स्कन्दपुराणम्/खण्डः ५ (अवन्तीखण्डः)/रेवा खण्डम्/अध्याय:२३६
॥सूत-उवाच॥ यात्रां तु कृतवान् साधुर्मङ्गलायनपूर्विकाम् । ब्राह्मणेभ्यो धनं दत्त्वा तदा तु नगरं ययौ॥१॥
कियद दूरे गते साधौ सत्यनारायण:प्रभु:॥ जिज्ञासां कृतवान् साधो किमस्ति तव नौ स्थितम्।२॥
ततो महाजनौ मत्तौ हेलया च प्रहस्य वै॥ कथं पृच्छसि भो दण्डिन् मुद्रां नेतुं किमिच्छसि।३॥
लतापत्रादिकं चैव वर्तने तरणौ मम॥ निष्ठुरं च वच: श्रुत्वा सत्यं भवतु ते वच:॥४॥
एवमुक्त्वा गत: शीघ्रं दण्डी तस्य समीपत:॥ कियद् दूरे ततो गत्वा स्थित: सिन्धुसमीपत:॥५॥
गते दण्डिनि साधुश्च कृतनित्यक्रियस्तदा॥ उत्थितां तरणिं द्दष्ट्वा विस्मयं परमं ययौ॥६॥
दृष्ट्वा लतादिकं चैव मूर्छितो न्यपतद भुवि॥ लब्धसंज्ञो वणिक्पुत्रस्ततश्चिन्तान्वितोऽभवत्॥७॥
तदा तु दुहितु: कान्तो वचनं चेदमब्रवीत्॥ किमथ क्रियते शोक: शापो दत्तश्च दण्डिना॥८॥
शक्यते तेन सर्वं हि कर्तुं चात्र न संशय:। अतस्तच्छरणं यामो वाञ्छितार्थो भविष्यति॥९॥
जामातुर्वचनं श्रत्वा तत्सकाशं गतस्तदा॥ दृष्ट्वा च दण्डिनं भक्तया नत्वा प्रोवाच सादरम्।१०॥
क्षमस्व चापराधं मे यदुक्तं तव सन्निधौ॥ एवं पुन: पुनर्नत्वा महाशोकाकुलोऽभेवत्॥११॥
प्रोवाच वचनं दण्डी विलपन्तं विलोक्य च॥ मा रोदी:श्रृणु मद्वाक्यं मम पूजाबहिर्मुख:॥१२॥
ममाज्ञया च दुर्बुद्धे लब्धं दुःखं मुहुर्मुहु:॥ तच्छ्रुत्वा भगवद्वाक्यं स्तुतिं कर्तुं समुद्यत:॥१३॥
॥साधुरुवाच॥ त्वन्मायामोहिता: सर्वे ब्रह्माद्यास्त्रिदिवौकस:॥ न जानन्ति गुणान् रूपं तवाश्चर्यमिदं प्रभो॥१४॥
मूढोऽहं त्वां कथं जाने मोहितस्तव मायया॥ प्रसीद पूजयिष्यामि यथाविभवविस्तरै:॥१५॥
पुरा वित्तं च तत्सर्वं त्राहि मां शरणागतम्॥ श्रत्वा भक्तियुतं वाक्यं परितुष्टो जनार्दन:॥१६॥
वरं च वाञ्छितं दत्त्वा तत्रैवान्तर्दधे हरि:॥ ततो नौकां समारुह्य द्दष्ट्वा वित्तप्रपूरिताम्॥१७॥
कृपया सत्यदेवस्य सफलं वाञ्छितं मम॥ इत्युक्त्वा स्वजनै:सार्द्धं पूजांकृत्वा यथाविधिम्।१८॥
हर्षेण चाभवत्पूर्ण:सत्यदेवप्रसादत:। नावं संयोज्य यत्नेन स्वदेशगमनं कृतम्॥१९॥
साधुर्जामातरं प्राह पश्य रत्नपुरी मम॥ दुतं च प्रेषयामास निजवित्तस्य रक्षकम्॥२०॥
दूतोऽसौ नगरं गत्वा साधुभार्यां विलोक्य च॥ प्रोवाच वाञ्छितं वाक्यंनत्वा बद्धाञ्जलिस्तदा।२१॥
निकटे नगरस्यैव जामात्रा सहितो वणिक्॥ आगतो बन्धुवर्गैश्च वित्तैश्च बहुभिर्युत:॥२२॥
श्रुत्वा दूतमुखाद्वाक्यं महाहर्षवती सती॥ सत्यपूजां तत: कृत्वा प्रोवाच तनुजां प्रति॥२३॥
व्रजामि शीधमागच्छ साधुसंदर्शनाय च॥ इति मातृवच: श्रुत्वा व्रतं कृत्वा समाप्य च॥२४॥
प्रसादं च परित्यज्य गता सापि पतिं प्रति। तेन रुष्ट: सत्यदेवो भर्तारं तरर्णि तथा॥२५॥
संहृत्य च धनै: सार्द्धं जले तस्यावमज्जयत्॥ तत: कलावती कन्या न विलोक्य निजं पतिम् ॥२६॥
शोकेन महता तत्र रुदती चापतद भुवि॥ दृष्ट्वा तथाविधां नावं कन्यां च बहुदु:खिताम्।२७॥
भीतेन मनसा साधु: किमाश्चर्यमिदं भवेत् ॥ चिन्त्यमानाश्च ते सर्वे बभूवुस्तरिवाहका:॥२८॥
ततो लीलावती कन्यां दृष्ट्वा सा विह्वलाभवत् ॥ विललापातिदुःखेन भर्तारं चेदमब्रवीत् ॥२९॥
इदानीं नौकया सार्द्धं कथं सोऽभूदलक्षित:॥ न जाने कस्य देवस्य हेलया चैव सा हृता॥३०॥
सत्यदेवस्य माहात्म्यं ज्ञातुं वा केन शक्यते॥ इत्युक्त्वा विललापैव ततश्व स्वजनै:सह ॥३१॥
ततो लीलावती कन्यां क्रोडे कृत्वा रुरोद ह॥ तत:कलावती कन्या नष्टे स्वामिनि दुःखिता॥३२॥
गृहीत्वा पादुकां तस्यानुगन्तुं च मनो दधे॥ कन्यायाश्चरितं दृष्ट्वा सभार्य: सज्जनो वणिक्।३३।
अतिशोकेन सन्तप्तश्चिन्तयामास धर्मवित् ॥ हृतं वा सत्यदेवेन भ्रान्तोऽहं सत्यमायया॥३४॥
सत्यपूजां करिष्यामि यथाविभवविस्तरै:॥ इति सर्वान्समाहूय कथयित्वा मनोरथम्॥३५॥
नत्वा च दण्डवद् भूमौ सत्यदेवं पुन: पुन:॥ ततस्तुष्ट: सत्यदेवो दिनानां परिपालक:॥३६॥
जगाद वचनं चैनं कृपया भक्तवत्सल:॥ त्यक्त्वा प्रसादं ते कन्या पर्ति द्रष्टुं समागता॥३७॥
अतोऽदृष्टोऽभवत्तस्या: कन्यकाया: पतिर्ध्रुवम् ॥ गृहं गत्वाप्रसादं च भुक्त्वा साऽऽयाति चेत्पुन:।३८।
लब्धभर्त्री सुता साधो भविष्यति न संशय:॥ कन्यका तादृशं वाक्यं श्रुत्वा गगनमण्डलात्।३९॥
क्षिप्रं तदा गृहं गत्वा प्रसादं च बुभोज सा॥ सा पश्चात्पुनरागत्य ददर्श स्वजनं पतिम् ॥४०॥
तत: कलावती कन्या जगाद पितरं प्रति॥ इदानीं च गृहं याहि विलम्बं कुरुषे कथम्॥४१॥
तच्छुत्वा कन्यकावाक्यं सन्तुष्टोऽभूद्वणिक्सुत:॥ पूजनं सत्यदेवस्य कृत्वा विधिविधानत:॥४२॥
धनैर्बन्धुगणै: सार्धं जगाम निजमन्दिरम्॥ पौर्णमास्यां च सङ्क्रा:तौकृतवा:सत्यपूजनम्।४३।
इहलोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ॥४४॥
(इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे सत्यनारायणव्रतकथायां चतुर्थोऽध्याय:॥४॥
"अनुवाद:-
सूतजी बोले- साधु नामक वैश्य मंगल स्मरण कर ब्राह्मणों को दान दक्षिणा दे, अपने घर की ओर चला। अभी कुछ दूर ही साधु चला था कि भगवान सत्यनारायण ने साधु वैश्य की मनोवृत्ति जानने के उद्देश्य से, दंडी का वेश धर, वैश्य से प्रश्न किया कि उसकी नाव में क्या है। संपत्ति में मस्त साधु ने हंसकर कहा कि दंडी स्वामी क्या तुम्हें मुद्रा (रुपए) चाहिए। मेरी नाव में तो लता-पत्र ही हैं। ऐसे निठुर वचन सुन श्री सत्यनारायण भगवान बोले कि तुम्हारा कहा सच हो।
इतना कह दंडी कुछ दूर समुद्र के ही किनारे बैठ गए। दंडी स्वामी के चले जाने पर साधु वैश्य ने देखा कि नाव हल्की और उठी हुई चल रही है। वह बहुत चकित हुआ। उसने नाव में लता-पत्र ही देखे तो मूर्च्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। होश आने पर वह चिंता करने लगा। तब उसके दामाद ने कहा ऐसे शोक क्यों करते हो। यह दंडी स्वामी का शाप है। वे दंडी सर्वसमर्थ हैं इसमें संशय नहीं है। उनकी शरण में जाने से मनवांछित फल मिलेगा।
दामाद का कहना मान, वैश्य दंडी स्वामी के पास गया। दंडी स्वामी को प्रणाम कर सादर बोला। जो कुछ मैंने आपसे कहा था उसे क्षमा कर दें। ऐसा कह वह बार-बार नमन कर महाशोक से व्याकुल हो गया। वैश्य को रोते देख दंडी स्वामी ने कहा मत रोओ। सुनो! तुम मेरी पूजा को भूलते हो। हे कुबुद्धि वाले! मेरी आज्ञा से तुम्हें बारबार दुःख हुआ है। वैश्य स्तुति करने लगा। साधु बोला- प्रभु आपकी माया से ब्रह्मादि भी मोहित हुए हैं। वे भी आपके अद्भुत रूप गुणों को नहीं जानते।
हे प्रभु! मुझ पर प्रसन्न होइए। मैं माया से भ्रमित मूढ़ आपको कैसे पहचान सकता हूं। कृपया प्रसन्न होइए। मैं अपनी सामर्थ्य से आपका पूजन करूंगा। धन जैसा पहले था वैसा कर दें। मैं शरण में हूं। रक्षा कीजिए। भक्तियुक्त वाक्यों को सुन जनार्दन संतुष्ट हुए। वैश्य को उसका मनचाहा वर देकर भगवान अंतर्धान हुए। तब वैश्य नाव पर आया और उसे धन से भरा देखा। सत्यनारायण की कृपा से मेरी मनोकामना पूर्ण हुई है, यह कहकर साधु वैश्य ने अपने सभी साथियों के साथ श्री सत्यनारायण की विधिपूर्वक पूजा की। भगवान सत्यदेव की कृपा प्राप्त कर साधु बहुत प्रसन्न हुआ। नाव चलने योग्य बना अपने देश की ओर चल पड़ा।
अपने गृह नगर के निकट वैश्य अपने दामाद से बोला- देखो वह मेरी रत्नपुरी है। धन के रक्षक दूत को नगर भेजा। दूत नगर में साधु वैश्य की स्त्री से हाथ जोड़कर उचित वाक्य बोला। वैश्य दामाद के साथ तथा बहुत-सा धन ले संगी-साथी के साथ, नगर के निकट आ गए हैं। दूत के वचन सुन लीलावती बहुत प्रसन्न हुई। भगवान सत्यनारायण की पूजा पूर्ण कर अपनी बेटी से बोली। मैं पति के दर्शन के लिए चलती हूं। तुम जल्दी आओ अपनी मां के वचन सुन पुत्री ने भी व्रत समाप्त माना।
प्रसाद लेना छोड़ अपने पति के दर्शनार्थ चल पड़ी। भगवान सत्यनारायण इससे रुष्ट हो गए और उसके पति तथा धन से लदी नाव को जल में डुबा दिया । कलावती ने वहां अपने पति को नहीं देखा। उसे बड़ा दुख हुआ और वह रोती हुई भूमि पर गिर गई। नाव को डूबती हुई देखा। कन्या के रुदन से डरा हुआ साधु वैश्य बोला- क्या आश्चर्य हो गया। नाव के मल्लाह भी चिंता करने लगे। अब तो लीलावती भी अपनी बेटी को दुखी देख व्याकुल हो पति से बोली।
इस समय नाव सहित दामाद कैसे अदृश्य हो गए हैं। न जाने किस देवता ने नाव हर ली है। प्रभु सत्यनारायण की महिमा कौन जान सकता है। इतना कह वह स्वजनों के साथ रोने लगी। फिर अपनी बेटी को गोद में ले विलाप करने लगी। वहां बेटी कलावती अपने पति के नहीं रहने पर दुखी हो रही थी। वैश्य कन्या ने पति की खड़ाऊ लेकर मर जाने का विचार किया। स्त्री सहित साधु वैश्य ने अपनी बेटी का यह रूप देखा। धर्मात्मा साधु वैश्य दुख से बहुत व्याकुल हो चिंता करने लगा। उसने कहा कि यह हरण श्री सत्यदेव ने किया है। सत्य की माया से मोहित हूं।
सबको अपने पास बुलाकर उसने कहा कि मैं सविस्तार सत्यदेव का पूजन करूंगा। दिन प्रतिपालन करने वाले भगवान सत्यनारायण कोबारंबार प्रणाम करने पर प्रसन्न हो गए। भक्तवत्सल ने कृपा कर यह वचन कहे। तुम्हारी बेटी प्रसाद छोड़ पति को देखने आई। इसी के कारण उसका पति अदृश्य हो गया। यदि यह घर जाकर प्रसाद ग्रहण करे और फिर आए। तो हे साधु! इसे इसका पति मिलेगा इसमें संशय नहीं है। साधु की बेटी ने भी यह आकाशवाणी सुनी।
तत्काल वह घर गई और प्रसाद प्राप्त किया। फिर लौटी तो अपने पति को वहां देखा। तब उसने अपने पिता से कहा कि अब घर चलना चाहिए देर क्यों कर रखी है। अपनी बेटी के वचन सुन साधु वैश्य प्रसन्न हुआ और भगवान सत्यनारायण का विधि-विधान से पूजन किया। अपने बंधु-बांधवों एवं जामाता को ले अपने घर गया। पूर्णिमा और संक्रांति को सत्यनारायण का पूजन करता रहा। अपने जीवनकाल में सुख भोगता रहा और अंत में श्री सत्यनारायण के वैकुंठ लोक गया, जो अवैष्णवों को प्राप्य नहीं है और जहां मायाकृत (सत्य, रज, तम) तीन गुणों का प्रभाव नहीं है।
श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे सत्यनारायणव्रतकथायां चतुर्थोऽध्याय:॥४॥