ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (दयानन्दसरस्वतीविरचिता)/११. प्रकाश्यप्रकाशकविषयः

अथ प्रकाश्यप्रकाशकविषयः संक्षेपतः

सम्पाद्यताम्

सूर्य्येण चन्द्रादयः प्रकाशिता भवन्तीत्यत्र विषये विचारः -

सत्येनोत्तभिता भूमिः सूर्य्येणोत्तभिता द्यौः।

ऋतेनादित्यास्तिष्ठन्ति दिवि सोमो अधि श्रितः॥1॥

सोमेनादित्या बलिनः सोमेन पृथिवी मही।

अथो नक्षत्राणामेषामुपस्थे सोम आहितः॥2॥

-अथर्व॰ कां॰ 14। अनु॰ 1। मं॰ 1।2॥

कः स्विदेकाकी चरति क उ स्विज्जायते पुनः।

किंस्विद्धिमस्य भेषजं किं वा ऽऽवपनं महत्॥3॥

सूर्य्य एकाकी चरति चन्द्रमा जायते पुनः।

अग्निर्हिमस्य भेषजं भूमिरावपनं महत्॥4॥

-य॰ अ॰ 23। मं॰ 9। 10॥

भाष्यम् - ( सत्येनो॰) एषामभि॰ - अत्र चन्द्रपृथिव्यादिलोकानां सूर्य्यः प्रकाशकोऽस्तीति। इयं भूमिः सत्येन नित्यस्वरूपेण ब्रह्मणोत्तभितोर्ध्वमाकाशमध्ये धारितास्ति वायुना सूर्येण च। (सूर्य्येण॰) तथा द्यौः सर्वः प्रकाशः सूर्य्येणोत्तभितो धारितः। (ऋतेन॰) कालेन सूर्य्येण वायुना वाऽऽदित्या द्वादश मासाः किरणास्त्रसरेणवो बलवन्तः सन्तो वा तिष्ठन्ति (दिवि सोमो अधिश्रितः) एवं दिवि द्योतनात्मके सूर्य्यप्रकाशे सोमश्चन्द्रमा अधिश्रित आश्रितः सन् प्रकाशितो भवति। अर्थाच्चन्द्रलोकादिषु स्वकीयः प्रकाशो नास्ति , सर्वे चन्द्रादयो लोकाः सूर्य्यप्रकाशेनैव प्रकाशिता भवन्तीति वेद्यम्॥1॥

(सोमेनादित्या॰) सोमेन चन्द्रलोकेन सहादित्याः किरणाः संयुज्य ततो निवृत्य च भूमिं प्राप्य बलिनो बलं कर्त्तुं शीला भवन्ति , तेषां बलप्रापकशीलत्वात्। तद्यथा , यावति अन्तरिक्षदेशे सूर्य्यप्रकाशस्यावरणं पृथिवी करोति तावति देशेऽधिकं शीतलत्वं भवति। तत्र सूर्य्यकिरणपतनाभावात्तदभावे चोष्णत्वाभावात्ते बलकारिणो बलवन्तो भवन्ति। सोमेन चन्द्रमसः प्रकाशेन सोमाद्यौषध्यादिना च पृथिवी मही बलवती पुष्टा भवति। अथो इत्यनन्तरमेषां नक्षत्राणामुपस्थे समीपे चन्द्रमा आहितः स्थापितः सन् वर्त्तत इति विज्ञेयम्॥2॥

(कः स्वि॰) को ह्येकाकी ब्रह्माण्डे चरति कोऽत्र स्वेनैव स्वयं प्रकाशितः सन् भवतीति ? कः पुनः प्रकाशितो जायते ? हिमस्य शीतस्य भेषजमौषधं किमस्ति ? तथा बीजारोपणार्थं महत् क्षेत्त्रमिव किमत्र भवतीति प्रश्नाश्चत्वारः॥3॥

एषां क्रमेणोत्तराणि - ( सूर्य्य एकाकी॰) अस्मिन्संसारे सूर्य्य एकाकी चरति स्वयं प्रकाशमानः सन्नन्यान् सर्वान् लोकान् प्रकाशयति। तस्यैव प्रकाशेन चन्द्रमाः पुनः प्रकाशितो जायते , नहि चन्द्रमसि स्वतः प्रकाशः कश्चिदस्तीति। अग्निर्हिमस्य शीतस्य भेषजमौषधमस्तीति भूमिर्महदावपनं बीजारोपणादेरधिकरणं क्षेत्रं चेति॥4॥

वेदेष्वेतद्विषयप्रतिपादका एवम्भूता मन्त्रा बहवः सन्ति।

॥इति प्रकाश्यप्रकाशकविषयः॥

भाषार्थ - (सत्येनो॰) इन मन्त्रों में यही विषय और उनका यही प्रयोजन है कि लोक दो प्रकार के होते हैं-एक तो प्रकाश करने वाले और दूसरे वे जो प्रकाश किये जाते हैं।

अर्थात् सत्यस्वरूप परमेश्वर ने ही अपने सामर्थ्य से सूर्य्य आदि सब लोकों को धारण किया है। उसी के सामर्थ्य से सूर्यलोक ने भी अन्य लोकों का धारण और प्रकाश किया है तथा ऋत अर्थात् काल ने बारह महिने, सूर्य किरण और वायु ने भी सूक्ष्म, स्थूल त्रसरेणु आदि पदार्थों का यथावत् धारण किया है। (दिवि सोमो॰) इसी प्रकार दिवि अर्थात् सूर्य के प्रकाश में चन्द्रमा प्रकाशित होता है। उस में जितना प्रकाश है सो सूर्य आदि लोक का ही है और ईश्वर का प्रकाश तो सब में है परन्तु चन्द्र आदि लोकों में अपना प्रकाश नहीं है, किन्तु सूर्य आदि लोकों से ही चन्द्र और पृथिव्यादि लोक प्रकाशित हो रहे हैं॥1॥

(सोमेनादित्या॰) जब आदित्य की किरण चन्द्रमा के साथ युक्त होके उस से उलट कर भूमि को प्राप्त होके बलवाली होती हैं, तभी वे शीतल भी होती हैं। क्योंकि आकाश के जिस जिस देश में सूर्य के प्रकाश को पृथिवी की छाया रोकती है, उस उस देश में शीत भी अधिक होता है। जिस जिस देश में सूर्य की किरण तिरछी पड़ती हैं, उस उस देश में गर्मी भी कमती होती है। फिर गर्मी के कम होने और शीतलता के अधिक होने से सब मूर्तिमान् पदार्थों के परमाणु जम जाते हैं। उनको जमने से पुष्टि होती है और जब उन के बीच में सूर्य की तेज रूप किरण पड़ती है, तब उन में से भाफ उठती है। उन के योग से किरण भी बलवाली होती हैं। जैसे जल में सूर्य का प्रतिबिम्ब अत्यन्त चमकता है और चन्द्रमा के प्रकाश और वायु से सोमलता आदि (ओषधियां भी पुष्ट होती हैं और उन से पृथिवी पुष्ट होती है। इसीलिये ईश्वर ने नक्षत्रलोकों के समीप चन्द्रमा को स्थापित किया है॥2॥

(कः स्वि॰) इस मन्त्र में चार प्रश्न हैं। उन के बीच में से पहला (प्रश्न)-कौन एकाकी अर्थात् अकेला विचरता और अपने प्रकाश से प्रकाशवाला है? (दूसरा)-कौन दूसरे के प्रकाश से प्रकाशित होता है? तीसरा-शीत का औषध क्या है? और चौथा-कौन बड़ा क्षेत्र अर्थात् स्थूल पदार्थ रखने का स्थान है॥3॥

इन चारों प्रश्नों का क्रम से उत्तर देते हैं-(सूर्य एकाकी॰) (1) इस संसार में सूर्य ही एकाकी अर्थात् अकेला विचरता और अपनी ही कील पर घूमता है तथा प्रकाशस्वरूप होकर सब लोकों का प्रकाश करने वाला है। (2) उसी सूर्य के प्रकाश से चन्द्रमा प्रकाशित होता है। (3) शीत का औषधि अग्नि है। (4) और चौथा यह है-पृथिवी साकार चीजों के रखने का स्थान तथा सब बीज बोने का बड़ा खेत है।

वेदों में इस विषय के सिद्ध करने वाले मन्त्र बहुत हैं उन में से यहां एकदेशमात्र लिख दिया है। वेदभाष्य में सब विषय विस्तारपूर्वक आ जावेंगे॥4॥

॥इति संक्षेपतः प्रकाश्यप्रकाशकविषयः॥11॥