"महाभारतम्-01-आदिपर्व-244" इत्यस्य संस्करणे भेदः

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पङ्क्तिः १४:
बलस्य क्रोधः।। 4 ।।
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<tr><td>
<tr><td><p> <B>वैशंपायन उवाच।</B> <td> 1-244-1x </p></tr>
 
'''वैशंपायन उवाच।''' <td> 1-244-1x
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> शासनात्पुरुषेन्द्रस्य बलेन महता बली।<BR>गिरौ रैवतके नित्यं बभूव विपृथुश्रवाः।। <td> 1-244-1a<BR>1-244-1b </p></tr>
 
शासनात्पुरुषेन्द्रस्य बलेन महता बली।<BR>गिरौ रैवतके नित्यं बभूव विपृथुश्रवाः।। <td> 1-244-1a<BR>1-244-1b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> प्रवासे वासुदेवस्य तस्मिन्हलधरोपमः।<BR>संबभूव तदा गोप्ता पुरस्य पुरवर्धनः।। <td> 1-244-2a<BR>1-244-2b </p></tr>
 
प्रवासे वासुदेवस्य तस्मिन्हलधरोपमः।<BR>संबभूव तदा गोप्ता पुरस्य पुरवर्धनः।। <td> 1-244-2a<BR>1-244-2b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> प्राप्य पाण्डवनिर्याणं निर्ययौ विपृथुश्रवाः।<BR>निशम्य पुरनिर्घोषं स्वमनीकमचोदयत्।। <td> 1-244-3a<BR>1-244-3b </p></tr>
 
प्राप्य पाण्डवनिर्याणं निर्ययौ विपृथुश्रवाः।<BR>निशम्य पुरनिर्घोषं स्वमनीकमचोदयत्।। <td> 1-244-3a<BR>1-244-3b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> सोऽभिपत्य तदाध्वानं ददर्श पुरुषर्षभम्।<BR>निःसृतं द्वारकाद्वारादंशुमन्तमिवाम्बिरात्।। <td> 1-244-4a<BR>1-244-4b </p></tr>
 
सोऽभिपत्य तदाध्वानं ददर्श पुरुषर्षभम्।<BR>निःसृतं द्वारकाद्वारादंशुमन्तमिवाम्बिरात्।। <td> 1-244-4a<BR>1-244-4b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> सविद्युतमिवाम्भोदं प्रेक्षतां तं धनुर्धरम्।<BR>पार्थमानर्तयोधानां विस्मयः समपद्यत।। <td> 1-244-5a<BR>1-244-5b </p></tr>
 
सविद्युतमिवाम्भोदं प्रेक्षतां तं धनुर्धरम्।<BR>पार्थमानर्तयोधानां विस्मयः समपद्यत।। <td> 1-244-5a<BR>1-244-5b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> उदीर्णरथनागाश्वमनीकमभिवीक्ष्य तत्।<BR>उवाच परमप्रीता सुभद्रा भद्रभाषिणी।। <td> 1-244-6a<BR>1-244-6b </p></tr>
 
उदीर्णरथनागाश्वमनीकमभिवीक्ष्य तत्।<BR>उवाच परमप्रीता सुभद्रा भद्रभाषिणी।। <td> 1-244-6a<BR>1-244-6b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> संग्रहीतुमभिप्रायो दीर्घकालकृतो मम।<BR>युध्यमानस्य सङ्ग्रामे रथं तव नरर्षभ।। <td> 1-244-7a<BR>1-244-7b </p></tr>
 
संग्रहीतुमभिप्रायो दीर्घकालकृतो मम।<BR>युध्यमानस्य सङ्ग्रामे रथं तव नरर्षभ।। <td> 1-244-7a<BR>1-244-7b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> ओजस्तेजोद्युतिबलैरन्वितस्य महात्मनः।<BR>पार्थ ते सारथित्वेन भविता शिक्षितास्म्यहम्।। <td> 1-244-8a<BR>1-244-8b </p></tr>
 
ओजस्तेजोद्युतिबलैरन्वितस्य महात्मनः।<BR>पार्थ ते सारथित्वेन भविता शिक्षितास्म्यहम्।। <td> 1-244-8a<BR>1-244-8b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> एवमुक्तः प्रियां प्रीतः प्रत्युवाच नरर्षभः।<BR>चोदयाश्वानसंसक्तान्विश्तु विपृथोर्बलम्।। <td> 1-244-9a<BR>1-244-9b </p></tr>
 
एवमुक्तः प्रियां प्रीतः प्रत्युवाच नरर्षभः।<BR>चोदयाश्वानसंसक्तान्विश्तु विपृथोर्बलम्।। <td> 1-244-9a<BR>1-244-9b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> बहुभिर्युध्यमानस्य तावकान्विजिघांसतः।<BR>पश्य बाहुबलं भद्रे शरान्विक्षिपतो मम।। <td> 1-244-10a<BR>1-244-10b </p></tr>
 
<tr><td><p> <B>वैशंपायन उवाच।</B> <td> 1-244-11x </p></tr>
बहुभिर्युध्यमानस्य तावकान्विजिघांसतः।<BR>पश्य बाहुबलं भद्रे शरान्विक्षिपतो मम।। <td> 1-244-10a<BR>1-244-10b
 
</tr>
<tr><td>
 
'''वैशंपायन उवाच।''' <td> 1-244-11x
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> एवमुक्ता तदा भद्रा पार्थेन भरतर्षभ।<BR>चुचोद साश्वान्संहृष्टा ते ततो विविशुर्बलम्।। <td> 1-244-11a<BR>1-244-11b </p></tr>
 
एवमुक्ता तदा भद्रा पार्थेन भरतर्षभ।<BR>चुचोद साश्वान्संहृष्टा ते ततो विविशुर्बलम्।। <td> 1-244-11a<BR>1-244-11b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> तदाहतमहावाद्यं समुदग्रध्वजायुतम्।<BR>अनीकं विपृथोर्हृष्टं पार्थमेवान्ववर्तत।। <td> 1-244-12a<BR>1-244-12b </p></tr>
 
तदाहतमहावाद्यं समुदग्रध्वजायुतम्।<BR>अनीकं विपृथोर्हृष्टं पार्थमेवान्ववर्तत।। <td> 1-244-12a<BR>1-244-12b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> रथैर्बहुविधाकारैः सदश्वैश्च महाजवैः।<BR>किरन्तः शरवर्षाणि परिवव्रुर्धनञ्जयम्।। <td> 1-244-13a<BR>1-244-13b </p></tr>
 
रथैर्बहुविधाकारैः सदश्वैश्च महाजवैः।<BR>किरन्तः शरवर्षाणि परिवव्रुर्धनञ्जयम्।। <td> 1-244-13a<BR>1-244-13b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> तेषामस्त्राणि संवार्य दिव्यास्त्रेण महास्त्रवित्।<BR>आवृणोन्महदाकाशं शरैः परपुरञ्जयः।। <td> 1-244-14a<BR>1-244-14b </p></tr>
 
तेषामस्त्राणि संवार्य दिव्यास्त्रेण महास्त्रवित्।<BR>आवृणोन्महदाकाशं शरैः परपुरञ्जयः।। <td> 1-244-14a<BR>1-244-14b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> तेषां बाणान्महाबाहुर्मुकुटान्यङ्गदानि च।<BR>चिच्छेद निशितैर्बाणैः शरांश्चैव धनूंषि च।। <td> 1-244-15a<BR>1-244-15b </p></tr>
 
तेषां बाणान्महाबाहुर्मुकुटान्यङ्गदानि च।<BR>चिच्छेद निशितैर्बाणैः शरांश्चैव धनूंषि च।। <td> 1-244-15a<BR>1-244-15b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> युगानीषान्वरूथानि यन्त्राणि विविधानि च।<BR>अजिघांसन्परान्पार्थश्चिच्छेद निशितैः शरैः।। <td> 1-244-16a<BR>1-244-16b </p></tr>
 
युगानीषान्वरूथानि यन्त्राणि विविधानि च।<BR>अजिघांसन्परान्पार्थश्चिच्छेद निशितैः शरैः।। <td> 1-244-16a<BR>1-244-16b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> विधनुष्कान्विकवचान्विरथांश्च महारथान्।<BR>कृत्वा पार्थः प्रियां प्रीतः प्रेक्ष्यतामित्यदर्शयत्।। <td> 1-244-17a<BR>1-244-17b </p></tr>
 
विधनुष्कान्विकवचान्विरथांश्च महारथान्।<BR>कृत्वा पार्थः प्रियां प्रीतः प्रेक्ष्यतामित्यदर्शयत्।। <td> 1-244-17a<BR>1-244-17b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> सा दृष्ट्वा महदाश्चर्यं सुभद्रा पार्थमब्रवीत्।<BR>अवाप्तार्थाऽस्मि भद्रं ते याहि पार्थ यथासुखम्।। <td> 1-244-18a<BR>1-244-18b </p></tr>
 
सा दृष्ट्वा महदाश्चर्यं सुभद्रा पार्थमब्रवीत्।<BR>अवाप्तार्थाऽस्मि भद्रं ते याहि पार्थ यथासुखम्।। <td> 1-244-18a<BR>1-244-18b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> स सक्तं पाण्डुपुत्रेण समीक्ष्य विपृथुर्बलम्।<BR>त्वरमाणोऽभिसंक्रम्य स्थीयतामित्यभाषत।। <td> 1-244-19a<BR>1-244-19b </p></tr>
 
स सक्तं पाण्डुपुत्रेण समीक्ष्य विपृथुर्बलम्।<BR>त्वरमाणोऽभिसंक्रम्य स्थीयतामित्यभाषत।। <td> 1-244-19a<BR>1-244-19b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> ततः सेनापतेर्वाक्यं नात्यवर्तन्त यादवाः।<BR>सागरे मारुतोद्धूता वेलामिव महोर्मयः।। <td> 1-244-20a<BR>1-244-20b </p></tr>
 
ततः सेनापतेर्वाक्यं नात्यवर्तन्त यादवाः।<BR>सागरे मारुतोद्धूता वेलामिव महोर्मयः।। <td> 1-244-20a<BR>1-244-20b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> ततो रथवरात्तूर्णमवरुह्य नरर्षभः।<BR>अभिगम्य नरव्याघ्रं प्रहृष्टः परिषस्वजे।। <td> 1-244-21a<BR>1-244-21b </p></tr>
 
ततो रथवरात्तूर्णमवरुह्य नरर्षभः।<BR>अभिगम्य नरव्याघ्रं प्रहृष्टः परिषस्वजे।। <td> 1-244-21a<BR>1-244-21b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> सोऽब्रवीत्पार्थमासाद्य दीर्घकालमिदं तव।<BR>निवासमभिजानामि शङ्खचक्रगदाधरात्।। <td> 1-244-22a<BR>1-244-22b </p></tr>
 
सोऽब्रवीत्पार्थमासाद्य दीर्घकालमिदं तव।<BR>निवासमभिजानामि शङ्खचक्रगदाधरात्।। <td> 1-244-22a<BR>1-244-22b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> न मेऽस्त्यविदितं किंचिद्यद्यदाचितं त्वया।<BR>सुभद्रार्थं प्रलोभेन प्रीतस्तव जनार्दनः।। <td> 1-244-23a<BR>1-244-23b </p></tr>
 
न मेऽस्त्यविदितं किंचिद्यद्यदाचितं त्वया।<BR>सुभद्रार्थं प्रलोभेन प्रीतस्तव जनार्दनः।। <td> 1-244-23a<BR>1-244-23b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> प्राप्तस्य यतिलिङ्गेन वासितस्य धनञ्जय।<BR>बन्धुमानसि रामेण महेन्द्रावरजेन च।। <td> 1-244-24a<BR>1-244-24b </p></tr>
 
प्राप्तस्य यतिलिङ्गेन वासितस्य धनञ्जय।<BR>बन्धुमानसि रामेण महेन्द्रावरजेन च।। <td> 1-244-24a<BR>1-244-24b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> मामेव च सदाकाङ्क्षी मन्त्रिणं मधुसूदनः।<BR>अन्तरेण सुभद्रां च त्वां च तात धनञ्जय।। <td> 1-244-25a<BR>1-244-25b </p></tr>
 
मामेव च सदाकाङ्क्षी मन्त्रिणं मधुसूदनः।<BR>अन्तरेण सुभद्रां च त्वां च तात धनञ्जय।। <td> 1-244-25a<BR>1-244-25b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> इमं रथवरं दिव्यं सर्वशस्त्रसमन्वितम्।<BR>इदमेवानुयात्रं च निर्दिश्य गदपूर्वजः।। <td> 1-244-26a<BR>1-244-26b </p></tr>
 
इमं रथवरं दिव्यं सर्वशस्त्रसमन्वितम्।<BR>इदमेवानुयात्रं च निर्दिश्य गदपूर्वजः।। <td> 1-244-26a<BR>1-244-26b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> अन्तर्द्वीपं तदा वीर गतो वृष्णिसुखावहः।<BR>दीर्घकालावरुद्धं त्वां संप्राप्तं प्रियया सह।। <td> 1-244-27a<BR>1-244-27b </p></tr>
 
अन्तर्द्वीपं तदा वीर गतो वृष्णिसुखावहः।<BR>दीर्घकालावरुद्धं त्वां संप्राप्तं प्रियया सह।। <td> 1-244-27a<BR>1-244-27b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> पश्यन्तु भ्रातरः सर्वे वज्रपाणिमिवामराः।<BR>आयाते तु दशार्हाणामृषभे शार्ङ्गधन्वनि।। <td> 1-244-28a<BR>1-244-28b </p></tr>
 
पश्यन्तु भ्रातरः सर्वे वज्रपाणिमिवामराः।<BR>आयाते तु दशार्हाणामृषभे शार्ङ्गधन्वनि।। <td> 1-244-28a<BR>1-244-28b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> भद्रामनुगमिष्यन्ति रत्नानि च वसूनि च।<BR>अरिष्टं याहि पन्थानं सुखी भव धनञ्जय।। <td> 1-244-29a<BR>1-244-29b </p></tr>
 
<tr><td><p> नष्टशोकैर्विशोकस्य सुहृद्भिः संगमोऽस्तु ते।। <td> 1-244-30a </p></tr>
भद्रामनुगमिष्यन्ति रत्नानि च वसूनि च।<BR>अरिष्टं याहि पन्थानं सुखी भव धनञ्जय।। <td> 1-244-29a<BR>1-244-29b
<tr><td><p> <B>वैशंपायन उवाच।</B> <td> 1-244-31x </p></tr>
 
</tr>
<tr><td>
 
नष्टशोकैर्विशोकस्य सुहृद्भिः संगमोऽस्तु ते।। <td> 1-244-30a
 
</tr>
<tr><td>
 
'''वैशंपायन उवाच।''' <td> 1-244-31x
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> ततो विपृथुमामन्त्र्य पार्थः प्रीतोऽभिवाद्य च।<BR>कृष्णस्य मतमास्थाय कृष्णस्य रथमास्थितः।। <td> 1-244-31a<BR>1-244-31b </p></tr>
 
ततो विपृथुमामन्त्र्य पार्थः प्रीतोऽभिवाद्य च।<BR>कृष्णस्य मतमास्थाय कृष्णस्य रथमास्थितः।। <td> 1-244-31a<BR>1-244-31b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> पूर्वमेव तु पार्थाय कृष्णेन विनियोजितम्।<BR>सर्वरत्नसुसंपूर्णं सर्वभोगसमन्वितम्।। <td> 1-244-32a<BR>1-244-32b </p></tr>
 
पूर्वमेव तु पार्थाय कृष्णेन विनियोजितम्।<BR>सर्वरत्नसुसंपूर्णं सर्वभोगसमन्वितम्।। <td> 1-244-32a<BR>1-244-32b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> रथेन काञ्चनाङ्गेन कल्पितेन यथाविधि।<BR>शैब्यसुग्रीवयुक्तेन किङ्किणीजालमालिना।। <td> 1-244-33a<BR>1-244-33b </p></tr>
 
रथेन काञ्चनाङ्गेन कल्पितेन यथाविधि।<BR>शैब्यसुग्रीवयुक्तेन किङ्किणीजालमालिना।। <td> 1-244-33a<BR>1-244-33b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> सर्वशस्त्रोपपन्नेन जीमूतरवनादिना।<BR>ज्वलनार्चिःप्रकाशेन द्विषतां हर्षनाशिना।। <td> 1-244-34a<BR>1-244-34b </p></tr>
 
सर्वशस्त्रोपपन्नेन जीमूतरवनादिना।<BR>ज्वलनार्चिःप्रकाशेन द्विषतां हर्षनाशिना।। <td> 1-244-34a<BR>1-244-34b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> सन्नद्धः कवची खड्गी बद्धगोधाङ्गुलित्रवान्।<BR>युक्तः सेनानुयात्रेण रथणारोप्य माधवीम्।<BR>रथेनाकाशगेनैव पययौ *स्वपुरं प्रति।। <td> 1-244-35a<BR>1-244-35b<BR>1-243-35c </p></tr>
 
सन्नद्धः कवची खड्गी बद्धगोधाङ्गुलित्रवान्।<BR>युक्तः सेनानुयात्रेण रथणारोप्य माधवीम्।<BR>रथेनाकाशगेनैव पययौ *स्वपुरं प्रति।। <td> 1-244-35a<BR>1-244-35b<BR>1-243-35c
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> ह्रियमाणां तु तां दृष्ट्वा सुभद्रां सैनिका जनाः।<BR>विक्रोशन्तोऽद्रवन्सर्वे द्वारकामभितः पुरीम्।। <td> 1-244-36a<BR>1-244-36b </p></tr>
 
ह्रियमाणां तु तां दृष्ट्वा सुभद्रां सैनिका जनाः।<BR>विक्रोशन्तोऽद्रवन्सर्वे द्वारकामभितः पुरीम्।। <td> 1-244-36a<BR>1-244-36b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> ते समासाद्य सहिताः सुधर्मामभितः सभाम्।<BR>सभापालस्य तत्सर्वमाचख्युः पार्थविक्रमम्।। <td> 1-244-37a<BR>1-244-37b </p></tr>
 
ते समासाद्य सहिताः सुधर्मामभितः सभाम्।<BR>सभापालस्य तत्सर्वमाचख्युः पार्थविक्रमम्।। <td> 1-244-37a<BR>1-244-37b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> तेषां श्रुत्वा सभापालो भेरीं सान्नाहिकीं ततः।<BR>समाजघ्ने महाघोषां जाम्बूनदपरिष्कृताम्।। <td> 1-244-38a<BR>1-244-38b </p></tr>
 
तेषां श्रुत्वा सभापालो भेरीं सान्नाहिकीं ततः।<BR>समाजघ्ने महाघोषां जाम्बूनदपरिष्कृताम्।। <td> 1-244-38a<BR>1-244-38b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> क्षुब्धास्तेनाथ शब्देन भोजवृष्ण्यन्धकास्तदा।<BR>`अन्तर्द्वीपात्समुत्पेतुः सहसा सहितास्तदा।'<BR>अन्नपानमपास्याथ समापेतुः समन्ततः।। <td> 1-244-39a<BR>1-244-39b<BR>1-243-39c </p></tr>
 
क्षुब्धास्तेनाथ शब्देन भोजवृष्ण्यन्धकास्तदा।<BR>`अन्तर्द्वीपात्समुत्पेतुः सहसा सहितास्तदा।'<BR>अन्नपानमपास्याथ समापेतुः समन्ततः।। <td> 1-244-39a<BR>1-244-39b<BR>1-243-39c
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> तत्र जाम्बूनदाङ्गानि स्पर्ध्यास्तरणवन्ति च।<BR>मणिविद्रुमचित्राणि ज्वलिताग्निप्रभाणि च।। <td> 1-244-40a<BR>1-244-40b </p></tr>
 
तत्र जाम्बूनदाङ्गानि स्पर्ध्यास्तरणवन्ति च।<BR>मणिविद्रुमचित्राणि ज्वलिताग्निप्रभाणि च।। <td> 1-244-40a<BR>1-244-40b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> भेजिरे पुरुषव्याघ्रा वृष्ण्यन्धकमहारथाः।<BR>सिंहासनानि शतशो धिष्ण्यानीव हुताशनाः।। <td> 1-244-41a<BR>1-244-41b </p></tr>
 
भेजिरे पुरुषव्याघ्रा वृष्ण्यन्धकमहारथाः।<BR>सिंहासनानि शतशो धिष्ण्यानीव हुताशनाः।। <td> 1-244-41a<BR>1-244-41b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> तेषां समुपविष्टानां देवानामिव सन्नये।<BR>आचख्यौ चेष्टितं जिष्णोः सभापालः सहानुगः।। <td> 1-244-42a<BR>1-244-42b </p></tr>
 
तेषां समुपविष्टानां देवानामिव सन्नये।<BR>आचख्यौ चेष्टितं जिष्णोः सभापालः सहानुगः।। <td> 1-244-42a<BR>1-244-42b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> तच्छ्रुत्वा वृष्णिवीरास्ते मदसंरक्तलोचनाः।<BR>अमृष्यमाणाः पार्थस्य समुत्पेतुरहङ्कृताः।। <td> 1-244-43a<BR>1-244-43b </p></tr>
 
तच्छ्रुत्वा वृष्णिवीरास्ते मदसंरक्तलोचनाः।<BR>अमृष्यमाणाः पार्थस्य समुत्पेतुरहङ्कृताः।। <td> 1-244-43a<BR>1-244-43b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> योजयध्वं रथानाशु प्रासानाहरतेति च।<BR>धनूंषि च महार्हाणि कवचानि बृहन्ति च।। <td> 1-244-44a<BR>1-244-44b </p></tr>
 
योजयध्वं रथानाशु प्रासानाहरतेति च।<BR>धनूंषि च महार्हाणि कवचानि बृहन्ति च।। <td> 1-244-44a<BR>1-244-44b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> सूतानुच्चुक्रुशुः केचिद्रथान्योजयतेति च।<BR>स्वयं च तुरगान्केचिदयुञ्जन्हेमभूषितान्।। <td> 1-244-45a<BR>1-244-45b </p></tr>
 
सूतानुच्चुक्रुशुः केचिद्रथान्योजयतेति च।<BR>स्वयं च तुरगान्केचिदयुञ्जन्हेमभूषितान्।। <td> 1-244-45a<BR>1-244-45b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> रथेष्वानीयमानेषु कवचेषु ध्वजेषु च।<BR>अभिक्रन्दे नृवीराणां तदासीत्तुमुलं महत्।। <td> 1-244-46a<BR>1-244-46b </p></tr>
 
रथेष्वानीयमानेषु कवचेषु ध्वजेषु च।<BR>अभिक्रन्दे नृवीराणां तदासीत्तुमुलं महत्।। <td> 1-244-46a<BR>1-244-46b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> वनमाली ततः क्षीबः कैलासशिखरोपमः।<BR>नीलवासा मदोत्सिक्त इदं वचनमब्रवीत्।। <td> 1-244-47a<BR>1-244-47b </p></tr>
 
वनमाली ततः क्षीबः कैलासशिखरोपमः।<BR>नीलवासा मदोत्सिक्त इदं वचनमब्रवीत्।। <td> 1-244-47a<BR>1-244-47b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> किमिदं कुरुथाप्रज्ञास्तूष्णींभूते जनार्दने।<BR>अस्य भावमविज्ञाय संक्रुद्धा मोघगर्जिताः।। <td> 1-244-48a<BR>1-244-48b </p></tr>
 
किमिदं कुरुथाप्रज्ञास्तूष्णींभूते जनार्दने।<BR>अस्य भावमविज्ञाय संक्रुद्धा मोघगर्जिताः।। <td> 1-244-48a<BR>1-244-48b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> एष तावदभिप्रायमाख्यातु स्वं महामतिः।<BR>यदस्य रुचिरं कर्तुं तत्कुरुध्वमतन्द्रिताः।। <td> 1-244-49a<BR>1-244-49b </p></tr>
 
एष तावदभिप्रायमाख्यातु स्वं महामतिः।<BR>यदस्य रुचिरं कर्तुं तत्कुरुध्वमतन्द्रिताः।। <td> 1-244-49a<BR>1-244-49b
 
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<tr><td><p> ततस्ते तद्वचः श्रुत्वा ग्राह्यरूपं हलायुधात्।<BR>तूष्णींभूतास्ततः सर्वे साधुसाध्विति चाब्रुवन्।। <td> 1-244-50a<BR>1-244-50b </p></tr>
 
ततस्ते तद्वचः श्रुत्वा ग्राह्यरूपं हलायुधात्।<BR>तूष्णींभूतास्ततः सर्वे साधुसाध्विति चाब्रुवन्।। <td> 1-244-50a<BR>1-244-50b
 
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<tr><td><p> समं वचो निशम्यैव बलदेवस्य धीमतः।<BR>पुनरेवसभामध्ये सर्वे ते समुपाविशन्।। <td> 1-244-51a<BR>1-244-51b </p></tr>
 
समं वचो निशम्यैव बलदेवस्य धीमतः।<BR>पुनरेवसभामध्ये सर्वे ते समुपाविशन्।। <td> 1-244-51a<BR>1-244-51b
 
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<tr><td><p> ततोऽब्रवीद्वासुदेवं वचो रामः परन्तपः।<BR>`त्रैलोक्यनाथ हे कृष्ण भूतभव्यभविष्यकृत्।'<BR>किमवागुपविष्टोऽसि प्रेक्षमाणो जनार्दन।। <td> 1-244-52a<BR>1-244-52b<BR>1-244-52c </p></tr>
 
ततोऽब्रवीद्वासुदेवं वचो रामः परन्तपः।<BR>`त्रैलोक्यनाथ हे कृष्ण भूतभव्यभविष्यकृत्।'<BR>किमवागुपविष्टोऽसि प्रेक्षमाणो जनार्दन।। <td> 1-244-52a<BR>1-244-52b<BR>1-244-52c
 
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<tr><td>
<tr><td><p> सत्कृतस्त्वत्कृते पार्थः सर्वैरस्माभिरच्युत।<BR>न च सोऽर्हति तां पूजां दुर्बुद्धिः कुलपांसनः।। <td> 1-244-53a<BR>1-244-53b </p></tr>
 
सत्कृतस्त्वत्कृते पार्थः सर्वैरस्माभिरच्युत।<BR>न च सोऽर्हति तां पूजां दुर्बुद्धिः कुलपांसनः।। <td> 1-244-53a<BR>1-244-53b
 
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<tr><td><p> को हि तत्रैव भुक्तावान्नं भाजनं भेत्तुमर्हति।<BR>मन्यमानः कुले जातमात्मानं पुरुषः क्वचित्।। <td> 1-244-54a<BR>1-244-54b </p></tr>
 
को हि तत्रैव भुक्तावान्नं भाजनं भेत्तुमर्हति।<BR>मन्यमानः कुले जातमात्मानं पुरुषः क्वचित्।। <td> 1-244-54a<BR>1-244-54b
 
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<tr><td>
<tr><td><p> इच्छन्नेव हि संबन्धं कृतं पूर्वं च मानयन्।<BR>को हि नाम भवेनार्थी साहसेन समाचरेत्।। <td> 1-244-55a<BR>1-244-55b </p></tr>
 
इच्छन्नेव हि संबन्धं कृतं पूर्वं च मानयन्।<BR>को हि नाम भवेनार्थी साहसेन समाचरेत्।। <td> 1-244-55a<BR>1-244-55b
 
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<tr><td>
<tr><td><p> सोऽवमन्य तथाऽस्माकमनादृत्य च केशवम्।<BR>प्रसह्य हृतवानद्य सुभद्रां मृत्युमात्मनः।। <td> 1-244-56a<BR>1-244-56b </p></tr>
 
सोऽवमन्य तथाऽस्माकमनादृत्य च केशवम्।<BR>प्रसह्य हृतवानद्य सुभद्रां मृत्युमात्मनः।। <td> 1-244-56a<BR>1-244-56b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> कथं हि शिरसो मध्ये कृतं तेन पदं मम।<BR>मर्षयिष्यामि गोविन्द पादस्पर्शमिवोरगः।। <td> 1-244-57a<BR>1-244-57b </p></tr>
 
कथं हि शिरसो मध्ये कृतं तेन पदं मम।<BR>मर्षयिष्यामि गोविन्द पादस्पर्शमिवोरगः।। <td> 1-244-57a<BR>1-244-57b
 
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<tr><td>
<tr><td><p> अद्य निष्कौरवामेकः करिष्यामि वसुन्धराम्।<BR>न हि मे मर्षणीयोऽयमर्जुनस्य व्यतिक्रमः।। <td> 1-244-58a<BR>1-244-58b </p></tr>
 
अद्य निष्कौरवामेकः करिष्यामि वसुन्धराम्।<BR>न हि मे मर्षणीयोऽयमर्जुनस्य व्यतिक्रमः।। <td> 1-244-58a<BR>1-244-58b
 
</tr>
<tr><td>
<tr><td><p> तं तथा गर्जमानं तु मेघदुन्दुभिनिःस्वनम्।<BR>अन्वपद्यन्त ते सर्वे भोजवृष्ण्यन्धकास्तदा।। <td> 1-244-59a<BR>1-244-59b </p></tr>
 
<tr><td><p> ।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि <br>सुभद्राहरणपर्वणि<br> चतुश्चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 244 ।। </tr></p> <tr><td><p> ।। समाप्तं च सुभद्राहरणपर्व ।। </p></tr></table>1-244-42 सन्नये समुदाये
तं तथा गर्जमानं तु मेघदुन्दुभिनिःस्वनम्।<BR>अन्वपद्यन्त ते सर्वे भोजवृष्ण्यन्धकास्तदा।। <td> 1-244-59a<BR>1-244-59b
 
</tr>
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।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि <br>सुभद्राहरणपर्वणि<br> चतुश्चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 244 ।। </tr>
 
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।। समाप्तं च सुभद्राहरणपर्व ।।
 
</tr></table>1-244-42 सन्नये समुदाये
चतुश्चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 244 ।।
 
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