महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-036
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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विदुरेण धृतराष्ट्रंप्रति आत्रेयेण साध्यान्प्रत्युपदिष्टनीतिकथनम् ।। 1 ।। तथा महाकुललक्षणाद्यभिधानपूर्वकं पाण्डवैः सह सन्धिकरणविधानम् ।। 2 ।।
विदुर उवाच। | 5-36-1x |
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। | 5-36-1a 5-36-1b |
चरन्तं हंसरूपेण महर्षिं संशितव्रतम्। | 5-36-2a 5-36-2b |
साध्या ऊचुः । | 5-36-3x |
साध्या देवा वयमेते महर्षे | 5-36-3a 5-36-3b 5-36-3c 5-36-3d |
हंस उवाच। | 5-36-4x |
एतत्कार्यममराः संश्रुतं मे | 5-36-4a 5-36-4b 5-36-4c 5-36-4d |
आक्रुश्यमानो नाक्रोशेन्मन्युरेव तितिक्षतः। | 5-36-5a 5-36-5b |
नाक्रोशी स्यान्नावमानी परस्य | 5-36-6a 5-36-6b 5-36-6c 5-36-6d |
मर्माण्यस्थीनि हृदयं तथासू- | 5-36-7a 5-36-7b 5-36-7c 5-36-7d |
अरुन्तुदं परुषं रूक्षवाचं | 5-36-8a 5-36-8b 5-36-8c 5-36-8d |
परश्चेदेनमभिविद्ध्येत बाणै- | 5-36-9a 5-36-9b 5-36-9c 5-36-9d |
यदि सन्तं सेवति यद्यसन्तं | 5-36-10a 5-36-10b 5-36-10c 5-36-10d |
अतिवादं न प्रवदेन्न वादये- | 5-36-11a 5-36-11b 5-36-11c 5-36-11d |
अव्याहृतं व्याहृताच्छ्रेय आहुः | 5-36-12a 5-36-12b 5-36-12c 5-36-12d |
यादृशैः सन्निविशते यादृशांश्चोपसेवते। | 5-36-13a 5-36-13b |
यतो यतो निवर्तते ततस्ततो विमुच्यते। | 5-36-14a 5-36-14b 5-36-14c 5-36-14d |
निन्दाप्रशंसासु समस्वभावो | 5-36-15a 5-36-15d |
भावमिच्छति सर्वस्य नाभावे कुरुते मनः। | 5-36-16a 5-36-16b |
नानर्थकं सान्त्वयति प्रतिज्ञाय ददाति च। | 5-36-17a 5-36-17b |
निराकरोति मित्राणि यो वै सोऽधमपूरुषः ।। | 5-36-19d |
उत्तमानेव सेवेत प्राप्तकाले तु मध्यमान्। | 5-36-20a 5-36-20b |
प्राग्नोति वै वित्तमसद्बलेन | 5-36-21a 5-36-21b 5-36-21c 5-36-21d |
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-36-22x |
महाकुलेभ्यः स्पृहयन्ति देवा | 5-36-22a 5-36-22b 5-36-22c 5-36-22d |
विदुर उवाच। | 5-36-23x |
तपो दमो ब्रह्मवित्त्वं तितिक्षा। | 5-36-23a 5-36-23b 5-36-23c 5-36-23d |
येषां न वृत्तं व्यथते न योनि- | 5-36-24a 5-36-24b 5-36-24c 5-36-24d |
अनिज्यया कुविवाहैर्वेदस्योत्सादनेन च। | 5-36-25a 5-36-25b |
देवद्रव्यनिनाशेन ब्रह्मस्वहरणेन च। | 5-36-26a 5-36-26b |
ब्राह्मणानां परिभवात्परिवादाच्च भारत। | 5-36-27a 5-36-27b |
कुलानि समुपेताननि गोभिः पुरुषतोऽर्थतः । | 5-36-28a 5-36-28b |
वृत्ततस्त्वविहीनानि कुलान्यल्पधनान्यपि । | 5-36-29a 5-36-29b |
वृत्तं यत्नेन संरक्षेद्वित्तमेति च याति च। | 5-36-30a 5-36-30b |
गोभिः पशुभिरश्वैश्च कृष्या च सुसमृद्धया। | 5-36-31a 5-36-31b |
मा नः कुले वैरकृत्कश्चिदस्तु | 5-36-32a 5-36-32b 5-36-32c 5-36-32d |
यश्च नो ब्राह्मणान्हन्याद्यश्च नो ब्राह्णणान् द्विषेत्। | 5-36-33a 5-36-33b |
तृणानि भूमिरुदकं वाक्व्रतुर्थी च सूनृता। | 5-36-34a 5-36-34b |
श्रद्धया परया राजन्नुपनीतानि सत्कृतिम्। | 5-36-35a 5-36-35b |
सूक्ष्मोऽपि भारं नृपते स्यन्दनो वै | 5-36-36a 5-36-36b 5-36-36c 5-36-36d |
न तन्मित्रं यस्य कोपाद्बिभेति | 5-36-37a 5-36-37b 5-36-37c 5-36-37d |
यः कश्चिदप्यसंबद्धो मित्रसावेन वर्तते। | 5-36-38a 5-36-38b |
चलचित्तस्य वै पुंसो वृद्धाननुपसेवतः। | 5-36-39a 5-36-39b |
चलचित्तमनात्मानमिन्द्रियाणां वशानुगम्। | 5-36-40a 5-36-40b |
अकस्मादेव कुप्यन्ति प्रसीदन्त्यनिमित्ततः । | 5-36-41a 5-36-41b |
सत्कृताश्च कृतार्थाश्च मित्राणां न भवन्ति ये । | 5-36-42a 5-36-42b |
अर्थयेदेव मित्राणि सति वाऽसति वा धने। | 5-36-43a 5-36-43b |
सन्तापाद्भ्रश्यते रूपं सन्तापाद्भ्रश्यते बलम्। | 5-36-44a 5-36-44b |
अनवाप्यं च शोकेन शरीरं चोपतप्यते। | 5-36-45a 5-36-45b |
पुनर्नरो म्रियते जायते च | 5-36-46a 5-36-46b 5-36-46c 5-36-46d |
सुखं च दुःखं च भवाभवौ च | 5-36-47a 5-36-47b 5-36-47c 5-36-47d |
चलानि हीमानि षडिन्द्रियाणि | 5-36-48a 5-36-48b 5-36-48c 5-36-48d |
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-36-49x |
तनुरुद्धः शिखी राजा मिथ्योपचरितो मया। | 5-36-49a 5-36-49b |
नित्योद्विग्नमिदं सर्वं नित्योद्विग्रमिदं मनः। | 5-36-50a 5-36-50b |
विदुर उवाच। | 5-36-51x |
नान्यत्र विद्यातपसो नान्यत्रेन्द्रियनिग्रहात्। | 5-36-51a 5-36-51b |
बुद्ध्या भयं प्रणुदति तपसा विन्दते महत्। | 5-36-52a 5-36-52b |
अनाश्रिता दानपुण्यं वेदपुण्यमनाश्रिताः। | 5-36-53a 5-36-53b |
स्वधीतस्य सुयुद्धस्य सुकृतस्य च कर्मणः । | 5-36-54a 5-36-54b |
स्वास्तीर्णानि शयनानि प्रपन्ना | 5-36-55a 5-36-55b 5-36-55c 5-36-55d |
न वै भिन्ना जातु चरन्ति धर्मं | 5-36-56a 5-36-56b 5-36-56c 5-36-56d |
न वै तेषां स्वदते पथ्यमुक्तं | 5-36-57a 5-36-57b 5-36-57c 5-36-57d |
संपन्नं गोषु संभाव्यं संभाव्यं ब्राह्मणे तपः। | 5-36-58a 5-36-58b |
तन्तवोऽप्यायता नित्यं तनवो बहुलाः समाः। | 5-36-69a 5-36-69b |
धूमायन्ते व्यपेतानि ज्वलन्ति सहितानि च। | 5-36-60a 5-36-60b |
ब्राह्मणेषु च ये शूराः स्त्रीषु ज्ञातिषु गोषु च। | 5-36-61a 5-36-61b |
महानप्येकजो वृक्षो बलवान्सुप्रतिष्ठितः। | 5-36-62a 5-36-62b |
अथ ये सहिता वृक्षाः सङ्घशः सुप्रतिष्ठिताः। | 5-36-63a 5-36-63b |
एवं मनुष्यमप्येकं गुणैरपि समन्वितम्। | 5-36-64a 5-36-64b |
अन्योन्यसमुपष्टम्भादन्योन्यापाश्रयेण च। | 5-36-65a 5-36-65b |
अवध्या ब्राह्मणा गावो ज्ञातयः शिशिवः स्त्रियः। | 5-36-66a 5-36-66b 5-36-66c |
न मनुष्ये गुणः कश्चिद्राजन्सधनतामृते। | 5-36-67a 5-36-67b |
अव्याधिजं कटुकं शीर्षरोगि | 5-36-68a 5-36-68b 5-36-68c 5-36-68d |
रोगार्दिता न फलान्याद्रियन्ते | 5-36-69a 5-36-69b 5-36-69c 5-36-69d |
पुरा ह्युक्तं नाकरोस्त्वं वचो मे | 5-36-70a 5-36-70b 5-36-70c 5-36-70d |
न तद्बलं यन्मृदुना विरुध्यते | 5-36-71a 5-36-71b 5-36-71c 5-36-71d |
धार्तराष्ट्राः पाण्डवान्पालयन्तु | 5-36-72a 5-36-72b 5-36-72c 5-36-72d |
मेढीभूतः कौरवाणां त्वमद्य | 5-36-73a 5-36-73b 5-36-73c 5-36-73d |
सन्धत्स्व त्वं कौरव पाण्डुपुत्रै- | 5-36-74a 5-36-74b 5-36-74c 5-36-74d |
।। इति श्रीमन्महाभारते उद्योगपर्वणि |
5-36-2 हंसरूपेण परिव्राजकरूपेण ।। 5-36-3 अनुमातुं लिङ्गेन ज्ञातम्। काव्यां विद्वल्लक्षणाभिधायिनीम् ।। 5-36-4 मे मया संश्रुतम्। गुरुभ्य इति शेषः। तदेवाह धृतिरिति ।। 5-36-5 नाक्रोशेत् न शपेत्। यतस्तितिक्षतो मन्युः क्रोध एव आक्रोष्टारं दहति ।। 5-36-8 निर्ऋतिं अलक्ष्मीं मृत्युं वा ।। 5-36-9 बाणैः वाग्बाणैः विरिव्यमानः तनूक्रियमाणः। दधाति पुष्णाति ।। 5-36-10 रङ्गस्य नीलादेर्वशं नीलतादिकम् ।। 5-36-11 अतिप्रोक्तोपि न वदेत् वादयेद्वा। अनाहतो नैव प्रतिहन्यात्। आहतोपि पापकं हन्तारं यदि हन्तुं नेच्छेत् स देवानामपि प्रेष्ठो भवतीत्यर्थः ।। 5-36-12 अव्याहृतं मौनम्। ततोपि श्रेयः सत्यवचनम्। सत्यमपि प्रियं चेत् ततोऽपि श्रेयः। तदपि धर्मादनपेतं चेत् श्रेष्ठतममित्यर्थः ।। 5-36-15 अस्यामवरथायां पुरुषस्य न किंचिद्दुःखादिकमस्तीत्याह न जीयते चेति ।। 5-36-16 भावं कल्याणम्। अभावे अकल्याणे ।। 5-36-17 अनर्थकं मिथ्या न सांत्वयति ।। 5-36-18 दुःशासनः दुष्टं शासनं यस्य। एताः कलाः चित्तस्य अधमस्यैव ।। 5-36-19 परेभ्यः गरुभ्यः। आत्मन्येव शङ्कितः विश्वासहीनः ।। 5-36-23 तपः कृच्छ्रचान्दायणादि। दम इन्द्रियजयः। तानि महाकुलानि विद्धि ।। 5-36-24 न व्यथते न चलति। योनिः पित्रादयोपि ।। 5-36-28 गोभिर्वाग्भिर्विद्ययेत्यर्थः। पुरुषतः सत्पुरुषैः अर्थतः धनैश्च कुलानि कुलसंख्यां कुलेषु गणनां समुपेतानि भवन्ति ।। 5-36-29 वृत्ततः धर्मेण । कर्षन्ति आहरन्ति ।। 5-36-31 गोभिर्विद्याभिः ।। 5-36-32 नैकृतिकः कपटी। वैरकृदादयः कुलघ्ना इत्यर्थः ।। 5-36-33 निर्वपेत् कुर्यात् ।। 5-36-35 सत्कृतिं सत्कारं कर्तुं प्रवृत्तानि तृणादीनि ।। 5-36-36 स्यान्दनः रथयोग्यो वृक्षः। युक्ताः स्यन्दनवदविकलाः ।। 5-36-37 सङ्गतानि संबन्धमात्राणि ।। 5-36-38 बन्धुः संबन्धी । मित्रं उपकारकृत् ।। 5-36-39 पारिप्लवमतेः भ्रान्तस्य ।। 5-36-41 अभ्रं मेघः ।। 5-36-42 मित्राणां हितायेति शेषः ।। 5-36-43 अनर्थयन्प्रार्थनाशून्यः ।। 5-36-45 अनवाप्यं न प्राप्यम्। शोकेन शोकमात्रेण। इष्टमिति शेषः ।। 5-36-47 सर्वं पुरुषम् ।। 5-36-49 तनुः शरीरमभिव्यक्तिस्थानं काष्ठं तत्र रुद्धोऽनभिव्यक्तः शिखी अग्निस्तथायं राजा धर्मेण रुद्धः। तनुना सूक्ष्मेण धर्मेण वा रुद्धः ।। 5-36-52 विन्दते महत्सद्गुरुशास्त्रादिकं लभते। ततो गुरुशुश्रूषया ज्ञानं ग्रन्थजम्। योगेन सर्वचित्तवृत्तिनिरोधेन शान्तिम्।। 5-36-53 दानपुण्यं दानजं पुण्यं। वेदपुण्यं वेदोक्तयागाद्यनुष्ठानजं पुण्यं तत्तत्फलमित्यर्थः ।। 5-36-54 तस्यान्ते स्वधीतादीनां कर्मणामन्ते ।। 5-36-57 योगः अलब्धलाभः। क्षेमं लब्धपरिपालनम् । तदुभयम् ।। 5-36-58 संपन्नं क्षीरादिसंपत्तिः ।। 5-36-62 एकजः एकाकी। प्रसह्यः शक्यः ।। 5-36-67 सधनतां ऋते विना। अनातुरत्वात् ऋते च।। 5-36-68 प्रशाम्य शान्तिं क्षमां प्राप्नुहि ।। 5-36-69 फलानि पुत्रपश्वादीनि। तत्त्वमिष्टानिष्टविवेकं पित्तोपहतरसनत्वात्। एवं सर्वत्र। भोगः स्त्र्यादिसङ्गः। धनादिजं सुखं लब्धमपि न बुध्यन्ते। अतः संतापं जागरादिद्वारा रोगोत्पादकं त्यजेत्यर्थः ।। 5-36-70 कितवत्वं द्यूतप्रियत्वम् ।। 5-36-73 मेढीभूतः खलस्तम्भीभूतः स्वयं निर्व्यापारोपि परितः संचरमाणानां बलीवर्दानामिव पुत्राणां यथेष्टप्रचारनिरोधकः ।। 5-36-74 अन्तरं भेदम्। स्थापय युद्धान्निवर्तयस्व ।।
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