महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-034
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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धृतराष्ट्रेण दुर्योधनादिश्रेयस्साधनप्रश्ने विदुरेण नीतिकथनपूर्वकं युधिष्ठिराय राज्यदानस्य तत्साधनत्वकथनम् ।। 1 ।।
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-34-1x |
जाग्रतो दह्यमानस्य यत्कार्यमनुपश्यसि। | 5-34-1a 5-34-1b |
तस्माद्यथावद्विदुर प्रशाधि | 5-34-2a 5-34-2b 5-34-2c 5-34-2d |
पापाशङ्की पापमेवानुपश्यन् | 5-34-3a 5-34-3b 5-34-3c 5-34-3d |
विदुर उवाच। | 5-34-4x |
शुभं वा यदि वा पापं द्वेष्यं वा यदि वा प्रियम्। | 5-34-4a 5-34-4b |
तस्माद्वक्ष्यामि ते राजन्हितं यत्स्यान्कुरून्प्रति। | 5-34-5a 5-34-5b |
मिथ्योपेतानि कर्माणि सिद्ध्येतादीनि भारत। | 5-34-6a 5-34-6b |
तथैव योगविहितं यत्तु कर्म न सिध्यति। | 5-34-7a 5-34-7b |
अनुबन्धानवेक्षेत सानुबन्धेषु कर्मसु। | 5-34-8a 5-34-8b |
अनुबन्धं च संप्रेक्ष्य विपाकं चैव कर्मणाम्। | 5-34-9a 5-34-9b |
यः प्रमाणं न जानाति स्थाने वृद्धौ तथा क्षये। | 5-34-10a 5-34-10b |
यस्त्वेतानि प्रमाणानि यथोक्तान्यनुपश्यति। | 5-34-11a 5-34-11b |
न राज्यं प्राप्तमित्येव वर्तितव्यमसांप्रतम्। | 5-34-12a 5-34-12b |
भक्ष्योत्तमप्रतिच्छन्नं मत्स्यो बडिशमायसम्। | 5-34-13a 5-34-13b |
यच्छक्यं ग्रसितुं ग्रस्यं ग्रस्तं परिणमेच्च यत्। | 5-34-14a 5-34-14b |
वनस्पतेरपक्वानि फलानि प्रचिनोति यः। | 5-34-15a 5-34-15b |
यस्तु पक्वमुपादत्ते काले परिणतं फलम्। | 5-34-16a 5-34-16b |
यथा मधु समादत्ते रक्षन्पुष्पाणि षट्पदः। | 5-34-17a 5-34-17b |
पुष्पं पुष्पं विचिन्वीत मूलच्छेदं न कारयेत् । | 5-34-18a 5-34-18b |
किं नु मे स्यादिदं कृत्वा किं नु मे स्यादकुर्वतः। | 5-34-19a 5-34-19b |
अनारभ्या भवन्त्यर्थाः केचिन्नित्यं यथाऽगताः । | 5-34-20a 5-34-20b |
` अनर्थे चैव निरतमर्थे चैव पराङ्भुखम्। | 5-34-21a 5-34-21b |
प्रसादो निष्फलो यस्य क्रोधश्चापि निरर्थकः। | 5-34-22a 5-34-22b |
कांश्चिदर्थान्नरः प्राज्ञो लघुमूलान्महाफलान् । | 5-34-23a 5-34-23b |
ऋजु पश्यति यः सर्वं चक्षुषा नु पिबन्निव । | 5-34-24a 5-34-24b |
सुपुष्पितः स्यादफलः फलितः स्याद्दुरारुहः । | 5-34-25a 5-34-25b |
चक्षुषा मनसा वाचा कर्मणा च चतुर्विधम्। | 5-34-26a 5-34-26b |
यस्मात्रस्यन्ति भूतानि मृगव्याधान्मृगा इव। | 5-34-27a 5-34-27b |
पितृपैतामहं राज्यं प्राप्यापि स्वेन कर्मणा। | 5-34-28a 5-34-28b |
धर्ममाचरतो राज्ञः सद्भिश्चरितमादितः। | 5-34-29a 5-34-29b |
अथ संत्यजतो धर्ममधर्मं चानुतिष्ठतः। | 5-34-30a 5-34-30b |
य एव यत्नः क्रियते परराष्ट्रविमर्दने। | 5-34-31a 5-34-31b |
धर्मेण राज्यं विन्देत धर्मेण परिपालयेत्। | 5-34-32a 5-34-32b |
अप्युन्मत्तात्प्रलपतो बालाच्च परिजल्पतः। | 5-34-33a 5-34-33b |
सुव्याहृतानि महतां सुकृतानि ततस्ततः। | 5-34-34a 5-34-34b |
गन्धेन गावः पश्यन्ति वेदैः पश्यन्ति ब्राह्मणाः । | 5-34-35a 5-34-35b |
भूयांसं लभते क्लेशं या गौर्भवति दुर्दुहा । | 5-34-36a 5-34-36b |
यदतप्तं प्रणमति न तत्सन्तापमर्हति। | 5-34-37a 5-34-37b |
एतयोपमया धीरः सन्नमेत बलीयसे। | 5-34-38a 5-34-38b |
पर्जन्यनाथाः पशवो राजानो मन्त्रिबान्धवाः। | 5-34-39a 5-34-39b |
सत्येन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते । | 5-34-40a 5-34-40b |
मानेन रक्ष्यते धान्यमश्वान्रक्षेदनुक्रमात्। | 5-34-41a 5-34-41b |
न कुलं वृत्तहीनस्य प्रमाणमिति मे मतिः। | 5-34-42a 5-34-42b |
य ईर्षुः परवित्तेषु रूपे वीर्ये कुलान्वये । | 5-34-43a 5-34-43b |
अकार्यकरणाद्भीतः कार्याणां च विवर्जनात्। | 5-34-44a 5-34-44b |
विद्यामदो धनमदस्तृतीयोऽभिजनो मदः। | 5-34-45a 5-34-45b |
असन्तोऽभ्यर्थिताः सद्भिः क्वचित्कार्ये कदाचन। | 5-34-46a 5-34-46b |
गतिरात्मवतां सन्तः सन्त एव सतां गतिः । | 5-34-47a 5-34-47b |
जिता सभा वस्त्रवता मिष्टाशा गोमता जिता। | 5-34-48a 5-34-48b |
शीलं प्रधानं पुरुषे तद्यस्येह प्रणश्यति। | 5-34-49a 5-34-49b |
आढ्यानां मांसपरमं मध्यानां गोरसोत्तरम्। | 5-34-50a 5-34-50b |
संपन्नतरमेवान्नं दरिद्रा भुञ्जते सदा। | 5-34-51a 5-34-51b |
प्रायेण श्रीमतां लोके भोक्तुं शक्तिर्न विद्यते। | 5-34-52a 5-34-52b |
अवृत्तिर्भयमन्त्यानां मध्यानां मरणाद्भयम् । | 5-34-53a 5-34-53b |
ऐश्वर्यमदपापिष्ठा मदाः पानमदादयः । | 5-34-54a 5-34-54b |
इन्द्रियौरिन्द्रियार्थेषु वर्तमानैरनिग्रहैः । | 5-34-55a 5-34-55b |
यो जितः पञ्चवर्गेण सहजेनात्मकर्षिणा । | 5-34-56a 5-34-56b |
अविजित्य य आत्मानममात्यान्विजिगीषते । | 5-34-57a 5-34-57b |
आत्मानमेव प्रथमं द्वेष्यरूपेण योजयेत् । | 5-34-58a 5-34-58b |
वश्येन्द्रियं जितामात्यं धृतदण्डं विकारिषु । | 5-34-59a 5-34-59b |
रथः शरीरं पुरुषस्य राज- | 5-34-60a 5-34-60b 5-34-60c 5-34-60d |
एतान्यनिगृहीतानि व्यापादयितुमप्यलम्। | 5-34-61a 5-34-61b |
अनर्थमर्थतः पश्यन्नर्थं चैवाप्यनर्थतः। | 5-34-62a 5-34-62b |
धर्मार्थौ यः परित्यज्य स्यादिन्द्रियवशानुगः । | 5-34-63a 5-34-63b |
अर्थानामीश्वरो यः स्यादिन्द्रियाणामनीश्वरः। | 5-34-64a 5-34-64b |
आत्मनात्मानमन्विच्छेन्मनोबुद्धीन्द्रियैर्यतैः । | 5-34-65a 5-34-65b |
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनैवात्मात्मना जितः। | 5-34-66a 5-34-66b |
क्षुद्राक्षेणेव जालेन झपावपिहितावुरू। | 5-34-67a 5-34-67b |
समवेक्ष्येह धर्मार्थौ संभारान्योऽधिगच्छति। | 5-34-68a 5-34-68b |
यः पञ्चाभ्यन्तराञ्शत्रूनविजित्य मनोमयान्। | 5-34-69a 5-34-69b |
दृश्यन्ते हि महात्मानो बध्यमानाः स्वकर्मभिः। | 5-34-70a 5-34-70b |
असंत्यागात्पापकृतामपापां- | 5-34-71a 5-34-71b 5-34-71c 5-34-71d |
निजानुत्पततः शत्रून्पश्च पञ्चप्रयोजनान्। | 5-34-72a 5-34-72b |
अनसूयार्जवं शौचं सन्तोषः प्रियवादिता। | 5-34-73a 5-34-73b |
आत्मज्ञानमानायासस्तितिक्षा धर्मनित्यता। | 5-34-74a 5-34-74b |
आक्रोशपरिवादाभ्यां विहिंसन्त्यबुधा बुधान्। | 5-34-75a 5-34-75b |
हिंसा बलमसाधूनां राज्ञां दण्डविधिर्बलम् । | 5-34-76a 5-34-76b |
वाक्संयमो हि नृपते सुदुष्करतमो मतः। | 5-34-77a 5-34-77b |
अभ्यावहति कल्याणं विविधं वाक् सुभाषिता । | 5-34-78a 5-34-78b |
रोहते सायकैर्विद्धं वनं परशुना हतम्। | 5-34-79a 5-34-79b |
कर्णिनालीकनाराचान्निर्हरन्ति शरीरतः। | 5-34-80a 5-34-80b |
वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति | 5-34-81a 5-34-81b 5-34-81c 5-34-81d |
यस्मै देवाः प्रयच्छन्ति पुरुषाय पराभवम्। | 5-34-82a 5-34-82b |
बुद्धौ कलुषभूतायां विनाशे प्रत्युपस्थिते। | 5-34-83a 5-34-83b |
सेयं बुद्धिः परीता ते पुत्राणां भरतर्षभ । | 5-34-84a 5-34-84b |
राजा लक्षणसंपन्नस्त्रैलोक्यस्यापि यो भवेत्। | 5-34-85a 5-34-85b |
अतीव सर्वान्पुत्रांस्ते भागधेयपुरस्कृतः। | 5-34-86a 5-34-86b |
अनुक्रोशादानृशंस्याद्योऽसौ धर्मभृतां वरः। | 5-34-87a 5-34-87b |
।। इति श्रीमन्महाभारते उद्योगपर्वणि |
5-34-1 दह्यमानस्य चिन्ताग्निनेति ...... ।। 5-34-2 अजातशत्रोः पध्ये कुरूणां च श्रेयस्करम् ।। 5-34-3 पापाशङ्की भाविदुःखादुह्रिजन्। पापं स्वकृतं पर्वापराधं पश्यन् ।। 5-34-6 मिथ्योपेतानि कपटद्युतादीनि। अनुपप्यैः असदपायैः प्रयुक्तानि दुःखफलानीत्यर्थः ।। 5-34-8 अनुबन्धान् प्रयोजनानि ।। 5-34-12 असांप्रतं अयुक्तं यथा स्यात्तथा न वर्तितव्यम् ।। 5-34-13 मुखे मुष्टिमन्ते मृत्युदं कर्म न कर्तव्यमित्यर्थः। अनुबन्धे पश्चाद्बन्धम् ।। 5-34-14 आद्यं भक्षणीयम् ।। 5-34-18 अङ्गारकारको हि मूलत उत्कृत्य काष्ठं दहति । अङ्गार इङ्गालः ।। 5-34-20 अनारभ्याः प्रबलैः सह वैरादयः। अगताः कदाचिदप्यप्राप्ताः ।। 5-34- 23 लघुमूलान् अल्पोपायनान् ।। 5-34- 25 सुपुष्पितः वाचा चक्षुषा चानुग्रहं दर्शयन्नपि अफलः स्यात्। भृत्ये न धनेन वर्धयेत्। सफलोपि सन् दुरारुहः भृत्यवश्यो न भवेत्। अपक्व इति। अन्तर्बलहीनोऽपि बलवत्तां बहिः प्रकाशयेदेवेत्यर्थः ।। 5-34-26 कर्मणा दानेन। लोकं भृत्यवर्गम् ।। 5-34-29 आदितः आदिकालात् सद्भिराचरितं धर्ममाचरत इत्यन्वयः ।। 5-34-30 प्रतिसंवेष्टते संकुचति । बहुफलं न प्रयच्छतीत्यर्थः ।। 5-34-32 न जहाति श्रियम् ।। 5-34-34 सुव्याहृतानि पाण्डित्यवचनानि सुकृतानि तदुपदिष्टकर्माणि। शिलं कणिशाद्यर्जनम् ।। 5-34-40 योगेन अभ्यासेन। मृजया उद्वर्तनेन ।। 5-34-41 अनुक्रमः व्यायामशिक्षादिः । मानं द्रोणादि ।। 5-34-42 प्रमाणं धर्मस्य कारणम् ।। 5-34-44 अकाले इष्टसिद्धए प्राक् भीतः स्यात्। येन माद्येत् लोभादिना तन्न पिबेत् नाश्रयेत् ।। 5-34-45 अभिजनः सहायः ।। 5-34-51 संपन्नं मिष्टम् ।। 5-34-53 शीलाभावे सत्सु अवमानो महान् क्लेश इत्याह अवृत्तीति ।। 5-34-54 ऐश्वर्यमदः पापिष्ठो निन्दिततमो येभ्यस्ते पानमदादयो मदाः ।। 5-34-55 इन्द्रियार्थेषु शब्दादिषु ग्रहैः सूर्यादिभिः ।। 5-34-56 पञ्चवर्गः श्रोत्रादिगणः ।। 5-34-58 आत्मानं मनः ।। 5-34-61 व्यापादयितुं नाशयितुम्। अविधेयाः अवशाः ।। 5-34-62 अर्थतोऽर्थहेतोः। अनर्थतः अन्यायतः ।। 5-34-67 क्षुद्राक्षेण सूक्ष्मछिद्रेण प्रज्ञानं तौ नाशयतः। जालमिव महामीनावित्यर्थः ।। 5-34-68 समवेक्ष्य अनुरुध्य। संभारान् जयसाधनानि ।। 5-34-70 राजानो रावणादयः। राज्यविभ्रमैः ऐश्वर्यविलासैः । स्वकर्मभिः सीताहरणादिभिः ।। 5-34-72 पञ्च इन्द्रियाणि पञ्चप्रयोजनानि शब्दश्रवणादीनि येषां तान्। उत्पततः उत्पथेन गच्छतः ।। 5-34-73 अनायासः अचाञ्चल्यम् ।। 5-34-74 तितिक्षा द्वन्द्वसहनशीलता। वाक्गुप्ता असंबद्धप्रलापाद्रक्षिता। अन्त्येषु नीचेषु ।। 5-34-75 आक्रोशो रूक्षभाषणम्। परिवादो निन्दा ।। 5-34-77 वाक्यसंयमो नियतं वचनम्। विचित्रं चमत्कारयुक्तम्।। 5-34-79 बीभत्सं निन्दितं यतो न संरोहति ।। 5-34-80 कर्णी कर्णाकृतिफलको बाणः। नालीकः नलिकया प्रक्षेप्यो बाणः। निर्हरन्ति निःसारयन्ति ।। 5-34-81 नामर्मसु किंतु मर्मस्येव ।। 5-34-82 अवाचीनानि नीचकर्माणि ।। 5-34-85 शिष्यस्ते त्वदाज्ञकारी। शासिता पृथिव्याः ।। 5-34-86 भागधेये राज्यांशे पुरस्कृतः 5-34-87 अनुक्रोशात् दयालुत्वात्। आनृशंस्यात् अक्रौर्यात् ।।
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