स्कन्दपुराणम्/खण्डः ५ (अवन्तीखण्डः)/रेवा खण्डम्/अध्याय:२३५
"सूत उवाच ॥ पुनरग्रे प्रवक्ष्यामि श्रृणुध्वं मुनिसत्तमा: ॥ पुरा चोल्कामुखो नाम नृपश्चासी:महामति:॥१॥
जितेन्द्रिय: सत्यवादी ययौ देवालयं प्रति ॥ दिने दिने धनं दत्वा द्विजान्सन्तोषयत्सुधी:॥२॥
भार्या तस्य प्रमुग्धा च सरोजवदना सती ॥ भद्रशीला नदीतीरे सत्यस्य व्रतमाचरत् ॥३॥
एतस्मिन्नन्तरे तत्र साधुरेक: समागत: ॥ वाणिज्यार्थं बहुधनैरनेकै: परिवारित: ॥४॥
नावं संस्थाप्य तत्तीरे जगाम नृपतिं प्रति ॥ दृष्ट्वा स व्रतिनं भूपं पप्रच्छ विनयान्वित:॥५॥
॥साधुरुवाच॥ किमिदं कुरुषे राजन्भक्तियुक्तन चेतसा ॥ प्रकाशं कुरु तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि साम्प्रतम्॥६॥
'राजोवाच॥ पूजनं क्रियते साधो विष्णोरतुलतेजस:॥ व्रतं च स्वजनै: सार्वं पुत्राद्यावाप्तिकाम्यया॥७॥
भूपस्य वचनं श्रुत्वा साधु: प्रोवाच सादरम् ॥ सर्वं कथय मे राज्यन्करिष्येऽहं तवोदितम्॥८॥
ममापि सन्ततिर्नास्ति ह्येतस्माज्जायते ध्रुवम्॥ ततो निवृत्य वाणिज्यात्सानन्दो गृहमागत:॥९॥
भार्यायै कथितं सर्वं व्रतं सन्ततिदायकम्॥ तदा व्रतं करिष्यामि यदा मे सन्ततिर्भवेत्॥१०॥
इति लीलावतीं प्राह पत्नीं साधु: स सत्तम:॥ एकस्मिन्दिवसे तस्य भार्या लीलावती सती॥११॥
भर्तृयुक्ताऽऽनन्दचित्ताऽभवद्धर्मपरायणा ॥ गर्भिणी साऽभवत्तस्य भार्या सत्यप्रसादत:॥१२॥
दशमे मासि वै तस्या: कन्यारत्नमजायत॥ दिने दिने सा ववृधे शुक्लपक्षे यथा शशी॥१३॥
सम्ना कलावति चेति तन्नामकरण कृतम्॥ ततो लीलावती प्राह स्वामिनं मधुरं वच:॥१४॥
न करोषि किमर्यं वै पुरा सङ्कल्पितं व्रतं॥ साधुरुवाच॥ विवाहसमये त्वस्या: करिष्यामि व्रतं प्रिये॥१५॥
इति भार्यां समाश्वास्य जगाम नगरं प्रति॥ तत: कलावती कन्या ववृधे पितृवेश्मनि॥१६॥
दृष्ट्वा कन्यां तत:साधुर्नगरे सखिभि:सह॥ मन्त्रयित्वा द्रुतं दूतं प्रेषयामास धर्मवित्॥१७॥
विवाहार्थे च कन्याया:वरं श्रेष्ठं विचारय ॥ तेनाज्ञप्तश्च दूतोऽसौ काञ्चनं नगरं ययौ॥१८॥
तस्मादेकं वणिक्पुत्रं समादायागतो हि स:॥ दृष्ट्वा तु सुन्दरं बालंवणिक्पुत्रं गुणान्वितम्॥१९॥
ज्ञातिभिर्बन्धुभि: सार्धं परितुष्टेन चेतसा॥ दत्तवान् साधु: पुत्राय कन्यां विधिविधानत:॥२०॥
ततो भाग्यवशात्तेन विस्मृतं व्रतमुत्तमम्॥ विवाहसमये तस्यास्तेन रुष्टेऽभवत्प्रभु:॥२१॥
तत: कालेन नियतो निजकर्मविशारद:॥ वाणिज्यार्थं तत:शीघ्रं जामातृसहितो वणिक्।२२॥
रत्नसारपुरे रम्ये गत्वा सिन्धुसमीपत:॥ वाणिज्यमकरोत्साधुर्जामात्रा श्रीमता सह॥२३॥
तौ गतौ नगरे रम्ये चन्द्रकेतोर्नृपस्य च॥ एतस्मिन्नेव काले तु सत्यनारायण:प्रभु:॥२४॥
भ्रष्टप्रतिज्ञमालोक्य शापं तस्मै प्रदत्तवान् ॥ दारुणं कठिनं चास्य महद दुःखं भविष्यति॥२५॥
एकस्मिन्दिवसे राज्ञो धनमादाय तस्कर:॥ तत्रैव चागतश्चौरो वणिजौ यत्र संस्थितौ॥२६॥
तत्पश्चाद्धावकान् दूतान् दृष्ट्वा भीतेन चेतसा॥ धनं संस्थाप्य तत्रैव स तु शीघ्रमलक्षित:॥२७॥
ततो दूता:समायाता यत्रास्ते सज्जनो वणिक्॥ दृष्ट्वा नृपधनं तत्र बदध्वाऽऽनीतौ वणिक्सुतौ॥२८॥
हर्षेण धावमानाश्च ऊचुर्नृपसमीपत:॥ तस्करौ द्वौ समानीतौ विलोक्याज्ञापय प्रभो॥२९॥
राज्ञाऽऽज्ञप्तास्तत:शीघ्रं दृढं बदध्वा तु तावुभौ ॥ स्थापितौ द्वौमहादुर्गे कारागारेऽविचारत:॥३०॥
मायया सत्यदेवस्य न श्रुतं कैस्तयोर्वच:॥ अतस्तयोर्धनं राज्ञा गृहीतं चन्द्रकेतुना॥३१॥
तच्छापाच्च तयोर्गेहे भार्या चैवातिदुःखिता॥ चौरेणापहृतं सर्वं गृहे यच्च स्थितं धनम्॥३२॥
आधिव्याधिसमायुक्ता क्षुत्पिपासातिदुःखिता॥ अन्नचिन्तापरा भूत्वा बभ्राम च गृहे गृहे॥ कलावती तु कन्यापि बभ्राम प्रतिवासरम्॥३३॥
एकस्मिन्दिवसे जाता क्षुधार्ता द्विजमन्दिरम् ॥ गत्वाऽपश्यद व्रतं तत्र सत्यनारायणस्य च॥३४॥
उपविश्य कथां श्रुत्वा वरं प्रार्थितवत्यपि । प्रसादभक्षणं कृत्वा ययौ रात्रौ गृहं प्रति ॥३५॥
माता कलावतीं कन्यां कथयामास प्रेमत:॥ पुत्रि रात्रौ स्थिता कुत्र किं ते मनसि वर्तते॥३६॥
कन्या कलावती प्राह मातरं प्रति सत्वरम्॥ द्विजालये व्रतं मातर् दृष्टं वाञ्छितसिद्धिदम् ॥३७॥
तच्छत्वा कन्यकावाक्यं व्रतं कर्तुं समुद्यता ॥ सा तदा तु वणिग्भार्या सत्यनारायणस्य च ॥३८॥
व्रतं चक्रे सैव साध्वी बन्धुभि:स्वजनै:सह ॥ भर्तृजामातरौ क्षिप्रमागच्छेतांस्वामाश्रमम् ॥३९॥
अपराधं च मे भर्तुर्जामातु: क्षन्तुमर्हसि। व्रतेनानेन तुष्टोऽसौ सत्यनारायण: पुन:॥४०॥
दर्शयामास स्वप्नं हि चन्द्रकेतुं नृपोत्तमम्॥ बन्दिनौ मोचय प्रातर्वणिजौ नृपसत्तम॥४१॥
देयं धनं च तत्सर्वं गृहीतं यत्त्वयाधुना ॥ नो चेत्त्वां नाशयिष्यामि सराज्यं धनपुत्रकम्॥४२॥
एवमाभाष्य राजानं ध्यानगम्योऽभवत्प्रभु:॥ तत: प्रभातसमये राजा च स्वजनै:सह॥४३॥
उपविश्य सभामध्ये प्राह स्वप्नं जनं प्रति॥ वृद्धौ महाजनौ शीघ्रं मोचयद्वौ वणिक्सुतौ॥४४॥
इति राज्ञो वच:श्रुत्वा मोचयित्वा महाजनौ॥ समानीय नृपस्याग्रे प्राहुस्ते विनयान्विता:॥४५॥
आनीतौ द्वौ वणिक्पुत्रौ मुक्तो निगडबन्धनात्॥ ततो महाजनौ नत्वा चन्द्रकेतुं नृपोत्तमम् ॥४६॥
स्मरन्तौ पूर्ववृत्तान्तं नोचतुर्भयविह्वलौ॥ राजा वणिक्सुतौ वीक्ष्य वच:प्रोवाच सादरम्॥४७॥
दैवात्प्राप्तं महद्दुःखमिदानीं नास्ति वै भयम्॥ तदा निगडसंत्यागं क्षौरकर्माद्यकारयत्॥४८॥
वस्त्रालङ्कारकं दत्वा परितोष्य नृपश्च तौ॥ पुरस्कृत्य वणिक्पुत्रौ वचसाऽतोषयद् भृशम॥४९॥
पुराऽऽनीतं तु यद्- द्रव्यं द्विगुणीकृत्य दत्तवान् । प्रोवाच तौ ततो राजा गच्छ साधो निजाश्रमम्।५०॥
राजानं प्रणिपत्याह गन्तव्यं त्वत्प्रासादत:॥ इत्युक्त्वा तौ महावैश्यौ जग्मतु:स्वगृहं प्रति॥५१॥ ________
"अनुवाद:- सूतजी बोले – हे श्रेष्ठ मुनियों, अब आगे की कथा कहता हूँ। पहले समय में उल्कामुख नाम का एक बुद्धिमान राजा था। वह सत्यवक्ता और जितेन्द्रिय था। प्रतिदिन देव स्थानों पर जाता और निर्धनों को धन देकर उनके कष्ट दूर करता था। उसकी पत्नी कमल के समान मुख वाली तथा सती साध्वी थी। भद्रशीला नदी के तट पर उन दोनो ने श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत किया। उसी समय साधु नाम का एक वैश्य आया। उसके पास व्यापार करने के लिए बहुत सा धन भी था। राजा को व्रत करते देखकर वह विनय के साथ पूछने लगा–
हे राजन ! भक्तिभाव से पूर्ण होकर आप यह क्या कर रहे हैं? मैं सुनने की इच्छा रखता हूँ तो आप मुझे बताएँ। राजा बोला – हे साधु ! अपने बंधु-बाँधवों के साथ पुत्रादि की प्राप्ति के लिए महाशक्तिमान श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत व पूजन कर रहा हूँ। राजा के वचन सुन साधु आदर से बोला – हे राजन ! मुझे इस व्रत का सारा विधान कहिए। आपके कथनानुसार मैं भी इस व्रत को करुँगा। मेरी भी संतान नहीं है और इस व्रत को करने से निश्चित रुप से मुझे संतान की प्राप्ति होगी। राजा से व्रत का सारा विधान सुन, व्यापार से निवृत हो वह अपने घर गया। साधु वैश्य ने अपनी पत्नी को संतान देने वाले इस व्रत का वर्णन कह सुनाया और कहा कि जब मेरी संतान होगी तब मैं इस व्रत को करुँगा। साधु ने इस तरह के वचन अपनी पत्नी लीलावती से कहे। एक दिन लीलावती पति के साथ आनन्दित हो सांसारिक धर्म में प्रवृत होकर सत्यनारायण भगवान की कृपा से गर्भवती हो गई। दसवें महीने में उसके गर्भ से एक सुंदर कन्या ने जन्म लिया। दिनोंदिन वह ऎसे बढ़ने लगी जैसे कि शुक्ल पक्ष का चंद्रमा बढ़ता है। माता-पिता ने अपनी कन्या का नाम कलावती रखा। एक दिन लीलावती ने मीठे शब्दों में अपने पति को याद दिलाया कि आपने सत्यनारायण भगवान के जिस व्रत को करने का संकल्प किया था उसे करने का समय आ गया है, आप इस व्रत को करिये। साधु बोला कि हे प्रिये ! इस व्रत को मैं उसके विवाह पर करुँगा।
इस प्रकार अपनी पत्नी को आश्वासन देकर वह नगर को चला गया। कलावती पिता के घर में रह वृद्धि को प्राप्त हो गई। साधु ने एक बार नगर में अपनी कन्या को सखियों के साथ देखा तो तुरंत ही दूत को बुलाया और कहा कि मेरी कन्या के योग्य वर देख कर आओ। साधु की बात सुनकर दूत कंचनपुर नगर में पहुंचा और वहाँ देखभाल कर लड़की के सुयोग्य वाणिक पुत्र को ले आया। सुयोग्य लड़के को देख साधु ने बंधु-बाँधवों को बुलाकर अपनी पुत्री का विवाह कर दिया।
लेकिन दुर्भाग्य की बात ये कि साधु ने अभी भी श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत नहीं किया। इस पर श्री भगवान क्रोधित हो गए और श्राप दिया कि साधु को अत्यधिक दुख मिले। अपने कार्य में कुशल साधु बनिया जमाई को लेकर समुद्र के पास स्थित होकर रत्नासारपुर नगर में गया। वहाँ जाकर दामाद-ससुर दोनों मिलकर चन्द्रकेतु राजा के नगर में व्यापार करने लगे।
एक दिन भगवान सत्यनारायण की माया से दो चोर राजा का धन चुराकर भाग रहा था। उसने राजा के सिपाहियों को अपना पीछा करते देख चुराया हुआ धन वहाँ रख दिया जहाँ साधु अपने जमाई के साथ ठहरा हुआ था।
राजा के सिपाहियों ने साधु वैश्य के पास राजा का धन पड़ा देखा तो वह ससुर-जमाई दोनों को बाँधकर राजा के पास ले गए और कहा कि उन दोनों चोरों हम पकड़ लाएं हैं, आप आगे की कार्यवाही की आज्ञा दें। राजा की आज्ञा से उन दोनों को कठिन कारावास में डाल दिया गया ।
और उनका सारा धन भी उनसे छीन लिया गया।श्रीसत्यनारायण भगवान के श्राप से साधु की पत्नी भी बहुत दुखी हुई। घर में जो धन रखा था उसे चोर चुरा ले गए। शारीरिक तथा मानसिक पीड़ा व भूख प्यास से अति दुखी हो अन्न की चिन्ता में कलावती के ब्राह्मण के घर गई। वहाँ उसने श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत होते देखा फिर कथा भी सुनी वह प्रसाद ग्रहण कर वह रात को घर वापिस आई।
माता ने कलावती से पूछा कि हे पुत्री अब तक तुम कहाँ थी़? तेरे मन में क्या है ? कलावती ने अपनी माता से कहा – हे माता ! मैंने एक ब्राह्मण के घर में श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत देखा है। कन्या के वचन सुन लीलावती भगवान के पूजन की तैयारी करने लगी। लीलावती ने परिवार व बंधुओं सहित सत्यनारायण भगवान का पूजन किया और उनसे वर माँगा कि मेरे पति तथा जमाई शीघ्र घर आ जाएँ। साथ ही यह भी प्रार्थना की कि हम सब का अपराध क्षमा करें।श्रीसत्यनारायण भगवान इस व्रत से संतुष्ट हो गए । और राजा चन्द्रकेतु को सपने में दर्शन दे कहा कि – हे राजन ! तुम उन दोनो वैश्यों को छोड़ दो और तुमने उनका जो धन लिया है उसे वापिस कर दो। अगर ऎसा नहीं किया तो मैं तुम्हारा धन राज्य व संतान सभी को नष्ट कर दूँगा। राजा को यह सब कहकर भगवान अन्तर्धान हो गए। प्रात:काल सभा में राजा ने अपना सपना सुनाया फिर बोले कि बणिक पुत्रों को कैद से मुक्त कर सभा में लाओ।
दोनो ने आते ही राजा को प्रणाम किया। राजा मीठी वाणी में बोला – हे महानुभावों ! भाग्यवश ऎसा कठिन दुख तुम्हें प्राप्त हुआ है लेकिन अब तुम्हें कोई भय नहीं है। ऎसा कह राजा ने उन दोनों को नए वस्त्राभूषण भी पहनाए और जितना धन उनका लिया था उससे दुगुना धन वापिस कर दिया। दोनो वैश्य अपने घर को चल दिए।
( इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे सत्यनारायणव्रतकथायां तृतीयोऽध्या(३)