सम्भाषणम्:तैत्तिरीयारण्यकम्(विस्वर)/प्रपाठकः ७

पवित्रम् , पयः और जामि

सम्पाद्यताम्

पवित्रम् , पयः और जामि

आत्मारूपी इन्द्र के अतिरिक्त स्वरूप से अभिप्राय उसके उस स्वरूप से है, जो आनन्दमय कोश में विद्यमान है। इस स्वरूप तक पहुंचने में ‘इन्दव’ को अन्नमय कोश से ऊर्ध्वगति करते हुए प्राणमय और मनोमय कोश के द्वारा विज्ञानमय कोश में पहुंचकर पवित्र होना पड़ता है। अतः विज्ञानमयकोश ही वह ‘पवित्रम्’ अथवा ऊर्ध्व पवित्रम् है, जिसमें जाकर अन्नमय आदि कोशों से आए हुए प्राणोदकरूपी इन्द्रवः या सोम बिन्दवः शुद्ध होते हैं। इस प्रकार विज्ञानमय कोश ही वह पद है, जिसके प्रसंग से पवित्रम् शब्द को उदकनामों के साथ-साथ पदनामों में भी सम्मिलित किया गया है। ‘दूसरे शब्दों में, यह कह सकते हैं कि स्थूल और सूक्ष्म शरीर का मिश्रित ‘सोम’ विज्ञानमय कोश की पवित्र (छलनी) में पवन (छनवा) होने के बाद शुद्ध होता है। इसीलिए विज्ञानमय (देव) कोश के प्रेरक को अथर्ववेद में पवमान (पवनेवाला या छनने वाला) कहा गया है और ऋग्वेद का नवम मण्डल इसी पवमान सोम के स्तवन से भरा पड़ा है। हमारा स्थूल शरीर तो इस सोम (आनन्द) की बूंदों को भी तरसा करता है, परन्तु यहां वह सहस्रधारा होकर पवित्र (छलनी) से निकलता है। सारे सोम का मूल तो आनन्दमय कोश ही है। यहीं आकर सोम अन्य कोशों के अस्थायित्व को छोड़कर स्थितर हो जाता है और अमृत कहलाता है। परन्तु विचित्र है यह अमृत, जो ऊपर की ओर छनता है और शरीर रूप वृक्ष का प्रेरक भी है:-
अहं वृक्षस्य रेरिवा । कीर्तिः पृष्ठं गिरेरिव । ऊर्ध्वपवित्रो वाजिनीव स्वमृतमस्मि । द्रविणं सवर्चसम् । सुमेधा अमृतोक्षितः । इति त्रिशङ्कोर्वेदानुवचनम् - तैआ. ७.१०.१
सुमेधा अमृतोऽक्षितं।’ वैदिक दर्शन पृ. २०-२१।

इस प्रकार ऊपर की ओर छनने अथवा शुद्ध होने वाला यह ऊर्ध्व-पवित्र इन्दु (सोम) जिस आनन्दमय कोश में पहुंचता है, वही हमारी चेतना भी ‘समानं योनिः’[1] कही गई है। संयोग से यह ‘योनिः भी एक उदकनाम है। यहीं से प्रवाहित होने वाले आपः (प्राणोदक) हमको शुद्ध और पवित्र करते हुए सारे आन्तरिक कल्मष को बाहर निकाल सकते हैं।[2] इसी सोम का जो स्वरूप विज्ञानमयरूपी पवित्र (छलनी) से शुद्ध होकर निकलता है, उसी की आहुति आनन्दमय कोश में स्थित ब्रह्म को प्रदान की जाती है।[3] आनन्दमय कोश से सर्वथा शुद्ध होकर सोम का जो बिन्दु अवतरित होता है, उसी को बृहस्पति देव राधस् प्रदान करने के लिए, मनुष्य व्यक्तित्व में सर्वत्र सिंचित करते हैं।[4] इसी को पयः नामक उदक कहा जाता है, जिसके द्वारा शुद्ध किये जाने के लिए प्रार्थना की जाती है और जिसके परिणामस्वरूप हमारे भीतर पयस्वती ओषधियां प्रादुर्भूत होती हैं और हमारा वचन (अभिव्यक्ति) भी पयस्वान् माना जाता है।[5]

आनन्दमय कोश ही गन्धर्व का ध्रुव पद कहा जाता है, जहां प्राप्त उक्त पयः एक अन्य उदकनाम ‘घृतं’ से युक्त होता है और उसे विप्रलोग केवल अपनी ध्यानवृत्तियों के द्वारा (धीतिभिः) ही चाहते हैं।[6] आनन्दमय आत्मा ही वह गन्धर्व है, जो वहां से प्रादुर्भूत आपः में अपनी ‘अप्याः’ नामक शक्ति से युक्त होता है और जिसके लिए नाभिः तथा ‘जामिः’ जैसे उदकनामों का भी प्रयोग होता है।[7] इस जामि को आयुध भी कहते हैं, जो स्वयं एक उदकनाम है। इसके विषय में कहा जाता है कि जब इन्द्र को यज्ञ का साधन बनाया गया तो उसके आयुध को भी जामि कहा गया है[8] । एक अन्य मन्त्र[9] (ऋ १०,८,७) में कहा गया है कि आत्मा रूपी त्रित ने अपने क्रतु द्वारा उस परम पिता परमेश्वर (इन्द्र) के संरक्षण द्वारा आन्तरिक ध्यान करने की इच्छा की तो उसने ‘जामि’ कहते हुए आयुधों को जान लिया। यहां भी जामि और आयुध दोनों ही उदकनाम पुनः प्रयुक्त हुए हैं।
इससे अगले मन्त्र में उसी त्रित को अपने पिता के उन आयुधों का जानता हुआ तथा इन्द्र से प्रेरित होकर त्वष्टृपुत्र त्रिशिरा का वध करने वाला ओर उसके पास से गायों को मुक्त करने वाला बताया गया है। इच्छा-ज्ञान-क्रिया के क्षेत्रों में व्याप्त असुरत्व ही त्रिशिरा है, जिसका वध करने के लिए त्रित अपने पिता इन्द्र (आनन्दमय ब्रह्म) के जिन आयुधों को प्रयोग करता है, वे वस्तुतः वही प्राणोदक बिन्दु हैं, जो उत्तरोत्तर शुद्ध होते हुए अन्ततोगत्वा आनन्दमय कोश में पूर्ण पवित्र होकर उक्त त्रिशिरा के वध के लिए आयुध बनते हैं और तभी पवित्र इन्दवः कहे जाते हैं। जब पवित्र शब्द का प्रयोग एकवचन में होता है, तो आनन्दमय या विज्ञानमय का इन्दु अभिप्रेत है और बहुवचन में वही मनोमयी स्तरों के इन्दवः के सन्दर्भ का बोधक होता है। इसी दृष्टि से, जब अनेक सोम बिन्दुओं को पवित्रों के माध्यम से पवमान होता हुआ (ऋ ९,८७,५) कहा जाता है[10], तो तात्पर्य आनन्दमय कोश के अद्वैत इन्दु के विज्ञानमयी, मनोमयी और प्राणमयी त्रिविध पवित्रों द्वारा प्रवाहित होने से होता है। उदाहरण के लिए निम्नलिखित मन्त्र प्रस्तुत हैं:-

पवित्रेभिः पवमानो नृचक्षा राजा देवानामुत मर्त्यानाम्।
द्विता भुवद्रयिपती रयीणामृतं भरत् सुभृतं चार्विन्दुः।।[11]

इस मन्त्र में इन्दु को देवों और मर्त्यों का राजा कहा गया है, जो देवशक्तियों और मर्त्यशक्तियों की दृष्टि से दो प्रकार के धनों का स्वामी है और ऋतं का भरणपोषण करने वाला है। इसका अभिप्राय है कि इस इन्दु के उक्त त्रिविध पवित्रों में प्रवहमान होने से मनुष्यव्यक्तित्व की दोनों प्रकार की शक्तियां ऋतं के पोषण में लग जाती हैं और इस प्रकार से सोम मानव के नैतिक आयाम को समृद्ध करने वाला ‘चारु इन्दु’ हो जाता है।

त्रिविध पवित्र, अग्नि और हवि :-

इस प्रसंग में अग्नि की भूमिका विशेष रूप से उल्लेखनीय है, क्योंकि प्रायः अन्यत्र ‘पवित्र’ का सम्बन्ध, जैसा कि पहले दिखाया जा चुका है, पवमान सोम से ही होता है। कहा जाता है कि अग्नि ने तीन पवित्रों के द्वारा अर्क को पवित्र किया और हृदय से मानसिक ज्योति को विशेष रूप से जानते हुए अपनी स्वधाओं के द्वारा सर्वाधिक वर्षणशील रत्न (वर्षिष्ठं रत्नं) को पैदा किया और तत्पश्चात् द्यावापृथिवी को चारों ओर से देखा -

त्रिभिः पवित्रैरपुपोद्ध्यर्कं हृदा मतिं ज्योतिरनु प्रजानन।
वर्षिष्ठं रत्नमकृत स्वधाभिरा दिद्द्यावा पृथिवी पर्यपश्यत।। [12]

यहां जिसको ‘वर्षिष्ठं रत्नम्’ कहा गया है, वह सोम का इन्दु रूप ही है, जो अन्यत्र (ऋ. ९.९६. ३) आपः को बरसाता हुआ मनोमय, प्राणमय और अन्नमय रूपी आकाश, अन्तरिक्ष और पृथिवी को ओतप्रोत करता हुआ कहा जाता है[13], तो इसका तात्पर्य है कि अग्नि सोम का जनक है। इस बात का स्पष्टीकरण करने के लिए यह ध्यान में रखना होगा कि उक्त मन्त्र के पूर्व ही अग्नि अपना परिचय देता हुआ कहता है कि मैं जन्म के द्वारा जातवेद हूं, घृत मेरा चक्षु है, अमृत मेरा मुख है और मैं रजस् का विविधरूप में निर्माण करने वाला त्रिधातु अर्क, अजस्र धर्म हूं और मेरा नाम हवि है-

अग्निरस्मि जन्मना जातवेदा घृतं चक्षुरमृतं म आसन्।
अर्कस्त्रि धातु रजसो विमानोऽजस्रो घर्मो हविरस्मि नाम।। [14]

यहां जिस अग्नि का उल्लेख है, वह वही जातवेदस है, जिसे हम पहले ही अग्नि, इन्द्र और सोम की संयुक्त इकाई के रूप में प्रस्तुत कर चुके हैं। अतः इस जातवेदस् के द्वारा सोम को उत्पन्न करना कोई आश्चर्य की बात नहीं: इसी दृष्टि से सोम को अग्नि[15] अथवा अर्चिवत् अग्नि[16] कहकर सम्बोधित किया गया है और उससे प्रार्थना की गई है कि वह अपने ब्रह्मसवों द्वारा (ब्रह्मसवैः) हमें पवित्र करें। यहां जिन ब्रह्मसवों का उल्लेख है, वे ही दो पूर्वाद्धृत मन्त्रों में स्वधायें हैं, जिनके द्वारा अग्नि को ‘वर्षिष्ठं रत्नं’ की सृष्टि करने वाला कहा गया है। ब्रह्म और स्वधा दोनों ही उदकनामों में परिगणित हैं। अतः मूलाधार से उत्तरोत्तर उठती हुई प्राणाग्नि अपने में ब्रह्म के जिस उत्तरोत्तर स्वः को ग्रहण करता है, वही उसका ब्रह्मसव अथवा स्वधा है। इस प्रकार अन्नमय कोश से ऊर्ध्वगामी होकर विभिन्न कोशों की दृष्टि से अग्नि के अनेक ब्रह्मसव अथवा स्वधाएं कही जा सकती हैं, जिनके द्वारा अन्ततोगत्वा इन्दुः रूपी ‘वर्षिष्ठं रत्नं’ की सृष्टि हो जाती है।

[1] द्रप्सश्चस्कन्द प्रथमाँ अनु द्यूनिमं च योनिमनु यश्च पूर्वः ।समानं योनिमनु संचरन्तं द्रप्सं जुहोम्यनु सप्त होत्राः ॥१०.१७.११
[2] आपो अस्मान्मातरः शुन्धयन्तु घृतेन नो घृतप्वः पुनन्तु ।विश्वं हि रिप्रं प्रवहन्ति देवीरुदिदाभ्यः शुचिरा पूत एमि ॥१०.१७.१०
[3]यस्ते द्रप्स स्कन्दति यस्ते अंशुर्बाहुच्युतो धिषणाया उपस्थात् ।अध्वर्योर्वा परि वा यः पवित्रात्तं ते जुहोमि मनसा वषट्कृतम् ॥ १०.१७.१२
[4] यस्ते द्रप्स स्कन्नो यस्ते अंशुरवश्च यः परः स्रुचा ।अयं देवो बृहस्पतिः सं तं सिञ्चतु राधसे ॥१०.१७.१३
[5] पयस्वतीरोषधयः पयस्वन्मामकं वचः ।अपां पयस्वदित्पयस्तेन मा सह शुन्धत ॥१०.१७.१४
[6] तयोरिद्घृतवत्पयो विप्रा रिहन्ति धीतिभिः ।गन्धर्वस्य ध्रुवे पदे ॥१.२२.१४
[7]न यत्पुरा चकृमा कद्ध नूनमृता वदन्तो अनृतं रपेम ।गन्धर्वो अप्स्वप्या च योषा सा नो नाभिः परमं जामि तन्नौ ॥ १०.१०.४
[8]कण्वा इन्द्रं यदक्रत स्तोमैर्यज्ञस्य साधनम् ।जामि ब्रुवत आयुधम् ॥ ८.६.३
[9] अस्य त्रितः क्रतुना वव्रे अन्तरिच्छन्धीतिं पितुरेवैः परस्य ।सचस्यमानः पित्रोरुपस्थे जामि ब्रुवाण आयुधानि वेति ॥१०,८,७
[10] एते सोमा अभि गव्या सहस्रा महे वाजायामृताय श्रवांसि ।पवित्रेभिः पवमाना असृग्रञ्छ्रवस्यवो न पृतनाजो अत्याः ॥९,८७,५
[11]पवित्रेभिः पवमानो नृचक्षा राजा देवानामुत मर्त्यानाम् ।द्विता भुवद्रयिपती रयीणामृतं भरत्सुभृतं चार्विन्दुः ॥ ९.९७.२४
[12] त्रिभिः पवित्रैरपुपोद्ध्यर्कं हृदा मतिं ज्योतिरनु प्रजानन् ।वर्षिष्ठं रत्नमकृत स्वधाभिरादिद्द्यावापृथिवी पर्यपश्यत् ॥३.२६.८
[13] स नो देव देवताते पवस्व महे सोम प्सरस इन्द्रपानः ।कृण्वन्नपो वर्षयन्द्यामुतेमामुरोरा नो वरिवस्या पुनानः ॥९.९६.३
[14] अग्निरस्मि जन्मना जातवेदा घृतं मे चक्षुरमृतं म आसन् ।अर्कस्त्रिधातू रजसो विमानोऽजस्रो घर्मो हविरस्मि नाम ॥३.२६.७
[15] यत्ते पवित्रमर्चिष्यग्ने विततमन्तरा ।ब्रह्म तेन पुनीहि नः ॥९.६७.२३
[16]यत्ते पवित्रमर्चिवदग्ने तेन पुनीहि नः ।ब्रह्मसवैः पुनीहि नः ॥ ९.६७.२४

Puranastudy (सम्भाषणम्) १५:३५, २ मे २०२४ (UTC)उत्तर दें

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