"अग्निपुराणम्/अध्यायः १३३" इत्यस्य संस्करणे भेदः

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पङ्क्तिः १:
{{अग्निपुराणम्}}
 
<poem><span style="font-size: 14pt; line-height:150%">
नानाबलानि
 
<poem><span style="font-size: 14pt; line-height:200%">ईश्वर उवाच
गर्भजातस्य वक्ष्यामि क्षेत्राधिपस्वरूपकं ।१३३.००१
नातिदीर्घः कृशः स्थूलः समाङ्गो गौरपैतिकः ॥१३३.००१
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सङ्ग्रामे जयमाप्नोति समनामा नरो ध्रुवं ।१३३.०११
अधश्चारे जयं विद्यादूर्ध्वचारे रणे मृतिं ॥१३३.०११
 
ओं हूं ओं ह्रूं ओं स्फें अस्त्रं मोटय(१) ओं चूर्णय २ ओं सर्वशत्रुं मर्दय २ ओं ह्रूं ओं ह्रः फट्
<small><small>टिप्पणी
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१ मोचयेति ख.. , छ.. च</small></small>
टिप्पणी
१ मोचयेति ख.. , छ.. च
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सप्तवारन्न्यसेन्मन्त्रं ध्यात्वात्मानन्तु भैरवं ।१३३.०१२
चतुर्भुजन्दशभुजं विंशद्बाह्वात्मकं शुभं ॥१३३.०१२
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स्थावरं जङ्गमञ्चैव लूताश्च कृत्रिमं विषं ॥१३३.०२०
तत्सर्वं नाशमायाति(४) साधकस्यावलोकनात् ।१३३.०२१
<small><small>टिप्पणी
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टिप्पणी
१ बाहुमूले तु इति ग..
२ मोचयेद्युद्धकाले तु इति ज.. , झ.. च
३ जयार्थं भूमुखाक्षरमिति ख.. , ग.. , घ.. , ङ.. , छ.. , ज.. च
४ नाशमाप्नोतीति ज..</small></small>
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पुनर्ध्यायेन्महातार्क्ष्यं द्विपक्षं मानुषाकृतिं ॥१३३.०२१
द्विभुजं वक्रचञ्चुं च(१) गजकूर्मधरं प्रभुं ।१३३.०२२
Line ७५ ⟶ ६८:
श्मशानभस्मसंयुक्तं मालती चामरी तथा(४) ।१३३.०२८
कार्पासमूलमात्रन्तु तेन दूरन्तु बोधयेत् ॥१३३.०२८
 
ओं अहे हे महेन्द्रि अहे महेन्द्रि भञ्ज हि ओं जहि मसानंहि खाहि खाहि किलि किलि किलि ओं हुं फट्
<small><small>टिप्पणी
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टिप्पणी
१ वज्रचञ्चुं चेति ग.. , घ.. , ङ.. , ञ.. च
२ अभयो भवेदिति ग.. , घ.. , ङ.. च
३ हरमन्त्रेणेति क.. । मूलमन्त्रेणेति ख.. , घ.. , ज.. , ञ.. च
४ मालती वानरी तथेति छ.. , ञ.. च</small></small>
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अरेर्नाशं दूरशब्दाज्जप्तया भङ्गविद्यया ।१३३.०२९
अपराजिता च धुस्तूरस्ताभ्यान्तु तिलकेन हि ॥१३३.०२९
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जकारं विन्दुसंयुक्तं ओङ्कारेण समन्वितं ।१३३.०३५
धकारोदरमध्यस्थं वकारेण निबोधितं(३) ॥१३३.०३५
<small><small>टिप्पणी
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टिप्पणी
१ नागयन्त्रे इति घ.. , ञ.. च
२ रक्षामन्त्रमिति ख.. , ग.. , ङ.. , ज.. च
३ ककारोदरमध्यस्थं चकारेणेति ख.. । चकारोदरमध्यस्थं चकारेणेति ग.. , झ.. च । वकारोदरमध्यस्थं ठकारेणेति ङ.. , छ.. च</small></small>
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चन्द्रसम्पुटमध्यस्थं सर्वदुष्टविमर्दकम्(१) ।१३३.०३६
अथवा कर्णिकायाञ्च लिखेन्नाम च कारणम् ॥१३३.०३६
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ओं वातले वितले विडालमुखि इन्द्रपुत्रि उद्भवो वायुदेवेन खीलि आजी हाजा मयि वाह इहादि दुःखनित्यकण्ठोच्चैर्मुहूर्तान्वया अह मां यस्महं उपाडि ओं भेलखि ओं स्वाहा
नवदुर्गासप्तजप्तान्मुखस्तम्भो मुखस्थितात् ।१३३.०४१
 
ओं चण्डि ओं हूं फट्स्वाहा
गृहीत्वा सप्तजप्तं तु खद्गयुद्धेऽपराजितः ॥१३३.०४१
 
इत्याग्नेये महापुराणे युद्धजयार्णवे नानाबलानि नाम त्रयस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥
<small><small>टिप्पणी
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टिप्पणी
१ सर्वदुःखविमर्दकमिति झ..
२ मन्त्रस्येति क.. , ख.. , ग.. , छ.. च
३ रिपुरोगमृतेर्हरीमिति ग.. , घ.. , ङ.. , ज.. , झ. ञ.. च</small></small>
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</span></poem>
 
"https://sa.wikisource.org/wiki/अग्निपुराणम्/अध्यायः_१३३" इत्यस्माद् प्रतिप्राप्तम्