"महाभारतम्-01-आदिपर्व-082" इत्यस्य संस्करणे भेदः

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पङ्क्तिः १०:
{{महाभारतम्}}
स्वर्गतो ययातेः पतनं। अष्टकप्रश्नश्च।। 1 ।।<table>
<tr><td>
<tr><td><p> <B>इन्द्र उवाच।</B> <td> 1-82-1x </p></tr>
 
'''इन्द्र उवाच।''' <td> 1-82-1x
<tr><td><p> सर्वाणि कर्माणि समाप्य राजन्<BR>गृहं परित्यज्य वनं गतोऽसि।<BR>तत्त्वां पृच्छामि नहुषस्य पुत्र<BR>केनासि तुल्यस्तपसा ययाते।। <td> 1-82-1a<BR>1-82-1b<BR>1-82-1c<BR>1-82-1d </p></tr>
 
<tr><td><p> <B>ययातिरुवाच।</B> <td> 1-82-2x </p></tr>
</tr>
 
<tr><td>
 
सर्वाणि कर्माणि समाप्य राजन्<BR>गृहं परित्यज्य वनं गतोऽसि।<BR>तत्त्वां पृच्छामि नहुषस्य पुत्र<BR>केनासि तुल्यस्तपसा ययाते।। <td> 1-82-1a<BR>1-82-1b<BR>1-82-1c<BR>1-82-1d
 
</tr>
<tr><td>
 
'''ययातिरुवाच।''' <td> 1-82-2x
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> नाहं देवमनुष्येषु गन्धर्वेषु महर्षिषु।<BR>आत्मनस्तपसा तुल्यं कंचित्पश्यामि वासव।। <td> 1-82-2a<BR>1-82-2b </p></tr>
<tr><td><p> <B>इन्द्र उवाच।</B> <td> 1-82-3x </p></tr>
 
नाहं देवमनुष्येषु गन्धर्वेषु महर्षिषु।<BR>आत्मनस्तपसा तुल्यं कंचित्पश्यामि वासव।। <td> 1-82-2a<BR>1-82-2b
<tr><td><p> यदाऽवमंस्थाः सदृशः श्रेयसश्च अल्पीयसश्चाविदितप्रभावः।<BR>तस्माल्लोकास्त्वन्तवन्तस्तवे मे<BR>क्षीणे पुण्ये पतिताऽस्यद्य राजन्।। <td> 1-82-3a<BR>1-82-3b<BR>1-82-3c<BR>1-82-3d </p></tr>
<tr><td><p> <B>ययातिरुवाच।</B> <td> 1-82-4x </p></tr>
 
</tr>
<tr><td><p> सुरर्षिगन्धर्वनरावमाना-<BR>त्क्षयं गता मे यदि शक्रलोकाः।<BR>इच्छाम्यहं सुरलोकाद्विहीनः<BR>सतां मध्ये पतितुं देवराज।। <td> 1-82-4a<BR>1-82-4b<BR>1-82-4c<BR>1-82-4d </p></tr>
<tr><td>
<tr><td><p> <B>इन्द्र उवाच।</B> <td> 1-82-5x </p></tr>
 
'''इन्द्र उवाच।''' <td> 1-82-3x
<tr><td><p> सतां सकाशे पतिताऽसि राजं-<BR>श्च्युतः प्रतिष्ठां यत्र लब्धासि भूयः।<BR>एतद्विदित्वा च पुनर्ययाते<BR>त्वं माऽवमंस्थाः सदृशः श्रेयसश्च।। <td> 1-82-5a<BR>1-82-5b<BR>1-82-5c<BR>1-82-5d </p></tr>
<tr><td><p> <B>वैशंपायन उवाच।</B> <td> 1-82-6x </p></tr>
 
</tr>
<tr><td><p> ततः प्रहायामरराजजुष्टा-<BR>न्पुण्याँल्लोकान्पतमानं ययातिम्।<BR>संप्रेक्ष्य राजर्षिवरोऽष्टकस्त-<BR>मुवाच सद्धर्मविधानगोप्ता।। <td> 1-82-6a<BR>1-82-6b<BR>1-82-6c<BR>1-82-6d </p></tr>
<tr><td><p> <B>अष्टक उवाच।</B> <td> 1-82-7x </p></tr>
 
<tr><td>
<tr><td><p> कस्त्वं युवा वासवतुल्यरूपः<BR>स्वतेजसा दीप्यमानो यथाऽग्निः।<BR>पतस्युदीर्णाम्बुधरान्धकारा-<BR>त्खात्खेचराणां प्रवरो यथाऽर्कः।। <td> 1-82-7a<BR>1-82-7b<BR>1-82-7c<BR>1-82-7d </p></tr>
 
यदाऽवमंस्थाः सदृशः श्रेयसश्च अल्पीयसश्चाविदितप्रभावः।<BR>तस्माल्लोकास्त्वन्तवन्तस्तवे मे<BR>क्षीणे पुण्ये पतिताऽस्यद्य राजन्।। <td> 1-82-3a<BR>1-82-3b<BR>1-82-3c<BR>1-82-3d
<tr><td><p> दृष्ट्वा च त्वां सूर्यपथात्पतन्तं<BR>वैश्वानरार्कद्युतिमप्रमेयम्।<BR>किं नु स्विदेतत्पततीति सर्वे<BR>वितर्कयन्तः परिमोहिताः स्मः।। <td> 1-82-8a<BR>1-82-8b<BR>1-82-8c<BR>1-82-8d </p></tr>
 
</tr>
<tr><td><p> दृष्ट्वा च त्वां धिष्ठितं देवमार्गे<BR>शक्रार्कविष्णुप्रतिमप्रभावम्।<BR>अभ्युद्गतास्त्वां वयमद्य सर्वे<BR>तत्त्वं प्रपाते तव जिज्ञासमानाः।। <td> 1-82-9a<BR>1-82-9b<BR>1-82-9c<BR>1-82-9d </p></tr>
<tr><td>
 
'''ययातिरुवाच।''' <td> 1-82-4x
<tr><td><p> न चापि त्वां धृष्णुमः प्रष्टुमग्रे<BR>न च त्वमस्मान्पृच्छसि ये वयं स्मः।<BR>तत्त्वां पृच्छामि स्पृहणीयरूप<BR>कस्य त्वं वा किंनिमित्तं त्वमागाः।। <td> 1-82-10a<BR>1-82-10b<BR>1-82-10c<BR>1-82-10d </p></tr>
 
</tr>
<tr><td><p> भयं तु ते व्येतु विषादमोहौ<BR>त्यजाशु चैवेन्द्रसमप्रभाव।<BR>त्वां वर्तमानं हि सतां सकाशे<BR>नालं प्रसोढुं बलहाऽपि शक्रः।। <td> 1-82-11a<BR>1-82-11b<BR>1-82-11c<BR>1-82-11d </p></tr>
 
<tr><td>
<tr><td><p> सन्तः प्रतिष्ठा हि सुखच्युतानां<BR>सतां सदैवामरराजकल्प।<BR>ते सङ्गताः स्थावरजङ्गमेशाः<BR>प्रतिष्ठितस्त्वं सदृशेषु सत्सु।। <td> 1-82-12a<BR>1-82-12b<BR>1-82-12c<BR>1-82-12d </p></tr>
 
सुरर्षिगन्धर्वनरावमाना-<BR>त्क्षयं गता मे यदि शक्रलोकाः।<BR>इच्छाम्यहं सुरलोकाद्विहीनः<BR>सतां मध्ये पतितुं देवराज।। <td> 1-82-4a<BR>1-82-4b<BR>1-82-4c<BR>1-82-4d
 
</tr>
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'''इन्द्र उवाच।''' <td> 1-82-5x
 
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सतां सकाशे पतिताऽसि राजं-<BR>श्च्युतः प्रतिष्ठां यत्र लब्धासि भूयः।<BR>एतद्विदित्वा च पुनर्ययाते<BR>त्वं माऽवमंस्थाः सदृशः श्रेयसश्च।। <td> 1-82-5a<BR>1-82-5b<BR>1-82-5c<BR>1-82-5d
 
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'''वैशंपायन उवाच।''' <td> 1-82-6x
 
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ततः प्रहायामरराजजुष्टा-<BR>न्पुण्याँल्लोकान्पतमानं ययातिम्।<BR>संप्रेक्ष्य राजर्षिवरोऽष्टकस्त-<BR>मुवाच सद्धर्मविधानगोप्ता।। <td> 1-82-6a<BR>1-82-6b<BR>1-82-6c<BR>1-82-6d
 
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'''अष्टक उवाच।''' <td> 1-82-7x
 
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कस्त्वं युवा वासवतुल्यरूपः<BR>स्वतेजसा दीप्यमानो यथाऽग्निः।<BR>पतस्युदीर्णाम्बुधरान्धकारा-<BR>त्खात्खेचराणां प्रवरो यथाऽर्कः।। <td> 1-82-7a<BR>1-82-7b<BR>1-82-7c<BR>1-82-7d
 
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दृष्ट्वा च त्वां सूर्यपथात्पतन्तं<BR>वैश्वानरार्कद्युतिमप्रमेयम्।<BR>किं नु स्विदेतत्पततीति सर्वे<BR>वितर्कयन्तः परिमोहिताः स्मः।। <td> 1-82-8a<BR>1-82-8b<BR>1-82-8c<BR>1-82-8d
 
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दृष्ट्वा च त्वां धिष्ठितं देवमार्गे<BR>शक्रार्कविष्णुप्रतिमप्रभावम्।<BR>अभ्युद्गतास्त्वां वयमद्य सर्वे<BR>तत्त्वं प्रपाते तव जिज्ञासमानाः।। <td> 1-82-9a<BR>1-82-9b<BR>1-82-9c<BR>1-82-9d
 
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न चापि त्वां धृष्णुमः प्रष्टुमग्रे<BR>न च त्वमस्मान्पृच्छसि ये वयं स्मः।<BR>तत्त्वां पृच्छामि स्पृहणीयरूप<BR>कस्य त्वं वा किंनिमित्तं त्वमागाः।। <td> 1-82-10a<BR>1-82-10b<BR>1-82-10c<BR>1-82-10d
 
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भयं तु ते व्येतु विषादमोहौ<BR>त्यजाशु चैवेन्द्रसमप्रभाव।<BR>त्वां वर्तमानं हि सतां सकाशे<BR>नालं प्रसोढुं बलहाऽपि शक्रः।। <td> 1-82-11a<BR>1-82-11b<BR>1-82-11c<BR>1-82-11d
 
</tr>
 
<tr><td>
 
सन्तः प्रतिष्ठा हि सुखच्युतानां<BR>सतां सदैवामरराजकल्प।<BR>ते सङ्गताः स्थावरजङ्गमेशाः<BR>प्रतिष्ठितस्त्वं सदृशेषु सत्सु।। <td> 1-82-12a<BR>1-82-12b<BR>1-82-12c<BR>1-82-12d
 
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<tr><td>
<tr><td><p> प्रभुरग्निः प्रतपने भूमिरावपने प्रभुः।<BR>प्रभुः सूर्यः प्रकाशित्वे सतां चाभ्यागतः प्रभुः।। <td> 1-82-13a<BR>1-82-13b </p></tr>
 
<tr><td><p> ।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि <BR>संभवपर्वणि द्व्यशीतितमोऽध्यायः।। 82 ।। <td> </p></tr></table>
प्रभुरग्निः प्रतपने भूमिरावपने प्रभुः।<BR>प्रभुः सूर्यः प्रकाशित्वे सतां चाभ्यागतः प्रभुः।। <td> 1-82-13a<BR>1-82-13b
 
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।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि <BR>संभवपर्वणि द्व्यशीतितमोऽध्यायः।। 82 ।। <td>
 
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1-82-3 अवमंस्थाः सर्वेभ्य आत्मन आधिक्योक्त्या। सदृशः सदृशान्।।
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