स्कन्दपुराणम्/खण्डः ५ (अवन्तीखण्डः)/रेवा खण्डम्/अध्याय:२३४
"सूत उवाच॥
अथान्यत्सम्प्रवक्ष्यामि कृतं येन पुरा द्विज॥ कश्चित्काशीपुरे रम्ये ह्यासीद्विप्रोऽतिनिर्धन:॥१॥
क्षुतृडभ्यां व्याकुलो भूत्वा नित्यं बभ्राम भूतले॥ दू:खितं ब्राह्मणं दृष्टवा भगवान् ब्राह्मणप्रिय:॥२॥
वृद्धब्राह्मणरूपस्तं पप्रच्छ द्विजमादरात् ॥ किमर्थं अमसे विप्र महीं नित्यं सुदु:खित:॥३॥
तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि कथ्यतां द्विजसत्तम॥ "ब्राह्मण उवाच॥ ब्राह्मणोऽतिदरिद्रोऽहं भिक्षार्थं वै भ्रमे महीम्॥४॥
उपायं यदि जानासि कृपया कथय प्रभो।
"वृद्धब्राह्मण उवाच। सत्यनारायणो विष्णुर्वाञ्छितार्थफलप्रद:॥५॥
तस्य त्वं पूजनं विप्र कुरुष्व व्रतमुत्तमम् ॥ यत्कृत्वा सर्वदुःखेभ्यो मुक्तो भवति मानव:॥६॥
विधानं च व्रतस्यापि विप्रायाभाष्य यत्नत:॥ सत्यनारायणो वद्धस्तत्रैवान्तरधीयत ॥७॥
तदव्रतं सङ्करिष्यामि यदुक्तं ब्राह्मणेन वै॥ इति सञ्चिन्त्यविप्रोऽसौ रात्रौनिद्रांलब्धवान्।८।
तत प्रात: समुत्थाय सत्यनारायणव्रतम् ॥ करिष्य इति सङ्कल्प्य भिक्षार्थमगमद् द्विज:॥९॥
तस्मिन्नेव दिने विप्र: प्रचुरं द्रव्यमाप्तवान्। तेनैव बन्धुभि: सार्द्धं सत्यस्य व्रतमाचरत्॥१०॥
सर्वदूःखविनिर्मुक्त: सर्वसम्पत्समन्वित:॥ बभूव स द्विजश्रेष्ठो व्रतस्यास्य प्रभावत:॥११॥
तत:प्रभृति कालं च मासि मासि व्रतं कृतम्॥ एवं नारायणस्येदं व्रतं कृत्वा द्विजोत्तम:॥१२॥
सर्वपापविनिर्मुक्तो दुर्लभं मोक्षमाप्तवान् । व्रतमस्य यदा विप्रा: पृथिव्यां सङ्करिष्यति॥१३॥
तदैव सर्वदुःखं च मनुजस्य विनश्यति। एवं नारायणेनोक्तं नारदाय महात्मने॥१४॥
मया तत्कथितं विप्रा: किमन्यत्कथयामि व:॥
"ऋषय ऊचु:। तस्माद्विप्राच्छ्रुतं केन पृथिव्यां चरितं मुने॥ तत्सर्वं श्रोतुमिच्छाम: श्रद्धास्माकं प्रजायते॥१५॥
"सूत उवाच॥ श्रृणुध्वं मुनय: सर्वे व्रतं येन कृतं भुवि ॥ एकदा स द्विजवरो यथाविभवविस्तरै:॥१६॥
बन्धुभि:स्वजनै: सार्धं व्रतं कर्तुं समुद्यत:॥ एतस्मिन्नन्तरे काले काष्ठक्रेता समागमत्॥१७॥
बहि:काष्ठं च संस्थ्याप्य विप्रस्य गृहमाययौ॥ तृष्णया पीडितात्मा च दृष्ट्वा विप्रंकृत व्रतम्॥१८॥
प्रणिपत्य द्विजं प्राह किमिदं क्रियते त्वया ॥ कृते किं फलमाप्नोति विस्तराद्वाद मे प्रभो ॥१९॥
"विप्र उवाच॥ सत्यनारायणस्येदं व्रतं सर्वेप्सितप्रदम्॥ तस्य प्रसादान्मे सर्वं धनधान्यादिकं महत्॥२०॥
तस्मादेतद् व्रतं ज्ञात्वा काष्ठविक्रेतातिहर्षित:॥ पपौ जलं प्रसादं च भुक्त्वा स नगरं ययौ॥२१॥
सत्यनारायणं देवं मनसा इत्यचिन्तयत् ॥ काष्ठं विक्रयतो ग्रामे प्राप्यते चाद्य यद्धनम्॥२२॥
तेनैव सत्यदेवस्य करिष्ये व्रतमुत्तमम्॥ इतिसञ्चिन्त्य मनसा काष्ठं धृत्वा तु मस्तके॥२३॥
जगाम नगरे रम्ये धनिनां यत्र संस्थिति:॥ तद्दिने काष्ठमूल्यं च द्विगुणं प्राप्तवानसौ॥२४॥
तत: प्रसन्नहृदय: सुपक्वं कदलीफलम्॥ शर्कराघृतदुग्धं च गोधूमस्य च चूर्णकम्॥२५॥
कृत्वैकत्र सपादं च गृहीत्वा स्वगृहं ययौ॥ ततो बन्धून्समाहूय चकार विधिना व्रतम्॥२६॥
तदव्रतस्य प्रभावेण धनपुत्रान्वितोऽभवत्। इहलोके सुखं भुंक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ॥२७॥
"अनुवाद:- सूत जी बोले – हे ऋषियों! जिसने पहले समय में इस व्रत को किया था उसका इतिहास कहता हूँ, ध्यान से सुनो! सुंदर काशीपुरी नगरी में एक अत्यंत निर्धन ब्राह्मण रहता था। भूख प्यास से परेशान वह धरती पर घूमता रहता था। ब्राह्मणों से प्रेम करने वाले भगवान ने एक दिन ब्राह्मण का वेश धारण कर उसके पास जाकर पूछा – हे विप्र! नित्य दुखी होकर तुम पृथ्वी पर क्यूँ घूमते हो? दीन ब्राह्मण बोला – मैं निर्धन ब्राह्मण हूँ। भिक्षा के लिए धरती पर घूमता हूँ।
हे भगवन् ! यदि आप इसका कोई उपाय जानते हो तो कृपाकर बताइए। वृद्ध ब्राह्मण कहता है कि सत्यनारायण भगवान मनोवांछित फल देने वाले हैं इसलिए तुम उनका पूजन करो। इसे करने से मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है। वृद्ध ब्राह्मण बनकर आए सत्यनारायण भगवान उस निर्धन ब्राह्मण को व्रत का सारा विधान बताकर अन्तर्धान हो गए। ब्राह्मण मन ही मन सोचने लगा कि जिस व्रत को वृद्ध ब्राह्मण करने को कह गया है मैं उसे अवश्य करूँगा। यह निश्चय करने के बाद उसे रात में नीँद नहीं आई।
वह सवेरे उठकर सत्यनारायण भगवान के व्रत का निश्चय कर भिक्षा के लिए चला गया। उस दिन निर्धन ब्राह्मण को भिक्षा में बहुत धन मिला। जिससे उसने बंधु-बाँधवों के साथ मिलकर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत संपन्न किया। भगवान सत्यनारायण का व्रत संपन्न करने के बाद वह निर्धन ब्राह्मण सभी दुखों से छूट गया और अनेक प्रकार की संपत्तियों से युक्त हो गया। उसी समय से यह ब्राह्मण हर माह इस व्रत को करने लगा।
इस तरह से सत्यनारायण भगवान के व्रत को जो मनुष्य करेगा वह सभी प्रकार के पापों से छूटकर मोक्ष को प्राप्त होगा। जो मनुष्य इस व्रत को करेगा वह भी सभी दुखों से मुक्त हो जाएगा। सूत जी बोले कि इस तरह से नारद जी से नारायण जी का कहा हुआ श्रीसत्यनारायण व्रत को मैने तुमसे कहा। हे विप्रो ! मैं अब और क्या कहूँ? ऋषि बोले – हे मुनिवर ! संसार में उस विप्र से सुनकर और किस-किस ने इस व्रत को किया, हम सब इस बात को सुनना चाहते हैं। इसके लिए हमारे मन में श्रद्धा का भाव है। सूत जी बोले – हे मुनियों ! जिस-जिस ने इस व्रत को किया है, वह सब सुनो ।
एक समय वही विप्र धन व ऎश्वर्य के अनुसार अपने बंधु-बाँधवों के साथ इस व्रत को करने को तैयार हुआ। उसी समय एक एक लकड़ी बेचने वाला लकड़हाड़ा आया और लकड़ियाँ बाहर रखकर अंदर ब्राह्मण के घर में गया। प्यास से दुखी वह लकड़हारा ब्राह्मण को व्रत करते देख विप्र को नमस्कार कर पूछने लगा कि आप यह क्या कर रहे हैं तथा इसे करने से क्या फल मिलेगा? कृपया मुझे भी बताएँ।ब्राह्मण ने कहा कि सब मनोकामनाओं को पूरा करने वाला यह सत्यनारायण भगवान का व्रत है।इनकी कृपा से ही मेरे घर में धन धान्य आदि की वृद्धि हुई है।
विप्र से सत्यनारायण व्रत के बारे में जानकर लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ । चरणामृत लेकर व प्रसाद खाने के बाद वह अपने घर गया। लकड़हारे ने अपने मन में संकल्प किया कि आज लकड़ी बेचने से जो धन मिलेगा उसी से श्रीसत्यनारायण भगवान का उत्तम व्रत करूँगा। मन में इस विचार को ले लकड़हारा सिर पर लकड़ियाँ रख उस नगर में बेचने गया जहाँ धनी लोग ज्यादा रहते थे। उस नगर में उसे अपनी लकड़ियों का दाम पहले से चार गुना अधिक मिला ।
लकड़हारा प्रसन्नता के साथ दाम लेकर केले, शक्कर, घी, दूध, दही और गेहूँ का आटा ले और सत्यनारायण भगवान के व्रत की अन्य सामग्रियाँ लेकर अपने घर गया। वहाँ उसने अपने बंधु-बाँधवों को बुलाकर विधि विधान से सत्यनारायण भगवान का पूजन और व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से वह बूढ़ा लकड़हारा धन पुत्र आदि से युक्त होकर संसार के समस्त सुख भोग अंत काल में बैकुंठ धाम चला गया।
(इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे सत्यनारायणव्रतकथायां