"महाभारतम्-01-आदिपर्व-206" इत्यस्य संस्करणे भेदः
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पङ्क्तिः १५:
कुलालशालांप्रति श्रीकृष्णस्यागमनम्।। 5 ।।
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'''वैशंपायन उवाच।''' <td> 1-206-1x
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गत्वा तु तां भार्गवकर्मशालां<BR>पार्थौ पृथां प्राप्य महानुभावौ।<BR>तां याज्ञसेनीं परमप्रतीतौ<BR>भिक्षेत्यथावेदयतां नराग्र्यौ।। <td> 1-206-1a<BR>1-206-1b<BR>1-206-1c<BR>1-206-1d
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कुटीगता सा त्वनवेक्ष्य पुत्रौ<BR>प्रोवाच भुङ्क्तेति समेत्य सर्वे।<BR>पश्चाच्च कुन्ती प्रसमीक्ष्य कृष्णां<BR>कष्टं मया भाषितमित्युवाच।। <td> 1-206-2a<BR>1-206-2b<BR>1-206-2c<BR>1-206-2d
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साऽधर्मभीता परिचिन्तयन्ती<BR>तां याज्ञसेनीं परमप्रतीताम्।<BR>पाणौ गृहीत्वोपजगाम कुन्ती<BR>युधिष्ठिरं वाक्यमुवाच चेदम्।। <td> 1-206-3a<BR>1-206-3b<BR>1-206-3c<BR>1-206-3d
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'''कुन्त्युवाच।''' <td> 1-206-4x
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इयं तु कन्या द्रुपदस्य राज्ञ-<BR>स्तवानुजाभ्यां मयि संनिसृष्टा।<BR>यथोचितं पुत्र मयाऽपि चोक्तं<BR>समेत्य भुङ्क्तेति नृप प्रमादात्।। <td> 1-206-4a<BR>1-206-4b<BR>1-206-4c<BR>1-206-4d
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मया कथं नानृतमुक्तमद्य<BR>भवेत्कुरूणामृषभ ब्रवीहि।<BR>पञ्चालराजस्य सुतामधर्मो<BR>न चोपवर्तेत न विभ्रमेच्च।। <td> 1-206-5a<BR>1-206-5b<BR>1-206-5c<BR>1-206-5d
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'''वैशंपायन उवाच।''' <td> 1-206-6x
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स एवमुक्तो मतिमान्नृवीरो<BR>मात्रा मुहूर्तं तु विचिन्त्य राजा।<BR>कुन्तीं समाश्वास्य कुरुप्रवीरो<BR>धनञ्जयं वाक्यमिदं बभाषे।। <td> 1-206-6a<BR>1-206-6b<BR>1-206-6c<BR>1-206-6d
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त्वया जिता फाल्गुन याज्ञसेनी<BR>त्वयैव शोभिष्यति राजपुत्री।<BR>प्रज्वाल्यतामग्निरमित्रसाह<BR>गृहाण पाणिं विधिवत्त्वमस्याः।। <td> 1-206-7a<BR>1-206-7b<BR>1-206-7c<BR>1-206-7d
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'''अर्जुन उवाच।''' <td> 1-206-8x
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मा मां नरेन्द्र त्वमधर्मभाजं<BR>कृथा न धर्मोऽयमशिष्टदृष्टः।<BR>भवान्निवेश्यः प्रथमं ततोऽयं<BR>भीमो महाबाहुरचिन्त्यकर्मा।। <td> 1-206-8a<BR>1-206-8b<BR>1-206-8c<BR>1-206-8d
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अहं ततो नकुलोऽनन्तरं मे<BR>पश्चादयं सहदेवस्तरस्वी।<BR>वृकोदरोऽहं च यमौ च राज-<BR>न्नियं च कन्या भवतो नियोज्याः।। <td> 1-206-9a<BR>1-206-9b<BR>1-206-9c<BR>1-206-9d
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एवं गते यत्करणीयमत्र<BR>धर्म्यं यशस्यं कुरु तद्विचिन्त्य।<BR>पाञ्चालराजस्य हितं च यत्स्या-<BR>त्प्रशाधि सर्वे स्म वशे स्थितास्ते।। <td> 1-206-10a<BR>1-206-10b<BR>1-206-10c<BR>1-206-10d
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'''वैशंपायन उवाच।''' <td> 1-206-11x
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जिष्णोर्वचनमाज्ञाय भक्तिस्नेहसमन्वितम्।<BR>दृष्टिं निवेशयामासुः पाञ्चाल्यां पाण्डुनन्दनाः।। <td> 1-206-11a<BR>1-206-11b
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दृष्ट्वा ते तत्र पश्यन्तीं सर्वे कृष्णां यशस्विनीम्।<BR>संप्रेक्ष्यान्योन्यमासीना हृदयैस्तामधारयन्।। <td> 1-206-12a<BR>1-206-12b
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तेषां तु द्रौपदीं दृष्ट्वा सर्वेषाममितौजसाम्।<BR>संप्रमथ्येन्द्रियग्रामं प्रादुरासीन्मनोभवः।। <td> 1-206-13a<BR>1-206-13b
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काम्यं हि रूपं पाञ्चाल्या विधात्रा विहितं स्वयम्।<BR>बभूवाधिकमन्याभ्यः सर्वभूतमनोहरम्।। <td> 1-206-14a<BR>1-206-14b
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तेषामाकारभावज्ञः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।<BR>द्वैपायनवचः कृत्स्नं सस्मार मनुजर्षभः।। <td> 1-206-15a<BR>1-206-15b
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अब्रवीत्सहितान्भ्रातॄन्मिथो भेदभयान्नृपः।<BR>सर्वेषां द्रौपदी भार्या भविष्यति हि नः शुभा।। <td> 1-206-16a<BR>1-206-16b
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'''`जनमेजय उवाच।''' <td> 1-206-17x
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सताऽपि शक्तेन च केशवेन<BR>सज्यं धनुस्तन्न कृतं किमर्थम्।<BR>विद्धं च लक्ष्यं न च कस्य हेतो-<BR>राचक्ष्व तन्मे द्विपदां वरिष्ठ।। <td> 1-206-17a<BR>1-206-17b<BR>1-206-17c<BR>1-206-17d
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'''वैशंपायन उवाच।''' <td> 1-206-18x
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शक्तेन कृष्णेन च कार्मुकं त-<BR>न्नारोपितं ज्ञातुकामेन पार्थान्।<BR>परिश्रवादेव बभूव लोके<BR>जीवन्ति पार्था इति निश्चयोऽस्य।। <td> 1-206-18a<BR>1-206-18b<BR>1-206-18c<BR>1-206-18d
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अन्यानशक्तान्नृपतीन्समीक्ष्य<BR>स्वयंवरे कार्मुकेणोत्तमेन।<BR>धनञ्जयस्तद्धनुरेकवीरः<BR>सज्यं करोतीत्यभिवीक्ष्य कृष्णः।। <td> 1-206-19a<BR>1-206-19b<BR>1-206-19c<BR>1-206-19d
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इति स्वयं वासुदेवो विचिन्त्य<BR>पार्थान्विवित्सन्विविधैरुपायैः।<BR>न तद्धनुः सज्यमियेप कर्तुं<BR>बभूवुरस्येष्टतमा हि पार्थाः।।' <td> 1-206-20a<BR>1-206-20b<BR>1-206-20c<BR>1-206-20d
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भ्रातुर्वचस्तत्प्रसमीक्ष्य सर्वे<BR>ज्येष्ठस्य पाण्डोस्तनयास्तदानीम्।<BR>तमेवार्थं ध्यायमाना मनोभिः<BR>सर्वे च ते तस्थुरदीनसत्वाः।। <td> 1-206-21a<BR>1-206-21b<BR>1-206-21c<BR>1-206-21d
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वृष्णिप्रवीरस्तु कुरुप्रवीरा-<BR>नाशंसमानः सहरौहिणेयः।<BR>जगाम तां भार्गवकर्मशालां<BR>यत्रासते ते पुरुषप्रवीराः।। <td> 1-206-22a<BR>1-206-22b<BR>1-206-22c<BR>1-206-22d
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तत्रोपविष्टं पृथुदीर्घबाहुं<BR>ददर्श कृष्णः सहरौहिणेयः।<BR>अजातशत्रुं परिवार्य तांश्चा-<BR>प्युपोपविष्टाञ्ज्वलनप्रकाशान्।। <td> 1-206-23a<BR>1-206-23b<BR>1-206-23c<BR>1-206-23d
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ततोऽब्रवीद्वासुदेवोऽभिगम्य<BR>कुन्तीसुतं धर्मभृतां वरिष्ठम्।<BR>कृष्णोऽहमस्मीति निपीड्य पादौ<BR>युधिष्ठिरस्याजमीढस्य राज्ञः।। <td> 1-206-24a<BR>1-206-24b<BR>1-206-24c<BR>1-206-24d
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तथैव तस्याप्यनु रौहिणेय-<BR>स्तौ चापि हृष्टाः कुरवोऽभ्यनन्दन।<BR>पितृष्वसुश्चापि यदुप्रवीरा-<BR>वगृह्णतां भारतमुख्य पादौ।। <td> 1-206-25a<BR>1-206-25b<BR>1-206-25c<BR>1-206-25d
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अजातशत्रुश्च कुरुप्रवीरः<BR>पप्रच्छ कृष्णं कुशलं विलोक्य।<BR>कथं वयं वासुदेव त्वयेह<BR>गूढा वसन्तो विदिताश्च सर्वे।। <td> 1-206-26a<BR>1-206-26b<BR>1-206-26c<BR>1-206-26d
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तमब्रवीद्वासुदेवः प्रहस्य<BR>गूढोऽप्यग्निर्ज्ञायत एव राजन्।<BR>तं विक्रमं पाण्डवेयानतीत्य<BR>कोऽन्यः कर्ता विद्यते मानुषेषु।। <td> 1-206-27a<BR>1-206-27b<BR>1-206-27c<BR>1-206-27d
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दिष्ट्या सर्वे पावकाद्विप्रमुक्ता<BR>यूयं घोरात्पाण्डवाः शत्रुसाहाः।<BR>दिष्ट्या पापो धृतराष्ट्रस्य पुत्रः<BR>सहामात्यो न सकामोऽभविष्यत्।। <td> 1-206-28a<BR>1-206-28b<BR>1-206-28c<BR>1-206-28d
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भद्रं वोऽस्तु निहितं यद्गुहायां<br>विवर्धध्वं ज्वलना इवैधमानाः।<br>मा वो विद्युः पार्थिवाः केचिदेव<br>यास्यावहे शिबिरायैव तावत्।<br>सोऽनुज्ञातः पाण्डवेनाव्ययश्रीः<br> प्रायाच्छीघ्रं बलदेवेन सार्धम्।। <td>1-206-29a<br>1-206-29b<br>1-206-29c<br>1-206-29d<br>1-206-29e<br> 1-206-29f
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।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि <br> स्वयंवरपर्वणि षडधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 206 ।। <td>
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1-206-12 दृष्ट्वा ते तत्र तिष्ठन्ती इति ङ. पाठः।।
1-206-29 यद्भद्रं गुहायां बुद्धौ वो निहितं तद्वोस्तु।।
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