सम्भाषणम्:निघण्टुशास्त्रम्/प्रथमोध्यायः

अभ्वम् (१.१२, उदकनाम)

सम्पाद्यताम्

अभ्वं, विषं, अहिः और शम्बरम्ः

‘क्षत्रम्’ वह प्राणतत्व है, जो क्षत से त्राण करता है, परन्तु प्राण का ही एक रूप है, जो प्राणोदक के ऐसे रूप का वाच्य होता है, जिसको ‘अभ्वम्’ कहते हैं और जिसको भेदन करना आबद्ध जीवात्मा के आध्यात्मिक विकास के लिए आवश्यक समझा जाता है। ऐसे ही जीवात्मा का प्रतीक शुनःशेप है, जो त्रिविध बन्धनों से बंधा हुआ, वरुण से चिल्ला-चिल्ला कर कहा रहा है कि हे वरुण, न तो क्षत्र काम आ रहा है, न सहः, न मन्यु, न वयः और न ये आपः ही अभ्व के भेदन में समर्थ हो रहे हैं।[1]  यहां जिन क्षत्र, सहः, आपः तथा अभ्व उल्लेख हुआ है, वे सभी उदकनामों में परिगणित हैं। इसका अभिप्राय है कि उदकनामों में वाञ्छनीय और अवाञ्छनीय दोनों प्रकार के उदक के बोधक शब्द वर्तमान हैं। ‘अभ्वम्’ के समान ही अवाञ्छनीय उदक के वे रूप हैं, जिनको विषं, अहिः शम्बरं कहा गया है। जिस प्रकार अभ्वम्’ का बोध करने के लिए दिव्य उषा के प्रकाश की आवश्यकता पड़ती है[2] , उसी प्रकार विष नामक अरस उदक का विनाश करने के लिए किन्हीं सप्त स्वसाओं या त्रिसप्त मयूरियों की कल्पना की गई है।[3] इसी प्रकार अहि और शम्बर का भी वध आवश्यक समझा गया है, क्योंकि ये दोनों उदकनाम वस्तुतः अहंकार रूपी वृत्र के रूपान्तर हैं, जो जीवात्मा के लिए अत्यन्त उपयोगी आपः के प्रवाह को रोकते हैं अथवा प्राप्त आपः को शतं हिमाः या शरदः शतं में परिवर्तित कर देते हैं और इसके परिणामस्वरूप जीवात्मा उसी प्रकार आबद्ध आपः के लिए तरसता है, जिस प्रकार हम शुनःशेप को विलाप करते हुए ऊपर देख चुके हैं।


[1]नहि ते क्षत्रं न सहो न मन्युं वयश्चनामी पतयन्त आपुः ।

नेमा आपो अनिमिषं चरन्तीर्न ये वातस्य प्रमिनन्त्यभ्वम् ॥-  १.२४.६


[2] प्रत्यर्ची रुशदस्या अदर्शि वि तिष्ठते बाधते कृष्णमभ्वम् ।

स्वरुं न पेशो विदथेष्वञ्जञ्चित्रं दिवो दुहिता भानुमश्रेत् ॥ १.९२.५


[3] त्रिः सप्त मयूर्यः सप्त स्वसारो अग्रुवः ।

तास्ते विषं वि जभ्रिर उदकं कुम्भिनीरिव ॥१४॥

इयत्तकः कुषुम्भकस्तकं भिनद्म्यश्मना ।

ततो विषं प्र वावृते पराचीरनु संवतः ॥१५॥

कुषुम्भकस्तदब्रवीद्गिरेः प्रवर्तमानकः ।

वृश्चिकस्यारसं विषमरसं वृश्चिक ते विषम् ॥- १.१९१.१४-१६ Puranastudy (सम्भाषणम्) १०:३६, ४ मे २०२४ (UTC)उत्तर दें

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