हिन्दी अनुवादम्

सम्पाद्यताम्

 
 
सूक्त - १.१९१

कङ्कतो न कङ्कतोऽथो सतीनकङ्कतः। द्वाविति प्लुषी इति न्य१दृष्टा अलिप्सत॥ (१)
अल्पविष, महाविष, जलचारी अरूपविष, दो प्रकार के जलचर एवं थलचर प्राणी, दाहक एवं अदृश्य प्राणी मुझे घेरे हैं। (१)
 
अदृष्टान्हन्त्यायत्यथो हन्ति परायती। अथो अबध्नती हन्त्यथो पिनष्टि पिंषती॥ (२)
विषधर जीवों से काटे हुए के पास आकर ओषधि विष का प्रभाव नष्ट करती है एवं दूर जाती हुई भी नष्ट करती है। उसे जब उखाड़ते हैं एवं पीसते हैं, तब भी वह विष का प्रभाव नष्ट करती है।

शरासः कुशरासो दर्भास: सैर्या उत। मौञ्जा अदृष्टा वैरिणाः सर्वे साकं न्यलिप्सत॥ (३)
शर, कुश, दर्भ, सैर्य, मुंज एवं वीरण नामक घासों में छिपे हुए विषधर मुझसे एक साथ लिपट जाते हैं॥ (३)

नि गावो गोष्ठे असदन्नि मृगासो अविक्षत। नि केतवो जनानां न्य१दृष्टा अलिप्सत॥ (४)
जब गाएं गोशाला में बैठती हैं, हरिण निवासस्थान में बैठते हैं एवं मनुष्य निद्रा के कारण ज्ञानशून्य होते हैं, उस समय अदृष्ट विषधर आकर मुझसे लिपट जाते हैं। (४)

एत उ त्ये प्रत्यदृश्रन्प्रदोषं तस्करा इव। अदृष्टा विश्वदृष्टाः प्रतिबुद्धा अभूतन॥ (५)
वे चोरों के समान रात में देखे जाते हैं. वे किसी को दिखाई नहीं देते, पर सारे संसार को देखते रहते हैं. सब लोग उनसे सावधान रहें। (५)

द्यौर्वः पिता पृथिवी माता सोमो भ्रातादितिः स्वसा। अदृष्टा विश्वदृष्टास्तिष्ठतेलयता सु कम्॥ (६)
हे सर्पों ! आकाश तुम्हारा पिता, धरती माता, सोम भ्राता और अदिति तुम्हारी बहिन है। तुम्हें कोई नहीं देख पाता, पर तुम सबको देखते हो। तुम अपने स्थान में रहो एवं सुखपूर्वक गमन करो। (६)

ये अंस्या ये अङ्ग्याः सूचीका ये प्रकङ्कताः। अदृष्टाः किं चनेह वः सर्वे साकं नि जस्यत॥ (७)
जो जंतु स्कंध वाले, अंग वाले, सूची वाले एवं अत्यंत विषधारी हैं, ऐसे अदृष्ट विषधरों का यहां कोई काम नहीं है। तुम सब यहां से एक साथ चले जाओ।(७)

उत्पुरस्तात्सूर्य एति विश्वदृष्टो अदृष्टहा। अदृष्टान्त्सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्यः॥ (८)
सारे संसार को देखने वाले एवं अदृष्ट विषधरों को नष्ट करने वाले सूर्य
पूर्व दिशा में निकलते हैं। वे सभी अदृष्ट विषधारियों एवं राक्षसों को भयभीत करके भगा देते हैं (८)
 
उदपप्तदसौ सूर्यः पुरु विश्वानि जूर्वन्। आदित्यः पर्वतेभ्यो विश्वदृष्टो अदृष्टहा॥ (९)
सारे संसार को देखने वाले एवं अदृष्ट विषधारियों को नष्ट करने वाले सूर्य विषैले जंतुओं को अत्यंत दुर्बल बनाते हुए उदयगिरि से निकलते हैं। (९)

सूर्ये विषमा सजामि दृतिं सुरावतो गृहे। सो चिन्नु न मराति नो वयं मरामारे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार॥ (१०)
सुरा बनाने वाला जिस प्रकार चमड़े के पात्र में शराब डालता है, उसी प्रकार मैं विष सूर्य मंडल की ओर फेंकता हूं। जिस प्रकार सूर्य नहीं मरते, उसी प्रकार हम भी न मरें। घोड़ों द्वारा लाए गए सूर्य दूरवर्ती विष को नष्ट कर देते हैं. हे विष! सूर्य की मधुविद्या तुम्हें अमृत बना देती है। (१०)

इयत्तिका शकुन्तिका सका जघास ते विषम्। सो चिन्नु न मराति नो वयं मरामारे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार॥ (११)
छोटी सी चिड़िया ने तुम्हारा विष खा लिया और नहीं मरी। उसी प्रकार हम भी नहीं मरेंगे। हे विष! घोड़ों द्वारा गमन करने वाले सूर्य दूर से ही विष को नष्ट कर देते हैं. उनकी मधुविद्या तुम्हें अमृत बना देती है। (११)

त्रिः सप्त विष्पुलिङ्गका विषस्य पुष्पमक्षन्। ताश्चिन्नु न मरन्ति नो वयं मरामारे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार॥ (१२)
अग्नि की सातों जिह्वाओं में सफेद, लाल और काले इस प्रकार मिलकर इक्कीस वर्ण पक्षी के रूप में विष का नाश करते हैं। जब वे नहीं मरते तो हम भी नहीं मरेंगे। अपने घोड़ों द्वारा गमनशील सूर्य दूर रखे विष का नाश करते हैं। हे विष! सूर्य की मधुविद्या तुझे अमृत बना देती है। (१२)

नवानां नवतीनां विषस्य रोपुषीणाम्। सर्वासामग्रभं नामारे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार॥ (१३)
निन्यानवे नदियां विष नष्ट करने वाली हैं। मैं सबका नाम पुकारता हूँ। घोड़ों द्वारा चलने वाले सूर्य दूर रखे विष को भी नष्ट कर देते हैं। हे विष! मधु-विद्या तुझे अमृत बना देगी. (१३)

त्रिः सप्त मयूर्यः सप्त स्वसारो अग्रुवः। तास्ते विषं वि जभ्रिर उदकं कुम्भिनीरिव॥ (१४)
हे शरीर! जिस प्रकार नारियां घड़ों में जल भरकर ले जाती हैं, उसी प्रकार इक्कीस मयूरियां एवं सात नदियां तुम्हारा विष दूर करें. (१४)
 
इयत्तक: कुषुम्भकस्तकं भिनद्मयश्मना। ततो विषं प्र वावृते पराचीरनु संवत:॥ (१५)
हे शरीर! छोटा सा नकुल यदि तुम्हारा विष समाप्त नहीं करेगा तो मैं उसे पत्थर से मार डालूंगा। इस प्रकार विष मेरे शरीर से निकलकर दूर दिशाओं में चला जाए। (१५)

कुषुम्भकस्तदब्रवीद्गिरेः प्रवर्तमानकः। वृश्चिकस्यारसं विषमरसं वृश्चिक ते विषम्॥ (१६)
पर्वत से आने वाले नकुल ने कहा- “बिच्छू का विष बेकार है.” हे बिच्छू ! तुम्हारा विष प्रभावहीन है. (१६)

 - डा. गंगासहाय शर्मा (संस्कृत साहित्य प्रकाशन)

Puranastudy (सम्भाषणम्) १३:२९, २० मे २०२४ (UTC)उत्तर दें

सूक्तोपरि डा. सुकर्मपालसिंह तोमरस्य टिप्पणी

सम्पाद्यताम्

सतीन का अर्थ

इस अदृश्य परमात्मा रूप इन्द्र की तुलना उस सतीनमन्यु[1]  और सतीनसत्वा[2]  इन्द्र से कर सकते हैं जिसके साथ सतीन (उदकनाम) विशेष रूप से जुड़ा हुआ है। यदि इस सतीन शब्द का अर्थ सामान्य जल किया जाये तो उससे किसी भी सुसंगत अर्थ की उपलब्धि नहीं होती। वास्तव में सतीन शब्द का यौगिक अर्थ सती का इनः (स्वामी) है और सती सच्चिदानन्द परमात्मा की वह शक्ति है, जो सत् और असत् के द्वन्द्व से परे है। उसी शक्ति का स्वामी होने वाला प्राणोदक सतीन समझा जाना चाहिए।

उपर्युक्त सन्दर्भों में सतीन शब्द को समझने में विघ्नोपनिषद् कहे जाने वाले सूक्त ऋग्वेद १.१९१ से सहायता मिल सकती है। इसका प्रथम मन्त्र इस प्रकार है-

कङ्कतो न कङ्कतोऽथो सतीनकङ्कतः ।द्वाविति प्लुषी इति न्यदृष्टा अलिप्सत ॥

यहां गत्यर्थक कङ्क (ककि) से निष्पन्न ‘कङ्कतः शब्द अस्+ अत् से निष्पन्न असत् का बोधक है। इसके विपरीत ‘न कङ्कतः’ कह कर अस् धातु से निष्पन्न सत् शब्द की ओर संकेत किया गया है। इन दोनों के अतिरिक्त ‘सतीन कंङ्कतः’ शब्द उस अवस्था का द्योतक हो सकता है, जिसकी ओर सत् और असत् दोनों एक दूसरे के पूरक होने से पूरणार्थक प्लुष धातु से निष्पन्न प्लुषी कहे गये हैं, परन्तु एक ऐसी भी अवस्था है, जिसमें ये तीनों विशेषरूप से अदृष्ट होकर एक दूसरे की लिप्सा रखते हैं। द्वन्द्वातीत अवस्था से अवरोहण करने वाली (आयती) चेतना और नीचे से आरोहण करने वाली चेतना अदृष्ट शत्रुओं को नष्ट कर देती है और उनके द्वारा लायी गई जो द्वन्द्वातीत चेतना है वह उन शत्रुओं को पीस डालती है ।[3] परन्तु इन शत्रुओं का सामना करने के लिए वे ज्ञानशक्तियां रूपी गायें भी एकत्र हो जाती हैं और शत्रु की खोज (मार्गण) करने वाली शक्तियां भी पूर्णरूप से प्रविष्ट हो जाती हैं[4]  और इस प्रकार शत्रु विरोधी शक्तियों की ध्वजाएं अदृष्ट रूप में पूर्णरूपेण एकत्र हो जाती हैं।[5]  ये सब विश्वदृष्टा अदृष्ट रहते हुए प्रतिबुद्ध हो जाते हैं और उन शत्रुओं को उसी प्रकार देखते हैं, जिस प्रकार तस्कर सायंकाल को देखते हैं।[6]  इन सब शत्रुविरोधी दिव्यशक्तियों में द्यौ पिता है, पृथ्वी माता, सोम भ्राता और अदिति स्वसा है। ये सभी विश्वदृष्टा अदृष्ट रहते हुए सुन्दर (सु) कम् (उदकनाम) का ईडन (पूजन) करने लगते हैं।[7]  इसके परिणामस्वरूप मनुष्यव्यक्तित्व के विविध अंगों में गतिशील सभी शत्रु अदृष्ट रूप में सब एक साथ पूर्णरूप से नष्ट हो जाते हैं।[8]  इस प्रकार अदृष्ट शत्रुओं को नष्ट करने वाला विश्वदृष्टा आत्मा रूपी सूर्य सभी यातुधानियों और सभी अदृष्ट शत्रुओं का हनन करता हुआ सामने प्रकट हो जाता है[9] । इस रूप में जो मनुष्यव्यक्तित्व सुरा (उदकनाम) से युक्त था, उसमें स्थित विष और उसकी धारक दृति को सूर्य में समर्पित कर दिया जाता है और इस प्रकार व्यक्ति मृत्यु के भय से दूर हो जाता है, क्योंकि उसके लिए ‘मधुला’ नामक चेतना उस मधु को ले जाती है, जो उसके लिए योग (योजनं) का काम करता है।[10]  यह मधुला निस्सन्देह वही द्वन्द्वातीत शक्ति है, जो ब्रह्मानन्द रूप मधु अथवा पूर्वोक्त ‘सु कम्’ को लाकर व्यष्टिगत विष अथवा असुर समूह को नष्ट करने का योग (नुस्खा) प्रस्तुत करती है।

सुवेदना, अर्ण और सिरा

इस दृष्टि से सतीन नामक द्वान्द्वातीत प्राणोदक मनुष्यव्यक्तित्व के सभी रोगों की चिकित्सा प्रस्तुत करता है, अतः कोई आश्चर्य नहीं कि सतीन प्राणोदक से युक्त मन्यु अथवा सत्व को धारण करने वाले आत्मा रूप इन्द्र को महान् द्यौ और पृथिवी का ऐसा सम्राट् कहा जाये, जो आनन्दवृष्टि करने वाले मरुत नामक प्राणों से युक्त होकर वृषा कहा जाता है।[11]


[1] प्र त इन्द्र पूर्व्याणि प्र नूनं वीर्या वोचं प्रथमा कृतानि ।

सतीनमन्युरश्रथायो अद्रिं सुवेदनामकृणोर्ब्रह्मणे गाम् ॥१०.११२.८

[2]स यो वृषा वृष्ण्येभिः समोका महो दिवः पृथिव्याश्च सम्राट् ।

सतीनसत्वा हव्यो भरेषु मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥ १.१००.१

[3]अदृष्टान्हन्त्यायत्यथो हन्ति परायती ।

अथो अवघ्नती हन्त्यथो पिनष्टि पिंषती ॥ १.१९१.२

[4]शरासः कुशरासो दर्भासः सैर्या उत ।

मौञ्जा अदृष्टा वैरिणाः सर्वे साकं न्यलिप्सत ॥ १.१९१.३

[5] नि गावो गोष्ठे असदन्नि मृगासो अविक्षत ।

नि केतवो जनानां न्यदृष्टा अलिप्सत ॥१.१९१.४

[6] एत उ त्ये प्रत्यदृश्रन्प्रदोषं तस्करा इव ।

अदृष्टा विश्वदृष्टाः प्रतिबुद्धा अभूतन ॥१.१९१.५

[7] द्यौर्वः पिता पृथिवी माता सोमो भ्रातादितिः स्वसा ।

अदृष्टा विश्वदृष्टास्तिष्ठतेलयता सु कम् ॥१.१९१.६

[8] ये अंस्या ये अङ्ग्याः सूचीका ये प्रकङ्कताः ।

अदृष्टाः किं चनेह वः सर्वे साकं नि जस्यत ॥१.१९१.७

[9]उत्पुरस्तात्सूर्य एति विश्वदृष्टो अदृष्टहा ।

अदृष्टान्सर्वाञ्जम्भयन्सर्वाश्च यातुधान्यः ॥८॥

उदपप्तदसौ सूर्यः पुरु विश्वानि जूर्वन् ।

आदित्यः पर्वतेभ्यो विश्वदृष्टो अदृष्टहा ॥ १.१९१.८-९

[10] सूर्ये विषमा सजामि दृतिं सुरावतो गृहे ।

सो चिन्नु न मराति नो वयं मरामारे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार ॥१.१९१.१०

[11] स यो वृषा वृष्ण्येभिः समोका महो दिवः पृथिव्याश्च सम्राट् ।

सतीनसत्वा हव्यो भरेषु मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥१.१००.१ Puranastudy (सम्भाषणम्) ०२:१५, २१ मे २०२४ (UTC)उत्तर दें

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