"ऋग्वेदः सूक्तं १.१०५" इत्यस्य संस्करणे भेदः

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पङ्क्तिः ३३६:
 
“एना अनेन “आङ्गूषेण आघोषणयोग्येन स्तोत्रेण हेतुभूतेन “इन्द्रवन्तः अनुग्राहकेणेन्द्रेण युक्ताः “सर्ववीराः सर्वैर्वीरैः पुत्रैः पौत्रादिभिश्चोपेताः सन्तः “वयं वृजने संग्रामे “अभि “ष्याम शत्रूनभिभवेम । “तत् इदमस्मदीयं वचनं मित्रादयः “ममहन्तां पूजयन्तु पालयन्त्वित्यर्थः । उतशब्दो देवतासमुच्चये। अत्र यास्कः-’ आङ्गूषः स्तोम आघोषः । अनेन स्तोमेन वयमिन्द्रवन्तः' (निरु. ५.११) इति । एना । ' द्वितीयाटौःस्वेनः '(पा. सू. २. ४. ३४) इति तृतीयायाम् इदम एनादेशः ।' सुपां सुलुक् ' इति विभक्तेः आजादेशः । चित्स्वरेणान्तोदात्तत्वम्। आङ्गूषेण । आङ्पूर्वात् घुषेः कर्मणि घञ् । आङो ङकारलोपाभावश्छान्दसः । घोषशब्दस्य गूषभावश्च पृषोदरादित्वात् । थाथादिना उत्तरपदान्तोदात्तत्वम् । स्याम । अस्तेः प्रार्थनायां लिङि' असोरल्लोपः' इति अकारलोपः । ' उपसर्गप्रादुर्भ्यामस्तिर्यच्परः' (पा. सू. ८. ३. ८७ ) इति षत्वम् ॥ ॥ २३ ॥ ॥ १५ ॥
 
 
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{{भाष्यम्|
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चन्द्रमा अप्स्व१न्तरा सुपर्णो धावते दिवि.
न वो हिरण्यनेमयः पदं विन्दन्ति विद्युतो वित्तं मे अस्य रोदसी.. (१)
उदकमय मंडल में वर्तमान सुंदर किरणों वाला चंद्रमा आकाश में दौड़ता है. हे सुवर्णमयी चंद्रकिरणो! कुएं से ढकी होने के कारण मेरी इंद्रियां तुम्हारे अग्रभाग को नहीं प्राप्त करती. हे धरती और आकाश! हमारे इस स्तोत्र को जानो. (१)
 
अर्थमिद्वा उ अर्थिन आ जाया युवते पतिम्.
तुञ्जाते वृष्ण्यं पयः परिदाय रसं दुहे वित्तं मे अस्य रोदसी.. (२)
धन चाहने वाले लोगों को निश्चित रूप से धन मिल रहा है. दूसरों की स्त्रियां अपने पतियों को समीप ही पाती हैं, उनसे समागम करती हैं एवं गर्भ में वीर्य धारण करके संतान उत्पन्न करती हैं. हे धरती और आकाश! मेरे इस कष्ट को जानो. (२)
 
मो षु देवा अदः स्व१रव पादि दिवस्परि.
मा सोम्यस्य शंभुवः शूने भूम कदा चन वित्तं मे अस्य रोदसी.. (३).
हे देवो! स्वर्ग में वर्तमान हमारे पूर्वपुरुष वहां से पतित न हों. सोमपान योग्य पितर के सुख के निमित्त पुत्र से रहित कभी न हों. हे धरती और आकाश! मेरी इस बात को समझो. (३)
 
यज्ञं पृच्छाम्यवमं स तद्दूतो वि वोचति.
क्व ऋतं पूर्व्यं गतं कस्तद्बिभर्ति नूतनो वित्तं मे अस्य रोदसी.. (४)
मैं देवों में आदिभूत एवं यज्ञ के योग्य अग्नि से निवेदन करता हूं कि वे मेरी बात देवों के दूत के रूप में उन्हें बता दें. हे अग्नि! तुम पूर्वकाल में स्तोताओं का जो कल्याण करते थे, वह कहां गए? उस गुण को अब कौन धारण करता है? हे धरती और आकाश! मेरी यह बात जानो. (४)
 
अमी ये देवाः स्थन त्रिष्वा रोचने दिवः.
कद्व ऋतं कदनृतं क्व प्रत्ना व आहुतिर्वित्तं मे अस्य रोदसी.. (५)
हे देवो! सूर्य द्वारा प्रकाशित तीनों लोकों में तुम वर्तमान रहो. तुम्हारा सत्य, असत्य एवं प्राचीन आहुति कहां है? हे धरती और आकाश! मेरी यह बात जानो. (५)
 
कद्व ऋतस्य धर्णसि कद्वरुणस्य चक्षणम्.
कदर्यम्णो महस्पथाति क्रामेम दूढ्यो वित्तं मे अस्य रोदसी.. (६)
हे देवो! तुम्हारा सत्यधारण कहां है? वरुण की कृपादृष्टि कहां है? महान्
अर्यमा का वह मार्ग कहां है, जिस पर चलकर हम पापबुद्धि शत्रुओं से दूर जा सकें? हे धरती और आकाश! हमारी इस बात को जानो. (६)
 
अहं सो अस्मि यः पुरा सुते वदामि कानि चित्.
तं मा व्यन्त्याध्यो३ वृको न तृष्णजं मृगं वित्तं मे अस्य रोदसी.. (७)
हे देवो! मैं वही हूं, जिसने प्राचीनकाल में तुम्हारे निमित्त सोम निचोड़े जाने पर कुछ स्तोत्र बोले थे. जिस प्रकार प्यासे हिरन को व्याघ्र खा जाते हैं, उसी प्रकार मानसिक कष्ट मुझे खा रहे हैं. हे धरती और आकाश! मेरे इस कष्ट को जानो. (७)
 
सं मा तपन्त्यभितः सपत्नीरिव पर्शवः.
मूषो न शिश्ना व्यदन्ति माध्यः स्तोतारं ते शतक्रतो वित्तं मे अस्य रोदसी.. (८)
हे इंद्र! कुएं की आसपास की दीवारें मुझे उसी प्रकार दुःखी कर रही हैं, जिस प्रकार दो सौतें बीच में स्थित अपने पति को कष्ट देती हैं. हे शतक्रतु! जिस तरह चूहा सूत को काटता है, उसी प्रकार दुःख मुझे खा रहे हैं. हे धरती और आकाश! मेरी यह बात जानो. (८)
 
अमी ये सप्त रश्मयस्तत्रा मे नाभिरातता.
त्रितस्तद्वेदाप्त्यः स जामित्वाय रेभति वित्तं मे अस्य रोदसी.. (९)
ये जो सूर्य की सात किरणें हैं, उन में मेरी नाभि संबद्ध है. आप्त्य ऋषि अर्थात् मैं यह जानता हूं और कुएं से निकलने के लिए सूर्यकिरणों की स्तुति करता हूं. हे धरती और आकाश! मेरी यह बात जानो. (९)
 
अमी ये पञ्चोक्षणो मध्ये तस्थुर्महो दिवः.
देवत्रा नु प्रवाच्यं सध्रीचीना नि वावृतुर्वित्तं मे अस्य रोदसी.. (१०)
आकाश में स्थित इंद्र, वरुण, अग्नि, अर्यमा और सविता-पांच कामवर्षी देव हमारे प्रशंसनीय स्तोत्र को एक साथ देवों के समीप ले जावें और लौट आवें. हे धरती और आकाश! मेरी यह बात जानो. (१०)
 
सुपर्णा एत आसते मध्य आरोधने दिवः.
ते सेधन्ति पथो वृकं तरन्तं यह्वतीरपो वित्तं मे अस्य रोदसी.. (११)
सूर्य की रश्मियां सबको आवरण करने वाले आकाश में वर्तमान हैं. वे विशाल जल को पार करने वाले भेड़िए को रोकती हैं. हे धरती और आकाश! मेरी यह बात जानो. (११)
 
नव्यं तदुक्थ्यं हितं देवासः सुप्रवाचनम्.
ऋतमर्षन्ति सिन्धवः सत्यं तातान सूर्यो वित्तं मे अस्य रोदसी.. (१२)
हे देवो! तुम में छिपे हुए नवीन, स्तुत्य एवं वर्णनीय बल के कारण बहने
वाली नदियां जल प्रवाहित करती एवं सूर्य अपना नित्य वर्तमान तेज फैलाता है. हे धरती और आकाश! हमारी इस बात को जानो. (१२)
 
अग्ने तव त्यदुक्थ्यं देवेष्वस्त्याप्यम्.
स नः सत्तो मनुष्वदा देवान्यक्षि विदुष्टरो वित्तं मे अस्य रोदसी.. (१३)
हे अग्नि! देवों के साथ तुम्हारी प्रशंसनीय प्राचीन बंधुता है एवं तुम अत्यंत ज्ञाता हो. मनु के यज्ञ के समान ही हमारे यज्ञों में भी बैठकर देवों की हवि के द्वारा पूजा करो. हे धरती और आकाश! हमारी यह बात जानो. (१३)
 
सत्तो होता मनुष्वदा देवाँ अच्छा विदुष्टर:.
अग्निर्हव्या सुषूदति देवो देवेषु मेधिरो वित्तं मे अस्य रोदसी.. (१४)
मनु के यज्ञ के समान हमारे यज्ञ में स्थित, देवों को बुलाने वाले, परम ज्ञानी, देवों में अधिक मेधावी अग्नि देव देवों को शास्त्रीय मर्यादा के अनुसार हमारे हव्य की ओर प्रेरित करें. हे धरती और आकाश! हमारी यह बात जानो. (१४)
 
ब्रह्मा कृणोति वरुणो गातुविदं तमीमहे.
व्यूर्णोति हृदा मतिं नव्यो जायतामृतं वित्तं मे अस्य रोदसी.. (१५)
वरुण अनिष्ट का निवारण करते हैं. हम उन मार्गदर्शक वरुण से अभिमत फल मांगते हैं. हमारा स्तोता मन उन वरुण की मननीय स्तुति करता है. वे ही स्तुति योग्य वरुण हमारे लिए सच्चे बनें. हे धरती और आकाश! हमारी बात जानो. (१५)
 
असौ यः पन्था आदित्यो दिवि प्रवाच्यं कृतः.
न स देवा अतिक्रमे तं मर्तासो न पश्यथ वित्तं मे अस्य रोदसी.. (१६)
हे देवगण! जो सूर्य आकाश में सततगामी मार्ग के समान सबके द्वारा देखे जाते हैं, उनका अतिक्रमण तुम भी नहीं कर सकते. हे मानवो! तुम उन्हें नहीं जानते. हे धरती और आकाश! हमारी बात जानो. (१६)
 
त्रितः कूपेऽवहितो देवान्हवत ऊतये.
तच्छुश्राव बृहस्पतिः कृण्वन्नंहुरणादुरु वित्तं मे अस्य रोदसी.. (१७) ।
कुएं में गिरा हुआ त्रित ऋषि अपनी रक्षा के लिए देवों को बुलाता है. बृहस्पति ने उसे पाप रूप कुएं से निकालकर उसकी पुकार सुनी. हे धरती और आकाश! हमारी बात जानो. (१७)
 
अरुणो मा सकृद्वृक: पथा यन्तं ददर्श हि.
उज्जिहीते निचाय्या तष्टेव पृष्ट्यामयी वित्तं मे अस्य रोदसी.. (१८)
लाल रंग के वृक ने मुझे एक बार मार्ग में जाते हुए देखा. वह मुझे देखकर इस प्रकार ऊपर उछला, जिस प्रकार पीठ की वेदना वाला काम करते-करते
सहसा उठ पड़ता है. हे धरती और आकाश! मेरे इस कष्ट को जानो. (१८)
 
एनाङ्गूषेण वयमिन्द्रवन्तोऽभि ष्याम वृजने सर्ववीराः.
तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः.. (१९)
घोषणा योग्य इस स्तोत्र के कारण इंद्र का अनुग्रह पाए हुए हम लोग पुत्र, पौत्रों आदि के साथ संग्राम में शत्रुओं को हरावें. मित्र, वरुण, अदिति, सिंधु, पृथ्वी एवं आकाश हमारी इस प्रार्थना का आदर करें. (१९)
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