महाभारतम्-04-विराटपर्व-043
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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अर्जुनेनोत्तरंप्रति स्वस्यार्जुनत्वकथनपूर्वकं कङ्कादीनां युधिष्ठिरादित्वकथनम् ।। 1 ।। तत्प्रत्ययार्थं स्वनामदशककथनपूर्वकं तन्निर्वचनम् ।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 4-43-1x |
एतस्मिन्नन्तरे पार्थं न मूढात्मा व्यजानत। | 4-43-1a 4-43-1b |
सुवर्णरुचिराण्येषामायुधानि महात्मनाम् । | 4-43-2a 4-43-2b |
क्वनु ते पाण्डवाः शूराः संग्रामेष्वपराजिताः। | 4-43-3a 4-43-3b |
कस्मिन्वसन्ति देशे च धर्मज्ञा बन्धुवत्सलाः। | 4-43-4a 4-43-4b |
धर्मशीलश्च धर्मात्मा धर्मवान्धर्मवित्सुधीः । | 4-43-5a 4-43-5b |
धर्मनिष्ठो धर्मकर्ता धर्मगोप्ता सुधर्मकृत्। | 4-43-6a 4-43-6b |
भीमसेनार्जुनौ चापि सर्वे ते मातुला मम। | 4-43-7a 4-43-7b |
सर्व एव महात्मानः सर्वामित्रविनाशनाः। | 4-43-8a 4-43-8b |
द्रौपदी चापि पाञ्चाली स्त्रीरत्नमिति मे श्रुता। | 4-43-9a 4-43-9b |
उत्सृज्य राज्यं धर्म्यं ते नः श्रूयन्ते वनं गताः ।। | 4-43-10a |
पाण्डवान्यदि जानीषे क्वनु ते धर्मचारिणः । | 4-43-11a 4-43-11b |
किमर्थमागतान्यत्र शस्त्रास्त्राणि महात्मनाम्। | 4-43-12a 4-43-12b |
वैशंपायन उवाच। | 4-43-13x |
ततः प्रहस्य बीभत्सुः कौन्तेयः श्वेतवाहनः। | 4-43-13a 4-43-13b |
मा भैस्त्वं राजशार्दूल सर्वं ते वर्णयाम्यहम् । | 4-43-14a 4-43-14b |
वयं ते पाण्डवा नाम वनवासस्य पारगाः। | 4-43-15a 4-43-15b 4-43-15c |
अहमस्म्यर्जुनो नाम कङ्को नाम युधिष्ठिरः। | 4-43-16a 4-43-16b 4-43-16c |
सैरन्ध्रीं द्रौपदीं विद्धि यदर्थे कीचको हतः। | 4-43-17a 4-43-17b |
श्रुत्वैतद्वचनं जिष्णोर्विस्मयस्फारितेक्षणः । | 4-43-18a 4-43-18b |
उत्तर उवाच। | 4-43-19x |
दश पार्थस्य नामानि श्रूयन्ते मे कथासु च। | 4-43-19a 4-43-19b |
अर्जुन उवाच। | 4-43-20x |
अहं तर्हि तवाचक्षे दश नामानि तानि मे। | 4-43-20a 4-43-20b 4-43-20c |
अर्जुनः फल्गुनो जिष्णुः किरीटी श्वेतवाहनः। | 4-43-21a 4-43-21b 4-43-21c |
उत्तर उवाच। | 4-43-22x |
गुणतो दश नामानि समवेतानि पाण्डवे। | 4-43-22a 4-43-22b |
केनासि विजयो नाम केनासि श्वेतवाहनः। | 4-43-23a 4-43-23b |
अर्जुनः फल्गुनः पार्थः किरीटी केन सारथे। | 4-43-24a 4-43-24b |
श्रुता मे तस्य वीरस्य केवला नामहेतवः। | 4-43-25a 4-43-25b 4-43-25c |
अर्जुन उवाच। | 4-43-26x |
सर्वाञ्जित्वा जनपदान्धनं चाच्छिद्य सर्वशः। | 4-43-26a 4-43-26b |
अभिप्रयामि संग्रामे यदाऽहं युद्धदुर्मदान्। | 4-43-27a 4-43-27b |
श्वेताः काञ्चनसन्नाहा रथे युज्यन्ति मे हयाः। | 4-43-28a 4-43-28b |
किरीटं सूर्यसंकाशं भ्राजते मे शिरोगतम्। | 4-43-29a 4-43-29b |
अच्छेद्यं रुचिरं चित्रं जाम्बूनदपरिष्कृतम्। | 4-43-30a 4-43-30b |
न कुर्यां कर्म बीभत्सं युध्यमानः कदाचन। | 4-43-31a 4-43-31b |
उभौ मे तुल्यकर्माणौ गाण्डीवस्य विकर्षणे। | 4-43-32a 4-43-32b 4-43-32c |
पृथिव्यां सागरान्तायां वर्णो मे दुर्लभः समः। | 4-43-33a 4-43-33b |
उत्तराभ्यां तु पूर्वाभ्यां फल्गुनीभ्यामहं दिवा । | 4-43-34a 4-43-34b |
यो ममाङ्गे व्रणं कुर्याद्धातुर्ज्येष्ठस्य पश्यतः। | 4-43-35a 4-43-35b 4-43-35c |
योत्स्यामि तैरहं सर्वैर्न मे तेभ्यः पराभवः। | 4-43-36a 4-43-36b |
माता मम पृथा नाम तेन मां पार्थमब्रुवन् ।। | 4-43-37a |
देवदानवगन्धर्वपिशाचोरगराक्षसान् । | 4-43-38a 4-43-38b |
हुताशनं तर्पयित्वा सहितः शार्ङ्गधन्वना । | 4-43-39a 4-43-39b |
मूर्च्छया पतितं भूमावागतौ देवसत्तमौ । | 4-43-40a 4-43-40b |
मूर्ध्ना हि प्रणतं भूमौ तौ देवौ वरदौ वरौ। | 4-43-41a 4-43-41b 4-43-41c |
सर्वदेवैः परिवृतौ भूयो मां स्वयमूचतुः। | 4-43-42a 4-43-42b |
ततोऽहमस्त्राण्यलभं दिव्यानि च दृढानि च। | 4-43-43a 4-43-43b 4-43-43c |
ततोऽहमजयं भूयो रथेनैन्द्रेण दुर्जयान्। | 4-43-44a 4-43-44b 4-43-44c |
तिस्रः कोटीर्दानवानां संयुगेष्वनिवर्तिनाम्। | 4-43-45a 4-43-45b |
ततो मे भगवानिन्द्रः किरीटमददात्स्वयम्। | 4-43-46a 4-43-46b |
अहं पारे समुद्रस्य हिरण्यपुरवासिनाम्। | 4-43-47a 4-43-47b |
असंभ्रान्तो रथे तिष्ठन्सहस्रेषु शतेषु च। | 4-43-48a 4-43-48b |
अहं गन्धर्वराजेन ह्रियमाणं सुयोधनम्। | 4-43-49a 4-43-49b 4-43-49c |
एतानि मम नामानि योऽहन्यहनि कीर्तयेत्। | 4-43-50a 4-43-50b |
अद्य पश्य महाबाहो मम वीर्यं सुदुःसहम्। | 4-43-51a 4-43-51b |
सुयोधनस्य मिषतः कर्णस्य च कृपस्य च। | 4-43-52a 4-43-52b 4-43-52c |
।। इति श्रीमन्महाभारते विराटपर्वणि |
4-43-31 बीभत्सुरिति भदि कल्याणे सुखे चेत्यस्य सनि रूपम् ।। 4-43-32 सव्येन वामेनापि हस्तेन सचितुं ज्याकर्षणादिक्रियायां संबद्धुं शीलमस्येति सव्यसाची ।। 4-43-33 अर्जुन इति ऋज गतिस्थानार्जनोपार्जनेष्वित्यत उनन्प्रत्यये भवति। दीप्तिमत्त्वात्समत्वात् शुद्धकर्मकरत्वाच्चार्जुन इत्यर्थः ।। 4-43-34 उत्तराभ्यां फल्गुनीभ्यां नक्षत्राभ्यामिति झo पाठः । नक्षत्रान्यां ताराभ्यां तत्र स्थिते चन्द्र इत्यर्थः ।।
।। त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ।। 43 ।।
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