सम्भाषणम्:ऋग्वेदः सूक्तं १०.१७
योनि - उदक
सम्पाद्यताम्योनि (ऋ. १०.१७.११)
इस प्रकार ऊपर की ओर छनने अथवा शुद्ध होने वाला यह ऊर्ध्व-पवित्र इन्दु (सोम) जिस आनन्दमय कोश में पहुंचता है, वही हमारी चेतना भी ‘समानं योनिः’[22] कही गई है। संयोग से यह ‘योनिः भी एक उदकनाम है। यहीं से प्रवाहित होने वाले आपः (प्राणोदक) हमको शुद्ध और पवित्र करते हुए सारे आन्तरिक कल्मष को बाहर निकाल सकते हैं।[23] इसी सोम का जो स्वरूप विज्ञानमयरूपी पवित्र (छलनी) से शुद्ध होकर निकलता है, उसी की आहुति आनन्दमय कोश में स्थित ब्रह्म को प्रदान की जाती है।[24] आनन्दमय कोश से सर्वथा शुद्ध होकर सोम का जो बिन्दु अवतरित होता है, उसी को बृहस्पति देव राधस् प्रदान करने के लिए, मनुष्य व्यक्तित्व में सर्वत्र सिंचित करते हैं।[25] इसी को पयः नामक उदक कहा जाता है, जिसके द्वारा शुद्ध किये जाने के लिए प्रार्थना की जाती है और जिसके परिणामस्वरूप हमारे भीतर पयस्वती ओषधियां प्रादुर्भूत होती हैं और हमारा वचन (अभिव्यक्ति) भी पयस्वान् माना जाता है।[26] Puranastudy (सम्भाषणम्) २३:३५, १ मे २०२४ (UTC)