सम्भाषणम्:कठोपनिषत्/प्रथमोध्यायः/तृतीयवल्ली

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काष्ठा

सम्पाद्यताम्

प्राणरूप आपः की सृष्टि और काष्ठाएँ

अतः वाक् से होने वाली सृष्टि को प्राणरूप आपः की सृष्टि कह सकते हैं। सामान्यतः इस सृष्टि को व्यष्टिगत सृष्टि के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जिनमें सक्रिय भूमिका सप्त आपः की रहती है। इस बात को यजुर्वेद में निम्नलिखित मन्त्र में उपस्थित किया गया है।

सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे सप्त रक्षन्ति सदमप्रमादम्।

सप्तापः स्वपतो लोकमीयुस्तत्र जागृतो अस्वप्नजौ सत्रसदौ च देवौ।।- वा,सं. ३४.५५

इस मन्त्र में सप्त प्राण रूपी ऋषियों[1]  को तीन प्रकार से बताया गया है-

(१)  शरीर में स्थित सात स्थूलप्राण -- दो चक्षु, दो श्रोत्र, दो नासिकारन्ध्र और एक मुख।

(२) अप्रमाद भाव से निरन्तर रक्षा करने वाले सात सूक्ष्म प्राण -- अर्थात्-अहंकार, मन और पंच ज्ञानेन्द्रियां।

(३)  सुषुप्तिलोक में व्याप्त रहने वाले आपः नामक सात अति सूक्ष्म प्राण।

और इनके अतिरिक्त दो प्रसिद्ध देव, जिनको क्रमशः मूलप्रकृति और महत् कहा जा सकता है। इनमें से मूलप्रकृति को वह एकनेमि कह सकते हैं जिसके अन्तर्गत सप्त आपः और महत् से निर्मित अष्टाचक्र प्रवर्तित होता हुआ पहले बताया गया है। इन आपः को सप्त आपः कहने के साथ ही इनके लिए महतीः[2]  और महीः[3]  विशेषण भी प्रयुक्त हैं और इन्हें प्रथमजाः भी कहा गया है[4]  आपः को सप्त, महतीः और महीः तथा प्रथमजाः कहने का क्या रहस्य है, उसका एक संकेत तो पूर्वोक्त यजुर्वेदीय मन्त्र से मिल गया है, परन्तु प्रतीकवादी आवरण को हटाकर इसे जिस प्रकार प्रस्तुत किया गया है, उसके लिए हम कठोपनिषद् के निम्न उद्धरण की सहायता ले सकते हैं:-

इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः।

मनसस्तु परा बुद्धि बुद्धेरात्मा महान् परः।। १,३,१०

महतः परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः।

पुरुषान् न परः किंचित् सा काष्ठा सा परा गतिः।। १.३.११

यहां आत्मा के व्यक्त और अव्यक्त स्तरों को काष्ठा कहा गया है। यह शब्द ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ है[5] । कठोपनिषद में पराकाष्ठा का नाम पुरुष बताया गया है। इसी को ऋग्वेद ने अजन्मा, अस्रष्टा, असु आत्मा माना है[6]।  यह अजन्मा से जायमान होने में स्थिति (अगतिमय प्रकृति) को त्याग कर विकृति को ग्रहण करता है। मूल प्रकृति उसकी अव्यक्त रहने की स्थिति है। अतः यहां पुरुष और अव्यक्त नाम से जो सांख्यमत के समान दो अलग-अलग सी काष्ठाएं लगती हैं, वे वस्तुतः एक ही काष्ठा के अन्तर्गत शक्तिमान (आत्मा) और उसकी शक्ति (प्रकृति) की अद्वैत और अव्यक्त इकाई को ही सूचित करती हैं। इस अद्वैत इकाई में अन्तर्निहित शक्ति का जब स्फुरण होता है, तभी अव्यक्त का व्यक्तीकरण आरम्भ होता है अथवा वेद के शब्दों में अजन्मा जायमान होता है। सांख्य दर्शन की शब्दावली में, तभी प्रकृति (अव्यक्त) में क्षोभ होता है और उसके फलस्वरूप महत् नामक बुद्धि उत्पन्न होती है। इसी व्यक्तीकरण के स्तर को कठोपनिषद् ने आत्मा महान् कहा है। यह स्तर अव्यक्त स्तर से इसी बात में भिन्न है कि पहले जो शक्ति आत्मा में अन्तर्निहित थी, वह अब स्फुरित होकर बृहदारण्यकोपनिषद्[7]  की भाषा में, अन्यदिव हो गई। इसी का नाम महत् है। इससे युक्त होने के कारण, अव्यक्त काष्ठा का पुरुष, अब महत् के योग से अगली काष्ठा में आत्मा महान् कहा जाता है। पुरुष की अव्यक्त मूल प्रकृति की पहली विकृति यह महत् है, जो बुद्धि, मन और अर्थ नामक अन्य विकृतियों में रुपान्तरित होती है। ये सभी, मनुष्य की सूक्ष्मस्तरीय व्यक्तित्व की काष्ठाएं हैं।

इसमें से बुद्धि को अहंबुद्धि कह सकते हैं, जो महत् नामक बुद्धि से भिन्न है। महत् अहंपूर्व बुद्धि है, जिससे युक्त होने से पुरुष की महान् संज्ञा होती है और उसे बुद्धि (अहंबुद्धि) से परे बताया जाता है। अहंबुद्धि से मन और मन से अर्थ उत्पन्न होते हैं। अर्थ से तात्पर्य मन से उद्भूत उन शक्तियों से है, जो शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श नामक पांच तत्वों को ग्रहण करती हैं। इन पाँचों अर्थों के साथ मन और अहंबुद्धि मिलाने से सात काष्ठाएं बनती हैं। ये प्रथम विकृति, महत् की विकृतियां है। ये ही महान् आत्मा और महत् (अहंपूर्व बुद्धि) के सात पुत्र हैं, जिन्हें नाराः वा नरसूनवः कहा जा सकता है। ये ही नर का पूर्व अयन हैं, क्योंकि उसके पूर्व यह असीम है, महान् है, अव्यक्त है, जबकि उक्त सप्त काष्ठाओं में उसे सीमित, लघु (रघु) और व्यक्त कहा जाता है। फिर भी, यह सूक्ष्म व्यक्त स्तर उसका पहला ही घेरा है, अतः पूर्व अयन कहा जाना ठीक है। दूसरा घेरा तो स्थूल इन्द्रिय स्तर पर बनता है, जिसे नव्य अयन कह सकते हैं। इसके सन्दर्भ में आत्मा की नर संज्ञा है। इस स्तर के अयन को वेद में प्रायः नर्य रथ[8]  कहा जाता है, जबकि पूर्व अयन की पूर्वरथ[9]  संज्ञा भी है।

प्रत्येक स्तर के इन सात प्राणों का उद्भव जिस अष्टम प्राण से होता है, उसी को सांख्य दर्शन में अष्टमी प्रकृति अथवा महत् कहा जाता है। वेद में आपः के साथ महत् शब्द का प्रयोग इस दृष्टि से विचारणीय है, क्योंकि महत् शब्द कठोपनिषद् के उक्त उद्धरण में नीचे की काष्ठाओं का स्रोत है। महतीः (ऋ ८.७, २२)[10] वा महीः (ऋ ६.५७, ४)[11] विशेषणों का प्रयोग आपः के साथ इसलिए सार्थक लगता है कि स्वयं महत् शब्द वेद में वही (कठोपनिषद् वाला) अर्थ रखता प्रतीत होता है। अव्यक्त आत्मा की जिस प्रकार प्रथम अभिव्यक्ति महत् है, उसी प्रकार महत् इन्द्र का प्रथम वीर्य है[12] । महत् वह नाम भी है जहां सभी देव इन्द्र में  समाहित होते हैं और संभवतः इसीलिए वह देवों का एकमात्र अक्षर असुरत्व है, जो रहस्यपूर्ण गोपद[13]  में जन्मता है। सविता महान् का वरणीय महत् छर्दि[14]  कठोपनिषद् के आत्मा महान में सम्बन्धित महत् का याद दिलाता है, तो आपः और सूर्य में स्थित महत् नामक धन[15]  सब देवों का महत् नामक अव[16]  अथवा महत् नामक अपां गर्भः, जो देवों का वरण करता है[17],  निस्सन्देह शब्द के औपनिषदक अर्थ को व्यक्त करते हैं। इसलिए महत् को इन्द्र का वह गुह्य नाम बताया जाता है, जो भूत और भव्य सभी का (ऋ १.५५, २) जन्मदाता है। इन्द्र का यह महत् जिस महती की उपज है, वह प्रथमा उषा है[18], जो अन्यत्र सत्या कहाती है। यह महती, सांख्य की उस अव्यक्त प्रकृति के समान है, जिससे प्रादुर्भूत होकर महत् बुद्धि अहंकार, मन तथा अन्य सभी तत्वों को जन्म देती है।

महत् शब्द के इस विवेचन से स्पष्ट है कि वेद में आपः का गर्भ और उक्त सप्त काष्ठाओं का तथा उनसे उद्भूत सम्पूर्ण सृष्टि का स्रोत महत् है। इसके अतिरिक्त, महत् और इन्द्र का जो सम्बन्ध वेद में है, वही कठोपनिषद के महत् और आत्मा का है। यह सम्बन्ध विशेष महत्व का है, क्योंकि उपनिषदों के अनुसार इन्द्र शब्द का अर्थ आत्मा ही है। ऐतरेयोपनिषद (१.१४)[19] इसीलिए आत्मा को इन्द्र कहने का औचित्य सिद्ध करते हुए एक व्युत्पत्ति देती है और फिर आज्ञान, क्रतु, जूति, दृष्टि धृति, मति, मनीषा, मेधा, विज्ञान, संकल्प, संज्ञान, स्मृति आदि नामों से अभिहित आत्मा को एष इन्द्र (३, २)[20]  कहती है। इसी उपनिषद् ने आरभ्भ में ही स्वयं आपः की दृष्टि/सृष्टि भी आत्मा से बताई है। अतः स्पष्ट है कि वैदिक आपः आध्यात्मिक शक्तियां हैं, न कि जल।


[1] यत्रैतं प्राणा ऋषयोऽग्रेऽग्निं समस्कुर्वंस्तदस्मिन्नेतं पुरस्ताद्भागमकुर्वत -माश ७.२.३.५, प्राणा वै स्तोमाः प्राणा उ वा ऋषय – माश ८.४.१.६

(तु प्राणा वा ऋषयो देव्यासस्तनूपावान - ऐब्रा २.२७, माश ६.१.१.१,

प्राणा वा ऋषयः प्रथमजास्तद्धि ब्रह्म प्रथमजं – माश ८.६.१.५,

प्राणा वा ऋषयः प्राणानेतदाह वागष्टमी ब्रह्मणा संविदानेति – माश १४.५.२.५

[2] समु त्ये महतीरपः सं क्षोणी समु सूर्यम् ।

सं वज्रं पर्वशो दधुः ॥ऋ ८.७.२२

[3] यदिन्द्रो अनयद्रितो महीरपो वृषन्तमः ।

तत्र पूषाभवत्सचा ॥ ६.५७.४

[4] इयं मे नाभिरिह मे सधस्थमिमे मे देवा अयमस्मि सर्वः ।

द्विजा अह प्रथमजा ऋतस्येदं धेनुरदुहज्जायमाना ॥ १०.६१.१९

[5] अतिष्ठन्तीनामनिवेशनानां काष्ठानां मध्ये निहितं शरीरम् ।

वृत्रस्य निण्यं वि चरन्त्यापो दीर्घं तम आशयदिन्द्रशत्रुः ॥ऋ. १.३२.१०

[6] को ददर्श प्रथमं जायमानमस्थन्वन्तं यदनस्था बिभर्ति ।

भूम्या असुरसृगात्मा क्व स्वित्को विद्वांसमुप गात्प्रष्टुमेतत् ॥१.१६४.४

[7]यत्र वा अन्यदिव स्यात्तत्रान्योऽन्यत्पश्येत् अन्योऽन्यज्जिघ्रेदन्योऽन्यद्रसयेत् अन्योऽन्यद्वदेदन्योऽन्यच्छृणुयात् अन्योऽन्यन्मन्वीत अन्योऽन्यत्स्पृशेदन्योऽन्यद्विजानीयात् ॥ बृहदार. ४.३.३१

[8] ऋभुक्षणो वाजा मादयध्वमस्मे नरो मघवानः सुतस्य ।

आ वोऽर्वाचः क्रतवो न यातां विभ्वो रथं नर्यं वर्तयन्तु ॥७.४८.१

[9] सूरश्चिद्रथं परितक्म्यायां पूर्वं करदुपरं जूजुवांसम् ।

भरच्चक्रमेतशः सं रिणाति पुरो दधत्सनिष्यति क्रतुं नः ॥५.३१.११

[10] समु त्ये महतीरपः सं क्षोणी समु सूर्यम् ।

सं वज्रं पर्वशो दधुः ॥- ऋ ८.७, २२

[11] यदिन्द्रो अनयद्रितो महीरपो वृषन्तमः ।

तत्र पूषाभवत्सचा ॥ - ६.५७, ४

[12] अधाकृणोः प्रथमं वीर्यं महद्यदस्याग्रे ब्रह्मणा शुष्ममैरयः ।

रथेष्ठेन हर्यश्वेन विच्युताः प्र जीरयः सिस्रते सध्र्यक्पृथक् ॥२.१७.३

[13] उषसः पूर्वा अध यद्व्यूषुर्महद्वि जज्ञे अक्षरं पदे गोः ।

व्रता देवानामुप नु प्रभूषन्महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१॥

मो षू णो अत्र जुहुरन्त देवा मा पूर्वे अग्ने पितरः पदज्ञाः ।

पुराण्योः सद्मनोः केतुरन्तर्महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥३.५५.१-२

[14] तद्देवस्य सवितुर्वार्यं महद्वृणीमहे असुरस्य प्रचेतसः ।

छर्दिर्येन दाशुषे यच्छति त्मना तन्नो महाँ उदयान्देवो अक्तुभिः ॥४.५३.१

[15] त्वोतासस्त्वा युजाप्सु सूर्ये महद्धनम् ।

जयेम पृत्सु वज्रिवः ॥८.६८.९

[16] देवानामिदवो महत्तदा वृणीमहे वयम् ।

वृष्णामस्मभ्यमूतये ॥८.८३.१

[17]महत्तत्सोमो महिषश्चकारापां यद्गर्भोऽवृणीत देवान् ।

अदधादिन्द्रे पवमान ओजोऽजनयत्सूर्ये ज्योतिरिन्दुः ॥ ९.९७.४१

[18] यदुष औच्छः प्रथमा विभानामजनयो येन पुष्टस्य पुष्टम् ।

यत्ते जामित्वमवरं परस्या महन्महत्या असुरत्वमेकम् ॥१०.५५.४

[19] तस्मादिदन्द्रो नामेदन्द्रो ह वै नाम तमिदन्द्रं सन्तमिन्द्र इत्याचक्षते परोक्षेण ।- ऐ.उ. १.१४

[20] यदेतद्धृदयं मनश्चैतत् । सञ्ज्ञानमाज्ञानं विज्ञानं प्रज्ञानं मेधा दृष्टिधृर्तिमतिर्मनीषा जूतिः स्मृतिः सङ्कल्पः क्रतुरसुः कामो वश इति । सर्वाण्येवैतानि प्रज्ञानस्य नामधेयानि भवन्ति ॥-ऐ.उ ३.४ Puranastudy (सम्भाषणम्) २३:४९, १६ जून् २०२४ (UTC)उत्तर दें

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