१५० ॥
सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना ।
कृपासिंधु बोले मृदु बचना ॥
जो कछु रुचि तुम्हेर मन माहीं ।
मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं ॥
मातु बिबेक अलोकिक तोरें ।
कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें ।
बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी ।
अवर एक बिनति प्रभु मोरी ॥
सुत बिषइक तव पद रति होऊ ।
मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ ॥
मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना ।
मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना ॥
अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ ।
एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ ॥
अब तुम्ह मम अनुसासन मानी ।
बसहु जाइ सुरपति रजधानी ॥
सो॰ तहँ करि भोग बिसाल तात गउँ कछु काल पुनि ।
होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत ॥
१५१ ॥
इच्छामय नरबेष सँवारें ।
होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारे ॥
अंसन्ह सहित देह धरि ताता ।
करिहउँ चरित भगत सुखदाता ॥
जे सुनि सादर नर बड़भागी ।
भव तरिहहिं ममता मद त्यागी ॥
आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया ।
सोउ अवतरिहि मोरि यह माया ॥
पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा ।
सत्य सत्य पन सत्य हमारा ॥
पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना ।
अंतरधान भए भगवाना ॥
दंपति उर धरि भगत कृपाला ।
तेहिं आश्रम निवसे कछु काला ॥
समय पाइ तनु तजि अनयासा ।
जाइ कीन्ह अमरावति बासा ॥
दो॰ यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु ।
भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु ॥
१५२ ॥
मासपारायण,पाँचवाँ विश्राम सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी ।
जो गिरिजा प्रति संभु बखानी ॥
बिस्व बिदित एक कैकय देसू ।
सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू ॥
धरम धुरंधर नीति निधाना ।
तेज प्रताप सील बलवाना ॥
तेहि कें भए जुगल सुत बीरा ।
सब गुन धाम महा रनधीरा ॥
राज धनी जो जेठ सुत आही ।
नाम प्रतापभानु अस ताही ॥
अपर सुतहि अरिमर्दन नामा ।
भुजबल अतुल अचल संग्रामा ॥
भाइहि भाइहि परम समीती ।
सकल दोष छल बरजित प्रीती ॥
जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा ।
हरि हित आपु गवन बन कीन्हा ॥
दो॰ जब प्रतापरबि भयउ नृप फिरी दोहाई देस ।
प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस ॥
१५३ ॥
नृप हितकारक सचिव सयाना ।
नाम धरमरुचि सुक्र समाना ॥
सचिव सयान बंधु बलबीरा ।
आपु प्रतापपुंज रनधीरा ॥
सेन संग चतुरंग अपारा ।
अमित सुभट सब समर जुझारा ॥
सेन बिलोकि राउ हरषाना ।
अरु बाजे गहगहे निसाना ॥
बिजय हेतु कटकई बनाई ।
सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई ॥
जँह तहँ परीं अनेक लराईं ।
जीते सकल भूप बरिआई ॥
सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे ।
लै लै दंड छाड़ि नृप दीन्हें ॥
सकल अवनि मंडल तेहि काला ।
एक प्रतापभानु महिपाला ॥
दो॰ स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु ।
अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु ॥
१५४ ॥
भूप प्रतापभानु बल पाई ।
कामधेनु भै भूमि सुहाई ॥
सब दुख बरजित प्रजा सुखारी ।
धरमसील सुंदर नर नारी ॥
सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती ।
नृप हित हेतु सिखव नित नीती ॥
गुर सुर संत पितर महिदेवा ।
करइ सदा नृप सब कै सेवा ॥
भूप धरम जे बेद बखाने ।
सकल करइ सादर सुख माने ॥
दिन प्रति देह बिबिध बिधि दाना ।
सुनहु सास्त्र बर बेद पुराना ॥
नाना बापीं कूप तड़ागा ।
सुमन बाटिका सुंदर बागा ॥
बिप्रभवन सुरभवन सुहाए ।
सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए ॥
दो॰ जँह लगि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग ।
बार सहस्त्र सहस्त्र नृप किए सहित अनुराग ॥
१५५ ॥
हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना ।
भूप बिबेकी परम सुजाना ॥
करइ जे धरम करम मन बानी ।
बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी ॥
चढ़ि बर बाजि बार एक राजा ।
मृगया कर सब साजि समाजा ॥
बिंध्याचल गभीर बन गयऊ ।
मृग पुनीत बहु मारत भयऊ ॥
फिरत बिपिन नृप दीख बराहू ।
जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू ॥
बड़ बिधु नहि समात मुख माहीं ।
मनहुँ क्रोधबस उगिलत नाहीं ॥
कोल कराल दसन छबि गाई ।
तनु बिसाल पीवर अधिकाई ॥
घुरुघुरात हय आरौ पाएँ ।
चकित बिलोकत कान उठाएँ ॥
दो॰ नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु ।
चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु ॥
१५६ ॥
आवत देखि अधिक रव बाजी ।
चलेउ बराह मरुत गति भाजी ॥
तुरत कीन्ह नृप सर संधाना ।
महि मिलि गयउ बिलोकत बाना ॥
तकि तकि तीर महीस चलावा ।
करि छल सुअर सरीर बचावा ॥
प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा ।
रिस बस भूप चलेउ संग लागा ॥
गयउ दूरि घन गहन बराहू ।
जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू ॥
अति अकेल बन बिपुल कलेसू ।
तदपि न मृग मग तजइ नरेसू ॥
कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा ।
भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा ॥
अगम देखि नृप अति पछिताई ।
फिरेउ महाबन परेउ भुलाई ॥
दो॰ खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत ।
खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत ॥
१५७ ॥
फिरत बिपिन आश्रम एक देखा ।
तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा ॥
जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई ।
समर सेन तजि गयउ पराई ॥
समय प्रतापभानु कर जानी ।
आपन अति असमय अनुमानी ॥
गयउ न गृह मन बहुत गलानी ।
मिला न राजहि नृप अभिमानी ॥
रिस उर मारि रंक जिमि राजा ।
बिपिन बसइ तापस कें साजा ॥
तासु समीप गवन नृप कीन्हा ।
यह प्रतापरबि तेहि तब चीन्हा ॥
राउ तृषित नहि सो पहिचाना ।
देखि सुबेष महामुनि जाना ॥
उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा ।
परम चतुर न कहेउ निज नामा ॥
दो० भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरु दीन्ह देखाइ ।
मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ ॥
१५८ ॥
गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ ।
निज आश्रम तापस लै गयऊ ॥
आसन दीन्ह अस्त रबि जानी ।
पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी ॥
को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें ।
सुंदर जुबा जीव परहेलें ॥
चक्रबर्ति के लच्छन तोरें ।
देखत दया लागि अति मोरें ॥
नाम प्रतापभानु अवनीसा ।
तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा ॥
फिरत अहेरें परेउँ भुलाई ।
बडे भाग देखउँ पद आई ॥
हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा ।
जानत हौं कछु भल होनिहारा ॥
कह मुनि तात भयउ अँधियारा ।
जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा ॥
दो॰ निसा घोर गम्भीर बन पंथ न सुनहु सुजान ।
बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान ॥
१५९(क) ॥
तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ ।
आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ ॥
१५९(ख) ॥
भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा ।
बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा ॥
नृप बहु भाति प्रसंसेउ ताही ।
चरन बंदि निज भाग्य सराही ॥
पुनि बोले मृदु गिरा सुहाई ।
जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई ॥
मोहि मुनिस सुत सेवक जानी ।
नाथ नाम निज कहहु बखानी ॥
तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना ।
भूप सुह्रद सो कपट सयाना ॥
बैरी पुनि छत्री पुनि राजा ।
छल बल कीन्ह चहइ निज काजा ॥
समुझि राजसुख दुखित अराती ।
अवाँ अनल इव सुलगइ छाती ॥
सरल बचन नृप के सुनि काना ।
बयर सँभारि हृदयँ हरषाना ॥
दो॰ कपट बोरि बानी मृदुल बोलेउ जुगुति समेत ।
नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेति ॥