१६० ॥
कह नृप जे बिग्यान निधाना ।
तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना ॥
सदा रहहि अपनपौ दुराएँ ।
सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ ॥
तेहि तें कहहि संत श्रुति टेरें ।
परम अकिंचन प्रिय हरि केरें ॥
तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा ।
होत बिरंचि सिवहि संदेहा ॥
जोसि सोसि तव चरन नमामी ।
मो पर कृपा करिअ अब स्वामी ॥
सहज प्रीति भूपति कै देखी ।
आपु बिषय बिस्वास बिसेषी ॥
सब प्रकार राजहि अपनाई ।
बोलेउ अधिक सनेह जनाई ॥
सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला ।
इहाँ बसत बीते बहु काला ॥
दो॰ अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु ।
लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु ॥
१६१(क) ॥
सो॰ तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर ।
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि ॥
१६१(ख) तातें गुपुत रहउँ जग माहीं ।
हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं ॥
प्रभु जानत सब बिनहिं जनाएँ ।
कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ ॥
तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें ।
प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें ॥
अब जौं तात दुरावउँ तोही ।
दारुन दोष घटइ अति मोही ॥
जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा ।
तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा ॥
देखा स्वबस कर्म मन बानी ।
तब बोला तापस बगध्यानी ॥
नाम हमार एकतनु भाई ।
सुनि नृप बोले पुनि सिरु नाई ॥
कहहु नाम कर अरथ बखानी ।
मोहि सेवक अति आपन जानी ॥
दो॰ आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि ।
नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि ॥
१६२ ॥
जनि आचरुज करहु मन माहीं ।
सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं ॥
तपबल तें जग सृजइ बिधाता ।
तपबल बिष्नु भए परित्राता ॥
तपबल संभु करहिं संघारा ।
तप तें अगम न कछु संसारा ॥
भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा ।
कथा पुरातन कहै सो लागा ॥
करम धरम इतिहास अनेका ।
करइ निरूपन बिरति बिबेका ॥
उदभव पालन प्रलय कहानी ।
कहेसि अमित आचरज बखानी ॥
सुनि महिप तापस बस भयऊ ।
आपन नाम कहत तब लयऊ ॥
कह तापस नृप जानउँ तोही ।
कीन्हेहु कपट लाग भल मोही ॥
सो॰ सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप ।
मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव ॥
१६३ ॥
नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा ।
सत्यकेतु तव पिता नरेसा ॥
गुर प्रसाद सब जानिअ राजा ।
कहिअ न आपन जानि अकाजा ॥
देखि तात तव सहज सुधाई ।
प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई ॥
उपजि परि ममता मन मोरें ।
कहउँ कथा निज पूछे तोरें ॥
अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं ।
मागु जो भूप भाव मन माहीं ॥
सुनि सुबचन भूपति हरषाना ।
गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना ॥
कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें ।
चारि पदारथ करतल मोरें ॥
प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी ।
मागि अगम बर होउँ असोकी ॥
दो॰ जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ ।
एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ ॥
१६४ ॥
कह तापस नृप ऐसेइ होऊ ।
कारन एक कठिन सुनु सोऊ ॥
कालउ तुअ पद नाइहि सीसा ।
एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा ॥
तपबल बिप्र सदा बरिआरा ।
तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा ॥
जौं बिप्रन्ह सब करहु नरेसा ।
तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा ॥
चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई ।
सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई ॥
बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला ।
तोर नास नहि कवनेहुँ काला ॥
हरषेउ राउ बचन सुनि तासू ।
नाथ न होइ मोर अब नासू ॥
तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना ।
मो कहुँ सर्ब काल कल्याना ॥
दो॰ एवमस्तु कहि कपटमुनि बोला कुटिल बहोरि ।
मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि ॥
१६५ ॥
तातें मै तोहि बरजउँ राजा ।
कहें कथा तव परम अकाजा ॥
छठें श्रवन यह परत कहानी ।
नास तुम्हार सत्य मम बानी ॥
यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा ।
नास तोर सुनु भानुप्रतापा ॥
आन उपायँ निधन तव नाहीं ।
जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं ॥
सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा ।
द्विज गुर कोप कहहु को राखा ॥
राखइ गुर जौं कोप बिधाता ।
गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता ॥
जौं न चलब हम कहे तुम्हारें ।
होउ नास नहिं सोच हमारें ॥
एकहिं डर डरपत मन मोरा ।
प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा ॥
दो॰ होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ ।
तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउँ ॥
१६६ ॥
सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं ।
कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं ॥
अहइ एक अति सुगम उपाई ।
तहाँ परंतु एक कठिनाई ॥
मम आधीन जुगुति नृप सोई ।
मोर जाब तव नगर न होई ॥
आजु लगें अरु जब तें भयऊँ ।
काहू के गृह ग्राम न गयऊँ ॥
जौं न जाउँ तव होइ अकाजू ।
बना आइ असमंजस आजू ॥
सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी ।
नाथ निगम असि नीति बखानी ॥
बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं ।
गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं ॥
जलधि अगाध मौलि बह फेनू ।
संतत धरनि धरत सिर रेनू ॥
दो॰ अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल ।
मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल ॥
१६७ ॥
जानि नृपहि आपन आधीना ।
बोला तापस कपट प्रबीना ॥
सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही ।
जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही ॥
अवसि काज मैं करिहउँ तोरा ।
मन तन बचन भगत तैं मोरा ॥
जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ ।
फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ ॥
जौं नरेस मैं करौं रसोई ।
तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई ॥
अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई ।
सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई ॥
पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ ।
तव बस होइ भूप सुनु सोऊ ॥
जाइ उपाय रचहु नृप एहू ।
संबत भरि संकलप करेहू ॥
दो॰ नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार ।
मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिं&#६५५३३;करिब जेवनार ॥
१६८ ॥
एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें ।
होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें ॥
करिहहिं बिप्र होम मख सेवा ।
तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा ॥
और एक तोहि कहऊँ लखाऊ ।
मैं एहि बेष न आउब काऊ ॥
तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया ।
हरि आनब मैं करि निज माया ॥
तपबल तेहि करि आपु समाना ।
रखिहउँ इहाँ बरष परवाना ॥
मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा ।
सब बिधि तोर सँवारब काजा ॥
गै निसि बहुत सयन अब कीजे ।
मोहि तोहि भूप भेंट दिन तीजे ॥
मैं तपबल तोहि तुरग समेता ।
पहुँचेहउँ सोवतहि निकेता ॥
दो॰ मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि ।
जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि ॥
१६९ ॥
सयन कीन्ह नृप आयसु मानी ।
आसन जाइ बैठ छलग्यानी ॥
श्रमित भूप निद्रा अति आई ।
सो किमि सोव सोच अधिकाई ॥
कालकेतु निसिचर तहँ आवा ।
जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा ॥
परम मित्र तापस नृप केरा ।
जानइ सो अति कपट घनेरा ॥
तेहि के सत सुत अरु दस भाई ।
खल अति अजय देव दुखदाई ॥
प्रथमहि भूप समर सब मारे ।
बिप्र संत सुर देखि दुखारे ॥
तेहिं खल पाछिल बयरु सँभरा ।
तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा ॥
जेहि रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ ।
भावी बस न जान कछु राऊ ॥
दो॰ रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु ।
अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु ॥