स्कन्दपुराणम्/खण्डः ५ (अवन्तीखण्डः)/रेवा खण्डम्/अध्याय:२३३

सत्यनारायणव्रतकथाःविशेषव्रतपूजाः - बुधाष्टमीव्रताङ्गपूजाविधि:

       ॥अथ-कथा॥
       "व्यास-उवाच ॥ 

"एकदा नैमिषारण्ये ऋषय: शौनकादय:॥ पप्रच्छुर्मुनय:सर्वे सूतं पौराणिकं खलु॥१॥ ऋषय ऊचु:।

व्रतेन तपसा किंवा प्राप्यते वाञ्छितं फलम् ॥ तत्सर्वं श्रोतुमिच्छाम: कथयस्व महामुने॥२॥

        ॥सूत उवाच॥ 

नारदेनैव सम्पृष्टो भगवान् कमलापित:॥ सुरर्षये यथैवाह तच्छृणुध्वं समाहिता:॥३॥

एकदा नारदो योगी परानुग्रहकाङ्क्षया॥ पर्यटन् विविधान्लोकान् मर्त्यलोकमुपागत:॥४॥

ततो दृष्टवा जनान्सर्वान्नानाक्लेशसमन्वितान्॥ नानायोनिसमुत्पन्नान्क्लिश्यमानान् स्वकर्मभि:।५॥

केनोपायेन चैतेषां दुःखनाशो भवेद ध्रुवम्। इति सञ्चिन्त्य मनसा विष्णुलोकं गतस्तदा॥६॥

तत्र नारायणं देवं शुक्लवर्णं चतुर्भुजम्। शङखचक्रगदापद्मवनमालाविभूषितम्॥७॥

द्दष्टवा तं देवदेवेशं स्तोतुं समुपचक्रमे ॥                               
       -नारद उवाच॥                          नमो वाङमनसातीतरूपायानन्तशक्तये॥८॥

आदिमध्यान्तहीनाय निर्गुणाय गुणत्मने ॥ सर्वेषामादिभूताय भक्तानामार्तिनाशिने॥९॥

श्रुत्वा स्तोत्रं ततो विष्णुर्नारदं प्रत्यभाषत॥

     -श्रीभगवानुवाच॥                       किमर्थमागतोऽसि त्वं कि ते मनसि वर्तते॥१०॥

कथयस्व महाभाग तत्सर्वं कथयामि ते॥ नारद उवाच॥ मर्त्यलोके जना: सर्वे नानाक्लेशसमन्विता:॥ नानायोनिसमुत्पन्ना:पच्यन्ते पापकर्मभि:॥११॥

तत्कथं शमयेन्नाथ लघूपायेन तद्वद॥ श्रोतुमिच्छामि तत्सर्वं कृपास्ति यदि ते मयि॥१२॥

      "श्रीभगवानुवाच॥

साधु पृष्टं त्वया वत्स लोकानुग्रहकाङ्क्षया॥ यत्कृत्वा मुच्यते मोहात्तच्छृणुष्व वदामि ते॥१३॥

व्रतमस्ति महत्पुण्यं स्वर्गे मर्त्ये च दुर्लभम् ॥ तव स्नेहान्मया वत्स प्रकाश:क्रियतेऽधुना॥१४॥

सत्यनारायणस्यैव व्रतं सम्यग्विधानत:॥ कृत्वा सद्य:सुखं भुक्त्त्वापरत्र मोक्षमाप्नुयात्॥१५॥

तच्छुत्वा भगवद्वाक्यं नारदो मुनिरब्रवीत्॥

      "नारद उवाच ॥                  किम्फलं किंविधानञ्च कृतं केनैव तद् व्रतम्॥१६॥

तत्सर्वं विस्तराद् ब्रूहि कदा कार्यं हि तद व्रतम्॥ दुःखशोकादिशमनं धनधान्यप्रवर्धनम्॥१७॥

सौभाग्यसन्ततिकरं सर्वत्र विजयप्रदम्। यस्मिन् कस्मिन्दिने मर्त्यो भक्तिश्रद्धासमन्वित:।१८॥

सत्यनारायणं देवं यजेच्चैव निशामुखे॥ ब्राह्मणैर्बान्धबैश्चैव सहितो धर्मतत्पर:॥१९॥

नैवेद्यं भक्तितो दद्यात्सपादं भक्तिसंयुतम्॥ रम्भाफलं घृतं क्षीरं गोधूमस्य च चूर्णाकम्॥२०॥

अभावे शालिचूर्णं वा शर्करा च गुडस्तथा। सपादं सर्वभक्ष्याणि चैकीकृत्य निवेदयेत्॥२१॥

विप्राय दक्षिणां दद्यात्कथां श्रुत्वा जनै: सह॥ ततश्च बन्धुभि: सार्धं विप्रांश्च प्रतिभोजयेत्॥२२॥

प्रसादं भक्षयेद्भक्त्या नृत्यगीतादिकं चरेत् ॥ ततश्च स्वगृहं गच्छेत्सत्यनारायणं स्मरन्॥२३॥

एवं कृते मनुष्याणां वाञ्छासिद्धिर्भवेद् ध्रुवम् ॥ विशेषत: कलियुगे लघूपायोऽस्ति भूतले॥२४॥

"अनुवाद:-श्री व्यासजी ने कहा- एक समय नैमिषारण्य तीर्थ में शौनक आदि हजारों ऋषि-मुनियों ने पुराणों के महाज्ञानी श्री सूतजी से पूछा कि वह व्रत-तप कौन सा है, जिसके करने से मनवांछित फल प्राप्त होता है। हम सभी वह सुनना चाहते हैं। कृपा कर सुनाएँ। श्री सूतजी बोले- ऐसा ही प्रश्न नारद ने किया था। जो कुछ भगवान कमलापति ने कहा था, आप सब उसे सुनिए।

परोपकार की भावना लेकर योगी नारद कई लोकों की यात्रा करते-करते मृत्यु लोक में आ गए। वहाँ उन्होंने देखा कि लोग भारी कष्ट भोग रहे हैं। पिछले कर्मों के प्रभाव से अनेक योनियों में उत्पन्न हो रहे हैं। दुःखीजनों को देख नारद सोचने लगे कि इन प्राणियों का दुःख किस प्रकार दूर किया जाए। मन में यही भावना रखकर नारदजी विष्णु लोक पहुँचे। वहाँ नारदजी ने चार भुजाधारी सत्यनारायण के दर्शन किए, जिन्होंने शंख, चक्र, गदा, पद्म अपनी भुजाओं में ले रखा था और उनके गले में वनमाला पड़ी थी।

नारदजी ने स्तुति की और कहा कि मन-वाणी से परे, अनंत शक्तिधारी, आपको प्रणाम है। आदि, मध्य और अंत से मुक्त सर्वआत्मा के आदिकारण श्री हरि आपको प्रणाम। नारदजी की स्तुति सुन विष्णु भगवान ने पूछा- हे नारद! तुम्हारे मन में क्या है? वह सब मुझे बताइए। भगवान की यह वाणी सुन नारदजी ने कहा- मर्त्य लोक के सभी प्राणी पूर्व पापों के कारण विभिन्न योनियों में उत्पन्न होकर अनेक प्रकार के कष्ट भोग रहे हैं।

यदि आप मुझ पर कृपालु हैं तो इन प्राणियों के कष्ट दूर करने का कोई उपाय बताएँ। मैं वह सुनना चाहता हूँ। श्री भगवान बोले हे नारद! तुम साधु हो। तुमने जन-जन के कल्याण के लिए अच्छा प्रश्न किया है। जिस व्रत के करने से व्यक्ति मोह से छूट जाता है, वह मैं तुम्हें बताता हूँ। यह व्रत स्वर्ग और मृत्यु लोक दोनों में दुर्लभ है। तुम्हारे स्नेहवश में इस व्रत का विवरण देता हूँ।

सत्यनारायण का व्रत विधिपूर्वक करने से तत्काल सुख मिलता है और अंततः मोक्ष का अधिकार मिलता है।

श्री भगवान के वचन सुन नारद ने कहा कि प्रभु इस व्रत का फल क्या है? इसे कब और कैसे धारण किया जाए और इसे किस-किस ने किया है। श्री भगवान ने कहा दुःख-शोक दूर करने वाला, धन बढ़ाने वाला।

सौभाग्य और संतान का दाता, सर्वत्र विजय दिलाने वाला श्री सत्यनारायण व्रत मनुष्य किसी भी दिन श्रद्धा भक्ति के साथ कर सकता है।

सायंकाल धर्मरत हो ब्राह्मण के सहयोग से और बंधु बांधव सहित श्री सत्यनारायण का पूजन करें। भक्तिपूर्वक खाने योग्य उत्तम प्रसाद (सवाया) लें। यह प्रसाद केले, घी, दूध, गेहूँ के आटे से बना हो।

यदि गेहूँ का आटा न हो, तो चावल का आटा और शक्कर के स्थान पर गुड़ मिला दें। सब मिलाकर सवाया बना नैवेद्य अर्पित करें। इसके बाद कथा सुनें, प्रसाद लें, ब्राह्मणों को दक्षिणा दें और इसके पश्चात बंधु-बांधवों सहित ब्राह्मणों को भोजन कराएँ।

प्रसाद पा लेने के बाद कीर्तन आदि करें और फिर भगवान सत्यनारायण का स्मरण करते हुए स्वजन अपने-अपने घर जाएँ। ऐसे व्रत-पूजन करने वाले की मनोकामना अवश्य पूरी होगी। कलियुग में विशेष रूप से यह छोटा-सा उपाय इस पृथ्वी पर सुलभ है।

इति-श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे सत्यनारायणव्रतकथायां प्रथमोऽध्याय:॥१॥