यत्रापि वर्णेतिरिक्तवस्त्वन्तरावभासो नास्ति, नकारादय एव हि प्रतीयन्ते। बुद्धिभेदस्तु क्रमभेदनिबन्धन:। न चेयमेका बुद्धिर्यतो वर्णानां बुद्धिभेदनिबन्धनोऽपि क्रमो न स्यात्। भिन्नवर्णविषया भिन्ना एव हि बुद्धयो निरन्तरतयैकतामिव#ापद्यन्ते। तथा हि---श्रवणोन्द्रियनिबन्धनास्तावद्वर्णोच्चारणानुबन्धिन्यो बुद्धय उच्चारणभेदेन 434भिद्यन्ते। एवं स्मृतिरपि प्रत्येकवर्णोपलम्भप्रभावितभावनावशेन भवन्ती, सर्वविषयैकाऽवकल्पते, भावनानां भेदात्। एकपदबुद्धिस्त्वेकार्थप्रतिपत्त्युपाधित्वनिबन्धना435, एकार्थप्रतिपत्तिश्च436 प्रत्यक्षं तावन्निमित्तं न शक्नोति कल्पयितुम्, तस्य निमित्तत्वानुपपत्ते:। न तस्य सत्तामात्रेण निमित्तता, सर्वदाऽर्थप्रत्ययापत्ते:। प्रत्यक्षं 437वर्णेभ्य: भिन्नपदावभासि न भवतीत्युक्तमेव। तेन वर्णेष्वेव प्रत्यक्षेष्वर्थप्रतिपत्त्युपपत्तये कश्चिद्विशेष आश्रयितुं युक्त:। स च पूर्वपूर्ववर्णोपलम्भसापेक्षत्वादन्त्यवर्णस्य, उपलम्भस्य च क्षणिकतया स्वतो विशेष्टुमशक्यत्वात्पूर्वपूर्ववर्णोपलम्भजन्यस्संस्कार एवाश्रीयते। स्मृतिहेतोस्संस्कारादस्य वैलक्षण्यनिरूपणम्। स च स्मृतिहेतोस्संस्काराद्भिन्न एव। स्मृतिहेतुर्हि संस्कारो यदुपलम्भप्रभावितस्तत्रैवोपलम्भान्तरं जनयितुमलं, नार्थान्तरे, इत्यर्थविषय तत: प्रतीतिरनुपपन्नेति, तदतिरेकिणस्संस्कारस्याश्रयणम्। तस्य च कार्यकल्प्यत्वाद्यथाभावेऽर्थप्रतीतिकार्यदर्शनं438, तथाभ#ाव एवोत्पत्तिरनुमीयते। तेन क्रमविपर्यये 439वक्तृभेदे व्यवधाने च कार्यादर्शनात्तत्र संस्कारस्यादर्शनादर्थप्रत्ययाभाव:। यस्य यस्य चार्थस्य प्रतीतौ यस्य वर्णस्य निमित्तभाव:, तस्य तदर्थप्रतीत्यनुगुणसंस्काराधायकत्वं440 स्वाभाविकम्। सहायविरहात्तु कार्यानुदय:, नाप्यनुमानतो वा वर्णव्यतिरिक्तपदोपपत्तिरिति वर्णात्मकमेव पदमिति। सम्बन्धस्यौत्पत्तिकत्वाक्षेप:। क: पुनरर्थ: ? अभिधेय:। अभिघेय एव क: ? येन सह शब्दस्याऽपौरुषेयस्सम्बन्ध:। अथ कस्सम्बन्ध: ? प्रत्याय्यप्रत्यायकभाव:। न तह्र्यपौरुषेयस्सम्बन्ध:, स्वभावतश्शब्दस्याऽप्रत्यायकत्वात्। यदि हि स्वभावत एव शब्दोऽर्थं प्रत्याययेत्, तत: प्रथमश्रुत: किं नप्रत्याययेत् ? ततोऽवगच्छाम:, अपेक्षते किञ्चिच्छब्द इति। देवदत्तादिपदेषु च पुरुषसङ्केतायत्ताऽर्थप्रतीतिर्दृष्टेति, 442गवादिपदेष्वपि तदपेक्षैवाश्रीयते। तदपेक्षाचेदर्थावगति:, न तह्र्यपौरुषेयं 443शब्दस्याऽर्थप्रत्यायकत्वम्। तत्समाधानम्। उच्यते; यद्यपि प्रथमश्रुताच्छब्दादर्थं नाऽवबुध्यते, तथापि स्वाभाविकमेव शब्दस्याऽर्थप्रत्यायकत्वम्, न पुनस्सङ्केतापेक्षम्। तथा हि---वृद्धयोव्र्यवहरतोरेकस्य वाक्यं श्रुत्वा, परस्य प्रवर्तमानस्य प्रवृत्त्या बुद्धिमनुमाय444 तस्याश्च 445शब्दश्रवणानन्तरभावित्वाच्छब्दस्य तद्धेतुतां तावदवधारयति। किन्तु तेषां पाश्र्ववर्तिनां व्युत्पित्सूनां ततश्शब्दात् स्वयमर्थमप्रतियतामेषां पुनरियं विचिकित्सोदयते---यदि प्रत्यायकश्शब्द:, ततोऽस्मानपि किमिति नार्थं प्रतिपादयति ? अथाऽप्रत्यायक एव, ततो वृद्धमपि कथमवबोधयतीति विचिकित्सतां तेषोमेव पुनरेषा कल्पना प्रसरति---नूनमस्ति कश्चिदस्य वृद्धस्य विशेषो यतोऽयमर्थमवबुध्यत इति, कोऽसौ विशेष इति 446 निर्णयतां पुन: शब्दश्रवणे वृद्धव्यवहारावगतार्थप्रत्यायकत्वमात्रेण स्वयमर्थावगमदर्शनादर्थप्रत्यायकत्वावगम एव विशेष इति निर्धारणा जातये, न पुनस्सङ्केतप्रतीतिर्वृद्धस्य विशेष इति कल्पना शक्या, सङ्केतस्यैव तदानीमप्रतीते:। व्युत्पन्नेतरशब्दार्थो हि सङ्केतादर्थमवबुध्यमानस्सङ्केतं प्रतिपद्यते, नान्यथा। ननूत्तरकालं सङ्केतदर्शनात्किमिति 447सङ्केतस्य प्रत्यायकत्वं नाश्रीयते। न। शब्दस्वभावत एवार्थप्रतीतिरूपकार्यसिद्धे:। यदि हि शब्दमात्रादर्थप्रतीतिर्न सम्पद्यते, ततस्सङ्केतोऽपि 448तत्कारणमिति कल्प्यते, नान्यथा। उपपद्यते तु शब्दमात्रादेवार्थावगति: प्राच्येन मार्गेण। नन्वेवं सति देवदत्तादिपदेष्वपि कथं सङ्केतस्य 449कारणत्वम् ? उच्यते---प्रत्यक्षपरिदृष्टस्तत्र सङ्केत:, न तु कल्पयितव्य:। तेन देवदत्तादिपदेषु तस्यैवाऽर्थप्रतीतिकारणत्वम्। गवादिपदेषु तु केवलकार्यदर्शनमात्रकल्पनीयो नावकाशं लभत इति, अपौरूपेयश्शब्दानामर्थेन450 प्रत्याय्यप्रत्यायकभावलक्षणस्सम्बन्ध इति सिद्धम्। शास्त्रलक्षणेऽसन्निकृष्टविशेषणप्रयोजननिरूपणम्। "असन्निकृष्ट" इति 451किमिदम् ? 452प्रमाणान्तरेणाऽप्रतीत इति। यद्येवम्, कथमसौ शब्दैरवबोध्यते ? उक्तम्---वृद्धव्यवहारावगतसम्बन्ध: 453शब्दोऽर्थस्याऽवबोधक इति। यश्चाऽर्थो न प्रमाणान्तरेणावगम्यते, कथं तद्विषयो वृद्धव्यवहारोऽवसीयते? कथन्तराञ्चतद्विषया प्रतीतिरनुमीयते? कथन्तमाञ्च तद्वाचकत्वशक्तिश्शब्दस्य कल्प्यत इति ? 455वाक्यार्थमातृकायामभ्यासो विधीयतामिति, अत्रोत्तरम्। चोदनासूत्रतात्पर्यवर्णनम्। स पुनरसन्निकृष्टोऽर्थो नियोगार्थ एव। नियोगो हि प्रमाणान्तरानवगतमपूर्वमर्थमवबोधयतीति वाक्यार्थमातृकायामुक्तम्। न च नियोग एवैकस्तस्याऽवबोधक:, विषयव्यतिरेकेण तदप्रतीते:। पदान्तराणामपि 456तदन्वितस्वार्थपरतयैव व्युत्पत्ते:, तेन वाक्येनैव नियोगार्थ: प्रत#ीयते। तत्र लिङादिप्रत्ययो 457नियोगार्थमेवाभिदधाति, प्रकृतिस्तिद्विषयम्, पदान्तराणि च विषयविशेषणं नामधेयम्, नियोज्यञ्चाभिदधति458 सन्ति नियोगार्थप्रतीतौ व्याप्रियन्ते। सन्निपत्योपकारङ्गवाक्यानि च यद्यपि नियोगान्तरशून्यानि, तथापि प्रधाननियोगान्वितस्वार्थाभिधायकतया प्रधाननियोगप्रतिपत्तावेव पदान्तरवत् 459व्याप्रियन्ते। विनियुक्तमन्त्रसमाम्नायोऽपि द्रव्यभूतं 460मन्त्रजातं नियोगाङ्गतया समर्पयन्; तद्विशिष्टनियोगावगतावेवोपक्षीयते। नियोगाङ्गता तु योग्यतया प्रयोगकाले नौयोगिककर्म-तत्साधनस्मारणेन मन्त्रजातस्य। 461अर्थवादा अपि वेधियस्तुतिमुत्पादयन्तस्स्तुतिविषयविधेयान्वितनियोगप्रतिपत्तिपरा एवेति; कृत्स्न एव 462वेदोऽपूर्वे कार्यात्मनि। प्रमाणम् अथ 463एव को वेदार्थ इति जिज्ञासमानेभ्य: "चोदनालक्षणोऽर्थो धर्म:" झ्र्मी. द. 1.1.2ट इति सूत्रेण कार्यात्मा वेदार्थ इत्युक्तम्।ब्रह्यसिद्धिकारस्य मतानुवाद:। 464ननु कथं पुन: कार्यरूप एव वेदार्थ: ? यावता वेदान्तानां सिद्ध एवाऽर्थो ब्रह्मत्मक: "विज्ञानमानन्दं ब्रह्म" इति प्रतीयते। अथोच्येत व्युत्पत्त्यपेक्षश्शद्वोऽर्थमवबोधयति; व्युत्पत्तिश्च शब्दानां वृद्धव्यवहारे, व्यवहारश्च प्रवृत्तिनिवृत्त्यात्मक: कार्यप्रतीतिनिबन्धन इति कार्यप्रतिपादकतयैव शब्दव्युत्पत्ति:। तत्रापि कश्चिच्छब्दस्साक्षादेव 465कार्यपरतया व्युत्पद्यते, कश्चिच्च कार्यान्वितस्वार्थपरतया। विनापि व्यवहारं सिद्धार्थप्रतिपत्तिपरादपि लौकिंवचनात्सम्भवत्येव कार्ये व्युत्पत्ति:; यथा पुत्रस्ते जात इत्यादिषु कार्यान्वयरहितेषु सिद्धार्थेष्वपि शब्देषु।अत्र हि मुखप्रसादादिभिर्लिङ्गैर्लोकैश्श्रोतुर्हर्षोत्पत्तिरनुमीयते, हर्षोत्पत्तिश्च हर्षहेतुमन्तरेण न सम्भवति; प्रियार्थप्रतीतिश्च हर्षहेतुरिति स्वात्मनि प्रतीतम्, तेन पुत्रस्ते जात इति वाक्येन प्रियोऽर्थो बोधित इति कल्प्यते। पुत्रजन्मैवास्य 466प्रियम#िति प्रमाणान्तरावगतमिति तदभिधायकत्वमेव कल्प्यते। प्रतिपदभावापोद्धाराभ्यां व्यवहार इव स्वार्थविशेषसम्बन्धाध्यवसाय:। तथा व्युत्पन्नेतरपदविभक्त्यर्था: काष्ठै: पचतीति 467वर्तमानापदेशेऽपि यत् पाके 468करणं तत् काष्ठशब्देन प्रतिपाद्यत इत्यवगम्य, प्रत्यक्षेण काष्ठानां करणभावमवगच्छन्त: काष्ठशब्दार्थे कार्यान्वयरहित एव व्युत्पद्यन्ते। किञ्चास्य शब्दस्याऽयमर्थ इत्यपि व्युत#्त्पत्तिर्दृश्यते, न तत्र शक्यते वक्तुं कार्यान्वय्येव शब्दस्याऽर्थ इति। 469अपि च येन नाम कार्याभिधायित्वमभ्युपगम्यते, तेनापि तावदर्थान्तरान्विताभिधायित्वमभ्युपगतमेव, तावता च कार्यान्विताभिधानस्या प्युपपत्तेर्न शक्यते विशेषान्वितभिधानशक्ति: कल्पयितुम्। लोके च सिद्धार्थान्येव प्रायशो वाक्यानि प्रश्नोत्तररूपाणि दृश्यन्ते। कुशलंते, कुशलं ममेत्येवमादीनि470। 471किञ्च---कार्यमपि तदुच्यते यत् अपेक्षितोपाय:, तेन सिद्धैव कर्मणामपेक्षितोपायता कार्यपरेषु गम्यते, अत: सिद्ध एव वेदार्थ इति। अत्रोच्यते---सर्वपुरुषाणां तावद्वृद्धव्यवहारे एव प्रथमं शब्दानां व्युत्पत्तिरङ्गीकरणीया। न खलु व्यवहारमन्तरेण सिद्धार्थान्वाख्याने व्युत्पत्तिखकल्पते। यद्यपि मुखप्रसादादिभिर्हर्षोत्पत्तिरनुमीयते। हर्षोत्पत्त्या च हर्षहेत्ववगम:, तन्निमित्तता च शब्दस्य, तथापि पुत्रस्ते जात इति वाक्यस्य पुत्रजन्माख्यहर्षहेतुप्रतिपादकता 472हर्षहेतुनामानन्त्याद्दुरनुमाना। न च 473पारिशेष्येण तत्प्रतिपादकत्वाध्यवसाय:, भूतभविष्यद्वर्तमानानां सन्निहितव्यवहितानां पारिशेष्येणावधारणाया अत्यन्तदुष्करत्वात्। व्यवहार: पुन: प्रत्यक#्षो विशिष्टार्थविषय एव उपलभ्यमानस्तद्बुद्ध्यनुसारेण तद्गतामेव शब्दस्य वाचकतामनायासेनापादयन् व्युत्पत्तावुपायतां गन्तुमलम्। व्यवहारश्चेद्व्युत्पत्त्युपाय:, क: कार्यान्विताभिधानं शब्दानामपहरेत् ? न हि 474कार्यावगमं विना व्यवहारोऽवकल्पत इत्युक्तं वाक्यार#्थमातृकायाम्। एवञ्च लोके यस्सिद्धार्थपरतया पदानां प्रयोग:, स लाक्षणिको भविष्यति। कार्यान्वयो हि परस्परं पदार्थाव्यभिचारीत्वविवक्षित्वा कार्यान्वयं परस्परपदार्थान्वयविवक्षयपि लोकाश्शब्दं प्रयुञ्जते। विवक्षाबलेन च लक्षणया तत्परतापि तत्र निर्वहति। वेदे तु 475लक्षणानिमित्तं किञ्चिन्नास्तीति, स्वाभाविककार्यपरत्वं नापहर्तुं शक्यते। 475न चापेक्षितोपायतैव कार्यता, कृतिसाध्यं हि कर्यम्, साधनमुपाय:। साध्यत्वोपायत्वे च भिन्ने, किन्तु क्लेशात्मकं कर्म, अपेक्षितोपायतया कार्यं प्रतीयत इति कार्यता साधनतां न व्यभिचरतीति तादात्म्यभ्रमो मन्दधियाम्। तथा च सुखं स्वयमेव कार्यं, एवं सर्वपदानांकार्यान्विताभिधायकत्वात्, यदि वेदान्तेषु कार्यं योग्यमध्याहारादिभिर्लभ्यते, तदा कार्यर्थतैव वेदान्तवाक्यानामपि। अथ न, ततोऽनभिधायकतैव, व्युत्पत्तिविरहात्। अतो विधिनिराकरणमपि वेदान्तेषु न क्षतिमावहति। तस्मासिद्धं कार्य एव वेदस्य प्रामाण्यम्। वेदान्तानामुपासनाविधिपरत्वसमर्थनम्। अतश्च वेदान्तानामपि "आत्मा ज्ञातव्य" इत्यपुनरावृत्तये समाम्नातेन विधिनैकवाक्यतामाश्रित्य कार्यपरत्वमेव वर्णनीयम्। अन्यथा सिद्धार्थप्रतिपत्तिपरत्वे व्युत्पत्तेरभावाद्वृद्धव्यवहारावगताया: पदानामन्विताभिधायिताया एवानुपपत्ते:। कार्यपरत्वे च प्रमाणान्तरावगतात्मस्वरूपप्रतिपत्तिपरत्वेनैव वर्णनं कर्तव्यम्। अपि च सिद्धार्थपरत्वेऽपि शब्दस्य, न वेदान्तानां परमानन्दादिरूपत्वे ब्रह्मण: प्रामाण्यमवकल्पते। तत्र हि ब्रह्मस्वरूपानुवादेनानन्दादिविधिरास्थेय:। ब्रह्मस्वरूपञ्च प्रमाणान्तरसिद्धमेवाश्रयणीयम्। ब्रह्मन्शब्दस्य च लोके प्रमाणान्तरसिद्धात्मवाचित्वेन प्रसिद्धेर्वेदेऽपि स एवार्थ:। तथा सति नित्यप्रकाशपरमानन्दरूपविधिस्सकलप्रतीतिविरुद्ध:। सर्वप्रतिपत्तिषु हि प्रमाणस्मृतिभूतास्वात्मा प्रकाशते। न च तत्र परमानन्दस्संवेद्यते। न च सांसारिकदु:खाभिभूतत्वात्तस्याऽप्रकाश:, अभिभवानुपपत्ते:। अवच्छिन्नं हि दु:खम्, अनवच्छिन्नश्चानन्द इति, नाल्पीयसा महतोऽभिभवस्सम्भवति। स्वप्रकाशस्य चाभिभवावरणानभिव्यक्तीनामसम्भव एव। 476अभिन्नैकात्मतत्त्वप्रतिपादनमपि 477प्रमाणान्तरविरुद्धमेवेति वक्ष्यते तत्त्वालोके। सकलविकारशून्यतापि विज्ञानादिविकारोत्पत्ते: प्रमाणान्तरविरूद्धैवेति परस्परान्वयायोग्यतया नानन्दादिपरत्वम्। अजरामरत्वयोस्तु प्रमाणान्तरप्रसिद्धेरेवानुवादत्वादप्रामाण्यमिति। लौकिकशब्दस्य प्रमाणान्तरत्वशङ्का। 478नन्वशास्त्रमपि शाब्दमस्ति लौकिकम्, तत्किमिति न लक्षितम् ? उच्यते---न शास्त्रव्यतिरिक्तं शाब्दमस्ति। शब्दाद्धि यद्विज्ञानमसन्निकृष्टेऽर्थे तत् 479शास्त्रं स्यात्। न च वेदव्यतिरेकेण तत् सम्भवति, लौकिकं वाक्यं नार्थे स्वयं 480निश्चयमुत्पादयत#ि, लौकिकवचसामनृतभूयिष्ठत्वादर्थव्यभिचारस्य शङ्कितत्वात्। 481नन्वेवं वैदिकमपि वचो नार्थनिश्चायकं स्यात्, शब्दोत्थापितस्याऽर्थज्ञानस्य लोकेऽर्थव्यभिचारित्वात्। अथोच्येत वैदिकाद्वचनात् स्वतस्तावन्निश्चयो जायते, पश्चात्तनस्तु संशयस्तद्विरोधादात्मानं न लभते। यथा---स्थाणौ समीपवर्तिनि स्थाणुरूपतया निश्चिते, न पुनरूध्र्वता स्थाणुपुरुषसंशयं प्रसूते। 482उपलब्धौ ह्यव्यवस्थितायां सन्देहो जायते। यदा च निश्चितोऽर्थ:, तदोपलब्धिव्र्यवस्थितेति संशयो न युक्त:। न चाव्यभिचारनिश्चयपूर्वकं शब्दस्य निश्चायकत्वम्, येन 483व्यभिचारनिश्चयो न स्यात्। किन्तु स्वभावत इन्द्रियवच्छब्दो निश्चयहेतुरिति, तन्न; शब्दजनितं निश्चयमेवोमयथा दृष्ट्वा यस्संशय:, स निश्चयेनैव न शक्यते निरोद्धुम्। 484बाह्यहेत्वन्तरो हि संशयो निश्चयेन विरुध्यते। य: पुनस्तत्प्रभव एव, नासौ तेन विरुध्यते। तन्निरास:। उच्यते---युक्तस्तावल्लौकिके वचसि सन्देह:। पुरुषा हि प्रायेणाऽनन्वितार्थान्येव पदान्याशयदोषेण, भ्रमेण, प्रमादेन, अशक्त्या वा प्रयुञ्जाना दृश्यन्ते। ततश्च यद्यपि तदुक्तानां पदानामन्विताभिधानसामथ्र्यमस्ति, तथाप्यनन्वितार्थत्वशङ्कया नान्वयो निश्चीयते। कथं तर्हि लौकिकवाक्येभ्यो व्यवहारप्रवृत्ति: ? उच्यते---अर्थसंशयेनापि लोको व्यवहरति। सन्दिग्धायामपि वृष्टौ वृष्ट्यायत्तफले कृष्यादिकर्मणि प्रवर्तन्ते। अथवाऽस्त्येव निश्चयोपाय:। यो हि पुरुष एवमवधारितो, नायमशक्तो, न प्रमादी, सम्भवदेतदर्थविषयप्रमाणस्सकलाशयदोषरहितश्च, नायमविज्ञायान्वयमर्थानामन्वितार्थानि प्रयुङ्क्त इति तद्वाक्यप्रयोगस्यान्वयज्ञानपूर्वकत्वादन्वयज्ञानं तावदनुमीयते। अन्वयज्ञानाच्चान्वयोऽप्यनुमीयते। ज्ञानं हि ज्ञेयाविनाभावि ज्ञेयानुमाने भवत्येव लिङ्गम्। तदेवं लौकिकाद्वचसो लिङ्गभूताद्वक्तृज्ञानमनुमीयते। ततोऽर्थं निश्चित्य व्यवहार: प्रवर्तते। एवञ्च निश्चितेऽन्वये निवृत्तानन्वयाशङ्काद्वाक्यादप्यर्थनिश्चयो जायते। किन्तु 485तस्यां दशायां तद#्वाक्यस्याऽनुवादकतैव। अत एव 486लौकिकं वचनं न शाब्दं प्रमाणम्। 487अभिप्राये शब्दो लिङ्गम्, अभिप्रायोऽप्यर्थे लिङ्गम्, शब्दस्त्वर्थे पश्चान्निश्रयं जनयन्नप्यनुवादकत्वान्न प्रमाणम्। नन्वशक्तप्रमादिभ्रान्तदुष्टाशयपुरुषप्रयुक्तानां488 पदानामनन्वितार्थत्वदर्शनाद् या पुरूषान्तरवचनेष्वनन्वितार्थत्वशङ्का जायते, तन्निवृत्तिमात्र एव पुरुषस्य वक्तुश्शक्तत्वाप्रमादित्वाभ्रान्तत्वशुद्धाशयत्वज्ञानं व्याप्रियताम्। अर्थनिश्चयस्तु वाक्यादेवापास#्तसन्देहादस्तु। मा भूद्वक्तृज्ञानादनुमितादर्थनिश्चये जाते, वाक्यस्यानुवादकत्वमिति। उच्यते---अभ्रान्तत्वं नाम पुरुषस्य यथार्थज्ञानयोगित्वम्। आशयदोषविरहश्च यथाविदितार्थविवक्षायोग:। शक्तत्वञ्च यथाविवक्षितपदप्रयोगसमर्थत्वम्। शक्तस्यापि यथाविवक्षितार्थाविक्षेपश्चाप्रमाद:, यस्यैतच्चतुष्टयमस्ति, स प्रत्ययित:। यस्यैतदवगतम्, सम्यग्ज्ञाननियतोऽस्य वाक्यप्रयोग इति। तेन तस्य तदीयवाक्यश्रवणे तद्गतसम्यग्ज्ञाननिश्चयो जायत एव। समीचीनं तज्ज्ञानमुच्यते489, यत् अर्थाविसंवादि। 490तच्चाविसंवादि, तस्य यथाप्रतीयमानोऽर्थोऽस्ति। तेन समीचीनज्ञाननिश्चयोऽन्तर्भावितार्थनिश्चय एवेति न संशयनिवारणमात्रे पुरुषविशेषविज्ञानं व्याप्रियते, किन्त्वर्थनिश्चय ऐवति, निश्चितेऽर्थे, निवृत्ते च संशये, वाक्यमर्थनिश्चयं कुर्वदप्यनुवादकत्वान्न प्रमाणम्। ननु तर्हि यत्र 491वक्तृज्ञानस्याऽन्यतोऽनवगतस्याऽवगमकं पौरुषेयं वाक्यम्, तत्रैव शाब्दं प्रमाणमस्तु, न तत्रानुमानत्वात्। वक्तृज्ञानेन हि निश्चितसम्बन्धं प्रत्ययितवचनम्। वक्ता तु धर्मी, ज्ञानविशेषयोगिता-वाक्यप्रतियोगिते तस्यैकदेशाविति। अत एव च भगवान्क#ाश्यपो वेदान्पौरुषेयान्मन्यमानश्शाब्दमनुमानेऽन्तर्भूतमुवाच। "अस्येदं कार्यं कारणमिति" लैङ्गिकमुक्त्वा "एतेन शाब्दं व्याख्यात" झ्र्9-2-3ट मिति। वक्तृज्ञानं हि कारणम्, वाक्यञ्च कार्यम्। अत एव 492अन्यत्राप्युक्तम्---वक्तुरभिप्रायन्तु सूचयेयुश्शब्दा493 इति। स एव 494तथाप्रतिपद्यमानोऽर्थनिश्चयहेतुरिति। ननु यदि वाक्याद्वक्तृज्ञानानुमानम्, वक्तृज्ञानाच्चार्थानुमानम्, तह्र्यनवगतेऽर्थे कथं ज्ञानविशेषोऽनुमातुं शक्य: ? 495अर्थेनैव निराकारस्य ज्ञानस्य विशेष:। न चानिर्जातोऽर्थो ज्ञाने विशेषमापादयति। उच्यते---अनवगतेऽप्यर्थे ज्ञानविशेषोऽनुमातुं शक्यत एव। यादृशार्थप्रतिपादनयोग्यानि पदानि प्रयुक्तानि, तादृशार्थविषयं ज्ञानमनुमीयते। वेदस्याप्रामाण्यशङ्कानिरासौ। नन्वेवं वेदस्य प्रामाण्यमपास्तम्। व्युत्पत्त्यपेक्षो हि वेदे शब्दादर्थावगम:, वृद्धव्यवहारे च व्युत्पत्ति:। वृद्धवाक्यानि चेल्लिङ्गभूतानि, न तर्हि स्वार्थे प्रमाणतया व्युत्पन्नानि। उच्यते---यावद्धि 496पदानामर्थविशेषवाचकत्वं नाश्रीयते, तावद्वक्तृज्ञानविशेषोऽपि नानुमीयते। विशिष्टाद्वि वाक्याद्विशिष्टं ज्ञानमनुमातव्यम्। न चार्थविशेषप्रतिपादकत्वादन्यो वाक्यस्य विशेषोऽस्तीत्याश्रयणीयमर्थविशेषप्रतिपादनसामथ्र्यं 497शब्दानाम्, अर्थविशेषप्रतिपादनसामथ्र्यावधारणमेव च व्युत्पत्ति:, तावतैवाऽर्थप्रतीति:। अनुवादकत्वेऽपि च शब्दानामस्त्येव प्रतिपादकत्वम्। वेदे च व्युत्पत्तिवशेनार्थप्रतिपत्तौ जातायां प्रामाण्यमुपपद्यत एव। ननु वेदेऽपि शङ्कया भवितव्यमित्युक्तम्, सत्यमुक्तम्, अयुक्तं तत्; न तावदन्वयनिश्चयानुपपत्तिर्वेदे सम्भवति। 498अशक्त्यादिवक्तृदोषवशेन499 ह्यनन्वितार्थप्रयोगो लोके दृष्ट:। न च वेदे कर्ता पुरुषोऽस्ति, तेन तदाश्रितास्तावद्दोषा अनन्वितार्थपदरचनादिहेतवोवेदे शङ्कामपि नावतारयन्तीत्वन्वयनिश्चयस्तावज्जायते। न च पौरुषेयवाक्यजन्यनिश्चयस्य व्यभिचारदर्शनात् वैदिकेऽपि निश्चये 500व्यभिचारशङ्का, शाब्दस्य क्वचिदपि व्यभिचारादर्शनात्। लैङ्गिको हि वक्तृज्ञाननिश्चयो लोके व्यभिचारी दृष्ट:। न चान्यत्र व्यभिचारदर्शनादन्यत्र व्यभिचारशङ्कोचिता। शङ्कायां दर्शनमूलत्वात्। यथाभूते हि यद्दृष्टम्, तत् तथाभूत एव पुनश्शङ्कामवतारयति। अपि च लैङ्गिकस्यापि तत्र व्यभिचारो नास्ति। प्रत्ययितवचनाद्ध्यप्रत्ययितवचनमपि भेदेनाऽप्रतिपद्यमान: प्रत्ययितवचने दृष्टं ज्ञानपूर्वकत्वं स्मरन्, तच्च स्मरणं ग्रहणाद्विवेकेनाऽनवबुध्यमानो ग्रहणव्यवहारं प्रवर्तयतीति, तत्र न 501कस्यचिद्व्यभिचार:। वेदानां पौरुषेयत्वशङ्का। ननु 502पदसङ्घातात्मकतया वेदा अपि पौरुषेया एव। पदसङ्घाता हि पौरुषेया एव दृश्यन्ते, भारतादिवत्। तथा काठकादिसमाख्यापि वेदे प्रवर्तते। न चेयं प्रवचननिमित्ता समाख्येति कल्पयितुं युक्तम्, साधारणत्वात्प्रवचनस्य। बहवोऽपि प्रब्रूयु:, कर्ता पुनरसाधारणो भवति, क#ृतस्य करणायोगात्। असाधारण्येन व्यपदेशा भवन्ति। यथा---वैयासिकी भारसंहितेति। अत: पौरुषेयत्वेन वेदानाम्, तदर्थस्य प्रमाणान्तराविषयत्वात्तद्विषये वक्तु: प्रमाणाभावादनन्वितार्थत्वाशङ्का तत्पदेषु भवन्ती, केन वार्यते ? तन्निरास:। उच्यते---पुरुषकृतत्वं तावद्वेदानां साक्षाद्भारतादिवन्न स्मर्यते। 503समाख्या तु पौरुषेयी प्रमाणान्तरानुसारिणी न शक्नोति स्वयमर्थव्यवस्थां कर्तुम्। यदि विचारयन्त: कृतकतामेव निर्णेष्याम:, तत: करणनिबन्धना समाख्येत्यध्यवसास्याम:504। अथ तु यत्नेनान्विष्यन्तोऽपि पौरुषेयतां नोपलप्स्यामहे, तत: प्रवचननिबन्धनेति वक्ष्याम:। तदपि ह्यसाधारणं स्यात्, प्रकृष्टं हि वचनं कस्यचिदेव कुत्रचिदेव। तन्न तावत्पदसङ्घातात्मकत्वं पौरुषेयतामनुमापयितुमलम्। वेदार्थविषये पुरुषाणां वाक्यविरचनासामथ्र्यानुपपत्ते:। 505परस्परासङ्गतार्थतया तावद्वेदा उन्मत्तप्रणीता इति न शक्यते वक्तुम्। उन्मत्तप्रणीतस्य चेयतो ग्रन्थराशे: प्रथममध्ययनं कथं प्रवर्तते ? के हि सचेतस उन्मत्तोक्तमेतावन्तं ग्रन्थराशिं महता क्लेशेनाऽधीयीरन् ? धारयेयुरध्यापयेयुश्च ? न च बुद्धादिग्रन्थवद्बुद्धिपूर्वकारिणा वक्त्रा प्रोत्साहिता महत्यप्यायासे प्रवर्तेरन्, अतो बुद्धिपूर्वकारिप्रणीता वेदा इति वाच्यम् ? न हि बुद्धिपूर्वकारी वेदान् विरचयितुमलम्, तदर्थस्य बुद्धावारोपयितुमशक्यत्वात्। प्रमाणान्तराविषयो ह्यपूर्वात्मा वेदार्थ:, स प्राग्वेदवचनेभ्यो बुद्धिस्थतामापादयितुमशक्य:। बुद्धवचसामपौरुषेयत्वशङ्कानिरासौ। ननु बुद्धादिवचनान्यप्येवमेवापौरुषेयाणि स्यु:, न, तेषां साध्यसाधनभावस्य कल्पयित्वापि बुद्धावारोपयितुं शक्यत्वात्। ज्योतिष्टोमादिषु दृष्टं स्वर्गसाधनत्वं, चैत्वयवन्दनादावारोपयितुं शक्यते। अपूर्वन्त्वपूर्वत्वादेवारोपेणापि नावतरति। अथ कथं तुल्येऽपि लिङाद#िप्रयोगे बुद्धादिवचनानि साध्यसाधनभावमात्रपराणि, न वेदवाक्यानि ? उच्यते---बुद्धादिवचनानि तावत् साक्षाद् दृष्टकर्तृतुरषाणि, तेन यदेव पुरुषा: प्रमाणान्तरेण बुद्धिस्थीकर्तुमीशते, अतसतद्विवक्षाप्रयुक्तान्येवेति निश्चीयते। पुरुषाश्च नापूर्वं बुद्धौ निवेशयितुमलम्, साध्यसाधनभावं त्वन्यत्र दृष्टं बुद्धीस्थीकृत्य 506वाक्यं विरचयितुं क्षमन्ते। वेदेषु तु साक्षात्कर्ता नोपलब्ध:। तेन स्वमहिमानुसारेण तावदर्थो बोद्धव्य। 507न चापूर्वात्मको वेदार्थ: प्रमाणान्तरेण प्रतीयते। अप्रतीते च तस्मिन् न शक्तता तद्विषयवाक्यरचने ब#ुद्धिपूर्वकारिणामिति, पौरुषेयत्वं नानुमीयते। य एव हि पदसङ्घाता: 508पुरुषौर्विरचयितुं शक्यन्ते, तत्रैव पौरुषेयत्वं दृष्टमित्यशक्यविरचनेषु पौरुषेयत्वानुमानं न क्रमते। न च पौरुषेयत्वं विना पदसंघातात्मकतैव नोपपद्यते। उच्चारणवशेन हि पदानि संहततामापद्यन्ते। तच#्चोच्चारणमुच्चारणान्तरपूर्वकं वा स्यात्, स्वबुद्धिप्रभवं वा। दृश्यते ह्यन्येनापि प्रयुक्तमन्येनाधीयमानं भारतादिवत्, यथा प्रद्यतना: पुरुषा भारतादिकमुच्चारणान्तरदर्शनपूर्वकमधीयते, तथा वेदानपि सर्वपुरुषा एवेति किमनुपपन्नम्। अतस्सिद्धमपौरुषेया 509वेदा इति। अपौरुषेयाश्चेन्नास्ति प्रमाणान्तरापेक्षा प्रत्यक्षवत्। अत: प्रमाणमनपेक्षत्वादित्युक्तम्510। चित्राक्षेप:। 510ननु "चित्राया यजेत पशुकाम:" झ्र्तै.सं. 2.4.6.1ट इत्यादिचोदना: पश्वादिफलानुबद्धस्वार्थं बोधयन्ति। न च कर्मानन्तरं फलमुपलभ्यते। न च कालान्तरे फलं भविष्यतीति 512शक्यते वक्तुम्। तदानीं कर्माभावात्। अत: प्रमान्तरबाधादप्रमाणमिदं शास्त्रम्। तत्परिहार:। उच्यते---नतावच्छास्त्रेणानन्तरभावितया फलं श्राव्यते, येनानन्तरुलादर्शनेन बाधस्स्यात्। न च कालान्तरे कर्माभावात्फलोत्पादासम्भव:, कालान्तरावस्थायिनोऽपूर्वादेव फलोत्पत्त्यवगमात्। न च कालान्तरे प्रतिग्रहादिकारणान्तरदर्शनमपूर्वस्य फलसाधनतां बाधते। कामं प्रमाणद्वयसमर्पितमुभयं फलसाधनमस्तु---शास्त्रेणाऽपूर्वं फलसाधनमवबोधितम्, प्रत्यक्षादिभि: प्रतिग्रहादिकम्। न च कालान्तरभाविनि फले कर्तुर्भोक्तृत्वमनुपपन्नम्, नित्यत्वात 513पुरूषस्य। बुद्धीन्द्रियशरीरेभ्यो हि भिन्न: पुरुष: कर्मणां514 कर्ता। स च नित्यतया कालान्तरभावीन्यपि फलानि भोक्तुमलमिति, न प्रमाणान्तरबाधादिप शास्त्रस्य प्रामाण्यमाक्षेप्तुं शक्यम्। स्मृतेर्नित्यानुमेयवेदमूलत्वनिरूपणम्। 515अत्रापि शिष्टिश्शास्त्रमिति ज्ञानम्, शास्त्रम्---शिष्यतेऽनेनेति तु शब्द:। स च द्विविध:---प्रत्यक्षोऽनुमेयश्च। किं पुनश्शब्दानुमाने लिङ्गम् ? "अष्टका: कर्तव्या" इति 516स्मृतिवचनम्। कथम् ? इयं तावत्स्मृतिस्त्रैवर्णिकैरेवाऽविगानेन परिगृहीता।न च निर्मूलाया: परिग्रह उपपद्यते। मूलञ्च प्रत्यक्षादि न सम्भवति, तस्य कार्यविषयत्वाभावात्। स्मृतौ चापूर्वकार्यावगमात् शास्त्रं सम्भवति मूलम्। ननु तदपि मूलं नावकल्पते। प्रयत्नेनाप्यालोच्यमानस्याऽनुपलम्भात्। न चानुपलब्धश्शब्दोऽर्थमवबोधयति। न चानुपलब्धश्शब्दोऽर्थमवबोधयति। न चार्थमनवगमयन्मूलं भवितुमर्हति। 517उच्यते---सत्यम्, वयमिव मन्वादयो1पि तच्छास्त्रं प्रत्यक्षं नोपलभन्ते। 518अनुमानन्तु तेषामप्यस्माकमिव सम्भवति। स्मृत्यन्तरं हि महाजनपरिगृहीतं दृष्ट्वा, ते पि तत्कर्तुस्स्मृत्यन्तरानुमितं शास्त्रं मूलभूतमनुमातुं शक्नुवन्तीत्येवमनादित्वात्स्मृतिपरम्पराया लिङ्गभूतायास्सम्भवान्नानुमानविघात:। शब्दार्थसम्बन्धवत्। यथा हि---वृद्धव्यवहारादर्शनेन प्रयोज्यवृद्धस्याऽर्थप्रतिपतिं्त प्रकल्प्य, तस्याश्च शब्दश्रवणानन्तरभावित्वेन शब्दस्य तत्कारणतां प्रतीत्य, कथं पुनर्ममाऽप्रतिपादकश्शब्दोऽस्याऽर्थप्रतिपादक: ? इति च वितक्र्य, पुनस्स्वयं ततश्शब्दादर्थमवगम्य, अर्थप्रतिपादकत्वेनाऽवगतश्शब्दोऽर्थमवबोधयतीति निश्चित्य, वृद्धस्याऽर्थप्रतिपत्तिसामथ्र्यं कल्पयित्वा, स कथमनेन वृद्धेनाऽर्थप्रतिपादकतया शब्दोऽवधारित इति विचिन्त्य, नूनमस्यापि वृद्धव्यवहारान्तरदर्शनमेव व्युत्पत्त्युपायभूतं ममेव वृद्धान्तरस्याप्यपरवृद्धव्यवहारान्तरदर्शनमेवेत्यनादिवृद्धव्यवहाररूपलिङ्गपरम्परां परिकल्प्य, लोको व्युत्पद्यते। तथा स्मृतिपरम्परामनादिमेव कल्पयित्वा शास्त्रानुमानमपि कुर्वन्ति। न चानुमितस्य शास्त्रस्याऽर्थप्रतिपादकत्वमनुपपन्नम्, लिप्यनुमितिवत्। सर्वदा च तस्याऽश्रवणम्, अनाम्नातत्वात्। अनाम्नानमेव कस्मादिति चेद्, आचार्यैरनाम्नातत्वात्। तदपि कथमिति चेत्? आचार्यान्तरैरनाम्नातत्वादिति, नित्यवदनाम्नानमपि न दोष:। न च तस्याऽशब्दत्वम्, वर्णात्मकत्वात्। प्रत्येकञ्च वर्णानां श्रोत्रेन्र्दियग्राह्यत्वात्। वेदत्वञ्च तस्याप्यपौरुषेयवाक्यरूपत्वात्, तन्मात्रवर्तित्वाच्च वेदशब्दस्य। तस्मादनुमेयमपि शास्त्रमस्ति। शास्त्रेऽध्याहारनिरूपणम्। प्रत्यक्षमपि शास्त्रं किञ्चिदध्याहारापेक्षम्। यथा "अमावास्यायामपराढद्धठ्ठड़14;ने पिण्डड्डत्ध्;पितृयज्ञेन चरन्ती"ति पिण्डड्डत्ध्;पितृयज्ञादिशास्त्रम्, 519वैकृतप्रयोगशास्त्रञ्च520 पिण्डड्डत्ध्;पितृयज्ञादौ हि नियोज्यपदाश्रवणादपरिपूर्णं वाक्यम्। ननु पदानामन्विताभिधायित्वेन व्युत्पत्तेर्भवत्वेकपदप्रयोगेऽन्वितार्थान्तरापेक्षत्वादन्विताभिधानस्य, तदसिद्धावपरिपूर्णता, अनेकपदप्रयोगे त्वन्विताभिधानस्य सिद्धत्वात्किन्निबन्धनमपरिपूर्णत्वम् ? उच्यते---अत्राप्याभिहितार्थस्याऽनुपपत्या भवत्येवाऽपरिपूर्णता। अत्रापि लिङादिभिरपूर्वं कार्यरूपमभिधीयते। न चानुष्ठानमन्तरेण कार्यरूपता निर्वहति। न च कर्तारमन्तरेणानुष्ठानोपपत्ति:। न चाधिकारमप्रतीत्य कर्मणि कर्तृतां प्रतिपद्यन्ते। कर्मणि चाधिकारो नियोगार्थे नियोज्यस्याऽवकल्पते। यो हि ममेदं कार्यमिति प्रतिपद्यते, स स्वकीयकार्यसाधनं कर्म स्वार्थतया प्रतिपद्यमानोऽधिकारी स्यादिति, नियोज्याश्रवणे कार्यत्वानिर्वाहादुपपन्नमपरिपूर्णत्वम्। अतो लोके अपरिपूर्णवाक्यपरिपूरकतयाऽवधारितोऽध्याहारो वेदेऽऽप्याश्रीयते। अध्याहारस्वरूपकथनम्। क: पुनरध्याहारो नाम ? 521अधिकस्यार्थस्य बुद्धौ निवेशनम्। बुद्धौ सन्निहितेन522 तेन श्रूयमाणश्शब्दस्स्वार्थमन्वितमभिधत्ते। तस्य तु विशेषावगतौ523 योग्यत्वं, लाघवञ्च कारणम्। तथा हि--- यद्यपि जीवनमन्तरङ्गं नित्यञ्च। तथापि तस्मिन्नियोज्यविशेषणे समाश्रीयमाणे विधेरपरमनुष्ठानाक्षेपकत्वं 524कल्पनीयम्। काम्ये त्वधिकारविशेषणे तदर्थितयैव प्रधाने प्रवृत्ते: विधेरनुष्ठानाक्षेपकत्वकल्पना न कर्तव्या। यद्यपि चोपात्तदुरितक्षयोऽपि पुरुषैरिष्यते 525शङ्कित्वा दु:खहेतुत्वं दुरितस्य, तथापि तस्योपात्तुदुरितसत्तासापेक्षत्वाद्गौरवम्। तस्मात्सकलपुरुषाभिलषणीयं सकलदु:खसम्भेदरहितं सुखं स्वर्गपदाभिधेयं नियोज्यविशेषणं कल्प्यते। स्वर्गपदार्थनिरूपणम्। कथं पुनस्तादृशसुखवाचकता स्वर्गशब्दस्याऽवसीयते ? उच्यते--- "ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत" झ्र्आ. श्रौ. सू.ट इत्येवमादिसमाम्नातं सकलदु:खसम्भेदरहिताभिलाषोपनीतदीर्घतरसुखसाधनत्वेनार्थवादैस्स्तूयमानं कर्म दृश्यते। स्वर्गशब्दोऽपि लोके कÏस्मश्चिदर्थे श्रौत्या वृत्त्या प्रयुज्यमानो न526 दृश्यते। योऽप्यस्य चन्दनादौ प्रयोग:, सोऽपि प्रीत्युत्पादकस्य प्रीत्यपगमे तत्रैवाऽप्रयोगात्प्रीतिसाधनवाचकत्वकल्पनेऽपि, प्रीतेरपि वाच्यत्वाश्रयणात्प्रीतिमात्रवाचकस्य तत्साधने लक्षणयापि प्रयोगोपपत्तेलक्षिणिक-एव। तत्र यदि विध्युद्देशगतस्स्वर्गशब्दस्तथाविधे सुखे वर्तते, ततोऽर्थवादानां मुख्यैव वृत्ति: स्तुतावपि स्यादिति तादृशसुखवाचकता स्वर्गपदस्याश्रीयते, चन्दनादिष्वपि यो लाक्षणिक: प्रयोग:, सोऽपि प्रशंसार्थ: सुतरां 527तथाविधसुखसाधनत्वाभिप्रायेणोपपद्यते528। तथा च यावत्तावत्सुखसाधने स्वर्गशब्दं न प्रयुञ्जते, किन्तु 529निरतिशयप्रीतिविशेषे, स्वर्गपदाभिधेयसुखसम्भवे चोक्तेन न्यायेनाऽऽम्नाय एव प्रमाणम्। तदन्यथानुपपत्त्या च तदुपभोगयोग्यदेहदेशसद्मावाक्षेपोऽपि530 नानुपपन्न:। सामान्यतोदृष्टानुमानन्तु न नियोज्यकल्पनायां प्रमाणम्, अध्यनयविध्यादौ531 व्यभिचारदर्शनात्। विध्यन्तरप्रयुक्त्या चानुष्ठानलाभादपरिपूर्णतापि नास्ति। विकृतौ प्राकृतोपकारोपदेशवर्णनम्। विकृतिषु532 तु करणोपकारजनकपदार्थवर्गाणामनाम्नानात्तद्व्यतिरेकेणोपकारासम्भवात्तदभावे करणस्य कार्यसाधनासमर्थत्वात्कार्यस्य कार्यत्वानिर्वाहादपरिपूर्णत्वे सति परिपूरणार्थमध्याहार: कत्र्तव्य:, तत्र तावत्स्वतन्त्रपदार्थाध्याहारो नोपपद्यते, विशेषावगमे कारणाभावात्। करणोपकाराध्याहारेऽपि प्रकृतिवदपरिक्लॄप्ताध्याहारे पुनरपि पदार्थानामभावे निर्वाहासम्भवात्प्राकृतोपकाराध्याहार: कर्तव्य:। तत्रापि प्रकृतीनां बहुत्वाच्चोदनालिङ्गसामान्यात् यत् बुद्धौ सन्निधीयते, तदीयोपकाराध्याहारो युक्त:। तदध्याहारे तथैवाऽपरिपूर्ते: पदार्थाकाङ्क्षायां तदुपकारोपस्थापितै: पदार्थैरन्विताभिधानम्। यद्यपि चासावुपकार: प्राकृतस्तत्तत्पदार्थजन्यतया निज्र्ञात:, तथाप्यपूर्वप्रयुक्तत्वात्पदार्थानां प्राकृतापूर्वसम्बद्धस्यैव सतस्तस्योपकारस्यैते पदार्था जनका:, नापूर्वान्तरसम्बद्धस्येति, सम्प्रति वैकृतापूर्वसम्बन्धमुपगत: करणोपकारो न तत्पदार्थजन्यतयाऽवसीयत इत्यस्ति तज्जनकपदार्थापेक्षेति, पूर्वप्रतीतसम्बन्धेनोपकारेणोपस्थापितै: पदार्थैरन्वितो वैकृतो विध्यर्थस्स्वशब्देनाभिधीयते। उपमानस्यानतिदेशकत्वनिरूपणम्। उपमानन्तु 533प्राकृतोपकारपदार्थसम्बन्धे न प्रमाणम्, सादृश्यमात्रविषयत्वात्। अतोऽध्याहारापेक्षमपि प्रत्यक्षशास्त्रम्। शास्त्रस्य न्यायसापेक्षत्वनिरूपणम्। तथा प्रत्यक्षमपि शास्त्रं वचनव्यक्त्यवधारणाय न्यायसापेक्षम्534। यावद्धि 535न्यायानुसारेण वचनव्यक्त्यवधारणं न क्रियते, न तावत्समीचीनार्थबोधोत्पादनक्षमं शास्त्रम्। तथा हि---"उद्भिदा यजेत पशुकाम:" झ्र्ता. ब्रा. 11.7.2.3ट इति गुणविधि:, उत नामधेयम#् ? इति सन्देहे, न्यायाभासापादितगुणविधिनिराकरणं सम्यङ्न्यायानुसारेण कृत्वा, नामधेयाध्यवसानेन 536वचनव्यक्तिनिर्धारणं यावन्न क्रियते, तावत्समीचीनवाक्यार्थबोधो नास्तीत्यनेन मार्गेण न्यायसापेक्षं शास्त्रम्। अत एवेतिकर्तव्यताभूता वेदस्य स्वार्थमवबोधयतो मीमा#ंसा। तथा चाहु:--- धर्मे प्रमीयमाणे हि वेदेन करणात्मना। इतिकर्तव्यताभागं मीमांसा पूरयिष्यति ।। बृहट्टीका ।। इति ।। 537कियत्पुन: पदजातमेकं 538शास्त्रमिति चेत्, उच्यते---यावतां पदानामेकार्थत्वम्, तावदेकं शास्त्रम्। अर्थभेदे तु शास्त्रभेद:, मन्त्रवत्। यथा---539मन्त्रेषु यावता पदजातेनैकोऽर्थ प्रतीयते, तावदेकं वाक्यमित्यवगम्यते, तथा शास्त्रमपीति 540ननु मन्त्रेषु प्रमाणान्तरप्रमितार्थेषु तत्वमन्यथात्वं वाऽर्थस्यान्यतोऽवधारयितुं शक्यते। शास्त्रन्तु प्रमाणान्तराप्रतीतार्थावबोधकम्। अतस्तदर्थस्य तत्वमन्यथात्वं वा शक्यते नान्यतोऽवसातुम्। उच्यते---शब्दानामर्थावच्छेदेनैव सर्वत्रैकताप्रतिपत्ति:541। पदतापि वर्णानामेका542-र्थावच्छेदेनैव। शास्त्रभेदनिरूपणम्। स त्वर्थोऽवच्छेदकश्शास्त्रस्य शास्त्रादेवावगम्यते। क: पुनरसौ। विषयस्साध्यञ्च। क: 543पुनर्विषयो नाम ? उच्यते---कार्यमेव विध्यर्थ:। कार्यञ्च कृतिसाध्यम्। कृतिश्च प्रयत्न:। स च सर्व एव भावार्थसम्बद्ध:। तेन कार्यं प्रतीयमानं कृतिविशिष्टं प्रतीयते; नान्यथा। कृतिरपि भावार्थेन 544विशेष्यते। तेन भावार्थ: कृतिं विशिंषन्, कार्यं विशिनष्टीति विषय उच्यते। यो हि यत्र 545विधीयते, स तस्य विषय:। अतश्च यावति पदसङ्घे एको विषय:, तावत्येको नियोगार्थ:; तदैक्याच्चैकं शास्त्रम्। तत्र नियोगाभेदस्यापि विषयाभेदोन्नेयत्वाद्विषयाभेदादेव शास्त्रमेकमिति व्यवस्थाप्यते, तद्भेदाच्च भिन्नम्। शब्दान्तराद्विषयभेदनिरूपणम्। 546पञ्चधा च विषयभेदोऽवसीयते। तत्र "ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकमो यजेत" "दाक्षिणानि जुहोति" झ्र्तै. सं. 6.6..1.13ट "हिरण्यमात्रेयाय ददाति" झ्र्ता. ब्रा. 6.11ट इत्येकप्रकरणगतान्यपर्यायधातुभेदान्याख्यातान्युदाहरणम्। देवतोद्देशेन द्रव्यत्यागो याग:। का पुनर्देवता ? कश्चोद्देश: ? कश्च त्याग: ? उच्यते---स्तोत्रं शस्त्रं वा यद्गुणवचनम्, यदुद्देशेन च हविषां त्यागश्चोद्यते, सा देवता, तत्रैव याज्ञिकवृद्धानां देवताशब्दप्रयोगात्। 547तत्र ह्याग्नेयादिदेशनार्थानुष्ठाने प्रवृत्तोऽग्निमुद्दिश्य हविस्त्यजति, तत्रैवमाहुरग्निरत्र देवतेति। उद्देशश्च चतुथ्र्यन्ततद्वाचकशब्दप्रयोग:। त्यागश्चात्मसम्बन्धिनि548 स्वे औदासीन्यसङ्कल्प:। स चानभिसंहितपरस्वत्त्वापत्तिफलको याग:, देशविशेषगतद्रव्यप्रक्षेपोपाधिकश्च स एव होम:, अभिसंहितपरस्वत्त्वापत्तिफलञ्च दानमिति। अभिधानभेदाद्यजत्याद्यनुबन्धभेदावगम:। अभ्यासाद्विषयभेदनिरूपणम्। तथा विध्युच्चारणाभ्यासादसत्यभिधानभेदे भावार्थभेदोऽवगम्यते। असिन्नकृष्टार्थावबोधस्वरसं हि सर्वमेव विध्याम्नानम्। तदर्थबोधेनैवमवसीयते---नूनं भिन्ना इमे धात्वर्था इति। तद्भेदे विषयभेदाद्विषयिणो भेदोपपत्तेरसन्निकृष्टावबोधस्वभावता विध्याम्नानस्य निर्वहति। ननु तर्हि यदा पुरुषस्स्वेच्छया विधिमामनति, तदापि तर्हि विषयभेदस्स्यात्। न---स्वतन्त्रत्वादुच्चारणस्य। यद्धि न पूर्वोच्चारणदर्शनपूर्वकमुच्चारणम्, तदपौरुषेयं स्वातन्त्र्येणाऽर्थपरिच्छेदकम्549। यत्पुनरस्वतन्त्रम्, तत्पौरुषेयं प्रमाणान्तरोपात्तार्थावबोधकम्। न च तत्र भेदे प्रमाणमस्तीति, न भेदो विषयस्य। शाखान्तरगतस्तर्हि विध्याम्नानाभ्यासो भेदकस्स्यात्। नेत्युच्यते, अभ्यासाभावात्। यत्र ह्येक एव वक्ता पुन: पुनस्तमेव 550शब्दमुच्चारयति, तत्राभ्यासो व्यपदिश्यते। शाखान्तरगतं विधिं पुरुषान्तरं पठतीति, नाभ्यासश्शक#्यते वक्तुम्। एवमपि पुरुषान्तराम्नानमेव कस्माद्भिन्नमर्थं न प्रतिपादयति। उच्यते---एकार्थप्रतिपादकत्वेऽपि तदाम्नानस्याऽसन्निकृष्टार्थत्वोपपत्ते:। तस्य हि पुरुषस्य सोऽप्यर्थोऽसन्निकृष्ट एव यद्यपि पुरुषान्तरेण प्रतीत:, एकत्वन्तु कथम् ? विषयैक्यात्, तद#ैक्यञ्चाभिधानैक्यात्, तथा साध्यमपि तत्रैकमेव। अभ्यासस्य क्वचिदपवादनिरूपणम्। यद्येवं, तर्हि "य551 एवं विद्वान्पौर्णमासीं यजते" झ्र्तै.सं.1.6.9.1ट इत्यत्रापि तद्भेदस्स्यात्। न। अभ्यासकल्प्यस्य भेदस्याऽनिर्वाहात् रूपभेदेन हि भदो निर्वहति। यागस्य द्रव्य-देवते रूपम्। ताभ्यां स रूप्यते। नर्ते ताभ्यां स भवति। यद्यप्यत्र द्रव्यमव#िहितमपि यत्किञ्चिदुपादाय क्रिया सिध्यति, यद्यपि च वाचनिकमपि ध्रौवमाज्यं द्रव्यं गम्यते, तथापि देवता नाऽविहिता भवतीति विधानमन्तरेण तदलाभ:। न च यजिरेव तदन्वितस्वार्थमाचक्षणो देवतां विधातुमलम्; विशेषावगमे कारणाभावात्। नापि "वात्र्रघ्नी पौर्णमास्यामनूच्येते" झ्र्तै. सं. 2. 5. 2ट इति मन्त्रविधानान्मात्रवर्णिकदेवताश्रयणं सम्भवति, मन्त्रविधेरभावात्। 552आज्यभागयोह्र्ययम्मन्त्रविधिर्द्विवचनानुरोधादिति स्थितम्। तस्मादनुवादमन्तरेण रूपालाभादनुवादोऽयमिति नाभ्यासात्कर्मभेद:। आग्नेयाघारादीनामङ्गीप्रधाननिरूपणम्। 553नन्वेवं तर्हि प्रकृतसर्वरूपवद्यागानुवाद: किमिति न स्यात् ? ततश्चानूदितानां "दर्शपूर्णमासाभ्यां 554स्वर्गकामो यजेते"त्यधिकारसम्बन्धात् राजसूयवत्सर्वयजीनां प्राधान्यं स्यात्, अङ्गत्वञ्चाघारादीनां न सिध्येत्। उच्यते---सर्वानुवादाश्रयणे दर्शपूर्णमासाभ्यामिति द्विवचनं नोपपद्यते। 555समुदाया द्वयानुवादकत्वेन सर्वेषामेव दर्शशब्दवाच्यता, पूर्णमासशब्दवाच्यता चावगम्यते। ततश्च दर्शाश्च पूर्णमासाश्चेति कर्मधारयोऽयं समास:। तत्र यजीनां विशेष्याणां बुहुत्वाद्बहुवचनं स्यात्, न द्विवचनम्। अतस्तदनुरोधेन केषाञ#्चिदेव तावत् "य एवं विद्वान् पौर्णमासीं यजत" इत्यनुवाद:, न सर्वेषाम्; तथा "य एवं विद्वानमावास्यां यजत" इति केषाञ्चिदेवानुवाद:। तेनाऽनुवादद्वयेन समुदायद्वयापत्तेर्द्विवचनान्तोपपदवशेन तेषामेवाधिकारसम्बन्ध:। तत्र केषां पूर्णमासीयुक्तोऽनुवाद:, केषाञ्चाऽमावास्यायुक्त इत्यपेक्षायां कालनिमित्तोपपदानुसारेणोत्पत्तिकालयोगिनामेवानुवाद इति निश्चयो जायते। अन्यथा विशेषाग्रहणादिति, न सर्वानुवाद:, न वा सर्वेषांप्राधान्यमिति। गुणादनुबन्धभेदनिरूपणम्। तथा---556गुणान्तरयोगादप्यनुबन्धभेदोऽवगम्यते। उत्पत्तौ यत्कारकानुबद्धं यत्कर्म प्रतीयते, ततोऽन्येन कारकेणाऽनुबद्धं तत् न शक्यतेऽवगन्तुमित्यनुबन्धभेदावगम:। सञ्ज्ञयाऽनुबन्धभेदनिरूपणम्। तथा---सञ्ज्ञान्तरादप्यनुबन्धभेदोऽवगम्यते। अन्याय्यां ह्येकस्याऽर्थस्यानेकशब्दत्वमिति भेदस्तावदौत्सर्गिक:। यत्र तु बलीयसा प्रमाणेनाऽनेकशब्दत्वमपि गम्यते, भवति ।तत्रैकशब्दत्वम्। प्रकरणान्तरस्यानुबन्धभेदकत्वम्। तथा---विधानान्तरादपि कर्मान्यत्वावगम:। विधानान्तरञ्च सन्निहिते कर्मण्यनेकगुणसंयुक्तकर्मग्रहणात्। तत्र हि---गुणविधिस्तावन्न सम्भवति, अनेकगुणरवणादनेकगुणविधाने वाक्यभेदप्रसङ्गात्। गुणविशिष्टकर्मविधौ तु तस्यैवैकस्य विधानादेकवाक्यत्वनिर्वाहात् कर्मैव विधेयम्। विधीयते चेत् कम्, तत: प्रकृतादन्यत्वम्। तथा---असन्निधानादप्यप्रत्यभिज्ञानात्कर्मविधानावगमाद्भेदावगम:। प्रकरणान्तरमपि कर्मण: ।प्रक्रियान्तरम्---विधानान्तरमेव। संख्यायां अनुबन्धभेदकत्वनिरास:। संख्या तु भावार्थमात्रभेदे प्रभवति, न विषयभेदे। यथा "सप्तदशप्राजापत्यान्" झ्र्तै. ब्रा. 1. 3. 4.ट इति प्राजापत्यप्रतिपदिकोपात्तानां द्रव्यदेवतासम्बन्धानां 557नियोगविषयत्वम्। ते च सकृदेवाभिहितास्सकृदेव सम्बध्यन्ते "दर्शपूर्णमासाभ्यां स्वर्गकामो यज#ेत" इतिवदिति न भेदेन विषयभावं भजन्ते। साध्यभेदात् शास्त्रभेदनिरूपणम्। 558साध्यभेदादपि शास्त्रभेदोऽवसीयते। यथा "दर्शपूर्णमासाभ्यां स्वर्गकामो यजेत" "यावज्जीवं दर्शपूर्णमासाभ्यां यजेत" झ्र्आ. श्रौ. सू. 3. 14. 11ट इति च। न हि यावज्जीवचोदना कामाधिकारे कालविधानार्था, लक्षणाप्रसङ्गात्। 559यावज्जीवलक्षितो हि कालो विधेय:। किञ्च जीवनकाल एव 560प्रयोगस्य प्राप्तत्वाद्यावदर्थसम्बन्धेन विधेयत्वम्। तावांश्च कालो नाऽनभ्यस्तेन प्रयोगेण शक्यते व्याप्तुमिति, यजेतेत्यपि---यागमभ्यस्येदिति वर्णयितव्यम्। ततश्चाभ्यासलक्षणाऽप्यपरेति, जीवतोऽधिकारान्तरमेतदाश्रयणीयम्। जीवने ह्यधिकारिविश#ेषणे सति जीवतोऽवश्यं 560यागेन भवितव्यमिति 561शब्दाद्गम्यते। अभ्यासो ह्येकस्याऽर्थस्याऽनेकशस्साध्यत्वमाक्षिपतीति भेदस्तावदौत्सर्गिक:। तत्र बलीयसा कारणेन जीवनव्याप्तिरभिधीयते---यावज्जीवमिति। ततश्च नियोज्यभेदान्नियोगस्यापि भेदोऽवश्यं भावी, तद्भेदाच्च श#ास्त्रभेद एव। नियोज्यो हि स्वसम्बन्धितया ममेदं कार्यमिति नियोगमवबुद्ध्यते, तेन स्वकृतिसाध्यमपूर्वं प्रतिपद्यते। यदीया562 च या कृति:, सा तद्भेदेन भिद्यते। कृतिभेदेन च कार्यस्यापि भेद:। तेन नियोज्य: कृतिं भिन्दन्, कार्यमपि भिनत्ति। अतो नियोगभेदस्यापि शास्त्रभेदहेतोर्नियोज्यभेदोन्नेयत्वात्तद्भेदेनैव शास्त्रभेदो व्यवपदिश्यते। नियोज्यभेदेनाऽवश्यं साध्यभूतस्यैश्वर्यलक्षणस्याऽधिकारस्य भेद इति साध्यभेदोपलक्षणीयोऽयं शास्त्रभेद:। साध्यभेदेन चानुबन्धभेदभिन्नानामप्यङ्गप्रधानोत्पत्तिशास्त्राणामधिकारशास्त्रवस्थायां भेद:। एकस्याधिकारनियोगस्य तावतां प्रतिपाद्यत्वादिति। शास्त्रस्याऽनुमानाद्भेदोपन्यास:। एतच्च शास्त्राख्यं प्रमाणमनुमानत: स्पष्टभेदमेव। न ह्यत्र गम्येनाऽर्थेन गमकस्य शब्दस्य सम्बन्धनियमोऽवगत: नापि गम्यस्याऽर्थस्य किञ्चित्प्रत्येकदेशत्वम्, नापि गमकस्येति सामग्रीभेदादनुमानाशङ्कापि नास्ति। शास्त्रलक्षणघटकविशेषणसार्थक्यनिर्देश:। किं पुनरत्र 563व्यावर्तितमर्थादिग्रहणेन। उच्यते-अर्थग्रहणेनाभिधेयवचनेन लैङ्गिकं वक्तुरभिप्रायज्ञानमशास्त्रमित्युक्तम्। असन्निकृष्टग्रहणेन पौरुषेयवाक्याभिधेयस्याऽर्थस्य वक्त्राभिप्रायनिश्चयपुरस्सरं यद्विज्ज्ञानम्, तन्न शास्त्रमिति दर्शितम्। तथा वेदेऽप्यर्थवादानां न स्वतन्त्राणां सन्निकृष्टार्थपराणां शास्त्रत्वम्, 564किन्त्वर्थ9वादानां विध्यन्तरानुप्रवेशेनेति। 565शब्दग्रहणेनैवार्थस्याऽशास्त्रत्वमुक्तम्। यथा---566प्रकृतौ "वाससि मिनोति" "वाससा च सोममुपावहरति" इति यस्मिन्नेव वाससि सोमो मीयते, तेनैव वाससोपावहियत इति, एकत्वात्कर्मणोऽचोदितमपि तत् अर्थात्सम्पन्नम्। अहर्गणे तु पृथक्वात्सोमस्यैकस्मिन्नपि वाससि नानाभूतस्याऽपि मातुं शक्यत्वात्। उपावहरणन#्तु---567पुञ्जीकृत्य वाससा नयनम्, तदेकेन न शक्यमिमि, मानवाससोऽन्यत्तदर्थमुपादीयते। एकत्वन्तु वास: प्रकृतावार्थम्, न 568शास्त्रार्थ इति, न चोदकेन 569प्राप्यत इति, तत्र वासस एकत्वज्ञानं नं शास्त्रम्। "विज्ञानादिति" न्यायाभासाद्वाक्यस्य वचनव्यक्तिमवधार#्य, यत्, तदर्थज्ञानं, तन्न शास्त्रमिति प्रकटितम्। न570 हि तत् शब्दविज्ञानात्। यादृशं सम्यङ्न्यायावधार्यवचनव्यक्तिकं, तादृशमेव शास्त्रमिति। इति महामहोपाध्याश्रीशालिकनाथमिश्रप्रणीतायां प्रकरणपञ्चिकायां प्रमाणपारायणे तृतीयश्शास्त्रपरिच्छेदस्समाप्त:।

उपमानपरिच्छेद:। सम्पाद्यताम्

 
    उपमानलक्षणम्। "571सादृश्यदर्शनोत्थं ज्ञानं सादृश्यविषयमुपमानम्" । इति। 572दृष्टगो:573 पुरुषस्य तत्सदृशं गवयं पश्यतो यद्गोविषयकं गवयगतसादृश्यज्ञानम्, तदुपमानम्। सादृश्यस्याऽनतिरिक्तत्वशङ्कानिरासौ। 574किं पुनरिदं सादृश्यम् ? नेदं द्रव्यगुणकर्मसामान्यसमवायविशेषाणामन्यतमम्। 575तेषां सङ्ग्रहेऽस्याऽपाठात्। 575उच्यते--- "विषयोऽस्य वित्तिसिद्धो भिन्नो द्रव्यादिभावेभ्य:" ।। 1 ।। इति। सर्ववस्तूनि संविदेकशरणानि। अस्ति चेयं 577सदृश इति संवितम्। सा च सर्वैव विषयाव्यभिचारिणीति दर्शितं नयवीथ्याम्। अतस्संवित्स्वभावसिद्धं सादृश्यं न पाठाभावादपढद्धठ्ठड़14;नवमर्हति। 578तच्च न द्रव्यम्, गुणकर्मणोरप्याश्रितत्वात्। गन्धादयोऽपि हि सदृशबोधगोचरीभवन्ति, भवन्ति च कर्माण्यपि कर्मान्तरसदृशबुद्धिबोध्यानि। 579अत एव न गुणत्वम्, नापि कर्मत्वम्। अनुवृत्तप्रत्ययनिमित्तत्वाभावाच्च न सामान्यम्। समवायस्तु सम्बन्धरूप इति न तत्र सादृश्यान्तर्भाव:। विशेषाख्यन्तु पदार्थं प्रमाणवादिनो नानुमन्यन्ते। स हि पृथक्त्वादतिरिक्तो नाऽनुमातुं शक्यते। पृथक्त्वं हि परमाणूनां स्थूलद्रव्यारम्भलक्षणकार्योन्नेयम्। 580तदतिरेकिणि तु विशेषे न 581किञ्चित्प्रमाणम्। न च परमाणुपृथक्त्वमेव लिङ्गम्, नित्यत्वात् परमाणुपृथुक्त्वस्य। कार्यं हि स्यात्कारणस्य लिङ्गम्। न च परमाण्वाश्रितं पृथक्त्वं कार्यमिति 582प्रमेयपारायणे निर्णीतम्। अत: 583पदार्थान्तरमेवेदं 584शक्तिवत्, संख्यावच्चेति प्रमेयपारायण एवोक्तम्। तच्च सादृश्यं प्रत्यक्षद्रव्यवर्ति प्रत्यक्षग्राह्यवयवगुणकर्मसामान्यग्रहणनिबन्धनं प्रत्यक्षम्, अन्यत्र 585सामान्यान्तरबाहुल्यानुमेयम्। उपमानप्रमाणस्याऽतिरिक्तत्वनिरूपणम्। 586तदिदमुपमानं न प्रत्यक्षम्, तिरोहिते गवि चक्षुस्सन्निकर्षातिवर्तिनि जायमानत्वात्। न च स्मृति:। गोदर्शनसमयेऽप्रतीतगवयस्य तत्सादृश्यानुभवाभावात्। नाऽनुमानम्, लिङ्गाभावात्। एकदेशो हि लिङ्गम्। न च गोर्गवय:, तद्गतं गोसादृश्यं वा एकदेश:। ज्ञातसम्बन्धनियमश्च हेतु:। न गोगतेन सादृश्येन सह कश्चिदपि गवयवर्तिनस्सादृश्यस्य सम्बन्धोऽस्तीति, कुतस्तरां तस्य सम्बन्धनियमावगम:। न चाऽपि परस्परसदृशवस्त्वन्तरदर्शनसापेक्षेयं प्रतीति:, यतस्सम्बधनियमज्ञानबलभाविनीत्युच्येत। प्रथममप्येकं वस्तु सदृशमीक्षमाणस्य परस्मिन्वस्तुनि सादृश्यमतिराविर्भवति। 587नन्ववयवसामान्यबाहुल्याच्चाऽनुमानं सम्भवत्येव। गवयं हि गवयावयवसामान्यबाहुल्यभाजं प्रतीत्य एवमवधारणा जायते-यो यदवयवसामान्यबाहुल्यवान्, स तत्सदृश इति। तेन गां गवयावयवसामान्यबाहुल्ययोगिनं स्मरतो गवयसादृश्यविषयमनुमानमुपपन्नमेव। तथाहि---गवयवर्तिना गोसादृश्येन सहाऽवयववर्तिनां सामान्यानामेकार्थसमवेतसमवायलक्षण: सम्बन्धोऽस्ति। गवये हि सादृश्यं समवेतम्, तस्मिन्नेवाऽवयवास्तदीयास्समवेता:, तेषु तत्सामान्यानि समवेतानीत्युपपन्न एकार्थसमवेतसमवायलक्षणस्सम्बन्ध:, तन्नियमोऽपि चाऽस्त्येव सामान्यबाहुल्यस्य। गोधर्मतापि तस्योपपन्ना, समवेतसमवायलक्षणसम्बन्धयोगित्वात्। अतो घटत एवऽनुमानसामग्रीत्युपमानमनुमानान्न भिद्यते। 588उच्यते---सम्बन्धनियमस्मरणमनुमानोदयकारणम्, न पुनस्सम्बन्धनियमावधारणमेव। अत्र चाऽवयवसामान्यबाहुल्यभाजो गवयस्य सदृशतया प्रतीयमानस्यैवोपमानहेतुत्वमिति कारणभेदादुपमानमनुमानाद्भिन्नम्, प्रत्यक्षवत्। उपमानलक्षणघटकविशेषणानां सार्थक्यनिरूपणम्। 589अत्र च "सादृश्यदर्शनोत्थमि"त्यनेनैन्द्रियकस्य सादृश्यज्ञानस्योपमानता निराकृता। "सादृश्यविषयं ज्ञानमि"ति किं निराकृतम् ? उच्यते---गोसदृशो गवय इति पुरुषवचनाद्गोसादृश्यं गवयस्य प्रतीत्य, यत्तदवयवसामान्यबाहुल्यज्ञानं गवये जायते, तन्नोपमानमित्युक्तम्। 590यत्तु सदृशदर्शनमात्रेण कÏस्मश्चिदर्थे तत्सदृशस्वरूपमात्रे स्मरणं, तस्योपमानत्वमेव न प्रसक्तम्, प्रमाणलक्षणाधिकारात्। स्वरूपस्मरणं हि न प्रमाणम्। प्रमाणविषयस्य चेदं लक्षणमाख्यायते। तेन तन्निवृत्त्यर्थं सादृश्यविषयग्रहणमयुक्तम्। एतेनैवाऽसदृशात् यत्तत्सदृशभ्रान्तिविषयात् तत्सदृशविषयज्ञानं, तदप्युपमानं नाशङ्कनीयमेव, अप्रमाणत्वादित्युक्तम्। गौतमीयस्योपमानलक्षणस्यानुवादनिरासौ। 591यत्तु "प्रसिद्धसाधम्र्यात् साध्यसाधनमुपमानम्"। झ्र्न्या. द. 1-1-6ट इत्युक्तम्। तदयुक्तम्। तथाहि---यादृशो गौस्तादृशो गवय इति। श्रुतातिदेशवाक्यस्य वने गवयमुपलभमानस्याऽयं गवय इति प्रतीतिरुपमानफलमुच्यते। तत्र तावद्गोसदृशो गवय इति प्रथमावगति: पुरुषवाक्यमात्रप्रभवा नोपमानं भवति। यदपि वनं गतस्य गवये, तद्गते च गोसादृश्ये ज्ञानम्, तदपि प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षम्। यात्वेतस्य गवयशब्दवाच्यतावगति:, साऽपि गवयशब्दप्रयोगादानुमानिकी। यस्य शब्दस्य यत्र प्रयोग:, तस्य तद्वाच्यतया सम्बन्धनियमोऽवगत:। वने च सञ्ज्ञिनमुपलभ्य, एतस्यैव सा मया संज्ञाऽवगतेति तज्ज्ञानं स्मरणमेवेति नोपमानस्याऽवकाश:। तस्माद्यथोक्तलक्षणमेवोपमानमिति स्थितम्। इति महामोपाध्याय श्रीशालिकनाथमिश्रप्रणीतायां प्रकरणपञ्चिकायां प्रमाणपारायाणे चतुर्थ उपमानपरिच्छेदस्स्माप्त:।
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अर्थापत्तिपरिच्छेद:। सम्पाद्यताम्


अर्थापत्तिलक्षणम्। "विना कल्पनयाऽर्थेन दृष्टेनाऽनुपपन्नताम्। नयताऽदृष्टमर्थं या साऽर्थापत्तिस्तु कल्पना"।। 1 ।। इति। दृष्टेनाऽर्थेनाऽदृष्टस्याऽर्थस्याऽर्थान्तरकल्पनायामसत्यामनुपपत्तिमापादयता याऽर्थान्तरकल्पना, साऽर्थापत्ति:। यथा---जीवतो देवदत्तस्य गृहाभावदर्शनेन बहिर्भावस्याऽदृष्टस्य कल्पना। अर्थापत्तेरनुमानेऽन्तर्भावशङ्का। 593नन्वेतद् गृहाभावदर्शनाज्जीवतो बहिर्भावकल्पनाऽनुमानमेव। तथा हि---यो जीवन्नेकत्र नास्ति, सोऽन्यत्राऽस्तीति स्वात्मयेव प्रतीतम्, तेन प्रतीतसम्बन्धनियमादेकत्राऽविद्यमानत्वादन्यत्र विद्यमानत्वावगमोऽनुमानमेवेति युक्तम्। तथा---एकत्राऽन्यत्र च भावाभावावेककालत्वलक्षणसम्बन्धयोगिनौ समुद्रवृद्धिचन्द्रोदयवदेकदेशभूतौ च कालस्य, इत्यनुमानसामग्रया यदा जीवन्नेव देवदत्तो गृहे नास्ति, तदा बहिरस्तीत्यनुमानं भवति। तथैकत्राऽभावे सति अन्यत्र 594विद्यमानत्वं देशान्तरसंयोगेन नियतैकार्थसमवायलक्षणसम्बन्धमेकदेशभूतञ्च देवदत्तस्येत्यनुमानसामग्रीसम्भव:। देवदत्तो बहिर्देशसंयोगी गृहाभावे सति विद्यमानत्वात्, यो यो गृहाभावे सति विद्यमान:, स सस्ततोऽन्यत्राऽस्ति, यथाऽहमेवेति प्रमातुरनुमानमुत्पद्यते। तन्निरास:। 595अत्रोच्यते---न तावद्विद्यमानत्वं लिङ्गं भवति, स्वयं सन्देहास्पदीभूतत्वात्। विद्यमानता हि देवदत्तस्य गृहाधिकरणिकैव येन नाम प्रतीता, तस्य बहिर्देशसम्बन्धेऽप्रत्याकलिते, गृहाभावदर्शनेन देवदत्तस्य विद्यमानता प्रमाणान्तरप्रतीतापि सन्देहमावहति---गृहेदेवदत्तोऽविद्यमान: कथं विद्यमान इति। प्रतीतेऽपि हि वस्तुनि 596पूर्वप्रतीतरूपाद्रूपान्तरावगमस्संशयमापादयितुमलमेव। देवदत्तस्य च विद्यमानता गृहसम्बद्धैवाऽवगतेति, तदभावप्रतीतौ बहिर्देशसम्बन्धे चाऽनवगते सन्दिह्यते। तेन सा सन्देहग्रस्ता सती, न लिङ्गतां गन्तुमलम्। बहिर्देशसम्बन्धावगमादपगतसन्देहा भविष्यति लिङ्गमिति चेत्। न। अनुमेयाभावात्। बहिर्देशसम्बन्ध एव हि देवदत्तादेरनुमित्सित:, स चेत्प्रतिपन्न:, न प्रमेयमवशिष्यते। तदाहुर्वार्तिककारमिश्रा:--- "तेन मेयानपेक्षस्य सन्दिग्धत्वादहेतुता। हेतुत्वं यावति त्वस्ति, ततो नाऽन्यत्प्रमीयते" ।। झ्र्बृ. टी.ट इति। तेन सन्देहास्पदीभूता विद्यमानता तावदवगत्यन्तरप्रसवसमर्थान भवति। 597न च गृहाभावो बहिर्देशसम्बन्धावगमे लिङ्गमित्युपपन्नम्। तस्य हि न केवलस्य लिङ्गत्वमभ्युपगमनीयम्, किन्तु जीवनविशिष्टस्य। शुद्धस्य गृहाभावमात्रस्य मृतेषु, जनिष्यमाणेषु च विनापि बहिर्भावमुपपत्ते:। तदुक्तम्--- "गेहाभावस्तु वश्शुद्धो विद्यमानत्ववजित:। स मृतेष्वपि दृष्टत्वाद्बहिर्वृत्तेर्न साधक:" ।। झ्र्श्लो. वा. अर्था. श्लो. 21ट इति। जीवनञ्च विशेषणभूतं सन्दिग्धमिति, न तद्विशिष्टस्य लिङ्गत्वम्। तसमात्केवलस्याऽभास्यैव स्वयं निस्सन्दिग्धस्य गमकत्वं युक्तम्। न च तस्य सन्देहापत्तौ किञ्चन प्रमाणमस्ति। ननु तस्य केवलस्य गमकत्वे मृतस्य, जनिष्यमाणस्य च बहिर्देशसम्बन्धावगति: प्रसज्येत। उच्यते---अर्थान्तरकल्पनायामनुत्पन्नायां यस्संसशयं कञ्चिदापादयितुमलम्, तस्य गमकत्वम्। तथा हि---बहिर्देशकल्पनायामजातायां गृहाभावो देवदत्तस्य विद्यमानतासंशयमापादयन्बहिर्देशसम्बन्धस्य गमक:। मृतजनिष्यमाणयोश्चाऽभावो न कञ्चिदपि ससंशयमापादयतीति न गमक:, अतो नाऽतिप्रसङ्ग:। तदेव चाऽत्र गम्यम्, यत्कल्पनायामसत्यां सन्देहापत्ति:, कल्पनायाञ्च तद्विगम:। सत्यप्यभावस्य गमकत्वे नाऽनुमानत्वम्; ज्ञानोदयप्रकारभेदात्। अनुमानार्थापत्त्योस्साधनभेदाद्वैलक्षण्यनिरूपणम्। सम्बन्धनियमस्मरणोपकृतादेकदेशदर्शनाज्ज्ञानमनुमानम्। गृहाभावस्तु बहिर्देशकल्पनायामनुत्पन्नायां सत्यां विद्यमानतायां संशयमापाद्य संशयसंशमाय बहिर्देशसम्बन्धं कल्पयतीति नाऽनुमानत्वसम्भव:। धूमादिकन्तु लिङ्गं न कस्यचित्संशयमापाद्याऽÏग्न गमयतीति, न 598तत्र#ाऽर्थापत्तिसम्भव:। 599श्लोकाश्चात्र भवति। "तत्सन्देहव्युदासाय कल्पना या प्रवर्तते। सन्देहापादकादर्थादर्थापत्तिरसौ स्मृता" ।। 2 ।। इति। अर्थापत्तिविषये मतान्तरनिरूपणम्। "यत्कल्पनां विना योऽर्थ: प्रतीतोऽप्येति संशयम्।। तेन तत्कल्पनामेके त्वर्थापतिं्त प्रचक्षते" ।। 3 ।। इति। 600अन्ये पुनराहु:--- यस्मिन्नकल्पिते योऽर्थ: प्रमितोऽपि 601पूर्वप्रतिपन्नरूपाद्रूपान्तरावगमेन संशयरूपामनुपपत्ति भजते, सोऽर्थस्स्वगतसन्देहव्युदासाय तस्याऽर्थान्तरकल्पनां प्रसूते, सा चाऽर्थापत्ति:। प्रमाणप्रतीतश्चाऽर्थो दृष्टरूपार्थान्तराभावेन संशयमापन्न एवाऽर्थापत्तेर्जनक इति दर्शनबलादाश्रीयते। अर्थापत्त्यनुमानयोर्वैलक्ष्ण्यम्। 602यथा ह्यनुमानस्य निश्चितं लिङ्गं जनकम्, तथाऽर्थापत्तेस्सन्देहग्रहस्तमिति नास्ति विरोध:। अत एव चाऽनुमानादपि भेद:। निश्चित एव धूमोऽग्नेर्गमक: न तस्य किञ्चिदर्थान्तरमनुपपत्त्यापादकमस्ति, गृहाभावस्तु विद्यमानताया अनुपपत्तिमातनोति। तेन गृहाभावेन विद्यमानतैव बहिर्देशसम्बन्धकल्पनायामभूतायामनुपपत्तिमापादिता स्वात्मनो बहिर्देशसम्बन्धं कल्पयतीति। भिन्नाऽनुमानादर्थापत्ति:, तदेवं गृहाभावो603 604विद्यामानताया अनुपपपत्तिमापादयन् बहिर्भावं कल्पयति। अथवा विद्यामानतैव गृहाभावेनाऽनुपपत्तिमापादिता स्वोपपत्तये बहिर्देशसम्बन्धमुपकल्पयतीति। व्यतिरेकव्याप्त्याऽर्थापत्तेर्गतार्थत्वशङ्का-निरासौ। 605यस्तु मन्यते---गृहाभाव एवाऽन्यथाऽनुपपद्यमानो बहिर्भावस्य गमक इति। तदयुक्तम्। तथाहि---का गृहाभावस्याऽन्यथानुपपद्यमानता ? यदि तावद्बहिर्देशसम्बन्धेन विना नास्तिता---जीवतो गृहाभावो बहिर्देशसम्बन्धेन विना नास्तीति। 606तर्हि साध्याभावे हेत्वभावलक्षणव्यतिरेकोऽयम्। स च 607हेतुसद्भावे साध्यसद्भावलक्षणेनाऽन्वयेनाऽवगम्यते, नाऽन्यथा। न ह्यनन्तेषु साध्याभाववत्सु विपक्षेषु हेत्वभावनियमोऽन्यथाऽवधारयितुं शक्यते, यावद्धेतुभावस्य साध्यभावेन सम्बन्धनियमो नाऽवधार्यते। अवधारिते हि तस्मिन्नर्थापत्त्या साध्याभावे हेत्वभावनियमोऽवसीयते। द्वे हि कोटीं---हेतुभावो हेत्वभावश्चेति। तत्र हेतुभावकोटौ साध्यभावेन सम्बन्धनियमे सिद्धे साध्याभावस्तत्राऽवकाशं न लभते। स यदि हेत्वभावकोटावपि न स्यात्, तदा नोपपद्येतैव। तेन हेतुभावकोटौ साध्यभावेन सम्बन्धनियमोऽवगतो 608हेत्वभावकोट्यनुप्रवेशकल्पनायामनुपजातायां साध्याभावस्याऽनुपपत्तिमापादयन् हेत्वभावकोटिनिवेशं कल्पयति। तथा सति हेत्वभावेन साध्याभावो नियतसम्बन्धस्सम्पद्यते। तत्मात्साध्याभावेऽयं नास्त्येवेत्यवगम्य या प्रतीति:, सा सम्बन्धनियमावगमपूर्विकेत्यनुमानान्न भिद्यते। अथ गृहाभावस्य बहिर्देशकल्पनायामकृतायामनुपपत्तेर्या609 संशय्यमानता, न सा सम्भवति। न हि गृहाभावस्य संशयापत्तौ किञ्चित्कारणमस्ति। विद्यमानतायास्तु गृहसम्बन्धितयैव दर्शनात् गृहाभावेन संशयमापाद्यत इत्युत्यते। अतस्सन्देहापादकोऽर्थ:, तेनापादितसन्देहोऽर्थो वाऽर#्थापत्तिरिति स्थितम्। भाट्टसम्मतायाश्श्रुतार्थापत्तेरुपन्यास-निरासौ। 610अत्र केचित्--- "पीनो देवदत्तो दिवा न भुङक्त" इति वाक्येन ।देवदत्तसम्बन्धितयाऽवगतस्य भोजनस्य दिवानिषिद्धस्य पीनत्वानुमितस्याऽनुपपत्त्या "रात्रौ भुङक्त" इति वाक्यमेव कल्प्यत इति वदन्ति। 611तदयुक्तम्। अत्राऽप्यर्थस्यैव कल्पयितुमुचितत्वात्। यस्मिन्ह्यकल्पितेऽनुपपत्ति:, तदर्थापत्त्या प्रतीयते। रात्रिसम्बन्धे ह्यनवगते भोजनस्याऽनुपपत्ति:। 612कालसम्बन्धाभावेन613 ह्येषाऽनुपपत्ति:, सा कालान्तरसम्बन्धमेव कल्पयितुमलम्। अथोच्येत---अर्थसद#्भावमेव कल्पयितुमर्थापत्ति: प्रवर्तमाना तस्याऽर्थस्य सविकल्पकज्ञानवेद्यत्वात्, सविकल्पकज्ञानानाञ्च शद्वपुरस्सरत्वात् पूरोवर्तिनि शब्द एवाऽर्थापत्ति: पर्यवस्यति, स च शब्दस्स्वार्थमुपस्थापयति। न चेदमाशङ्कनीयम्--- 614लैङ्गिकमैन्द्रियकञ्च सर्वमेव सविकल्पकं शब्द एवाऽनेन न्यायेन पर्यवस्येदिति। यतो निर्विकल्पकदशायामिन्द्रियस्य लिङ्गस्य 615चार्थबोध एव सामथ्र्यं दृश्यते, तेन सविकल्पकावस्थायामप्यर्थ एव तयोव्र्यापार: परिकल्प्यते। श्रुतार्थापत्तिबोधस्तु निर्विकल्पको न सम्भवति, शब्दव्युत्पत्तिपूर्वकत्वात्। व्युत्पन्नशब्द एव हि 616वाक्यस्याऽर्थमवबुद्ध्यतदन्यथानुपपत्त्याऽर्थान्तरमवबुभुत्सते। अथोच्यते---दृष्टार्थापत्तावर्थ एवाऽर्थापत्ते: प्रमाणत्वं दृष्टमिति, श्रुतार्थापत्तेरपि तत्रैव प्रामाण्यं स्यादिति। तन्न। यस्मिन्खल्ववगतेऽनुपपत्तिश्शाम्यति, तत्राऽर्थापत्ते: प्रामाण्यम्। शब्देऽपि चाऽवगते शाम्यत्येवानुपपत्ति:, अतस्तत्राऽपि प्रामाण#्यं नाऽयुक्तमिति। अत्रोच्यते---रात्रिसम्बन्धे हि भोजनस्याऽन617वगतेऽनुपपत्तिरापतति। सा तावच्छब्दस्वरूपमात्रेऽवगतेऽपि न शाम्यति, यावत् ततश्शब्दद्रात्रिसम्बन्धो भोजनस्य नाऽवगम्यते। न हि "पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्त" इति प्रयुज्य, यदा पुनरेवमुच्यते---यामिन्यामत्तीति, तदा यामिनीशब्दे, अत्तौ चाऽव्युत्पन्नस्य पूर्ववाक्यार्थविषयाऽनुपपत्तिरुपरमति। अतोऽर्थस्यैव साक्षादुपपादकत्वम्, न शब्दस्य। उपपादकार्थविषयात्वर्थापत्तिर्दृष्टार्थापत्तौ प्रतीतेति, न 618क्वचिदुपपादकावबोधकशब्दे प्रमाणतामर्हति। अर्थापत्तौ सर्वत्राऽर्थस्य कल्पनम्। 619किञ्चाऽन्यत्र तावत्सविकल्पके शब्दस्य स्मृतिविषयताऽङ्गीकरणीया। एवञ्चेदत्राऽपि स्मृतिविषय एव शब्दोऽस्तु, मा भूत्तस्य प्रमाणविषयता। अतश्श्रुतार्थापत्तिरपि शब्दग्राहिणी न भवति, किन्तूपपादकार्थग्राहिण्येवेति स्थितम्। इति महामहोपाध्यायश्रीशालिकनाथमिश्रप्रणीतायां प्रकरणपञ्चिकायां पञ्चमोऽर्थापत्तिपरिच्छेदस्समाप्त:।
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अभावप्रामाण्यनिराकरणं नाम षष्ठ: परिच्छेद:। सम्पाद्यताम्


    प्रकरणार्थप्रतिज्ञा। 621ये पुनरभावाख्यं षष्ठं प्रमाणमिच्छन्ति, तत्प्रतिबोधनाय सम्प्रति यत्न आरभ्यते। भाट्टमतेन पूर्व: पक्ष:। तथाहि---सर्वं प्रमाणं प्रमेयाविनाभावि। न622 चाऽभावाख्यस्य प्रमाणस्य प्रमेयं किञ्चिन्निरूप्यते623। ननु न प्रमाणान्तरबोध्यविषयं प्रमाणम्। किन्तु सर्वमेव प्रमाणं स्वमहिम्नैव प्रमेयमुपस्थापयति। न खलु प्रत्यक्षस्याऽपि प्रमेयं प्रमाणान्तरव्यवस्थापनीयम्, क#िन्तु तत् प्रतीतिबलसिद्धम्। एवमभावाख्यमपि प्रमाणं 624शक्नोति स्वसामथ्र्येनैव प्रमेयमुपकल्पयितुम्। ।तथाहि--- "इह भूतले घटो नास्ती"ति तावदस्ति प्रतीति:। सा तावद्भूतलमात्रविषया न भवति, सत्यपि घटे प्रसङ्गात्। अथ केवलभूतलविषयेत्युच्यते। तत्राऽपि चिन्तन#ीयम्---किमिदं कैवल्यम् ? यदि तावद्भूतलस्वरूपमेव, तदा सत्यपि घटे 625तस्याऽनपायात् "घटो नास्ती"ति धीस्स्यात्। अभावस्य प्रत्यक्षग्रहणाशङ्का-तन्निरासौ। अथ भूतलधर्म: कैवल्यं, 626तर्हि अस्ति तावत् प्रमेयान्तरं कैवल्यम्। तत्रेदं विचारणीयम्--किं तत् प्रत्यक्षादिबोध्यम् ? उत 627अभावप्रमाणप्रमेयम् ? इति। तत्र प्रत्यक्षप्रमेयं तावन्न भवति, इन्द्रियव्यापारमन्तरेण प्रतीते:। नन्विदमयुक्तम्---व्यापृतेन्द्रिय एव हि "इह भूतले घटो नास्ती"त्यवबुध्यते, नाऽन्धादि:। अत्रोच्यते---क्वचित्कस्यचिदभाव: प्रतीयते, तेन यत्राऽभाव: प्रत्येतव्य:, तद्ग्रहणायेन्द्रियव्यापारापेक्षा, नाऽभावग्रहणाय। कथं पुनरयं विभागोऽवसीयते ? उच्यते---भावग्रहणमात्रोपरतेन्द्रियव्यापारस्याऽप्यभावप्रतीतिदर्शनाद्भावग्रहणमात्र एवेन्द्रियव्यापारापेक्षेति विज्ञायते। तथाहि---स्वरूपमात्रेण गृहादिकं प्रतिपन्नवतो देशान्तरगतस्याऽपि तत्र भावान्तरसत्तां जिज्ञासमानस्याऽभावावगमो जायते। न च शक्यते वक्तुं गृहीत एव तत्राऽपि प्रागेवाऽभाव इति। भावान्तरस्यैव तदानीं बुद्धावनारोहात्। तेनेन्द्रियव्यापारानपेक्षाऽभावप्रतीतिर्नैन्द्रियकीति, न प्रत्यक्षप्रमेयं कैवल्यम्। न च वाच्यं प्रवृत्ति-निवृत्ती द्वे गती सर्वपमाणानाम्, तत्र प्रवर्तमानं प्रमाणं भावसाधकम्, निवर्तमानं त्वभावसिद्धिनिबन्धनम्। या निवृत्ति: प्रमाणस्य स्वतस्तावदवगतिरूपा न भवति, सा कथमभावसिद्धिमाविर्भावयति। प्रवृत्तिस्तु ।प्रमाणानामवगमात्मिकेति तां व्यवस्थापयति, आयातं तर्हि प्रमाणान्तरम्। अनुमानेनाऽभावग्रहणशङ्का-तन्निरासौ। भवतु प्रत्यक्षात्प्रमाणान्तरम्, अनुमानात्तु भेदो नास्ति। दृश्यस्य हि सत्ता दर्शनेन व्याप्ता। दर्शनं निवत्र्तमानं दृश्यमपि निवर्तयति। व्यापकनिवृत्तिर्हि व्याप्यनिवृत्त्या व्याप्ता। व्याप्याच्च व्यापकावगतिरनुमानमेव भवति। तदिदमयुक्तम्। सर्वत्र हि व्याप्यं व्यापकञ्चाऽवगम्य, व्याप्तिरवसीयते। इह च व्याप्या व्यापिका च निवृत्तिरेव, सा 628चाऽभावात्मिका न भावग्राहकप्रमाणावसेयेति, न व्याप्त्यवधारणं सम्भवतीति कथमनुमेयता629। लिङ्गभूतप्रमाणनिवृत्त्यवगमानवक्लृप्तेश्चाऽनुमानत्वासम्भव:। तस्माद्भावग्राहकप्रमाणाननुवृत्तिरेवाऽभावावगमं प्रसूते। 630तच्चाऽभावाख्यं प्रमाणम्।631 यच्च प्रमाणं यद्भावग्रहणयोग्यम्, तन्निवृत्तिरेव तदभावमवबोधयतीति, नाऽतिप्रसङ्गदोषोऽत्र जायते। अतोऽभावाख्यमपि प्रमाणं स्वमहिम्नैव स्वविषयमुपकल्पयति, भावग्राहकप्रत्यक्षादिप्रमाणपञ्चकवत्। व्यवहारानुपपत्त्याऽऽभावस्याऽऽवश्यकत्वकथनम्। अपि च कण्टकादिविरहिणि भूतलादौ यो निश्शङ्क: पादविन्यासादिव्यवहार: प्रवर्तते, स तावद्भूतलमात्रपरिच्छेदनिबन्धनो नाऽभ्युपगमनीय:, कण्टकादिसंयोगिन्यपि प्रसङ्गात्। अथ केवलभूतलादिपरिच्छेदनिबन्धन इत्युच्यते। तत्राऽपि विकल्पनीयम्---किं केवलस्य भूतलादे: परिच्छ#ेदाद्व्यवहारप्रवृत्ति: ? अथ केवलाद्भूतलपरिच्छेदादिति ? तत्राऽग्रिमपक्षपरिग्रहे भूतलादिस्वरूपातिरिक्तकैवल्यपरिच्छेदाभ्युपगमादङ्गीकृतमभावस्य प्रमेयत्वम्। पश्चिमपक्षावलम्बने तु भूतलमात्रपरिच्छेदे जाते 632सूक्ष्मेषु कीटकण्टकादिष्वनवगतेषु व्यवहारो यदि प्रवर्तते, तदा सूक्ष्मकीटकण्टकजिज्ञासा निष्फला भवेत्। प्रयत्नपूर्विकया हि जिज्ञासया केवलभूतलपरिच्छेद एव लब्धव्य:। स चेद्विनापि प्रयत्नं लब्ध:, निष्फलं प्रयत्नपूर्वकं सूक्ष्मकीटकण्टकाद्यन्वीक्षणम्633। कैवल्यपरिच्छेदस्य प्रयत्नमन्तरेणाऽवगन्तुमशक्यत्वाद्युक्त एव प्रयत्न:। दृश्यादर्शनं ह्यभावावगमे कारणम्। न च सूक्ष्मा: कीटकण्टकादय: प्रयत्नमन्तरेण दृश्यतामापद्यन्त इति, 634दृश्यत्वोपपत्तये युक्तैव प्रयत्नपूर्विका जिज्ञासा। अपि च शशादीनां श्रृङ्गाद्यनुमानं स्यात्, अभावस्याऽपरिच्छेद्यत्वात्। अभावस्य तु प्रमेयत्वे 635बाधितविषयत्वेनाऽनुमाननिरोधो युक्त इति। प्राभाकरमतेन सिद्धान्त:। उच्यते---636भावानामवगतिर्द्विविधा637 --- एका तावद्भावान्तरसंसृष्टविषया, अपरा च तदेकविषया। याऽपि तदेकविषया बुद्धि:, साऽपि द्विविधा--- 638प्रतियोगिनि दृश्येऽदृश्यते च। तत्र दृश्ये प्रतियोगिनि या तदेकविषया बुद्धि:, सैव तस्य प्रतियोगिनोऽभाव इत्युच्यते। योऽपि हि प्रमेयमभावमपरमाह---सोऽपि 639प्रतियोगिनि दृश्ये तदेकविषयां बुदिं्ध तावदवश्यमभ्युपैति। न हि संसृष्टविषयबुध्युदयेनाऽप्यदृश्ये प्रतियोगिन्यभावोऽवगम्यते। किञ्चि दृश्यादर्शनमभावावगमे प्रमाणम्। न च प्रमाणमन्तरेण प्रमेयसिद्धिरस्तीति यत्राऽभावोऽभ#्युपगमनीय:, तत्राऽवश्यं दृश्यादर्शनमाश्रयणीयम्। 640तुल्योपलम्भयोग्यार्थान्तरदर्शनेन दृश्यानुपलम्भोऽवधार्यते। अतो 641दृश्ये प्रतियोगिनि तदेकविषयोपलब्धिरेव वरमभावोऽस्तु। 642ननु यद्यभावो नास्ति, कथं तर्हि तत्र प्राक् संसृष्टबुद्धिरासीत्, तत्र तदेकविषया बुद्धिराविर्भवति, प्रध्वंसाभावाभ्युपगमे तु सा स्यात्। अपि च विनाऽपि तदेकविषयां बुद्धिम्, अभावावगतिरस्ति। अनुमानाद्येकविषयाणां भावानामनुमानाद्यभावेऽभावो दृश्यते। तत्र त#ुल्योपलम्भयोग्यभावान्तरैकविषया बुद्धिर्नास्ति, अथ चाऽभावोऽवगम्यत इति तदेकविषयबुद्धिव्यतिरेकेणाप्यभावोऽवगम्यत इति। अत्राऽभिधीयते---यस्याऽपि मते प्रध्वंसाभावस्स्वीक्रियते, तमपि प्रति पर्यनुयोगोऽयं शक्यते 643दातुम्। यस्य यत्र भाव आसीत्, कथं तस्य तत्राऽभाव: ? इति। स चेत् पर्यनुयुक्तो ब्रूते---यत् कारणोपनिपातवशेन तस्मिन्नेवाऽभावो जायत इति, ततो वयमपि वदितुं शक्त#ा: कारणोपनिपातादेव तदेकविषया बुद्धिराविर्भवतीति। यथैव स वादी प्रध्वंसाभावस्य कारणमाह, तथैव तदेकविषयाया बुद्धेरपि वयं वदितुं क्षमा:। 644अथोच्येत--- मुद्गराभिघातादि: क्षणिकोऽभावस्य कारणम्, स कथं कालान्तरे तदेकविषयां बुदिं्ध जनयति ? इति। हन्त तर्हि कपालमालाद्युत्पत्तिस्तदेकविषयबुद्धि: कारणमस्तु। ।एतेन देशान्तरनीते वस्तुनि तदेकविषया बुद्धिव्र्याख्याता। अत्राऽपि देशान्तरं नीतस्य वस्तुनस्तत्र स्थितिरेव तदेकविषयबुद्धिनिमित्तमित्याश्रयणीयम्। ननु च भवतु स्वकारणोपनिपातात्तदेकविषया बुद्धि:, संसृष्टविषयाऽपि तु किमिति न स्यात् ? तस्या: कारणविनाशात्सा न स्यादिति चेत्, अङ्गीकृतस्तर्हि नाशापरपर्यायोऽभाव:। उच्यते---न वयमपि संसृष्टबुद्धे: कारणं विनाशं ब्रूम:, किन्तु भावान्तरोदसय एव कारणमिति ब्र#ूम:। 645ननु निरन्वयविनाशिनीनां बुध्यादीनां कस्य भावान्तरस्योदयो विनाश:643। उच्यते---धर्मिण: 646स्वरूपमात्रेणाऽवस्थानमेव तत्र भावान्तरोदयोऽवगन्तव्य:। 647ननु किमिदं स्वरूपमात्रम् ? न तावत्स्वरूपमेव, तस्य धर्मोदयकालेऽप्यविनाशात्। तस्माद्धर्माभाव एव धर्मिणस्स्वरूपमात्रमित्यङ्गीकरणीयम्। उच्यते---न भावातिरिक्तोऽभावोऽङ्गीक्रियते। भाव एवत्वेकाकी, सद्वितीयश्चेति द्वयीमवस्थामनुभवति। तत्रैकाकी भावस्स्वरूपमात्रमुच्यते। योऽपि चाऽभावाख्यं तत्त्वान्तरमभ्युपैति, तेनाऽपि तावदेकाकिभावोपलम्भनमाश्रित्य, अभावप्रमितिरङ्गीकरणीया। न ह्यप्रतीते भावेऽभाव: प्रतीयते। तत्र कीदृशस्य तावद्भावस्य प्रतीतिरभावावगतौ निमित्तमिति चिन्तनीयम्---किं सद्वितीयस्य ? 648अथवाऽभाविशिष्टस्य ?, अथवा भावाभावानपेक्षस्यैकाकिन इति ? 649तत्र न तावत् सद्वितीयस्य भावस्य ज्ञानपुरस्सरमभावज्ञानं सम्भवति, घटवति भूतले प्रतीते। तदभावावगमप्रसङ्गात्। नाऽप्यभावविशिष्टभावावसायनिमित्ताऽभावावगति:, आत्माश्रयदोषप्रसङ्गात्। अभावं हि प्रतीत्य, तद्विशिष्टं भावमवसाय, अभाव: प्रतिपत्तव्य इत्यभावावगतिरेवाऽभावबोधोदये कारणमिति, व्यक्तमात्माश्रयत्वम्। किञ्च 650भावप्रतीत्यनुप्रवेशिन्यामभावावगतौ ना भावाख्यं प्रमाणान्तरं स्यात्। "स्वरूपमात्रं दृष्ट्वाऽपि पश्चात्किञ्चित्स्मरन्नपि। तत्राऽन्यनास्तितां पृष्टस्तदैव प्रतिपद्यते ।।" झ्र्श्लो. वा. अ. परि. श्लो. 28ट इति, अभावस्य प्रमाणान्तरत्वे युक्ति:। 652प्राक्तनभावस्वरूपावगतावेव चेदभावोऽपि प्रतीत:, न प्रमेयमवशिष्यते। प्रमेयानवशेषेऽभावो653 न प्रमाणान्तरमवकल्पते। 654तस्मादेकाकिनी भावप्रतीतिरेवाऽभावप्रतीतेर्निमित्तमित्सास्थेयम्655। अतोऽप्रतीतेऽप्यभावे स्वरूपमात्रं प्रतीयत इतीतरेतराभावो मात्रशब्देन प्रतिपाद्यत इति। अतो भावान्तरोदयादेव तदेकविषयबुद्ध्युदय:। संसृष्टबुद्धयनुदयोऽपि स एवेति, न किञ्चिद्दूषणम्। यच्च तदेकविषयबुद्धिव्यतिरेकेणाऽप्यभावोऽवगम्यत इत्युक्तम्। अत्रोच्यते---न प्रत्यक्षरूपैव तदेकविषया बुद्धिरभावरूपेष्यते, किन्त्वनुमानाद्यात्मिकाऽपि तदेकविषया बुद्धिरुत्पद्यते। सैवाऽभाव इति व्यपदिश्यते। ननु च तदेकविषया यदि बुद्धिरभाव:, कथं तर्हि घटाभ#ावादिव्यवहार:। न हि तस्या: कश्चिदपि घटादिभिस्सह सम्बन्धोस्ति। उच्यते---न तदेकविषयबुद्धिमात्रमभावोऽभिधीयते, किन्तु दृश्ये प्रतियोगिनि या तदेकविषया बुद्धि:, सा तदभाव इति व्यपदिश्यते। तेन यस्मिन्प्रतियोगिनि दृश्ये या तदेकविषया बुद्धि:, सा तदभाव इति वशेषव्यपदेश: प्रवर्तते। तेन "इह भूतले घटो नास्ती"ति किमुक्तं भवति ? दृश्येऽपि घटे भूतलमात्रमुपलभ्यत इति। तदेकविषया च संवित्तिस्स्वप्रकाशतया न प्रमाणान्तरमपेक्षते। अभाववादिमतेऽनवस्था, स्वमते तदभाव इति निरूपणम्। किञ्च---प्रमाणान्तरवादिनापि656 प्रमाणाभावस्सत्त्वमात्रेणाऽभावबुद्धिजनको नाऽभ्युपगमनीय:, किन्तु विदितत्वेन। तथाहि---कस्यचिद्वस्तुन: क्वचिददृष्टस्य पुनस्तस्मिन्नेव दृश्यमानस्याऽदर्शनकालभाविनमभाव प्रतिपद्यते "नासीदयमिहे"ति। तदा तत्र दर्शनाभावो निव#ृत्त: कथमभावावगमं जनयेत् ? यदि सत्तयाऽभावबोध:, ततो न भवेत्। बुद्ध्युपारूढस्य हि जनकत्वेऽतीतस्याऽपि सम्प्रत्यनुसन्धीयमानस्य घटत एवाऽभावबोधोपपादकत्वम्। 657यथा चक्षुरादिकं स्वसत्तामात्रेण स्वकार्यकारि, न चाऽतिवृत्तं स्वकार्यं जनयति। लिङ्गञ्च बुद्धिविषयापन्नं लैङ्गिकावबोधजनकम्, स्मर्यमाणमतीतमपि सत् स्वकालवृत्ति लैङ्गिकमनुमापयति, तथेदं द्रष्टव्यम्। एवञ्चाऽतीतस्यापि658 प्रमाणाभावस्याऽभावावगमकत्वात्, बुद्धयारूढ़स्य जनकत्वमङ्गीकरणीयम्। तत्र यदि प्रमाणाभावो य:, सोऽभावरूपस्तदा तस्याऽप्यवगतिर्विदितादेव 659प्रमाणाभावादङ्गीकर्तव्येत्यनवस्था660। यदि तु भावान्तरसंवित्तिरेव प्रमाणाभावोऽभ्युपगम्यते, ततस्तस्यास्स्वयम्प्रकाशतया नाऽनवस्थाऽऽपद्यते। तथा सति भावान्तरसंवित्तिरेव स्वयम्प्रकाशा प्रमाणाभावरूपा प्रमेयाभावोऽस्तु, किमपरेण प्रमेयाभावेन। "घटो नास्ती"त्यादिशब्दप्रयोगोऽपि तस्यामेव स्वयम्प्रकाशायां भावान्तरोपलब्धौ युज्यते, न पु"र्घटो नास्ती"ति बुध्यन्तरमाविर्भवति, बोध्यन्तरानवभासात्। योऽपि पदन्यासादिव्यवहार:, सोऽपि दृश्ये प#्रतियोगिनि तदेकविषयबुद्धिनिबन्धन इति, 661दृश्यत्वोपपत्तये युक्तैव सूक्ष्मकण्टकादिजिज्ञासा। तथाविधप्रतिपत्त्युदय एव चाऽभाव:। तेन तस्मिन्ननुमानमभावसाधकं662 न प्रवर्तते। ननु यथा प्रमाणाभाव एवाऽवश्यम्भावितया प्रमेयाभावोऽङ्गीक्रियते, तथा प्रमाणसद्भाव एव तर्हि प्रमेयसद्भावस्स्यात्। प्रमेयसद्भाववादिनापि हि प्रमाणसद्भावोऽवश्यमाश्रयणीय इति, प्राप्तो बाह्यार्थापलाप:। नैतदेवम्---प्रमेयस्य हि बहिरर्थस्य 663प्रमाणस्वरूपातिरिक्तस्य स्वरूपाप्रतिभासात्। प्रमितिर्हि प्रमित्येकरूपतयैव भासते, प्रमेयं नीलाद्याकारतया, अभावस्य तु स्वरूपावगतिर्नास्तीति, न प्रमाणाभावादन्य: प्रमेयाभाव:। प्रमाणाभावोऽपि च स्वरूपान्तरानवगमादेव, न भावान्तरप्रमितेर्भिद्यते। भावान्तरप्रमितिश्च स्वयम्प्रकाशर#ूपा न प्रमेयतामनुभवतीति, प्रमेयमभावाख्यस्य प्रमाणस्य नोपपद्यते। प्रमेयासद्भावाच्च न प्रमाणान्तरमवकल्पत इति स्थितम्। सम्भवस्य प्रमाणान्तरत्वनिराकरणम्। ।ये पुनस्सम्भवाख्यं प्रमाणमिच्छन्ति---शतादिसंख्यापरिच्छन्नेषु वस्तुष्वन्तर्गतविंशत्यादिसंख्यापरि664च्छिन्नवस्तुग्राहकम्, तदनुमानान्न भिद्यते। तथा हि---ये महासंख्यायोगिन:, तेषामवयवेष्ववान्तरसंख्यायोगो दृश्यते। तेनाऽवयवानामवान्तरसंख्यायोगनियतसम्बन्धा महासंख्याऽवयववर्तिनीमवान्तरसंख्यामनुमापयतीति, व्यक्तमनुमानत्वम्। ऐतिह्य-लोक-प्रतिभानां प्रमाणान्तरत्वनिराकरणम्। ऐतिह्यमप्यप्रतीयमानमूलभूतप्रमाणान्तरं 665पुरुषपरम्परावचनमात्रं न प्रमाणतां प्रतिपद्यते। 666लोकोऽपि प्रत्यक्षादप्रिमाणव्यतिरिक्त: कश्चिन्नोपलक्ष्यते। 667प्रतिभाऽपि नाऽर्थनिश्चयसमर्थेति, न प्रमाणतां प्रतिपत्तुमर्हतीति पञ्चैव प्रमाणानीति। ह्रस्वदीर्घयो: प्रमाणान्तरत्वशङ्का। ननु 668यद्दीर्घदर्शनादिन्द्रियपथा तिवर्तिनि ढद्धठ्ठड़14;वस्वज्ञानं, तद् प्रमाणान्तरं भवितुमर्हति। तथा हि---तत्तावन्न प्रत्यक्षम्, केवलढद्धठ्ठड़14;वस्वदर्शने ढद्धठ्ठड़14;वस्वबुद्ध्यभावात्। दीर्घदर्शनन्तु ढद्धठ्ठड़14;वस्वदर्शनपूर्वकं भवतु प्रत्यक्षम्। तत्प्रतीतौ 669जातायां यदिन्द्रियातिपतितेस्वरूपमात्रेणाऽवसिते ढद्धठ्ठड़14;वस्वज्ञानं, तन्न प्रत्यक्षम्। नाऽपि तदनुमानम्, ढद्धठ्ठड़14;वस्वदीर्घयो: परस्परसम्बन्धनियमाभावात्। न शास्त्रम्। 670अपूर्वकार्यविषयत्वाभावात्। नोपमानम् असादृश्यविषयत्वात्। न चाऽर्थापत्ति:, ढद्धठ्ठड़14;वस्वत्वकल्पनायामसत्यां कस्यचिद्दीर्घत्वानुपपत्त्य#ापादकस्याऽभावात्। तन्निरास:। उच्यते---परिमाणविशेषा एते---यदगुत्वं महत्त्वं दीर्घत्वं 671ढद्धठ्ठड़14;वस्वत्वमिति। परिमाणञ्च प्रत्यक्षद्रव्यवर्ति प्रत्यक्षमिष्यते। तदाह भगवान् काश्यप:--- "संख्या: परिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविभागौ परत्त्वापरत्त्वे कर्म च रूपिद्रव्यसमवायाच्चाक्षुषाणी" झ्र्वै. द. 4. 1. 11.ट ति। तेन दीर्घत्वं प्रतियत: परिमाणविशेषज्ञानं ढद्धठ्ठड़14;वस्वे वस्तुनि जातमेव, किन्तु ढद्धठ्ठड़14;स्वशब्दस्तत्र न प्रवृत्त:, तत्प्रवृत्तेर्दीर्घप्रतीतिसापेक्षत्वात्। अल्पदेशव्यापि हि ढद्धठ्ठड़14;वस्वशब्देनोच्यते, अधिकदेशव्यापि च दीर्घशद्वेन। हस्तादिसंख्याल्पत्वमहत्त्वाभ्याञ्च देशस्याऽल्पत्वम्, महत्त्वञ्च। पूर्वापरभावनियमेन च संख्याल्पत्वमहत्त्वेऽवधार्येते। तेन पूर्वसंख्यापरिच्छिन्नहस्तादिसंख्याव्यापि हस्तशद्वेनोच्यत इति, परसंख्या672परिच्छिन्नहस्तादिप्रमितदेशव्यापिदीर्घशब्दवाच्यवस्तुप्रतीतिसापेक्षा ढद्धठ्ठड़14;वस्वशब्दप्रवृत्ति:। तथा ययोरल्पान्तरत्वेन साक्षात् न्यूनाधिकदेशव्यापिता न प्रतीयते, तत्र दीर्घ-ढद्धठ्ठड़14;वस्वशब्दौ न प्रवर्तेते। हस्तादिना तु परिच्छिद्य तत्संख्याल्पत्व-महत्त्वेऽवधार्य तौ प्रयुज्येते। संख्यानाञ्च परस्परं पूर्वापरभाव: प्रत्यक्षसिद्ध एवेति न 674तत्र प्रमाणान्तरं व्याप्रियते। 675तस्माद्यथोदितलक्षणविषयफलानि 676पञ्चैव प्रमाणानीति सिद्धम्। इति महामहोपाध्यायश्रीशालिकनाथमिश्रप्रणीतायां प्रकरणपञ्चिकायां प्रमाणपारायणे षष्ठोऽभावनिराकरणपर: परिच्छेदस्समाप्त:। समाप्तञ्चेदं प्रमाणपारायणं नाम षष्ठं प्रकरणम्।
 

विमलाञ्जनं नाम सप्तमं प्रकरणम्। सम्पाद्यताम्


प्रकरणार्थप्रतिज्ञा। 678अपौरुषेये सम्बन्धे सिद्धे शब्दार्थयोद्र्वयो:। प्रामाण्यं वेदवाक्यानामिति स प्रतिपाद्यते ।। 1 ।। इति। यदि पौरुषेय एव शब्दानामर्थैस्सह सम्बन्धो भवेत्, तदा प्रमाणान्तरगोचरेष्वेवाऽर्थेषु पुरुषाणां सङ्केतकरणशक्ते:, 679अपूर्वकार्यात्मनि च वेदार्थे 680प्रमाणान्तराणामवकाशाभावेन तत्र सङ्केताभावात्, असङ्केतिते 681चाऽवाचकत्वाभ्युपगमात्682 दुर्लभमेव वेदवाक्यान#ा#ं प्रामाण्यमापद्यते683 इति, अर्थवानेवाऽयमपौरुषेयशब्दार्थसम्बन्धप्रतिपादनयत्न:। वैशषिकमतेन पूर्व: पक्ष:। 684तत्र शब्दार्थसम्बन्धं पोरुषेयं प्रचक्षते। जगदीश्वरनिर्माणां वदन्तो वेदवादिन: ।। 2 ।। इति। अनादौ हि वृद्धव्यवहारपरम्परायां सत्यां 685वृद्धव्यवहारसिद्धो वाच्यवाचकभावश्शब्दार्थयोरपौरुषेय: प्रसिध्येत्। तथाहि---वृद्धानां स्वार्थेन 686व्यवहरमाणानां वाक्यमुपश्रृण्वन्तो बालाश्शब्दश्रवणसमनन्तरभाविना चेष्टाविशेषेणविशिष्टार्थविषयां 687मनीषामाकलयन्तो688वाचकतां शब्दस्याऽध्यवस्यन्ति, तेऽपि वृद्धा यदा बाला आसन्, तदा तेऽप्यनयैव दिशा व्युत्पद्यन्ते स्म। येभ्यश्च वृद्धेभ्यस्ते व्युत्पत्तिमलभन्त, तेऽप्यनयैव दिशा व्युत्पत्तिमलभन्त, तेऽप्यन्येभ्यो वृद्धेभ्य इति, विनाऽपि सङ्केतयितारं पुरुषम्, उपपद्यत एव शब्दार्थयोरनादिवृ689द्धव्यवहारसिद्धस्सम्बन्ध:690। वृद्धव्यवहारस्याऽनादित्वाक्षेप:। नो खल्वनादितैव 691वृद्धव्यवहारपरम्पराया उपपत्तिमती। तथा हि--- विदाङ्कुर्वन्तु भवन्तस्तनुभुवनादिकं सर्वं सावयवमवसीयते। यच्च नाम सावयवं, तद्अवयवव्यतिषङ्गसमासादितात्मलाभम्692। पश्यामो वयं तन्तुव्यतिषङ्गसमासादितात्मलाभं पटम्, कटञ्च वीणासंयोगसम्पादितसत्ताक#ं सावयवम्। एषा दिक् अन्त्यावयविभ्योऽवतरन्ती आद्व्यणुकमवतिष्ठते। परमाण्वोश्च परस्परसंयोगो नियतोऽन्यतरकर्मज:, उभयकर्मजो वाऽभ्युपगमनीय:। कर्म च परमाणुष्वदृष्टवत्क्षेत्रज्ञसंयोगात् प्रतिज्ञायते। तदुक्तं "अणुमनसोश्चाऽऽद्यं कर्मेत्यदृष्टकारितम्" झ्र्वै. द. अ. 5. आ. 2. सू. 13ट इति। अन्यस्य कारणस्याऽभावात्। न चाऽदृष्टमलब्धस्ववृत्ति कार्याय पर्याप्तम्, अचेतनत्वात् वासीवत्। न च चेतनानधिष्ठितमचेतनं वृत्तिमुपलभते। न खल्वनधिष्ठिता वासी वर्धकिना वर्धनाय प्रवर्तते। तदेवमदृष्टं क्षेत्रासमवायि चेतनाधिष्ठितं क#ार्याय 694पर्याप्तमिति दर्शनबलेनाऽवश्यमभ्युपगमनीयम695। न चेदमिह चिन्तनीयम्---य एव क्षेत्रज्ञा:, त एव तेषामदृष्टानामधिष्ठातारो696 भवेयुरिति, तेषामज्ञत्वात्। न हि ते स्वसमवायिनी अपि धर्माधर्मलक्षणेऽदृष्टे स्वरूपत:, कार्यतो वा वेदितुमीशते। य एव च यत् स्वर#ूपत:, कार्यतो वा वेदितुमीष्टे, स एव तस्याऽधिष्ठाता। यथा---तक्षा वास्या:। तस्मादन्य: क्षेत्रज्ञेभ्यस्सकलक्षेत्रज्ञसमवायिधर्माधर्मलक्षणादृष्टसाक्षात्करणगोचराचिन्तनीयशक्तिविभव: कोऽपि चेतनातिशयोऽधिष्ठाता 697नित्यप्रतिष्ठितस्स्वतन्त्रोऽभ्युपगन्तव्य:। न चेदं वाच्यं केन प्रमाणेन तस्य क्षेत्रज्ञेष्वसम्भाविनी धर्माधर्मसाक्षात्करणशक्तिरवगम्यत इति। यत एव प्रमाणात् तस्य सद्भावोऽवगम्यते, तत एव तस्य ज्ञानशक्तिरप्यवगम्यत इति, अन्तर्भावितज्ञानशक्तिरेवाऽसौ सामान्यतोदृष्टानुमानस्य गोचर:। अत एव कथमसावधिष्ठास्यतीत्यस्याऽपि पर्यनुयोगस्याऽनवकाश:। किं तस्याऽधिष्ठाने प्रयोजनमिति योऽयमपि पर्यनुयोग:, स चेतनातिशयानुमानाङ्गीकरणेन पराकृत:। क्षेत्रज्ञो हि चेतनस्स्वप्रयोजनमुद्दिश्य प्रवर्तते। स च क्षेत्रज्ञविलक्षणोऽनपेक्षितप्रयोजन एव स्वतन्त्र: प्रवर्तते। अत एव स्व#ातन्त्र्यात् 698कदाचित् तस्य प्रवृत्तिरुपपत्तिमती। स्वातन्त्र्यमपि तस्य सत्तानुमानसमधिगम्यमेवेति, न 699पृथक्प्रमाणसव्यपेक्षम्। अतस्सिद्धं तत्प्रभवस्य तनुभुवनादेरादिमत्त्वमुत्पत्तिमत्त्वञ्च, तथाऽऽदिमत्तया विनाशित्वम्। कृतका हि भावा ध्रुवभाविविनाशा:, तथा दृष्टचरा घटादय इति, नाऽनादित्वं वृद्धव्यवहारपरम्पराया:। तेन 700पुरुषसङ्केतादेव 701शब्दस्याऽर्थप्रतिपत्तिहेतुत्वमास्थेयम्। सङ्केतनिबन्धनं वाचकत्वमितिशङ्का। अपि च 702देवदत्तादिपदेष्वविवादा तावत्पुरुषसङ्केतनिबन्धना वाचकता। तद्दर्शनाद्गवादिशब्दनामपि तथाविधत्मेवाऽनुमातुमुचितम्। अयमेव हि सामान्यतोदृष्टस्य विषयो---यदन्यत्र दृष्टम्, अन्यत्राऽनुमीयते। अयमेव हि सामान्यतोदृष्टस्य विषयो---यदन्यत्र दृष्टम्, अन्यत्राऽनुमीयते। देवदत्तादिपदेषु स्वाभाविकं स्वार्थबोधकत्बमित्यपि न समीचीनम्, प्रमाणाभावात्, 703पुरुषसङ्केतानपेक्षत्वप्रसङ्गाच्च। न च नियमे सङ्केतस्य व्यापार:, प्राक्सङ्केतादनियतार्थप्रत्ययोदयप्रसङ्गात्। क्लेशमात्रफलमिदमुच्यते---गवादिष्वपिनियतार्थप्रतिपत्ति: पुरुषसङ्केतायत्तैव, स्वाभाविकी तु 704स्वार्थप्रतिपादनशक्तिरुपयोगिन्येव विशिष्टार्थप्रतिपत्तावित्यलममुना प्रतिपन्नार्थविघातिना वादेनाऽतिनिर्बन्धेन। किञ्च यथोदितप्रमाणबलसिद्धे भगवति सकलजगन्निर्माणैकप्रवीणे धर्माधर्मयोस्साक्षात्कर्तरि705 तत्कर्तृकत्वेनाऽपि706 सिध्यति वेदानामपूर्वेऽर्थे प्रामाण्यमिति, मीमांसकानां विद्वेषमात्रनिबन्धनोऽयं पौरुषेयत्वपक्षप्रतिक्षेप:, मन्त्रार्थवादानाञ्च भूयसाममुमर्थमज्जसा वदतामन्यथा वर्णनमिति। सिद्धान्त:। 707औत्पत्तिकस्तु सम्बन्धश्शब्दस्याऽर्थेन 708सम्मत:। वृद्धसंव्यवहारस्य प्रवाहानादिता यत: ।। 3 ।। इति। ।वेदार्थविदामग्रगण्यस्य भगवतस्सकलनयनिधेर्जैमिनेरपौरुषेयश्शब्दस्याऽर्थेन सम्बन्धोऽभिमत:। स हि मेने---यद्यपि 709देवदत्तादिशब्दानां पुरुषसङ्केतनिबन्धनं वाचकत्वम्, तथाऽपि गवादिपदेष्वनुमानं न शक्यते कर्तुम्। अर्थप्रतिपत्तिलक्षणस्य कार्यस्याऽन्यथाऽप्युपपत्तेरनैकान्तिकत्वादिति। वृद्धव्यवहारनिबन्धनाद्धि स्वार्थे वाचकत्वशक्तिज्ञानादपि बालानां शब्दार्थप्रतिपत्तिर्दृश्यते। तेनैकान्ततस्सङ्केत एव कल्पयितुं न शक्यते। अपि च शक्तिज्ञानमात्रनिबन्धना 710गवादिशब्दानामर्थप्रतिपत्तिरिति प्रत्यक्षमेवैतत्। न च प्रत्यक्षे सति कारणे कारणान्तरमनुमातुं शक्यते। देवदत्तादिपदेषु तु यस्य सङ्केतनिबन्धनाऽर्थप्रतिपत्तिर्भवति, तस्य सङ्केत एव कारणम्। तेष्वपि ये व्यवहारदर्शनादेव वाचकतामवगम्याऽर्थं प्रतिपद्यन्ते, तेषामपि व्यवहारदर्शनप्रसूतं शक्तिज्ञानमेवाऽर्थप्रतिपत्तिकारणम्, न सङ्केत:। किन्तु तत्र सङ्केतपूर्वक एव व्यवहार:, अर्थप्रतिपत्तिश्च, तथा तत्पूर्वकमपि वाचकत्वज्ञानम्। गवादिपदेषु तु सर्वेषां शक्तिज्ञानादेव व्यवहारसम्भवादर्थावगत#िरिति वैषम्यम्। ननु देवदत्तादिपदेषु 71म1सङ्केतदर्शनात्, किमिति गवादिपदेष्वपि पूर्वभावी सङ्केत एव न कल्प्यते। न। प्रत्यनुमानग्रस्तत्वात्। शक्यते हि तत्रैवमनुमानं सम्भावयितुम्---पूर्वे हि पुमांसो गवादिशब्दानां सास्नादिमत्यर्थे वृद्धव्यवहारसिद्धशक्तिज्ञानादर्थप्रतिपत्तिमन्तो गवादिशब्देभ्यस्सास्नादिमदर्थप्रतिपत्तियोगित्वादधुनातनपुरुषवदिति। तदेवं प्रत्यनुमानेन712 निरस्तेऽनुमाने, 713प्रमाणविरहादपौरुषेयत्वमेव सिध्यति शब्दार्थसम्बन्धस्य714। अत इदमपहस्तितम्। यदाहुर्बाह्या:--- "यज्जातीयो यतस्सिद्धस्स तस्मादग्निकाष्ठवत्। 715अदृष्टहेतुरप्यन्यस्तद्भवस्सम्प्रतीये" ।। झ्र्प्र. वा. परि. 3. श्लो. 243ट इति। वृद्धव्यवहारस्याऽनादित्वसमर्थनम्। ननु सिद्ध्येदयं मनोरथो यदि वृद्धव्यवहारपरम्पराया अनादिता स्यात्, सा तु प्राचीननयनिवारिता इति। अत्र वदाम:। भवतु सावयवं सर्वमवयवसंयोगारब्धसत्ताकम्, अवयवसंयोगापाये विनश्वरमिति च। तथाप्येकदैव 716सकलस्य सम्भव:, विनाशश्चेत्यत्र नास्ति717प्रमाणम्। प्रत्युत यथादर्शनमिदमेव तावदवसातुमुचितम्---क्रमेण चोदय:, क्रमेण विलयश्चेति। किञ्च यथाऽद्यतना जना मातृपितृसंयोगनिबन्धनात्मलाभा:, तथा पूर्वेऽपि जना जनत्वादिति शक्यमेवाऽनुमातुम्। न चाऽयमयोनिजानां केवलेन धर्माधिपत्येन, अधर्माधिपत्येन च संस्वेदजानामिव सम्भवो घटते। जरायुजा---ण्डड्डत्ध्;जानां तथा तद्दर्शनाभावात्718। दृष्टानुसारि हि सर्वत्राऽनुमानम्। तेन संस्वेदजेषु नियमेन दृष्टं न जरायुजा---ण्डड्डत्ध्;जयोरप्ययोनिजत्वं शक्यतेऽनुमातुम्। न हि पाण्डड्डत्ध्;रमात्रेण बाष्पादपि वढद्धठ्ठड़14;नेरनुमानम्। किन्तु यादृशमेव पाण्डड्डत्ध्;रद्रव्यं नियमेन वढिद्धठ्ठड़14;ननियतं प्रतिपन्नम्, तादृशमेव तस्याऽनुमापकमुचितम्।ईश्वरनिराकरणम्। यच्चेदमुदितं719 धर्माधर्मौ चेतनातिशयाधिष्ठिताविति, तदप्यसिद्धमेव। यस्यैव तौ क्षैत्रज्ञस्य, स एवाऽधिष्ठाताऽस्तु। अथाऽज्ञत्वात्तस्याऽधिष्ठातृत्वं720 नोपपद्यत इति चेत्, तह्र्यन्यस्याऽपि कथमुपपद्यते। न हि तस्याऽपि परपुरुषवर्ति धर्माधर्मज्ञानमुपपद्यते, कारणाभावात्। न हि तस्येन्द्रियाणि कारणम्, इन्द्रियाणां तत्र 721सामथ्र्यादर्शनात्। न च केवलं मन:, केवलस्य मनसो 722बाह्येष्वप्रवृत्ते:। न हि 723धर्माधर्मरहितस्येश्वरस्येन्द्रियमनस्सम्बन्धो भवति, धर्माधर्मनिबन्धनत्वात् तत्सम्बन्धस्य। अथ कारणमन्यदेवेश्वरबुद्धे:। तदयुक्तम्। प्रसिद्धकारणत्वाद्बुद्धे:। प्रसिद्धानि हि कारणानि बुद्धे:। यत्कारणं हि यत्क#ार्यं दृष्टम्, तत्कारणकमेव तदिति युक्तम्। अन्यथा चेतनाधिष्ठिता वासी दृष्टेति, कथं धर्माधर्मयोरपि तदधिष्ठितत्वं भविष्यति। अथाऽकारणा नित्यैवेश्वरबुद्धिरिति चेत्। तदप्यसुन्दरम्। बुद्धितत्त्वस्य नित्यत्वाभावात्। नित्या सती बुद्धिरेव न स्यात्। बुद्धिमता चा।#़धिष्ठानं दृष्टम्, न पुनरन्येन। अथाऽदृष्टमपि बुद्धेर्नित्यत्वमङ्गीक्रियते, तदा चेतनानधिष्ठितत्वमेव किमिति नाऽङ्गीक्रियते। अथ सिद्धेऽधिष्ठातृत्वे, ज्ञानमपि कल्प्यत इति। 724तदयुक्तम्। 725ज्ञानाद्यननुबद्धस्याऽधिष्ठातृत्वस्य कारणाभावात् प्रतिक्षिप्ते ज्ञ#ाने सत्यनुमातुमशक्ते:। तेन शक्यज्ञानमेवाऽचेतनं चेतनाधिष्ठितमिति व्याप्तिराश्रयणीया, तथादर्शनात्। तक्षादयो हि शक्यज्ञानान्येव वास्यादीन्यधितिष्ठन्तो दृश्यन्ते, नाऽन्यानि। अपि चाऽधिष्ठानार्थोऽपि चिन्तनीय:। न तावत्संयोग:, गुणत्वेन धर्माधर्मयोस्संयोगाभावात्। समवायोऽपि परपुरुषसमवायिनोर्धर्माधर्मयोरीश्वरं प्रत्यनुपपन्न:। वास्यादिषु तु तक्षादीनां करसंयोगादिरेवाऽधिष्ठानम्। तथा प्रवृत्तिरपि कीदृशी। न तावत् क्रिया, गुणभूतयोर्धर्माधर्मयो: क्रियाभावात्। उत्पत्तिश्चेत्, तर्हि सा क्षेत्रज्ञादेव समवायिकारणात्, आत्ममनस्संयोगाच्चाऽसमवायिकारणादभिसन्ध्यादिनिमित्तकारणोपगृहीतादिति। फलदानमिति चेत्। न देशकालावस्थादिसहकारिसहिताभ्यां 726धर्माधर्माभ्यामेव फलम्, न चेतनव्यापारापेक्षम्। वैशेषिकाभिमतेश्वरनिरास:। ।यदपि केचिदाहु:---परमाणव एवेश्वरेच्छावशेन प्रवर्तन्त इति। तदपि न युक्तम्। क्वचित्तथाविधस्याऽधिष्ठानस्याऽदर्शनात्। शरीरे तथादर्शनमिति चेत्। न। तस्य क्षेत्रज्ञधर्माधर्मपरिगृहीतत्वात्727। न परमाणव एवेश्वरधर्माधर्मपरिगृहीता:, न च तस्येच्छामात्रेण प्रवृत्ति:, किन्तु प्रयत्नवशात्। न चेच्छायामपि हेतुरस्ति। न च नित्यैवेच्छा, 728नित्यं प्रवृत्तिप्रसङ्गात्। अपि च यथाऽचेतनत्वाच्चेतनाधिष्ठितत्वमनुमीयते, तथा प्रयोजनाभावादप्यनधिष्ठानमिति ज्ञायते। कतरदत्राऽनुमानं बलीय इति 729चिन्तयाम:। तेन यत्रैव प्रयोजनं, 730तदेवाऽचेतनं731 चेतनाधिष्ठितमिति व्याप्तिराश्रयणीया732, तथादर्शनात्। अपि च व्याप्तिग्रहणपूर्वकमनुमानम्, अन्वयव्यतिरेकाभ्याञ्च व्याप्तिरवगम्यते। यथा च चेतनोऽधिष्ठातेति प्रतीयते, तथा विग्रहादिमानपि। तेनाऽनुमानं प्रवर्तमानं तथाविधमेवाऽनुमापयेत्। न च तस्य धर्माधर्मौ, परमाणून् वा प्रत्यधिष्ठातृतोपपद्यत इत्यनधिष्ठानमेव। तेन विग्रहादिमदधिष्ठानयोग्यमेवाऽचेतनं चेतनाधिष्ठितमिति व्याप्तिराश्रयणीया। नन्वेवं सति प्रसिद्धस्याऽपि 733धूमाद्यनुमानस्योच्छेद: प्राप्नोति। तथाभूतेन हि महानसादिवर्तिना व्याप्तिरवगता, न तथाविधस्याऽनुमानम्। यथाविधस्याऽनुमानम्, न तथाविधस्य व्याप्तिधीसमयेऽनवधारणमिति। तदयुक्तम्--देशकालाद्युपाधिपरित्यागेन हि सामान्येन सम्बन्धग्रहणम्। तेनेहाऽपि भवत्येव यद्वास्यादिषु दृष्टम्, तत् धर्माधर्मयोरपीति। यादृशन्तु रूपं व्यापकमुपलभ्यते, तदेवाऽनुमातुं शक्यते, नाऽन्यत्। इह च विग्रहवत्त्वाद्यपि व्याप्त्यनुप्रवेशीति, तदनुमातव्यम्। न च तदनुमातुं शक्यत इति चेत्। वरं चेतनानुमानत्याग:734तदननुबद्धस्य 735तस्याऽनुमानात्। तेनेश्वरस्य 736सर्वज्ञतानुमाने हेत्वभावेन ज्ञानाभावनिश्चयात्। तेनाऽनादिरेव वृद्धव्यवहारपरम्परा शब्दार्थावगमे हेतु:। न च सृष्ट्यादावीश्वरकृतस्सङ्केत:, सङ्केतस्यैव कर्तुमशक्ते:। न खल्वद्यतना जना: 737सङ्केतवाक्यस्याऽर्थमनवबुध्यमानास्सङ्केतं प्रतिपद्यन्ते। तस्मादनादिरेव738 वृद्धव्यवहारपरम्पराऽभ्युपगमनीया। एवं पुरुषस्य धर्मप्रतीतिं प्रति शब्दमन्तरेणोपायाभावान्न पौरुषयत्वे वेदस्याऽ739पूर्वकार्यात्मके वेदार्थे प्रामाण्योपपत्तिरिति, 740वेदस्याऽपौरुषेयत्वाश्रयणम्। वेदानामपौरुषेयत्वनिरूपणम्। कथमपौरुषेयत्वं वेदानाम्। उच्यते--- 741कर्तुरस्मरणात्। न चाऽनुमानमपि कर्तुरुपपद्यते। प्रमाणान्तरेणाऽप्रतीतेऽर्थे742 पुरणाणां वाक्यस्य रचनायामशक्ते:। काठकादिसमाख्याऽपि कर्तृसद्भावं ज 743साधयितुमलम्। 744प्रवचनेनाऽपि तदुपपत्ते:। मन्त्रार्थवादास्तु न स्वातन्त्र्येणाऽर्थमवगमयितुमीशते, किंतु विध्युद्देशानुसारेण तदनुगुणमर्थमिति, न सिद्धार्थप्रतिपादने तेषां प्रामाण्यमिति, सिद्धमपौरुषेयत्वं शब्दार्थसम्बन्धस्येति। दुस्तर्कतिमिरं भेत्तुं शिष्याणां दृष्टिरोधकम्। इदं शालिकनाथेन विहितं 745मिलाञ्जनम्।। इति महामहोपाध्यायश्रीशालिकनाथमिश्रप्रणीतायां प्रकरणपञ्चिकायां विमलाञ्जनं नाम सप्तमं प्रकरणं समाप्तम्।

तत्त्वालोको नामाऽष्टमं प्रकरणम्। सम्पाद्यताम्


प्रकरणार्थप्रतिज्ञा। 746आत्मतत्त्वे 747बहुविधा विवादस्सन्ति वादिनाम्। वयं प्राभाकरास्तत्त्वनिर्णयाय748 यतामहे ।। 1 ।। इति। 749केचिद्बुद्धिमेवाऽऽत्मानमिच्छन्ति, 750अन्ये तु 751पुनरिन्द्रियाण्येव, 752देहमेवापरे। 753तथैके बुद्धीन्द्रियशरीरव्यतिरेकिणमनुमेयमाहु:, 754केचित्तु मानसप्रत्यक्षगम्यम्, 755स्वयम्प्रकाशञ्च। केचित्, 756सकलप्रतीतिसिद्धं त्वन्ये मन्यन्ते। 757क्षणिकञ्च केचिदाहु:, कूटस्थनित्यमित्यपरे। 758अणुपरिमाण:, 759शरीरपरिमाण:, सर्वगत इत्यादिवादिनो विवदन्ते। तथा 761सर्वक्षेत्रेष्वेकमेके762, 763प्रतिक्षेत्रञ्च नानाभूतमित्यपरे। तत्र तत्त्वनिर्णयार्थमिदमारभ्यते। सिद्धान्त:। 764बुद्धीन्द्रियशरीरेभ्यो भिन्न आत्मा विभुध्र्रुव:। नानाभूत: प्रतिक्षेत्रमर्थवित्तिषु भासते ।। 2 ।। इति। विज्ञानवादिमतेन शङ्का। 765ननु न बुद्धेर्बोध्दुश्च भेदमुपलभामहे। कथम्। यतो "घटमहं बुध्ये" इति बुद्धेर्बोद्धारो766 भिन्नमात्मानं प्रतिपद्यन्ते। सत्यम, 767द्विचन्द्रादिबोधवत्, बिम्बप्रतिबिम्बज्ञानवच्चाऽयं भ्रम इति प्रामाणिका:। सहोपलम्भनियमेन च बुद्धेर्बोध्दुश्च भेदो निराक्रियते, भेदस्याऽनियमव्याप्तत्वात्। 768व्यापकविरुद्धोपलम्भेन बाध्यमानत्वात्। तदाहु:--- "।अविभागो हि बुद्ध्यात्मविपर्यासितदर्शनै:। ग्राह्यग्राहकसंवित्तिभेदवानिव लक्ष्यते ।। झ्र्प्र. वा. परि. 2. श्लो. 354ट इति। 769तथा येऽपि बुद्धेरन्यं बोद्धारमिच्छन्ति, तेऽपि सत्यामेव बुद्धौ तस्य 770विषये बोद्धृतामाहु:। एवञ्च सैव परं बोद्ध्री भवतु, कृतमन्येन बोद्ध्रा। बोद्धा चाऽऽत्मा भवतीति, बुद्धिरेवाऽऽत्मा। सा च स्वयम्प्रकाशा कार्यकारणभावेनाऽनादिसन्तानवाहिनी स्वाप-मद-मूच्र्छादिष्वभिभूततया पुन: पुनरनुसन्धानपथं 771नाऽऽयाति। वहति त्वसौ तास्वपि दशासु, अन्यथा जाग्रदिदादिषु बुद्ध्युदयासम्भवापत्ते:। स चाऽयमनादिबुद्धिसन्तानोऽनादिवासना772निबन्धनस्संस्कार्यदर्शनाध्यवसितभेदस्समुदयवशवर्ती संसरति। 773मार्गरूपसाक्षात्कारोन्म#ूलितसकलसत्त्वदृष्टिवासनानुबद्धस्तूच्छिन्नस्समुदय: प्रतिमुच्यते, तथा तायिनां 774चाऽङ्गीकृतसन्तानोच्छेद:। तदाहु:--- "प्रदीपस्येव निर्वाणं विमोक्ष्स्तस्य 775तायिन:" ।। इति। देशिकानाञ्चाऽनेकजन्माभ्यासस्वात्मीभूतब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तजगद्व्यापिमहाकरुणानां 776विशुद्धचित्तसन्तानोऽनन्त इति। तन्निरास:। ।तदिदमसारम्। प्रतीतिसिद्धस्य बुद्धेर्बोद्धुश्च भेदस्य 777निराकरणानर्हत्वात्। सहोपलम्भनियमस्तु यथा भेदेऽप्युपपद्यते, तथाऽत्रैव वक्ष्याम:। 778निराकृतश्चाऽयं बाह्यार्थसिद्धावृजुविमलायाम्। बुद्धिरेव परमस्तु, अलं बोद्ध्रेति यदुक्तम्। तदपि काल्पनिके बोद्धरि युक्तं वक्तुम्। साक्षात्प्रतीतिसिद्धे तु नाऽवकाशोऽस्याऽसत्प्रलापस्य। स्वापादिष्वपि बुद्धिरनुवर्तत इति यदुक्तम्, तदपि प्रमाणाभावादसारम्। जागरादिषु बुद्धेरत्रैव कारणं वक्ष्याम:। इन्द्रियात्मवादोपन्यास-तन्निरासौ। एवं तर्हि भवन्त्विन्द्रियाण्येव779 चेतनानि, एवं बुद्धेर्बोद्धुश्च भेदावभासो घटिष्यते। भवेदेतदेवं यदि दर्शनस्पर्शनाभ्यामेकार्थप्रतिसन्धानं780 न स्यात्। "यदहमद्राक्षं तदहं स्पृशामी"त्यत्र प्रतिसन्धातैक: प्रतीयते। स्मरणञ्चेन्द्रियार्थानां तत्तदिन्द्र#ियापायेऽपि यदुपलभ्यते, तदिन्द्रियचैतन्ये 781नोपपद्यते। देहात्मवादशङ्का-निराकरणे। 782अस्तु तर्हि देह एवाऽऽत्मा, न तत्रेमौ दोषौ प्रसज्येते। मैवम्। ज्ञाता ह्यात्मा, न च देहस्य ज्ञातृता सम्भवति। 783तथाहि---देहो नाम पार्थिवो द्रव्यविशेष:। ननु पार्थिवत्वे तस्य भूतान्तरगुणानुपलम्भ784 आपद्येत। नेति ब्रूम:। भूतान्तरसहितस्य भूतान्तरस्य न785कार्यान्तराम्भकतेति वदाम:, न पुनर्मिथोऽपि भूतानि न संयुज्यन्त इतयाचक्ष्महे। 786अतस्संयुक्तभूतान्तरगुणोपलम्भो नाऽनुपपन्न:। कथं पुनरारम्भकत्वासम्भव:। उच्यते---न तावत्पञ्चानाम्, चतुर्णां वा सम्भूयाऽऽरम्भकत्वं सम्भवति। चाक्षुषाचाक्षुषद्रव्यारब्धस्य तत्समवायिनोऽचाक्षुषत्वापत्ते:। यत् खलु चाक्षुषाचाक्षुषद्रव्यारब्धं यत्समवेतम्, तन्न चाक्षुषम्, वायुवनस्पतिसंयोगवत्। चाक्षुषश्च देह:। अतो न 787पञ्चभि:, चतुर्भिर्वा समारब्ध:, आकाशानिलयोरचाक्षुषत्वात्। आकाशस्याऽचाक्षुषत्वनिरूपणम्। कथं पुनरचाक्षुषं नभ: ? अचाक्षुषस्य सत्तापि किं प्रामाणिकमित्येतदपि चिन्त्यम्। उच्यते---अचाक्षुषं व्योम द्रव्यत्वे सत्यरूपित्वात्, आत्मवत्। ननु नाऽरूपं गगनम्788। तद्धि धवलम्, उत्पलपलाशश्यामलं 789वोपलभ्यते। 790उच्यते---धवलिमा हि प्रायेण तैजस एव नीहार#े, तौहिनो वा, ॐतदपगमे तदनुपलम्भात्। यदयं पुनर्निशि नीलिमेवाऽवलोक्यते, नाऽसौ नभस:। कस्य तर्हि ? न कस्यचित्। कथं पुनर्गुण:, न कस्यचित् ? सत्यम्। ।गुण एवाऽयमसिद्ध:। ननु प्रतीतिबलेन सिद्ध एव। सत्यम्, सिध्येद्यदि प्रतीतिरेव सिध्येत्, सा तु कारणाभावान्न सिद्धा। ननु चक्षुरेव कारणम्। न। आलोकोपकारानपेक्षस्य चक्षुषोऽप्रकाशकत्वात्। ।तेनाऽप्रतीतावेवाऽयं प्रतीतिभ्रमो मन्दानाम्। 791अतो दिवा तदनुपलम्भ:। अन्यथा सौरीभिर्भामिरनुगृहीतं चक्षुस्स्फुटतरं व्योम्नि नीलिमानं प्रकाशयेत्। प्रकाशयेत्। रूपञ्च स्पर्शसहचरितमिति, स्पर्शवत्त्वं नभसस्स्यात्। ततश्च सर्वमूर्तद्रव्यप्रतिघातप्रसङ्ग:। केचित्तु तमसो नीलिमा गगनस्येवोपलभ्यत इत्याहु:। तदसदित्येके। तमसो निष्पत्त्यनवक्लृप्ते:। रूपवत्त्वेन हि नमो द्रव्यं स्यात्, तच्चाऽनेकद्रव्यारब्धं सच्चाक्षुषं भवेत्, न च तानि द्रव्याणि सन्ति। सन्ति चेत्, दिवऽप्यराभेरन्। अतोऽन्धानामिवाऽसौ नीलिमाभिमान#ो नभस एवेति युक्तम्। तमसो निराकरणाम्। ।यच्चेदमुच्यते---छायैव तम:, सा च 795चलत्वा-चलत्व-महत्त्वा-महत्त्व-दूरत्वा-सन्नत्वादिगुणयोगिनी वस्तुभूतेति। 792तदप्यसारम्। 793निष्पत्त्यनवक्लृप्तेरेव। यच्च चलत्वा---चलत्वादिकमुपन्यस्तम्। तदपि स्थूलदर्शितया। तथाहि---आलोकेऽपवारिते छायेष्यते,794 ततोऽपवारितालोकभूभागादिभावव्यतिरेकिणी न रूपान्तरवच्छाया दृश्यते। तेन मन्यामहे---अपवारितालोकभूभागादिकमेव छायेति। एतेन चलत्वा-795चलत्व-महत्त्वा-महत्त्व-दूरत्वा-सन्नत्वादीनि समर्थितानि। यततु तेजस: प्रतिरोधि द्रव्यम्, यत् यथा यथा सञ्चरति, तथा तथा आलोक: प्रतिमुच्यते, प्रतिरुध्यते चेति, चलतीव छाया प्रतिभाति। अन्यथा शरीरे चलति, किमिति छायाऽपि चलेत्। 796चलनहेत्वभावात्। एतेनाऽचलति शरीरेऽचलत्वं व्याख्यातम्। संख्यापरिमाणयोगि797 महत्त्वम्, तदभावे कथमिव 798छायेयमुत्पत्स्यत इत्यलमनया स्थूलदर्शिन: कथयाऽननुबद्धया। ननु भूभागादेरेव छायात्वे कथं द्रव्यान्तरेण 799व्यपदेश: "अस्य छायेयमि"ति। उच्यते---अपवारितालोकभूभागादिरेवछायेत्युक्तम्। तत्र येनाऽपवारणम्, 800तदपेक्षया युज्यते तद्व्यपदेश:। एवञ्च स्मृतिकाराणामपि--- "801नाऽऽक्रामेत्कामतश्छायाम्" इत्येवमादिको व्यवहार उपपन्न:। ।योऽपि च शास्त्रकाराणां व्यवहार: 802"छत्रगृहादीनां तुल्यं च्छायालक्षणं कार्यमि"ति स आलोकापवारणाभिप्रायेण वर्णनीय:। 803ननु चाऽऽलोकापवारणे 804भूभागादेरदर्शनप्रसङ्ग:। मैवम्। प्रचुरतरालोकावयवसंयोगस्तत्र वार्यते, 805अल्पास्तु तेजोवयवास्समन्ततस्सञ्चरन्तस्संयुज्यन्त एव। यत्र तु सर्वर्था तेषामसंयोग:, स महानन्धकार इति निरवद्यम्। यच्च विस्फारिताक्ष: कूपादिषु जलमध्यस्थ सुषिरमध्यक्षमीक्षत इत्युच्यते, तत्राऽपि तेजोवयवा: कूपनेमिलब्धावच्छेदास्तथा प्रतीयन्त 806इत्युत्तरम्। आकाशस्याऽकसिद्धिशङ्का। न चैवं सत्याकाशस्याऽसिद्धिरेव। शब्दलक्षणगुणानुमानसिद्धत्वात्। ननु गुणतैव शब्दस्याऽसिद्धा, द्रव्यत्वेन वादिभिरभ्युपेतत्वात्। यदाहु:--- "वर्णात्मकाश्च ये शब्दा नित्यास्सर्वगतास्तथा। पृथग्द्रव्यतया ते तु न गुणा: कस्यचिन्मता:" ।। झ्र्स. द. कौ. 92 पृ.ट इति। तन्निरास:। 808तदिदसमारम्। एकेन्द्रियप्रत्यक्षतया 809रूपादिवद्गुणत्वसिद्धे:। न च वायुनाऽनैकान्तिकत्वम्। तस्य वायोरतीन्द्रियतयाऽभ्युपेतत्वात्। येऽपि चैन्द्रियकं वायुमिच्छन्ति, तेषामपि "स्पर्शविरहे सती"तिविशेषणोपादानाददोष:। एवं सिद्धगुणभावश्शब्दो गुणिनमनुमास#्यति810। तस्य भूजलादिभावावगमे कारणाभावाद् 811द्रव्यान्तरमेव तदवतिष्ठते। अप्रतीतसामानाधिकरण्यगुणभेदेन भेदावगमात्। ननु मुखादिगतश्शब्द उपलभ्यते। नेत्युच्यते। श्रोत्रम् प्राप्यकारि बहिरिन्द्रयत्वात् 812त्वगिन्द्रियवत्। 813तत्र न तावच्छोत्रं मुखादिदेशं गच्छति, प्रत्यक्षा हि कर्णशष्कुली स्वदेशस्था दृश्यते। नाऽपि मुखं श्रोत्रदेशमुपसर्पति, तस्याऽपि स्वदेश एवोपलम्भात्। अत: श्रात्रगत एव शब्दो गृह्यते। भ्रान्तिस्त्वेषा मुखे शब्द इति। न च गुणभूतस्य शब्दस्य संयोगलक्षणा प्राप्तिरुपपद्यत इति। समवायलक्षणैव तस्य प्राप्ति:। एवञ्च शब्दगुणत्वाच्छोत्रस्य, यच्छब्दगुणकं द्रव्यमाकाशपदावेदनीयम्, तदेव श्रोत्रमिति सिद्धम्। ननु पार्थिवो कर्णशष्कुली श्रोत्रमस्तु, संयुक्तसमवायेन चाऽऽकाशगतं शब्दमुपलभताम्। नैतदेवम्। न हि साक्षात् 814प्राप्तिसम्भवे प्रणालीसमाश्रयणमुपपन्नम्। नाऽपि 815त्र्यात्मकं शरीरं 816गुणान्तरप्रादुर्भावप्रसङ्गात्817। भू-जल-तेजांसि हि यथाक्रममनुष्णाशीत-शीतो-ष्णस्पर्शानि। तैरारब्धं द्रव्यं एतत्रयविलक्षणस्पर्शमापद्येत, चित्रपटवत्। यथा सितासितादितन्तुसमारब्ध: पटस्तन्तुरूपविलक्षणरूप:, तथा शरीरमप्यारम्भकद्रव्यस्पर्शविलक्षणस्पर्शं भवेत्। अनुष्णाशीतस्पर्शञ्चैतदुपलभ्यते। 818एतेन द्व्यात्मकताऽपि निषिद्धा।। किञ्च गन्धस्य पार्थिवद्रव्यसमवेतस्यैकाकिनो गन्धान्तरारम्भकत्वानुपपत्तेरगन्धं शरीरं स्यात्। भू---तेजसो:, अप्तेजसोर्वाऽऽरम्भकत्वेऽगन्धवत्वम्, अरसत्वमेवं वेदितव्यम्। अतो 819रूप---रस---गन्ध---स्पर्शयोगि शरीरं पार्थिवमेव। ज्ञानञ्च विशेषणुण:। कार्यद्रव्य#े च विशेषगुण: कारणगुणपूर्वक एव, रूपादिवत्। न च कारणभूतेषु पार्थिवपरमाणुषु820 ज्ञानमस्ति। तदारब्धे द्रव्यान्तरे घटादावदर्शनात्। चार्वाकमतेन शङ्का-निरासौ। स्यादेतत्---मदशक्तिवच्चैतन्यमपीति। यथा--- 821मदशक्ति: पार्थिवेषु परमाणुष्वसत्यपि तदारब्धे कार्यद्रव्ये सुराख्ये निष्पद्यते, तथा चैतन्यमपि निष्पत्स्यत इति। तन्न। शक्तेरविशेषगुणत्वात्। शक्त्याख्यो हि हि गुण: सर्वद्रव्येषु तत्तत्कार्यविषय: कार्यसमधिगम्योऽभ्युपगम्यते। चैतन्यन्तु न822 देढद्धठ्ठड़14;वादन्यत्र विद्यत इति, विशेषगुणोऽसौ। अपि च द्रव्यान्तरसंयोगादकार्यभूतेषु पार्थिवपरमाणुष्वकारणगुणपूर्वकोऽपि मदशक्त्याख्यो गुणो नाऽनुपपन्न:। तदादब्धे कार्यद्रव्ये सुराख्ये कारणगुणपूर्वक एव। चैतन्यन्तु न प्रत्येकं परमाणुष्वभ्युपगम्यते। तस्माच्छरीरादन्यस्य गुणो ज्ञानमिति, देहव्यतिरिक्तपुरुषानुमानं द्रष्टव्यम्।विज्ञानवादिमतेन शङ्का-निरासौ। 823स्यान्मतम्---गुणत्वमेव 824ज्ञानस्या सिद्धमिति। 825तन्न। द्रव्याश्रितत्वात्, निर्गुणतया च संयोगविभागौ प्रति निरपेक्षकारणत्वाभावेन गुणत्वसिद्धे:। न च वाच्यं द्रव्याश्रित826त्वमेवाऽप्रसिद्धमिति। कार्यत्वात्। न हि कार्यं 827किञ्चिदद्रव्यारितमात्मानं लभते। एवं सुखादिभ्योऽपि देहातिरिक्तपुरुषानुमानं वेदितव्यम्। अहङ्कारावलम्बनेन पुनर्देहात्मवादप्रत्यवस्थानम्। नैतदेवम्। "घटमहं जानामी"ति 828ज्ञातुरहङ्कारास्पदीभूतत्वात् "अहं गच्छाम्यहं स्थूल:" इत्यादावढद्धठ्ठड़14;वङ्कारस्य शरीर एव प्रवृत्त्यविवादाच्छरीरमेव प्रत्यक्षं ज्ञातृ प्रतीयते, प्रत्यक्षविरोधे चाऽनुमानमात्मानं न लभत इति। वैशेषिकगुणोऽपि ज्ञानं829नकारणगुणपूर्वकमिति, पार्थिवपरमाणुष्वविद्यमानमपि ज्ञानं शरीरे सम्भविष्यतीति, न शरीरादन्यस्याऽनुमानम्। ननु शरीरस्य चैतन्ये मृतशरीरेऽपि तत् स्यात्। न। तस्य विगुणत्वात्। मरणेन शरीरं विगुणमित्यविवादम्। ननु ममेदं शरीरमिति देहातिरिक्तेऽढद्धठ्ठड़14;वङ्कारो निविशते। न। अभेदेऽपि 830भेदोपचारोऽयं "शिलापुत्रकस्य शरीरमि"तिवत्। अन्यथा ममाऽऽत्मेत्यपि 831व्यवदेशादात्मान्तरमप्याश्रीयेत। येऽपि च सुखादय:, ते "चाहं सुखी"त्यहङ्कारविषयसम्बन्धि832तयाऽवगम्यमानाश्शरीरसमवायिन एव, अतो न तद्व्यतिरेकिणमात्मानमनुमापयितुमीशते। शरीरविकारहेतुत्वाच्च तेषां सुतरां शरीरगुणत्वम्1 833न ह्यतद्गुणस्तं गुणिनं विकर्तुमुत्सहते।। विक्रियते हि शरीरं 834नयनविकासमुखप्रसादरोमहर्षादिभि:। सुखादिषूत्पन्नेषु तत्र शरीरे विकार्ये विकारं प्रति समवायिकारणभूते, तत्प्रत्यासन्नेनैवाऽसमवायिकारणेनाऽपि भवितु युक्तम्। न च शक्यं वक्तुं सुखादिमदात्मसंयोग एव शरीरसमवेतेषु विकारेष्वसमवायिकारणमस्त्विति, प्रमाणाभावात्। सिद्धे ह्यात्मनि स्यादेषा कल्पना, साध्ये त्वव्यवहितानामेव कारणतोचितेति, न देहातिरिक्तात्मानुमाने सुखादीनां 835सामथ्र्यम्। तन्निरास:। अत्रोच्यते---स्यादेतदेवं यदि देहातिरिक्तो नोपलभ्यते ज्ञाता। "घटमहमुपलभ" इति घटस्याऽनुभविता शरीरातिरिक्त: प्रतिभासते। शरीरं हि करचरणाद्यवयवयोगि836। न च घटाद्यनुभवसमये तस्याऽवभासोऽन्वयी। अवश्यञ्च ज्ञातुरवभासो मेयानुभवेष्वनुवर्तत इत्यास्थेयम्। अन्यथा स्वपरवेद्ययोरनतिशयप्रसङ्गात्837। "अहं गच्छामी"ति प्रतिपत्तिसमयेऽपि प्रतिपत्ता शरीरातिरिक्त: 838प्रतिपत्तृस्वभावो गन्तारं देहं प्रतिपद्यमान: प्रतीयत एव। तत्र लाक्षणिकोऽहंशब्दानुविद्धस्तु शरीरे प्रत्यय:। ममाऽऽत्मेत्यत्राऽपि लाक्षणिकश्शरीर एव ममकार:। यसतु चेतन:, तत्राऽस्मच्छद्वो मुख्य:। न च शरीरं चेतनम्, 839चितिसमवायाभावात्। शरीरातिरिक्तवस्त्वन्तरसमवायिनी हि चेतना चकास्ति। नन्वात्मधर्मभूता चेच्चिति:, तर्हि विषयासंस्पर्शिनी कथं प्रतिविषयं विभज्यते। उच्यते---प्रतिभाससिद्धा तावच्चेतनसमवायिनी चिति:। अनागता---तीतसंवेदने च व्यक्तमेव विषयानाश्रितत्वम्। प्रतिकर्मप्रविभागस्तु 840व्यवहारानुगुणस्वभावत्वाच्चिते:। यद्व्यवहारानुगुणाया चिति:, तदीयाऽसौ व्यपदिश्यत इति, न किञ्चिद्धीनम्। प्रत्यभिज्ञोपन्यास:। नन्वेवं प्रथमदर्शनेऽपि देहाद्व्यतिरेके सिद्धे "ऽन्येद्युर्दृष्टेऽपरेद्युरहमिदमद्राक्षमि"ति प्रत्यभिज्ञोपन्यासोऽनर्थक:। उच्यते---व्यतिरेकसिद्धावपि स्थिरतया क्रियावत्त्वसिद्धये ।प्रत्यभिज्ञोपन्यस्ता। अस्थिरत्वे हि तत एव कादाचित्ककार्यसिद्धे:,तत्सिद्धये न क्रियानुमानं क्रमते। अक्रियस्य कर्तृतवम्, भेक्तृत्वञ्च 841काल्पनिकं स्यात्। कर्ता भोक्ता च यज्ञायुधिवाक्येनाऽऽक्षिप्तस्समर्थयितव्य इति, उपयुक्त: प्रत्यभिज्ञोपन्यास:। यदा चाऽयमात्मा प्रत्यभिज्ञायते, तदा 842योऽसौ चिदात्मा तस्य धर्म:, नाऽसौ तन्मात्रप्रभव: कदाचिदुदियात्। सदा सन्निहितकारणकं हि कार्यं न काद#ाचित्कं भवेत्। कारणासन्निधाननिबन्धनो हि 843कार्योदयव्याक्षेप:। तस्मादयमात्मा समवायिकारणभूत: किञ्चिदसमवायिकारणभतमपेक्षते। तत्र केचित्--- 844ज्ञानलक्षणं व्यापारान्तरं तत्समवेतमेवाऽसमवायिकारणमाहु:। 845तत्त्वनुपपन्नमिति मन्यामहे। यतस्तस्याऽपि किञ्चिदसमवायिकारणमनुसरणीयम्। तच्च वरं चितेरेवाऽस्तु, तच्चाऽऽत्ममनस्सन्निकर्षाख्यम्। तस्य चाऽसमवायिकारणं 846मनस एव परिस्पन्द:। तस्याऽप्यात्ममनस्सन्निकर्षान्तरमात्मसमवेतं प्रयत्नम्, अदृष्टं वाऽपेक्षमाणमसमवायिकारणम्। प्रयत्ना-दृष्टयोश्चाऽऽत्म-मनस्सन्निकर्षान्तरमेवेति, अनादिरेषा कार्यकारणपरम्परा बीजाङ्कुरवदिति वेदितव्यम्। मनसस्स्वीकारे प्रमाणोपन्यास:। मनसोऽभ्युपगमे च सकलात्मगुणोदय एव प्रमाणम्। बुद्धि-सुख-दु:खे-च्छा-द्वेष-प्रयत्ना-दृष्ट-संस्काराणां नवानामपि 847वैशेषिकात्मगुणा7ना848 मात्ममनस्संयोगेनैवोत्पत्ते:। तत्र बुद्धिस्स्वसंवेदनसिद्धा प्रमिति-स्मृतिरूपा। सुख-दु:खेच्छा-द्वेष-प्रयत्नास्तु मानसप्रत्यक्षवेद्या:। न च दु:खाभावमात्रं सुखम्। दु:खाभावस्य 849सुखानुपलम्भरूपत्वात्। 850तद्वियुक्तात्मोपलब्धेरेव दु:खानुपलम्भरूपत्वात्, अत्मोपलम्भातिरिक्तसुखोपलम्भाच्च। संस्कारस्य तु स्मृतिलक्षणमेव कार्यं 851गमकम्। अनुभूतविषय एव स्मृतिर्भवतीत्यनुभवाधीनं852 कञ्चिदात्मनोऽतिशयमुपकल्पयति। अदृष्टन्तु धर्माधर्मलक्षणमागमैकगम्यम्। न च केवलादात्म-मनस्सन्निकर्षादेव रूपाद्यवगम:, अन्धादीनामभावादिति, चक्षुरादीनि बहिरिन्द्रियाण्यङ्गीक्रियन्ते। पञ्चधा च बाह्यरूपाद्युपलम्भलक्षणकार्यव्यवस्थापनात्पञ्च चक्षुरादीनि कल्प्यन्ते। मन:प्रभृतीनि षडिड्डत्ध्;न्द्रियाणि यस्मिन्नायतन्ते, तदिन्द्रियायतनं शरीरम्। शरीरत्रैविध्यनिरूपणम्, उद्भिज्जशरीरस्य निराकरणञ्च। तच्च---जरायुजा-ण्डड्डत्ध्;ज-संस्वेदजभेदभिन्नं त्रिविधम्। उद्भिज्जन्तु शरीरं न भवत्येव। 853भोगानुपलम्भात्, तदायतनं हि तत्प्रयोजकम्, वृक्षादिकस्येन्द्रियायतनत्वे प्रमाणाभावात्। 854यदपि--- "।श्मशाने जायते वृक्ष: कङ्कगृध्रनिषेवित:"।। इति 855निषिद्धाचरणफलत्वस्मरणादुद्भिज्जं शरीरमवभाति856। तदप्यनुपपन्नम्। 857तस्मिन्नंशे प्रमाणाभावात्। स्मृतेर्निर्मूलतया मुख्यार्थत्वानुपपत्ते:। न च वेद एव मूलमवकल्पते, अकार्यार्थत्वात्। 858नञ्विधे: निषिध्यमानानुष्ठाने प्रत्यवाय इत्यत्राऽऽर्थे "गमकत#्वाभावात्। यद्यपि शंय्वधिकरणझ्र्मी. द. 3.4.10.ट सिद्धान्तपर्यालोचनया निषिद्धादपि कुतश्चित्प्रत्यवायोदय:, तथापि वृक्षादिरूपशरीरफलताऽवसातुं न शक्यते, फलतयाऽन्वयायोग्यत्वात्। यस्य ह्यन्वययोग्यत्वमवधारितम्, तस्य वाक्यार्थानुप्रवेशित्वम्, यस्य 859त्वन्वययोग्यत्वासम्भव:, तस्य 860वाक्यार्थानुप्रवेशिताऽपि नास्ति, "वढिद्धठ्ठड़14;नना सिञ्चेदि"तिवत्। यस्तु वेदे तथाभूतार्थप्रयोग:, स गौण:, लाक्षणिको वा वर्णनीय इति, अत्राऽपि गौण्या, लक्षणया वा वृत्त्या वर्णनीयम्। अतस्त्रिविधमेव शरीरम्। 861यत्पुनरपार्थिवमयोनिजं शरीरं केवलधर्माधिपत्यनिबन्धनं कैश्चिदभ्युपगम्यते, तत् सर्वशरीराणां पार्थिवत्वाव्यभिचारान्नाऽनुमातुं शक्यते। मनोनिरूपणम्। सर्वशरीरेषु मन:, त्वक्चाऽविशिष्टमिन्द्रियद्वयम्। मनश्चाऽन्तश्शरीरं परमाणुपरिमाणम्। तत् खलु द्रव्यभूतं संयोगगुणभागितयेष्यते। द्रव्यञ्च द्विविधम्---अनेकद्रव्यम्, अद्रव्यद्रव्यञ्चेति। तत्र मनसोऽनेकद्रव्यत्वे कल्पनागौरवम्, आरम्यारम्भकद्रव्याभ्युपगमप्रसक्ते:। अद्रव्यद्रव्यत्वेऽपि 862परममहत्वाभ्युपगम आत्मना सह 863संयोगासम्भव:। न हि 864परममहतोरपरिस्पन्दयोरनवयवयोश्च संयोगोपपत्ति:। ।त्रिविध एव संयोग:---अन्यतरकर्मज:, उभयकर्मज:, संयोगजश्चेति। तस्मात् 865परमाणुपरिभाणं मन:। तच्च सदकारणत्वान्नित्यम्। आशुतरसञ्चारिचतत्, आशुतरेन्द्रियाधिष्ठानदर्शनात्। न हि तदनधिष्ठितमिन्द्रियं स्वविषयमवसाययितुमलम्, अन्यत्र व्यासक्तचित्तस्य विषयान्तराप्रतीते:। तस्य मनसोऽनादिर्धर्माधर्मापेक्ष: क्षेत्रज्ञेन सह संयोग:, देहान्तरसंयोगश्च तस्माददृष्टाप#ेक्षादात्ममनस्सन्निकर्षादुत्पन्नस्य कर्मण: प्रसादेन। सोऽयमात्मा भोक्ता, भोगायतनं---शरीरम्, भोगसाधनानि---इन्द्रियाणि, भोग्या:---सुखादय: आन्तरा:, बाह्याश्च पृथिव्यादय:, भुक्तिश्च---वित्ति:---सुखदु:खानुभव:, इति पञ्चसु विधासु सर्वं तत्त्वं परिसमाप्यते। आत्मनि प्रमाणनिरूपणम्। केन पुन: प्रमाणेनाऽस्याऽऽत्मन: प्रमिति:,866 अप्रमीयमाणत्वे चाऽस्य सत्तोपगमो निर्निबन्धन:। तते केचिदाहु:---मानसं प्रत्यक्षं सुखादिष्विवाऽऽत्मनि प्रमाणमिति। तदयुक्तमिति प्राभाकरा:। न ह्येकस्य कर्तृत्वम्, कर्मत्वञ्च स्वापेक्षमुपपद्यते, स्वात्मनि क्रियावृत्तिविरोधात्। न चाऽहमिति संविद्वशेनाऽविरोध:, स्वयम्प्रकाशत्वेन, विषयप्रतीतिगोचरत्वेन व#ा तदुपपत्ते:। विषयैस्सहोपलम्भनियमश्चैवं सत्युपपन्न:। अन्ये मन्यन्ते---स्वप्रकाशाय हि प्रमाणमप्रकाशस्वभावेषु विषयेष्व पेक्ष्यते, प्रकाशस्वरसे स्वात्मनि प्रकाशापेक्षा मुधैव, संवित्तिवत्। संवित्तेस्स्वप्रकाशत्वविचार:। प्रमाणफलभूता हि संविंत्तिरवश्यं स्वयम्प्रकाशाऽभ्युपगमनीया। अन्यथोत्पन्नायामपि तस्यामप्रकाशमानायां विषयाणां विदितत्वावेदने विदितत्वव्यवहारो न स्यात्, न च वाच्यं व्यवहारयोग्यतैव विषयेषु पुरुषस्य संवित्, सा व्यवहार उत्पन्ने फलेनाऽनुमीयते। यतो व्यवहारप्रवृत्तेरपि पुरस्ताद्विदितत्वं विषयाणामनुसन्धीयत इति 867सर्वजनसम्मतमेतत्। नाऽपि मानसप्रत्यक्षसमधिगमनीया संवित्। स्वयम्प्रकाशत्वेनाऽप्युपपत्तौ सत्याम्, तत्कल्पनायां प्रमाणाभावात्। विषयेषु हि स्थायिषु स्वयम्प्रकाशेष्वभ्युपगम्यमानेषु स्वापादिदशा: पुरुषाणामनुपपन्नास्स्यु:। संविदि तु स्वयम्प्रकाशायां नैष दोष आपद्यते, स्वापादिषु तस्या एवाऽसत्वात्। विषयास्तु प्रत्यभिज्ञाबललब्धस्थेमान: पुरुषाणां स्वापादिदशायामपि न सन्तीति न शक्यमभिधातुम्। ततस्ते परायत्तप्रकाशा:। संवित्तिस्तु स्वयम्प्रकाशेति, सिद्धो दृष्टान्त:। 868स्वयम्प्रकाशस्य सत्तोपगमो न प्रमाणान्तरायत्त:। एवञ्च तुरीयेऽपि प्रकाशो नोपरमते। अत एव च मोक्षस्य 869पुरुषैर्नेष्येत। एतदपि प्रामाणिकाग्रगण्या न साध्वित्याहु:। स्वरसप्रकाशत्वे पुरुषस्य जाग्रत्स्वप्नतुरीयेष्विव सुषुप्तावपि प्रकाशापत्ते:, स्वापस्तेभ#्यो न भिद्येत। न हि स्वारसिकस्योच्छेद:, आवरणं वा सम्भवति। 872यत्विदं केनचित्प्रलप्यते-स्वारसिकमपि पार्थिवानामणूनां श्यामत्वं पाकपदावेदनीयेनाऽग्निसंयोगेन निवर्तत इति। तदसत्। यदकृतकं तत्सर्वमविनाशि दिगादिवत्। अकृतकश्च श्यामिमा पार्थिवानामणूनामित्यनुमानग्रस्तत्त्वान्नाऽऽदरणीयम्। स्वारसिकता च पार्थिवानामणूनां श्यामतया न सिद्धा, लौहित्यस्येव तस्याऽपि पाकजत्वोपगमात्। सदकारणत्वमेव 873नित्यत्वम्। अकारणमपि चेदनित्यम्, न नित्यलक्षणं 874किञ्चिदवकल्पते। स्वमतनिरूपणम्। तत्त्वविदस्त्वाचक्षते---नाऽऽत्मा विषयाननुविद्धोऽवभासते, न च विषया बोद्धर्यनवभामाने भासन्त इति तावत् सिद्धम्। तत्र यदेतत् विषयेषु प्रामाणम्, तज्जनितैव या संवित् सा पुरुषं, स्वविषयांश्च विषयीकुर्वन्ती समुदीयते। तत्संवित्तिफलभागित्वेऽपि पुरुषस्य न कर#्मता, किन्तु कर्तृतैव गन्तृवत्। यथा---गमनफलसंयोगयोगिनोऽपि875 गन्तुर्न कर्मता, किन्तु कर्तृतैव, तथा बोद्धुरपि वेदितव्यम्। परसमवायिक्रियाफलयोगि हि कर्मेति कर्मज्ञा:। अतएव च सहोपलम्भनियमोऽपि 876विषयवेत्तृसंवित्तीनामुपपन्न:। एवञ्च विषयवित्तिगोचरत्बादात्मनो विषयवेदनोपायोपरमात्877 स्वापादिष्वप्रकाशो युक्त एव878। तुरीयेऽपि सम्भूतसकलोपलम्भोपाय आत्मा 879सन्मात्रावस्थ एवाऽवतिष्ठते। दु:खनिवृत्तिरेव मोक्ष इति स्वमतवर्णनम्। न च मोक्षस्याऽपुरुषार्थता, सांसारिकविविधदु:खोपरमरूपत्त्वान्मोक्षस्य। दु:खोपरमो हि पुरुषैरथ्र्यते। न चेदं युक्तम्---यथा निखिलदु:खोपरमरूपत्वात् परमपुरुषार्थत्वम्, तथा 880सकलसुखोच्छेदरूपत्वादपुरुषार्थताऽपीति। यत: सांसारिकं सुखं विवेकिनस्साधनपरतन्त्रलक्षणतया, 881क्षयितालक्षणतया च दु:खकवलितं दु:खमेवेति मन्यमना नाऽऽत्यन्तमाद्रियन्ते। अत 882एव मोक्षायोत्तिष्ठन्ते। एवञ्च 883परमानन्दाभ्युपगमोऽपि मन्दफल एव। न च प्रमाणमपि 884तत्राऽवकल्पते, श्रुतीनां सिद्धवस्तुबोधकत्वाभावात्, प्रत्यक्षविरोधश्च। न संसरन्तस्तथाविधमानन्दमनुभवन्ति। न चाऽभिभूततयाऽननुभव:। स्वारसिकस्य स्वयम्प्रकाशस्याऽऽनन्दस्याऽभिभवायोगात्। न च परमप्रेमास्पदतयाऽऽत्मन 885आनन्दरूपतासिद्धि:, आत्मनि प्रेमासिद्धे:। शरीरोपघाति हि दु:खोदयात्तदुपघातपरिहारं सर्वे प्रार्थयन्त इत्यात्मनि प्रेमाभिमान:। किञ्च संसारिणां स्वारसिक: परमानन्दो नाऽनुभूतपूर्व इति, कथं तन्निबन्धनमात्मनि 886प्रेम। अतो विषयविशेषसम्भोगज887 एवाऽऽनन्द इति सुन्दरम्। मोक्षस्तु सांसारिकदु:खोपशमात्पुरुषार्थ इति पुष्कलम्। मण्डड्डत्ध्;नमिश्रमतानुवाद:। ।क: पुनरेष मोक्ष: ? अविद्यास्तमय इति केचित्। यत् एकमेवाऽद्वितीयमसंसृष्टं सकलोपाधिपरिशुद्धं ब्रह्मतत्त्वम्, तत् अनाद्यविद्यावशेन शरीरादिसद्वितीयमिवोपाधिकलुषितमिवाऽवभासमानं887 लब्धजीवव्यपदेशं सत्, बद्धमिव 888लक्ष्यते। अतोऽनाद्यविद्यैव संसार:, निखिलविकल्पातीतपरिशुद्धविद्योदयात् तदस्तमय एव मोक्ष इति। तन्निरास:। 889तदिदं श्रद्धामात्रविजृम्भितमिति890 प्रमाणपरतन्त्रा:। स्यादेतदेवं यद्यद्वैतं कस्यचित्प्रमाणस्य गोचर:। न चैतदित्थम्, न खल्वद्वैतं कस्य चित् प्रमाणस्य गोचर:। स्यान्मतम्, प्रत्यक्षमेव विधिमात्रोपक्षीणव्यापारमपरिस्पृष्टान्योन्यभेद891मद्वितीयमेकं तत्त्वं साक्षात्करोतीति। तदसत्---सत्यं विधायकमेव प्रत्यक्षम्। तच्च विदधदपि 892रूपं रूपतया, रसञ्च रसतया विदधाति, न पुनस्सर्वमेकता, 893यथा रूपे 894धारावाहिनी बुद्धि:, तथाभूतैव यदि रसेऽपि स्यात्, तदा भवेदेव प्रत्यक्षेण895 साक्षात्कृतमद्वैतम्। न त्वेतदेवमिति सर्वप#्रतिपत्तृस्वसंविदितम्। यच्च प्रमेयविकल्पेन सामान्यमेव वस्त्विति स्थापयित्वा, सत्ताया महासामान्यरूपत्वात् तावन्मात्रमेव सत्त्वमिति साधितम्। तदपि गगनग्रासकल्पम्। सत्त्वं न विशेषमात्रं वस्तु, सर्वत्रा।नवृत्तप्रतिभासप्रवेदनीयस्य सामान्यस्याऽपढद्धठ्ठड़14;वोतुमशक्यत्वात्। नाऽपि सामान्यव#िशेषात्मकमेकं896 वस्तु, एकस्य द्वेरूप्यविरोधात् सामान्यविशेषौ तु परस्परसम्बद्धे द्वे वस्तुनी प्रत्यक्षमवगाहते, तथा च कुतस्सत्ताद्वेतसिद्धि:। 897यथा च सामान्यविशेषयोर्जातिव्यक्त्योरिह प्रत्ययो नास्तीति, तथा जातिनिर्णये झ्र्प्र.पं.पृ. 50ट निर्णीतम्। 898न चाऽऽगमादेवाऽद्वैतसाधनम्। तन्न। आगमस्य कार्यैकविषयतया सिद्धे तत्त्वे प्रामाण्यानुपपत्ते:899। अपि च वाक्यात्माऽऽगम: प्रमाणमिष्यते। 900तच्चाऽनेकपदात्मकमनेकपदार्थात्मनि वाक्यार्थे धियमुपजनयत्, कथमद्वैतमवभासयेत्। अथेदमुच्यते "स एष आदेशो नेति नेती" झ्र्बृ. उ. अ. 3. ब्रा. मं. 6.टति 901सकलोपाधिनिषेधेन नानाभूतवस्त्वन्तरापाकरणादद्वैतमागमेन साध्यत इति। तदप्यसारम्। य: खल्वेष इति सद्रूपतया प्रत्यवमृष्ट: पदार्थ:, सोऽसत्त्वापादकेन902 नञर्थेन सह सम्बद्धुमयोग्य:, अस्ति नाऽस्तीतिवत्। अन्वयायोग्ययोश्च पदार्थयोरन्वयासम्भवान्न वाक्यार्थीभवनम्। 903एवन्तर्हि निराकृतानि सर्वाण्येव निषेधवाक्यानि। मन्द 904मैवं परिभावय। न हि निषेधवाक्येषु कस्यचिदात्यन्तिको निषेध:, किन्तु क्वचित्किञ्चिन्निषिध्यते। 905ब्रह्माद्वैताभिमानी तु भवानात्यन्तिकमेव निषेधमभिलषति। 906तथा च सोऽयमात्मीय एव बाणो भवन्तं प्रहरत#ि--- "907लब्धरूपे क्वचित्किञ्चित्तादृगेव निषिध्यते। विधानमन्तरेणाऽतो न निषेधस्य सम्भव:" ।। झ्र्ब्र. सि. त. कां. श्लो. 2ट इति। अत: प्रत्यक्षादिविरुद्धार्थत्वादद्वैतावबोधक आम्नायो न 908यथाश्रुतो वर्णयितुं न्याय्य:। 909यत्विदं प्रपञ्चेन प्रसाधितं910 --- प्रत्यक्षादिविरोधेऽप्यागमस्यैव911 बलीयस्त्वम्, तद्वशेन प्रत्यक्षादीनामेव भ्रान्तता कल्पनीयेति। 912तदपि मनोरथमात्रम्। प्रत्यक्षादिविदोधे पदार्थानामन्वययोग्यताविरहादागमादर्थबोधस्यैव तद्विरोधेऽनुदयात्। अत: प्रत्यक्षादिविरोधादागमे गौणी, लाक्षणिकी वा वृत्तिराश्रयितव्या913। आनन्दादिश्रुतीनां स्वमतेन व्याख्या। 914तत्राऽऽनन्दादिश्रुतयस्स्वाभावकिदु:खाभावपरतया वर्णनीया:, लौकिकानन्दस्याऽल्पतया, दु:खानुषक्ततया च व्याख्येया:। एकत्वश्रुतयश्चैकस्मिन्नायतन एकस्यैव स्वामित्वमित्येवम्परा:। "915इन्द्रो मायाभि: पुरुरूप ईयते" इति, देहात्माभिमानेन जन्मनि जन्मनि भिन्न इवाऽऽभातीत्यर्थ:। अनेकदेहपरिग्रहेऽप्येक एवाऽऽत्मेति नानात्वनिषेधस्याऽर्थ:। "स916 एष नेत्येष नेती" ति च शरीरादीनामात्मत्वनिषेधस्तद्व्यतिरिक्तप्रतिपत्तिपर:। विज्ञानश्रुतयश्च 917चिच्छक्तियोगित्वाद्व्योमादिभ्यो विशेषाभिधानपरा:। सर्वात्मश्र#ुतयश्च सर्वस्याऽऽत्मार्थत्वात् तादथ्र्यनिमित्तोपचारा:918। 919"आत्मनि विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवती" झ्र्बृ. उ. 4अ. मै. ब्रा.ट ति यदुच्यते, तत् आत्मज्ञानस्य परमपुरुषार्थमोक्षफलत्वात्, तस्मिन् विज्ञाते सर्वमेव ज्ञानं निष्फलमिति दर्शयितुमित्येषा दिक्। 920अथोच्येत---वित्तेर्भिन्नस्याऽप्रकाशात्मन: प्रकाश एवाऽनुपपन्न इति। यद्यत् प्रकाशते, तत् तत् प्रकाशादभिन्नम्, प्रकाशात्मकञ्च ब्रह्म। अतो ब्रह्मात्मकं जगदिति सिद्धमद्वैतमिति। 921तदिदं स्वपक्षविरुद्धम्। कथमेवं बुद्धिमन्तोऽभिदधति। एवं हि नानाभूतानामाकाराणां प्रकाशाभेदे प्रकाशस्याऽपि नानाभावापत्तेरद्वैतं दूरमपास्तम्। 922अथोच्येत---विविधोऽयमाकारप्रपञ्चोविद्याध्यासवशादवभासत इति। एतदपि स्ववचनविरुद्धम्। सदात्मा प्रकाश:, तेन सहाऽसदात्मान आकारास्तावदभिन्ना इति न घटते। तथा सत्यप्रकाशात्मानस्ते कथमिव प्रकाशेरन्। अपि चाऽप्रकाशात्मन एव 923प्रकाशस्सम्भवतीति 924बाह्यार्थसिद्धावुक्तम्। अत एषोऽपि माहायानिकपक्षानुप्रवेशात्925 ब्रह्मवादिनां मोह एव। अपि चाऽत्यन्तमसन्तं प्रपञ्चं कथमिवाऽविद्या प्रकाशयितुमलम्। न खल्वसत्ख्यातिरविद्या926, किन्त्वग्रहणरूपैवेति927 नयवीथ्यां 928साधितम्929। अतो नाऽविद्यास्तमयो मोक्ष:। स्वमतेन मोक्ष-तत्साधननिरूपणम्। 930आत्यन्तिकस्तु देहोच्छेदो निश्शेषधर्माधर्मपरिक्षयनिबन्धनो मोक्ष इति ।युक्तम्। धर्माधर्मवशीकृतो हि जीवस्तासु तासु योनिषु संसरति। स तयोरेकान्तोच्छेदे व्यपगतदेहेन्द्रियसम्बन्धस्समुत्खातनिखिलसांसारिकदु:खानुबन्धो मुक्त इत्युच्यते। 931कथं पुनरशेषधर्माधर्मंपरिक्षय:। न तावदुपभोगेनैव। अनादिशरीरसन्ततिसञ्चितानां, भोगसमयेऽपि सञ्चीयमानानामनन्तानां कर्माशयानां क्षेप्तुमशक्ते:। उच्यते---य: खलु सांसारिकेभ्यो दु:खेभ्य उद्विग्न: तदनुषङ्गशबलेभ्यश्च सुखेभ्योऽपि विगतस्पृहो मोक्षायोत्तिष्ठते, स तावद्बन्धहेतुभूतेभ्यो निषिद्धेभ्य: प्रत्यवायहेतुभूतेभ्य:, काम्येभ्योऽभ्युदयसाधनेभ्यश्च निवर्तमानस्सन्नुत्पन्नपूर्वौ धर्माधर्मौ भोगेन क्षयं नयन्, शम-दम-ब्रह्म-चर्यादिकाङ्गोपबृंहितेनाऽऽत्मज्ञानेन932 "न स पुनरावर्तते" झ्र्छा. उ. अ. 8ट इत्यपुनरावृत्तये चोदितेन निश्शेषकर्माशयं नाशयनम् मुच्यते। न चाऽपुनरावृत्तेरर्थवादतया वर्णनम्, आत्मज्ञानस्याऽपरार्थत्वात्। परार्थत्वे हि पर्णमयी।न्यायेन फलश्रुतिरर्थवादतया वण्र्येत। ज्ञानविधेरपाराथ्र्ये तु सैवाऽधिकारिविशेषणं रात्रिसत्रवत्।। न च कर्मविधिशेषभूतमात्मज्ञानम्, तस्या।#़परार्थत्वात्, परार्थत्वे प्रमाणाभावात, 933उपकारलक्षणशेषत्वनिराकरणादित्यलमतिविस्तरेण। स्वमतेनाऽऽत्मपरिमाणनिरूपणम्। ननु मुक्तस्याऽत्मनस्सकलोपलम्भातीतस्य934 सन्मात्रावस्थितौ किं प्रमाणम् ? उच्यते---सदकारणञ्च यत्, तदविनाशि गगनवत्। सदकारणश्चाऽयमात्मेत्यविनाशित्वाद्ध्रुवत्वसिद्धि:935। परममहत्त्वञ्चाऽऽत्मन: परिमाणं गगनवत्। यत्र यत्राऽऽत्मनो गुण उपलभ्यते, तत्र तत#्र तावदात्म वर्तत इति प्रमाणसिद्धम्। गुणिनमन्तरेण गुणस्याऽवृत्ते:। तत्र ह्येष संशय:---किमसौ गत्व सन्निधीयते, उत गतिनिरपेक्ष एवेति। तत्र गतिसव्यपेक्षत्वाश्रयणे गतेस्तावत्कल्पना, तस्याश्चाऽसमवायिकारणं कल्पनीयम्। न च तत्र किञ्चन प्रमाणमस्ति। अगच्छतोऽपि सन्निधानोपपत्तेर्गगनवत्। अथोच्येत यत्राऽपि देहोन वर्तते, तत्राऽपि चेदात्मा सन्निधीयते, तदा शरीर इव तत्राऽपि तद्गुणानामुपलब्धिस्स्यादिति। तन्न। यतस्सर्वात्मगुणानामात्म-मनस्सन्निकर्षोऽसमवायिकारणम्। स च संयोगो 936द्विष्ठतया मनो937-विरहेणाऽन्यत्र न वर्तते। मनश्च शरीरस्याऽन्तरवतिष्ठत इत्युक्तम्938। यत्रैव चाऽसमवायिकारणम्, तत्रैव कार्यमिति न बहिरात्मनो गुणोपलम्भ:। नन्वेवं शरीरस्याऽपि गतिकल्पनमप्रमाणकमेव। न। तस्यैकत्र सतोऽन्यत्र दर्शनप्रसङ्गात्। आत्मनस्तु सतोऽपि सकलकरणपथातीतस्य दर्शनप्रसक्तिरापादयितुमशक्येत्यगत्या सर्वसयोगिभिरात्मा संयुज्यते। तत्तु परममहत्त्वमन्तरेण न सम्भवतीति नाऽणुपरिमाण:, शरीरपरिमाणो वा।शरीरपरिमाणवत्त्वञ्च विना सावयवत्त्वमनुपपन्नम्। तादृशं हि महत्त्वं-अवयवबहुत्वमहत्त्व-प्रचयविशेषाणामन्यतमस्मिन्नायत्तम्। न चाऽवयवकल्पना प्रमाणवती। ननु सर्वगतत्वे पुरुषस्य शरीरान्तरेऽपि भोगप्रसङ्ग:। मैवम्। यस्य यच्छरीरं, तस्य तद्भोगायतनम्, यानि च यस्येन्द#्रियाणि, तानि तस्य भोगसाधनानीति, नाऽऽयतनान्तरे भोगप्रसङ्ग:। आत्मनो विभुत्वे भोगसाङ्कर्यशङ्का-समाधाने। ननु शरीरेन्द्रियसम्बन्धव्यवस्थैव किन्निबन्धना। उच्यते---धर्माधर्मसम्बन्धनिबन्धनेति भवानवबुद्ध्यताम्। यदीयाभ्यां धर्माधर्माभ्यां यानि शरीरन्द्रियाण्युपात्तानि, तानि तस्यैव भोगसाधनानीति। धर्माधर्मव्यवस्थैव किमायत्तेति चेत् ? तदुपायभूतकर्मसम्बन्धायत्ता939। कर्मसम्बन्धव्यवस्था तु तत्समवायिकारणभूतशरीरेन्द्रियसम्बन्धनिबन्धनेत्यनादितया शरीरेन्द्रियधर्माधर्मसन्ततेस्सर्वमुपपन्नम्। आत्मैकत्वशङ्का-निराकरणे। ।आढद्धठ्ठड़14;व---विभुत्वञ्चेदात्मन:, तदा सर्वशरीरेष्वेक एवाऽऽत्माऽस्तु940 गगनवत्। यथा गगनमेकमेव घट--मणिकादितत्तदनेकसम्बन्धि, तथाऽऽत्मापि किं नाऽभ्युपेयते, किं प्रतयायतनं भेदाभ्युपगमेन। उच्यते---यस्तावत्प्रतिपत्ता परायतनस्वामिनं स्वप्रयत्नपूर्वकात्मीयशरीरसमवेतकर्मसमानचेष्टादर्शनादनुमानत: प्रत्येति942 प्रयत्नवत्तया, नाऽसौ तं ग्राहकैकरसतया, किन्तु ग्राह्यकोटिनिविष्टमनात्मभूतमेव। तेन 943प्रतीतिसिद्धत्वाद्भेदस्य, अलं भेदाभ्युपगमेनेति वचनमकिञ्चित्करम्। न हि 944परायतनस्वामिनि स्वमित्येवमनुमानमुदेतुमलम्। यथा मम शरीरे मदीयप्रयत्नपूर्विका चेष्टा, तथा परशरीरेऽपि मत्प्रयत्ननिबन्धनैवेति प्रत्यक्षविरोधात्। प्रत्यक्षेण हि स्वात्मनि समवयन्प्रयत्न उपलभ्यते। न च परशरीरचेष्टानुगुण: प्रयत्नस्स्वात्मनि पुरुषाणां प्रत्यक्षीभवतीति, पर एव प्रयतिता परशरीरेऽनुमीयते। नन्वेवमनुमानेन परात्मप्रतीतौ, कथमिदमुच्यते "अगृह्यो न हि गृह्यते" झ्र्बृ. उ. अ. 4. ब्रा. 2 ख. 4ट इति। परेण न गृह्यत इत्येतदभिप्रायमेतद्भवतीत्युच्यतेग्राहकैकरसतया परेण न गृह्यत इति तस्याऽर्थ:, तस्मान्न विरोध:। किञ्च नानाव्यवस्थाना नानाभूता: प्रतिक्षेत्रं पुरुषा: 945धर्मा-धर्म-सुखदु:खादिव्यवस्थादर्शनात्। अन्यथा ह्येकस्य धर्मा-धर्मादयस्सर्वस्य भवेयु:। ब्रह्मसिद्धिकृतो मतेन शङ्का। 946अत्र कश्चित्पण्डिड्डत्ध्;तमानी प्राऽऽह---काल्पनिकी सुखदु:खादिव्यवस्था भविष्यति। यथैकस्मिन्नेव शरीरे पादादिवेदनाव्यवस्था न व्यतिकीर्यते, तथा नानाशरीरेषु न व्यतिकरिष्यत इति। न हि पादगता वेदना शिरसि, न वा शिरोगता वेदना पादे। न च वेदना पादादिष्वेव समवैतीतिशक्यते वक्तुम्, तेषामज्ञत्वात्। ज्ञाता हि वेदनाभिस्सह सम्बध्यते, दु:खविशेषरूपत्वात् तासामिति। तन्निरसनम्। तदिदं बालजनमोहनमिति ।वृद्धा:। "पादे मे वेदना, "शिरसि मे वेदने"ति सर्ववेदनास्वेको दु:खी प्रकाशते। पादादिषु तु सन्तापादिकं समवैति। 947तत्र सन्तापस्तेजसा सह संयोग:, शूलस्तु वायुवा सहेति वातपित्त---श्लेष्मणां क्षोभजेषु सर्वेषु विकारेषु वेदितव्यम्। अचेतनानामपि पदादीनां पित्तादिसंयोगो न विरुध्यते। 943तज्जन्यं दु:खमात्मन्येव समवैति। अथोच्येत---यथा प्रतिबिम्बभाव एकस्यैव 949बिम्बस्य मणिकृपाणदर्पणाद्युपाधिवशेन, व्यवस्थितानि च श्यामत्वादीनि, तथैकस्याऽऽत्मनो नानाशरीरोपाधिवशेन सुखादयो व्यवतिष्ठन्त इति। तदयुक्तम्---श्यामत्वादीनामौपाधिकानामुपाधिवशवर्तित्वाद्विम्बसम्बन्धाभावात्। तेनैकधर#्मिधर्माणां सतामेषा व्यवस्था सम्भवति। सुखादयस्तु नौपाधिका:, किन्त्वात्मसमवायिन एवेत्येकात्मवर्तित्वेन950 व्यवस्थानुपपत्ति:। किञ्च सिद्धे व्यक्तमेकत्वे स्यादप्येषा कल्पना, न951 चाऽऽत्मैकत्वे प्रमाणमस्ति। एकपुरुषश्रुतयश्च प्रागेवोपवर्णितार्था इति, सिद्धं प्रतिक्षेत्रं नानाभूता: पुमांस इति। 952नानाविवादसन्दर्भतमस्सङ्घातभेदन:। एव शालिकानाथेन तत्त्वालोक: प्रवर्तित:।। इति महामहोपाध्यायश्रीशालिकनाथमिश्रप्रणीतायां प्रकरणपञ्चिकायां तत्त्वालोको नामाऽष्टमं प्रकरणं समाप्तम्।

न्यायशुद्धिर्नाम नवमं प्रकरणम्। सम्पाद्यताम्

अपौरुषेये सम्बन्धे शब्द: प्रामाण्यमृच्छति। स च नित्यत्वसिद्धौ स्यादिति तत्प्रतिपाद्यते ।। 1 ।। यद्युच्चरितमात्रविनाशी शब्दो भवेत्, तदा तस्य वृद्धव्यवहारेण स्वाभाविकी स्वार्थाभिधानशक्तिरवसातुमशक्या। भूयोभूय: प्रयोगदर्शने हि तत्तदस्वार्थपरिहारेण निष्कृष्य स्वार्थाभिधानसामथ्र्यमवधार्यते। न चोच्चरितमात्रापवर्गिणश्शब्दस्य पुन: पुन: प्रयोगदर्शनमुपपद#्यते। स्वार्थाभिधानसामथ्र्यानवधारणे च प्रथमश्रुत इव शब्दो नाऽर्थमवबोधयितुमलम्955। अर्थञ्चाऽनवबोधयत: प्रामाण्यमयुक्तमिति, शब्दस्य प्रामाण्यमिच्छता युक्तमभिधानस्य नित्यत्वस्थानमिति सप्रयोजनमिदम्। ननु क्षणिकत्वेऽपि वर्णानां 956गत्वादिविषयवृद्धव्यवहारपूर्वकमेव सम्बन्धाध्यवसानमुपपद्यते, किं नित्यत्वस्थापनयत्नेन। उच्यते---न प्रत्युच्चारणं भिन्नेषु वर्णेषु गत्वादिकं कल्पयितुं शक्यते, भेदाग्रहेणाऽपि शुक्तिकार957जतबोधवदभेदप्रत्ययाभिमानोपपत्ते:। यत्र हि भेदमध्यवस्यत एवाऽभेदज्ञानम्, तत्राऽन्यथानुपपत्त्या सामान्याश्रयणं घटते। न चाऽनित्यत्ववादिनोऽपि958 वर्णेषु प्रत्युच्चारणं साक्षाद्भेदाध्यवसानं सम्मतम्। ननु च युक्तं शुक्तिकारजतादिषु भेदाग्रहणादभेदव्यवहार इति सामान्यासम्भव:, नेदं रजतमिति बाधकप्रत्ययोदयात्, इह तु सासान्योपपत्तेभ्र्रान्तिकल्पना निष्प्रमाणिकैव, नाऽयं गकार इति बाधकाभावात्। उच्यते। न बाधकमात्रायत्तैव भ्रान्तिकल्पना, किन्तु कारणदोषायत्ताऽपि। दृष्टञ्चाऽतिसादृश्याद्भेदाग्रहणाद् भ्रन्तित्वमिति, साक्षादनुपजातेऽपि बाधके, युक्तमेव भ्रमावधारणम्। अतो न गत्वादिस्तत्र सम्भवति। 959अभिव्यञ्जकवैधम्र्यादभिव्यक्तेरसम्भवे। प्रयत्नानन्तरं दृष्टेरभिधानं प्रयत्नजम् ।। 2 ।। 960किञ्च पुरुषप्रयत्नानन्तरं हि श्रवणं शब्दस्य द्वेधाऽवकल्पते---प्रागजातत्वादनुपलब्ध:, प्रयत्नेन जनित उपलभ्यतामापद्यते, अनभिव्यक्तत्वाद्वाऽभिव्यज्यत इति। तत्र न तावत्---प्रयत्नस्य शब्दं प्रत्यभिव्यञ्जकत्वं सम्भवति। 961आवरणापायेन किञ्चिदभिव्यज्यते,सन्निधानेन 962वा। न च शब्दस्याऽऽवरणमुपपद्यते। इन्द्रिसम्बन्धप्रतिबन्धेन ह्याऽऽवरणं कुडड्डत्ध्;्यादिना घटादेरुपलब्धम्। न च शब्दस्येन्द्रियसम्बन्ध: प्रतिबन्धुं शक्यते, नित्यत्वात्। उत्पत्तिनिरोधो हि प्रतिबन्ध:। न चाऽसौ नित्यस्योपपद्यते। आकाशो ढिद्धठ्ठड़14;व श्रोत्रेन्द#्रियं शब्दवत्त्वात्, शब्दोपलम्भकतया च शब्दवत्त्वं चक्षुर्वत्। यथा---चक्षू रूपोपलम्भकं रूपवत्, तथा श्रोत्रमपि शब्दवत्। आकाशश्च शब्दवानिति स एव श्रोत्रम्, तद्गुणश्च शब्दस्तस्मिन्नित्यसमवेत इति, न तस्याऽऽवरणसम्भव:। अतस्तदपनयेन नाऽभिव्यक्ति:। अत एव सन्निधानस्याऽसम्भव:, नित्यसन्निधानादभिव्यङ्यस्य। किञ्च---अभिव्यञ्जकास्समानदेशस्थानेकेन्द्रियाग्राह्यान् युगपदेवाऽभिव्यञ्जयन्ति, रूपादीनिव प्रदीपादय:। रूपम्, परिमाणम्, संख्येति सर्वं सकृदेव प्रदीपादभिरभिव्यज्यते। अतस्सर्वशब्दोपलम्भो दुर्निवार एव। किञ्चआकाशविशेषगुणत्वाच्छब्दस्य, एकत्वादाकाशस्य स्रुघ#्नस्थेनाऽभिव्यक्त: पाटलीपुत्रस्थेनाऽप्युपलभ्येत। सर्वदा चोपलम्भोपरमो न स्यात्। अथ श्रोत्रेन्द्रियसंसकर एव शब्दस्याऽभिव्यक्तिरिष्यते, न सोऽपि घटते, क: खल्विन्द्रियस्य संस्कार:---न तावदुन्मीलनवदावरणापगम:, पूर्ववदावरणासंभवात्। नाऽऽप्यालोकेनेवाऽऽप्यायनं963 चाक्षुषस्य रश्मे: कोष्ठ्यानां वायूनाम्, आकाशस्य चाऽवयवसंयोगासम्भवात्964। "सकृच्च संस्कृतं श्रोत्रं सर्वशब्दान् प्रकाशयेत्। घटायोन्मीलितं चक्षु: पटं न हि न 965बुध्यते।।" झ्र्श्लो. वा. श. अ. श्लो. 60. 61ट इति। तस्मादभिव्यञ्जकत्वेऽनुपपन्ने, यदि 966प्रयत्नकारणकोऽपि न स्यात्, तदा तदपेक्षोपलब्धिर्न सम्भवेत्। तेनेदमनुमानं प्रयोक्तव्यम्---शब्द: पुरुषप्रयत्नोत्पाद्यस्तदनभिव्यङ्ग्यत्वे सति तदनन्तरोपलब्धे:, यो यदनभिव्यङ्यस्तदनन्तरोपलभ्य:, स तस्योत्पाद्य:, यथा-घट:कपालव्यापारस्येति। केन पुन: प्रकारेण प्रयत्नेन शब्द उत्पाद्यते। तत्र 967केचिदाहु:---पुरुषप्रयत्नोदीरितैर्वाय्ववयवैस्स्थानविशेषाभिधात968 - संस्कारसंस्कृतैस्सर्वतोदिक्कैस्संयोगाख्यासमवायिकारणानुगृहीतैश्च स्वसमवेत: शब्द आरभ्यते। वायोश्च गतिमत्त्वात्, तदारब्धश्शब्दोऽपि गतिमान् कर्णशष्कुलीमण्डड्डत्ध्;लावच्छिन्नेन नभसा श्रोत्रभावमापन्नेव संयुक्तस्सन्नुपलभ्यते। वेगाख्यसंस्कारनिबन्धना च वायोर्गतिरिति, तदपगमे गतिविच्छेदाद् दूरे यच्छोत्रम्, तत्राऽप्रत्यासन्नत्वाच्छब्दो न श्रूयते। न 969चैतदुपपद्यते---वायवीयश्चेच्छब्दो भवेत्, स्पर्शनेन बधिरैरुपलभ्येत। स्यान्मतम्--- 970अभिभूतत्वात् स्पर्शनेनाऽनुपलब्धिरिति। तन्न। प्रत्यक्षोपलब्ध्यर्हत्वात्971। यदि ह्यसावभिभूत:, तर्हि श्रोत्रेणाऽपि नोपलभ्येत। न च वाच्यं न स्पर्शनेन्द्रियग्राह्योवायुरिति। तदनुविधानेन तदवगते:। अथ मतम्---स्पर्शमात्रं स्पर्शनेन्द्रियेणोपलभ्यते, न वायुद्रव्यमिति। तन्न---स्पर्शव्यतिरेकेऽपि972 द्रव्यस्य प्रत्यभिज्ञायमानत्वात्973। अन्ये 974त्वाहु:---संयोगाद्विभागाद्वाऽऽद्यश्शब्दो निष्पद्यते। यथा ताल्वादिवायुसंयोगानुगृहीताद्वाय्वाकाशसंयोगादाकशे शब्दस्सञ्जायते, तथा ताल्वादिवायुविभागोपकृताद्वाय्वाकाशविभागादाकाश एव शब्दश्शब्दान्तरमारभते, तदपि शब्दान्तरमिति कर्णशष्कुलीमण्डड्डत्ध्;लावच्छिन#्ने नभसि श्रोत्रभावमापन्ने निष्पन्नश्शब्दश्श्रूयत इति। 975नानाभावे प्रयत्नस्य नानाभावोपलम्भनात्। वैलक्षण्ये च शब्दस्य वैलक्षण्येन कार्यता ।। 3 ।। किञ्च---अभिव्यङ्ग्यश्चेत् प्रयत्नेन शब्दो न प्रतियत्नं भेदेनोपलभ्येत। न खल्वभिव्यञ्जकप्रदीपभेदेऽपि नानाभावेन भावानामुपलम्भ:। कारकभेदस्तु कार्यभेदहेतुरिति 976संप्रतीत:। अतश्शब्दस्य प्रयत्नो जनयितेति निश्चीयते। यथा कारकवेकलक्षण्यानुविधायिनी कार्यवैलक्षण्यसिद्धिरविहता, तथा वैलण्येऽपि चाऽभिव्यञ्जकस्याऽभिव्यङ्यवैलक्षण्यं न सम्भवति। शब्दस्तु प्रयत्नस्य मृदुत्वे, बलवत्त्वे च मृदुर्बलवांश्चोपलभ्यमानस्तत्कार्यतां न जहातीति। सिद्धान्त:। 977शब्दे तत्प्रत्यये स्पष्टे नानाव्यञ्जककल्पनात्। उपलब्धिव्यवस्थानमुपपन्नं भविष्यति ।। 4 ।। यदि शक्ष्यामश्शब्दस्य स्पष्टं प्रत्यभिज्ञानमुपदर्शयितुम्, तदा प्रयत्नस्य कारकत्वे निषिद्धे, अभिव्यञ्जकत्वे च स्थिते, उपलब्धिव्यवस्थानं व्यञ्जकबहुत्वेन वर्णयिष्याम:। श्रोत्रमेव संस्क्रियते, तत्संस्कारकता च----तदभिव्यज्जकता। कोष्ठ्यो हि वायु: प्रयत्नवद#ात्मसंयोगादुद्गच्छति978। स 979नाभेरुद्गच्छन्नुर:- प्रभृतिष्वष्टसु स्थानेष्वभिघातेतन संस्कृतो यावद्वेगमभिप्रतिष्ठमानश्श्रोत्रमनुप्राप्तश्शब्दोपलम्भानुगुणं संस्कारमारभते। तत्संयोग एव श्रोत्रसंस्कार:। वेगवत्त्वाच्च वायो:, कर्मोत्पत्तौ श्रोत्रविभागात् संयोगोपरमे, शब्दस्याऽनन्तरमुपलम्भविच्छेद:। प्रयत्नभेदाच्च वायुकर्मभेदादुर:प्रभृतिस्थानसंयोगान्यत्वाव्यवस्थया शब्दश्रवणम्। शब्दोत्पत्तिवाद्यप्युत्पादकभेदमनुमन्यत एव, अन्यथा कार्यभेदासम्भावात्। यत्तूपवतिर्णतं---यथोन्मीलनसंस्कृतं चक्षुर्न समानदेशस्थानुपलभ्यान् व्यवस्थयोपलम्भयतीति। तदयुक्तम्---तत्रैकत्वादभिव्यञ्जकस्य। एकेमेव ह्युन्मीलनं सर्वोपलम्भानुगुणनेत्रसंस्कारारम्भकमिति, कुत उपलब्धिव्र्यवतिष्ठताम्। इहत्वेकत्वं संस्काराणामसिद्धम्। नन्वभिव्यङ्ग्यस्यैकेन्द्रियग्राह्यत्वे, अभिव्यञ्जकस्यैकतैव प्राप्नोति। ये समानेन्द्रियग्राह्या:, तेषामेक एवाद्यभिव्यञ्जक:। यथा---आलोको घटादीनाम्। एकत्वे चाऽभिव्यञ्जकस्योपलब्धिव्यवस्था नोपपद्यते। अतोऽभिव्यञ्जकत्वासम्भवे, कारकत्वे व्यवस्थिते, भेदाग्रहणनिबन्धनैव प्रत्यभिज्ञेति न्याय्या कल्पना---इति। अत्रोच्यते। एकेन्द्रियग्राह्यताऽपि भवेत्, अभिव्यञ्जकभेदोऽपि भवेदिति, किमनुपपन्नम्। स्वाभाविकी हि यस्य सम्बन्धव्याप्ति:, तस्य लिङ्गत्वम्। 980आशङ्क्यमानाशेषोपाधिपरिहारेण हि स्वारसिकसम्बन्धव्याप्तिनिश्चय:। इह तु न शक्यते निर्णेतुं---किमेकेन्द्रियग्राह#्यतया घटादीनाम्, तद्गतरूपादीना ञ्चैकोऽभिव्यञ्जक:, उत रूपिद्रव्यत्वात्, तत्समवायित्वाच्चेति। अतोऽनवधारितसम्बन्धव्याप्तिकमेकेन्द्रियग्राह्यत्वं नाऽभिव्यञ्जकैक्यानुमानसमर्थम्। अतोऽभिव्यज्जकत्वेऽपि प्रयत्नस्योपलब्धिव्यवस्थोपपत्ति:। ननु स्थिरवाय्वपनय एव संस्कार:। अपनीते च तस्मिन्, सर्वशब्दोपलब्धिर्दुर्निवारा। उच्यते---नाऽवरणानयनं 981तस्याऽभिव्यञ्जकम्, वायुना शब्दावरणासम्भवात्, किं 982त्वदृष्टसापेक्षेण। एञ्चाऽपनेतृकाष्ठ्यवायुभेदात् 983स्थिरवायुविभागलक्षणसंस्कारभेदादुपपन्नैवोपलब#्धिव्यवस्था। अपि च न वयं स्थिरवाय्वपनयं संस्कारमाचक्ष्महे, किन्तु कोष्ठ्यवायुसंयोगमेव, प्रथमभावित्वात्। किमिति तर्हि भाष्यकारेण "स्तिमितानि वाय्वन्तराणी" त्युक्तम् ? कोष्ठ्यस्य वायोर्वेगविनाशार्थम्। 984स्पर्शवद्द्रव्यसंयोगाद्वि वेगविनाशोऽन्यत्र प्रतीति इति, इहाऽपि तदर्थमेव स्थिरवायुकीर्तनं985 भाष्ये। ननु चैकत्वादाकाशस्य, तस्य च श्रोत्रत्वात् तत्संस्कारे, सर्वपुरुषेन्द्रिय संस्कारात् सर्वेऽपि शब्दमुपलभेरन्। नैषदोष:। 986धर्मा-धर्मोपार्जितकर्णशष्कुलीभेदात्। कर्णशष्कुलीसंस्कारो हि श्रोत्रसंस्कार:, भिन्नाश्च प्रतिपुरुषं कार्णशष्कुल्य इति, असंस्कृतकर्णशष्कुलीको न शब्दमुपलभते। अनुवातञ्च 987दूरत एव शब्दमुपलभते। बाह्यवायुनोदनानुगृहीतस्य कोष्ठ्यवायुवेगस्य दूरगमनहेतुत्वात्। शब्दाच्छब्दान्तरारम्भपक्षे तु नाऽनुवातस्य कश्चिदुपयोग:। अभिव्यज्जकनानात्वाच्छब्दो नानेव लक्ष्यते। नेत्रवृत्तिविभेदेन चन्द्रस्तैमिरिकैरिव ।। 5 ।। स्पष्टे तद्ग्रहे नानाभावोपलम्भश्शब्दे तावदसिद्ध एव। किन्तु परस्परनिरपेक्षैरभिव्यञ्जकै: कोष्ठ्यवायुभिर्नानावक्तृसमुत्थैर्नानाभूतैर्भिन्नं श्रोत्रसंस्कारमारभमाणैर्नानाभूतशब्दबुदिं्ध जनयद्भिर्नानेव शब्दो बुध्यते, चन्द्र इव तिमिरविभिन्नाभिर्नेत्रवृत्तिभि:। नानादेशोपलम्भे हि सर्वेषां भ्रान्तिसम्मति:। कर्णच्छिद्रगतस्यैव शब्दस्य श्रवणं यत: ।। 6 ।। यदुच्यते---कार्यत्वे शब्दस्य कारणदेशभेदान्नानादेशोपलम्भ988 इति। तदयुक्तम्। यद्यपि कृतकश्शब्द:, तथापि संनिकृष्ट-विप्रकृष्टयोर्युगपच्छब्दोपलम्भप्रसङ्गेन प्रतिवाता-नुवातयोश्चाऽविशेषापत्तेर्नेन्द्रियं प्राप्तस्योपलम्भकम्। प्राप्तावपि नेन्द्रियं शब्ददेशमुपसर्पति, प्रतयक्षत्वाच्छोत्रदेशे कर्णशष्कुल्या: प्रतिवाता-नुवातयोश्च तुल्योपलम्भापत्ते:। शब्दे तु श्रोत्रपथं प्राप्त उपलभ्यमाने देशभेद: प्रतीयते। अतो भ्रन्तिरेषा-नानादेशेषु शब्द उपलभ्यत इति। किन्निबन्धना भ्रान्ति:। अभिव्यञ्जकदेशनिबन्धनेति ब्रूम:। ताल्वादिस्थानाघातसापेक्षो989 हि कोष्ठ्यो वायुरभिव्यनक्ति। अतो वक्तृदेशोऽपि भवत्यभिव्यञ्जकदेश:। तेन शब्दं श्रृण्वतस्तदभिव्यज्जकदेशोऽपि तदविनाभावोपकल्पितो बुद्धिस्थो भवति। शब्दाभिव्यक्तिविशेषेण च दूरा-सन्नत्वे तस्य कल्प्येते। प्रत्यक्षोपलभ्यमानवक्तृविषये च शब्दश्रुतिविशेषे दिग्विशेषो नियतमवधारित:, अतो दिग्विशेषकल्पनाऽपि। यस्तु न तथा विवेक्तुमलम्, तस्याऽभिव्यञ्जकदेशं प्रति व्यामोहो दृश्यत एव। एवञ्चेन्द्रियाणां स्वानुभवासमर्थत्वाच्छोत्रगतशब्दोपलम्भे तद्देशाग्रहणात्, तदुच्चारणप्रदेशस्य प्रतीयमानत्वात्, तद्गतत्वप्रतिपत्तेश्च, तत्तद्देशगतशब्दप्रतिपत्तिव्यवहारं प्रवर्तयतीति990 घटत एवेयं भ्रान्ति:। वैलक्षण्यं स्वभावने वर्णानां न च सम्मतम्। नादाल्पत्व-महत्त्वाभ्यां तथात्वभ्रान्तिसम्भवात् ।। 7 ।। स्पष्टे तद्ग्रहे प्रयत्नस्तावद्वर्णानां जनको नेति स्थिते, तदनन्तरोपलम्भनियमेन991 चाऽभिव्यञ्जकत्वे निर्णीते, अभिव्यञ्जकवृद्धिढद्धठ्ठड़14;वासयोश्चाऽभिव्यङ्ग्यवृद्धिढद्धठ्ठड़14;वासहेतुत्वाभावान्न शब्दो वर्धते, ढद्धठ्ठड़14;वसते वा। किन्तु बलवति प्रयत्ने महान् वायुरुत्पद्यते, 992तस्य#ाऽवयवा भूयांस: कर्णशष्कुलीमण्डड्डत्ध्;लस्य नेमिभागैर्बहुभिस्सम्बध्यन्ते। ततश्चाऽभिव्यज्जकसंयोगबहुत्वात्, युगपदुपलम्भकबहुत्वात्, तेषाञ्च विच्छेदाग्रहणान्महानिव शब्दोऽवभाति, तरूणामन्तरालाग्रहणादिव महद्वनम्। यदा ते वाय्ववयवास्सहसा, विलम्बेन वा संयुज्यन्ते, तदोपलम्भोऽपि द्रुत:, विलम्बितो वा। यदा त्वेषामुच्चारणे ताल्वादीनां संवृतत्वं भवति, तदा तदनुरोधेन वर्णोपलब्धिरपि एकमात्राकालैव भवतीति, ढद्धठ्ठड़14;वस्ववर्णव्यवहारसिद्धि:। यदा 993विवृततरत्वम्, असंवृतत्वं वा ताल्वादीनामेव सम्पद्यते, तदा वर्णप्रतीतेरपि मात्राकालवृद्ध्या द#ीर्घवर्णव्यवहारसिद्धि:, वृद्धव्यवहारे तदनुरोधेनाऽप्यर्थाभिधानदर्शनात्, तथैव प्रतिपादकत्वमप्याश्रीयते। न चैवमभिधानस्याऽनित्यत्वदोष, तदुपाधिविशिष्टस्य वर्णस्य वाचकस्याऽनित्यत्वात्1 अतो वर्णानुपूव्र्यनित्यत्वे न कश्चिद्दोष:। आनुपूर्वीविशेषभाजां वर्णानांवाचकभूतानां नित्यत्वात्। ननु 994क्षणिका शब्दस्याऽभिव्यक्तिरिति, कथं तद्ग्रहणसम्भव:। उपलब्धे हि घटादिभावे तद्वशेन पूर्वानुभवाहितसंस्कारप्रबोधेन "स एवाऽयमि"ति प्रत्यभिज्ञोदीयते। शब्दे पुनरुच्चरित-तिरोहिते, पुनरुत्तरकाले कथं प्रत्यभिज्ञोदय इति। तत्राऽह--- नाऽवश्यं तद्ग्रहेणैव तत्संस्कारप्रबोधनम्। तेन हेत्वन्तरोद्बुद्धात् संस्कारात्तद्ग्रहोदय: ।। 8 ।। यदि ह्ययं नियम:--तदुपलम्भ एव तत्संस्कारोद्बोधहेतुरिति, ततो नोपपद्यते शब्दे प्रत्यभिज्ञा। संस्कारास्त्वनियतोद्बोधहेतव इति, कारणान्तरवशेनोद्बुद्धात् संस्कारात् प्रथमसमागमसमय एव शब्दे प्रत्यभिज्ञा भविष्यति। ननु "स एवाऽयं गकार:" इति 995प्रतीतिस्तद्ग्रह:, न पुनर्भेदाग्रहणादिति, कथमेष निर्णय:। दृष्टो हि शुक्तिकायां भेदाग्रहात् "तदेवेदं रजतमि"ति प्रत्यय:---इति। तत्राऽऽह--- 996भेदे मानं यदा नाऽस्ति शुक्तिका-रजतादिवत्। तदा प्रतीतिसंसिद्धस्तद्ग्रह: केन वार्यते ।। 9 ।। स्पष्टे हि शुक्तिका-रजतयोर्भेदावसायिनि प्रमाणे, सादृश्याद्भेदानवबाधादभेदप्रतीतिरिति कल्प्यते। शब्दे तु न प्रत्यक्षसिद्ध: प्रत्युच्चारणं भेद:। कथं न सिद्ध:। ननु महत्त्वा-ल्पत्वाभ्यां विभिन्नो वर्ण उपलभ्यते। नैत-देवम्। महत्त्वा-ल्पत्वे प्रतियतोऽपि, वर्णप्रतीते महत्त्वा-ल्पत्वे एव भिन्ने अवभात:, न वर्णा:। न वाऽऽनुमानेनाऽपि भेदोऽवगन्तुं शक्यत इति प्रागेव निवेदितम्। अतो भेदे प्रमाणाभावात्, अभिन्न एवाऽयं भिन्नावभास इति, साक्षात्प्रतीतिबलनैवाऽवस्थापितम् ।। 9 ।। ननु च तद्ग्रहबलेनैवाऽनुमानं निरस्तम्। निरस्ते चाऽनुमाने, तद्ग्रह इतीतरेतराश्रयमिति। तत्राऽऽह--- अनुमाननिरासेन 997तद्ग्रहत्वं प्रसाध्यते। स्वयं प्रतीतिसिद्धत्वाद् भ्रान्तिशङ्का तु वार्यते ।। 10 ।। भेदाग्रहनिबन्धनेयं भ्रान्तिरिति शङ्का केवलानुमाननिरासेनाऽपनीयते। प्रतीतिबलसिद्धस्तु तद्ग्रहो न कारणान्तरमपेक्षत इति, कथमितरेतराश्रयता। ननु किमिति तद्ग्रहबलाज्ज्वालायामपि भेदानुमानं न निराक्रियतइत्यत आह--- ज्वालाभेदं विना 998भासां विततिर्नोपपद्यते। भेदाज्ञानेन सादृश्यात् प्रत्यभिज्ञा तु युज्यते ।। 11 ।। अवयवी-ज्वाला। सर्वश्चाऽवयवी स्वावयवसंयोगेन जात:, तद्विनाशेन विनश्यति। तन्तुव्यतिषङ्गजनितो हि पटस्तन्तुविभागे विनाशी दृश्यते। 999प्रभा च गृहोदरादिवर्तिनी तैजसं रूपम्। न च द्रव्याश्रिता रूपादयो द्रव्यं विरहय्य वर्तन्ते। तेन तैजसा: परमाणवो नित्यमभिभूतत्वादनुपलम्भमान अपि, प्रत्यक्षतो यावत्प्रभावितति सन्निधीयन्त इत्यङ्गीकरणीयम्। तेषु च देशान्तरमनुप्राप्तेष्वेतदाश्रयणीयम्-एतेषां संयोगा विघटन्त इति। विघटितेषु तेषु, तदारब्धे द्रव्येऽपि नाशमुपेयुषि, 1000ज्वालादर्शनं ज्वालान्तरदर्शनमन्तरेण नोपपद्यते। भेदाग्रहणनिबन्धना तु प्रत्यभिज्ञा भ्रान्तिश्शुक्तिरजतादिषु दृष्टत्वादुपपन्ना। विना तु शब्देभेदेन न किञ्चिन्नोपपद्यते। उक्तेन नीतिमार्गेण तद्ग्रहोऽतोऽत्र सम्मत: ।। 12 ।। प्रत्युच्चारणं भेदव्यतिरेकेणाऽपि प्रयत्नानन्तरोपलभ्यमानत्वं यथोपपद्यते, तथोक्तमेवेति, अप्रतिपक्षा प्रत्यभिज्ञा। 1001सदसत्कारणत्वेन तस्माच्छब्दस्य नित्यता। एतदेवव हि नित्यत्वं व्योमादिष्वपि सम्मतम् ।। 13 ।। शब्दस्य प्रयत्न एव कारणतया सम्भावित:। स च प्रत्यभिज्ञाबलेनद्विजीयादिदर्शनेष्वभिव्यञ्जकतामापादित इति, प्रथमदर्शंनेऽप्यसावभिव्यञ्जक एव। अत: 1002कारणरहितत्वे 1003सति सत्त्वान्नित्यश्शब्दो गगनादिवत्। 1004तेन नाऽस्याऽनित्यतेति।। एषा शालिकनाथेन शब्दनित्यत्वसाधनी। प्रभाकरगुरोर्दृष्ट्या न्यायशुद्धि: 1005प्रकीर्तिता ।। 14 ।। इति महामहोपाध्यायश्रीशालिकनाथमिश्रप्रणीतायां प्रकरणपञ्चिकायां न्यायशुद्धिर्नाम नवमं प्रकरणं समाप्तम्1006।।

मीमांसाजीवरक्षा नाम दशमं प्रकरणम्। सम्पाद्यताम्


      1007प्रभाकरगुरोर्भावं परिभाव्याऽभिधीयते। मीमांसाजीवरक्षेयं क्षणिकत्वनिराक्रिया ।। 1 ।। अत्र सुगतमतानुसारिण:-क्षणभङ्गिनस्सर्वानेव भावानभिदधति। किं पुनस्तेषां तत्र प्रमाणम् ? न1008 तावत् प्रत्यक्षं क्षणिकतामीक्षितुं 1009क्षमते, स्तम्भादिभावं1010 निपुणतरं निरीक्षमाणस्य क्षणिकत्वाध्यवसायाभावात्। स्यादेषा मनीषा---न क्षणिकता नाम भावस्वभावबह#िर्भाविनी, तेन भावानुभवादेव प्रत्यक्षं क्षणिकतामपि साक्षात्करोतीति। तदिदं मनोरथमात्रं मन्यन्ते मतिमन्त:। तथाहि--- "संविन्निष्ठा विषयव्यवस्थितय:" इति स्थितिरियमविवादा सर्ववादिनाम्। तदियमपि क्षणिकता भावस्य स्वभावभूत सती संवित्तिमधिरोहन्ती तदव्यतिरेकेणव्यवतिष्ठते, नाऽन्यथा। न च तथा संविदमुदीयमानामुदीक्षामाह इति, कुतस्तस्या भावस्वभावान्तर्भाविता ? कुतस्तराञ्च तदवबोधेनाऽवबोध:। अथ मन्वीरन्---क्षणिकता प्रत्यक्षमीक्ष्यमाणाऽपि1011 न निश्चयपथमवतीर्णा तेनाऽगृहीतेवाऽवभाति, तथाऽपि न 1012तस्यां प्रत्यक्ष#ं प्रमाणम्। यत्र हि प्रत्यक्षस्य स्वभावतो विकल्पविहरिणस्तत्--1013पृष्ठभाविना सविकल्पकप्रत्ययेन व्यापारोऽनुगम्यते, तत्र प्रत्यक्षं प्रमाणमिति सौगता:। यत्र च दृष्टमेतदिति प्रत्ययो नोदीयते, न 1014तत्प्रत्यक्षसमधिगतमिति सिद्धान्तध्वान्ताक्रान्ताशयानां वाङ्म#ात्रविलसितमिदम्1015। यदपि केचिदूचिरे---प्रत्यक्षं ज्ञानं क्षणिकं, स्वकालाकलितवस्तुविषयतया क्षणिकतामवगमयतीति। तदपि बालिशभाषितम्। एकक्षणमात्रवर्त्तिता हि क्षणिकता। न तत् प्रत्यक्षेणेदानीमेवेदं 1016वस्त्विति प्रतिपद्यते1017, कालान्तरं प्रत्यौदासीन्यात्1018 प्रत्यक्षस्य। प्रत#्युत प्रत्यभिज्ञालक्षणं प्रत्यक्षमेव क्षणिकतां दूरमुपक्षिपति, पूर्वा-परकालाकलितभावावकल्पनात्। अनुमानमपि सम्बन्धानुसन्धाननिबन्धनं क्षणिकतां न पक्षीकर्तुं क्षमते, तया सह कस्यचिल्लिङ्गस्य सम्बन्धबोधविरहात्। न खल्वप्रतीते सम्बन्धिनिसम्बन्धबुद्धिराविर्भवति। न 1019चेतदुभयातिरेकि प्रमाणं सुगतमतानुसारिणो मन्यन्ते। तदिदमाकाशभ्रान्तमित्यपहसन्ति सौगता:। ते 1020हि स्वभावहेतुकानुमानसमधिगमनीयां क्षणिकतामाचक्षते। किं पुनस्तदनुमानम्। यत् सत्, तत् क्षणिकम्, सन्तश्च सर्वे भावा इति भावमात्रानुबन्धिनि साध्ये स्वभावहेतुर्भवति। यथा---शिंशपात्वं वृक्षत्वे। शिंशपामात्रानुबन्धि हि वृक्षत्वम्। तथेहाऽपि सत्तामात्रानुबन्धिनी 1021 क्षणिकता। कथं पुनस्तन्मात्रानुबन्धसिद्धि: ? विपक्षे बाधकप्रमाणप्रवृत्ते:। अक्षणिकत्वे हि व्यापकानुपलब्धिस्सत्तां बाधते। अर्थक्रियाकारिता हि सत्ता, नाऽपरा काचिदस्ति। सा च क्रम-यौगपद्याभ्यां व्याप्ता, तृतीयकोटिविरहात्1022। अनयो: परस्परप्रतिपक्षतयैकप्रतिषेधस्येतरविधिनान्तरीयकत्वात्। न च क्रम-यौगपद्येऽक्षणिकेषु सम्भवत:। ते तु निवर्तमाने सत्तामपि निवर्तयत:, वृक्षत्वं शिंशपात्वमिव। कथमक्षणिकेषु क्रम-यौगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरह: ? अत्राऽऽहु:--- 1023अक्षणिको हि भावोऽर्थक्रियाजननस्वभावो वा भवेत् ? अतत्स्वभावो वा? नाऽपर: प्रकारोऽस्ति। तत्राऽग्रिमपक्षपरिग्रहे सर्वासामर्थक्रियाणामेकस्मिन्नेव क्षणे कृतत्वात्, कृतस्य च पुन: करणानुपपत्ते:, अनन्तरक्षणेऽर्थक्रियासामथ्र्यशून्यत#्वात्, असल्लक्षणत्वापत्तेरक्षणिकत्वहानि:। द्वितीयविकल्पावलम्बने तु 1024कदाचिदपि ततोऽर्थक्रिया नोदीयत इति, असल्लक्षणत्वापत्तिरेव। स्यान्मतम्---समर्थोऽपि स्वभावतो भावस्सहकारिसमवधानवशेन कदाचित्करोति, तदभावाच्चाऽन्यदा नेति। तदपि विमर्दं न क्षमते। स हि सहक#ारी किञ्चिदारभते, न वा ? तेनाऽऽरभ्यमाणमप्यर्थक्रियासाधनत्वाभिमतभावस्वभावभूतम्, उत--अतत्स्वभावभूतं वेति विकल्पनीयम्। अनारम्भपक्षेऽपेक्षार्थोऽभिधातव्य:। न खल्वनुपकारकं प्रत्यपेक्षाऽर्थवती। अर्थक्रियासाधनत्वाभिमतभावस्वभावभूतस्याऽऽरम्भे च भावस्याऽप#्युत्पत्तिरापतति। 1025न ह्यनुत्पद्यमान उत्पद्यमानस्वभावो भवति, विरुद्धधर्माध्यासस्य भेदादादकत्वात्1026। भावोदयाङ्गीकारे चाऽक्षणिकत्वपक्षपरिक्षय:1027। अतत्स्वभावभूतस्यऽऽरम्भाभ्युपगमे भावस्य प्रागसाधकत्वात्, नाऽक्षणिकात्क्रमेणाऽर्थक्रियासिद्धि:। तत एव बाह्यादागन्तोरर्थक्रियोदेय:, तद्भावे भावात्, तदभावे चाऽभावात्। न च तद्व्यतिरेका---व्यतिरेकाभ्यामन्य: प्रकारोऽस्ति। परस्परविरुद्धयोरेकत्र समवायप्रतीतिविरहात्। ननु क्षणिकोऽपि भाव:---किकर्मक्रियाजननसमर्थस्वभाव:, अतत्स्वभावो ? वेति 1028प्राचीं कल्पनां 1020नाऽतिवर्तते। तत्राऽर्थक्रियाजननसमर्थस्वभावस्य सहकारिव्यपेक्षा न स्यात्। न ह्यसमर्थादर्थादर्थक्रियोदीयते। श्रूयतां परमरहस्यं सौगतानाम्--- 1030अन्त्यक्षणं प्राप्तोऽर्थक्रियाजननसमर्थस्वभाव एव भाव: 1031कार्यमप्येकमेवाऽऽरभते। किमिति तर्हि सहकारिभिर्विनाऽपि न करोति। निरपेक्षस्य जनकत्वे, सहकारिताऽपि तस्य कीदृशीति न करोति। निरपेक्षस्य जनकत्वे, सहकारिताऽपि तस्य कीदृशीति वक्तव्यम्। अत्र वदाम:---यत्तावदिदमुक#्तम्---विनाऽपि सहकारिभि: किमिति न करोतीति। तत्तावत् सुगतमतकौशलविरहविजम्भितम्। क्षणिको हि भावो न सहकारिभिव्रिनाऽस्ति। कथमसन् 1032करिष्यति। यस्त्वस्ति, नाऽसौ स इति, न किञ्चित् क्षीणम्। सहकारिभिर्विना किमिति न भवत्येवेति पर्यनुयोगे, हेतुस्वभावैरुत्तरं वाच्यम्---ते1033 तथा भवन्ति, भावयन्ति चेति। एककार्यकारिता चाऽन्त्यक्षणवर्तिनां सहकारिता। ननु तेऽप्यन्यनिरपेक्षा एव जनका: किमिति न कार्यान्तरमारभन्ते। अत्राऽपि वयमनीशा:---भावास्तु यदारभन्ते, तदारभन्तामित्यनुमन्तुमेव वयं प्रभवाम:। ते चाऽमी जनका अपि 1034सन्तस्तदेव जनयन्तीति, पश्यतामस्माकं तावत्येवाऽभ्युपगम:। नन्वेकेन कृते, अपर: किं करोतीति ? भवेदेतदेवं पर्यायेणाऽर्थक्रियायाम्, सहक्रियायान्तु कृत इत्येव नाऽस्ति। नन्वेवमेकस्मादपि तत्सिद्धे:, किमपरे कृर्वन्ति। नैतदेवम्। न ते प्रेक्षापूर्वकारिण:, येनैवं पर्यालोचयेयु:। अन्योऽपीदं कर्तुमस्माभिरपि विना समर्थ:, वयमिह न प्रभवाम इति। ते तु हेत्वधीनसन्निधाना न भवितुं न क्षमन्त इति काऽनुपपत्ति:। ननु कथमेकं कार्यमनेकस्मादुत्पद्यते। कारणभेद एव हि कार्यस्य भेदे हेतु:, अन्यथाऽऽकसिमकत्वापत्ते:। उच्यते, न सहकारिकारणभेदाद् भेद: कार्यस्य, किन्तु सामाग्रीभेदादिति, 1035हेतुबिन्दौ कृतपरिश्रमाणामनायाससमधिगम्यम्। तस्मान्न क्षणिकत्वेऽप्यक्षणिकत्वपक्षसदृक्षपर्यनुयोगावकाश:। बीजादीनां हि क्षणपरम्परापरिणामेन 1036तादृश: क्षणस्सञ्जायते। यतोऽनपेक्षितहेत्वन्तरप्रवृत्तेरनन्तरमङ्कुरं प्रादुर्भवति। नन्वेवमपि परा-परेषु बीजादिक्षणेषु "तदेवेदमि"ति प्रत्यभिज्ञा नोपपद्यते। अपि च प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षविरोधे कथमनुम#ानमात्मानं लभत इत्यपि न वाच्यम्। 1037आत्मलाभे वा बढद्धठ्ठड़14;नावपि शैत्यानुमानप्रसङ्ग:। समाधिरभिधीयते---ये ते क्षणा:, तेषामात्यन्तिकं भेदं सुसदृशतया दृष्टमपि प्रत्याकलायितुमनीशस्य भेदग्रहणनिबन्धनोऽभेदव्यवहार:1038 प्रवर्तते, शुक्तिकायामिव रजतव्यवहार:। न चाऽनुमानोदयिविरोध:, अर्थक्रियाया अन्यथानुपपत्ते:। प्रत्यभिज्ञा तु भेदाग्रहणेनाऽप्युपपद्यत इति निरवद्यम्। अत एव च वृद्धा वदन्ति--- "भवति च प्रत्यक्षादप्यनुमानं बलीय" इति। युक्तञ्चेदमेव पश्याम:। "तदेवेदमि"त्येकविज्ञानोदये1039 कारणाभावात्1040, इन्द्रियं सन्निहिते व्याप्रियते, न पुन: पूर्वकालसम्बन्धिता-1041रूपां तत्तमुपस्पृशति, पूर्वानुभवभाविता च भावना नेदन्तामपरकालयोगात्मिकाम्---इति। तदिदं ज्वालाप्रत्यभिज्ञानेन व्याख्यातम#्। अपि च कृतकानां भावानामवश्यम्भावी विनाश: प्रतीयते। अतोऽपि शक्या क्षणभङ्गिताऽनुमातुम्। तथाहि---यद्येषां ध्रुवभाविनी, तत्र तेषां हेत्वन्तरापेक्षा नाऽस्ति। ध्रुवभावी च कृतकानां विनाश इति, विरुद्धव्याप्तोपलब्धलिङ्गकमनुमानं विनाशस्य हेत्वन्तरापेक्षितां प#्रतिक्षिपित। ध्रुवभाविता हि निषिध्यमानहेत्वन्तरापेक्षित्वविरुद्धनिरपेक्षत्वव्याप्तोपलब्धा1042 विनाशस्य हेत्वन्तरानपेक्षितामुपस्थापयति। सा च स्वविरुद्धं हेत्वनतरापेक्षित्वं निराकरोति। ये हि हेत्वन्तरपेक्षा:, ते ध्रुवभाविनो न भवन्ति। यथा--- वाससि रागादय:।अतो हेत्वन्तरोपक्षित्वविरुद्धतन्निरपेक्षत्वव्याप्तध्रुवभावित्वस्य योपलब्धि:, सैवाऽध्रुवभावित्वस्याऽनुपलब्धि:। अध्रुवभावित्वस्याऽनुपलब्धे:, विनाशस्य हेत्वन्तरापेक्षा नाऽस्ति। तथा यदि भावा अपि स्वहेतुभ्यो हेत्वन्तरं विनाशं प्रत्यपेक्षेरन्, ततस्तस्य हेत#्वन्तरस्य सन्निधाननियमे प्रमाणाभावात्, कश्चित्कृतकोऽपि न विनश्येत्। स्वहेतोस्तु विनश्वरस्योदयेऽनन्तरमेवाऽपवर्ग इति, क्षणभङ्गुरत्वसिद्धि:। अपि चेदं चिन्तनीयम्, किं कृतका भावास्स्वहेतुभ्यस्समुपजायमाना विनश्वरस्वभावा एव जायन्ते ? अविनाश्वरस्वभावा1043--- वा ? विनश्वर---स्वभावा उदयानन्तरमेव लीयन्त इति क्षणभङ्गिन:। अविनश्वरस्वभावास्तु न कदाचिद्विनश्येयु:। न च हेत्वन्तरात्तेषां 1044विनाश:, विकल्पासहत्वात्। स हि जायमानो वनाशो भावादव्यतिरेकी ? व्यतिरेकी वा। न तावदव्यतिरेकी, हेतुभेदात्। व्यतिरेकिणि तु जाते, भावस्य प्राग्वदुपलब्ध्यादिप्रसङ्ग:। तेन तिरोधीयत इति कल्पनायामपि, तिरोधानं प्रत्येषं विकल्पो वाच्य1045 इत्यलमतिप्रसङ्गेन। एकदेशिमतेन क्षणिकत्ववादनिरास:। अत्र1046 केचिदेवं समादधति--- "तदेवेदमि"ति तत्तेदन्ते परस्परं संवलिते समाकलयदेकं प्रत्यभिज्ञासमाख्यातं प्रत्यक्षविज्ञानं क्षणभङ्गानुमानं निरुणद्धि---इति। 1047न चेदं समीचीनम्। द्वे एते विज्ञाने ग्रहण-स्मरणरूपे यथायथं तत्तामात्रे, इदन्तामात्रे च व्याप्रियमाणे नाऽलमुभयानुभवसम्भवसमयवर्तितामर्थस्याऽवभासयितुम्, प्रतीतिविरोधात्। यर्थैव खल्वभिन्नदेशकालं वस्त्वेकतया चकास्ति, तथा भिन्नदेशकालमप्येकतयैव परिस्फुरतीति, तथाविधसंवेदनोदयश्च नैकविज्ञानमन्तरेणेति, एकमेवेदं विज्ञानमुररीकरणीयम्। कार्यसद्भावोपपादनायाऽप्रतीतमपि कारणं परिकल्पनीयम्, न पुन: कारणमुखनिरीक्षणेन स्पष्टदृष्टकार्यविपर्यय: पर्यालोचनीय:। तेन यद्यपि कवलादिन्द्रियात्, केवलात् पूर्वानुभवसमासादितजन्मनो भावनाभिधानात् संस्काराद्वा नैवंविघमिदं विज्ञानुमुदेतुमर्हति। तथाऽपि तयोरन्योन्यसमवधानसमासादितदशान्तरयोरिदं कार्यमित्याचार्या1048 मेनिरे।। न चेदमप्युचितम्। प्रत्यक्षमेवेवेदं न भवतीति, सत्यपि संस्कारोपयोगे, इन्द्रियव्यापाराधीनजन्मतयाऽस्य प्रथमसमागमसमयभाविनस्सकलवादिनामपहस्तितविवादानां प्रत्यक्षसम्मतादविशेषात्। न चेदं प्रमाणाभासमित्यत्र किञ्चन प्रमाणमस्ति, बाध-कारणदोषविषयसंवेदनान्तरविरहात्। न चेदमेवाऽनुमानं बाधकमिति चित्तमनुरज्यते, परस्पराश्रयदोषसमासक्ते:। यावत्खल्वेतद्विज्ञानमबाधितम्, तावदनुमानमेव नोदेतुं प्रभवति, सञ्जाते चाऽनुमाने बाधितामिदं भवतीति, विशदतरमितरेतराश्रयत्वम्1049। अबाधितविषयता1050 चाऽपि कारणमनुमानोदये, अन्यथा हुतवहे शीतता किमिति नाऽनुमीयते। नन्वेवं तर्हि कथं ज्वालादीनामेकत्वेनाऽवधारितानामनुमानतो भेदसिद्धि:। भाट्टमतेन वस्तुनो द्व्यात्मकतोपन्यास:। अत्र सिद्धान्तसारमुदीरयन्ति---समान्य-विशेषात्मकानि सर्ववस्तूनि। तत्र ज्वालादिषु प्रत्यक्षं सामान्यविषयम्, अनुमानन्तु विशेषविषयमिति, भिन्नगोचरप्रचारिणो: प्रत्यक्षा---नुमानयोर्विरोधाभावात्, न प्रत्यक्षेणाऽनुमानोदयविरोध:। कथं पुनरक्षणिकस्याऽर्थक्रियाकारिता ? क्रमेणेति वदन्ति। स खलु सहकारिसमवधानोपहितविशेषां भावस्तां तामर्थक्रियां क्रमेणैव समपादयति। ननु विकल्पितं-सहकारिभि: किं व्यतिरिक्त:, अव्यतिरिक्ते वा विशेष आधीयत इति, दूषणानि चेह विकल्पयुगले पूर्वमावेदितानि। 1051अत्राऽपि त एव प्रक्रियामनुक्रमयन्ति। नेदमस्मन्मतमेकान्ततोभिन्नन्येव सर्ववस्तूनि, अभिन्नानि 1052वेति, किन्तु सर्वभावेषु भेदा-भेदौ सङ्गिरामहे। तत्र भेदमात्रविकल्पसम्भवीनि1053 दूषणान्यभेदाश्रयणेन परिहृतानि, अभेदमात्राश्रितानि चभेदावलम्बनेनेति। नन्वेतौ भेदा-भेदौ कथमेकत्र विरोधिनौ निविशेते। ।तत्राऽऽहु:--- नेमौ विरोधिनौ, सहदर्शनात्। सहानवस्थानलक्षणो हि विरोध:, अनवस्थानञ्चाऽदर्शननिबन्धनम्। अतो नाऽस्ति विरोध:। तन्निरास:। 1054तदिदमविचारितरमणीयमिति 1055प्रभाकरगुरोर्नाऽनुमतम्। स हि ददर्श---भेदा-भेदावेव तावदेकत्र न सम्भवत:, विरोधात्। न ढिद्धठ्ठड़14;व तयोस्सहदर्शनमुपपद्यते। एकाकारप्रतीतिरेव खल्वभेददर्शनम्, विलक्षणाकारप्रतीतिश्च भेददर्शनम्। तत्र यद्येकाकारा प्रतीति:, तदा विलक्षणाकारप्रतीतिर्नाऽस्ति। विलक्षणाकारे च प्रतीते, एकाकारप्रतीतिरेव नाऽस्ति। तेन भिन्ना-भिन्नविशेषाश्रयणेनाऽर्थक्रियासमर्थनं न घटत1056 इति। न च प्रत्यभिज्ञानेनाऽनुमानविरोध:,1057 प्रत्यभिज्ञाया एव परीक्षणीयत्वात्। दृष्टा---शुक्तिकायां "तदेवेदं रजतमि"ति मति:। सा च सादृश्यवशेन भेदाग्रहणनिबन्धनैवेति युक्ताऽत्राऽपि परीक्षा। तत्र परीक्ष्यमाणस्याऽर्थक्रियानुपपत्त्या क्षणिकत्वे निर्णीते, 1058सदृशपरा---परोत्पत्तिविप्रलम्भोऽयमिति निश्चीयते। भवति च विमृशतोऽपि1059 दिङ्मोहादिष्वनुमानवशेन जाताया अपि प्रतीतेर्विपर्यय:। हुतवहादिषु चौष्ण्यप्रतीतिरुपजाता परीक्ष्यमाणाऽपि नाऽन्यथोपपद्यते इति, न विपर्ययानुमानोदय:। तस्मादलमनेन 1060वञ्चनादर्शनेनाऽतिनिर्बन्धेन1061। सिद्धान्त:। 1062गम्भीरतरगुरुदर्शनसागरपारदृश्वानस्तु सम्प्रति समाधिमभिधति---स्तम्भादिषु प्रथममनुभूतेषु पुनरन्तरा तिरोधानादिवशेन विच्छिन्नोपलम्भेषु पुनरनुभवत: "स एवाऽयमि"ति तावज्जायते मति:। तत्र यद्यर्थक्रिया स्थिरादपि कथञ्चिदुपपद्यते, ततो भेदाग्रहणनिबन्धनोऽयमभेदव्यवहार इति किमिति कल्प्यते। उपपद्यते च स्थिरादपि भावात् सहकारिवशोपजातागन्तुकक्रियादिरूपविशेषभाज: क्रमेणाऽर्थक्रिया। स च विशेषो व्यतिरिक्त एव भावादर्थक्रियाकारिण:। न च स एवाऽर्थक्रियाकारी, भावस्तूदास्त इति चतुरस्त्रम्। तथाविधविशेषालीढतैव तस्य साधनत#ा, यदनन्तरमर्थक्रियोदय:, तद्विशेषयोगितयैव भावेषु साधनतवव्यवहारो लौकिकानाम्। कथं पुनरसौ विशेषस्तस्येति व्यपदिश्यते, तदाश्रयतयैवाऽनुमानात्। कथं पुनस्तदाश्रयतैव। स्वहेतुवशेनेति मतवा निवर्ततां भवात्, अलमस्माभिर्दूरमनुयातै:। अथ कस्माद्भावस्यैव भेदो नाऽनुमीयते, प्रत्यभिज्ञानानुगुण्यादिति वदाम:। दृष्टानुसारि चाऽनुमानमुचितम्, दृष्टोपपत्तिमुखत्वात्। यथा चाऽर्थक्रिया दृश्ते,1062 तथेदमपि दृश्यते स्थावरो भाव इति, तदनुगुणमनुमानमुचितम्। तेन स्थावरेऽप्यर्थक्रियाव्यापकक्र-यौगपद्यानिवृत्तेरसिद्धो व्यापकानुपलम्भ:, 1063तदसिद्धौ च विपर्यये बाधकाभावात्, असिद्धतन्मात्रानुबन्धिनीं क्षणिकतां न सत्ता साधयितुमलम्, अनैकान्तिकत्वादिति। न चाऽर्थक्रियाकारितैव सत्ता, किन्तु 1064प्रमाणसम्बन्धयोग्यता। यतस्स्वरूपसत्ता च प्रमाणसम्बन्धयोग्यता। अतोऽर्थक्रियामकुर्वन्नपि सन्निति, न किञ्चिदवद्यम्। यत्त्विदमुदितमनपेक्षा भावा विनाशं प्रति---इति। तदपि विमृश्यमानं 1065 दह्यमानं जातुषमिवाऽऽभरणं विलीयते1066। कं खलु भवन्तो विनाशमभिमन्यन्ते ? प्रध्वंसाभावो विनाश इति चेत्---क: पुन: प्रध्वंसाभाव: ? "दध्नि क्षीरं नाऽस्तीस्त्ये" वमादिका भावविषया स#ंविदिति वद्युच्येत, तदाऽमृतकलायामुदिता नीतिरुद्धरणीया1067। न हि नाऽस्ती"ति बुद्धिरस्ति। किन्तु दधिस्वरूपमात्रानुभव एव स्वयम्प्रकाशे नञ्शब्दप्रयोगमात्रमेव, सैव हि पयसो नास्तिता, या दृश्येऽपि तस्मिन् दधिस्वरूपमात्रोपलब्धि:। न च तां प्रति पयस एव निरपेक#्षस्य हेतुता, अनुपनिपतिते हेत्वन्तरे, पयस एवोपलब्धे। न चेदं पयोनतरमुपलभ्यत इति शक्यं वक्तुम्। प्रत्यभिज्ञानस्याऽभेदसाधकत्वात्। ननु च हेत्वन्तरापेक्षित्वे ध्रुवभाविता नोपपद्यते। ध्रुवभाविता नोपपद्यते। ध्रुवभावितैव कुतोऽवगम्यते ? दर्शनादिति चेत् ? ह#ेत्वन्तरेणाऽप्यवश्यं भवितव्यमिति, दर्शनादेवाऽवगम्यताम्। न च बाला वयं1068 येनैवंविधवादाद् भीषयामहे। यत्पुनरिदं स्वहेतुभ्यो भावानामपि नश्वराणामुत्पत्तौ, हेत्वन्तरायत्ते विनाशे, व्यतिरेकिणि जातेऽपि पूर्ववत् भावस्योपलब्ध्यादिप्रसङ्ग इति। अत्रोच्यते---उक्तमस्माभि:---यथा तन्मात्रोपलब्धिरेव विनाश इति। तेन तस्या हेतुसद्भावात् तयैव भवितव्यम्। अनुपलब्धिरपितस्य सैवेत्यनुपलब्धिरेव तस्य नोपलब्धि:, तन्निबन्धनश्चाऽभावव्यवहारोऽपीति सर्वमनाकुलम्। सुगताशीविषविषमक्षणभङ्गविषानलावलीढसाया:। मीमांसायां विहिता1069 मर्ममयी जीवरक्षेयम् ।। 1 ।। इति महामहोपाध्यायश्रीशालिकानाथमिश्रप्रणीतायां प्रकरणपञ्चिकायां मीमांसाजीवरक्षा नाम दशमं प्रकरणं समाप्तम्।।

सवृत्तिवाक्यार्थमातृका नाम एकादशं प्रकरणम् सम्पाद्यताम्

प्रथम: परिच्छेद: सम्पाद्यताम्


    1070गम्भीरविततमर्थं वाचा संक्षिप्तया निबद्धमपि। न विदन्ति ये समग्रं कृपया तदनुग्रह: क्रियते ।। 1 ।। 1071तत्र कार्यवाक्यार्थवादिन एव भावम्, भावनाम्, अपूर्वञ्च वाक्यार्थान् प्रतिजानते। तत्राऽपूर्वमेव वाक्यार्थ इति साधनीयम्। तस्य मूलं पदानामन्विताभिधायेतेति, तामेव तावदादौ परिशोधयति। 1072अत्र ये प्रत्यस्तमितपदविभागम्, वाक्यमेव वाक्यार्थस्य वाचकमित्याचक#्षते। 1073ये च वाक्यान्त्यवर्ण एवेति,1074 ये च पदैरनन्विता: पदार्था अभिहिता: पदार्था अभिहिता: परस्परान्वयमात्मनोऽवगमयन्ति---इति। तन्निरासाय प्रतिजानीते--- पदेभ्य एव वाक्यार्थप्रत्ययो जायते यथा। तथा वयं निबध्नीम: प्रभाकरगुरोर्मतम् ।। 1 ।। पदेभ्य एव, न वाक्यात्, नाऽप्यन्त्यवर्णात्, नाऽपि पदार्थेभ्य इत्यर्थ: ।। 1 ।। तं प्रकारं वक्तुमुपक्रमते--- पदेरेवाऽन्वितस्वार्थमात्रोपक्षीणशक्तिभि:। स्वार्थाश्चेद्बोधिता बुद्धो वाक्यार्थोऽपि तथा सति ।। 2 ।। वाक्यार्थप्रतिपत्तौ हि पदानामनुपायत्वे तदन्यथानुपपत्त्या, वाक्यमेकं तदुपायभूतं कल्प्यते। यद्यपि व्युत्पत्त्यनपेक्षाच्छब्दादर्थो नाऽवगम्यते। यद्यपि चाऽऽनन्त्याद्वाक्यानाम्, तदर्थानाञ्च, वैदिकस्य चाऽर्थस्याऽनन्योपायत्वात् व्युत्पत्तिरशक्या। तथाऽपि काल्पनिकपद-पदार्थव्युत्पत्तिसंस्कृतात् वाक्याद्वाक्यार्थमवगच्छतीत्याश्रीयते। यदि काल्पनिकत्वे पद-पदार्थानां प्रमाणाभावादेकैकवर्णोच्चारणेऽर्थानवबोधात्, क्रमेणोच्चारितानाञ्च युगपच्छवणासम्भवात्, पूर्वपूर्ववर्णानुभवजनितसंस्कारसहितोऽन्त्यो वर्ण: प्रत्यायक:, तस्य च पारमार्थिकपद-पदार्थव्युत्पत्तिस्सहकारिणीति पक्षस्स्वीक्रियते, यदि वा पदैस्सुकरव्युत्पत्तयोऽनन्विता एव स्वार्था अभिहिता वाक्यार्थमवबोधयन्तीत्यङ्गीक्रियत, यदि तु पदान्येवाऽन्वितान्स्वार्थानभिदधतीति शक्यते साधयितुम्, तदा वाक्यार्थस्याऽवबुद्धत्वान्नैता: कल्पना आत्मानं लभन्ते ।। 2 ।। कथं पुन: पदानामन्वितस्वार्थमात्रबोधकत्वे वाक्यार्थावगतिस्सिद्ध्यतीत्यत्राऽऽह--- 1075प्रधानगुणभावेन लब्धान्योन्यसमन्वयान्। पदार्थानेव वाक्यार्थान् सङ्गिरन्ते विपश्चित: ।। 3 ।। ननु तेषां भूयस्त्वाद् भूयांसो वाक्यार्था:, वाक्यानि च स्युरित्यत्राऽऽह--- भूयाँसो यद्यपि स्वार्था: पदानां ते पृथक्पृथक्। प्रयोजनतया त्वेकवाक्यार्थं सम्प्रचक्षते ।। 4 ।। तत्प्रतीत्येककार्यत्वाद्वाक्यमप्येकमुच्यते। कथं पुनरेकप्रयोजनत्वमित्यत्राऽऽह--- प्रतिपत्तिर्गुणानां हि प्रधानैकप्रयोजना ।। 5 ।। यद्धि प्रधानभूतं, तदेव कथन्नाम विशिष्टं प्रतीयतामित्येवमर्थं गुणानां प्रतिपादनम्, तेन तत्रैव तात्पर्यम्, तदेव प्रमेयम्, तात्पर्यविषय एव शब्दस्य प्रामाण्याभ्युपगमात्, तस्य तथाभूतस्य प्रतिपत्तिर्नैकपदनिबन्धनेति, वाक्यमेव तत्र प्रमाणम्। अत एव च "1076षष#्ठाद्ये न पदं नाम किञ्चन वाक्ये, न पदार्था नाम केचन वाक्यार्थे" झ्र्बृ. टी. 6-1-1ट इत्युक्तम्। पृथग्भूतं पदं नाम न किञ्चन प्रमाणमस्ति। पृथग्भूताश्च पदार्था:, न प्रमेयास्सन्तीत्यर्थ:। एतच्च तत्रैव स्पष्टमुक्तम् ।। 5 ।। 1076सम्प्रति वाक्यमेव वाचकं वाक्यार्थस्येति ये ब्रुवते, 1077ये च वाक्यान्त्यवर्ण एवेति। तन्निराकरणायाऽऽह--- व्यवहारेषु वृद्धानां वाक्यश्रवणभाविषु। आवापे-द्धारभेदेन पदानां शक्तिनिश्चय: ।। 6 ।। यद्यपि वृद्धव्यवहारपूर्विकैव सर्वा शब्दव्युत्पत्ति:, वाक्यैरेव च व्यवहार:। तथाऽपि यत्पदावापे यस्याऽर्थस्याऽऽवाप:, यदुद्धारे चोद्धार:, तस्मिन्नेवाऽर्थे तस्य पदस्य वाचकशक्तिरवसीयते। न च तथा सति वाक्यार्थप्रतिपत्तिर्नोपपद्यते, वक्ष्यमाणत्वान्न्यायस#्य। येन कार्यबलेन वाक्यमेकं प्रत्यक्षपरिदृश्यमानवर्णपदभेदापढद्धठ्ठड़14;नवेन कल्प्येत। 1078किञ्च, "शिशो ! गामानय, शिशो ! गां बधान, वत्स ! गामानय, वत्स ! गां बधान, अर्भक ! गामानय, अर्भक ! गां बधान, डिड्डत्ध्;म्भ ? गामानय, डिड्डत्ध्;म्भ ? गां बधाने"त्यष्टानां वाक्यानामष्टौ वाचकशक्तय: कल्प्या:। पदवादिनस्तु, सप्तानां पदानां सप्तैव शक्तय इति कल्पनालाघवम्। अनयैव दिशा शुक्लामिति पदप्रेक्षेपे वाक्यवादिनोऽष्टावपरा: कल्प्या:, 1079पदवादिनस्त्वेकैव। अपारमार्थिके च 1080पद-पदार्थविभागे किमाश्रिता व्युत्पत्तिरभ्युपायतामुपैतीत्यपि चिन्तनीयम्। ये पुन:---वाक्यान्त्यवर्णस्य वाचकतामाहु:, तन्मतेऽपि तावत् पदार्थविभागस्य पारमार्थिकत्वात् घटेतैव व्युत्पत्ति:। ननु वाच्यवाचकसम्बन्धग्रहणमेव व्युत्पत्तिरित्युच्यते। न च वाक्यान्त्यवर्णवाचकत्ववादिनां पदं पदार्थस्य वाचकम्। अतस्तन्मतेऽपि निर्विषयैव व्युत्पत्ति:। उच्यते। न निर्विषया, निमित्तनैमित्तिकभावस्याऽभ्युपगतत्वात्। केयमवाचकस्य निमित्तता ? नैष दोष:। वाक्याद्धि यत्पदप्रयोगे1081 सति, यत्पदार्थान्वितो वाक्यार्थ: प्रतीयते, तत्पदं तस्याऽर्थस्याऽवाचकमपि भवति निमित्तम्। किन्तु तन्मतेऽपि शक्तिकल्पनागौरवं पूर्वोक्तन्यायेन तुल्यमेव। ।येऽप्याहु:---वाक्यमेव स्मृत्यारूढं वाक्यार्थं प्रतिपादयतीति, तेषामपि प्राच्यमेव शक्तिकल्पनागौरवलक्षण1082 दूषणमशक्यपरिहारम्। 1083भाष्यकारवचनञ्च "पूर्ववर्णनितसंस्कारसहितोऽन्त्यो वर्ण: प्रत्यायक:" झ्र्शा. भा. पृ. 46ट इति निर्विषयम्। अशक्यञ्च महाव#ाक्यस्य सकृत्स्मरणम्। तस्मात्पदानामेव वाचकशक्तिराश्रयणीया। अत्र केचिच्चोदयन्ति---ननु वृद्धव्यवहारप्रयुक्ते वाक्ये पदानां वाचकशक्त्यवधारणमेव नोपपद्यते। पुरुषवाक्यनामर्थं प्रति लिङ्गभावेन प्रमाणत्वाभ्युपगमात्। वाक्याद्धि कार्यभूतात्प्रतीतस्य वक्तुस्तदर्थविषयं पूर्वविज्ञानं 1084कारणभूतमनुमीयते। तस्य व ज्ञानस्य ज#्ञेयाव्यभिचारित्वात् ज्ञेयभूतार्थनिश्चय इति, न वाचकशक्त्यवगम:। उच्यते। न नूनं भवान् 1085नीतिपथोक्तमर्थं सम्यगाकलयति। परिहृतं हि तत्रेदम्---बालो हि व्युत्पद्यमान: प्रयोज्यवृद्धस्य शब्दश्रवणसमनन्तरभाविनीं विशिष्टचेष्टानुमितामर्थप्रतीतिं शब्दकारणिकामवगच्छति। स तथा व्युत्पन्न: कदाचित्कस्यचिदनन्वितार्थपदरचनं वाक्यमुपलभते, तथोपलभमानस्य चैव विमार्शो जायते---सम्भाव्यमानानन्वितार्थपदरचनमिदं वाक्यं कथं प्रयोज्यवृद्धस्य अर्थनिश्चयं कृतवत् ? वृद्धस्याऽपि पुरुषायत्ते वाक्येऽनन्वितार्थपदरचनशङ्का ममेव सम्भवतीति। तस्यैवं विचिकित्सोदये पुनरेष निश्चयो जायते--- नूनमनेनाऽयं प्रयोक्तेत्थमवधारितो यदन्वितार्थान्येव पदान्ययं प्रयुङ्क्ते-इति। तथाविधापदप्रयोगनियमश्चाऽस्याऽनुपलब्धेऽन्वये नोपपद्यते इत्येवमन्वयोपलम्भमनुमिमानेनाऽन्वयो निश्चीयते। निश्चिते चाऽन्वये वाक्यमेतदनुवादभूत186 मर्थस्येति। एवञ्चेदनुवादकतया तस्याऽर्थस्य तद्वाक्यं वाचकमेवेति, पूर्ववाचकशक्तिज्ञानं नाऽयथार्थमिति मन्यते। यदि परं मया प्रागनुमानपुरस्सरोऽर्थनिश्चोऽस्येति नाऽवगतम्। याऽपि चेयमर्थस्यानिश्चितेऽन्वये विशिष्टवक्तृज्ञानानुमा, साऽपि पदानां स्वरूपमात्रावगमादेव नोपपद्यते, किनतु विशेषावगमात्। न च शक्तेरन्य: पदानां विशेषोऽवगम्यते। ततो मयेवाऽनेनाऽपि पदानां वाचकशक्तिरवधारिता। तेन विशिष्टान्वयवाचकपदप्रयोगात्तद्विषयं वक्तु: पूर्वज्ञानमनुमितवान्, इति गम्भीरोऽयं नीतिमहाढद्धठ्ठड़14;वद:। अन्विताभिधानानुपपत्तिशङ्का। अत्र 1087केचिदाचक्षते---भवतु पदानां पदार्थेषु शक्तिज्ञानम्, तथाऽप्यन्विताभिधानं न सिध्यति---इति। तथाहि---प्रतियोगिनामनन्ततया अन्वयानामानन्त्यात्, तदानन्त्ये चाऽन्वितानामप्यानन्त्यात्सम्बन्धग्रहणं दुष्करम्। अगृहीतसम्बन्धस्य च पदस्य वाचकत्वे, एकस्माच्छब्दात्सर्वार्थप्रतीतिप्रसङ्ग:1088। सामान्यान्वयाभिधानञ्च नाऽऽशङ्कनीयमेव, वाक्येभ्यो विशेषान्वयावगमात्। स्वरूपमात्राभिधानेनाऽपि च वाक्यार्थप्रतिपत्त्युप1089 - पत्तावन्विताभिधानाश्रयणे शक्तिकल्पनागौरवम्1090। तथा1091 पदेनाऽन्वितस्स्वार्थोऽभिधीयमान:--किमभिहितेन पदार्र्थान्तरेणाऽन्वितोऽभिधीयते ? उत, अनभिहितेनेति ? विकल्पनीयम्। अनभिहितेन चेत्, 1092पदान्तरप्रयोगवैयथ्र्यम्। एकस्माच्च 1093सर्वान्वयप्रतीतिप्रसङ्ग:। अभिहितेन चेत्, तदपि तर्हि पदमन्विताभिधाय#ितया 1094पदान्तरोपात्तमर्थमभिधानायाऽपेक्षत---इति, इतरेतराश्रय: प्राप्नोति। तस्मात्पदान्तराभिधानानपेक्षस्वरूपमात्राभिधानमेवाऽर्थानां पदै: क्रियते। ते च तथाभूता: पदैरभिहिता: पदार्था आकाङ्क्षा-सन्निधि-योग्यतावन्तो वाक्यार्थमवगमयन्ति। न तेषां सम्बन्धग्रहणापेक्षा शङ्कनीया। यत: पदधर्मोऽयम्, नाऽयमर्थधर्म:। तदाह भाष्यकार:--- "1095पदानि हि स्वं स्वमर्थमभिधाय निवृत्तव्यापाराणि। अथेदानीं अवगतास्सन्त वाक्यार्थमवगमयन्ती" झ्र्पू. मी. 1. 1. 25.ट ति ।। 6 ।। तदेतन्निराकर्तुमुपक्रमते--- ओप्यन्ते, चोद्ध्रियन्ते च स्वार्था अन्वयशालिन:। अन्वितेष्वेव सामथ्र्य पदानां तेन 1096गम्यते ।। 7 ।। तत्रैव वार्तिकमतेन शङ्का। अत्राऽऽह---सत्यमन्वितपदार्थविषयावेवाऽऽवापोद्धारौ, तथाऽप्यन्विताभिधानमशक्यम्। पारम्पर्येणाऽपि तदुपपत्ते:। तथाहि---पदैरनन्वितोऽप्यभिहितोऽर्थोऽन्वितार्थप्रतिपत्तेर्निमित्तं भवतीति, पदानां पारम्पर्येणाऽन्वितेष्वपि हेतुत्वम्। तदाहुर्वार्तिककारभिश्रा:--- "न विमुञ्चनित सामथ्र्यं वाक्यार्थेऽपि पदानि न:। तन्मात्रावसितेष्वेषु पदार्थेभ्यस्स गम्यते"।। झ्र्श्लो. वा. अधि. 7. श्लो. 229ट इति। पदार्थप्रतिपादनञ्च वाक्यार्थप्रतिपत्तये प्रयुक्तानां पदानामवान्तरव्यापार इति च, तेषामेव व्यवहार:--- "वाक्यार्थमितये तेषां प्रवृत्तौ नान्तरीयकम्। पाके ज्वालेव काष्ठानां 1097पदार्थप्रतिपादनम्" ।। झ्र्श्लो. वा. अधि. 7. श्लो. 343.ट इति। एतामाशङ्कामुपेक्ष्यैव तावद्दोषान्तरं परिहरति--- आकाङ्क्षा-सन्निधिप्राप्तयोग्यार्थान्तरसङ्गतान्। स्वार्थानहु: पदानीति व्युत्पत्तिस्संश्रिता1097 यदा ।। 8 ।। आनन्त्य-व्यभिचाराभ्यां तदा दोषो न कश्चन। यत्तावदुक्तम्---आनन्त्याच्छब्दशक्त्यवधारणानुपपत्ति:, अगृहीतशक्तेश्च वाचकत्वे व्यभिचारप्रसङ्ग इति। तदनुपपन्नम्। उपलक्षणाश्रयणेनाऽपि 1098सम्बन्धबोध:, सौकार्यादाकाङ्क्षितेन योग्येन सन्निहितेन चाऽन्वितं स्वार्थं पदं वक्तीति व्युत्पत्तिराश्रीयते । तेन---

1099यद्यदाकाङ्क्षितं योग्यं सन्निधानं प्रपद्यते। तदन्वित: पदेनाऽर्थस्स्वकीय: प्रतिपाद्यते ।। इति संग्रहश्लोक:। आकाङ्क्षविषये न्यायमतोपन्यास-निरोसौ। का पुनरियमाकाङ्क्षा ? प्रतिपत्तुर्जिजासा। किन्निबन्धना पुनरसौ ? 1100अविनाभावनिबन्धनेति केचित्। क्रिया हि कारकाविनाभाविनीति तां प्रतीत्य, कारकं जिज्ञासते, एवं कारकमपि बुध्वा, क्रियामिति। 1101तदयुक्तमिति मन्यामहे ?, जिज्ञासाविरामानुपपत्ते:।तथाहि---यदा तावत् कारकजिज्ञासा, तदा तदीयजनक--तद्गुण--तत्क्रिया--तत्कारकान्तरादिजिज्ञासाऽप्यापद्यते। अथ प्रयोजनाभावात् कारकातिरिक्तमन्यन्न जिज्ञास्यते, तर्हि क्रियामात्रावगमेऽपि यत्र कारकज्ञानेन प्रयोजनं नाऽस्ति, तत्र जिज्ञासा न स्यात्। अनुष्ठेय तया हि क्रियायामवगतायां कारकमन्तरेण तदनुष्ठानानुपपत्ते:, कारकज्ञानं न प्रयोजनवत्। वर्तमानापदेशादौ त्वननुष्ठेयतया नाऽस्ति न कारकज्ञानेन प्रयोजनम्। अथ च यत्राऽपि वाक्यमपरिपूर्णं मन्यन्ते, साकाङ्क्षार्थाभिधायितया चाऽपरिपूर्णता। अत एव तत्राऽध्याहारमपि कुर्वन्त#ि। यत्राऽपि चाऽनुष्ठेयक्रियावगम:, तत्राऽपि निश्शेषकारकजिज्ञासा स्यात्। यथा-देवदत्त ! "गामानये"ति 1102करणानुपादानादपरिपूर्णता स्यात्। अथैककारकज्ञानेनाऽपि तावदनुष्ठानोपपत्तेर्न कारकान्तरजिज्ञासा, तर्हि देवदत्त ! "गामानय दण्डेड्डत्ध्;ने"ति प्रयुक्तेऽपि दण्डड्डत्ध्;शब्दे, तदाकाङ्क्षा न स्यात्। ततश्चअनाकाङ्क्षितत्वात् तस्य, तदन्वयो न स्याद्वाक्यार्थे। अथ दण्डड्डत्ध्;पदोच्चारणात् तत्राऽऽकाङ्क्षा परिकल्प्यते। 1103अन्यथा दण्डड्डत्ध्;पदार्थस्याऽनन्वये तत्पदोच्चारणमनर्थकं स्यात्। एवम "प्यरुणयैकहायन्या पिङ्गाक्ष्या सोमं क्रीणाती" झ्र्तै. सं. 6.1.9ट त्यत्राऽप्यनन्वयप्रसङ्ग:। न हि वेदपदोच्चारणेनाऽनर्थकेन न भवितव्यमिति किञ्चन प्रमाणमस्ति, अतो न तत्राऽऽकाङ्क्षोदये किञ्चित्कारणमस्तीति, "सोमं क्रीणाती"त्यतोऽधिकस्याऽनन्वितता स्यात्। अपि च लौकिकत्वात् क्रियाकारकयो:, यत्किञ्चित्क्रिया-कारकोपादानेऽपि तत्सिद्धेरविघातान्नऽतीव विशेषजिज्ञासा घटते। अज्ञाते हि ज्ञानेच्छा घटते, न पुनज्र्ञातेऽपि। स्वमतेनाऽऽकाङ्क्षाकथनम्। 1104अत्रोच्यते---अभिधानापर्यवसानम्, अभिधेयापर्यवसानञ्च जिज्ञासोदये निबन्धनम्। एकपदप्रयोगे हि 1105द्वारमित्यादावभिधानमेव न पर्यवस्यति। न ह्यनुच्चरिते प्रतियोगिसन्निधापके1106 पदेऽन्विताभिधानं शक्यते वक्तुम्। वृद्धव्यवहारवशेनाऽन्वितार्थप्रतिपादनपरता पदानामवधारितेति, तदर्थं युक्तैव प्रतियोगिजिज्ञासा। यस्याऽप्यभिहितान्वय इति राद्धान्त:, तन्मतेऽपि पदार्थस्य 1107पदार्थान्तरमन्तेरणाऽन्वयासामथ्र्यात्, तदुपपत्तये युक्तैव 1108प्रतियोगिजिज्ञासा। तस्याञ्च सत्यामपरिपूर्णवाक्यपरिपूरकतया लोकेऽध्याहारस्य1109 1110विदितत्वात्, प्रकरणादिवशेन योग्यप्रतियोग्यध्याहार: क्रियते। "अमावास्यायामपराढद्धठ्ठड़14;णे पिण्डड्डत्ध्;पितृयज्ञेन चरन्ती" झ्र्आ.श्रौ.1.3.7.सू.1.2.ट त्यादिष्वनेकपदप्रयोगादन्विताभिधानेऽपि, अभिहितस्नय कार्यस्याऽपूर्वात्मनोऽनुष्ठानं विना कार्यत्वानुपपत्ते:, कत्र्रा च विना तदसम्भवात्, अधिकारादृते च तदयोगात्, नियोज्यमन्तरेण चतस्याऽनवकल्पनात्, तदुपपत्तये युक्तैव तदन्वययोग्यनियोज्यजिज्ञासा। तस्यां सत्यामपरिपूर्णत्वावगमात्, लोकवदध्याहारे कर्तव्ये सत्यपि, 1111जीवनस्याऽऽवश्यकत्वेऽन्तरङ्गत्वे च 1112विधेरनुष्ठानाक्षेपो न कल्पेतेति, तत्परित्यागेन काम्ये नियोज्यविशेषणे स्थिते सर्वकामिपुरुषव्यापिस्वर्गस्यैव नियोज्यविशेषणत्वयोग्यत्वात्, स्वर्गकामो नियोज्योऽध्याढिद्धठ्ठड़14;वयते। 1113तथाऽध्ययनविधावन्यप्रयुक्तानुष्ठाननिर्वाहितकार्यभावे नियोज्यो नाऽध्याढिद्धठ्ठड़14;वयते। 1114अलौकिकत्वाच्चाऽपूर्वे कार्ये नियोज्यस्याऽध्याहारमन्तरेणाऽऽकाङ्क्षा न निवर्तते। अलौकिकत्वादेव च "सौर्यं चरुं1115 निर्वपेत् घृते शुक्लानां व्रीहीणां ब्रह्मवर्चसकाम:"झ्र्मै. सं. 2. 2. 2ट इत्यादौ करणोपकारमन्तेरण विधेस्सिद्ध्यसम्भवात् तज्जिज्ञासा, तज्जनकपदार्थजिज्ञासा च। अत एव तदभावे भाष्यकारो वाक्यानां 1116न्यूनतामाशङ्क्य परिहृतवान्1117। नन्वेवं तर्हि तत्र पदत्रयं प्रयुज्यते---"गामानय शुक्लामि"ति लोके, तत्र हि कारकद्वयस्याऽसम्भवान्नाऽऽकाङ्क्षाऽस्तीति कथमन्विताभिधानम्। "गामानयेत्ये" तावतैव परिपूर्णत्वाद्वाक्यस्य। सत्यम्। पदान्तरानुच्चारण एवम्, उच्चरिते तु तस्मिन्, तस्याऽप्यानयतिसन्निधानादेकवाक्यत्वावगमादानयत्यन्वितस्वार्थाभिधायित्वात्, आकाङ्क्षां विना च तदसम्भवात्, आनयतेराकाङ्क्षा परिकल्प्यते। तथा चोक्तं 1118भाष्यकारेण--- "भवति च रक्तं प्रत्याकाङ्क्षे" झ्र्शा. भा. पृ. 117.टति। तेनाऽत्राऽप्यन्विताभिधानसिद्ध्यर्थमेवाऽऽकाङ्क्षा। यदि परमयं विशेष:, "द्वारमि"त्यादौ तस्यैव पदस्याऽन्विताभिधानायाऽऽकाङ्क्षा, "गामानय शुक्लामि"त्यादौ तु 1119पदान्तरस्येति। अन्वितस्याऽभिधानार्थमुक्तार्थघटनाय वा। प्रतियोगिनि जिज्ञासा या साऽऽकाङ्क्षेति गीयते ।। इति सङ्ग्रहश्लोक:।। सा चेयमाकाङ्क्षा 1120भवन्ती व्युत्पत्तावुपलक्षणमाश्रीयते। किमिति पुनस्सन्निधि-योग्यत्व एव 1121नाऽऽश्रीयते, निराकाङ्क्षाणामन्विताभिधानादर्शनात्। "अयमेति पुत्रो राज्ञ:, पुरुषोऽयमपनीयतामि"त्यादौ पुत्रपदसम्बन्धनिराकाङ्क्षो राजा न पुरुषेणाऽन्वीयते। कस्मात्पुनरनयो: पुत्र-पुरुष-योस्सन्निधि-योग्यत्वाविशेषेऽपि पुत्रेणैव राज्ञस्सम्बन्ध:, न पुरुषेण। उच्यते---वाक्यात् 1122वाक्यार्थप्रतिपत्तेन्र्यायसापेक्षत्वात्, नित्यसापेक्षेण पुत्रेणैव राजा सम्बध्यते, तत्सम्बन्धनिराकाङ्क्षश्च न पुरुषसम्बन्धमनुभवतीत्याक#ाङ्क्षाऽपि व्युत्पत्त्युपलक्षणमाश्रीयते। परिपूर्णेन योग्यस्य समीपस्याऽप्यनन्वय:1123। व्युत्पत्तौ तेन शब्दानामाकाङ्क्षाऽप्युपलक्षणम् ।। इति संग्रहश्लोक: ।। सा चेयमाकाङ्क्षा प्रतियोगिषु सर्वेषु न सहसैवोपजायते, किन्तु कारणोपनिपातक्रमेण। तथाहि---विषयमन्तरेणाऽपूर्वं कार्यं प्रत्येतुमेव न शक्यत इति, प्रतिपत्त्यनुबन्धभूतविषयापेक्षा प्रथमं विधे:। अथ प्रतिपन्ने विषयसम्बन्धिनि विध्यर्थे, नियोज्यमन्तरेण तत्सिद्ध्यसम्भवान्नियोज्याकाङ्क्षा। तथा विषयीभूते भावार्थे करणे लब्धे, वैकृतापूर्वाणां करणोपकाराकाङ्क्षा, लब्धे च तस्मिन्, तज्जनकपदार्थाकाङ्क्षेति। तथा चाऽऽहु :--- "प्रतियोगिषु सर्वेषु नाऽऽकाङ्क्षोदेति तत्क्षणात्। कारणोपनिपातानुपूव्र्येण तु यथायथम्" ।। इति।। तत्क्रमेणाऽन्विताभिधानमपि क्रमेणैव। श्लोकश्चाऽत्र भवति--- जिज्ञासा जायते बोद्धुस्सम्बन्धिषु यथा यथा। तथा तथैव शब्दानामन्वितार्थाभिधायिता ।। सन्निधिनिरूपणम्। अथ 1124सन्निधि: क: ? 1125यस्याऽर्थस्य श्रवणानन्तरमाकाङ्क्षा-योग्यताभ्यामर्थान्तरे बुद्धि विपरिवृत्ति:। सा च न शब्दनिबन्धनैव केवलमन्विताभिधानव्युत्पत्तावुपलक्षणम् 1126 अध्याहृतेनाऽपि लोके अन्विताभिधानदर्शनात्। न च वाच्यं---शब्द एवाऽध्याढिद्धठ्ठड़14;वयते, सचाऽर्थमुपस्थापयति---इति, अनुपयोगात्, अप्रमाणकत्वाच्च। यद्यप्यर्थापत्तिप्रमाणकोऽध्याहार:, तथाऽपि शब्दकल्पनमनुपपन्नम्। येन हि विनाऽनुपपत्ति:, तदेवाऽर्थापत्तिप्रमेयम्। न चाऽर्थानां शब्दमन्तरेणाऽनुपपत्ति:। स्यान्मतम्। अर्थकल्पनायैवाऽर्थापत्ति: प्रवर्त्तमानां तस्याऽर्थस्य सविकल्पकज्ञानवेद्यत्वात्, सविकल्पकज्ञानानाञ्च शब्दपुरस्सरत्वात् पुरोवर्तिति शब्द एव पर्यवस्यति---इति। तदसत्। यथैव शब्दपुरस्सरेऽपि सविकल्पकज्ञाने लिङ्गस्य, इन्द्रियाणाञ्च निर्विकल्पकदशायामर्थ एवाऽवधारितशक्तित्वान्न शब्दमात्रे पर्यवसानम्, तथा दृष्टार्थापत्तौ साक्षादुपपादकेऽर्थ एवाऽर्थापत्ते: प्रामाण्याभ्युपगमात्, श्रुतार्थापत्तवपि तत्रैव तस्या: प्रामाण्यं युक्तम्, न शब्दे। तस्य साक्षादनुपपत्तिशमनासमर्थत्वात्। किञ्च सर्वत्र सविकल्पकज्ञाने शब्दस्स्मरणविपरिवर्ती न प्रमेयतां प्रतिपत्तुमर्हति। सविकल्पकल्पकज्ञानेषु पूर्वप्रतीयमानता च शब्दस्य नाऽतीव प्रमाणवती, किन्त्वर्थप्रतीतावेव समानकालं शब्दस्मरणमिति प्रतीत्यारूढम्। तेन न श्रुतार्थापत्तिश्शब्दविषया। न च शब्दानुपपत्त्या शब्दकल्पनैवोचिता, तस्य स्वातेऽनुपपत्त्यभावात्। अन्विताभिधानानुपपत्त्या तु कल्पना प्रसरन्ती योग्यप्रतियोग्यर्थविषयैवाऽवतिष्ठते, तस्यैवाऽऽकाङ्क्षितत्वात्, 1127दशमाद्यन्यायेन पदार्थवत् पूर्वप्रतीतस्याऽपि शब्दस्योपेक्षणीयत्त्वात्। न च "द्वारमि"ति यत्राऽध्याहार:, तत्राऽप्याव्रियताम्, संव्रियतामिति वा कल्पयितुमर्थापत्ते: प्रभविष्णुता, सामान्यकल्पनामात्रहेतुत्वात्। तस्मादपरिपूर्णपरिपूरकतया लोकत एवाऽध्याहारस्याऽप्युपपत्ति:1128। तत्र यौग्यतया, प्रकरणादिवशेन च विशेषावधारणादर#्थ एव च परिपूरक इति, अनुपयोगी शब्दस्याऽध्याहार:। अते#ा विश्वजिदादौ नियोज्येन, सर्वत्र च करणोपकारेण, विकृतिषु च प्राकृतपदार्थैरशब्दोपस्थापितैरपि सिद्धमन्विताभिधानम्। आकाङ्क्षावच्च सन्निधावपि सन्निधापकक्रमेणैव क्रमो वेदितव्य:, तदनुसारेण चाऽन्विताभिधानमपितथैव---इति। सन्निधिश्शब्दजन्मैव व्युत्पत्तौ नोपलक्षणम् । अध्याहृतेनाऽप्यर्थेन लोके सम्बन्धदर्शनात् ।। सहसैव न सर्वेषां सन्निधि: प्रतियोगिनाम् । सन्निधापकसामग्रीक्रमेण क्रमवानसौ ।। यथा यथा सन्निधानं जायते प्रतियोगिनाम् । तथा तथा क्रमेणैव शब्दैरन्वितबोधनम् ।। इति सङ्ग्रहश्लोका:। अतो यथोक्ताकाङ्क्षा---सन्निधिप्राप्तमाकाङ्क्षितं सन्निहितं योग्यञ्च यत् पदार्थान्तरम्, तेन सङ्गतमित्यर्थ:। योग्यतानिरूपणम्। किं पुररिदं योग्यत्वं नाम ? उच्यते--यत् 1129सम्बन्धार्हम्। सम्बन्धार्हमिदमिति कथमवगम्यते, सम्बन्धित्वेन दृष्टत्वात्। नन्वेवं तर्हि कथमपूर्वे कार्येऽन्विताभिधानं वेदे, तेन सह कस्य चित् सम्बन्धस्याऽदर्शनात्। उच्यते---सामान्यतो योग्यतावधारणं विशैषप्रतित्तावुपाय इत्यदोष:। यदपि तदपूर्वम्, तदपि कार्यमेवेति दृष्टचरकार्यसम्बन्धं यत्, तद्योग्यमित्यवसीयते। सामान्येनैव योग्यत्वं लोके यदवधारितम्। तदन्विताभिधानस्य व्युत्पत्तावुपलक्षणम्।। इति सङ्ग्रहश्लोक:। योग्यताविषये मतान्तरोपन्यास---निरासौ। अन्ये तु---यदयोग्यतया नाऽवधारितम्, तद् योग्यम्। तेनाऽलौकिकेनाऽपि विध्यर्थेनाऽन्विताभिधानं सिद्ध्यतीत्याहु:। तदिदमसारम्। यथाप्रमाणान्तरावेद्ये वस्तनि कस्यचिद् योग्यताऽवधारयितुं न शक्यते, तथैवाऽयोग्यताऽपीति, सर्वस्याऽप्रतीतेनाऽपि सर्वप्रक#ारेण तस्मिन्नन्वयस्स्यात्। भावार्थस्यैव विषयत्वेनाऽन्वय:, अनुपादेयविशेषणविशिष्टस्यैव स्वर्गकामादे: नियोज्यतयाऽन्वय इति नियमो नोपपद्यत इत्यलमतिप्रसङ्गेन ।। 8 ।। नन्वन्विताभिधानपक्षे व्युत्पत्तावुपलक्षणाश्रयणमेव गौरवमित्यत्राऽऽह--- पदार्थेष्वपि चैवैषा सामग्र्यन्वयबोधने ।। 9 ।। यस्याऽपि मते पदार्था एवाऽन्योन्यान्वयमवगमयन्ति, तेनाऽपि प्रतिनियतान्वयबोधसिद्ध्यर्थमिदमाश्रयणीयमेव--आकाङ्क्षा--सन्निधि--योग्यतावन्त एव पदार्था 1133वाकयार्थ बोधयन्ति, नान्य इति, एतदेव कथमिति पर्यनुयुक्तेन वृद्धव्यवहारे तथादर्शनादिति परिहारो वाच्य:। तस्मादुभयपक्षसाधारणत्वान्नेदं दूषणम् ।। 9 ।। नन्वेवमपि केन विशेषेणाऽभिहितान्वयं परित्यज्य, अन्विताभिधानमाश्रितमिति। 1134अत्राऽऽह--- किन्तु तेषामदृष्टैषा शक्तिर्मानान्तराद्गतौ। कल्प्या विशिष्टार्थपरपदसंस्पर्शभाविता ।। 10 ।। पदार्थानां हि शब्दादन्यत: प्रमाणात् प्रतीयमानानामन्योन्यान्वयबोधकत्वं न प्रतीतमिति, शब्दाभिधेयानां तदवगमशक्ति: कल्पयितव्या। तस्याश्चोत्पत्तौ शब्दसंस्पर्श एव हेतुरित्याश्रयणीयम्। शब्दो हि विशिष्टार्थप्रतिपत्तिपरतया लोकव्यवहारेषु प्रयुज्यमानो दृष्ट:। न चोऽसौ साक्षाद्वाक्यार्थप्रतिपादने समर्थ इति, पदार्थानवान्तरव्यापारीकरोति। ते च यद्यन्योन्यान्यान्वयबोधने समर्थास्स्यु:, तदा तेषामवान्तरव्यापारता स्यान्नाऽन्यथेति, विशिष्टार्थावबोधपरशब्दसंस्पर्शादेव तेषामेषा शक्तिराविर्भवतीति, शब्दस्याऽपि पदार्थगतान्वयबोधकत्व1135 शक्त्याधानशक्तिराश्रयणीया। स्यादेवम्---यदि मानान्तरावसेयानां पदार्थानामन्योन्यान्वयावगमे सामथ्र्यं न स्यात्। अस्ति तु तत् श्वैत्यस्याऽनवधारिताश्रयविशेषस्य प्रत्यक्षदृष्टस्य,अश्वस्याऽप्रतिपन्नगुणविशेषस्य प्रत्यक्षढद्धठ्ठड़14;वेषाशब्दानुमितस्य पदनिक्षेपशब्दानुमितस्य, अज्ञातकर्तृभेदस्य धावनस्य, "श्वेतोऽश्वो धावती"त्यन्वयबोधकत्वदर्शनात्। 1136तदाहुर्वार्त्तिककारमिश्रा:--- "पश्यतश्श्वेतमारूपं ढद्धठ्ठड़14;वेषाशब्दञ्च श्रृण्वत:। खुरनिक्षेपशब्दञ्च श्वेतोऽश्वो धावतीति धी:।। दृष्टावाक्यविनिर्मुक्ता" इति। झ्र्श्लो. वा. वा. अधि. श्लो. 358ट आरूपम्---अव्यक्तरूपमित्यर्थ:। तेन गुणविशेषो न प्रत्यक्षमवसीयत इत्यर्थ:। अत्रोच्यते---किं येनैव पुरुषेण श्वैत्यसमानाश्रयौ ढद्धठ्ठड़14;वेषाध्वनि-पदनिक्षेपशब्दाववगतौ, तस्यैवेयं "श्वेतोऽश्वो धावती"ति धी: ? उत यस्यऽपादानानध्यवसाय:, तस्याऽपि---इति ? किमत:। यदि तावदप्रत्याकलितढद्धठ्ठड़14;वेषाध्वतिन-पदविहारनिर्धोषापादानस्येत्युच्यते, तदाप्रतीतिविरोध:। स ह्येवं प्रतिपद्यते---भवितव्यमस्मिन् देशे नूनमश्वेन, भवितव्यञ्च केनचिद्धावतेति। अथाऽश्वसंबन्धिनमेव सुरपुटटङ्काररवमभ्यासपाटववशादवैति, तदाऽसावश्ववर्तिनीमेव वेगवतीं गतिमनुमिनोतीति, न पुन: केवलामेवाऽवगम्य, तस्याऽन्वयं पदार्थसामथ्र्येनाऽवबुद्ध्यते। योऽपि तस्मिन् देशे नाऽस्त्यन्योऽश्वादिति निश्चित्य, पारिशेष्यादपादानाध्यवसायेऽपि ढद्धठ्ठड़14;वेषाध्वनेश्श्वैत्यसमानाधिकरणमश्वत्वमप्यध्यवस्यति, ।तस्याऽपि गृहाभावदर्शनमिव बहिर्भावावगतावर्थापत्ति:---"योऽयं श्वेत:, स एषोऽश्व:" इत्यत्र प्रमाणम्। यस्तु श्वैत्यसमानाधिकरणौ ढद्धठ्ठड़14;वेषाध्वनि-खुरपुटटङ्कारावध्यवस्यति,तस्याऽप्यश्वत्वे वेगवति च गमने श्वेतवर्तिन्येवाऽनुमानम्, न स्वतन्त्रयो:। अत: प्रमाणान्तरेणाऽसम्बद्धावभातानां पदार्थानां न क्वचिदन्योन्यसम्बन्धबोधकत्वमनुमानार्थापत्तिव्यतिरेकेण प्रतीतम्। अपि च यदि पदार्थावगतिमात्रादेव परस्परान्वयावगम:, तदा कस्मिन् प्रमाणे तस्याऽन्तर्भाव इति वाच्यम् ? न तावच्छाब्दे, शब्दाभावात्। पदाथाभिधानावान्तरव्यापारेण हि 1138यच्छब्दादन्वयज्ञानम्, तच्छाब्दमित्येष वो राद्धान्त:। 1139तस्मान्नाऽस्य शाब्देऽन्तर्भाव:। प्रमाणान्तराभ्युपगमे तु शाब्दस्योच्छेद:, शब्दावगतपदार्थविषयेऽपि तस्यैव प्रामाण्यप्रसङ्गात्। तस्माच्छब्दाभिहितानां पदार्थानामन्यत्राऽदृष्टं वाक्यार्थबोधनसामथ्र्यं कल्पयितव्यम्। तदाधानशक्तिश्च शब्दानामपीति कल्पनालाघवाच्छब्दानामेवाऽन्वितस्वार्थावबोधनशक्तिमात्रं कल्पयितुं न्याय्यम्। तेन पारम्पर्येण पदानामन्वितेषु सामथ्र्यमिति निरस्तम्। 1140नन्वनन्तप्रतियोग्यन्वितस्वार्थबोधनविषया अनन्ता एव शब्दस्य शक्तय: कल्पयितव्यास्स्यु:। अभिहितान्वयवादे त्वेकस्मिन्नर्थे एकस्य शब्दस्यैकैव शक्तिरिति। 1141तन्न---एकयैवाऽऽकाङ्क्षित-सन्निहित-1142योग्यार्थान्वितस्वार्थाभिधानशक्त्या प्रतियोगिभेदेन कार्यभेदोपपत्तेश्चक्षुरादीनामिव। चक्षुर्यथैवैकया दर्शनशक्त्या घटादिप्रतियोगिसहायभेदाज्ज्ञानानि भिन्नानि जनयति, तथा शब्दोऽपि प्रतियोगिभेदादिति मन्तव्यम्। किञ्च पदार्थेष्वपि तुल्यमेतदिति न किञ्चिदेतत्। अन्ये त्वाहु:---आकाङ्क्षा-सन्निधि-योग्यतावन्त: पदार्था वाकयार्थीभवन्ति, न पुनर्वाक्यार्थमेव बोधयन्तीति। तदिदमतिमन्दम्---वाक्यार्थावगते: कारणाभावप्रसङ्गात्। अनुपायत्वे पदानामन्वयप्रतीतौ पदार्था अपि चेन्न कारणम्, अकारणिकैवाऽ।द्यपद्येत। स्यान्मतम्। क्रियापदेन, कारकपदेन वा साकाङ्क्षेऽर्थेऽभिहिते, यदेव पदान्तरेण योग्यप्रतियोगिपदार्थान्तरं सन्निधाप्यते, तदवे तस्य सम्बन्धित्वेनाऽवतिष्ठते--इति। सत्यमेवम्। अवगतिस्तु तत्सम्बन्धस्य किन्निबन्धनेति वाच्यम्। अथ पूर्वपदार्थे साकाङ्क्षेअभिहिते, यत् पदान्तरमुच्चर#ितम्, तत् तत्सम्बन्धितयैव स्वार्थमुपनयति प्रत्ययवत्। यथा प्रकृत्यर्थे पूर्वप्रतीते प्रत्यय उच्चार्यमाणस्स्वर्थं तद्विशिष्टमेवाऽभिधत्ते, तथा पदान्तरमपि। तदुक्तं, "प्रकृतिप्रत्ययौ प्रत्ययार्थं सह ब्रूत:" झ्र्म. भा.ट इति। प्रकृति स्वार्थं प्रत्ययार्थविशैषणत्वेन#ोपनयतीति, प्रत्ययेन तदर्थमाहेत्यर्थ:। तथा चोक्तम्--- "नित्यं विशिष्ट एवाऽर्थे प्रत्ययो यत्प्रयुज्यते। तत्पूर्वतरविज्ञातप्रकृत्यर्थविशेषणात्"।। इति। अङ्गीकृतं तर्हि द्वितीयस्य पदस्याऽन्विताभिधानम्, प्रथमस्य तथाऽपि नाऽस्तीति चेन्न। वाक्ये पादानां प्रयोगक्रमनियमाभावात्। यदेव कदाचित् प्रथमम्, तदेव कदाचित् द्वितीयमिति, सर्वपदानामेवाऽन्विताभिधानमापतितम्। अभिहितान्वयवादी च प्रकृति-प्रत्यययोरप्यन्वय-व्यतिरेकावधारितव्यतिरिक्तशक्तिकयोरभिहितान्वयमेव पदवदिच्छति। तथा च--- "प्रकृतिप्रत्ययौ ब्रूत: प्रत्ययार्थं सहेति यत्। भेदेनैवाऽभिधानेऽपि प्राधान्येन तथोच्यते" ।। "पाकं तु पचिरेवाऽऽह कर्तारं प्रत्ययोऽप्यक:। पाकयुक्त: पुन: कर्ता वाच्यो नैकस्य कस्यचिद्" ।। 1143इत्याह। किञ्च प्रतययश्चेदन्विताभिधायी, तदा तदविशेषात् पदानामप्यन्विताभिधायिता किमिति नाऽभ्युपेयते, किमर्धवैशसेन। यदि प्रकृति-प्रत्यययोरप्यन्विताभिधानमस्ति, न तर्हि द्वारमित्यत्राऽन्विताभिधानानुपपत्तिनिबन्धयाऽऽकाङ्क्षया विव्रियतां, संव्रितयां वेत्यध्याहार:। उच्यते। द्वारमिति प्रथमेयं प्रातिपदिकार्थाव्यतिरिक्तार्थाभिधायिनी। तेनाऽत्र केन सहाऽन्वितस्याऽभिधानम्। व्यतिरिक्तार्थे प्रत्यये प्रविशेत्यादौ योऽध्याहार:, सोऽभिहितार्थानुपपत्त्यैव विश्वजिदादिवदिति न दोष:। वाक्यार्थविषये भट्टपादमतम्। 1144वार्तिककारमिश्रास्तु-लाक्षणिकान् सर्ववाक्यार्थानिच्छन्त: पदार्थानामन्वयावबोधशक्तिकल्पनां निराकुर्वन्ति। अनन्वितावस्थो हि पदार्थोऽभिहितोऽन्वितावस्थां स्वसम्बन्धिनीं लक्षयति। अवस्था-वस्थावतोर्हि सम्बन्धात्, अवस्थावत्यभिहिते, भवत्येवाऽवस्था।#़पि बुद्धिस्था। ।सर्वत्र च सम्बन्धिनि दृष्टे, सम्बन्ध्यन्तरे बुद्धिर्भवतीति क्लृप्तमेव। तेन नाऽस्ति पदानामन्वितबोधने शक्तिकल्पनेति। तदाहु:--- "वाक्यार्थो लक्ष्यमाणो हि सर्वत्रैवेति नस्स्थिति:।" अत्राऽपरे ब्रुवते---नेयं लक्षणा, स्वार्थापरित्यागात्। स्वार्थपरित्यागेन हि गङ्गादिषु लक्षणा दृष्टा-इति। ते तु मीमांसातन्त्रान्त:पातवैकल्येनैवमाहु:। लक्षणीयवशेन हि क्वचित् स्वार्थस्य त्याग:, संग्रहो वा। "सृष्टीरूपदधाती"ति 1145लक्षणायास्स्वीकार:, 1146गुणिनां तद्गणपठितानां सृष्टिशब्दरहितानामपि लक्ष्यमाणत्वात्, तदन्तर्गतत्वाच्च सृष्ट्यर्थस्रू। तथा "पौर्णमासीं यजते" इत्येकवचनानुपपत्त्या पौर्णमासीशब्दो यागवचनो यागसमुदायलक्षणार्थ:1147। न च समुदायपरिग्रहे समुदायित्याग:, तदाश्रयत्वात्तस्रू। तथैतरेतरयोगद्वन्द्वे द्विवचन-बहुवचनानुपपत्तेरर्थान्तरसहितावस्था लक्षणयाऽऽश्रीयते, न चाऽवस्थावत्परित्याग:। तथा निषादस्थपत्यधिकरण झ्र्मी. द. 6. 1-10ट पूर्वपक्षे षष्ठ्यर्थलक्षणा स्यादित्युच्यते, न तत#्र प्रकृत्यर्थस्य त्यागोऽप्यापद्यते। तथा 1148रथघोषेणेत्यत्र रथस्याऽपरित्याग:। तथा "मेधपतये 1149मेधमि"त्येकवचनान्तस्य मन्त्रस्य लक्षणया प्रकृतौ निवेश:। न च गुणिनोरग्नीषोमयोस्तत्र हानमिति, 1150स्वार्थापरित्यागेऽपि युक्तैव लक्षणा। गुरुमतेन लक्षणानिरूपणम्। अत्रोच्यते। कथं पुनरियं लक्षणा ? ।वाच्यस्याऽर्थस्य वाक्यार्थे सम्बन्धानुपपत्तित:। तत्सम्बन्धवशप्राप्तस्याऽन्वयाल्लक्षणोच्यते।। 1151इति सङ्ग्रहश्लोक:1152। "गङ्गायां घाष:," इत्यादिषु श्रौतस्य गङ्गापदार्थस्य वाक्यार्थेऽन्वयासम्भवात्, तं परित्यज्य तत्सम्बन्धाल्लब्धबुद्धिसन्निधे: कूलाद्यर्थस्य वाक्यार्थान्वयिताऽध्यवसीयते। अत एवाऽऽहु:--- "अनुपपत्त्या, सम्बन्धेन च लक्षणा भवती"ति। इह च "गामानये"त्यादौ न श्रौतस्याऽर्थस्याऽन्वयायोग्यत्वं, नाऽप्यन्वितावस्थस्याऽऽनयनसम्बन्धार्हता1153। अन्वितार्थस्याऽन्वयान्तरासम्भवात्। अथ मा भूदेषा लक्षणा, किनतु क्रियाऽवगत कारकान्वयिनीमात्मनो दशामवगमयति, अविनाभावादिति। उच्यते---शाब्दत्वं तावदित्थमपढद्धठ्ठड़14;नुतमन्वयावगमस्य, किन्तु सामान्यतोदृष्आनुमानगोचरताऽभ्युपगता भवति। तथा विशिष्टान्वयावगतिरनुपपद्यमाना 1154निर्मूलाऽऽपद्यते। अथ विशेषान्वयं विना व्यवहारानवकल्पनादनर्थकं शब्दोच्चारणमिति तदाश्रयणम्, एवमपि प्रेक्षापूर्वकारिणां1165 सार्थकवाक्यमात्रप्रयोगिणां वचनाद्व#िशेषान्वयावगम:। वेदे त्वानर्थक्येन न भवितव्यमिति, प्रमाणाभावान्न शक्यते विशेषान्वयोऽवगन्तुम्। न च लोकेऽप्यानर्थक्यमापद्यत इत्येतावता कारणेनोपायाद्विनाऽपि विशेषान्वयाध्यवसानं युक्तम्। न हि दग्धुकामस्योदकोपादानमनर्थकमिति, जलस्य दाहशक्तिराविर्भवति। कामम#ानर्थक्यम्। न पुनस्सामान्यतोदृष्टस्य 1156विशेषान्वयावसायिता। अथाऽऽकाङ्क्षित-सन्निहित-योग्यान्यवपरता वृद्धव्यवहारे पदानामवगतेति, व्युत्पत्त्यनुसारेण विशेषान्वयावगम:। तन्न तत्र वृद्धव्यवहार एव तत्परता पदानाम्, पदार्थानां वा उपायाभावेन कथं नाम निर्वहति ?मए चिन्ता सा हि पदानाम्, पदार्थानां वा शक्तिकल्पनां विनाऽनुपपन्नेति मन्यामहे ।। 10 ।। सा च पदानामेवोचितेत्याह--- 1157प्राथम्यादभिधातृत्वात् तात्पर्यावगमादपि1158। पदानामेव सा शक्तिर्वरमभ्युपगम्यताम् ।। 11 ।। प्रथमभावीनि पदान्यतिलङ्घ्य, नाऽर्थेषु वाक्यार्थबोधनशक्तिराश्रयितुं युक्ता। किञ्च पदानि तावदभिधायकानीति निर्विवादम्। तेन तेषामभिधानशक्तिस्सम्प्रतिपन्नैवेति, तस्या एवाऽन्वयपर्यन्ततया कल्पयितुं सुकरा। पदार्थानान्तु बोधनशक्तिरेव कल्प्या। तेन "धर्मिकल#्पनातो वरं धर्मकल्पना 1159लघीयसी"त्यन्विताभिधानशक्ति: पदानामेव कल्पयितुमुचिता। किञ्च पदान्यभिधायकानीष्यन्ते, तत्र यदि स्वरूपमात्रविषयामेव पदार्थबुद्धिमादध्यु:, तदाऽप्यभिधायकता हीयेत, तस्या बुद्धेस्सम्बन्धग्रहणसमयजातपदार्थबोधकसंस्कारोन्मेषप्रभवत्वात्। अवश्यं हि सम्बन्धस्मरणसिद्ध्यर्थं सम्बन्धिभूतार्थस्मरणसंस्कारोद्बोधोऽङ्गीकरणीय:। तस्मात् सम्बन्धग्रहणसमयानधिगतान्वितार्थप्रतिपादनाभ्युपगम एव शब्दानामभिधायकतेति, तामङ्गीकुर्वता पदानामन्विताभिधायकताऽऽश्रयणीया। यस्तु--- "पदमभ्यधिकाभावात् स्मारकान्न विशिष्यते" ।। झ्र्श्लो. वा. अधि. 6. 107.ट इति। तथा--- "भावनावचनस्तावत् तां स्मारयति लोकवत्" ।। झ्र्श्लो. वा. अधि. 7. श्लो. 248ट इति चाऽऽचार्यवचनदर्शनात् स्मारकतामेव पदानामभिधायकत्वमाह, तं प्रत्याह--- "तात्पर्योपगमादपी"ति। येनाऽपि वादिना पदानां स्मारकत्वमेव पदार्थेष्वङ्गीकृतम्1160, सोऽपि वाक्याथप्रतिपत्तिपरतां पदानामभ्युपैत्येव, अन्यथा वाक्यार्थस्याऽशाब्दत्वप्रसङ्ग:। एवञ्चेत् पदानामेव साक्षाद्वाक्यार्थबोधनशक्तिरस्तु, किं परमपराश्रयणेन1161। तेन पदार्थेषु पदानां स्मारकत्वातिरिक्तं येऽभिधायकत्वमाहु:, तेषां शक्तित्रयकल्पना। एका तावत्पदानामभिधायकत्वशक्ति:, अपरा च पदार्थगतान्वयबोधनशक्त्याधानशक्ति:, पदार्थानाञ्चाऽन्वयज्ञापनशक्तिरिति। स्मारकत्ववादिनस्त्वभिधानशकिं्त हित्वा शक्तिद्वयकल्पनालाघवात्, उक्तेनैव न्यायेन पदानामेव शक्तिकल्पनाया 1162उचितत्वात्, अन्विताभिधायीनि पदानीति स्थापितम् ।। 11 ।। सम्प्रति पूर्वोक्तमितरेतराश्रयदोषं परिहर्तुम्, यथा पदेभ्यो वाक्यार्थप्रतिपत्ति:, तथा दर्शयति--- 1163पदजातं श्रुतं सर्वं स्मारितानन्वितार्थकम्। 1164न्यायसम्पादितव्यक्ति पश्चाद्वाक्यार्थबोधकम् ।। 12 ।। यस्तावदगृहीतसम्बन्ध:, यस्य च सम्बन्धग्रहणसंस्कारो नोत्पन्न:, प्रध्वस्तो वा स वाक्यार्थप्रतिपत्तौ नाऽधिक्रियते। यस्त्वनपभ्रष्टसम्बन्धग्रहणसंस्कार:, स पदं श्रुत्वा नूनं तावदिदं स्मरति---इदमस्याऽकाङ्क्षित-सन्निहित-योग्य-प्रतियोग्यन्वितस्य वाचकमिति। एवञ्च स्मरता स्मृतमेव अनन्वितमपि1165 स्वरूपमनवयभाजाम्। न चैकपदश्रवणे वाक्यार्थावगतिरितिकश्चिन्मन्यते। अभिहितान्वयवादिनोऽपि यावत् पदान्तरमर्थान्तरं नोपस्थापयति, तावदन्वयावगमो नाऽस्ति। पदार्थस्याऽन्वयावबोधिन: पदार्थान्तरापेक्षत्वात्, प्रतियोगिसापेक्षत्वादन्वयस्य। अतस्तन्मतेऽपि सर्वदैरनन्वितस्वार्था 116अभिधानीया:। पश्चात्तेभ्यस्सर्वेभ्यस्स्मृत्यारूढेभ्यो वाक्यार्थप्रतिपत्तिरङ्गीकरणीया। तदाहुर्वार्तिककारमिश्रा:--- "तेऽपि1165 नेवाऽस्मृता यस्मादृ वाक्यार्थं गमयन्ति न:। तस्मात् तत्स्मरणेष्वेव 1167संहतेषु प्रमाणता" ।। झ्र् बृहट्टीका ट इति। अत एव तत्रभवत आचार्यस्य वाक्यलक्षणं "संहत्याऽर्थमभिदधति पदानि वाक्यमि" झ्र्शा. भा. बला. अ. प. 824.ट ति। नन्वन्विताभिधानवादिनां कथं वाक्यार्थपतिपत्ति:। श्रूयमाणेन हि पदेन योऽर्थो नाऽवबोधित:, स कथमन्तर्हिते तस्मिन्नवभासेत। उच्यते---अभिहितान्वयवादिनोऽपि नाऽयं नियम:---श्रूयमाण एव पूर्वपूर्ववर्णजनितसंस्कारसहितोऽन्त्यो वर्ण: पदार्थप्रतिपादक इति, बाल्यदश#ाधीतात् प्रागनवधृतार्थादङ्गपरिज्ञानसंस्कारात् पश्चात् स्मृतादपि वेदादर्थावगमदर्शनात्। तेन स्मृत्यारूढस्याऽवगमकत्वमदोष:। श्रूयमाणेन हि पदेन प्रतियोगिसापेक्षत्वादन्विताभिधानस्य प्राक् सहकारिविरहादर्थो नाऽभिहित:, पश्चादभिधीयत इति किमनुपपन्नम्। येऽपि वादिन एवमाहु:---एकमेव पदमन्विताभिधायकमस्तु, इतराणि च पदानि प्रतियोगिसन्निधापनमात्र एव व्याप्रियन्ताम्। न चाऽगृह्यमाणविशेषता, प्राथम्येन, प्रधानपदत्वेन वा विशेषग्रहणात्। अत एव चाऽऽहु:--- "पदमाद्यं1168 वा वाक्यम्, प्रधानं पदं वा वाक्यमि" झ्र्वा. प. का. 2. श्लो. 2.ट ति। तान्प्रत्याह-- "सर्वमि"ति। प्रथमस्यैव स्याद्वाक्यता यदि, सर्वपदार्थानां प्रथमपदार्थान्वितता स्यात्। न चाऽयं नियम:। "अरुणयैकहायन्या पिङ्गाक्ष्या सोमं क्रीणाती" झ्र्तै.सं. 6.1.9टति क्रयमात्रान्वयितवादारुण्यस्य। किञ्च1169 वाक्ये पदानामानुपूव्र्यनियमाभावात्, कदाचित्तदेव प्रथमं सदन्विताभिधायकम्, अन्यदा नेति न युक्तम्। तथा प्रधानपदस्याऽपि वाक्यत्वमयुक्तम्, सोमपदार्थेन1170 सह सर्वेषामनन्वयात्। यद्यप्यारुण्यादीनां सर्वेषां सोमं प्रत्यैदमथ्र्यमस्ति। तथाऽप्यस्मिन् वाक्ये क्रय एवाऽऽरुण्यादीनामैदमथ्र्येन, क्रिया-कारकभावेन चाऽन्वय:। क्रयद्वादेण तु सोमं प्रत्यैदमथ्र्यमात्रम्। अथ यत्प्रतिपादनपरं वाक्यम्, तत् प्रधानमित्युच्यते। इह तु क्रय एव सर्वकर्मकरणावच्छिन्न: प्रतिपाद्यते। तेन क्रीणातीत्येतदेव1171 प्रधानं पदम्, तदन्वयिता च सर्वेषामारुण्यादीनामिति। अत्रोच्यते---वाक्यस्य यत् तावत् तात्पर्यं, 1172तन्न व्यवस्थितम्। क्वचिदाख्यातपरत्वमेव---"अग्निहोत्रं जुहोती"ति। क्वचिद् गुणविधिपरत्वं, दध्ना जुहोती"ति। तेन प्रधानपदत्वस्याऽपि सर्वेषां पदानां सम्भवात्, सर्वेषामेव पदानामन्विताभिधानशक्तिराश्रयणीया। तथा सति यत्राऽपि क्लॄप्तशक्तिकतया तदन्विताभिधायकत्वमविरुद्धम्। पदार्थेष्वपि चैतत् तुल्यमेव। नन्वेवं "गामानये"त्यादौ परस्परपर्यायता सर्वशब्दानां स्यात्। यथा "गामि"त्यनेनाऽऽनयत्यन्विताभिधानम्, तथा "ऽऽनये"त्यनेनाऽपि गवान्विताभिधानमिति। उच्यते---द्वावेतावर्थौ, यदानयनान्वितं गोत्वम्, गवान्वितञ्चाऽऽनयनमिति। तेनैकैकेनैकैकस्याऽर्थस्याऽभिधानात् कुत: पर्यायत्वप्रसङ्ग:। पदार्थेष्वपि चैतत्समानम्। ननु क्रीणात्यर्थस्याऽऽरुण्याद्यनेकार्थान्विताभिधानादावृत्तिलक्षणो वाक्यभेदस्स्यात्। न। तन्त्रोच्चारणात्। वैरूप्ये च तन्त्रतानुपपत्तेर्वाक्यभेदस्स्यात्। "न्यायसम्पादितव्यक्ती"ति किमिदम्, यावन्न्यायेन वचनव्यक्तिर्नसम्पाद्यते, तावत् पदजातं वाक्यार्थस्याऽवबोधके न भवति। लोकव्य1173वहारवर्तिभिन्र्यायैर्यावत्---इदं विधेयम्, इदमनुवाद्यम्। इदं प्रधानम्, इदं गुणभूतम्। इदं विवक्षितम्, इदविवक्षितमित्यादि न सम्प्रधार्यते, तावन्न क्वचिद्वेदवाक्यार्थोऽवबुद्ध्यते। तदुक्तं वार्तिककारमिश्रै:--- "तावदेव हि सन्देहो वेदवाक्ये श्रुते भवेत्। यावन्न वचनव्यक्तिस्तस्य स्पष्टाऽवधार्यते ।। ज्ञात्वा तु वचनव्यकिं्त मीमांसान्यायकातरा:। प्रतीयन्ते समस्ताश्च वेदवाक्यार्थसंशया:" ।। इति। अत एव मीमांसाया वेदवाकयार्थप्रतिपत्तावितिकत्र्तव्यतात्वम्। तदुक्तं तैरेव--- "धर्मे प्रमीयमाणे हि वेदिन करणात्मना। इतिकर्तव्यताभागं 1174मीमांसा पूरयिष्यति" ।। झ्र् बृहट्टीका ट इति। ननु लोके द्रागेव वाक्यार्थावगतिर्नेयतीं सामग्रीमपेक्षते। उच्यते---अत्यन्ताभ्यस्तेषु वाक्येषु स्यादेवम्, अदृष्टार्थेषु स्मृत्यादिवाक्येषु, लोकेऽपि नानाविधविवादोत्थानात् कुतो द्रागेवाऽर्थनिश्चय:। अपि च कारणाभावेनाऽपि लोकस्याऽयंविवेको नाऽस्ति। तदुक्तम्--- "बहुजाति-गुण-द्रव्य-कर्मभेदावलम्बिन:। प्रत्ययान् सहसा जातान् श्रौत-लाक्षणिकात्मकान्।। न लोक: कारणाभावान्निर्धारयितुमर्हति। बला-बलादिसिद्ध्यर्थं वाक्यज्ञास्तु 1175विचिन्वते" ।। झ्र् तं. वा. पृ0 ट इति। यच्चेदं सर्वपदानामन्विताभिधायित्वमुच्यते, तत् सर्वेषु श्रौतार्थेषु पदेषु। लाक्षणिक-गौणार्थपदप्रयोगे तु यदेव तत्र श्रौतार्थ पदम् तदेवाऽन्विताभिधायकम्, इतरत्तु पदं प्रतियोगिसन्निधापनपरमेव। तत्र वाचकत्वशक्त्यनवधारणात् स्वार्थस्याऽपि तत्तदानीमवाचकम्, अन#्वयायोग्यत्वात्। किन्तु तदर्थेन स्मृतेन यत् स्वसम्बन्धि, स्वसदृशं वा स्वयमन्वययोग्यमुपस्थाप्यते, तेनाऽन्वितं श्रौतार्थमेव पदं स्वार्थमभिधत्त इति दर्शनरहस्यमिदम्। न च सर्वपदान्येव लाक्षणिकानि, गौणानि वा वाक्ये सम्भवन्तीति निरवद्यम्। क्वचिदभिधानं निमित्तम#्, क्वचिदभिहितोऽर्थ इति च यदुक्तम्, तच्छब्दोपस्थापिततां दर्शयितुं गौणमभिहितत्वग्रहणम् ।। 12 ।। कथं पुनरन्विताभिधायिनां पदेन स्वरूपमात्रं स्मारयितुं शक्यमित्याह--- अन्वितस्याऽभिधानेऽपि स्वरूपं विद्यते सदा। तेन स्वरूपमात्रेऽपि शब्दो जनयति स्मृतिम् ।। 13 ।। एवं तावत् सम्बन्धग्रहणान्तर्गतं स्वरूपस्मरणमुक्तम्। सम्प्रति स्वरूपमात्रस्मरणमपि पदादेव नाऽनुपपन्नमित्याह--- यथाऽर्थेनाऽप्रमाणेन स्वपदं स्मार्यते क्वचित्। पदेनाऽप्यप्रमाणेन तथाऽर्थस्स्मारयिष्यते ।। 14 ।। न हि यत्प्रमाणं, तदेव स्मरणकारणम्, अप्रमाणमेव हि तत्। यस्य तु येन सह कदाचित्प्रत्यासत्ति: प्रतीतपूर्वा, स तत्र संस्कारोद्बोधद्धारेण शक्नोत्येव स्मृतिं जनयितुम्। अस्ति च स्वरूपस्याऽपि तदभिधेयान्तर्गत्या शब्देन प्रत्यासत्तिरिति, शाक्नोति तत्राऽपि शब्दस्स्मृतिं जनयितुम्, अर्थवत्। यथा निर्विकल्पकदशाप्रतीतमर्थस्वरूपमात्रमनभिधेमपि शब्दं स्मारयति, तथा शब्दोऽप्यर्थमिति, किमनुपपन्नम्। एतेन---पदोच्चारणानन्तरं पदार्थस्वरूपप्रतीतिस्समर्थिता। अभिहितान्वयवादिनोऽपि सा न प्रमाणम्, अभ्यधिकार्थपरिच्छेदाभावात्। "अनधिगतार्थगन्तृ प्रमाणमि"ति सिद्धान्ताभ्युपगमात्। तदुक्तम्--- "सर्वस्याऽनुपलब्धेऽर्थे प्रामाण्यं स्मृतिरन्यथा" झ्र्श्लो. वा. औ. सू श्लो. 11.ट इति। अत एव स्मृतिरियम्, यदि पुनस्स्मृतिरेषा नाऽभ्युपेयेत, तदा प्रमाण-स्मृति-संशय-विपर्ययेभ्य: प्रतिपत्त्यन्तरानभ्युपगमात् पदात् पदार्थप्रतीति: क्वाऽन्तर्भाव्यतामिति वाच्यम्। अत एवाऽभिहितान्वयवादेऽपि स्मारकत्वमेवाऽस्मभ्यं रोचते ।। 14 ।। इतरेतराश्रयमिदानीं परिहरति--- स्मृतिसन्निहितैरवमर्थैरन्वितमात्मन:1176। अर्थमाह पदं सर्वमिति 1177नाऽन्योन्यसंश्रय: ।। 15 ।। स्वार्थस्वरूपमात्रस्मरणे हि न पदं पदान्तरमपेक्षते। स्मृतिसन्निहितमपीदं भवत्येव सन्निहितम्। नाऽस्ति तेनेतरेतराश्रयत्वम्। ननु वृद्धव्यवहारेण व्युत्पत्ति:, अन्वितार्थप्रतिपत्तिनिबन्धनश्च व्यवहार:, अतस्तद्दर्शनात् अन्वितप्रतिपत्तिरेवाऽनुमातुं शक्या, न त्वनन्वितपदार्थमात्रस्मरणम्। उच्यते---व्यवहारानुमितान्वितप्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्तिरेवाऽनन्वितस्वार्थस्मरणसम्भवे प्रमाणम्।दर्शितं ह्येतत्---नाऽनन्वितप्रतिपत्तिमन्तरेणाऽन्वितप्रतिपत्तिरुपपद्यत इति। 1178अत्र कश्चिदाह---यदि स्मृतिसन्निहितमाश्रित्याऽन्विताभिधानं परै: क्रियते, तदा स्मरणस्य प्रत्यासत्तिनिबन्धनत्वात्, अनेकेषाञ्चाऽर्थानां प्रत्यासत्तिसम्भवात्, तेषु स्मृतिसन्निहितेष्वगृह्यमाणविशेषत्वात्, "उरवायां पचती"ति नोखा पचतयर्थान्वितैव केवलाऽभिधीयेत। सा हि 1179कुलालाद्यन्विताऽपि प्रतिपन्नैवेति, स्मरणात् तदन्विताऽप्युरवाऽभिधीयेत। तथा पचत्यर्थोऽपि पिष्टकादिकरणकोऽवगत1180 इति तत्स्मरणान्नौदनान्वित एवाऽभिधीयेत। अभिहितान्वयवादे तु नाऽयं दोष:। एकैकस्याऽर्थस्याऽभिधेयत्वादिति। 1181अत्रोच्यते---पदात्तावत् पदार्थप्रतीतिस्स्मरणाद् भिन्ना वदितुं न शक्यते। तेन स्मृतानामेवाऽन्वयबोधकत्वमित्याश्रयणीयम्। तथा च तुल्यो दोष:। अथ शब्दैस्स्मारितानामन्वयबोधकत्वं1182 वृद्धव्यवहारे तथादर्शनादित्यदोष:1183। मतान्तरेऽपि तुल्यमेतत्। न चाऽयमेकान्त:, वृद्धव्यवहारेऽध्याहृतेनाऽप्नयर्थेनाऽऽन्विताभिधानदर्शनादित्युक्तम्। अथ शब्दैर्बहवोऽर्थास्स्मार्यन्ते, किन्तु तेषां कतमेनाऽन्वयावबोधकत्वमिति न विद्म:1184। अभिहितान्वयवादे त्वभिहितेनैवाऽन्वयबोधकत्वं युक्तमेवेति। तदसत्। स्मारकत्वातिरेकिणी1185काऽन्याऽभिधायकता, या व्यवस्थानिबन्धनम्। अथोच्येत-स्मारकत्वं नाम प्रत्यासत्तिनिबन्धनम्। तेन तदतिरेकिण्यभिधेया--- भिधायकतालक्षणा प्रत्यासत्तिरङ्गीकरणीयेति। नैतदेवम्। स्मारकत्वेनैव वृद्धव्यवहारे दर्शनात् स्मारकत्वोपपत्ते:। 1186प्रत्याय्य-प्रत्यायकता हि वाच्यवाचकता, सा च यद्यप्यग्नि---धूमादीनां सम्बन्धान्तरपूर्विका दृष्टा। तथाऽपि शब्दे तथा नाऽऽश्रीयते, किन्तु वाचकत्वावगमादेव वाचकत्वम्। एवं स्मारकत्वावगमादेव स्मारकत्वमिति, किं प्रत्यासत्त्यन्तराश्रयणेन। अपि चाऽन्वितार्थवादिन एवेदं प्रतिनियतान्वयित्वमुपपद्यते---यत्पदार्थान्तरान्विताभिधायकतया स्मार्यते, तदन्वितस्यैव वृद्धव्रूवढद्धठ्ठड़14;वारे वाच्यत्वदर्शनात्। यत्राऽप्यध्याहार:, तत्राऽपि सन्निधापकवशेन विशेषान्विताभिधानलाभ इति लोकत एव ज्ञातमिति, न कश्चिद्दोष:। अपि च ज्ञातं तावदेतद् यदनेन पदेनाऽयमर्थोऽन्वितो वाच्य इति, तत्र यद्यन्येनाऽप्यन्विताभिधानं स्यात्, तदा वाक्यभेदो भवेत्। न चाऽसावेकवाक्यत्वसम्भवे न्याय्य:। तदुक्तम्--- "सम्भवत्येकवाक्यत्वे वाक्यभेदस्तु नेष्यते" झ्र्श्लो. वा. प्र. सू. श्लो. 9.ट इति। अत एव यथाकथञ्चिदेकवाक्यत्वोपपत्तौ वाक्यभेदस्याऽन्याय्यत्वम्। लोके च लक्षणा, गौणी च वृत्तिर्वाक्यभेदभयादेव1187। अन्यथा वाक्यं भित्वा किमित्यध्याहृत्य योग्यमर्थान्तरं सर्वपदान्येव मुख्यार्थानि नाऽऽश्रीयन्ते। वेदेऽप्येकवाक्यत्वबलादेवा1188ऽर्थवादेषु1189गुणवादाद्याश्रयणम्, 1190सम्मार्गाधिकरणे झ्र्मी. द. 2. 1. 4.ट विभक्तिव्यत्ययवर्णनम्। औदुम्बराधिकरणपूर्वपक्षे च कथञ्चित् पशुफलकत्वाश्रयणम्। चित्राधिकरणे झ्र्मी. द. 1. 4. 2.ट रूढिपरित्यागेन "पञ्चदशान्याज्यानि भवन्ती" झ्र्तां . व्रा. 20. 1. 1.ट तिकथञ्चिन्नामधेयत्वाश्रयणम्। वाजपेयाधिकरणे झ्र्मी. द. 1. 4. 5.ट च वाक्यभेदभयादेव नामधेयत्वाश्रयणम्। पौर्णमास्यधिकरणे झ्र्मी. द. 2. 2. 3.ट चाऽनेकगुणविधाने वाक्यभेदापत्तेस्स्मुदायानुवादकत्वसिद्धि:। प्रकरणान्तराधिकरणे झ्र्मी. द. 2. 3. 11.ट च वाक्यभेददोष#ादेवाऽग्निहोत्रपदस्य गौणत्ववर्णनम्। ग्रहाधिकरणे झ्र्मी. द. 1. 3. 7.ट चैकत्वस्याऽविवक्षितत्वम्। "अद्र्धमन्तर्वेदि मिनोति, अद्र्धं बहिर्वेदी" झ्र्मै. सं. 3. 9. 4.ट त्यत्र झ्र्मी. द. 3. 7. 6.ट देशलक्षणापरत्वम्। क्षौमाधिकरणै झ्र्मी. द. 6. 1. 5.ट च पु#ंद्वयविधानहानम्। हविरात्त्र्यधिकरणे झ्र्मी. द. 6. 4. 6.ट चोभयपदस्याऽविवक्षा। "वारुण्या निष्कासेन तुषैश्चाऽवभृथं यन्ती" झ्र्मी. द. 7. 3. 5.ट त्यत्र निरपेक्षत्वत्याग:। पर्युदासाधिकरणे झ्र्मी. द. 10. 8. 7.ट च नञर्थस्य लाक्षणिकत्वमित्याद बहुतरं दृश्यते। तत्र यदि समभिव्याढिद्धठ्ठड़14;वयमाणस्य पदस#्याऽभिधेयं परित्यज्य, अन्येन सहाऽन्वयो लक्ष्यते, 1191तदा तदेकवाक्यता हीयेत। 1192तदर्थमेवेदमुक्तं, "न्यायसम्पादितव्यक्तीति"। एकवाक्यत्वं हि न्याय:1193। तदनुसारेण योऽर्थ:, सोऽत्र वाक्यस्याऽऽश्रयणीय:। वृद्धव्यवहारच्युत्पत्तिनियन्त्रितायां शब्दार्थावगतौ ये न्याया: वृद्धव्यवहारे वाक्यार्थावगतिहेतुतया विदिता:, तानपरिजहता वाक्यार्था बोद्धव्या इति-सर्वासामेवाऽनुपपत्तीनामनवकाश:। भवतु तर्हि पदार्थान्तरेण तावदन्विताभिधानमेकवाक्यत्वबलात् तत्स्मारितेन, स्वयं स्मारितेन च तदेकवाक्यत्वानुगुणेनाऽर्थान्तरेणाऽपि किमित्यन्विताभिधानं न भवति। उच्यते---पदद्वयेनैवाऽन्विताभिधानसिद्धेराकाङ्क्षोपशान्ते:। अथ नोपशान्ताऽऽकाङ्क्षा, तर्हि को न#ाम तत्राऽन्विताभिधानं वारयेत्। अत एवैकपदोच्चारणे तदर्थसम्बन्धमुखेन बहुष्वपि स्मृतिसन्निहितेषुयस्याऽर्थस्य केनचित्प्रकारेण विशेषो गृह्यते, तेनैवाऽन्विताभिधानम्, अगृह्यमाणे तु विशेषेऽनध्यवसायादप्रतीतिरेव। अत एव विकृतिषु तत्सादृश्येन यदपूर्वं स्मर्यमाणं स्वोपकारकं स्मारयति, तदीयेनैवोपकारेण परिपूरण्म्। अतो यत्र बहुतरधर्मसाधरण्यनिबन्धनं सादृश्यमत्यन्तोद्मटम्1194, तत्रैव शीघ्रं स्मृत्युपपत्तेस्तदीयोपकारपरिग्रह एव। दर्विहोमेषु तु सर्वापूर्वाणामविशेषाद् विशेषो ग्रहीतुमशक्य इत्यनध्यवसाय एव प्राकृतस्योपकारस्य#ेति, तत्रैवोपकारकल्पना। 1195अपि च यथावृद्धव्यवहारावगमं वाक्यार्थावबोध:। तत्र तदेव पदेन अनपभ्रष्टसम्बन्धग्रहणसंस्कारस्य पुरुषस्य नियमेन स्मार्यते, तेनैवाऽन्विताभिधानं पदान्तरस्य दृश्यते, नाऽन्येन। सर्वं पदं स्वार्थं हि नियमेन सम्बन्धग्रहणात्1196 स्मारयति, नाऽर्थान्तरम्। ततश्च 1197तेनैवाऽन्वितस्वार्थबोधकतेति, न कश्चिद्दोष:। किञ्च यद्यभिहितेनैवाऽन्वितस्वार्थबोधनाभ्युपगम एव प्रतिनियतान्वयबोधो घटते, नाऽन्यथा, तर्हि कल्प्यतां पदानामन्विताभिधानशक्तिरपि। द्विरभिधानमापद्यत इति चेदापद्यताम्, न कश्चिद्दोष:। पूर्वं केवलं पदमनन्वितं स्वार्थमभिधत्ते, प्रतियोगिपदान्तराभिहितवस्त्वन्तरसहायप्राप्त्या तु तत्तदन्वितमर्थमाह, इति न कश्चिद्दोष:। इत्थमपि चाऽस्मन्मते शक्तिकल्पनालाघवमस्ति, पदार्थगतान्वयबोधनशक्त्याधानशक्तिकल्पनात्यागात्। तुल्यायामपि शक्तिकल्पनायाम्, पदानामेवाऽन्वितबोधनशक्तिराश्रयितुमुचिता,1198न पदार्थानाम्, प्रथमावगतत्वात्, वाक्यार्थे च 1199 तात्पर्यस्योपगमादिति ।। 15 ।। कथं तर्हीदं भाष्यम्--- "पदानि ही"त्यादि। तत्राऽऽह--- अन्वितेषु पदैरेवं बोध्यमानेषु शक्तिभि:। अन्वयार्थगृहीतत्वान्नाऽन्यां शक्तिमपेक्षते ।। 16 ।। 1200आशङ्कितोत्तरमिदं भाष्यम्। किमाशङ्कितम् ? यद्यन्विताभिधायीनि पदानि, तर्हि नाऽन्वयाभिधायीनि। तत्सिद्ध्यर्थं पदानां शक्त्यन्तरं कल्प्यमिति। अत्रेदमुत्तरम्। यत्पदमन्विताभिधायकम्, तदन्वयाभिधायकमेव। 1201अन्यथाऽन्वित एवाऽसौ नाऽभिहितस्स्यादिति, अन्व#ितरूपेणाऽर्थेनाऽन्वयस्स्वीकृत:। तं विना तदसम्भवादिति, नाऽपरा तद्विषया पदानां शक्ति: कल्पनीया ।। 16 ।। कथं पुनरसावर्थगृहीत 1202इत्यत्राऽऽह--- प्रतीयन्नन्वयं यस्मात् प्रतीयादन्वितं पुमान्। व्यकिं्त 1203जातिमिवाऽर्थेऽसाविति सम्परिकीत्र्यते ।। 17 ।। अन्वयवाने ह्यन्वित:। सोऽन्वयाप्रतीतौ न प्रतीत एव स्यात्, किन्तु स्वरूपमात्रमेव। न च तदन्वितमुच्यते। तस्मादन्वयं प्रतिपद्यमान1204 एवाऽऽन्वितं प्रतिपद्यते। यथा व्यकिं्त प्रतिपद्यमान एव जातिम्। अयन्तु विशेष:। अन्वयवानेवाऽन्वित उच्यत इति, अन्वयोऽप्यभिधानानुप्रवष्टि:। व्यक्तिमत्तैव जातिस्वरूपं न भवति, किन्तु व्यक्तेराकारान्तरभूता जातिस्ततो भिन्ना। साचेदाकृतिश्शब्दाभिधेया, न व्यक्तिरप्यभिधानानुप्रवेशिनी, किन्त्वाकारभूता जातिव्र्यक्तेव्र्यतिरिक्ताऽपि वस्तुस्वभावेन व्यक्तिमन्तरेण न प्रतीतिमनुभवति, एतावता च साम्येन दृष्टान्त:, न सर्वात्मना। नन्वेकविज्ञानारूढा कथं व्यक्तिरनभिधेया। शब्दोत्थापितविज्ञानविषयता ह्यभिधेयता, अस्ति च व्यक्तेरपि तथाभाव इति, कथमनमभिधेयतेति। 1205श्रूयतामवधानेन सर्वस्वं प्राभाकराणाम्। सत्यमेकसंवित्तिविषयता जातिव्यक्त्यो:। तथापि चिन्तनीयमिदम्---कथमेषा संवित्तिरुभयविषय#ा जायत इति। किमस्योभयविषयत्वे शब्दमात्रस्यैव व्यापार: ? उत जातिमात्रविषयत्वे शब्दस्स्वरूपमात्रेण व्याप्रियते। व्यक्तिविषयत्वे जात्यनभिधायकतया जातेरन्यथा बोधयितुमशक्यत्वात्---इति। तत्र तावदनन्तासु व्यक्तिषु सम्बन्घग्रहणाशक्ते:, आकृत्युपलक्षितासु च यद्यप#ि सम्बन्धग्रहणं सुकरम्, तथाऽपि तद्रूपवत्त्वेनैव शब्दाद्व्यक्त्यवगमात्, उपलक्षणत्वे कारणाभावात्, चिढद्धठ्ठड़14;नाभावेन च क्रियान्वयासम्भवादाकृतिविषयत्वे शब्दव्यापार इति निश्चीयते। तेनाऽऽकृतिर्न व्यकिं्त गमयति, किन्तु शब्द एव तदभिधायकतयेत्याकृतितो व्यक्तिरुच्यते। अतोऽन्विताभिधानायाऽन्वयस्याऽर्थग्रहीतत्वादसावन्वयो नाऽभिधीयते। तेन व्यतिषक्ताभिधानवन्न व्यतिषङ्गाभिधानं, निष्कृष्टामिधानन्तु न भवति। व्यतिषक्ततोऽवगतेव्र्यतिषङ्गस्य, व्यतिषक्तस्य व्यतिषङ्गं विनाऽभिधानानुपपत्ते:। 1206भाष्याक्षराणामयमर्थ:---पदान्यन्वितमभिधाय निवृत्तव्यापाराणि नाऽन्वयं पृथगभिदधति। अथेदानीमन्विता: प्रतिपन्ना अन्वयमपि प्रतीतं सम्पादयन्ति---इति। लोके च पदार्थानां सम्बन्धग्रहणसमय एव विदितत्वात्, वाक्यान्तरे चाऽन्वयान्तरस्यैव प्रतिपन्नत्वात्, तत्परतैव वाक्यस्येति। वाक्यार्थशब्देन भाष्यकारोऽन्वयमाह। वेदे त्वपूर्वात्माऽन्वितो वाक्यार्थ इति 1207वक्ष्याम:। तस्य च स्वरूपमनवगतमित्यस्यैव वाक्यार्थत्वम्। एवमुक्तेन न्यायेन विशेषेणैवाऽन्विताभिधानं समर्थितम् ।। 17 ।। येऽन्विताभिधानवादिन एवमाहु:---वृद्धव्यवहारप्रसिद्धसम्बन्धश्शब्दोऽर्थस्य वाचक:, अन्वय-व्यतिरेकाभ्यञ्च सम्बन्धावधारणम्। न च विशेषान्वयविषयौ तौ सम्भवत:। क्रियापदं हि कारकसामान्याव्यभिचारिण्या क्रियया सहाऽन्वय---व्यतिरेकौ भजते। 1208विशेषान्वयान्तरव्यभिचारात्। एवं कारकपदेऽपि योज्यम्। तन्निराकरणायाऽऽ--- सामान्येनाऽन्वितं वाच्यं पदानां ये प्रचक्षते। नियतेन विशेषेण तेषां स्यादन्वय: कथम् ।। 18 ।। दर्शितमिदं---विशेषान्वयेऽप्याकाङ्क्षा-सन्निधि-योग्यतोपाधिवशेन सम्बन्धग्रहणं सुकरमिति, तदभिधायकतैव युक्ता पदानाम्। यदि चाऽसौ नेष्यते, तदा वाक्यार्थप्रतिपत्तिरेव नोपपद्यते, विशेषान्वयरूपत्वाद्वाक्यार्थस्रू ।। 18 ।। ननु च सामान्यान्वयोऽभिहितो विशेषान्वयमाक्षेप्स्यति, निर्विशेषस्य सामान्यस्य 1209प्रत्येतुमशक्तेर्विशेषान्वयप्रतिपत्तिरुपपन्नैवेत्यत्राऽऽह--- यद्यप्याक्षिप्यते नाम विशेषो व्यक्तिजातिवत्। निर्धारितविशेषस्तु तद्वदेव न गम्यते ।। 19 ।। यथा---जातिव्र्यक्तिमाक्षिपन्त्यपि, न प्रतिनियतं विशैषमाक्षिपति, तथाऽत्राऽपि प्रतिनियतविशेषालाभान्नियतविशेषात्मकवाक्यार्थप्रतिपथ्ततरनुपपन्ना ।। 19 ।। अथ विशेषमात्राक्षेपेऽप्याकाङ्क्षितस्सन्निहितो योग्यश्च योगविशेषो य: पदान्तरेण समप्र्यते, स एव गृह्यते। 1210 तदतिक्रमे प्रमाणाभावादित्यत्राऽऽह--- यद्यप्याकाङ्क्षितो योग्यो विशेषस्सन्निधौ श्रुत:। सम्बन्धबोधकाभावे1211 गृह्यते न तथाऽप्यसौ ।। 20 ।। सामान्यान्विताभिधानवादिनो मते पदानि तावत् तन्मात्र एव पर्यवसितशक्तीनि, पदार्थानामप्यन्वयबोधनशक्तिर्नाऽङ्गीक्रियते। न च सामान्याक्षेपोऽपि 1212नियतं विशेषमास्कन्दति। तेनाऽऽकाङ्क्षिते योग्ये च विशेषे पदान्तरेण1213 सन्निधापितेऽपि, तदन्वयबोधकप्रमाणाभावात् तदन्वयो न प्रतीयेतैव। अत आकाङ्क्षा-सन्निधि-योग्यत्वान्यनुपयोगीन्येव। विशेषान्वयवादिनस्तु मते सम्बन्धग्रहणं प्रत्युपाधित्वेन प्रविष्टानि तानि 1214वाक्यार्थप्रतिपत्तावुपयुज्यन्ते ।। 20 ।। तदाह--- सम्बन्धबोधे व्युत्पत्तावुपाधित्वे1210 समविशत्। विशेषान्वयवादे तु योग्यत्वाद्युपकारकम् ।। 21 ।। पदानां पदार्थान्तरसम्बद्धस्स्वार्थो बोध्य इत्यस्यां व्युपत्तावुपाधित्वेन योग्यत्वादिकमनुप्रविष्टं1215 विशेषान्विताभिधानवादिपक्षे उपकारकम्, न सामान्यान्विताभिधाने-इति दर्शितं प्राक् ।। 21 ।। दूषणान्तरञ्चाऽऽह--- किञ्च वस्तुबलेनैव सिद्धे सामान्यसङ्गमे। तस्य वाच्यत्वमिच्छद्भिर्वृथा शब्द: प्रयासित: ।। 22 ।। क्रिया-कारकस्वभावालोचनयाऽपि कारकमात्रेण, क्रियामात्रेण चाऽन्वयावगमसिद्धे:, वृथा सामान्यान्वयाभिधायकता शब्दस्याऽङ्गीक्रियत इति ।। 22 ।। 1216वाक्यमेकं न निर्भाग्र वाक्यान्त्यो वर्ण एव वा । पदवृन्दं स्मृतिस्थं वा प्रथमं पदमेव वा ।। आख्यातपदमात्रं वा पदार्था वाऽप्यनन्विता: । 1217सामान्यान्वयबोधे वा हेतुर्वाक्यार्थबोधने ।। पदान्येव समर्थानि वाक्यार्थस्याऽवबोधने । विशेषान्वयवादीनि भागशो भागशालिन: । इति सङ्ग्रहश्लोका:। तथा चोक्तम्। अस्ति वा पदस्याऽर्थ: ? बाढमस्ति। कथं तर्हि वाक्य-वाक्यार्थयोरौत्पत्तिकत्वम्, वृद्धव्यवहारात्। सत्यम्। सत्ववयवश इत्युक्तम्। इति महामहोपाध्यायश्रीमच्छालिकनाथमिश्रप्रणीतायां प्रकरणपञ्चिकायां सवृत्तिकाया वाक्यार्थमात्रृकाया उपोद्धातो नाम प्रथम: परिच्छेदस्समाप्त:।।

द्वितीय: परिच्छेद: सम्पाद्यताम्


    । कार्यविषये पूर्वपक्ष:। 1218उपोद्धातभूतमन्विताभिधानं प्रसाध्य, अपूर्वं कार्यं वेदवाक्यानामर्थ इति साधयितुकाम: पूर्वपक्षं तावदाह--- ननु व्युत्पत्त्यपेक्षेषु शब्देष्वर्थाभिधायिषु। कथं मानान्तरावेद्यं कार्यमाहुर्लिङादय: ।। 1 ।। अपूर्वाधिकरणै झ्र्मी. द. 2. 1. 2ट लिङाद्यर्थोऽपूर्वमित्युक्तम्। प्रमाणान्तरायोग्यञ्चाऽपूर्वमिष्यते। यच्च प्रमाणान्तरायोग्यम्, तत्र सम्बन्धग्रहणमशक्यम्, सम्बन्धिग्रहणपूर्वकत्वात्तस्य। विशिष्टार्थव्यवहारदर्शनेन हि तद्विषया शब्दशक्तिरनुमीयते, तदेव च सम्बन्धग्रहणम्। यच्च न प्रतीयते, न तद्विषयो व्यवहारोऽवसीयते। तदनवसाये च, न तद्विषया बुद्धिरनुमीयते। तदननुमाने च कुतश्शब्दस्य शक्ति: कल्प्यते। अपूर्वञ्च न प्रमाणान्तरगोचर:। न च शब्दादेव तदवगम्य, सम्बन्धावधारणम्, इतरेतराश्रयप्रसङ्गात्1219। अवसितशक्तेरवबोधकत्वात्। अवबोधकत्वादेव शक्त्यवगमात्। स्यान्मतम्। लिङादेश्शब्दस्याऽयं महिमा, यदनवसितशक्तिरपि स्वार्थमवगमयतीति। तदिदमप्रमाणम्1220। क्रियामात्रावबोधकत्वाङ्गीकारेण लिङादेर्लोकतो व्युत्पत्तिसम्भवे, शब्दान्तरवैलक्षण्येनाऽगृहीतसम्बन्धस्यैव वाचकत्वकल्पनानुपपत्ते:। वेदवाक्यादपूर्वकार्यावगतेरेवं कल्प्यत इति चेत्। न। तस्या एवाऽसिद्धत्वात्, क्रियैव कार्यतया वेदवाक्येभ्योऽवगम्यत इति, व्युत्पत्तिबलेनाऽप्रामाणिकं मनोरथमात्रविजृम्भितन्त्वपूर्वं कार्यं प्रतीयते--इति। तस्मादगृहीतसम्बन्धो लिङादि: कथमपूर्वं कार्यमभिधत्त#े, तथा च कथं 1221तद्वाक्यार्थ:। अभिधेय एव 1222ह्यर्थो भवति वाक्यार्थ: ।। 1 ।। एवञ्च--- शब्दान्तराण्यपि कथं तेनाऽदृष्टेन कुत्रचिद्। वदिष्यन्त्यन्वितं स्वार्थं व्युत्पत्तिपथदूरगम् ।। 2 ।। तस्मिन्नप्रतीयमाने तदन्वितस्याऽप्रतीते:, तत्र संबन्धावधारणानुपपत्तेर्दूरनिरस्तं शब्दान्तराणां तदन्वितस्वार्थबोधकत्वमिति ।। 2 ।। सिद्धान्त:। राद्धान्तमुपक्रमते--- 1223अत्रोच्यते यदा नाम वृद्धेनैकेन भाषिते। जलं चैत्राऽऽहरस्वेति चैत्र आहरते जलम् ।। 3 ।। तदा व्युत्पित्समानोऽन्यस्तत्रैवमवगच्छति। 1224बुद्धिपूर्वा 1225ममेवाऽस्य प्रवृत्तिरियमीदृशी। लिङादियुक्तवाक्यश्रवणसमनन्तरं वृद्धस्य विशिष्टार्थविषयां प्रवृतिं्त दृष्ट्वा, व्युप्तित्समानो बाल एवमाकलयति---येयं स्वाधीनाऽस्व प्रवृत्ति:, सा मद्वद् बुद्धिपूर्विकेति। पुनश्च तस्याऽयं विमर्शो जायते---अहं बुद्ध्वा प्रवृत्तो1226 यथा, तद्वदेषोऽपि। यस्या: प्रवृत्तेर्हेतुभूता बुद्धि:, सा यद्विषया सती मम प्रवृत्तिहेतु:, तद्विषयैवाऽस्याऽपीति, पुनव्र्युत्पित्सोरनुमा जायते। तदेवमनुमानद्वयमेततद्वृद्धस्य स्वतन्त्रा प्रवृत्ति:-धर्मिणी, बुद्धिपूर्विका-इति साद्ध्यो धर्म:, स्वतन्त्रप्रवृत्तित्वात् मदीयस्वतन्त्रप्रवृत्तिवदिति, तथा-वृद्धस्य प्रवृत्तिहेतुभूता बुद्धि:---धर्मिणी यद्विषया बुद्धिर्मम प्रवृत्तिहेतुभूता तद्विषयैवाऽस्याऽपीति---साध्यो धर्म:, प्रवृत्तिहेतुभूतबुद्धित्वात् मदीयप्रवृत्तिहेतुभूतबुद्धिवत्---इति। पुनश्च तस्याऽयं विमर्श: प्रवर्त्तते। 1227तदस्य तु शब्देन बोध्यते। अनेन मम मानान्तरेण तु यद्विषया सा बुद्धि: प्रवृत्तिहेतुभूता, तद्वस्त्वनेन1228 शब्देन बोध्यते। तद्भावे सत्यवगमात्, मम तु मानान्तरेण तद् बोध्यत इति---अयमावयोर्विशेष:। तेन यत् बुद्ध्वा प्रवृत्तिर्मम, तदस्याऽनेन शब्देन बोद्ध्यत इति शब्दस्य प्रवृत्तिहेतुभूतार्थावबोधकतामवधारयति ।। 3 1/2 ।। पुनश्च कोऽसौ प्रवृत्तिहेतुभूतोऽर्थश्शब्दाभिधेय इति निर्धारयितुम्, स्वात्मनि प्रतिपन्नं प्रवृत्तिहेतुभूतमर्थमनुसन्धत्ते--- तत्र बुद्ध्वा प्रवृत्तोऽहं किं तावत् स्वयमन्यदा ।। 4 ।। शब्दनिरपेक्षस्स्वयमहं प्रवत्र्तमान: किं बुद्ध्वा प्रवृत्त इति जिज्ञासते। अन्यदेत्यनेन---व्युत्पत्तित: प्रागवस्थोच्यते। व्युत्पन्नेन बालेन यदात्मनि प्रवृत्तिकारणतया 1229प्रतीतम्, तदेव व्युत्पन्नस्याऽपीति कल्प्यते, नाऽन्यदित्यर्थ:। शब्द-व्यापारयोर्भावनात्वनिरास:। 1230तेन शब्द एव प्रवृत्तिहेतुभूतो विधि:, तद्व्यापारो वेति निरस्तं भवति। तयोर्बालेनाऽऽत्मनि प्रवृत्तिकारणत्वेनाऽदर्शनात्। 1231अतिमन्दतया चेमौ पक्षौ न साक्षादुपन्यस्य निरस्तौ। तथाहि---लिङादिशब्दस्वरूपस्य प्रवर्तकत्वे सर्व एव तच्छाविणो नियमेन प्रवत्र्तेरन्, नचैवं दृश्यते, कस्यचित् कदाचित् प्रवृत्ते:। लिङादिव्यापारस्य तु प्रवृत्तिहेतुत्वाश्रयणं देवा: प्रतिपद्यन्ताम्, पिशितचक्षुषो मानुषा वयं नेयतीं प्रमाणभूमिमवगाहितुं क्षमा:। शाब्दभावनोपन्यास: ।केयं शब्दभावना1231 -1231उच्यते---लिङादिव्यापाररूपा पुरूषप्रवृत्तिभवनानुकूला ।स्वज्ञानकरणिका, अर्थवादोदितप्राशस्त्यलक्षणेतिकत्र्तव्यतायोगिनी प्रेरणात्मिका कल्प्यते। "स्वाध्यायाध्ययनविधिना हि सर्वे विधायका:, स्वाध्यायपदोपात्तश्चाऽत्माअ नियुज्यन्ते भावयेदि" झ्र्तं. वा. पृ. 114टति। तत्र किमित्यपेक्षायां पुरुषप्रवृत्तिस्सम्बद्ध्यते। केनेत्याक#ाङ्क्षायां विधिज्ञामेव योग्यतया करणत्वेनाऽङ्गीक्रियते। ज्ञाता हि शाब्दभावना प्रवृतिं्त प्रसूते, योग्यतयैवाऽर्थवादसमुत्थप्राशस्त्यज्ञानमितिकत्र्तव्यतांशे निविशते। अवसीदन्ती हि विधिशक्ति: प्राशस्त्यज्ञानेनोत्तभ्यते। तस्याश्च पुरुषव्यापाररूपा स्वर्गादिभाव#्यावच्छिन्ना भावार्थकरणिका श्रौत-स्मात्र्ता-चारप्राप्तपदार्थजनितकरणोपकारवत्यार्थभावना समानप्रत्ययवाच्या विषयभूता---इति। तन्निरास:। तन्न। लिङादेस्तादृशो व्यापारो विद्यत इत्यत्र न किञ्चन प्रमाणम्। लिङादिशब्दानन्तरभाविनी पुरूषप्रवृत्तिरेव प्रमाणमिति चेत्। न। तन्निबन्धनत्वेन प्रवृत्तेरन्यत्राऽदृष्टत्वात्। अअयन्निबन्धना हि प्रवृत्तिर्दृंष्टा, तदेव तां दृष्ट्वा शक्यमनुमातुम्, न पुनरप्रतिपन्नपूर्वकारणभावश्शब्दव्यापारविशेष:। अथ लिङादिशब्द एव प्रमाणमिति साहसम्, अगृहीतसम्बन्धस्याऽवाचकत्वात्। अनवधारिते हि सम्बन्धिनि, सम्बन्धबोधवैधुर्यात्। प्र्प्र्कथञ्च तत्र स्वाध्यायाध्ययनविधिना सर्वे विधायकास्स्वात्मा च विनियुज्यन्ते। पुरुषं च्विधिरार्थभ#ावनायां प्रेरयति। यश्च येन ॐप्रेर्यते, स तेन नियुज्यते। न चाऽचेतनानां ढ़विधीनां नियोजकत्वमपि सम्भवति। अथ नच्च् नियोज्यन्ते। तदप्यनुपपन्नम्---शाब्दभावनासु सर्वशब्दानां स्वत एव कर्तृत्वात् विनियोगानपेक्षणात्। अथ न अपुरुषा: प्रेरणे विनियुज्यन्ते, किन्त्वर्थावबोधने। तदपि न घटते। तत्राऽपि नियोज्यानपेक्षायास्तुल्यत्वात्। अध्ययनविधेश्श्चअक्षरसंस्काररूपाध्ययनविधायकत्वाभ्युपगमात्अअ। तथाचाऽऽहु:--- "द्रव्यादीनां पुन: कस्मिन् स्वाध्यायोऽन्तर्गतो भवेत् । त्रेधाऽपि प्रतिभात्यस्मिन् संस्कारत्वस्य निर्णय: ।। संस्कार्यगणनायाञ्च युक्तैवाऽक्षरसंस्क्रिया । स्वाध्यायां हि स्फुटं कर्म साक्षात्संस्क्रियते चि स:" ।। इति। संस्कारविधिश्च न संस्कार्यं विनियुङ्क्ते, प्रमाणान्तरावसितोपयोगस्य शेषित्वात्। संस्कारपर्यवसायी तु संस्कारविधिर्न संस्कार्यस्य कार्यं कल्पयेत्। आत्मा चाऽध्ययनविधिना विनियुज्यते, न विनियुज्यते वेति प्रतिपत्तिद्वयस्याऽप्यसम्भवादनुपपन्नम्। पुरुषप्रवृत्तेर्भाव्यत्वप्रक्षेप-प्रतिक्षेपौ। कथञ्च पुरुषवृत्तिस्तस्या भाव्यम्, न तावदनन्तरनिष्पत्ते:, विधिज्ञानस्य करणत्वाभावप्रसङ्गात्। क्रियाफलं हि तदा पुरुषप्रवृत्तिस्स्यात्। न च क्रिया स्वफलप्रसवाय करणमपेक्षते। न च गमनं संयोग-विभागारम्भे करणापेक्षम्। स्यान्मतम् 1233लिङादिशब्दो विधिज्ञानं जनय#ित्वा, 1234करणानुगृहीता: प्रेरणारूपं स्वव्यापारमारभते इति। न च करणत्वाभाव:, क्रियानिष्पत्तावेव करणत्वात्। तदिदमलौकिकम्। न हि कस्यचिद्वस्तुनस्स्वज्ञानमुत्पादहेतु: प्रतीतम्। प्राशस्त्यज्ञानस्येतिकर्तव्यतात्वनिरास:। एवमर्थवादोदितप्राशस्त्यस्याऽपीतिकत्र्तव्यतात्वं विध्यस्तम्। योग्यतया हि तस्य तथाभाव:। न च प्रेरणोत्पत्तौ शब्दकर्तृकायां करणीभूतज्ञानानुग्रहयोग्यता तस्य शक्यतेऽवगन्तुं। पुरूषकर्तृकायान्तु प्रवृत्तौ स्यात् तस्य योग्यतावगम:, प्रशस्ते 1235पुरुषप्रवृत्तिदर्शनात्। स्यान्मतम्। अप्रशस्ते प्ररुषप्रवृत्त्यसम्भवे प्रेरणैव नोपपद्यते। तदसत्। न फलसम्भवायत्ता क्रियानिष्पत्ति:, क्रियानिष्पत्त्यायत्तैव तु फलसिद्धिरिति लोके प्रतीतम्। अत एव तस्मिन्पक्षे निष्फलेऽपि प्रेरणासिद्धे: प्रवृत्तिस्स्यात्। अथ फलमपीतिकत्र्तव्यतापदनिवेशि, प्राशस्त्यवत्, अतस्तदभावे न प्रेरणा निष्पद्यते---इति। तर्हि फलमेवाऽस्त्वितिकत्र्तव्यतांशपरिपूरकम्, किं प्राशस्त्येन। सत्यमेतद्, अस्ति तावद् तदपीति न त्यज्येत। एवं तह्र्यश्रुते प्राशस्त्ये तदपेक्षा मा भूत्। ततश्च तदतिदेशादिकल्पनमघटमानं केवलस#्य विधेर्दर्विहोमवत्करणेतिकत्र्तव्यताकल्पनाऽपि कल्पनामात्रमेव। दर्विहोमवदिति1236 चाऽसिद्धो दृष्टान्त:। तत्राऽपि श्रौतद्रव्य-देवता-स्मृत्याचारप्राप्ताचमनादीतिकत्र्तव्यतामात्रेणोपकारक्लृप्तेरभिमतत्वात्1237। नह्येकस्यैव वस्तुनोऽनुग्राहकता, अनुग्राह्यता च स्वात्मन्युपपद्यते। अथ शब्द: प्रेरणां करोत्येव, प्रवृत्तिस्तु न तावन्मात्रेण, किन्तु तज्ज्ञाने सति। एवं तर्हि ज्ञानफलमेव प्रवृत्तिरस्तु, न प्रेरणाफलं, तस्मिन्सति भावात्, असति चाऽभावात्। तथा च न शाब्दभावना विधिरिति स#िद्धम्। 1238किञ्च शब्दोऽम्बरगुण इति, 1238प्राप्यकारीन्द्रियवादिनाऽभ्युपेयम्। अन्यथा नभसश्श्रोत्रभूतस्य, शब्दस्य च प्राप्त्यसम्भवात्संयोग-समवाययोरन्यतरस्य च प्राप्तिरूपत्वात्, संयोगस्याऽन्यतरकर्मजस्य, उभयकर्मजस्य, संयोगजस्य च द्रव्यत्वे सति शब्दस्य नभसा सहाऽसम्भवात् तस्य च त्रैविध्यनियमात्, पारिशेष्यात्समवाय: प्राप्तिरिति, आकाशगुणश्शब्द:। न च तस्य व्यापारसम्भव:, द्रव्याश्रितत्वाद्द्व्यापाराणाम्। कथं तर्हि शब्दस्याऽभिधानलक्षणो व्यापार आश्रीयते। यथा तत्तथा श्रूयताम्---यत्तावदात्मन्यर्थविषयज्ञानं शब्दविषयज्ञानानन्तरं जायते, 1239तच्छब्दकर्तृकतया यदा विवक्ष्यते, तदा 1240तदाभिधानिकमित्युच्यते। परस्थेऽपि व्यापारे भवत्येव कर्तृता, परिस्पन्द इवाऽत्मन इति, न कश्चिद्दोष:। कथञ्चाऽसौ शब्दव्यापारआर्थभावनाविषय:, एकप्रत्ययवाच्यत्वात्-इति1241। तदुक्तम्--- "1242विधि-भावनयोश्चैकप्रत्ययग्राह्यता कृत:। धात्वर्थात्प्रथमं तावत्सम्बन्धोऽध्यवसीयते" ।। झ्र्श्लो. वा. अ. 7. श्लो. 79 1/2. 80 1/2ट इति। तन्न। प्रत्ययस्य भावनाभिधानमस्मिन्पक्षे दुर्घटं यत:। आख्यातानां भावनावाचित्वशङ्का। ननु1243 च सर्वाख्यातानां भावनावचनता करोतिसामानाधिकरण्यादध्यवसीयते। तथाहि---भवत्यर्थस्य कर्तु: प्रयोजकव्यापारो भावना, सैवकृति:। भाव्यमानस्यैव क्रियमाणत्वात्, तस्य कृतिकर्मत्वात्। किमकार्षीत् ? अपाक्षीत् किं करोति ? पचति ? किं करिष्यति, पक्ष्यति,इति प्रश्नोत्तरदर्शनात्, करोत्यर्थस्सर्वाख्यातैरभिधीयत इति गम्यते। अन्यथा करोत्यर्थविषयप्रश्ने तदुत्तरानुपपत्ति:। 1241तत्र सत्यामपि प्रकृतौ धञन्तादिषु करोत्यर्थानवबोधात्, आख्यातप्रत्ययसन्निधाने च तदवगमात्, आख्यातानामेव सोऽर्थ इति निश्चीयते। तन्निरास:। तदसत्। किं करोतीत्यस्य प्रश्नस्य यद्ययमर्थ:-यत्करोति, तत्किमिति, तत्र चेत्पचतीत्युत्तरं स्यात्, तदा पाकं करोतीत्यस्मिन्नर्थे पचतीति वत्र्तते। तथा च सिद्ध्येदाख्यातानां करोत्यर्थता। न चैतदेवम्। अनवगते हि धातुवाच्ये व्यापारविशेषे, तद्विशेष एव-एवंपृच्छ्यते, तत्र पचतीत्युत्तरम्। तथा च न सिद्ध्यति धात्वर्थातिरिक्तकरोत्यर्थवचनताऽऽख्यातानाम्। सर्वे धात्वर्थाश्च कस्यचिदभूतस्य भवनेऽनुकूलतां भजन्त: करोत्यर्थतामापन्ना: करोतिना प्रष्टुम्, निर्देष्टुञ्च शक्यन्त इति, तद्विशेषप्रश्नोत्तरे एव ते। किञ्च धात#ुवाच्यव्यापारविशेषविषयत्वेनाऽपि प्रश्नो-त्तरयोरुपपत्तौ, तदतिरिक्तकरोत्यर्थवाचकताऽऽख्यातानां न शक्यते वक्तुम्। अपि च सप्रयत्नक्रियेषु देवत्तादिषु व्यापारभेदसम्भवात् घटेतां प्रश्नोत्तरे। व्यतिरिक्तकरोत्यर्थविषये "किं करोती"ति प्रश्ने, "गच्छती"ति चोत्तरे गमनातिरिक्तव्यापारामावादनुपपत्तिरेव स्यात्। धात्वर्थविशेषविषयत्वे तु तत्राऽप्युपपत्ति:। अथ तत्राऽपि संयोग-विभागौ धात्वर्थ:, परिस्पन्दस्तु विभक्त्यर्थ इति, तत्राऽपि धात्वर्थव्यतिरिक्तव्यापारसम्भवान्नाऽनुपपत्ति:। तन्न। परिस्पन्दस्यैव गमिवाच्यत्वात्। तथाहि---न केवले संयोगे, विभागे वा गमे: प्रयोग:, स्थाणौ श्येनेन वियुक्ते, संयुक्ते वाऽप्रयोगात्। नाऽपि द्वयो:, उत्पत्य-निपतिते श्येने स्थाणौ प्रयोगप्रसङ्गात्। एकक्रियाक्षणजन्यौ संयोग--विभागौ गमिवाच्याविति यद्युच्येत। तर्हि क्रियैवाऽस्तुवाच्या, किमसावुपाधिकोटौ निवेश्यते। एवं ह्युपाधिसमाश्रयगौरवमेव परिहृतं भवति। अपि च वृद्धव्यवहाराच्छब्दार्थनिर्णय:। न चाऽऽरव्यातानां भावनावचनत्वमन्तरेण कस्यचिद्वृद्धव्यवहारस्याऽनुपपत्ति:। प्रश्नोत्तरे तु सम्बन्धज्ञानोत्तरकालभाविनी, अतो न तद्वशेन सम्बन्धिनिरूपणा। कत्र्रादिसंख्यामात्रवाचितयाऽऽख्यातप्रयोगोपपत्तौ, नाऽधिकं वाच#्यं शक्यं कल्पयितुम्। अपि च "पाकं करोति देवदत्त:" इत्यत्र तावत्पच्यर्थं पाकशब्दो ब्रवीति, तदनुगुणन्तु पुरुषप्रयत्नं करोतिराचष्टे, आख्यातन्तु केवलकर्तृसंख्यां वक्तीति, सिद्धं तन्मात्रवाचित्वम्। अतोऽन्यत्राऽपि तत्रैव वत्र्तत इति युक्तम्। एवं "पचति देवदत्त:" इत्यस्य यद्विवरणं---पाकं करोतीति। तदप्यनुपपन्नम्। पचतीत्यत्र य: पुरुषप्रयत्न: यत्सम्बन्धेन पच्यर्थस्साध्यभूत:, तं करोतिना प्रकृतिभूतेनोपादाय विवरणोपपत्ते:। यत्राऽपि "रथो गमनं करोति"ति न प्रयत्नोऽपरोऽस्ति, तत्राऽपि गमनस्य साध्यतां दर्शयितुम्, गौण: करोति प्रयोगो द्रष्टव्य:। पक्षद्वयेऽपि तुल्यत्वात्। मण्डड्डत्ध्;नमिश्रमतोपन्यास-निरासौ। यस्तु---"देवदत्त ओदनं पचती"त्यादौ वृद्धव्यवहारे एव प्रकृत्यर्थातिरिक्ते प्रयत्ने प्रयोगादारव्यातानां तदर्थतामाह। स इत्थं शिक्षयितव्य:--- वत्स ! किं न वेत्सि "अनन्यलभ्यश्शब्दार्थ:" इति। इह च प्रकृत्यर्थाक्षेपेणाऽपि प्रयत्नप्रतिपत्त्युपपत्ते:, न शक्यते तद्वाचकताऽऽख्यातानामाश्रयितुम्---इति। कार्यवाचिनामेव कृतिवाचित्वनिरूपणम्। ननु प्राभाकरा अपि भावनावाचकतां न कथमारव्यातप्रत्ययस्येच्छन्ति। उच्यते---न सर्वाख्यातप्रत्ययानां भावनावचनत्वमभ्युपेम:, किन्तु कार्याभिधायिनो लिङादय: कार्यस्याऽन्यथाऽनभिधानात् कृत्यभिधायिन इष्यन्ते। कृतिसम्बन्धि हि कार्यं कृत्यनभिधाने नाऽभिहितं स्यात#्। नह्यस्ति सम्भव:, कृतिश्च नाऽभिधीयते, कार्यञ्चाऽभिधीयते---इति। अथ मतम्। यथा दण्डड्डत्ध्;ीत्यत्र प्रत्ययेन दण्डड्डत्ध्;ो नाऽभिधीयते, अथ च तद्विशिष्टपुरुषप्रतीति:, एवमिहाऽपि भवेदिति। तन्न। तत्राऽप्यप्रतीते दण्डेड्डत्ध्;, न तद्वति प्रत्यय:। अस्ति च तत्र प्रकृतिभूतो दण्डड्डत्ध्;शब्द:, स च तस्य प्रत्याययिता। न चेह तथा सम्भवति, प्रकृतीनां 1244पुर#ुषव्यापाराभिधानानियमात्। पुरुषो हि चेतन: कार्यं लिङादिभिरवबुध्यते। न चाऽसौ परकृतिसम्बन्धि स्वयं कार्यं बोद्धुमलमिति, तदीयकृत्यभिधानमेषितव्यम्। तस्य च कृति: प्रयत्नरूपा। न च सर्वथा 1245तदननुभवे तदभिधायिन इति, न दण्डिड्डत्ध्;न्यायस्याऽयं विषय:। स्यान्मतम्। यथा ल#िङा कत्र्रादिसंख्यामात्रवचनता, क्रियाक्षेपेण च कत्र्रादीनां प्रतीति:। तथेहाऽपि क्रिया प्रयत्नमाक्षिपति, मा भूत्तस्य लिङ्वाच्यता--इति। तदसत्। यद्यपि प्रकृत्यर्थभूतया क्रियया प्रयत्न आक्षिप्यते। तथाऽपि तदायत्तसिद्धिकतया1246 कथमपूर्वं गम्यते। प्रयत्नाभिधाने तदवच्छिन्नतया प्रतीयमानं1247 तदायत्तसिद्धिकमवगम्यते, नाऽन्यथा। न च कृत्त्यनवच्छिन्नस्वरूपमात्रेणाऽपूर्वमभिहितं कृतिमाक्षेप्तुमलम्। अवगतसम्बन्धं हि वस्त्वाक्षिप्यते। न च शब्दमन्तरेणाऽपूर्वस्य प्रयत्नसम्बन्धावगमे 1248कारणमस्ति। अत: कथं तत् प्रयत्नमाक#्षिपेत्। तस्मादपूर्वकार्यभिधायिनां प्रयत्नाभिधानमवश्यमाश्रयणीयमिति, विषयकरणीये निपुणतरमुपपादितमित्यलमतिप्रसङ्गेन ।। 4 ।। तत्र न क्रियामत्रं तावदहं बुध्वा प्रवृत्त:, नाऽपि फलमात्रम्, न क्रियाफलसम्बन्धमात्रं वा। क्रिया--फलयोस्साध्य-साधनतावगमेऽपि न प्रवृत्तिरुपपद्यते। तृप्तिहेतौ भोजनेऽतीते, वर्तमाने वाऽप्रवृत्ते:, भविष्यत्यपि तत्साधने सामुद्रविदाख्यात इवाऽनुष्ठानाभाव#ात्। पुरुषाशयावगमस्तु प्रबृत्तिहेतुत्वेनाऽऽशङ्कितोऽपि, स्वतन्त्रप्रवृत्तौ व्युत्पित्सोर्दूरोत्सारितत्वात्। किन्तु कार्यतां बुध्वा प्रवृत्तोऽहम्, ममेदं कार्यथ्मति प्रतीत्य---अहं सर्वत्र प्रवृत्त:। तथाहि--- आस्तां तावत्क्रिया लोके गमना-गमनादिका। अन्ततस्स्तन्यपानादिस्तृप्तिकाररिण्यपि1249 क्रिया ।। 5 ।। सा यावन्मम कार्येयमिति नैवाऽवधार्यते। तावत्कदाऽऽपि मे तत्र प्रवृत्तिरभवन्न1250 हि ।। 6 ।। ब्रह्मसिद्धिकतो मतेनाऽऽशङ्का। 1251अत्राऽपर आह। सत्यं---कार्यावगमादेव प्रवृत्ति:। इष्टसाधनतैव तु कार्यता, न परा काचित्, सैव प्रवृत्तिहेतुर्विधिरुच्यते। तदाह--- "अपेक्षितोपायतैव विधिरिष्टो मनीषिभि:। अतो ह्यध्यवसायादिर्नाऽकस्मान्नाऽभिधानत:" ।। झ्र्ब्र. सि. कां. 3, 103 1/2 104 1/2 पृ0 115ट इति। 1252तथा "पुंसो नेष्टाभ्युपायत्वात् क्रियास्वन्य: प्रवत्र्तक:। प्रवृत्तिहेतुं धर्मञ्च प्रवदन्ति प्रवत्र्तनाम् ।। झ्र्वि. वि. श्लो. 26 पृ0 243ट इति। कत्र्तुरिष्टाभ्युपाये हि कत्र्तव्यमिति लोकधी:। विपरीते त्वकर्तव्यमिति तद्विषये तत: ।। झ्र्वि. वि. श्लो. 30 पृ0 302ट इति च। तन्निरास:। तत्र तावदिदमेव वक्तव्यम्। अतीतस्य 1253वर्तमानस्य चेष्टसाधनताऽऽस्ति, न च तत् कार्यतयाऽऽवसीयते। तेनाऽन्या कार्यता, अन्या चेष्टसाधनता---इति। तथा प्रवृत्तिरपि तन्मात्रावगमायत्ता न भवतीत्युपेक्ष्यैव तावत् तं, फलसाधनता---कार्यतयोर्भेदं विनिर्दिशति--- 1254फलसाधनता नाम या सा नैव च कार्यता। कार्यता कृतिसाध्यत्वं फलसाधनता पुन: ।। 7 ।। करणत्वं फलोत्पादे भिद्येते ते परस्परम्। यद्यप्येकवस्तुनिवेशिता द्वयो:, तथाऽपि स्वरूपभेदोऽस्त्येव। तदेव हि वस्तु फलं प्रत्युपायभावात्फलसाधनमित्युच्यते, कृत्यधीनात्मलाभतया च कार्यमिति ।। 7 ।। किमितीष्टाभ्युपायेष्वेव कत्र्तव्यतावगम:, अन्यत्र नेत्यत्राऽऽह--- ।किन्तु स्वयं क्लेशरूपं कर्म यत्कार्यतां व्रजेत् ।। 8 ।। फलसाधनता तत्र 1255कारणं तेन कार्यता। तद्भावभाविनी नित्यं तदा सैव1256 प्रकाशते ।। 9 ।। स्वभावेन हि कर्माणि दुखोत्पादहेतुभूतानि। तेषु कार्यत्वावगम: फलसाधनतावगमनिबन्धन:। कार्यता हि न कृत्यधीनसिद्धितामात्ररूपा, किन्तु कृतिं प्रति प्रधानभूतं सत् यत् तदधीनसत्ताकम्, तत्कार्यमुच्यते। तच्च कृते: प्रधानम्, यदधिकृत्य कृति: प्रवर्तते। न च दु:खं दुखहेतुंवाऽधिकृत्यकृते: प्रवृत्तिरुपपन्ना, नाऽप्यदु:खम्, अदु:खहेतुं वा। किन्तु सुखं, सुखहेतुं व#ा। तत्र न तावत्स्वयं सुखरूपं कर्म, सुखसाधनमपि चेन्न स्यात्, न तस्य कृतिं प्रति प्राधान्यावगमो1257 घटते। अत: कर्मसु कार्यत्वावगम: फलसाधनतावगमनिबन्धन इति, ज्ञापककोटिनिविष्टा फलसाधनता 1258कार्यतामनुरुध्यते, न त्वसौ तदात्मैव। तथा चाऽसाधनस्याऽपि सुखस्यैवाऽस्ति कार्यता। सुखं हि सर्व: कार्यतयाऽवैति, न तस्य फलसाधनतामपेक्षते। तेन फलसाधनतोत्तीर्णकार्यतावगमेन मे प्रवृत्तिरिति निश्चित्य, व्युत्पित्समानश्चैत्रं प्रवत्र्तमानं दृष्ट्वाऽनुमिनोति--चैत्रोऽपि कार्यबोधात्प्रवर्तते---इति। चैत्रस्य 1259प्रवृत्ति:--धर्मिणी, कार्यबोधपूर्विका--इति साध्यो धर्म:, बुद्धिपूर्वकत्वे सति प्रवृत्तित्वान्मदीयप्रवृत्तिवदिति। लिङादयश्च प्रवृत्तिहेतुभूतार्थाभिधायिन: कार्यमेवाऽभिदधते। तस्यैवाऽवगतस्य प्रवृत्त्यनन्तरकारणत्वात् ।। 9 ।। इच्छा यद्यपि प्रवृत्तिहेतु:, तथाऽपि सा लिङादिवाच्या न भवति। तदवगमस्य प्रवृत्तावनपेक्षितत्वात्। उत्पन्ना हि सा प्रवृत्तिकारणम्, नाऽवगता। नन्वेवमपि कथं लिङादीनां कार्ये व्युत्पत्तिरित्यत्राऽऽह--- शब्दान्तराणि स्वार्थेषु व्युत्पद्यन्ते यथैव हि। आवापो-द्वापभेदेन तथा कार्ये लिङादय: ।। 10 ।। 1260लिङादियुक्तवाक्यश्रवणे तद्भावभाविन्या प्रवृत्त्या विशिष्टकार्यावगतिमनुमाय, वाक्यस्य 1261हेतुतामध्यवस्यति। तत्राऽपि 1262कोऽर्थ: केन 1263शब्देनाऽभिहित इति विवेचने, लिङानद्यावापे1264 कार्यावगतिदर्शनात्, तदुद्धारे चाऽदर्शनात्, त एव कार्यावगतिं कुर्वन्तीति शब्दान्तरवल्लिङादीनां कार्यवाचकत्वव्युत्पत्तिसिद्धि: ।। 10 ।। ननु लोकव्यवहारात् लिङादयो वाचकतया व्युत्पाद्यमानां प्रैषादिष्वेववचकतया व्युत्पत्तिमर्हन्ति। तत्रैव तेषां प्रयोगदर्शनादित्यशङ्क्याऽऽह--- ।कार्यमेव हि 1265वक्तृणां ज्याय:-सम-कनीयसाम्। प्रवत्त्र्यापेक्षया भेदात्प्रैषादिव्यपदेशभाक् ।। 11 ।। प्रवत्त्र्यपुरुषापेक्षया ज्यायसा वक्त्रा प्रतिपाद्यमानं कार्यं प्रैष इति व्यपदिश्यते। समेना।द्यऽमन्त्रणं, हीनेनाऽध्येषणमिति, प्रैषादिप्रतिपादका अपि लिङादय: 1266कार्यमेव प्रतिपादन्ति, नाऽर्थान्तरम् ।। 11 ।। कथं पुनरवसीयते---कार्यमेव प्रैषादिव्यपदेशभागित्यत्राऽऽह--- कार्यमेव हि सर्वत्र प्रवृत्तावेककारणम्। प्रवृत्त्यव्यभिचारित्वाल्लिङाद्यर्थोऽवधार्यते ।। 12 ।। प्रवृत्तिर्हि बालेन स्वात्मनि कार्यावगमपूर्विका प्रतिपन्नेति, सर्वपुरुषानपि प्रवत्र्तमानान्दृष्ट्वा कार्यावगममेव बाल: कल्पयतीति, प्रैषादीनामपि प्रवृत्ति: कार्यावगमनिबन्धनेति, कार्यमेव प्रैषादिव्यपदेशयोगीति सिद्धम्। वस्तुतस्तु प्रैषादीनामपि 1267प्रवृत्त्यव्यभिचारित्वात्कार्यस्य च प्रवृत्तिषु सर्वासु हेतुभूतत्वात्प्रैषादिष्वपि लिङादीनां कार्यमेवाऽर्थ इति निश्चीयते ।। 12 ।। केन पुन: प्रमाणेन बालस्स्व्यं कार्यमवगच्छति। यत: प्रवत्र्तत इत्यत्राऽऽह--- कृतिसाध्यं प्रधानं 1268यत्तत्कार्यमभिधीयते1269। 1270तच्च मानान्तरेणाऽपि वेद्यमोदनपाकवत् ।। 13 ।। कृतौ सत्यां भावात्, असत्याञ्चाऽभावादनुमानत: कृतिसाध्यता तावदवगम्यते। यदधित्कृत्य कृति: प्रवत्र्तते, तत्कृते: प्रधानम्, प्रयत्नश्च कृति:। स च मानसप्रत्यक्षवेद्य इति, विशिष्टप्रयोजनताऽपि प्रयत्नस्य प्रत्यक्षवेद्यैव। तेन प्रत्यक्षा-नुमानाभ्यां क#ार्यमवगम्यते। यथा चोदन-पाकयोरिति, न किञ्चिदनुपपन्नम्। उपसंहरति--- एवं कार्यात्मकेऽप्यर्थे व्युत्पद्यन्ते लिङादय:। तदन्वितेषु स्वार्थेषु तथा शब्दान्तराण्यपि ।। 14 ।। एवमपि कथं मानान्तरावेद्यकार्यवाचिता लिङादीनामित्याशङ्क्य, मीमांसामवतारयति--- संप्रधार्यमिदन्त्वत्र तत्कार्यं किं क्रियात्मकम्। यद्वा तद्य्वतिरेकीति ....................... ।। को नु निर्णय इत्यत्राऽऽह--- ................. तत्र लोकानुसारत: ।। 15 ।। प्रमाणान्तरविज्ञेया क्रिया कार्येति यद्यपि। ।लोके हि लिङादियुक्तवाक्यश्रवणे विशिष्टक्रियानुष्ठानदर्शनात्तद्विषया कार्यावगतिर्लिङादिभि: क्रियत इति युक्तम्, अवगति-प्रवृत्त्योरेकबिषयत्वात्। नह्यन्यत्कार्यतयाऽवगम्य, अन्यत्र बाल: प्रवत्र्तते। किञ्च क्रियायां कार्यभूतायां लिङादियुक्तवाक्यप्रतिपाद्यायामभ्युपगम्यमानायां1271 शक्तिकल्पनालाघवं स्यादेव। तथाहि---धातुरेव स्वार्थं ब्रवीतु, तथाभूतार्थवाचिनस्तु धातो: परे लिङादयो भवन्तीत्याश्रीयते। लिङादिश्रवणे तु तथाभूतार्थंपरतया1272 धातु: प्रयुक्त इत्यवगम्य, कार्यभूतधात्वर्थावगमस्सम्पद्यते। यथा लडड्डत्ध्;ादिभ्यो वत्र्तमानाद्यध्यवसाय:, तेष्वपि 1273वर्तमानेऽर्थे वत्र्तमानाद्धातोर्लडिड्डत्ध्;त्येव सूत्रार्थ:। कत्र्रादिसंख्यामात्रवाचित्वमेव केवलं लडड्डत्ध्;ादीनामिव लिङादीनामप्यर्थ इति, क्रियैव कार्यतया वेदेऽप्यवगम्यत इति, यद्यपि विवेकासमर्थानामवगतिर्भवति1274। 1275तथाऽपि वेदे षष्ठाद्यसिद्धान्तेऽवस्थिते सति ।। 16 ।। स्वर्गकामादय: कार्ये नियोज्यत्वेन 1276सम्मता:। 1277स्वर्गकामादिभिश्श्ब्दैर्वक्तव्या इतयवस्थितम् ।। 17 ।। षष्ठाद्ये ह्येतदुक्तम्---लिङादिप्रयोगे तावत्कार्यावगतिरस्तीति निर्विवादम्। कृतिसाध्यञ्च कार्यं भवति। सति कत्र्तरि तस्याऽऽत्मलाभ:। कर्तृलाभश्च स्वसम्बन्धिकार्यावबोधे सति भवति, नाऽन्यथा। तेन यद्यपि लोकानुसारेण क्रियाया एव कार्यतया बोध्यमानाया वाक्यार्थत्वात्, तदन्वयित्वाच्चेतरेषामपि1278 पदार्थानाम्, कारकत्वादृते चाऽन्यस्य क्रियान्वयित्वासम्भवाल्लोहितोष्णीषन्यायेन विशेषणभूतस्वर्गकामनासमर्पणपरतया कर्तृविशेषणत्वेन स्वर्गकामस्याऽन्वयोऽवगम्यते। तथाऽपि स्वसम्बन्धिकार्यबोद्धृत्वेनैवाऽन्वयो वर्णनीय इति, नियोज्यसमर्पकत्वमेवाऽऽश्रीयते--इति ।। 17 ।। एवमपि किमित्याह--- नियोज्यस्स च कार्यं यस्स्वकीयत्वेन बुद्ध्यते। तथाऽपि किमित्याह--- स्वर्गादि: कामयोगाच्च साध्यत्वेनैव गम्यते ।। 18 ।। साध्यविषयैव हि सर्वत्र कामना भवति, तेन तत्सम्बन्धात्साध्यभूतं स्वर्गादि काम्यमानतया पुरुषं विशिनष्टि--- तेन साध्यत्वपर्यन्तस्वर्गादीच्छाविशेषित:। तदेव शक्नुयात्कार्यं बोद्धुं यत्काम्यसाधनम् ।। 19 ।। मण्डड्डत्ध्;नमिश्रमतस्योपन्यास:। अत्र कश्चिदाह---यद्यपि कामनायोगात्साध्यता स्वर्गादीनामवगम्यते, तथाऽपि प्रकृतकार्यसाध्यत्वावगमो निष्प्रमाणक एव, अन्यसाध्यस्याऽपि साध्यत्वसम्भवात्। न च यत्काम्यते, तस्याऽवश्यं साधनमस्ति। मनोरथपरम्पराहृतचेतसो हि तन्नाऽस्ति, यन्न कामनाविषयीभवति। न च तस्य सर्वस्य साधनं भवति, सर्वज्ञत्वमपि केचित्कामयन्ते, न च तस्योपायसम्भव:। अथ तदिच्छावतोऽतत्साधने कत्र्रृता नोपपद्यते। कथ1279 नोपपद्येत। दृश्यन्ते हि ग्रामाभिगमनकामा 1280अपि यादृच्छिकीषु क्रियासु प्रवत्र्तमाना:। अपि च सर्वोऽभ्युदयाथ्र्येव1281 पुरुष:, तथाऽपि प्रायशस्तद्विरोधिष्वेवेन्द्रियार्थेषु प्रवत्र्तमानो दृश्यते-इति। तन्निरास:। अत्रोच्यते---स्वर्गादिकं कामयमानस्य तदेव कार्यतया बबोद्धुमवकल्पते, यदेव तस्य काम्यमानस्य सिद्ध्यनुगुणम्। अन्यथा हि तत्कामिना सता तत्कार्यतयाऽनवबुद्धं स्यात्। अपरित्यक्ततत्कामनासम्बन्धो हि तत्साधनं कार्यतयाऽवबुध्यते। तस्माद्यत्कामिनो यत्कार्यतयोपदिश्यते, तत्तस्नय काम्यस्य 1282साधनमिति नियोज्यकार्यान्वयानुपपत्त्यैव गम्यते ।। 19 ।। एवं सति किं फलमित्याह--- लिङादिस्तत्र कार्यञ्चेत् क्रियामेवाऽवबोधयेत्। समन्वयो नियोज्येन तदानीमेव हीयते ।। 20 ।। कथमित्याह--- क्रिया हि क्षणिकत्वेन न कालान्तरभाविना:। स्वर्गादे: 1283काम्यमानस्रू 1284समर्था जननं प्रति ।। 21 ।। इष्टस्याऽजनिका सा च नियोज्येन फलार्थिना। कार्यत्वेन न सम्बन्धमर्हति क्षणभङ्गिनी ।। 22 ।। कार्यविरोधि कर्मेति प्रमाणान्तरसिद्धम्। परिस्पन्दो ह्युत्तरदेशसंयोगोदयापवर्गीत्याशुतरविनाशी, स्वर्गश्च नियतदेशान्तर---कालान्तरभोग्य:। मण्डड्डत्ध्;नमिश्रमतानुवाद:। 1285ननु प्रीतिमात्रवचनस्स्वर्ग इति षष्ठाद्ये साधितम्, प्रीतिसाधनेषु द्रव्येषु स्वर्गशब्दप्रयोगात्। न च तेषु स्वरूपनिबन्धन एव तत्प्रयोग:, प्रीत्यपगमे तदभावात्। न च तत्साधनवचनता तदनभिधाने घटते, तदभिधानाभ्यूपगमे तद्वाचकतैव। लक्षणया तत्साधने प्रयोगोपपत्ते:, तत्र शक्तिकल्पनापरिक्षयात्। अखण्डड्डत्ध्;शब्दतया च दण्डिड्डत्ध्;न्यायस्याऽसम्भवात्तदन्तर्गतस्य दण्डड्डत्ध्;शब्दस्य दण्डड्डत्ध्;प्रत्यायकत्वसम्भवात्। प्रीतेश्च कर्मानन्तरभावित्वमपि न सम्भवत्येव। तन्निरास:। उच्यते। न प्रीतिमात्रवचनतया ज्योतिष्टोमादिचोदनासु स्वर्गशब्दस्य प्रयोगोऽवकल्पते1286, अर्थवादेषु दु:खासम्भिन्नचिरतरोपभोग्याभिलाषोपनेयप्रीतिश्रवणात्। तत्र यदि विध्युद्देशगतस्स्वर्गशब्दस्तथाविधप्रीतिपरतया न वण्र्यते, तदाऽतिपरोक्षाऽर्थवादपदानां वृत्तिर#ादृता न भवेदिति, तदानुगुण्येन तादश्यामेव प्रीतौ स्वर्गशब्द: प्रयुक्त इति निश्चीतते। तथाभूता1287 च सा नियतमेव देशान्तरभोग्या। अतो न कर्मानन्तरभाविनीति, न तत्र कर्मण आशुतरविनाशिनस्साधनताऽवकल्पते। यस्मिन् हि पूर्ववर्त्तिनि यन्निष्पाद्यते, तत्तस्य साधनमितिलोकप्रतीति:। अत एव च विनष्टस्याऽपि कर्मणश्शास्त्रेण साधनत्वं बोधत इति ये ब्रुवते, तेऽपि निरस्ता:। एवं चाऽसावाशुतरविनाशिनी क्रिया स्वर्गकामिना नियोज्येन सह कार्यतया सम्बन्धुं नाऽर्हति, स्वर्गं प्रति साधनत्वानुपपत्ते: ।। 20 - 22 ।। तस्मान्नियोज्यसम्बन्धसमर्थं विधिवाचिभि:। कार्यं कालान्तरस्थायि क्रियातो भिन्नमुच्यते ।। 23 ।। ननु क्रियैव कार्यतयोच्यताम्, अस्तु सैव 1288फलसाधनम्। तेन तस्या अपि नियोज्यसंबन्धो घटत एव। न त्वसौ क्षणभङ्गिनी देहान्तरोपभोग्यस्वर्गसाधनतां कथमवलम्बिष्यते। उच्यते। वरं तस्या एव तदनुपपत्त्या चिरतरावस्थायिताकल्पना, न पुनरदृष्टस्याश्रुतस्य तदतिरेकिणोऽर्थस्य कल्पना। यदि 1289वा कर्मण एव शक्तिरवस्थायिनीत्यभ्युपगम्यताम्। तदिदमुभयमपि प्रमाणान्तरविरोधान्न कल्पनामर्हति। अविरोधि हि प्रतीतसिद्ध्यर्थ कल्पयितुं शक्यम्। कर्मणश्चाऽऽशुतरविनाशिनश्चिरतरावस्थायिता प्रमाणान्तरविरुद्धा1290। वार्तिकमतोपन्यास-निरासौ। शक्तिमति चाऽतीते शक्तिरप्यतीतेति प्रमाणान्तरसिद्धमिति, न साऽपि स्थायिनी शक्या कल्पयितुम्। 1291अपि चाऽऽश्रये निवृत्ते, किमाश्रया शक्तिरवतिष्ठताम्। आत्माश्रितेति चेत्। नाऽन्यदीया शक्तिरन्यत्र वर्तते, प्रमाणान्तरविरोधादेव। किञ्च शथ्कतमत्यसति,शक्ते: फलं न युक्तम्। शक्मिमद्धि साधनम्, न शक्ति: केवला1292, अन्यथा शक्तित्वं न स्यात्। देवताप्रसादस्य फलप्रयोजकत्वशङ्का 1293ननु यागादिक्रिया देवताराधनोपायभूता सती कार्यतयोच्यताम्, सा तत्प्रत्त्यासत्तिद्वारेण कालान्तरेऽपि फलं जनयितुमलमेव। देवता फलदानसमर्था कर्मभिराराध्यते, साऽऽराधिता प्रसीदति, प्रसन्ना च कत्रर्ॄन्कालान्तरेऽपि फलेन योजयत्येव---इति। तन्निरास:। नैतदेवम्। यागादीनां देवताराधनहेतुत्वे प्रमाणाभावात्। न हि देवताराधनोपायभूतो याग इत्यत्र किञ्चित्प्रमाणमस्ति। ननु देवपूजार्थएव यजिस्स्मर्यते। पूजो च सर्वा ।पूज्यमानाराधनार्थेत्यवगतम्। उच्यते। न स्मृति: प्रमाणम्, स्मृतित्वादेव। प्रमाणान्तरापेक्षया च स#्मृतीनामर्थवर्णनम्, तदनुवर्त्तित्वात्तासाम्। न च प्रमाणान्तरेण देवतासाधनोपायता अयागस्याऽवगम्यत इत्युक्तम्। अतो देवतोद्देशेन द्रव्यत्यागो याग इति, गौणं देवतापूजात्मकत्वमवगन्तव्यम्, पूजाऽपि पूज्योद्देशेनैव हि प्रवत्र्तते--इति। अप च सा कर्मभिराराध्यते,याऽऽराधनं प्रतिपद्यते। नानादेशगामिना पुरूषेणाऽनुष्ठीयमानयागात्मकपूजावगमश्च देवताया इति, प्रमाणविरुद्धमेव 1294विग्रहवतश्च प्रतिपत्तियोगिता, तस्य च वेदेनाऽनादिनाऽऽराध्यतया प्रतिपादनमपि प्रमाणान्तरविरुद्धमेव, तस्याऽनादित्वानुपपत्ते:। देवताधिकरणे झ्र्म#ी. द. 9. 1. 4ट च प्रपञ्चेनाऽयमर्थो निरस्त इति, नाऽतीवाऽत्र यतितव्यम्। यागस्य पुरुषसंस्कारकत्वशङ्का। अथाऽपि स्यात्पुरुषसंस्कारहेतुभूतैव क्रिया शब्देन कार्यतयोच्यते, तस्याश्च स्वर्गकामादिपुरुषसम्बन्धात्पुरुषसंस्कारादेव कालान्तरे फलं भविष्यति--इति। तन्न। पुरुषसंस्कारकत्वे प्रमाणाभावात्। न हि प्रमाणान्तरत:, शब्दतो वा पुरुषसंस्कारहेतुता यागादीनामवसीयत इति "कर्माण्यारम्भभाव्यत्वादि" झ्र्मी. द. अ. 11. पा. 1 सू. 20ट त्यत्रोक्तम्। क्रियाकार्यत्वशङ्का। ननु क्रियैव कार्यतयोच्यताम्, फलसाधनता च तस्या एवाऽऽश्रीयताम्। तदन्यथानुपपत्त्या तु किञ्चिदप्यपरं तञ्जन्यं फलोदयानुगुणं कालान्तरस्थाय्यात्माश्रयं परिकल्प्यताम्, मा भूत्तस्य लिङादिवाच्यता---इति। कार्यं लिङादिवाच्यमिति स्वमतनिरूपणम्। उच्यते---तद्धि तदनुपपत्त्या कल्प्यते, यद्यस्योपपादकम्। न च क्रियाजन्येनाऽन्येन फलजनकेन कल्पितेन क्रियाया: फलसाधनतोपपादिता भवति। न हि साधनसाधनं तस्य साधनं भवति, अवान्तरव्यापारो वा, शक्तिर्वा तत्साधनतां निर्वाहयति। व्यापारयोगितयैव शक्तिमतां साधनता यत:न चाऽऽत्मसमवाय्यर्थान्तरं कर्मणामवान्तरव्यापार:, नाऽपि शक्तिरिति, न तस्याऽर्थापत्तिगम्यता युक्ता। किन्त्वन्विताभिधाने स्थिते, नियोज्यानुगुण्याच्छब्दवाच्यतैवाचितेति सूक्तम्--- 1296नियोज्यसम्बन्धसमर्थं कालान्तरस्थापि कार्यं क्रियातिरिक्तं लिङादिभिरेवोच#्यते---इति। गुरुमतसर्वस्ववर्णनम्। 1297अत्रैषा प्रक्रिया। चोदनासूत्रे कार्यार्थता प्रतिपादिता। षष्ठाद्ये तस्यैव कार्यस्य स्वसम्बन्धितया बोध्यस्स्वर्गकामादिर्नियोज्य इति व्युत्पादितम्। स्वर्गकामना च नियोज्यविशेषणमित्येकादशाद्ये झ्र्मी. द. 11. 1. 1.ट व्युत्पादितम्। तस्य च कार्यस्य नियोज#्यविशेषणीभूतकाम्योत्पत्तिहेतुत्वमिति बादर्यधिकरणे झ्र्मी. द. 3. 1. 3ट राद्धान्तितम्। तच्च तथाभूतं कार्यं क्रियारूपं न भवति, तस्या: फलसाधनत्वायोगात्। देवताराधनमुखेन तावत् फलसाधनता नाऽस्तीति देवताधिकरणै झ्र्मी. द. 9. 1. 4ट व्युत्पादितम्। पुरुषसंस्कारमुख#ेन नाऽस्तीति "कर्माण्यारम्भभाव्यत्वादि"त्यत्रोक्तम्। कर्मण:, तच्क्तेर्वा स्थायिता नेति चाऽपूर्वाधिकरणे झ्र्मी. द. 2. 1. 2.ट प्रतिपादितम्। अतो नियोज्यान्वयमुखेन मानान्तरापूर्वमात्मसमवायि कार्यं लिङादिभिरभिधयत इत्यनेकन्यायसाध्यम्। कार्यञ्च कृतिसाध्यम्। कृतिश्च पुंसां प्रयत्न एव। न च चाऽसौ भावार्थमन्तरेणाऽस्तीति, 1298तत्सम्बद्ध एवोच्यतइति भावार्थाधिकरणे झ्र् 2. 1 . 1 ट स्थितम्। स च भावार्थस्सम्बध्यमानस्तमवच्छिनत्तीति, शब्दान्तराधिकरणे झ्र्मी. द. 2. 2. 1ट निर्णीतम्। विषयभूतश्च भावार्थ: करणीभवतीत#ि बादर्यधिकरणे एवोक्तम्, स्वकार्यसाधने भावार्थे पुरुषस्यैश्वर्यमिति च तत्रैवाक्तम् ।। 23 ।। कालान्तरावस्थायिन: कार्यस्य नियोज्यान्वययोग्यतामाह--- तद्धि कालान्तरस्थानाच्छक्तं स्वर्गादिसिद्धये। सम्बन्धोऽप्युपपद्येत नियोज्येनाऽस्य कामिना ।। 24 ।। ननु भाष्यकार:---प्रत्ययार्थं प्रयत्नमित्याह1299, न क्रियादिभिन्नं कार्यमिति यो मन्यते, तं प्रत्याह--- क्रियादिभन्नं यत्कार्यं वेद्यं मानान्तरैर्न तत्। अतो मानान्तरापूर्वमपूर्वमिति गीयते ।। 25 ।। नियोगनिर्वचनम्। नन्वेवमप्यपूर्वं वाक्यार्थस्स्याद्, न नियोग:। नियोगश्च वाक्यार्थइति प्राभाकराणामुल्लाप इत्यत्राऽऽह--- 1300कार्यत्वेन नियोज्यञ्नच स्वात्मनि प्रेरयन्नसौ। नियोग1301 इति मीमांसानिष्णातैरभिधीयते ।। 26 ।। एवमपि कथं 1303तस्य वाक्यार्थत्वमितयाह--- कार्यस्यैव प्रधानत्वाद्वाक्यार्थत्वञ्च युज्यते। वाक्यं तदेव हि प्राऽऽह नियोज्य-विषयान्वितम् ।। 27 ।। उक्तं ह्येतत्-यत् प्रधानतया प्रतिपाद्यते, तद्वाक्यार्थ:--इति। कार्यञ्च प्रधानतयोच्यत इति, तस्यैव वाक्यार्थत्वम्। नियोज्यान्विताभिधाने प्रायिकमिति कथनम्। नियोज्यन्विताभिधानञ्च प्रायिकम्, आधाना-ध्ययना-ङग-प्रधानोत्पत्तिनियोगानां नियोज्यशून्यानामभिधानाभ्युपगमात्। विवरणकारा ह्याधानविषयमपि नियोगान्तरमिच्छनित, क्रतुनियोगप्रत्यभिज्ञानाभावाद्। असन्निधाने हि तन्नियोगप्रत्यभिज्ञानं नोपपद्यते। नाऽपि 1303पणतादिवदव्यभिचरितक्रतुसम्बन्धाग्निमुखेन1304 प्रत्यभिज्ञोपपत्ति:। प्रागाधानादाहवनीया1305दिशब्दानामर्थापरिज्ञानात्क्रतुसम्बन्धानवगमात्। जुढद्धठ्ठड़14;वादीनान्त्वाकृतिवचनत्वात्प्रागेव 1306विधेर्नियोगप्रत्यभिज्ञासम्भव:। नन्वग्नीनामपि साध्यत्वात्, साध्यद्वयं कथमेकस्मिन्वाक्येऽन्वीयते ? उच्यते---नियोग एवाऽत्राऽपि प्रधानं साध्यम्, अनीप्सितकर्मतात्वग्नीनाम्। अनीप्सितकर्मत्वेऽपि यत्तदाधानजन्यं फलमग्निसमवायि, तद्योगिन्याहवनी यादिशब्दप्रयोगात्, आहवनीयादीनाञ्च क्रतूपयोगित्वात्तत्सिद्ध्यर्थतयैव पुरुषप्रवृत्त्युपपत्तेरनुष्ठानलाभादलं 1307नियोज्यान्विताभिधानेन--इति। तथाऽध्ययनविधावप्याचार्यकरणविधिप्रयुक्त्यैवाऽनुष्ठानलाभान्नियोज्यशून्याभिधानमिति स्थितम्। प्रधानोत्पत्तिनियोगा अप्यधिकारनियोगाक्षिप्तस्वविषयानुष्ठानेनैव लब्धसिद्धय इति, न तत्र नियोज्यान्विताभिधानान्वेषणम्। प्रयाजादिषु नियोगान्तरोपन्न्यास:। अङ्गोत्पत्तिनियोगा अपि विनियुक्तप्रयाजादिविषयत्वादधिकारनियोगाङगतयैव सिध्यन्तीति, किं तेषु नियोज्यान्विताभिधानेन। कथं पुन: प्रयाजादिविधीनां विनियुक्तविषयत्वम् ? उच्यते---साधिकारनियोगसन्निधौ प्रयाजादिवाकयानि श्रुतानि न 1308तावत्स्वविषयं नियोगान्तरमवगमयितुमीशते, अवधातादिवदनुवादकत्वसम्भवात्। किन्तु स्वरूपमात्रमव1309 योग्यस्वपदार्थविशिष्टमुपस्थापयन्ति1310। तच्च प्रयोजनाकङ्क्षितया प्रयोजनीभूतेन साधिकारेण नियोगेनाऽन्वीयत इति, अधिकारवाक्यगत एव लिङ्शब्दस्तदन्वितं स्वार्थमभिधत्ते। स चाऽन्वय: प्रयाजादीनामैदमथ्र्यमात्रेण ग्राहकग्रहणमित्युच्यते। करणोपकारसाकाङ्क्षस्य चाऽपूर्वस्य यत्कर1311णोपकारपरिकल्पनम्, स प्रकरणव्यापार:। तत्र यत्तेषां 1312करणोपकारजनकतवकल्पनम्, तदौपादानिकम्---इति। तत्र शङका-निरासौ। नाऽस्ति तर्हि प्रयाजादिषु नियोगान्तरम् ? न नाऽस्ति, क्षणिकानां तेषां सम्भूयकरणोपकारकत्वानुपपत्तेर्नियोगान्तरस्याऽवश्याश्रयणीयत्वात्। योऽसौ लिङादि: प्रागनूद्यमानार्थकतया शङ्कित:, स इदानीं नियोगान्तरमभिधत्ते। अत एव चाऽवघातादिवदेषां यज्यादिशब्दानामेवाऽङगवाक्यगतानामधिकारनियोगान्वितस्वार्थाभिधानं नाऽभ्युपगम्यते। तथा सत्युत्पत्तावेवाऽङगयागस्वरूपस्याऽन्यतिरश्चीनस्य नियोगान्तराविषयत्वात्, नियोगान्तरविषयता न स्यात्। उत्पत्तिदशायां 1313त्वनन्यतिरश्चीनतयाऽभिधानाद्युक्तं नियोगान्तरविषयत्वम्। कस्मात्पुनरन्यतिरश्चीनस्य नियोगान्तराविषयत्वम्, 1314कार्यद्वयसम्बन्धावगमानुपपत्ते:। नह्येकं वस्तु युगपत्कार्यद्वयसम्बन्धि शक्यमवगन्तुम्। यच्च तन्नियोगान्तरं प्रयाजादिषु, तत् पश्चादभिधीयमानमधिकारनियोगाङ्गतयैव1315 स्वशब्देनाऽभिधीयते। अन्यथा विषयद्वयविनियोगविरोधादित्यलमतिप्रसङ्गेन ।। 27 ।। नियोगस्य गुणत्वशङ्का-निरासौ। ननु नियोगस्य काम्यमानफलसाधनत्वाभ्युपगमात्, फलस्येव प्राधान्यात्, तस्यैव वाक्यार्थत्वं1316 युक्तमित्यत आह--- आत्मसिद्ध्यनुकूलस्नय नियोज्यस्य प्रसिद्धये। कुर्वत्स्वर्गादिकमपि प्रधानं कार्यमेव न: ।। 28 ।। यत्तदपूर्वं कार्यम्, तस्य नियोज्यान्वयं विना कार्यत्वानुपपत्ते:, अनुष्ठानं विना तदसम्भवात्, कत्र्रा च विना तदनुपपत्ते:, अधिकारेण1317 च विना कत्र्तुरभावात्, नियोज्यत्वं विना तदयोगात्, अकामसाधने च 1318कामिनो नियोगानवगमादिति, आत्मसिद्ध्यर्थमेव नियोग: काम#्यमानफलसिद्धिहेतुत्वमवलम्बते, स्वामिवत्। यथाऽऽत्मन एव संविदधानस्स्वामी गर्भदासस्योपकरोति, तथा नियोगोऽपि नियोज्यस्येति, न 1319प्राधान्यप्रच्युति: ।। 28 ।। ननु नियोगस्य फलसाधनत्वात्, तस्य च सेतिकत्र्तव्यताककरणनिबन्धनसिद्धित्वात्, तदनुष्ठानानन्तरं नियोगसिद्धे: फलसिद्धिस्स्यात्, अनन्तरं नियोगो 1320न निष्पद्यते, तर्हि क्रियायामतीतायां कुतस्तत्सिद्धिरित्यत्राऽऽह--- विषयानुष्ठितौ सत्यां सिद्धो न हि विधि: फलम्। तदानीमेव कुरुते सहकारिव्यपेक्षया ।। 29 ।। एषाऽऽत्र दर्शनस्थिति:---प्रधानोत्पत्तिनियोगा:, अङ्गोत्पत्तिनियोगाश्च यथायथं संनिपत्योपकारकाङ्गयुक्तस्वविषयमात्रानुष्ठानेनैव सिद्ध्यन्ति। तत्र यान्यङ्गापूर्वाणि, तानि सम्भूत प्रधानोत्पत्त्यपूर्वेषूपकुर्वन्ति, तस्माच्च परमापूर्वं निष्पद्यते। यान्यपि च#ाऽङ्गापूर्वाणि दीक्षिणीयादीनाम्, तेषामप्यारादुपकारकातिदेशिकाङ्गमाजामेकमुत्पत्त्यपूर्वम्, अपरमप्यङ्गापूर्वं प्रधानवद्वेदितव्यम्---इति। अनया दिशाऽन्यत्राऽपि सकलमूहनीयम्। इत्थं यद्यपि कर्मानुष्ठानानन्तरमेव नियोगसिद्धि:, तथाऽपि यत् फलस्याऽनन्तराभवनम्, तत् उपपत्त्या कल्प्यते---इति ।। 29 ।। नन्वेवं सति फलहेतुताऽपूर्वस्य बाध्येतेत्यत्राऽऽह--- सहकारिव्यपेक्षा च कारणत्वं न बाधते। मा1321 बाधिष्ठेति सर्वत्र तदनुग्रहकल्पना ।। 30 ।। तथेत्यर्थ:। "1322अत: पुरुषकारश्च दैवञ्च फलसाधनम्"। इत्याचार्या:। दैवम्---अपूर्वम्। अपेक्षणीयं सहकारि च पुरुषकारपदवेफम्। नित्यादिषु नियोगानभिधानशङ्का-परिहारौ। नन्वेवं भवतु काभ्येष्वपूर्वकार्याभिधानं लिङादीनाम्, नित्य-नैमित्तिकनिषेधाधिकारेषु कथम् ? 1323न हि तेषु फलोदयं प्राभाकरा अनुमन्यन्ते। न हि फलं फलतयाऽन्वीयते, किन्त्वधिकारिविशेषणतया। लब्धे तु जीवनादावधिकारिविशेषणे, किं फलान्वेषणेन। न च फलमन्तरेण प्रव#ृत्त्यसम्भव:, स्वसम्बन्धिकार्यावगममात्रायत्तत्वात्प्रवृत्ते:। निरपेक्षाच्छब्दात्फलमन्तरेणा।द्यपि स्वसम्बन्धिकार्यावगम:, तावन्मात्रस्य लोके प्रवृत्तिहेतुत्वावगमात्। कार्यावगमोत्पादनायै फलमुपयुज्यत इत्युक्तम्। ननु यथा शब्दात्कार्यावगति:, तथा निष्फलत्वादनुमानेनाऽकार्यताप्रतीतिरपीति, कथं प्रवृत्त्युपपत्ति: ? न। 1324आगमविरोधेनाऽनुमानस्याऽऽत्मलाभाभावात्। अन्यथा यदि कश्चित्कल्पिते फले न प्रवर्तते, तदा किं कत्र्तव्यम् ।। 30 ।। ननु फलोदयानभ्युपगमे च प्राच्यमार्गासम्भवात्, नित्यादिष्वपूर्वकार्याभिधानमप्रमाणकं स्यात्, तत्राऽऽह--- एवं कामाधिकारार्थपर्यालोचनयोत्थिता। व्युत्पत्तिस्सर्ववाक्यार्थप्रतिपत्तिनिबन्धनम् ।। 31 ।। 1325उक्तमिदमन्याय्यञ्चाऽनेकार्थत्वम्-इति। तेन कामाधिकारे सिद्धेऽपूर्वकार्याभिधायकत्वे, नित्यादिष्वपि स एवाऽर्थो विरोधाभावादाश्रीयते। नित्याधिकारानुगुण्येन तु क्रियाकार्यत्वाभिधानं काम्येष्वनुपपन्नमिति, सर्वत्राऽपूर्वमेव1327 वाक्यार्थ:---इति।। 31 ।। तत्रैतदेव तावद्वक्तव्यम्---न केवलं वेदे लोकव्यवहारादेव शब्दार्थावधारणम्, किन्तु प्रसिद्धार्थपदसम्बन्धादपि पदार्थान्तरान्वययोग्यार्थाभिधायकतेति1328 स्थिते, तदनुरूपार्थाभिधायकता निर्णीयत एव। एतच्च यववराहाधिकरणे झ्र्मी. द. 1. 3. 5.ट व्युत्पादितम् 1329व्यवहारत एव सम्बन्धावधारणादुभयथाऽपि पदान्तरार्थाध्यवसानं भवत्येव, तेन वैदिकवाक्यशेषान्वयार्हतालोचनेन दीर्घशूकाद्यर्थत्वमेवेति राद्धान्त:। तथा त्रिवृच्छब्दे, यूपा--हवनीयादिषु च शक्त्यवधारणात्। लोकेऽपि चाऽयं व्यवहारो बहुलमुपलभ्यते। तथा सति वैदिकनियोज्यान्वययोग्यतया लिङादीनामपूर्वकार्याभिधायकत्वनिर्णयो नाऽनुपपन्न:। अयञ्चाऽपरो विशेष:---यल्लिङादियुक्तानां वाक्यानां कार्यार्थत्वम्, तत्तावद्वृद्धव्यवहारादेव सिद्धम्, किन्तु लिङादिप्रत्ययानां यद्वच्यं1330 कार्यम्, तच्चाऽपूर्वंरूपमित्येतावन्मात्रं वैदिकपदसम्बन्धादवसीयते--इति ।। 31 ।। 1331एकदेशिमतमधुना निराकत्र्तुमुपन्यस्यति--- व्यवहारत एवाऽहुव्र्युत्पत्तिमपरे पुन:। कार्ये मानान्तरावेद्ये क्रियादिव्यतिरेकिणि ।। 32 ।। अस्याऽर्थ:---केचिदेवमाहु:---लिङादियुक्तवाक्यश्रवणे प्रवृत्तिदर्शनात्, कार्यावगतिनिबन्धनत्वात्प्रवृत्ते:, कार्यमात्रमेव तेषामर्थ:, न 1332क्रिया। वैदिकलिङादे: कार्ये शक्तिनिर्णय:। नन्वेवं वेदादेव व्युत्पत्तिरास्थिता स्यादित्याशङ्क्याऽऽह--- व्युत्पत्तिरिप कार्येऽर्थे व्यवहारानुसारिणी। किन्तु निर्धारणामत्रं वेदवाक्यविमर्शजम् ।। 33 ।। तस्यां शब्दस्य प्रवृत्त्यनुपयोगित्वादिति, क्रियानिष्कृष्टकार्याभिधायिता लौकिकव्यवहारादेव निर्णीयते--इति ।। 33 ।। तदिदमयुक्तमिति प्रतिजानीते--- सितेतर इव त्वेष पक्षश्चित्तं न कर्षति। चन्द्रातपामलन्यायप्रवासमलिनीकृत: ।। 34 ।। कथमित्याह--- कार्ये मानान्तरावेद्ये पाश्र्वस्थस्तन्निबन्धनम्। व्यवहारं कथङ्कारं शब्दात्प्रागवबुध्यताम् ।। 35 ।। व्यवहारमविज्ञय तन्निबन्धनतद्ग्ता। प्रतिपत्ति: कथं ज्ञेया शब्दशक्ति: कथन्तराम् ।। 26 ।। इदमत्राऽऽकूतम्। यद्यपि कार्यमात्रमेव प्रवृत्त्युपयोगीति तावन्मात्रमेव शब्दार्थ:, तथाऽपि तस्य लोके क्रियागतस्यैव प्रवत्र्तकत्वदर्शनाद्, शक्यते क्रियाश्रितता प्रत्येतुम्। यथाऽऽकृतिमात्रस्य शब्दार्थत्वेऽपि व्यक्त्याश्रितताऽपि न प्रतिक्षिप्यत#े, तथा क्रियाश्रितत्वं प्रमाणान्तरप्रमितं न प्रतिक्षेपमर्हति। तेन क्रियातिरिक्तकार्याभिधायकत्वमसिद्धम्1333। यदि परं तन्निबन्धनव्यवहार एव1334 स्यात्, तदा तद्दर्शनात्तद्धेतुभूतप्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्त्याऽनुमानेन शब्दस्य वाचकत्वाध्यवसानं भवेत्। न चैतदस्ति,तस्य शब्दादन्यत: प्रागनवगमात्तन्निबन्धनव्यवहाराप्रतिपत्ति:1335, तदप्रतिपत्तौ च तद्धेतुभूतप्रतिपत्त्यननुमानान्न शक्तिकल्पनोपपत्ति: ।। 34 - 36 ।। तत्राऽऽकूतं विवृणोति--- कार्यप्रतीतिमात्रञ्च प्रवृत्तेरनुमीयताम्। किन्तु कार्या क्रियैवेति1336 लोकदृष्ट्याऽऽवसीयते ।। 37 ।। लोकप्रतीतं क्रियारूपत्वञ्च न शक्यतेऽपढद्धठ्ठड़14;नोतुमिति, कार्यमात्रार्थत्वे क्रियैव कार्यतया लिङाद्यर्थ इति निश्चीयते, न पुन: प्रमाणान्तरादपूर्वम्-इति ।। 37 ।। मतान्तरेण क्रियाकार्यत्वशङ्का-निरासौ। अन्ये पुन---र्वेदार्थबोधकाचार्यवचननिबन्धनप्रवृत्तिदर्शनेनाऽतीन्द्रिये1337 कार्ये लिङादयो व्युत्पद्यन्त इत्याहु:। यद्याचार्यवचनादपि क्रियैव कार्यतयाऽऽवगम्यते, तदा तस्यास्स्वयं दु:खरूपत्वात्पुरुषार्थान्तरानुबन्धनं विन प्रवृत्त्यसम्भवान्नियमेन सुखार्थ#िन: प्रवृत्तिर्न स्यात्। 1338न च सन्ध्योपासनादौ पुरुषार्थोऽस्ति। तस्मात्क्रियातिरिक्तकार्यमाचार्यवचनेभ्योऽवगम्यते---इति। तान्प्रत्याह--- वेदार्थाचार्यवाक्येषु प्रवृत्तियाऽऽपि दृश्यते। तत्राऽप्येषैव सम्बन्धपरिज्ञानविधा भवेत् ।। 38 ।। आचार्यवाक्यश्रवणादपि शिष्याणां या सन्ध्योपासनादौ प्रवृत्ति:, तत्राऽपि बालस्स्वविषयनिरूपितं क्रियाकार्यत्वावगममेव कारणत्वेन परिकल्पयेत्, फलं विना च तदनुपपत्ते: फलावगममपि सम्भावयेत्। लोकव्युत्पत्त्यनुसारेण 1339वेदार्थमपि प्रतिपद्यमानो नित्य-नैमित्तिक-न#िषेधाधिकारेष्वपि1340 फलं कल्पयेत्। स एव वाल्यदशायां व्युत्पन्नस्स्वयमाचार्यपदवीमधिरुढो वेदार्थं प्रतीत्य, शिष्येभ्य उपदिशन् क्रियामेव कार्यतया प्रतिपादयेत्, नाऽपूर्वं कार्यम्--इति ।। 39 ।। उपसंहरति--- तस्माल्लोकानुसारेण व्युत्पत्ति: कार्यमात्रके। तस्य त्वपूर्वरूपत्वं वेदवाक्यानुसारत: ।। 39 ।। एवमपूर्वकार्याभिधायित्वे सिद्धे चोदयति--- ननु लोकविरोधित्वं पक्षेऽस्मिन्नपि दृश्यते। सर्वथैव1341 यतो लोके क्रिया कार्यैव गम्यते ।। 40 ।। परिहरति--- भवेदेवं विरुध्येते कायऽपूर्वेऽपि लौकिकौ। प्रतिपत्ति-प्रयोगौ चेत् क्रियाकार्यत्वगोचरौ ।। 41 ।। यदि क्रियाकार्यत्वगोचरौ लौकिकौ प्रतिपत्ति-प्रयोगावपूर्वकार्याभिधायित्वपक्षाङ्गीकारे विरुध्येते, ततो लोकविरुद्धत्वं स्यादस्मत्पक्षस्य। न चैतदस्तीत्याह--- अपूर्वं हि क्रियासाध्यं साधिता साधनं क्रिया। तस्मादपूर्वकार्यत्वं1342 क्रियाकार्यत्वसङ्गतम्1343 ।। 42 ।। प्रमाणान्तरगम्यं हि लोकश्शब्दैर्विवक्षति। क्रियाकार्यत्व एवाऽत: प्रयोगो लक्षणान्वित: ।। 43 ।। प्रतिपत्ति-प्रयोगौ हि नाऽवश्यं श्रौतवृत्त्यनुसारिणावेव, लक्षणयाऽपि लोके1344 तद्दर्शनात्। तेन यद्यप्युक्तेन न्यायेनाऽपूर्वमेव कार्यं लिङादीनामभिधेयम्, तथाऽपि तस्य क्रियाकार्यत्वाव्यभिचारात्, तत्र लक्षणया तयोर्नाऽनुपपत्ति:। यत्तु श्रौतपदार्थे कार्य#े लोके लिङादि न प्रयुज्यत इति। तत् तस्याऽपूर्वात्मन: प्रमाणान्तराप्रतीतत्वात्, प्रतीतविषयत्वाच्च लौकिकप्रयोगस्य। क्रियासाध्यन्त्वपूर्वम्, साधिता च सती क्रिया साधनं भवतीत्यपूर्वेण सह क्रियाकार्यत्वं1345 नित्यसम्बद्धमिति, शक्यते तल्लक्षयितुम् ।। 42 - 43 ।। यद्येषा1346 लक्षणा, किमिति तर्हि लोको नाऽवगच्छतीत्याह--- लक्षणानभिमानस्तु मुख्यार्थानवधारणात्। ये तु1347 मुख्यार्थकुशलास्तेषां लाक्षणिकत्वधी: ।। 44 ।। मुख्यमर्थमविदित्वा लाक्षणिकमप्यर्थं श्रौतमिव मन्यन्ते, म्लेच्छा इव यव-वराहाद्यर्थम्। मुख्यार्थविवेकिनान्तु परीक्षकाणां लाक्षणिकत्वधी:---इति ।। 44 ।। उपसंहरति--- तस्मान्मानान्तरावेद्यं कार्यमर्थान्तरान्वितम्। वेदवाक्यं ब्रवीतीति संक्षेपोऽयमुदाहृत: ।। 45 ।। ग्रन्थस्य, कर्तुश्च संज्ञां, प्रयोजनञ्चाऽऽह--- वाक्यार्थमातृकेयं प्रभाकरगुरोर्भतानुसारेण1348। अनसूयुबोधनार्थं शालिकनाथेन सङ्ग्रथिता ।। 46 ।। 1349रचिता सच्चरितानामनुग्रहं कर्तुकामेन। वाक्यार्थमातृकाया वृत्तिरियं शालिकेनैव ।। इति महामहोपाध्यायश्रीमच्छालिकनाथमिश्रप्रणीतायां सवृत्तौ वाक्यार्थमातृकायां द्वितीय: परिच्छेदस्समाप्त:। समाप्तञ्चेदं प्रकरणपञ्चिकायां सृत्तिर्वाक्यार्थमातृका नामैकादशं प्रकरणम्

विषयकरणीयं नाम द्वादशं प्रकरणम्। सम्पाद्यताम्


     प्रकरणार्थप्रतिज्ञा। 1350प्रभाकरमतं सम्यगालोच्य क्रियते मया। विषयं 1351करणञ्चैव विवेक्तुं युक्तिवर्णना ।। 1 ।। "ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो यजेते"त्येवमादिषु स्वर्गकामादिर्नियोज्यत्वेन सम्बध्यमान:, नाऽस्वर्गसाधने कार्ये बोद्धृतयाऽन्वेतुमलम्।। क्रिया हि क्षणभङ्गिनी न कालान्तरभाविनस्स्वर्गादेस्साधनायोपपद्यत इति, कालान्तरावस्थायि क्रियातो भिन्नं कार्यमपूर्वं ल#िङादयो बोधयन्तीति 1352स्थितम्। स्वसिद्धान्तवर्णनम्। कार्यञ्च कृतीप्सितमुच्यते। कृति:-आत्मव्यापार:-पुरुषप्रयत्न इत्यनर्थान्तरम्। चेतनश्चाऽऽत्मा कार्ये बोद्धृतयाऽन्वयमुपैति। न चाऽन्यव्यापाराभिनिर्वत्र्यमन्यस्स्वसम्बन्धितया कार्यत्वेन संवेदयितुमलमिति, आत्मनो मानसप्रत्यक्षसमधिगमनीय: प्रयत्नस्स्वव्यापार:। अतस्तन्निर्वत्त्र्यमेवाऽपूर्वं कार्यमात्मा मन्यते। प्रयत्न एव भवितव्येऽपूर्वे प्रयोजकभूतस्य भावयितुरात्मनो व्यापार इति, भावनाशब्देनोच्यते। न च कार्याभिधानं कृतिमनभिदधतां लिङादीनमुपपद्यत इति, ते कृतिमप्यभिदधति, अपूर्वञ्च। न च युगपदनेकाभिधानं दोष:, तथ#ाऽवगमात्, आनुगुण्याच्च। अवगता हि प्रमाणेन लिङादीनां कार्याभिधायिता। आनुगुण्यात्। कृतिर्गुणभूता प्रधानपदवर्तिन्यपूर्वात्मनि कार्ये। अविवादा च कत्र्रादिगतसङ्ख्यावचिता लिङादीनां कार्याभिधायिनामपि। न चाऽभिधेयतामात्रेण भावनाया एव वाक्यार्थत्वम्। भाव्यमपूर्व#ं प्रति गुणभावेनाऽभिधानात्, प्रधानभावेनाऽपूर्वस्याऽभिधानात्तदेव वाक्यार्थ इति, न किञ्चिदनुपपन्नम्। अत एव भगवतो भाष्यकारस्य तत्र तत्र व्यवहार:---"पुरुषप्रयत्न:---करणमपूर्वस्य भावनो"च्यत1352 --इति। धात्वर्थस्य विषयत्वोपन्यास:। तस्य तथाविधस्य कार्यस्य नूनं केनचिद्भावार्थेनाऽवच्छेद:। न हि प्रयत्नो भावार्थमन्तरेणाऽस्ति। सर्वो हि पुरुषप्रयत्न: कञ्चिद्भावार्थमवश्यमाश्रयते, तेन विना तदभवात्। तेन प्रयत्नाविनाभावी भावार्थ: प्रयत्नाभिनिर्वत्त्र्यमपूर्वमवच्छिनत्ति। अवच्छेदकतयैव विषयभाव:1353। "यत्रैव1354 हि यो भवति नाऽन्यत्र, स तस्य विषय"इति विषयविद:। "1355अनन्यत्र भावो विषयशब्दार्थ:" इति च। अतो भाव्य एवाऽर्थो विषय:, भाव्यस्यैव पुरुषप्रयत्नगोचरत्वात्। तेन कार्याभिधायिभिस्सह विषयबोधकतयैव भावार्थ: कर्मशब्दस्समभिव्याहारं प्रथममर्हति, तस्य 1356प्रतिपत्त्यनुबन्धत्वात्। अविषयं ह्यपूर्वं कार्यं प्रत्येतुमशक्यम्। प्रतीतस्य च कार्यस्य साधनाकाङ्क्षा। तेन न जघन्यया साधनतया भावार्थानामपूर्वेण सहाऽन्वय:। किन्तु प्रतीत्युपायतामेव मन्यमानो 1357भगवानेवं ब्रूते--- "न ह्यविषयान्नियोगान#्नियोगज्ञानमुत्पद्यते" झ्र्बृ. टी.ट इति। धात्वर्थस्य करणत्वनिरूपणम्। स च विषयीभूतभावार्थावच्छिन्नो विध्यर्थ: कार्यात्मा प्रतीत: करणम्, इतिकर्तव्यताञ्चाऽपेक्षते, अन्यत्राऽपि साध्ये तथादर्शनात्। तत्र स एव भावार्थो विषयीभूत: करणमित्यवसीयते, कृतिव्याप्यत्वात्। यो हि यया कृत्याऽन्यार्थप्रवृत्तया विषयीक्रयते, स एव तत्र करणम्। यथा--- परशुरुद्यमन-निपातनाभ्यां काष्ठगतद्वैधीभवनलक्षणकार्ये प्रवृत्ताभ्यां व्याप्यमानस्तयोरेव द्विधाभवनलक्षणफलावच्छेदलब्धद्वैधीकरणव्यपदेश्ययोश्च्छिदिधातुवाच्ययो: करणम्, तथेहाऽप्यपूर्वार्थप्रवृत्तपुरुषप्रयत्नव्याप्यमानो भावार्थस्तस्मिन्नेव प्रयत्नेऽपूर्वभावनारूपे करणम्। ननु कथं प्रयत्नलब्धात्मा भावार्थो भावनायां करणम्। भाव्यमानतया हि कर्मैव स्यात्। उच्यते। तत्र धात्वर्थो न कर्म, अपूर्वार्थकृतिविषयत्वात्। सर्वाण्येव हि कारकाणि कत्र्तृव्यतिरिक्तानि तद्व्यापारव्याप्यानि, न चैतावता तानि कर्मतां 1358भजन्ते, अनीप्सितत्वात्। क्वचिच्चाऽनीप्सिते कर्मता दृश्यत एव। यथा--- "अग्निहोत्रं जुहोति" झ्र्तै. स. 1. 5. 9ट इति। करणन्तु यद्यपि स्वरूपनिवृत्तौ न सम्भवति, तथाऽप्यपूर्वभावनारूपता तदधीनेति नाऽनुपपन्नम्। यथा परशोरेव। न हि परशु: कर्म, करणन्तु भवति, अनीप्सितत्वात्। 1359उद्यमन-निपातनयोद्र्वैधीकरणरूपतायास्तदधीनत्वात्। परशुसम्बन्धप्रभावे ह्युद्यमन-निपातने द्वेधाभवनफलनिष्पादकतया द्वेधाभावने कारणतां1360 भजेते। अत: "उद्भिदा यजेते" झ्र्तां. ब्र#ा. 29. 7. 2. 3. ट ति तृतीयानिर्देशोपपत्ति:1361। अपूर्वभावनायां करणत्वाद्यागस्य, तन्नामत्वाच्चोद्भिच्छब्दस्य। एवञ्चाऽपूर्व-फलयोरेकैव भावना, एकत्वात्पुरुषप्रयत्नस्य। एकमेव च करणम्, तद्भावनाव्याप्यत्वादेकैव भाव्यता। 1362अत एव च साध्यविवृद्धिरियमिति प्राभ#ाकरा:। धात्वर्थस्य विषयत्वकरणत्वयोरुपसंहार:। 1363यदि विषयीभूतस्य करणता, हन्त तर्हि "दर्शपूर्णमासाभ्यामि"त्यत्र तन्त्राभिहितानां तन्त्रेणैव प्रतिपत्त्यनुबन्धत्वात्, विषयभावस्यैकत्वादेकमेव करणं स्यात्, ततश्च भेदेनेतिकर्तव्यतासम्बन्धो न स्यात्। उच्यते--न सम्यगवधृतामायुष्मता श्रुतिशालिनांवच:। यदेव विषयीभूतम्, तदेव करणम्, नाऽन्यदिति तस्याऽर्थ:। प्रतीत्यनुबन्धतया। च विषयभाव:, स यथामिधानमवकल्पते, प्रतिपत्त्युपायत्वादभिधानस्य। अत स्तन्त्राभिधानात्सहितानां विषयभाव:, करणन्तु सिद्ध्यनुबन्धी नियोगस्य, तच्च यथास्वभावं वेदितव्यम्। स्वभावाधीनाहि साधनानांअ साधकतेति स्वभावभेदे भिन्न साधकता। साधकत्वे च कृतिविषयत्वात्करणतेति भेदेन करणभाव:। नन्वेवं प्रत्येकं करणभावाश्रयणे करणान्तरनिरपेक्षाणां किमिति नियोगसिद्धिहेतुता न भवति ? नैवम्। यथाश्रुतकरणाधीनसिद्धित्वान्नियोगस्य। तत्र बहूनि करणानि तस्य श्रूयन्त इति, तथैव तस्य सिद्धि:। 1364अनेककरणसम्पाद्यताऽप्येकस्य दृष्टा। यथा---गमनस्याऽश्वेन,शिबिकया, रथेन वा गच्छति---इति। भिन्नस्तत्र 1365कारणावान्तरव्यापार इति यद्युच्येत। अत्राऽप्युत्पत्त्यपूर्वाण्यवान्तरव्यापारभूतानि भिन्नानि सङ्गिरामह एव। अत एव तद्भेदेन भिन्नत्वात्करणभावस् 1367परमापूर्वप्रयुक्तत्वेऽप्याज्यौ-षध-सान्नाय्यधर्माणामसङ्कर:। अपूर्वसाधननिवेशित्वाद्धर्माणाम्, तस्य च भेदात्। ये पुनर्यागादीनामपूर्वञ्चाऽन्तरा भावनां नाऽनुमन्यन्ते, तेषां यागादीनां करणभावो दुर्घट:। अव्यापाररूपत्वादपूर्वस्य, व्यापारसम्बन्धप्रभवत्वाच्च1366 करणभावस्य। गौणं करणत्वमिति चेत् ! कथं तर्हितिकर्तव्यतासम्बन्ध:। करणं हीतिकर्तव्यतया सम्बध्यते। 1367गौणञ्च न करणम्, न हि गौणे मुख्यधर्मस्सम्भवति। येऽपि1368 सर्वाख्यातेष्वेव भावनाभिधानमाहु:, तेषामपि मतमस्मभ्यं न रोचते। न हि कार्यानभिधायिपु लडड्डत्ध्;ादिषु भावनाभिधाने प्रमाणमस्ति। वार्तिकमतनिराकरणम्। 1369यदपि किं कराति ? पचतीत्युत्तरदर्शनप्रमाणमुपन्यस्तम्। तदपि न साधकम्। व्यापारविशेषप्रश्नो ह्ययं---किङ्करोतीति1370। तत्र पचतीत्युत्तरेणाऽपिप तदेव निर्दिश्यते। यत्तु व्यापारमात्रवाचिधातूच्चारणमात्रं न क्रियते, तत्र तावन्मात्रस्याऽपभ्रंशत्वात्। प्रत्ययान्तरोच्चारणे च प्रश्नेन सहाऽसम्बन्ध:। अत एवाऽचेतनव्यापारे वर्तमानापदेशादीनां प्रयोग:। लिङादयस्तु चेतनमेवाऽधिकृत्य प्रयुज्यन्ते। न चाऽचेतनेषु गौण: प्रयोग: मुख्यत्वेऽप्यविरोधात्। कर्तृसङ्ख्यादिमात्रवचनत्वे च "रथो गच्छती"त्यादिषु मुख्यत्वापत्ते:। न चेदं वाच्यम्---संयोग-विभागावेव धात्वर्थ:, व्यापारस्तु परिस्पन्दात्मा "रथो गच्छती"त्यादिषु लडड्डत्ध्;र्थ:, तेनाऽचेतनेऽपि मुख्य एवलडड्डत्ध्;र्थ इति। धातूनामेव क्रियावाचित्वात्प्रथमोपनिपाती व्यापार एव धात्वर्थो 1371युक्त:, न जधन्यौ संयोग-विभागौ। किञ्चाऽनेकार्थताऽप्यापद्येत। केवलस्य संयोगस्याऽवाच्यत्वात्, संयोगजेऽपि संयोगे गच्छतीत्यप्रयोगात्, विभागजेऽपि विभागे प्रयोगानुपलब्धे:, न केवलस#्य संयोगस्य, विभागस्य वा गमिवाच्यतेति, किमनेन मनीषिकानिमित्तेन बालजल्पितेन 1372बालजनमनोहारिणा निर्बन्धेन। शालिकनाथेन कृतं कृतिनामुपकारसिद्धये सम्यक। समुदीक्ष्य वा गुरुमतं सम्यग्विषयकरणीयमिदम्1373 ।। 2 ।। इति महामहोपाध्यायश्रीमच्छालिकनाथमिश्रप्रणीतायां प्रकरणपञ्चिकायां विषयकरणीयं नाम द्वादशं प्रकरणं समाप्तम्।

अङ्गपारायणं नाम त्रयोदशं प्रकरणम्। सम्पाद्यताम्

सन्निपत्त्योपकारकाङ्गनिरुपणपर: प्रथम: परिच्छेद: सम्पाद्यताम्

 

   । प्रकणार्थप्रतिज्ञा। 1374व्याख्याविकल्पसम्भवमङ्गान्यधिकृत्य संशयं छेत्तुम्। परमं प्रभाकरगुरोर्गम्भीरं भावमभिधास्ये1375 ।। 1 ।। अङ्गानां चातुर्विध्यम्। इह चतुर्विधमङ्गजातम्--जाति-गुण-द्रव्य-भावार्थात्मकम्। तत्र भावार्थात्मकमपि द्विविधम्---सन्निपत्त्योपकारकम्, आरादुपकारकञ्चेति। सन्निपातिनां चातुर्विध्यम्। तत्र सन्निपत्त्योपकारकं चतुर्विध्रं, साध्यभूतोत्पत्ति-प्राप्ति-विकृति-संस्कृतिभेदात्। 1376यथाक्रमं संयवन-दोहन-विलापन-प्रोक्षणादिरूपम्। तत्र संयवनेन प्रागभूत: पिण्डड्डत्ध्; उत्पद्यते। सदेव क्षीरं दोहनेन प्राप्यते। विलापनेन प्राचीं संहतावस्थामपबाध्य, इतरा द्रवावस्थाऽऽज्यस्योत्पद्यते। पार्थिवं ह्याज्यं गन्धवत्त्वात् स्वभावतस्संहतरूपमग्निसंयोगेन द्रवीभवति। तदाह भगवान्काश्यप:--- "सर्पि-र्जतु-मधू-च्छिष्टानां पार्थिवानामग्निसंयोगात् द्रवत्वमद्भिस्सामान्यमि" झ्र्वै. द. अ. 2. आ. 1. सू. 6ट ति। तथा शाब्दैरप्युक्तम#्--- "अग्निसंयोगेनाऽऽज्यं द्रवीभवतीति च्विप्रत्ययप्रयोगादि"ति। प्रोक्षणन्तु द्रव्यस्य न प्रागवस्थाध्वंसेन दशान्तरमादधाति---इति। श्लोकश्चाऽत्र भवति--- पूर्वाव्स्थाप्रहाणेन दशान्तरपरिग्रहम्1377। विकारमाहुस्संस्कारं केवलातिशयोदयम्1378 ।। 2 ।। इति। सन्निपातिनामङ्गानां लक्षणम्। किं पुनरेषां चतुर्णामपि सन्निपत्त्योपकारित्वे लक्षणम् ? 1379यत्-कारक-विध्यपेक्षं फलं जनयति, तत-संनिपत्त्योपकारकम्। यथा--कत्र्तरि स्नानम्,1380 कर्मण्यवघातादि, अधिकरणे दध्यानयनमित्याद्यूहनीयम्। भाट्ठमतेनाऽऽशङ्का। तत्र सन्निपत्त्योपकारकाङ्गवाक्येषु केचित्पृथग्विधीनभ्युपगच्छन्ति। ते हि मन्यन्ते---यद्यत्र पृथग्विधयो नाऽभ्युपगम्येरन्, तदाऽधिकृताधिकारादङ्गतैवाऽवघातादीनां न स्यात्। न च द्रव्यसम्बन्धमुखेन प्रकृताधिकारापूर्वसम्बन्धादङ्गतासिद्धि:, व्रीह्यादिशब्दानाम#ाकृतिवचनत्वात्। यद्यपि कार्यप्रत्यासन्नतया व्यक्तीनां तल्लक्षणार्थो जातिशब्द:, तथाऽपि व्यक्तिमात्रं लक्ष्यते, नाऽपूर्वविशेषसंबद्धा व्यक्ति:। न च प्रकृततयाऽऽग्नेयीवत्तदपूर्वसाधनव्यक्तिलक्षणावशेनाऽपूर्वसंबन्ध:, यद्यप्याग्नेयीन्यायेन सन्निहितव्यक्तिपरिग्रह:, तथा स्वरूपेणैव तासामप्रकृतव्यक्तिपरिहारेण प्रतीति:, न पुनरपूर्वविशेषसाधनतया, तस्य स्वरूपस्य लाक्षणिकत्वात्। न च लक्षितलक्षणायां कारणमस्ति1381। तथाहि---जात्या व्यक्तिर्लक्ष्यते, व्यक्त्या च साधनविशेष इति लक्षितलक्षणा1382 कारणाभावादयुक्ता। अत एव "चाऽऽग्न#ेय्याऽऽग्नीध्रमुपतिष्ठते" झ्र्तै. सं. 3. 1. 6.ट इति सत्यपि प्रकृतपरिग्रहे, न कृगन्तरेणाऽग्नीध्र 1383उपस्थीयते। अत एव च न तत्र विनियुक्तविनियोगविरोध:। कार्यान्तरसाधनतया चाऽऽग्नीध्रोपस्थानेऽविनियोगात्। एवञ्च स्वरूपमात्रेणैवाऽवधातादीनां सम्बन्धान्नाऽपूर्वविशेषसम्बन्धसिद्धि:, दीक्षणीयावाङ्नियमवत्। यथा स्वावान्तरापूर्वसम्बन्धाद्वाङ्गिनयमो नाऽधिकारापूर्वानुप्रवेशी, तथाऽवघाताद्यपि स्यात्। ततश्चाऽधिकारापूर्वं प्रत्यवघातादीनामङ्गता न स्यात्। तदनङ्गत्वे च तत्प्रयुक्त्यभावादवघातादीनामनुष्ठानं न स्यात्। अतीऽवघातादिषूत्पत्तिनियोगोऽङ्गीकरणीय:। तस्मिन् खल्वाश्रिते, अधिकाराभावेन तस्याऽनुष्ठानानुपपत्तेरधिकारिणि कल्पयितव्ये, प्रकृताधिकारापूर्वेऽधिकृत एव प्रयाजादिष्वप्यधिक्रियत इति, नोपायो--पेयभ#ावात्तदङ्गत्वसिद्धि:--इति। तन्निरास:। तदिदं तत्रभवानुपाध्यायो1384 न मृष्यति। तदाह "अनभिज्ञो भवान्विषय--नियोज्यानामि" झ्र्बृ. टी. 3. 1. 3ट त्यत्र। अवघातादिषु शब्दत:, वस्तुस्वभावतश्च तुषकणविमोचनादि दृष्टम्, प्रोक्षणादिषु शब्दत एवाऽदृष्टञ्च कार्यमङ्गीक्रियते। तत्र यदि नियोगोऽप्यपर आश्रीयेत कार्यभूत:, तदा कार्यद्वयमेकस्मिन् वाक्ये नाऽन्वीयते। न च यथा स्वर्गादिकं फलम्, तथाभूतमेतद्भवितुमर्हति। तस्य च नियोज्यविशेषणत्वेनाऽन्वीयमानत्वात्1385। न च तुषकणविमोचनादि नियोज्यविशेषणम्द्व क्रियाफलत्वात्। यदेव नियोगफलम्, तदेव नियोज्यविशेषणतामनुभवति। साध्यविशिष्टो हि नियोज्यस्तदेव कार्यतया प्रतिपत्तुमर्हति, यदेव तस्य साध्यं साधयतीति, नियोज्यविशेषणस्य सिद्धिरवसीयते। यच्च क्रियाफलम्, न तन्नियोगात्सिध्यतीति, न तद्विशिष्टो नियोगे नियोज्यतामश्नुते। न च प्रतीततुषकणविमोचनादिकार्यत्यागो युक्त:, प्रतीतहानादेव। ननु च नियोगाभिधायिलिङादिप्रयोगवशेन नियोगोऽपि प्रतीति एवेति तुल्यो दोष:। उच्यते। सन्निहिते विधौ विधिरवगम्यमानस्स एव तावदवगन्तुमुचित:। तत्र यदि तद्विषयानुप्रवेशिता विषयस्य न स्यात्, तर्हि भवेद्विध्यन्तरम्। अनुप्रविशति चाऽवघातादि प्रकृतविषयम्, तदर्थव्र#ीह्यादिसम्बन्धात्। 1386सन्निहिताधिकारनियोगपरतयैवाऽवहन्त्यादिभि: पदैरवघातादय उच्यन्ते, तथाभूतानां तेषां क्रिया-कारकभावोपदेशात्। यदि स्वरूपमात्रावस्थितैव्र्रीह्यादिभिस्सह सम्बन्धस्स्यात्, तदा तदधिकारसम्बन्धा न स्यादिति, तदीयसाधनविशेषलक्षणया व्रीह्यादिभ:1387 पदैरुपस्थापितोऽवघातादिभिरन्वीयते, न स्वरूपमात्रम्। एवञ्चोपदेशत एव यवेष्वप्यवघातादयस्सिद्धा भवन्ति, साधनभावस्याऽविशेषात्। अत एव चाऽवघातादयो नियोगसाधनतयाऽप्राप्ता एव विधीयन्ते। नियमस्तु प्रयोजनम्। यदि नियोगाङ्गतयाऽवधातादयो न विधीयेरन्, तदा पुरोडड्डत्ध्;ाशम#ात्रसिद्ध्यर्थतया नखविदलनाद्यप्याक्षिप्येत। नियोगाङ्गतया त्ववधातादिषु विहितेषु, तैर्विना नियोगसिद्ध्यनुपपत्ते: नियमेन न एवाऽक्षिप्यन्ते। नियोगाङ्गता तु पक्षेऽप्यप्राप्ता, नियोगस्याऽलौकिकतया तदङ्गत्वस्याऽपि शब्दादन्यतोऽनवगमात्। नियोगाङ्गत्वाच्चाऽवघातादीनाम्, नियोगसम्बन्ध: प्राप्तस्य लिङादिभिरनूद्यते। अवघातादीनां नियोगविषयत्वशङ्का-निरासौ। ननु यद्यवघातादीनां नियोगसम्बन्धोऽस्ति, कथं तर्हि तेषां नियोगाविषयत्वमुच्यते ? इत्थमुच्यते--- न नियोगसंबन्धितामात्रमुच्यते, यस्य नियोसिद्धिरेव कार्यम्, स विषय:। अवधातादीनाञ्च तुषकणविमाचनाद्यवान्तरकार्यङ्कुर्वतां नियोगाविषयत्वम्। तेन न#ियोगाविषयत्वम्, अङ्गता चेति सिद्धम्। विधेयास्त्ववघातादयो नियोगसिद्ध्यर्थतयोपादीयमानत्वात्। तदुक्तम्--- "यत्तु तत्सिद्ध्यर्थमुपादीयते तद्विधेयमिति तन्त्रे व्यवहार:" झ्र्सू. 2. वृ. टी. पृ. 39ट इति। तदेवं नियोगप्रत्यभिज्ञोपबृंहितसन्निधानमात्रेणैवाऽवघातादीनां नियोगाङ्गता, न पदार्थान्वयमुखेनेति सिद्धम्। येषां पुन: पदार्थान्वयमुखेनाऽनुप्रवेशोऽभिमत:, तेषां प्रकरणाधीतस्य पाञ्चदश्यस्य, अनारभ्याधीतस्य च साप्तदश्यस्य सामिधेनीसम्बन्धमुखेनाऽनुप्रवेशिनोरविशेषात्, उभयोरपि प्रकृतावेव निवेश:, विकल्पश्च स्यात्। सन्निधानमात्रेण तु प्रकरणाधीतस्य ग्रहणे शीघ्रं पाञ्यचदश्यमधिकारानुप्रविष्टमिति, तदवरुद्धे साप्तदश्यमधिकारविरुद्धं1388 नाऽनुप्रविशति। तेन विकृतावेव तस्य निवेश:। यदि सन्निधानतोऽधिकारविधावनुप्रवेश:, तर्हि पर्णतादीनामनारभ्याधीतानां कथमनुप्रवेश: ? उच्यते---जुढद्धठ्ठड़14;वादयोऽव्यभिचरितक्रतुसम्बन्धा इति, तत्सम्बन्धमुखेन क्रतुसम्बन्धसिद्धि:, तत्सम्बद्धेष्वेव च जुढद्धठ्ठड़14;वादिषु पर्णतादिसम्बन्धात्। अत एव "हिरण्यं भार्यमि" झ्र्त#ै. ब्रा. 2. 2. 5. 2ट ति स्वतन्त्रमेवाऽधिकारनियोगविषय:, हिरण्यस्य क्रतुसम्बन्धव्यभिचारात्। ये च पदार्थस्वरूपान्वयेऽनर्थकत्वापत्ते:, तत्सम्बन्धावस्थान्वयपूर्वकं ग्राहकान्वयमाहु:, तेषामिदमेव तावत्कथम्, आनर्थक्येन न भवितव्यम्--इति। वेदवाक्यत्वादिति चेत् ? वेदेनाऽनर्थकेन न भवितव्यमिति न राज्ञा1389 ज्ञापितम्, यस्याऽर्थो गम्यते, तस्य मा भूदानर्थक्यम्, अनवसीयमानार्थस्य त्वर्थवत्त्वं मनोरथमात्रविजृम्भितम्। पक्षान्तरालम्बनेनाऽप्यर्थवत्ता भवत#्येवेति, वरं संनिधानवशेन नियोगाङ्गताभ्युपगम:। 1390सन्निधानमपि सम्बन्धे कारणमिति वाक्यविद:। सम्बन्धञ्च गुणप्रधानभावमन्तरेण न स्यात्। तत्र च "न कार्यमन्यार्थं भवती"ति नियोग एव प्रधानम्, अङ्गमवघातादय:। सन्निधानविषये शङ्का-निरासौ। यदि चाऽनर्थक्येन नियोगसम्बन्ध:, तदा च "तृच उत्तम: पर्यास:" इति 1391द्वादशाह एव न निविशते। क्रतुसम्बन्धो ह्यन्त: पर्यास उच्यते। तेन तत्र पदार्थमात्रसम्बन्धेऽप्यानर्थक्यं नाऽस्ति। तथा "हिरण्मय्यस्स्रुचो भवन्ति" झ्र्आप. श्रौ. सू. 8. 5. 29ट इतिस्रुचामव्यभिचरितक्रतुसम्बन्धानां धर्मविधेरानर्थक्यं नाऽस्तीति, न प्रकृताधिकारसम्बन्धस्स्यात्। किञ्चाऽनर्थक्यपरिहारायऽपूर्वसम्बन्धोऽभ्युपेत:। किमिति न सन्निहितापूर्वसम्बन्धस्समाश्रीयते। यदि सन्निधानमकारणम्, ततश्च "अग्नेस्तृणान्यपचिनोति" झ्र्आप. श्रौ. सू. 3. 4. 3.ट इति नाऽग्निहोत्रे एव व्यवतिष्ठेत। अथ सन्निधानविशेषात्तदपूर्वसम्बन्धिनामग्न्यादीनां परिग्रह:, तदा वरं सन्निधानविशेषात्तदपूर्वसम्बन्ध एवाऽस्तु, किं परम्पराश्रयणेन। यथा क्रियाकारकभावेनाऽन्विताभिधानम्, तथा प्रयोजन-प्रयोजनिभावेनाऽपि ह्यभिधानं लोके प्रतिपन्नम्। न हि व्रीह्यादय: प्रयोजनतां प्रतिपत्तुमर्हन्ति---इति, तत्परित्यागेनाऽपूर्वेणैव सह प्रयोजन--प्रयोजनिभावेन सम्बन्ध:। अवान्तरापूर्वे शङ्का-तन्निरासौ। ये चाऽवघातादिष्ववान्तरापूर्वाणि सङ्गिरन्ते, तेषां मते "प्रोक्षिताभ्यामुलूखलमुसलाभ्यामवहन्ती"ति प्रोक्षणं दीक्षणीयावाङ्नियमवदवान्तरापूर्वप्रयुक्तं स्यात्। ततश्च त्रैधातवीयामिव वाङ्नियम:, नखनिर्भिन्ने चरौ प्रोक्षणं न 1392 स्यात्, तत्प्रयोजकं रूपं तत्र नाऽस्ति--इति। न चैतद्वाच्यं--तुषकणविमोचनादिकार्यमुखेनाऽधिकारापूर्वमेव प्रयोजकमिति, वाङ्नियमेऽपि तथा प्रसङ्गात्, दीक्षणीयायामपि क्रत्वपेक्षितत्वोपत्तिरपि1393 कार्यमस्तीति, ज्योतिष्टोम एव प्रयोजको वाङ्नियमस्य स्यात्। ततश्च 1394दीक्षितत्वोत्पादिकायां त्रैधातवीयायामपि स्यात्। ननु यद्यवघातादिष्ववान्तरविधयो नेष्यन्ते, कथं1395 तर्हि "न चाऽविहितमङ्गं भवति" झ्र्शा. भा. अ. 3, पा. 4. अ. 13.ट इत्यङ्गेष्वेवाऽन्तरविध्यभ्युपगमो भाष्यकारस्य ? उच्यते। आरादुपकारकेऽनृतवदनप्रतिषेधे चाऽवान्तरविधिरङ्गीकुत:, तद्व्यतिरेकेणाऽङ्गत्वान#ुपपत्ते:। स्वरूपेण क्षणिकत्वात्कर्मणाम्, उपकारजननकाले तदनवस्थानादङ्गत्वं न घटत इति, इहैव वक्ष्याम:। अत एव जज्जभ्यमानमन्त्रवचने सन्निपत्त्योपकारिणि "पुरुषप्रयत्नश्रवणमनुवाद:" इति वदति भाष्यकार:। यत्र ह्मवान्तरविधिरस्ति, तत्र पुरुषयत्नश्रवणं नाऽनुवाद:। यदेव हि तदवान्तरापूर्वम्, तत् कार्यतया लिङादिवाच्यम्। न च कृतिरूपपुरुषप्रयत्नानभिधाने कृत्यवच्छिन्नस्वभावकार्याभिधानोपपत्तिरिति, तदर्थं कृतिरूपपुरुषप्रयत्नाभिधानं युक्तमिति, नाऽविवक्षित: पुरुषप्रयत्न:। एवं नियोगप्रत्यभिज्ञोपवृंहितसंनिधिसमाम्नानवशादवघातादयोऽवहन्त्यादिपदैरधिकारनियोगैदमथ्र्येनाऽन्वयिनोऽवगता - स्सन्तस्तदन्वितावस्थैव्र्रीह्यादिभिस्सह क्रिया--कारकभावेनाऽन्वितास्तान् प्रति शेषतां प्रतिपद्यन्ते। स्वमतेन श्रुत्यादीनां विनियोजकत्वकथनम्। किं पुनरवधातस्य व्रीह्यादिशेषत्वे प्रमाणम् ? कार्यमिति ब्रूम:। तथा हि---न कार्यमन्यार्थं भवति, कार्यत्वादेव। तेन यत् कार्येण सम्बद्धम्, तत्तावत्तदर्थम्। यदपि च कार्यैदमथ्र्यापन्नेन संबद्धं, तेनाऽपि सह यस्य साध्यसाधनभाव:, तदपि तदर्थमेव, कार्यैदमथ्र्यापन्नस्याऽन्यैदमथ्र्ये प्रमाणाभावात्। एवं 1396सर्वेषु शेष--शेषित्वं वेदितव्यम्। यदि 1397कार्यतयैवैदमथ्र्यावगम:, कथं तर्हि श्रुत्यादीनां विनियोगकारणत्वम् ? द्वारविशेषसमर्पकतया। कार्यविशेषकरतया च शेषश्शेशिणि शेषतामापद्यते, नाऽन्यथा, अकिञ्चित्करस्य शेषत्वानुपपत्ते:। तत्र श्रुति: "व्रीहीनवहन्ती"ति द्वितीयात्मिका व्रीह्यादिगतंतुषकणविमोचनादि समभिव्याहृतक्रियासाध्यभूतं समर्पयन्ती 1398नियोगकरणतामनुवदति, न पुद्र्वीतीयैव शेषितां व्रीह्यादीनाम्, अवधातस्य च शेषतामाह। "गां ददाती"त्यादिषु व्यभिचारात्। क्रियाजन्यफलभागिता हि सर्वत्राऽव्यभिचारिणी द्वितीनयावाच्या, न शेषिता, व्यभिचारित्वात्। क्रियाजन्यस्य फलस्य भागि कारकमेव कर्म। तच्च किञ्चिदीप्सितम्, भूत-भाव्युपयोगात्। किञ्चिच्चाऽनीप्सितम्, अनुपयोगात्। ।अनेनैव विशेषेण भगवत: पाणिनेस्सूत#्रद्वयम्--- "कर्तुरीप्सिततमं कर्म" झ्र्पा. सू. 1. 4. 49ट "तथायुक्तञ्चाऽनीप्सितमि" झ्र्पा. सू. 1. 4. 50ट ति च। येषां मते शेषितैव द्वितीयार्थ:, तेषां मते "सुवर्णं भार्यमि"ति क्रतुधर्म एव स्यात्। श्रुतानुगुणाधिकारानुप्रवेशितैव न्याय्या यत:, न स्वतन्त्राधिकारकल्पना, अवगतसुवर्णशेषित्वत्यागप्रसङ्गात्। क्रियाजन्यफलभागित्वे तु शब्दार्थे, न श्रुतहानिरिति, 1399स्वतन्त्रकत्र्रवगमात् 1400तत्कारणभूताधिकारकल्पनैव न्याय्या। प्रकृतनियोगाप्रत्यभिज्ञानान्नियोगान्तरे स्थिते प्रजापतिव्रताधिकारकल्पनेवाऽधिकारकल्पनैवाचिता---इति। लिङ्गस्योदाहरणम्। 1401स्नानादिषु वस्तुस्वभावपर्यालोचनया लिङ्गात्कर्तृसंस्काररूपकार्याङ्गीकार:। तेन कर्तरि शेषता स्नानादीनाम्, सामथ्र्यात्। सामथ्र्यमात्रञ्च लिङ्गम्, नाऽभिधानसामथ्र्यमेव। वाक्यस्योदाहरणम्। "अभिक्रामं जुहोती" झ्र्तै. स. 2. 6. 6. 1ट तयादिषु वाक्यादभिक्रमणस्य होम: कार्यतया प्रतीयत इति, वाक्येनाऽयं विनियोग:। 1402सन्निपत्त्योपकारकाणान्तु न प्रकरणेन विनियोगस्सम्भवति। येषां प्रकरणं द्वारं कल्पयति, तेषां प्रकरणाधीनो विनियोग:। प्रकरणनिरूपणम्। इतिकत्र्तव्यताकाङ्क्षां प्रकरणम्। तया च करणोपकार: कार्यभूत: कल्प्यते। न चाऽसौ सन्निपत्त्योपकारिणं द्वारमिति, न तेषां प्रकरणेन विनियोग:। स्थान-समाख्ययोस्सन्निपातिषु न विनियोजकत्वम्। स्थान-समाख्ययोरपि सन्निपत्त्योपकारकाणि प्रति न कार्यकल्पकतेति, न विनियोगकारणत्वम्, एवं1403 सन्निपत्योपकारकाणां नियोगैदमथ्र्यमभिधानत:, विनियोगतश्च कारकैदमथ्र्यम्, उपादानतश्चाऽधिकारनियोगकरणीभूतयागाद्यैदमथ्र्यंम्। 1404नियोगाक्षेपो ह्युपादानम्, तत्कृतं प्रोक्षणादे: क्रत्वर्थत्वम्। यदि तदियकरणोपकारकता प्रोक्षणादेर्न स्यात्, तदा केनाऽपरेण प्रकारेण तदन्वितनियोगप्रतीतिर्निर्वहतीति, नियोग एव तदन्वित: प्रतिपन्नस्तस्य करणोपकारकतां कल्पयन् करणैदमथ्र्यमाक्षिपतीति, तत्कृतमेव प्रोक्षणादे: क्रत्वर्थत्वम्। विनियोगात् पुन: कारकैदमथ्र्यमेवेति कथं पुनस्तेषां करणोपकारकता ? तुषकणविमोचनादिकार्यपरम्परादानेनोपकार्यविशेषाधायकतया। नन्वेवं सति कारकानुप्रवेशिनामवघातादीनां 1405करणशरीरविशेषाधायकतया करणोपकारकत्वं, प्रयाजादीनान्त्वव्यतिरिक्तकरणानुग्रहजनकतेति, न सर्वैरेक उपकार: क्रियते। ततश्च सर्वैरेकेतिकर्तव्यतेति न स्यात्। उच्यते। उपकार्यविशेषायत्तसिद्धित्वादुपकारसिद्धेरुपकार्यविशेषस्योपकारं1406 जनयितुमलम्, नाऽन्यस्येत्यवघातादिविनियोगादवगम्यते। एवञ्चोपपन्नमवघातादेरपि प्रयाजादिभिस्सह करणोपकारजनकत्वम्। सन्निपातिनामारादुपकारकत्वशङ्का-निरासौ। कस्मात् पुन: प्रयाजादिवदवधातादयोऽप्युपकारका नाऽभ्युपेयन्ते ? प्रकृताधिकारनियोगप्रत्यभिज्ञानात्। सम्भवति चाऽत्र नियोगैक्यं तदीयव्रीहिसंस्कारमुखेनेत्युक्तम्1407। प्रयाजादितुल्यत्वे ह्यवघातादीनामङ्गीक्रियमाणे, उत्पत्तिनियोगान्तरमाश्रयणीयमिति वक्ष्याम:1408। तत्र सङ्ग्रहश्लोका:--- सन्निधानवशोत्पन्ना प्रकृतापूर्वगामिनी1409। मा बाधि 1410प्रत्यभिज्ञेति तदनुग्रहकाङ्क्षया ।। 3 ।। अवहन्त्यादिभिश्शब्दै: कार्यान्वितपदार्थकै:। प्रकृतापूर्वसम्बद्ध1411 एव स्वार्थोऽभिधीयते ।। 4 ।। तथा सति तदीयत्वं तेषां रक्षितुमिच्छता। ब्रीह्यादिभि: पदैर्युक्ता कार्यसाधनलक्षणा ।। 5 ।। क्रियाकारकसम्बन्धोऽप्यतस्साधनगोचर:1412। शेषिभावोऽपि1413 तस्यैव श्रौतद्वारानुसारत: ।। 6 ।। इति महामहोपाध्यायश्रीमच्छालिकनाथमिश्रप्रणीतायां प्रकरणपञ्चिकायामङ्गपारायणे सन्निपत्त्योपकारकाङ्गनिरूपणपर: प्रथम: परिच्छेदस्समाप्त:।।

आरादुपकारकाङ्गनिरुपणपर: द्वितीय: परिच्छेद: सम्पाद्यताम्


   प्रकरणार्थप्रतिज्ञा। 1414आरादुपकारकं द्विविधम्--अदृष्टप्रयोजनं, दृष्टा-दृष्टाप्रयोजनञ्च। तत्राऽदृष्टप्रयोजनं "समिधो यजती" झ्र्श. ब्रा. 2. 6. 1. 1ट त्यादि। अस्य कारकगतं किञ्चित् प्रयोजनं न दृश्यते। आरादुपकारकविषय एकदेशिमतम्। 1415तत्र केचित्तावदधिकारापूर्वं प्रत्यङ्गतासिद्ध्यर्थमेषामधिकृताधिकारमिच्छन्ति। ते हि मन्यनते---उत्पत्तिनियोगास्तावत् समिदादिषु निर्विवादं सम्मता:। न च नियोगो नियोज्यमन्तरेणाऽभिधीयते। तथा सति विश्वजिदादिषु नियोज्यपरिकल्पना न स्यात्। तत्र च निय#ोज्ये कल्पयितव्ये, यद्यनुषङ्ग: फलपदस्य कल्प्येत, यदि वा विश्वजिन्यायेनाऽधिकारी कल्प्येत, तदाऽधिकारापूर्वस्येतिकर्तव्यताकाङ्क्षा न 1416परिपूर्यते। न परमापूर्वाधिकृते त्वधिकारिणि सति, उपायो-पेयभावो गम्यते। न ह्यन्यथाऽधिकृताधिकारभाव उपपद्यते। यस्य हि परम#ापूर्वं साध्यम्, स परमापूर्वाधिकारी, तेन यथा "दर्शपूर्णमासाभ्यां स्वर्गकामो यजेते"त्यादौ स्वर्गकामे साध्यस्वर्गविशिष्टेऽधिकारिणि स्वर्ग-यागयोरुपायो-पेयभाव:, तथैहाऽपि समिदादिपरमापूर्वयो:। तत्र "न च कार्यमन्यार्थमि"ति न्यायेनाऽधिकारनियोगैदमथ्र्यमेव समिदादीनामवसीयते। तदिदं ग्राहकग्रहणमिति गीयते। तत्रोत्पत्तिशिष्टाग्नेयादिकरणावरुद्धे परमापूर्वे प्रकारान्तरेणैदमथ्र्यानुपपत्तेरितिकर्तव्यतात्वेनैव सम्बन्ध:--इति। तन्निरास:। तदिदमनुपपन्नमिति प्राभाकरा:। 1417तथाहि---यदि सर्वस्य नियोगस्य नियोज्यान्विताभिधानमाश्रीयते, 1418तर्हि राजसूयिकानामिज्याविशेषाणामुत्पत्तिनियोगानामपि साधिकारत्वं स्यात्। ततोऽभिषेचनीयतन्त्रमध्ये पठितानां विदेवनादीनामभिषेचनीयावान्तरापूर्वप्रकरणेन तदङ्गतैव स्यात्। अथोच्येत---नाऽदृष्टार्थो नियोगो नियोज्यान्वितोऽभिधीयते, किन्त्वनुष्ठानलब्धये। अभिषेचनीयादयश्च परमापूर्वप्रयुक्त्यैव लब्धानुष्ठाना:, परमापूर्वस्याऽपि तद्विषयत्वात्, तेनैव स्वसिद्ध्यर्थं विषयीभूतास्विज्यासु प्रयुज्यमानासु तद्विषयोत्त्पत्तिनियोगा अपि लब्धसिद्धयो न स्वसिद्धये नियोज्यान्तरमाकाङ्क्षन्ति---इति। तर्हि प्रयाजादिनियोग अपि विनियुक्तविषयत्वान्नाऽधिकारान्तरमपेक्षेरन्। स्यान्मतं---विनियोग एव तेषामधिकृताधिकारमन्तरेणाऽनुपपन्न:---इति। तदसत्---नियोगैदमथ्र्यमात्रेण प्रथमं शब्देनाऽवगताधिकारसम्बन्धानां प्रकरणेनेतिकर्तव्यतात्वेन विनियोगात्। तथाहि---अधिकारविधिसन्निधौ "समिधो यजती"त्यादयो निरधिकारा एव तावदाम्नायन्ते। तत्र योऽसावधिकारविधि:, स एव प्रयोजनभूतो निरधिकारस्सैमिदादिभिस्स्वयमप्रयोजनभूतैरन्वितस्स्वशब्देनाऽभिधीयते1419। समिदादिवाक्यानि च द्रव्यदेवताविशिष्टानि यागस्वरूपाण्येव सन्निधापयन्ति, सन्निधानमात्रेण तैस्सहाऽधिकारनियोगस्याऽन्वय:। यदि च सन्निधानं नाऽऽद्रियेत, तदा समिदाधिकारनियोगस्याऽन्वय:। यदि च सन्निधानं नाऽऽद्रियेत, तदा समिदादिष्वपि किमिति परमापूर्वाधिकारी कल्प्यते। तदेवं सन्निधानमात्रतस्सिद्धमधिकारैदमथ्र्यं1420 कथं भवतीत्यपेक्षा। तथा साध्यभूतस्याऽधिकारापूर्वस्य च कथमित्याकाङ्क्षा। तेन करणोपकार एव तेषां द्वारमाश्रीयते। तत्र यदैदमथ्र्येनाऽन्विताभिधानम, तद्ग्राहकग्रहणम्। यच्च तेषां करणोपकारद्वारपरिकल्पनम्, स एव प्रकरणविनियोग:---इति। अवान्तरापूर्वापढद्धठ्ठड़14;नवशङ्का-परिहारौ। नन्वेवमवान्तरापूर्वाण्यपढद्धठ्ठड़14;नुतानि ? नाऽपढद्धठ्ठड़14;नोष्यामहे। यद्यपि प्रथमं लिङादयो न व्यतिरिक्तं नियोगं प्रतिपादयितुमीशते, "व्रीहीनवहन्तीत्यादि"ष्विवशङ्क्यमानाधिकारनियोगानुवादकत्वात्। तथाऽप्यधिकारनियोगं प्रत्येषां क्षणभङ्गिनामवान्तरापूर्वाण्यजनयतामङ्गत#ा नोपपद्यत इति, पश्चाद्यदधिकारापूर्वाङ्गभावोपपादनायाऽऽश्रयणीयान्यवान्तरापूर्वाणि लिङाऽभिघेयान्नयुपेयन्ते। तदेतद्दीक्षणीयावाङ्नियमाधिकरणे झ्र्मी. द. 9. 1. 2.ट व्युत्पादितम्। नन्वेमाश्रयिष्ववान्तरापूर्वाभ्युपगमो यथा, तथाऽत्रैव वक्ष्याम:। यानि 1421चाऽवान्तरापूर्वाणि, तानि शब्देनाऽङ्गभूतान्यधिकारापूर्वं प्रत्युपनीयन्ते। दीक्षणीयादिष्ववान्तरापूर्वशङ्का-परिहारौ। नन्वेवं तर्हि दीक्षणीयादिषु वाङ्नियमस्याऽवान्तरापूर्वप्रयुक्तता न स्यात्। किन्तु "प्रोक्षिताभ्यामुलूखल-मुसलाभ्यामवहन्ती"तिवत् तदपूर्वप्रयुक्ततैवाऽऽपद्येत। न। तस्य स्वरूपनिष्पत्त्यर्थत्वात्, यद्यप्यवान्तरापूर्वाणां परमापूर्वाङ्गभाव:, तथाऽपि तेष#ु स्वरूपनिष्पत्त्यर्थ एव वाङ्नियमादिको धर्म:, "दीक्षणीयायामनुब्रूयादि" झ्र्आप. श्रौ. सू. 20. 4. 10ट ति दीक्षणीयासम्बद्धावान्तरापूर्वस्वरूपसंबन्धावगमात्। न च तेषां स्वरूपपरित्यागेनाऽङ्गा-ङ्गिभावलक्षणा युक्ता, लक्षणैव यत:। न च स्वरूपार्थत्वेनाऽननुष्ठानम्1422। स्वरूपस्यैवाऽनन्यगम्यसिद्धित्वात्। शब्दैकगम्यसिद्धिकं सर्वमपूर्वम्, अवघातादीनान्तु प्रमाणान्तरावसेयसिद्धीनां विनाऽपि प्रोक्षणं स्वरूपसिद्धे:। स्वरूपार्थत्वे 1423युक्तं नियमनियोगस्याऽननुष्ठानम्। तदेवं स्वयमङ्गत्वाल्लब्धानुष्ठानेषु प्रयाजादिष#ु नाऽधिकारकल्पनावकाश:। तेनैव प्रकारेण प्रधानविषयेषूत्पत्तिनियोगेषु करणावान्तरव्यापारो1424 वेदितव्य:। यो हि तमवान्तरव्यापारं नाऽभ्युपगच्छति, तस्य1425 करणभेदो न स्याद्दर्शपूर्णमासादिष्फ, तथाऽऽग्नेयादिधर्मा उपांशुयाजादिषु भवेयु:, परमापूर्वप्रयुक्तत्वात्, तत्प्रति साधनभावाविशेषात्। अवान्तरव्यापारभेदे तु युक्ताव्यवस्था, अन्यथाऽऽग्नेयस्य करणता, अन्यथोपांशुयाजादीनामिति। यथा बृहद्र---थन्तरयोस्स्तुतिसाधनयोरप्यन्यथा साधनतेति धर्मव्यवस्था। तथा--पार्वणहोमयोरपि। अत एव विकृतिषु बाध:। न हि यथाऽऽग्नेयस्याऽपूर्वसाधनता तथा सौर्यस्येति, प्राकृतद्वाराभावेन पार्वणहोमयोर्बाध:। ये च सन्त्यवान्तरापूर्वाणि न साधनरूपाण्याचक्षते, न तेषाम1425 वान्तरव्यापारतेति प्राचीनसकलदोषप्रसङ्ग:। कार्योत्पत्तिनिमित्तभावेन ह्यवान्तरव्यापारता, 1426अन्यथा श्रमादेरपि 1427कृषिसमुत्थस्य विलेखनवत् सस्याधिगमेऽवान्तरव्यापारतापत्ते:। नन्वेवमधिकारशून्यत्वे दीक्षणीयादिष्वतिदेशो न स्यात्। उच्यते---निरधिकाराणामपि कार्यत्वाविशेषात्, अनिर्जातोपायत्वाच्च युक्तैव कथमित्याकाङ्क्षा। भाट्टमतेनाऽवान्तरप्रकरणोपक्षेप:। नन्वेवमङ्गीकृतमवान्तरप्रकरणम्। कर्तव्यस्य हि कथमित्याकाङ्क्षा प्रकरणमिति मीमांसकप्रसिद्धि:। अवान्तरप्रकरणनिरास:। ।नाऽवान्तरप्रकरणं नाम प्रमाणमस्ति, प्रमेयाभावे प्रमाणानुपपत्ते:1428। यावदेव तान्यवान्तरापूर्वाणि नाऽवगम्यन्ते, तावदेव सर्वस्याऽऽरादुपकारकस्य पदार्थजातस्याऽविशेषेण प्रधानविधिपरिगृहीतत्वात्। पश्चात्तु सर्वेषामधिकारानुप्रवेशाविशेषात्, नाऽन्योन्यं त#ादथ्र्यमस्तीति, नाऽवान्तरप्रकरणविनियोज्यत्वसम्भव:। यानि तु वाक्यादिभि:, तेष्ववान्तरापूर्वाणि निवेशितानि, तानि 1429तत्र प्रतिष्ठितानि न परमापर्वं संक्रमिष्यन्ति। शङ्का नन्वेवं प्रयाजादिषु सौमिकविध्यन्तप्रसङ्ग:। नाऽयं दोष:। यदि निरधिकाराणामपि साधिकाराणामिव स्वारसिकाकाङ्क्षा भेवत्, भवेदेवम्। अननुष्ठेयत्वान्न स्वाभाविकीतिकर्तव्यताकाङ्क्षा। कथं पुन: कार्यता, अननुष्ठेयता च। तन्निरास: नूनं भवानश्रुतपूर्वसप्तमाद्य:1430। विविक्तं हि तत्रेदं गुरुणा---यदेव हि पुरुषेण ममेदं कार्यमिति निरपेक्षमेवाऽवगम्यते, तदनुष्ठेयम्। यत्तु तत्सिद्ध्यर्थं प्रागसिद्धं सद्विनियुज्यते, तत् कार्यम्। परमापूर्वञ्च निरपेक्षं कार्यमवगम्यते। कार्यावगमाद्धि फलावगति:, न फलावगते: कार्यतेति षष्ठाद्ये क्षुण्णम्1431। अतस्सिद्धोऽनुष्ठेयकार्यविवेक:। प्रयाजादिष्वपूर्वोपपादनम्। यदेव चाऽनुष्ठेयं तत्रैव कथमित्याकाङ्क्षा, न कार्यमात्रे। अवहीनस्तर्हि प्रयाजादीनामिव दीक्षणीयादिष्वाकाङ्क्षापढद्धठ्ठड़14;नवेनाऽतिदेश:। न सम्यगवगतं मतमस्माकं भवता। अयं हि नो राद्धान्त:---स्वारसिकीतिकर्तव्यताकाङ्क्षा निरधिकाराणां नाऽस्ति, कारणान्तरसमुत्था तु न#ाऽपढद्धठ्ठड़14;नूयते। तत्र दीक्षणीयादिषु प्रयाजादिदर्शनेनेतिकर्तव्यताकाङ्क्षा कल्प्यते। स्वरसतोऽप्याकाङ्क्षाशून्यस्य कारणान्तरोपनिपातनिबन्धनाऽऽकाङ्क्षा युज्यते। यथा--- "पटो भवती" ति निराकाङ्क्षस्याऽपि पदद्वयस्य रक्तपदोच्चारणात् रक्तं प्रत्याकाङ्क्षा। अन्यथा "रक्त: पटो भवती"त्यनन्वयप्रसङ्ग:। एवं प्रयाजादिषु न किञ्चिदाकाङ्क्षोत्थापने 1432कारणमस्तीति, न सौमिकधर्मातिदेश:, सिद्धश्च दीक्षणीयादिष्वैष्टिकविध्यन्तलाभ:---इति। ये त्वधिकृताधिकाराभ्युपगमेन साधिकारतामङ्गनियोगानामाहु:, तेषां प्रयाजादिषु 1433रात्रिसत्रन्यायेनाऽऽर्थवादिकफलकाम एवाऽधिकारी प्राप्नोतीति, नाऽधिकृताधिकारसम्भव:। स्यान्मतम्--इतिकर्तव्यताकाङ्क्षा प्रधानविधेर्न परिपूर्यते--इति। मा परिपूरि, प्रयोजनन्तु1434परिपूर्णम्, अर्थवादपदानि प्रमाणांशोपनिपातीनि, तेषां 1435परोक्षा वृत्तिर्मा भूदिति तत्प्रतिपाद्यफलकाम एवाऽधिकारी युक्त:। साधिकारविधिसन्निधिमात्रेण तु निरधिकारणां प्रतीतेर्तादथ्र्येऽधिकाराकाङ्क्षा नाऽस्तीत्यर्थवादपदान्यर्थवादमात्रपर्यवसायीन्येव। तथा "पयो व्रतं ब्राह्मणस्ये" झ्र्तै. आ. 2 प्रपा. अनु. 8, तै. सं. 6. 2. 5. 2ट त्यादिषु भोजनाय प्रवृत्तस्य द्रव्यार्जननियमवत्, स्ववाक्य एवाऽधिकारिणो लब्धत्वान्न प्रधानप्रवृत्तस्याऽधिकारश्शक्यते कल्पयितुम्, अन्यथा स्वातन्त्रयं पयोव्रतादीनामापद्यते। तथा--- "नाऽनृतं वदेदि" झ्र्तै. सं. 2. 5. 5. 6ट ति प्रकरणाधीतेऽपि निषिध्यमानक्रियाकर्तुरधिकारावगमान्न प्रकरणानुप्रवेशसम्भव:। तथा "भिन्ने जुहोति"ति निमित्तस्याऽधिकारिविशेषणत्वाद्विना निमित्तकल्पनादधिकारिविशेषालाभान्न होमस्य दर्शपूर्णमासाङ्गत्वलाभ:। न वेदमिह समाधानम्। 1436भिन्नशब्दस्य यौगिकत्वात्प्रकृतगामित्वे सति, निमित्तवतोऽप्यधिकारेऽधिकृतस्याऽधिकार इति, प्रकरणे भिन#्नस्याऽविनियोगात्। तद्धि प्रकरणे संनिहितम्, यत् तत्र विनियुक्तम्। न भिन्नस्य विनियोगोऽस्ति। अपि चाऽधिकाराकाङ्क्षायामधिकारे कल्पयितुमुपक्रान्ते, किमित्यार्थेन सन्निधानेनाऽधिकार: कल्प्यते। 1437भवत्वनुषङ्ग:, साक्षाच्छØतस्याऽधिकारपदस्य, प्रधानवाक्ये त#ु श्रुतेऽधिकारपदे प्रधानेन सह संबन्धे सति, सन्निहितानामश्रुताधिकाराणां साधिकारैदमथ्र्येनाऽन्वितानामधिकाराकाङ्क्षैव नाऽस्तीत्यनुषङ्गनिराकरणे मूलयुक्ति:। अभ्युच्चयमात्रन्तु वरमनुषङ्गत इतिकर्तव्यताकाङ्क्षापरिपूरणमेवेति। प्रयाजादीनां विकल्पशङ्का-परिहारौ। अपि च प्रत्येकं "समिधो यजती" झ्र्श. ब्रा. 2. 6. 1. 1ट त्यादिषुप्रधानाधिकृतस्याऽधिकारावगमात्प्रत्येकमेव समिदादीनां प्रधानोपायभावात् प्रत्येकमितिकर्तव्यताभावस्स्यात्। अवान्तरविधयो हि तदा स्वविषयाणामुपायभावं प्रकल्पयन्ति, करणावरुद्धे परमापूर्वे करणताया असम्भवात्, करणोपकारजनकतयैवोपायभावकल्पनम्। ततश्चाऽनपेक्षोपायभावोपगमात्1438 प्रत्येकमेकैककरणोपकारसम्पादकत्वात् विकल्पस्समिदादीनां स्यात्। अधिकारविधिना तु तेषां तादथ्र्यमात्रग्रहणे तस्य तदन्वितस्याऽन्यथानुपपत्ते:, तादथ्र्यसिद्ध्यर्थं करणोपकारजनकता कल्पनीया, 1439सा च यथान्वयम्। अन्वये च सर्वेषां यौगपद्यम्। तत्र यदि प्रत्येकं करणोपकारजनकता स्यात्, तदा विकल्पे सति नित्यवदन्वयो नोपसंढिद्धठ्ठड़14;वयेत। मिलितानान्तु तज्जनकताश्रयणे सर्वथा तदन्वयोपसंहार इति, न प्रत्येकमितिकत्र्तव्यताभाव:। उपायोपेयभावे तु तादथ्र्येनाऽन#्वये सति वैकल्पिकत्वादुपायभावस्य, तथैवाऽन्वयोऽपीति युक्तम्। प्रयाजादिषु सौमिकधर्मातिदेशशङ्का। किञ्चाऽधिकृताधिकारेण सर्वेषु साधिकारेषु सत्सु, प्रयाजादेरितिकर्तव्यताकाङक्षा स्वारसिकीति, सौमिकधर्मातिदेशस्तेषु स्यात्, 1440अव्यक्तत्वात्। न च वाच्यं सत्यामप्याकाङ्क्षायामितरेतराश्रयतया न तेषु सौमिकधर्मातिदेश:। सोमो हि दीक्षणीयादिभिरङ्गवान् दीक्षणीयादीन्यैष्टिकधर्मग्राहीणि। यदि चेष्टावपि प्रयाजादिषु सौमिकधर्मा: प्रवत्र्तेरन्, तदा स्फुटतरमितरेतराश्रयत्वम्---इति। तन्निरास:। तदिदं बालजनजल्पितम्। यथा सोमे विनाप्यैष्टिकधर्मप्राप्त्या दीक्षणीयादिमात्रनिबन्धन एवोपकार:, तथेष्टावपि सौमिकधर्मनिरपेक्ष एवोपकार:। यदि परं 1441द्वयोरङ्गानि द्वयोरुपकारं गृढद्धठ्ठड़14;णन्ति, परं तत्र चोपकारक्लॄप्तेरविरोधान्न1442 कश्चिद्दोष:। निरधिकारेष्वङ्गेषुन स्वारसिकीतिकर्तव्यताकाङ्क्षा, किन्तु लिङ्बलोत्थापीयेति दर्शितमादौ। तेन लिङ्गरहितेषु नाऽऽकाङ्क्षोदय इति, न प्रयाजादिषु सौमिकधर्मातिदेश:। शङ्का केचिदाहु:---यदि सन्निधिसमाम्नानमात्रेण प्रकृताधिकारानुप्रवेशो न भवति, तदा ज्योतिष्टोमप्रकरणे समाम्नातस्याऽपि षोडड्डत्ध्;शिन: "उत्तरेऽहन् द्विरात्रस्य गृह्यते" इति वैकृतत्वमेव स्यात्। तन्निरास:। तदसत्। 1443ग्रहणचोदनेयं ग्राह्यापेक्षिणी। तत्र प्रकृततया सोमरस एव ग्राह्यत्वेनाऽन्वयं याति। स च ज्योतिष्टोमाधिकारसम्बद्ध इति, तदनुप्रवेश:। पश्चात्तु तस्य वाक्येन पुनर्द्विरात्रसम्बन्ध इति नाऽनुपपन्नं किञ्चित्। तदेवमारादुपकारकेषु प्रथमं तादथ्र्येनाऽधिकारनियोगं प्रत्यन्वितेषु, साधिकारेण विधिनाऽनुष्ठेयभूतेन 1444करणोपकारक्लॄप्तेरप्रतीतेनाऽधिकारनियोगेन जनकत्वकल्पनम्। न च क्षणिकानां तेषां परस्परं स्वरूपेणाऽसम्भवतां सम्भूयोपकारजनकतोपपद्यत इत्यवान्तरापूर्वाणि स्वीक्रियन्ते। आश्रयिकर्मविषये भाट्टमतेन शङ्का। 1443नन्वेवमाश्रयिषु कर्मसु विनाऽप्यपूर्वेण द्रव्य-देवतासंस्कारमुखेन करणोपकारजननसिद्धिरिति नाऽपूर्वसमाश्रयणे किञ्चन प्रमाणम्। प्राभाकरमतेन समाधानम्। किं भवानृजुविमलायामनवहित:1446 ? दर्शितं हि तत्रेतं हि तत्रेदं 1446चतुर्थे-- न साक्षाद्द्रव्यदेवतोपकारो यागे1447, किन्तु स्वाङ्गभूतमन्ताद्यंशमुखेन। न च यागेऽधिकाराननुप्रविष्टे तयोस्तत्र विनियोगोपपत्ति:। न चाऽपूर्वमन्तरेणा यागस्याऽधिकारानुप्रवेश इत#्यवश्याश्रयणीयमवान्तरापूर्वम्। तेषाञ्चाऽदृष्टतया न प्रयोजकत्वम्। दृष्टतया च द्रव्य-देवतासंस्कार एव प्रयोजक:। तत्राऽपि द्रव्य-देवतासंस्कारयोद्र्रव्यप्रतिपत्तिरेव प्रयोजिका, यागे द्रव्यस्य साक्षाद्व्यापारादिति मन्तव्यम्। द्रव्यस्य तु न श्रुतिविनियोग:। न क्वचिद्द्रव्यस्य द्वारं श्रुतिस्समर्पयति। न च प्राकरणिकोऽपि द्रव्यस्य विनियोग:, साक्षात्करणोपकारजनकत्वाभावात्। तस्य हि लिङ्गेन, वाक्येन, स्थानेन, 1448समाख्यया वा भावार्थ एव जनकतया सम्बन्ध:। गुण-जात्योस्तु वाक्येन विनियोग:, नानाव्यापारत्वात्करणानाम्। अतस्साधनभूतद्रव्योपादाने तदवच्छेदकतयाऽसत्येव तयोरुपयोग इति, न कारकतया विनियोगो विरुद्ध्यते। उत्पन्नकर्मगतसंख्ययाऽभ्यासनिरूपणम्। या तु 1448सङ्खयोत्पन्नकर्मसमवायिनी। यथा--- "एकादश प्रयाजान्यजती" झ्र्श. ब्रा. 3. 6. 5. 1.टति। सोत्पन्नानां कर्मणां विधानासम्भवात्कर्माश्रितो विधीयते। यद्यपि चोद्देश्यगतं विशेषणं वाक्यभेदभयेन विवक्षां नाऽर्हतीति, प्रयाजादीनां साहित्यं न विवक्षितम्, तथाऽपि तस्या: पृथक्त्वनिवेशित्वान्न प्रत्येकमभिसम्बन्ध:, किन्तु समुदायेनैव। न चाऽभ्यासं विनातस्या: परिपूर्त्तिरिति, अर्थादभ्यासाश्रयणे प्रकृतग्रहणात्स्वस्थानविवृद्ध्यैव1449 परिपूरणम्। य: पुनरुत्पद्यमानकर्मसमवेतस्सङ्ख्याख्यो गुण:, नाऽसौ विधेय:। स हि विधीयमानानि कर्माण्यवच्छिनत्ति। न च तस्य विधेयत्वसम्भव:। बहुषु विहितेषु प्रचयो लभ्यत एवेति न पृथग्विधेयत्वमवलम्बते। अविधेयभूतोऽपिचाऽसौ भावार्थं भिन्दन् विधावुपकरोतीति सोऽन्वयी। यस्तु भिन्नप्रतिपदिकाभिधेय:, सोऽरुणिमादिवत् कर्मणि कारकतया विधीयते। पश्वेकत्वस्यौपादानिकशेषत्वनिरूपणम्। 1450य: पुनरयं विभक्त्यभिधेय:, तस्य यद्यपि शक्त्या प्रातिपदिकार्थसम्बन्ध:, तथाऽपि तस्य तन्मात्रसम्बन्धे प्रकरणसमाम्नानापादितो ग्राहकसम्बन्धो नोपपद्यत इति, ग्राहकीयावस्थासम्बन्धितैवौपादानिकीति निर्णीयते। विनियुक्तस्य पश्वादेरुपादानमनवच्छिन्नस्य न सम्भवतीति, अस्ति तदवच्छेदकीभूतसंख्यापेक्षा, सङ्खयायाश्च प्रतीतग्राहकान्वयनिर्वाहायाऽऽश्रयापेक्षेति, तदवस्थासम्बन्धितां विधि: कल्पयति। सङ्खयान्वितश्च विध्यर्थ: प्रतीतस्तदन्वयोपपत्तये ग्राहकीयदशासम्बन्धितामापादयति। उपादानस्य विषयोपन्यास:। 1451उपादानलक्षणो विधिव्यापार आक्षेपापरपर्यायो मीमांसकै: प्रतिपन्न:, उत्पत्ति-विनियोगा-धिकार-प्रयोगविषय: प्रतिज्ञायते। तस्य च यथाप्रतीतविध्यनुपपत्तिरेव बीजम्। "सौर्यञ्चकं निर्वपेदि"त्यादौ साधिकारो विधि: प्रतिपन्न उत्पतिं्त विनाऽनुपपद्यमान उत्पत्तिमाक्षिपति। न हि क्षणिकं यागमात्रमुत्पत्तिनियोगानपेक्षमधिकारसिद्धिसमर्थमिति बहुधोक्तम्, तदेव विश्वजिदादिष्वधिकारकल्पनाबीजम् इति। निमित्तपर्यन्ते चाऽधिकारे साध्यभूतो विधिरनुष्ठानापरनामानं करणस्य प्रयोगमाक्षिपति। कामाधिकारे तु कामाधिकारे तु कामसिद्धेस्तदायत्तत्वात्, मानसी प्रवृत्ति: प्रागेव फलायत्तानुष्ठानप्रवृत्तावप्यप्रतिहता निमित्तमस्तीति विधिरप्रयोजक:, उभयत्राऽङ्गेषु क्रतुरेव प्रयोजक:, क्रतूपकारद्वारत्वात्तेषाम्। यदेव हि यस्य कार्यं, तदेव तस्य प्रयोजकम्। क्रतूपकारश्चाऽङ्गानां कार्यमिति, तदेवाऽनुष्ठाननिमित्तम्। "1452यच्च विधिना स्वसिद्ध्यर्थमाक्षिप्यते, तद्विधेयमिति" तन्त्रे व्यवहार:1453। नन्वेवं विश्वजिदादावधिकारोऽप्याक्षिप्ततया विधेय एव स्यात्। उच्यते। नाऽधिकारस्य नियोगसिद्धौ व्यापार:, किन्तु कर्तृत्वस्य। तत्प्रतिपत्त्यर्थश्च नियोज्याक्षेप:1454--- इति। विवरणमतेन क्रमस्याऽनभिधानोपन्यास:। एवञ्च--विधिना स्वसिद्ध्यर्थमनाक्षिप्यमाणत्वान्न क्रमो विधेय इति मीमांसकानामुद्गार:। निबन्धनमतनिरूपणम् 1455क्रमस्य पाञ्चमिकस्य न किञ्चिदमिधानमस्ति। न चाऽनभिहितस्य तस्य वैनियोगिकम्, औपादानिकं वा शेषत्वं घटते, न वाऽशेषभूतस्य विधिराक्षेपाय प्रभवति। यस्तु 1454"वषट्कत्र्तु: प्रथमभक्ष:" झ्र्आप. श्रौ. सू. 12. 24.6ट इति प्रथमशब्दाभिधेय: क्रम:। स हि विनियोज्य:, विधेयश्चेति निबन्धनकार:। अत एवाऽसौ तृतीये चिन्तित:। पञ्चमे हि यस्तावच्छ्रौतक्रम: "अध्वर्युर्गृहपतिं दीक्षयित्वे" झ्र्श. ब्रा. 12. 1. 1. 10ट त्यादौ, न तस्य किञ्चिदभिधानमस्ति। कथं तर्हि प्रतीयते। क्त्वाप्रत्ययो हि समानकर्तृकेऽर्थे वर्तमानाद्धातोर्विधीयमानोऽपि, य एव प्रथमं प्रयुज्यते, तत एव विधीयते, तत्र 1456क्त्वाप्रत्त्ययश्रवणात्। प्रथमप्रयोज्यत्वे स्थितेऽर्थावगतिरपि तथैव, यथाप्रयोगभावित्वादर्थावगते:, यथावगति चाऽनुष्ठानमिति, तत्क्रमोऽपि तथाविध एवाऽवगम्यते। अर्थादीनां क्रमानभिधाननिरूपणम्। 1457अर्थादिष्वभिधानशङ्का दूरापास्तैव। अनभिधीयमानस्याऽप्यवगत्युपायभावस्तत्र तत्र प्रकरणे चिन्तित एव। क्रमस्य चोदनालक्षणत्वाक्षेप-समाधाने। यदि विध्यर्थं प्रति शेषत्वं क्रमस्य नाऽस्ति, कथं तर्हि चोदनालक्षणत्वम् ? न विधेयता चोदनालक्षणत्वे हेतु:, अधिकारस्य तदभावप्रसङ्गात्। 1458विध्यर्थस्तदन्वित: प्रतिपाद्यत इति चोदनालक्षणत्वम्। तर्हि क्रमान्वितोऽपि प्रयोगविधिरवसीयत इति, तस्याऽपि चोदनालक्षणत्वमविरुद्धम्। क्रमविशेषपरिगृहीतप्रयोगावच्छिन्नो हि प्रयोगविधि: प्रतीयते। अत एवाऽनङ्गत्वेऽपि क्रमस्याऽऽदर:, तदभावे प्रयोगानुपपत्ते:, प्रयोगाविधेश्च विशिष्टप्रयोगसाध्यत्वात्। तदेवं द्विविधमौपदेशिकम्---वैनियोगिकम्, औपादानिकञ्च। अधिकारनिरूपणाम्। तत्र न यथाधिकारं विनियुज्यते, अपि तु यथाविनियोगमधिकार:। सामान्यतोऽप्यधिकाराश्रयणेन विनियोगसिद्धे:। यद्यपि प्रतिप्रकरणं व्यवस्थासिद्धये ग्राहक्रहणपूर्वको विनियोग:, यद्यपि च साधिकारस्यैव ग्राहकत्वम्, तथाऽपि सामान्यतोऽपि स्वर्गकामादावधि कारिणि लब्धे साधिकारत्वे सम्पन्ने, ग्राहकग्रहणे संवृत्ते विनियुक्तेष्वङ्गेषु तदवच्छिन्ने विध्यर्थे कार्यात्मनि तदन#ुष्ठानसमर्थस्य 1460स्वर्गकामिनोऽधिकार इति, पश्चादधिकारिविशेषनियम:। 1461अत एवाऽन्ध--बधिर--पङ्ग्वादीनामवेक्षणा--श्रावणा-भिक्रमणाद्यङ्गवति, अत्र्यार्षेयाणामार्षेयत्रयवरणलक्षणाङ्गभाजि, आहवनीयादियोगिनि चाऽनाहिताग्नीनामनधिकार:। तेषां तथाविधविध्यर्थसम्पादनेस्वाभाविकशक्त्ययोगादिति स्वयमूहनीयम्। अशक्तानामङ्गवैकल्यसमाधानेन, अद्रव्याणां द्रव्यार्जनेन चाऽधिकारवर्णम्। येषां पुनस्स्वाभाविकी शक्तिरनपेता,1462 तेषामधिकारो भवत्येवाद्रव्याणाम्, 1463समाधेयव्याधिविशेषपरवशेन्द्रियाणाञ्च। ननु तेषामधिकारो न निर्वहत्येव, अपूर्वसिद्धिनिबन्धनत्वात्तस्य, तस्यास्सकलाङ्गग्रामायत्तत्वात्। सत्यम्। कामाधिकारो न भवत्येव। तस्य सेतिकर्तव#्यताकफलभावनाकरणविषयत्वात्। फलकामस्य हि फलभावनां प्रत्यकरणीभूतेऽधिकारो नाऽवकल्पयते। सर्वञ्च करणं सेतिकर्तव्यताकं करणतामनुभवतीति सम्मतम्। ततस्साङ्गाननुष्ठाने सेतिकर्तव्यताकत्वव्याघातात्, विषयाभावाद्विषयिणोऽप्यनुपपत्तेरधिकारविलय एव कामिनाम्। नित्येष्वङ्गविषये यथाशक्तिन्याय:। 1464निमित्तवतश्च केवलभावार्थविषय एवाऽधिकार इत्यङ्गानुपसंहारेऽपि विषयाप्रमोषान्नाऽधिकारावगम:। अनपेतश्चाऽधिकारो यावदुपसंहरणीयाङ्गसम्पाद्यतामेव तदानीमवगमयति, औत्सर्गिकी तु सकलाङ्गायत्तसिद्धितैव। अनेनैवाऽभिप्रायेण निमित्ताधिकारे गौण:, मुख्यश्च शास्त्रर्थ इति प्राभाकराणामुल्लाप:। नैमित्तिकानामनुष्ठानं कादाचित्कम्, प्रतिनिमित्तमावृत्तिरिति कथनञ्च। अस्ति च किञ्चिदङ्गं निमित्तायत्तविधानम्। तत्सत्येव निमित्तेऽङ्गम्। यथा--- "भिन्ने जुहोती"ति। तत्र चैष शास्त्रार्थ:---सति भेदने भेदनहोमसहितोऽङ्गकलाप: करणोपकारं जनयति, तदभावे तु केवल एव---इति। यावच्च भेदनादिकमावर्तते, तावती होमस्याऽऽवृत्ति:। एषतावदौपदैशिकोऽङ्गकलाप:। कार्यप्रयेयनिरूपणोपक्रम:। कार्यनिबन्धनं 1465किञ्चिदङ्गं मीमांसका मन्यन्ते। उपदेशो हि प्रतिप्रकरणमङ्गानां व्यवस्थित एव, अपूर्वग्रहणपूर्वकत्वाद्विनियोगस्य। यदि हि "दर्शपूर्णमासाभ्यां स्वर्गकामो यजेते"त्यनेन साधिकारं यागमुद्दिश्य "समिधो यजति"ति समिदादिविधिस्स्यात्, तदानीमुद्दिश्य विधानात्, यावद्यागमेव समिदादिविधिरिति, यजिमत्सु सर्वापूर्वेषु समिदादिविधानादुपदेशो नव्यवतिष्ठेत। न हि तदा स्वर्गकामपदम्, दर्शपूणमासपदं वा विशेषणायाऽलम्, उद्दिश्यमानविशेषणविवक्षायां वाक्यभेदापत्ते:। सन्निधानमात्रेण त्वन्विताभिधानसिद्धेर्दर्शपूर्णमासाभ्यामित्यधिकारवाक्यत्वे सति समिदादीनां तदनुप्रवेशाद्विनियुक्तविषयतयाऽप्यनुष्ठानसम्पत्तेर्दर्शपूर्णमासाभ्यामित्यधिकारवाक्यमेव1466 नोद्देश्यसमर्पकम्। तत्राऽङ्गानामपूर्वेण सह तादथ्र्येनाऽप्यन्विताभिधानम्, प्रकरणेन च करणोपकारलक्षणद्वारपरिकल्पनम्। तत्र चोपादानलक्षणेन विधिव्यापारेणाऽङ्गानां समुदितानामुपकारजनकत्वपरिकल्पनमिति, प्रतिप्रकरणमङ्गव्यवस्था। कार्यप्रमेयनिरूपणम्। क्व पुन: केषां कार्यनिबन्धनमङ्गत्वम् ? प्राकृतानां वैकृतापूर्वेषु, तदीयकरणे च 1467यमतिदेशमाचक्षते, प्राकृतानां प्राकृतस्थानपतितेऽर्थान्तरे, यमूहमभिदधति। द्विविधं शाब्दम्-उपदेशजम्, 1468कार्यजञ्च1469। तत्र च वैकृतापूर्वस्य साध्यभूतस्य सेतिकर्तव्यताककरणाकाङ्क्षस्य विषयीभूते भावार्थे करणेलब्धे, या परेतिकत्र्तव्यताकाङ्क्षा, तस्याञ्च न प्रकृतिवदुपकारान्तरकल्पनोपपद्यते। क्लृप्ते ह्युपकारान्तरे तज्जनकद्विविधपदार्थाकाङ्क्षा पश्चात्तनी सा प्रकरणाधीतपदार्थवर्गसम्बन्धेन न परिपूर्यते। प्राकृते तूपकारे स्वीकृते, तन्मुखेन द्विविधप्राकृतपदार्थोपस्थापनादाकाङ्क्षा परिपूर्यत इति, प्राकृतमेवोपकारं स्वीकरोति। भाट्टाभिमतानुमानो-पमानयोरतिदेशाहेतुत्वनिरूपणम्। क: पुनर्हेतुस्स्वीकरणे ? नाऽनमानम्, अव्यभिचरितलिङ्गसम्बन्धाभावात्। नोपमानम्, तस्य सादृश्यमात्रविषयत्वात्, सिद्धविषयावगाहिनोश्चाऽनयो: कार्ये प्रामाण्यानवतारात्। लिङादिना प्राकृतोपकारस्याऽभिधानम्। उच्यते। य एवाऽसौ नियोगाभिधायी लिङादिशब्द:, स एव प्राकृतोपकारान्वितं स्वार्थमभिदधाति। प्रकृतोपकारान्वितं स्वार्थमभिदधाति। प्रकृतावपि विध्यर्थपरिकल्पितोपकारेणाऽन्वितं स्वार्थं लिङादिरेव वक्ति। अन्विताभिधाने चाऽऽकाङ्क्षायोग्यता--सन्निधिश्च कारणम्। इह च प्राकृतस्योपकारस्यैवाऽऽकाङ्क्षा-योग्यता च तावदविवादा। सन्निधानन्तु बुद्धेन प्राकृतेनैवाऽपूर्वेण लिङ्गविशेषण च प्राकृतमपूर्वं बुद्धौ सन्निधीयते, तच्च स्वोपकारं सन्निधापयति। अत एवोपकारसम्बन्ध औपदेशिक इति 1470तत्त्वविद:। विकृतावुपकारस्यौपदेशिकत्वोपन्यास:। यो हि ग्रन्थेन, विध्यर्थेनवोपस्थापितस्तस्मिन्नन्वयमेति, स औपदेशिक:। यथा--- प्रकृतावुपकार:, यथा वा-विश्वजिदादावधिकारी। तदेवमुपकारस्सम्बन्धमुपेत: केन पदार्थवर्गेण जन्यत इति, पश्चात्तस्यैव वैकृतस्याऽपूर्वस्याऽऽकाक्षा भवति शङ्का। ननु प्रकृतावेवाऽसावुपकारो निज्र्ञातजनकभूतपदार्थवर्ग इति नाऽऽकाङ्क्षोदये कारणमस्ति। अत एव पदार्थानामतिदेशो नेति मन्यन्ते। यदि पदार्थेष्वपि पश्चाद्भाविन्याकाङ्क्षा स्यात्, तदा तद्धेतुके प्राकृतानां वैकृतापूर्वसम्बन्धे सति, को नामोपकारस्येव पदार्थानामतिदेशं वारयेत्। अन्यत्रोक्तस्य1471 ह्यन्येन सम्बन्धोऽतिदेश इत्यतिदेशविद:। तन्निरास:। अत्र ब्रूम:---यदि करणोपकारप्रयुक्ता: प्राकृता: पदार्थास्सयु:, तदा निज्र्ञातेषु जनकेषु1472 प्रधानाकाङ्क्षा नाऽवतरेत्। अपूर्वप्रयुक्तास्तु धर्मा इति मीमांसका:। तथा सति यदपूर्वप्रयुक्तास्ते धर्मा:, तत्सम्बद्धे एवोपकारे तेषां जनकता कल्पिता, नाऽन्यसम्बद्धे। अतो वैकृतापूर्वसम्बन्धस्याऽनिज्र्ञातोपायाकाङ्क्षा नाऽनुपपन्ना। तेषां तु1473क्लॄप्तसाधनभावानां पदार्थानामनुष्ठानमेव केवलम्, तेषामौपदेशिकत्वादुपकारसाधनभावस्योह-बाधौ न स्याताम्। आकाङ्क्षानिबन्धने तु विकृत्यपूर्वसम्बन्धे यथोह-बोधौ सिद्ध्यत:, तथाऽत्रवक्ष्याम:। एवञ्च सत्यां पदार्थाकाङ्क्षायां पश्चादुपकारेण ये प्राकृता: पदार्था बुद्धिविषयतामापद्यन्ते, तेऽन्वयमासादयन्ति। उपकारस्य प्राकृतपदार्थोपस्थापकत्वोपन्यास:। केन पुनस्सम्बन्धेनोपकारस्तानुपस्थापयति। उच्यते। प्रकृतौ तेषां पदार्थानाम्, तस्य चोपकारस्य जन्य-जनकभाव: प्रतीति इति, तयाऽपूर्वप्रतीत्या स्मृतिस्तेषु जायते। तेषु स्मृतिसन्निहितेषु लब्धान्वयेषु यथाप्रकरणाधीतेषु पश्चादुपकारसाधनत्वं मिलितानां कल्प्यते। तद#ाहु:---"वैकृतं पदार्थवर्गं प्राकृतमुपकाराढौकितं तथा विधिरुपकारे साधनमेकीकृत्य कल्पयति, उपकारलक्षणकार्योपस्थापितप्राकृतपदार्थान्वयज्ञानञ्च विकृत्यपूर्वकार्यजं शाब्दमुच्यते। न च पदार्थानामपूर्वान्तरसम्बन्धोऽनुपपन्न:। अन्यदीयस्याऽन्यसम्बन्धाभावादि" झ्र्ब#ृ. टी. 10. 1. 1ट ति। अर्थश्चाऽयमतिक्षुण्णक्रृजुविमलादिषु। ऊहस्य शाब्दत्वनिरूपणम्। तत्र प्राकृतानां संस्काराणां प्राकृतद्रव्यस्थानपतितपदार्थसम्बन्धनिश्चय: ऊहापरनामाऽपि कार्यज 1474एव शाब्द:। प्रकृतौ यत्कार्यं प्रतीतमवघातादीनाम्, "तदेवेदमि"ति निश्चये सति, 1475तेषां वैकृतद्रव्यान्तरसम्बन्धनिश्चय: ! यदपूर्वार्था ह्यवघातादय:, तदीयतण्डुड्डत्ध्;लोत्पत्तिप्रकृतिद्रव्यमवघातादिभिस्संस्कार्यमिति प्रकृतौ शास्त्रार्थ:। विकृतावपि तादृशा एव नीवारादय इति, 1476तद्धर्मोहस्तेषु। बाधनिरूपणम्। एवं कृष्णलादिष्ववधातादिषूहितेषु द्वारभूतकार्याभावेन यो बाधनिश्चय:, सोऽपि कार्यज एव। तदेवमूहित--बाधिता--भ्युच्चितपदार्थजन्य: प्राकृत उपकारो विकृताविति स्थितम्। तन्त्रा-वापनिरूपणम्। तेषाञ्चौपदेशिकानां कार्यसम्बद्धानाञ्चाऽङ्गानामनेकप्रधानसम्बन्धे 1477प्रयुक्ति विशेषस्तन्त्रमनुष्ठानस्य1478। तथा देश-काल-कार्तृणां प्रयोगानुबन्धभूतानां भेदो नाऽवसीयते कार्यस्यैवाऽभेदे। भिद्यमाने तु कार्ये कार्यार्थमनुष्ठानमावर्तत एव। देशादिभेदेऽपि प्रयोगभेदावगमादावृत्तिरेवाऽनुष्ठानस्य। प्रसङ्गनिरूपणम्। यस्य च परार्थमनुष्ठितस्याऽपि कार्यं तन्त्रमित्यवगम्यते, तस्याऽन्यत्राप्युपकारकत्वमेवेति सकृदनुष्ठानम्--इति। नानाभ्रमविषयाणां1479विधिसिन्धौ 1480निमज्जताऽङ्गानाम्। प्रविततगम्भीराणां पारायणमेतदाचरितम् ।। 1 ।। इति महामहोपाध्यायश्रीमच्छालिकनाथमिश्रप्रणीतायां प्रकरणपञ्चिकायामङ्गपारायणे आरादुपकारकाङ्गनिरूपणपरो नाम द्वितीय: परिच्छेदस्समाप्त:।

अतिदेशपारायणं नाम चतुर्दशं प्रकरणम् सम्पाद्यताम्


   । प्रकरणार्थप्रतिज्ञा। 1विकृतौ ये पदार्थानामतिदेशं न मन्वते। 2प्रकारस्योपदेशञ्च तेषामुत्तरमुच्यते ।। 1 ।। स्वसिद्धान्तस्योपन्यास:। प्राकृतेनोपकारेण पदार्थैश्चैव वैकृतै:। प्रयोगविधिना स्वेन विधिरन्वित उच्यते ।। 2 ।। यद्यदाकाङ्क्षितं योग्यं सन्निधानं प्रपद्यते। तेनाऽन्वितो हि विध्यर्थस्स्वशब्देनैव वण्र्यते3 ।। 3 ।। साध्यभूतश्च विध्यर्थ उपकारमपेक्षते। 4वाक्यादिभि:5 प्राकृतश्च स योग्यस्सन्निधाप्यते ।। 4 ।। अन्यथाऽनवगम्यत्वाद्यद्यप्यङ्गपुरस्सर:। उपकार: प्राकृतोऽसौ विकृतौ सन्निधाप्यते ।। 5 ।। तथाऽप्यपेक्षितत्वेन प्रकारं प्रभमं विधि:। स्वीकरोति पदार्थांस्तु प्रतीतानप्युपेक्षते ।। 6 ।। पश्चात्तु तैरपि पुनरुपकारप्रसिद्धये। अपेक्षितैस्तद्वशेन प्रोप्तैरन्वयमृच्छति ।। 7 ।। गुणप्रधानभावेन सर्वत्रैवाऽन्वयो मत:। 6प्रधानञ्च विधिर्धर्मा गुणास्तं प्रति सम्मता: ।। 8 ।। अन्वितस्याऽभिधानञ्च न 7शब्दोपस्थितै: परम्। दर्शनात्पितृयज्ञादौ कल्प्येनाऽप्यधिकारिणा ।। 9 ।। सम्बन्धिना न सर्वेण सहसैवाऽन्विताभिधा। सम्बन्धिनां सन्निधानक्रमेण तु यथायथम् ।। 10 ।। प्रकृति-विकृत्योर्विशेषोपन्यास:। 8प्रकृतौ तु स्वशब्दत्वात्पदार्थानां पुरोऽन्वय:। उपकारस्य कल्प्यस्य पश्चादिति परं भिदा ।। 11 ।। अतिदेशलक्षणम् व्युत्क्रमेणोपकारेण पदार्थैश्चैव वैकृतै:। प्राकृतैर्विधिरन्वेति सोऽतिदेशश्च सम्मत: ।। 12 ।। यस्य देशे विधिर्यÏस्मस्ततोऽन्यत्राऽपि तद्गति:। अतिदेश: प्रकारस्य धर्माणाञ्चैव युज्यते ।। 13 ।। अन्यत्रत्यो यथाऽन्यत्र प्रकारोऽन्वयमृच्छति। तथा धर्म 9अपीष्यन्ते तेषामप्यतिदेश्यता ।। 14 ।। एकदेशिमतेन दशमाद्यविरोधशङ्का। नन्वेयं दशमाद्येन विरोधस्ते प्रसज्यते। नैवं कार्यानपेक्षोऽसावतिदेशो निवारित: ।। 15 ।। तद्वद्भावेन सम्बन्धो धर्माणामेव चेद्भवेत्। अनपेक्ष्यप्रकारत्वात्तदा10 बोधो न सिध्यति ।। 26 ।। तन्निरास:। प्रकृतौ हि पदार्थानां सम्बन्धेऽवगते यथा। द्वारं दृष्टमदृष्टं वा सम्बन्धार्थं प्रकल्प्यते ।। 17 ।। कार्यानपेक्षसम्बन्धे तथैवाऽवगते सति। द्वारं दृष्टमदृष्टं वा कल्प्यं स्याद्विकृतावपि ।। 18 ।। ततो न घटते बाध: कार्यलोपनिबन्धन:। दृष्टाभावेऽप्यदृष्टस्य द्वारस्य खलु सम्भवात् ।। 19 ।। कार्यापेक्षा यदा धर्मा विकृतौ यान्ति सङ्गतिम्। तदा कार्यावलोपेन तेषां बाध: प्रसिद्ध्यति ।। 20 ।। प्राप्नुवन्तीति हि कार्येण धर्मा द्वारसमन्विता:। प्राप्नुवन्तीति न द्वारकल्पनावसरस्तदा ।। 21 ।। कार्यानपेक्षसम्बन्धो धर्माणामुच्यते यदि। दशमाद्यविरोधस्स्यात्तदानीं न च तत्तथा ।। 23 ।। 11तद्वद्भावेन किं धर्मा: प्रकारो वाऽपि गृह्यते। इत्येषा दशमाद्ये हि चिन्ता बाधप्रसिद्धये ।। 24 ।। स्वमतेन दशमाद्यविरोधोपन्यास:। 11पूर्वपक्षी च तत्राऽऽह पदार्थानां परिग्रहम्। नोपकारे हि धर्मेभ्यो विना शक्यं रिरूपणम्। 25 ।। यद्यप्याकाङ्क्षति विधि: प्रकारं प्रथमं स्वयम्। तथाऽपि तस्य प्रकृतावपि नैव स्वरूपत: ।। 26 ।। परिज्ञानं किन्तु यथाश्रुतैर्धर्मैस्तथैव हि। तस्मात्पदार्थपूर्वैव सदा तस्य निरूपणा ।। 27 ।। अत: पूर्वप्रतीतत्वात्पदार्थैरेव वैकृत:। विधिस्सम्बन्धमाप्नोति तान्गृहीत्वा तु स स्वयम् ।। 28 ।। उपकारं प्राकृते द्वारेऽलुप्ते बाधन्तु नाऽर्हति ।। 29 ।। स्वमतेन दशमाद्यसिद्धान्तवर्णनम्। 12राद्धान्ती तु वदत्येवं सत्यं धर्मा: पुरस्सरा:। तथा।द्यपि ते न गृह्यन्ते तदानीमनपेक्षणात् ।। 30 ।। प्रकारं हि पुनस्साध्यरूपो विधिरपेक्षते13। नपदार्थनिति हि 14तात्प्रतीतानप्युपेक्षते ।। 31 ।। प्रकारेणैव सम्बन्धं प्रथमं प्रतिपद्यते। प्रकारकल्पितै: पश्चात्पदार्थैरिति दर्शितम् ।। 32 ।। अन्यधर्माणामन्यधर्मत्वशङ्का-निरासौ। धर्माणामन्यदीयानां कथमन्यत्र सङ्गम:। इति चेदुपकारेऽपि तुल्यमेतदथोच्यते ।। 33 ।। नोपकारस्य सम्बन्ध इति हास्यमिदं वच:। यद्यसौ नाऽन्यदीयस्स्यात्कथं तह्र्यतिदिश्यते ।। 34 ।। अन्यत्र ह्यन्यदीयस्य देहशोऽतिदेश उच्यते। तद्वद्भावेन तत्प्रापौ विरोधश्चेन्न विद्यते ।। 35 ।। तद्वद्भावोपत्त्यर्थं पदार्थेष्वपि तत्समम्। प्रतिपत्तिविरोधोऽयमन्यदीयान्यसङ्गमे ।। 36 ।। मुखान्तरेण15 सम्बन्धे स च नाऽस्ति कथञ्चन। भाट्टमतेऽनुपपत्त्युपन्यास:। ये तु नेच्छन्ति धर्माणां सम्बन्धं वैकृतैस्सह ।। 37 ।। अपूर्वे प्राकृताङ्गानां16 ग्रन्थस्तेषां विरुध्यते। सप्तमा-ष्टमयोस्तेषां15 प्रकारप्राप्तिचिन्तनम् ।। 38 ।। न युक्तं तत्र चिन्ता हि षट्केऽस्मिन्कार्यबन्धना। नियोगोऽप्यथ कार्यञ्चेत्तदर्थमपि चिन्त्यते ।। 39 ।। चतुर्थाध्यायचिन्ताऽपि16 षट्केऽस्मिन्नापतेत्तथा। स्वमतेनोपपत्तिप्रदर्शनम्। कार्यतो ह्युपदेशार्थद्विध्यर्थाद्यप्रतीयते ।। 40 ।। 17यथा तस्योपदिष्टत्वं तथाऽऽक्षेपण। वक्ष्यते। तेन विध्यर्थमुत्सृत्य कार्यमन्यत्समाश्रितम् ।। 41 ।। द्वारभूतमियं चिन्ता कार्यषट्के विधीयते। अतिदेश: पदार्थानां तेन षट्केऽत्र चिन्तित: ।। 42 ।। तस्यैव हेतुभतस्स उपकारोऽपि दर्शित:। "षड्ड्डित्ध्;भर्दीक्षयती"त्यत्र प्राकृतानाञ्च वैकृतै: ।। 43 ।। अङ्गभूतैरनङ्गानां बाधश्चैवं प्रसज्यते। प्रधानभावबाह्यत्वादुपकारप्रसिद्धये ।। 44 ।। नैव प्रयुक्तिमात्रेण क्रियते प्राकृतं पुन:। तत्र। कार्यातिदेशोयं सम्मतस्त्वौपदेशिक: ।। 45 ।। 18उपदेशप्रमेयेण विध्यर्थेनोपकल्पित:। प्रकृतावुपकारस्य यदपूर्वेण कल्पना ।। 46 ।। नियोज्यस्य च अवृद्धानामुपदेशेन सम्मता। स्वमतेनोपदेशशब्दार्थोपन्यास:। उपदेशो हि। नामाऽत्र ग्रन्थसन्दर्भ उच्यते ।। 47 ।। स च प्रमाणं विध्यर्थे कार्यरूपेऽवधारित:। योऽर्थ: प्रतीयते यस्मात्स परं नौपदेशिक: ।। 48 ।। विध्यर्थस्स्वप्रतीत्यथ यमाक्षिपति सोऽपि च। अपर्यवस्यन्विध्यर्थे यं प्रकल्पयितुं क्षम: ।। 49 ।। औपदेशिकता युक्ता तस्याऽप्यक्षरबोध्यवत्। उपकारविशेषञ्नच विधि: कल्पयितुं क्षम: ।। 50 ।। न पदार्थविशेषन्तु वैकृतं प्राकृतो यथा। उपकारविशेषस्य कल्पनायां क्षमोऽपि यत् ।। 51 ।। प्रकृतेरेव गृढद्धठ्ठड़14;णाति लाघवं तत्र कारणम्। क्लॄप्त-कल्प्यविरोधे हि लघु: क्लॄप्तपरिग्रह: ।। 52 ।। अस्ववाक्य-नाम-लिङ्गैश्च क्लृप्तोऽसौ-सन्निधाप्यते। पदार्थभेदप्राप्तिस्तु नोपकरं विना भवेत् ।। 53 ।। प्रकृति-विकृत्योर्विशेषकथनम्। अअतत्प्राप्ति: कार्यतस्तेषां प्रकारश्चोपदेशत:। प्रकृतावुपकारश्च पदार्थश्चोपदेशत: ।। 54 ।। विकृतौ कार्यतो धर्मा: प्रकारश्चोपदेशत: ।। 55 ।। स्वमतोपन्यास:। ।उपदिष्टेऽपि चैतस्मिन्नतिदेशपदाभिधा। न वार्यतेऽस्ति तस्याऽर्थो देशान्यत्वं निजाद्विधे: ।। 56 ।। उपदेशातिदेशयोर्भिन्नविषयत्ववादिभाट्टमते दोषोद्भावनम्। उपदिष्टातिदिष्टत्वं न त्वेकस्य विरुद्ध्यते। नोपदेशातिदेशौ हि प्रमाण इति सम्मते ।। 57 ।। उपदेशातिदेशौ हि प्रमाणे भवतो यदि। स्वमते पूर्वोक्तदोषाभाववर्णनम्। तदा विरोधो जायेत न चैवमिह सम्मतम् ।। 58 ।। तेनोपदेशमेयत्वादुपदिष्टमितीष्यते। अन्यस्मिन्नन्यतोभावादतिदेशोऽपि युज्यते ।। 59 ।। स्वमतेनोपदेशदेशयोर्विषयनिर्देश:। उपदेश-कार्यरूपप्रमाणद्वयसंश्रयौ। षट्कावुभौ नोदेशमतिदेशञ्च संश्रितौ ।। 60 ।। अतिदेशाश्रयत्वे हि बाधे तन्त्रे च भूयसी। उपदिष्टार्थविषया चिन्ता नैवोपपद्यते ।। 61 ।। द्वारकार्याश्रयत्वे तु सर्वासामुपपन्नता। चिन्तानामितिचिन्तेह युक्ता कार्यसमाश्रया ।। 62 ।। उपकारवत् पदार्थानामुपदिष्टत्वशङ्का। 19नन्वेवमुपदिष्टत्वं पदार्थानां प्रसज्यते। कार्यवत्तैरपि यते विध्यर्थोऽन्वित उच्यते ।। 63 ।। तन्निरास:। उच्यते शाब्दतैवं स्यान्नोपदेशप्रमेयता। प्रमाणद्वयभेदोऽयमुपस्थाननिबन्धन: ।। 64 ।। उपदेशोपस्थितो यो वाक्यार्थान्वयमृच्छति। स औपदेशिको ज्ञेयस्स च द्वैधमुपस्थित: ।। 65 ।। ग्रन्थैनोपस्थितश्चैव विध्यर्थोपस्थितस्तथा। 20यथोपकार: प्रकृतौ नियोज्यो वाऽश्रुतो यथा ।। 66 ।। प्रकारोपस्थितो यश्च द्वेधा नाऽसावुपस्थित:। तेनौपदेशिको नाऽसौ केवलं कार्यबन्धन: ।। 67 ।। पूर्वनिबन्धनिबन्धनमपनेतुं मोहमीहमानेन। शालिकनाथेन कृत: कृतिनामानन्ददो यत्न: ।। 68 ।। इति महामहोपाध्यायश्रीमच्छालिकनाथमिश्रप्रणीतायां प्रकरणपञ्चिकायामतिदेशपारायणं नाम चतुर्दशं प्रकरणं समाप्तम्।। ।। समाप्ता चेयं प्रकरणपञ्चिका ।।

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