१७० ॥
तापस नृप निज सखहि निहारी ।
हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी ॥
मित्रहि कहि सब कथा सुनाई ।
जातुधान बोला सुख पाई ॥
अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा ।
जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा ॥
परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई ।
बिनु औषध बिआधि बिधि खोई ॥
कुल समेत रिपु मूल बहाई ।
चौथे दिवस मिलब मैं आई ॥
तापस नृपहि बहुत परितोषी ।
चला महाकपटी अतिरोषी ॥
भानुप्रतापहि बाजि समेता ।
पहुँचाएसि छन माझ निकेता ॥
नृपहि नारि पहिं सयन कराई ।
हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई ॥
दो॰ राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि ।
लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि ॥
१७१ ॥
आपु बिरचि उपरोहित रूपा ।
परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा ॥
जागेउ नृप अनभएँ बिहाना ।
देखि भवन अति अचरजु माना ॥
मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी ।
उठेउ गवँहि जेहि जान न रानी ॥
कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहीं ।
पुर नर नारि न जानेउ केहीं ॥
गएँ जाम जुग भूपति आवा ।
घर घर उत्सव बाज बधावा ॥
उपरोहितहि देख जब राजा ।
चकित बिलोकि सुमिरि सोइ काजा ॥
जुग सम नृपहि गए दिन तीनी ।
कपटी मुनि पद रह मति लीनी ॥
समय जानि उपरोहित आवा ।
नृपहि मते सब कहि समुझावा ॥
दो॰ नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत ।
बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत ॥
१७२ ॥
उपरोहित जेवनार बनाई ।
छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई ॥
मायामय तेहिं कीन्ह रसोई ।
बिंजन बहु गनि सकइ न कोई ॥
बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा ।
तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा ॥
भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए ।
पद पखारि सादर बैठाए ॥
परुसन जबहिं लाग महिपाला ।
भै अकासबानी तेहि काला ॥
बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू ।
है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू ॥
भयउ रसोईं भूसुर माँसू ।
सब द्विज उठे मानि बिस्वासू ॥
भूप बिकल मति मोहँ भुलानी ।
भावी बस आव मुख बानी ॥
दो॰ बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार ।
जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार ॥
१७३ ॥
छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई ।
घालै लिए सहित समुदाई ॥
ईस्वर राखा धरम हमारा ।
जैहसि तैं समेत परिवारा ॥
संबत मध्य नास तव होऊ ।
जलदाता न रहिहि कुल कोऊ ॥
नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा ।
भै बहोरि बर गिरा अकासा ॥
बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा ।
नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा ॥
चकित बिप्र सब सुनि नभबानी ।
भूप गयउ जहँ भोजन खानी ॥
तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा ।
फिरेउ राउ मन सोच अपारा ॥
सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई ।
त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई ॥
दो॰ भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर ।
किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर ॥
१७४ ॥
अस कहि सब महिदेव सिधाए ।
समाचार पुरलोगन्ह पाए ॥
सोचहिं दूषन दैवहि देहीं ।
बिचरत हंस काग किय जेहीं ॥
उपरोहितहि भवन पहुँचाई ।
असुर तापसहि खबरि जनाई ॥
तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए ।
सजि सजि सेन भूप सब धाए ॥
घेरेन्हि नगर निसान बजाई ।
बिबिध भाँति नित होई लराई ॥
जूझे सकल सुभट करि करनी ।
बंधु समेत परेउ नृप धरनी ॥
सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा ।
बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा ॥
रिपु जिति सब नृप नगर बसाई ।
निज पुर गवने जय जसु पाई ॥
दो॰ भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ बिधाता बाम ।
धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम ॥
.१७५ ॥
काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा ।
भयउ निसाचर सहित समाजा ॥
दस सिर ताहि बीस भुजदंडा ।
रावन नाम बीर बरिबंडा ॥
भूप अनुज अरिमर्दन नामा ।
भयउ सो कुंभकरन बलधामा ॥
सचिव जो रहा धरमरुचि जासू ।
भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू ॥
नाम बिभीषन जेहि जग जाना ।
बिष्नुभगत बिग्यान निधाना ॥
रहे जे सुत सेवक नृप केरे ।
भए निसाचर घोर घनेरे ॥
कामरूप खल जिनस अनेका ।
कुटिल भयंकर बिगत बिबेका ॥
कृपा रहित हिंसक सब पापी ।
बरनि न जाहिं बिस्व परितापी ॥
दो॰ उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप ।
तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप ॥
१७६ ॥
कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई ।
परम उग्र नहिं बरनि सो जाई ॥
गयउ निकट तप देखि बिधाता ।
मागहु बर प्रसन्न मैं ताता ॥
करि बिनती पद गहि दससीसा ।
बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा ॥
हम काहू के मरहिं न मारें ।
बानर मनुज जाति दुइ बारें ॥
एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा ।
मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा ॥
पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ ।
तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ ॥
जौं एहिं खल नित करब अहारू ।
होइहि सब उजारि संसारू ॥
सारद प्रेरि तासु मति फेरी ।
मागेसि नीद मास षट केरी ॥
दो॰ गए बिभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु ।
तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु ॥
१७७ ॥
तिन्हि देइ बर ब्रह्म सिधाए ।
हरषित ते अपने गृह आए ॥
मय तनुजा मंदोदरि नामा ।
परम सुंदरी नारि ललामा ॥
सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी ।
होइहि जातुधानपति जानी ॥
हरषित भयउ नारि भलि पाई ।
पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई ॥
गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी ।
बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी ॥
सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा ।
कनक रचित मनिभवन अपारा ॥
भोगावति जसि अहिकुल बासा ।
अमरावति जसि सक्रनिवासा ॥
तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका ।
जग बिख्यात नाम तेहि लंका ॥
दो॰ खाईं सिंधु गभीर अति चारिहुँ दिसि फिरि आव ।
कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव ॥
१७८(क) ॥
हरिप्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ ।
सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ ॥
१७८(ख) ॥
रहे तहाँ निसिचर भट भारे ।
ते सब सुरन्ह समर संघारे ॥
अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे ।
रच्छक कोटि जच्छपति केरे ॥
दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई ।
सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई ॥
देखि बिकट भट बड़ि कटकाई ।
जच्छ जीव लै गए पराई ॥
फिरि सब नगर दसानन देखा ।
गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा ॥
सुंदर सहज अगम अनुमानी ।
कीन्हि तहाँ रावन रजधानी ॥
जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे ।
सुखी सकल रजनीचर कीन्हे ॥
एक बार कुबेर पर धावा ।
पुष्पक जान जीति लै आवा ॥
दो॰ कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ ।
मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ ॥
१७९ ॥
सुख संपति सुत सेन सहाई ।
जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई ॥
नित नूतन सब बाढ़त जाई ।
जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई ॥
अतिबल कुंभकरन अस भ्राता ।
जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता ॥
करइ पान सोवइ षट मासा ।
जागत होइ तिहुँ पुर त्रासा ॥
जौं दिन प्रति अहार कर सोई ।
बिस्व बेगि सब चौपट होई ॥
समर धीर नहिं जाइ बखाना ।
तेहि सम अमित बीर बलवाना ॥
बारिदनाद जेठ सुत तासू ।
भट महुँ प्रथम लीक जग जासू ॥
जेहि न होइ रन सनमुख कोई ।
सुरपुर नितहिं परावन होई ॥
दो॰ कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय ।
एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय ॥