"पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/१३१" इत्यस्य संस्करणे भेदः
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०८:४९, १० जनवरी २०२० इत्यस्य संस्करणं
१२६ भोजप्रबन्धः . एकवार धारा नगर में एकाकी विचरण करते. राजा ने एक स्वेच्छा विहारिणी को संकेत-स्थल ( पूर्व निश्चित मिलन स्थान ) की ओर जाती देख पूछा-'हे देवी, तुम कौन हो ? आधी रात में अकेली कहाँ जा रही हो?' ततश्चतुरा स्वैरिणी सा तं रात्रौ विचरन्तं श्रीभोज निश्चित्य प्राह- त्वत्तोऽपि विपमो राजन्विषमेषुः क्षमापते । । शासनं यस्य रुद्राद्या दासवन्मूनि कुर्वते ।। २५४ ॥ ततस्तुष्टोराजा दोर्दण्डादादायानंद वलयं च तस्य दत्तवान् । सा च यथास्थानं प्राप। तो वह चतुर इच्छाचारिणी यह निश्चय करके कि यह रात में विचरण करता राजा भोज है, उससे बोली- हे धरती के स्वामी राजा, विषमबाण (पंचवाण कामदेव ) आपसे भी अधिक उग्र है, जिसके शासन को रुद्रादि देव दास के समान शिरोधार्य करते हैं। ___ संतुष्ट हो राजा ने भुजदंड से वाजूवंद और कंगन उसे दिये । और वह भी अपने. निश्चित स्थान को चली गयी। ततो वमनि गच्छन्क्वचिद्गृह एकाकिनी रुदतीं नारी दृष्ट्वा 'किम- र्थमर्धरात्रौ रोदिति । किं दुःखमेतस्याः।' इति विचारयितुमेकमङ्गरक्ष- कंप्राहिणोत् । ... तदनंतर मार्ग में जाते हुए किसी घर में एक अकेली स्त्री को रोती देख-'यह माधी रात को क्यों रो रही है ? इसको क्या दुःख है ?-यह विचारने के लिए एक अंगरक्षक को, भेजा। ततोऽङ्गरक्षकः पुनरागत्य प्राह.-'देव, मया पृष्टा, यदाह तच्छृणु-- वृद्धोमत्पतिरेप मञ्चकगतः स्थूणावशेपं गृहं कालोऽयं. जलदागमः कुशलिनी वत्सस्य वार्तापि नो ।
- यत्नात्सञ्चिततैलबिन्दुंघटिका भग्नेति, पर्याकुला
- : दष्ट्रवा गर्भभरालसा निजव, श्वश्रूश्चिरं रोदिति ॥ २५५ ॥'
ततः कृपावारिधिः क्षोणीपालस्तस्यै लक्षं ददौ। ....... --