ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (दयानन्दसरस्वतीविरचिता)/१५. मुक्तिविषयः

अथ मुक्तिविषयः संक्षेपतः

सम्पाद्यताम्

एवं परमेश्वरोपासनेनाविद्याऽधर्माचरण -निवारणाच्छुद्धविज्ञान-धर्मानुष्ठानोन्नतिभ्यां जीवो मुक्तिं प्राप्नोतीति।

अथात्र योगशास्त्रस्य प्रमाणानि। तद्यथा -

अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः॥1॥

अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम्॥2॥

अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या॥3॥

दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिता॥4॥

सुखानुशयी रागः॥5॥ दुःखानुशयी द्वेषः॥6॥

स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढोऽभिनिवेशः॥7॥

-अ॰ 1। पा॰ 2। सू॰ 3।4।5।6।7।8।9॥

तदभावात्संयोगाभावो हानं तद्दृशेः कैवल्यम्॥8॥

-अ॰ 1। पा॰ 2। सू॰ 25॥

तद्वैराग्यादपि दोषबीजक्षये कैवल्यम्॥9॥

-अ॰ 1। पा॰ 3। सू॰ 48॥

सत्त्वपुरुषयोः शुद्धिसाम्ये कैवल्यमिति॥10॥

-अ॰ 1। पा॰ 3। सू॰ 53॥

तदा विवेकनिम्नं कैवल्यप्राग्भारं चित्तम्॥11॥

-अ॰ 1। पा॰ 4। सू॰ 26॥

पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति॥12॥

-अ॰ 1। पा॰ 4। सू॰ 34॥

अथ न्यायशास्त्रप्रमाणानि -

दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः॥1॥

बाधनालक्षणं दुःखमिति॥2॥

तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः॥3॥

-न्यायद॰ अ॰ 1। आह्निक 1। सू॰ 2। 21। 22॥

भाषार्थ - इसी प्रकार परमेश्वर की उपासना करके, अविद्या आदि क्लेश तथा अधर्म्माचरण आदि दुष्ट गुणों को निवारण करके, शुद्ध विज्ञान और धर्मादि शुभ गुणों के आचरण से आत्मा की उन्नति करके, जीव मुक्ति को प्राप्त हो जाता है। अब इस विषय में प्रथम योगशास्त्र का प्रमाण लिखते हैं। पूर्व लिखी हुई चित्त की पांच वृत्तियों को यथावत् रोकने और मोक्ष के साधन में सब दिन प्रवृत्त रहने से, नीचे लिखे हुए पांच क्लेश नष्ट हो जाते हैं। वे क्लेश ये हैं-

(अविद्या॰) एक (अविद्या) दूसरा (अस्मिता) तीसरा (राग) चौथा (द्वेष) और पांचवां (अभिनिवेश)॥1॥

(अविद्याक्षेत्र॰) उन में से अस्मितादि चार क्लेशों और मिथ्याभाषणादि दोषों की माता अविद्या है, जो कि मूढ़ जीवों को अन्धकार में फंसा के जन्ममरणादि दुःखसागर में सदा डुबाती है। परन्तु जब विद्वान् और धर्मात्मा उपासकों की सत्यविद्या से अविद्या विच्छिन्न अर्थात् छिन्नभिन्न होके (प्रसुप्ततनु) नष्ट हो जाती है, तब वे जीव मुक्ति को प्राप्त हो जाते हैं॥2॥

अविद्या के लक्षण ये हैं-(अनित्या॰) अनित्य अर्थात् कार्य जो शरीर आदि स्थूल पदार्थ तथा लोकलोकान्तर में नित्यबुद्धि; तथा जो (नित्य) अर्थात् ईश्वर, जीव, जगत् का कारण, क्रिया क्रियावान्, गुण गुणी और धर्म धर्मी हैं, इन नित्य पदार्थों का परस्पर सम्बन्ध है, इन में अनित्यबुद्धि का होना, यह अविद्या का प्रथम भाग है।

तथा (अशुचि) मल मूत्र आदि के समुदाय दुर्गन्धरूप मल से परिपूर्ण शरीर में पवित्रबुद्धि का करना तथा तलाब, बावरी, कुण्ड, कूंआ और नदी आदि में तीर्थ और पाप छुड़ाने की बुद्धि करना और उन का चरणामृत पीना; एकादशी आदि मिथ्या व्रतों में भूख प्यास आदि दुःखों का सहना; स्पर्श इन्द्रिय के भोग में अत्यन्त प्रीति करना इत्यादि अशुद्ध पदार्थों को शुद्ध मानना और सत्यविद्या, सत्यभाषण, धर्म, सत्सङ्ग, परमेश्वर की उपासना, जितेन्द्रियता, सर्वोपकार करना, सब से प्रेमभाव से वर्त्तना आदि शुद्धव्यवहार और पदार्थों में अपवित्र बुद्धि करना, यह अविद्या का दूसरा भाग है।

तथा दुःख में सुखबुद्धि अर्थात् विषयतृष्णा, काम, क्रोध, लोभ, मोह, शोक, ईर्ष्या, द्वेष आदि दुःखरूप व्यवहारों में सुख मिलने की आशा करना, जितेन्द्रियता, निष्काम, शम, सन्तोष, विवेक, प्रसन्नता, प्रेम, मित्रता आदि सुखरूप व्यवहारों में दुःखबुद्धि का करना, यह अविद्या का तीसरा भाग है।

इसी प्रकार अनात्मा में आत्मबुद्धि अर्थात् जड़ में चेतनभावना और चेतन में जड़भावना करना अविद्या का चतुर्थ भाग है। यह चार प्रकार की अविद्या संसार के अज्ञानी जीवों को बन्धन का हेतु होके उन को सदा नचाती रहती है। परन्तु विद्या अर्थात् पूर्वोक्त अनित्य, अशुचि, दुःख और अनात्मा में अनित्य, अपवित्रता, दुःख और अनात्मबुद्धि का होना तथा नित्य, शुचि, सुख और आत्मा में नित्य, पवित्रता, सुख और आत्मबुद्धि करना यह चार प्रकार की विद्या है। जब विद्या से अविद्या की निवृत्ति होती है, तब बन्धन से छूट के जीव मुक्ति को प्राप्त होता है॥3॥

(दृग्दर्शन॰) दूसरा क्लेश अस्मिता कहाता है अर्थात् जीव और बुद्धि को मिले के समान देखना; अभिमान और अहङ्कार से अपने को बड़ा समझना इत्यादि व्यवहार को अस्मिता जानना। जब सम्यक् विज्ञान से अभिमान आदि के नाश होने से इस की निवृत्ति हो जाती है, तब गुणों के ग्रहण में रुचि होती है॥4॥

तीसरा (सुखानु॰) राग, अर्थात् जो जो सुख संसार में साक्षात् भोगने में आते हैं, उन के संस्कार की स्मृति से जो तृष्णा के लोभसागर में बहना है इस का नाम राग है। जब ऐसा ज्ञान मनुष्य को होता है कि सब संयोग, वियोग, संयोगवियोगान्त हैं अर्थात् वियोग के अन्त में संयोग और संयोग के अन्त में वियोग तथा वृद्धि के अन्त में क्षय और क्षय के अन्त में वृद्धि होती है, तब इस की निवृत्ति हो जाती है॥5॥

(दुःखानु॰) चौथा द्वेष कहाता है अर्थात् जिस अर्थ का पूर्व अनुभव किया गया हो उस पर और उसके साधनों पर सदा क्रोधबुद्धि होना। इस की निवृत्ति भी राग की निवृत्ति से ही होती है॥6॥

(स्वरसवा॰) पांचवां (अभिनिवेश) क्लेश है, जो सब प्राणियों को नित्य आशा होती है कि हम सदैव शरीर के साथ बने रहें अर्थात् कभी मरें नहीं, सो पूर्व जन्म के अनुभव से होती है। और इस से पूर्व जन्म भी सिद्ध होता है। क्योंकि छोटे-छोटे कृमि चींटी आदि जीवों को भी मरण का भय बराबर बना रहता है। इसी से इस क्लेश को अभिनिवेश कहते हैं। जो कि विद्वान् मूर्ख तथा क्षुद्रजन्तुओं में भी बराबर दीख पड़ता है। इस क्लेश की निवृत्ति उस समय होगी कि जब जीव, परमेश्वर और प्रकृति अर्थात् जगत् के कारण को नित्य और कार्यद्रव्य के संयोग वियोग को अनित्य जान लेगा। इन क्लेशों की शान्ति से जीवों को मोक्षसुख की प्राप्ति होती है॥7॥

(तदभावात्॰) अर्थात् जब अविद्यादि क्लेश दूर होके विद्यादि शुभ गुण प्राप्त होते हैं, तब जीव सब बन्धनों और दुःखों से छूट के मुक्ति को प्राप्त हो जाता है॥8॥

(तद्वैराग्या॰) अर्थात् शोकरहित आदि सिद्धि से भी विरक्त होके सब क्लेशों और दोषों का बीज जो अविद्या है, उस के नाश करने के लिए यथावत् प्रयत्न करे, क्योंकि उस के नाश के विना मोक्ष कभी नहीं हो सकता॥9॥

तथा (सत्त्वपुरुष॰) अर्थात् सत्त्व जो बुद्धि, पुरुष जो जीव, इन दोनों की शुद्धि से मुक्ति होती है, अन्यथा नहीं॥10॥

(तदा विवेक॰) जब सब दोषों से अलग होके ज्ञान की ओर आत्मा झुकता है, तब कैवल्य मोक्ष धर्म के संस्कार से चित्त परिपूर्ण हो जाता है, तभी जीव को मोक्ष प्राप्त होता है। क्योंकि जब तक बन्धन के कामों में जीव फंसता जाता है, तब तक उस को मुक्ति प्राप्त होना असम्भव है॥11॥

कैवल्यमोक्ष का लक्षण यह है कि-(पुरुषार्थ॰) अर्थात् कारण के सत्त्व, रजो और तमोगुण और उन के सब कार्य पुरुषार्थ से नष्ट होकर, आत्मा में विज्ञान और शुद्धि यथावत् होके, स्वरूपप्रतिष्ठा जैसा जीव का तत्त्व है, वैसा ही स्वाभाविक शक्ति और गुणों से युक्त होके, शुद्धस्वरूप परमेश्वर के स्वरूप विज्ञान प्रकाश और नित्य आनन्द में जो रहना है, उसी को कैवल्यमोक्ष कहते हैं॥12॥

अब मुक्तिविषय में गोतमाचार्य के कहे हुए न्यायशास्त्र के प्रमाण लिखते हैं-

(दुःखजन्म॰) जब मिथ्याज्ञान अर्थात् अविद्या नष्ट हो जाती है, तब जीव के सब दोष नष्ट हो जाते हैं। उस के पीछे (प्रवृत्ति) अर्थात् अधर्म, अन्याय, विषयासक्ति आदि की वासना सब दूर हो जाती है। उस के नाश होने से (जन्म) अर्थात् फिर जन्म नहीं होता। उस के न होने से सब दुःखों का अत्यन्त अभाव हो जाता है। दुःखों के अभाव से पूर्वोक्त परमानन्द मोक्ष अर्थात् सब दिन के लिये परमात्मा के साथ आनन्द ही आनन्द भोगने को बाकी रह जाता है। इसी का नाम मोक्ष है॥1॥

(बाधना॰) सब प्रकार की बाधा अर्थात् इच्छाविघात और परतन्त्रता का नाम दुःख है॥2॥

(तदत्यन्त॰) फिर उस दुःख के अत्यन्त अभाव और परमात्मा के नित्य योग करने से जो सब दिन के लिए परमानन्द प्राप्त होता है, उसी सुख का नाम मोक्ष है॥3॥

अथ वेदान्तशास्त्रस्य प्रमाणानि - अभावं बादरिराह ह्येवम्॥1॥

भावं जैमिनिर्विकल्पामननात्॥2॥

द्वादशाहवदुभयविधं बादरायणोऽतः॥3॥

-अ॰ 4। पा॰ 4। सू॰ 10। 11। 12॥

यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।

बुद्धिश्च न विचेष्टते तामाहुः परमां गतिम्॥1॥

तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्।

अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ॥2॥

यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः।

अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते॥3॥

यदा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृदयस्येह ग्रन्थयः।

अथ मर्त्योऽमृतो भवत्येतावदनुशासनम्॥4॥

-कठो॰ वल्ली 6। मं॰ 10। 11। 14। 15॥

दैवेन चक्षुषा मनसैतान् कामान् पश्यन् रमते॥5॥

य एते ब्रह्मलोके , तं वा एतं देवा आत्मानमुपासते , तस्मात्तेषां सर्वे च लोका आत्ताः सर्वे च कामाः , स सर्वांश्च लोकानाप्नोति सर्वांश्च कामान् , यस्तमात्मानमनुविद्य विजानातीति ह प्रजापतिरुवाच प्रजापतिरुवाच॥6॥

यदन्तरापस्तद् ब्रह्म तदमृतं स आत्मा , प्रजापतेः सभां वेश्म प्रपद्ये , यशोऽहं भवामि ब्राह्मणानां यशो , राज्ञां यशो , विशां यशोऽहमनुप्रापत्सि , स हाहं यशसां यशः॰॥7॥

-छान्दो॰ प्रपा॰ 7। खण्ड 12

अणुः पन्था वितरः पुराणो मांस्पृष्टो वित्तो मयैव।

तेन धीरा अपियन्ति ब्रह्मविद उत्क्रम्य स्वर्गं लोकमितो विमुक्ताः॥8॥

तस्मिञ्छुक्लमुत नीलमाहुः पिङ्गलं हरितं लोहितं च।

एष पन्था ब्रह्मणा हानुवित्तस्तेनैति ब्रह्मवित्तैजसः पुण्यकृच्च॥9॥

प्राणस्य प्राणमुत चक्षुषश्चक्षुरुत श्रोत्रस्य श्रोत्रमन्नस्यान्नं मनसो ये मनो विदुः। ते निचिक्युर्ब्रह्म पुराणमग्र्यं मनसैवाप्तव्यं नेह नानास्ति किञ्चन॥10॥

मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति। मनसैवानुद्रष्टव्यमेतदप्रमेयं ध्रुवम्॥11॥

विरजः पर आकाशात् अज आत्मा महाध्रुवः।

तमेव धीरो विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत ब्राह्मणः॥12॥

-श॰ कां॰ 14। अ॰ 7।

भाषार्थ - अब व्यासोक्त वेदान्तदर्शन और उपनिषदों में जो मुक्ति का स्वरूप और लक्षण लिखे हैं, सो आगे लिखते हैं-

(अभावं॰) व्यास जी के पिता जो बादरि आचार्य थे, उन का मुक्तिविषय में ऐसा मत है कि-जब जीव मुक्तदशा को प्राप्त होता है, तब वह शुद्ध मन से परमेश्वर के साथ परमानन्द मोक्ष में रहता है और इन दोनों से भिन्न इन्द्रियादि पदार्थों का अभाव हो जाता है॥1॥

तथा (भावं जैमिनि॰) इसी विषय में व्यास जी के मुख्य शिष्य जो जैमिनि थे, उन का ऐसा मत है कि-जैसे मोक्ष में मन रहता है, वैसे ही शुद्धसङ्कल्पमय शरीर तथा प्राणादि और इन्द्रियों की शुद्ध शक्ति भी बराबर बनी रहती है। क्योंकि उपनिषद् में 'स एकधा भवति, द्विधा भवति, त्रिधा भवति' इत्यादि वचनों का प्रमाण है कि मुक्त जीव सङ्कल्पमात्र से ही दिव्य शरीर रच लेता है और इच्छामात्र ही से शीघ्र छोड़ भी देता है और शुद्ध ज्ञान का सदा प्रकाश बना रहता है॥2॥

(द्वादशाह॰) इस मुक्तिविषय में बादरायण जो व्यास जी थे, उनका ऐसा मत है कि-मुक्ति में भाव और अभाव दोनों ही बने रहते हैं अर्थात् क्लेश, अज्ञान और अशुद्धि आदि दोषों का सर्वथा अभाव हो जाता है और परमानन्द, ज्ञान, शुद्धता आदि सब सत्यगुणों का भाव बना रहता है। इस में दृष्टान्त भी दिया है कि जैसे वानप्रस्थ आश्रम में बारह दिन का प्राजापत्यादि व्रत करना होता है, उस में थोड़ा भोजन करने से क्षुधा का थोड़ा अभाव और पूर्ण भोजन न करने से क्षुधा का कुछ भाव भी बना रहता है। इसी प्रकार मोक्ष में भी पूर्वोक्त रीति से भाव और अभाव समझ लेना। इत्यादि निरूपण मुक्ति का वेदान्तशास्त्र में किया है॥3॥

अब मुक्तिविषय में उपनिषत्कारों का जो मत है, सो भी आगे लिखते हैं कि-

(यदा पञ्चाव॰) अर्थात् जब मन के सहित पांच ज्ञानेन्द्रिय परमेश्वर में स्थिर होके उसी में सदा रमण करती हैं, और जब बुद्धि भी ज्ञान से विरुद्ध चेष्टा नहीं करती, उसी को परमगति अर्थात् मोक्ष कहते हैं॥1॥

(तां योग॰) उसी गति अर्थात् इन्द्रियों की शुद्धि और स्थिरता को विद्वान् लोग योग की धारणा मानते हैं। जब मनुष्य उपासनायोग से परमेश्वर को प्राप्त होके प्रमादरहित होता है, तभी जानो कि वह मोक्ष को प्राप्त हुआ। वह उपासनायोग कैसा है कि प्रभव अर्थात् शुद्धि और सत्यगुणों का प्रकाश करने वाला तथा (अप्ययः) अर्थात् सब अशुद्धि दोषों और असत्य गुणों का नाश करने वाला है। इसलिये केवल उपासना योग ही मुक्ति का साधन है॥2॥

(यदा सर्वे॰) जब इस मनुष्य का हृदय सब बुरे कामों से अलग होके शुद्ध हो जाता है, तभी वह अमृत अर्थात् मोक्ष को प्राप्त होके आनन्दयुक्त होता है।

(प्रश्न)-क्या वह मोक्षपद कहीं स्थानान्तर वा पदार्थ विशेष है? क्या वह किसी एक ही जगह में है वा सब जगह में?

(उत्तर)-नहीं, ब्रह्म जो सर्वत्र व्यापक हो रहा है, वही मोक्षपद कहाता है और मुक्त पुरुष उसी मोक्ष को प्राप्त होते हैं॥3॥

तथा (यदा सर्वे॰) जब जीव की अविद्यादि बन्धन की सब गांठें छिन्न भिन्न होके टूट जाती हैं, तभी वह मुक्ति को प्राप्त होता है॥4॥

(प्रश्न)-जब मोक्ष में शरीर और इन्द्रियां नहीं रहतीं, तब वह जीवात्मा व्यवहार को कैसे जानता और देख सकता है?

(उत्तर)-(दैवेन॰) वह जीव शुद्ध इन्द्रिय और शुद्ध मन से इन आनन्दरूप कामों को देखता और भोक्ता होकर उस में सदा रमण करता है, क्योंकि उस का मन और इन्द्रियां प्रकाशस्वरूप हो जाती हैं॥5॥

(प्रश्न)-वह मुक्त जीव सब सृष्टि में घूमता है अथवा कहीं एक ही ठिकाने बैठा रहता है।

(उत्तर)-(य एते ब्रह्मलोके॰) जो मुक्त पुरुष होते हैं, वे ब्रह्मलोक अर्थात् परमेश्वर को प्राप्त होके और सब के आत्मारूप परमेश्वर की उपासना करते हुए, उसी के आश्रय से रहते हैं। इसी कारण से उन का जाना आना सब लोकलोकान्तरों में होता है, उन के लिए कहीं रुकावट नहीं रहती और उन के सब काम पूर्ण हो जाते हैं, कोई काम अपूर्ण नहीं रहता। इसलिये जो मनुष्य पूर्वोक्त रीति से परमेश्वर को सब का आत्मा जान के, उस की उपासना करता है, वह अपनी सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त होता है। यह बात प्रजापति परमेश्वर सब जीवों के लिए वेदों में बताता है॥6॥

पूर्व प्रसङ्ग का अभिप्राय यह है कि मोक्ष की इच्छा सब जीवों को करनी चाहिए। (यदन्तरा॰) जो कि आत्मा का भी अन्तर्यामी है उसी को ब्रह्म कहते हैं। और वही अमृत अर्थात् मोक्षस्वरूप है। और जैसे वह सब का अन्तर्यामी है, वैसे उस का अन्तर्यामी कोई भी नहीं, किन्तु वह अपना अन्तर्यामी आप ही है। ऐसे प्रजानाथ परमेश्वर के व्याप्तिरूप सभास्थान को मैं प्राप्त होऊं। और इस संसार में जो पूर्ण विद्वान् ब्राह्मण हैं, उन के बीच में (यशः) अर्थात् कीर्ति को प्राप्त होऊं तथा (राज्ञां) क्षत्रियों (विशां) अर्थात् व्यवहार में चतुर लोगों के बीच में यशस्वी होऊं। हे परमेश्वर! मैं कीर्तियों का भी कीर्तिरूप होके आपको प्राप्त हुआ चाहता हूं। आप भी कृपा करके मुझ को सदा अपने समीप रखिये॥7॥

अब मुक्ति के मार्ग का स्वरूप वर्णन करते हैं- (अणुः पन्था॰) मुक्ति का जो मार्ग है, सो अणु अर्थात् अत्यन्त सूक्ष्म है। (वितरः) उस मार्ग से सब दुःखों के पार सुगमता से पहुंच जाते हैं, जैसे दृढ़ नौका से समुद्र को तर जाते हैं। तथा (पुराणः) जो मुक्ति का मार्ग है, वह प्राचीन है, दूसरा कोई नहीं। मुझ को (स्पृष्टः) वह ईश्वर की कृपा से प्राप्त हुआ है। उसी मार्ग से विमुक्त मनुष्य सब दोष और दुःखों से छूटे हुए, (धीराः) अर्थात् विचारशील और ब्रह्मवित्, वेदविद्या और परमेश्वर के जानने वाले जीव, (उत्क्रम्य) अर्थात् अपने सत्य पुरुषार्थ से सब दुःखों का उल्लङ्घन करके (स्वर्गं लोकं) सुखस्वरूप ब्रह्मलोक को प्राप्त होते हैं॥8॥

(तस्मिञ्छुक्ल॰) अर्थात् उसी मोक्षपद में शुक्ल = श्वेत, (नीलम्) शुद्ध घनश्याम, (पिङ्गलम्) पीला, श्वेत, (हरितम्) हरा और (लोहितम्) लाल ये सब गुण वाले लोक-लोकान्तर ज्ञान से प्रकाशित होते हैं। यही मोक्ष का मार्ग परमेश्वर के साथ समागम के पीछे प्राप्त होता है। उसी मार्ग से ब्रह्म का जानने वाला तथा (तैजसः) शुद्धस्वरूप और पुण्य का करने वाला मनुष्य मोक्षसुख को प्राप्त होता है अन्य प्रकार से नहीं॥9॥

(प्राणस्य प्राण॰) जो परमेश्वर प्राण का प्राण, चक्षु का चक्षु, श्रोत्र का श्रोत्र, अन्न का अन्न और मन का मन है, उस को जो विद्वान् निश्चय करके जानते हैं, वे पुरातन और सब से श्रेष्ठ ब्रह्म को मन से प्राप्त होने के योग्य मोक्षसुख को प्राप्त होके आनन्द में रहते हैं। (नेह ना॰) जिस सुख में किञ्चित् भी दुःख नहीं है॥10॥

(मृत्योः स मृत्यु॰) जो अनेक ब्रह्म अर्थात् दो, तीन, चार, दश, बीस जानता है, वा अनेक पदार्थों के संयोग से बना जानता है, वह वारंवार मृत्यु अर्थात् जन्ममरण को प्राप्त होता है। क्योंकि वह ब्रह्म एक और चेतनमात्रस्वरूप ही है तथा प्रमादरहित और व्यापक होके सब में स्थिर है। उस को मन से ही देखना होता है, क्योंकि ब्रह्म आकाश से भी सूक्ष्म है॥11॥

(विरजः पर आ॰) जो परमात्मा विक्षेपरहित, आकाश से परम सूक्ष्म, (अजः॰) अर्थात् जन्म रहित और महाध्रुव अर्थात् निश्चल है। ज्ञानी लोग उसी को जान के अपनी बुद्धि को विशाल करें। और वह इसी से ब्राह्मण कहाता है॥12॥

स होवाच। एतद्वै तदक्षरं गार्गि ब्राह्मणा अभिवदन्त्यस्थूलमनण्वह्रस्व -मदीर्घमलोहितमस्नेहमच्छायमतमो-ऽवाय्वनाकाशमसङ्गमस्पर्शमगन्धरसम-चक्षुष्कमश्रोत्रमवागमनो-ऽतेजस्कमप्राणममुखमनामागोत्रमजरममरमभयममृतमरजो-ऽशब्दमविवृतमसंवृतमपूर्वमनपरमनन्तरमबाह्यं न तदश्नोति कञ्चन न तदश्नोति कश्चन॥13॥

-श॰ कां॰ 14। अ॰ 6। क॰ 81॥

इति मुक्तैः प्राप्तव्यस्य मोक्षस्वरूपस्य सच्चिदानन्दादिलक्षणस्य परब्रह्मणः प्राप्त्या जीवस्सदा सुखी भवतीति बोध्यम्।

अथ वैदिकप्रमाणम् -

ये यज्ञेन दक्षिणया समक्ता

इन्द्रस्य सख्यममृतत्वमानश।

तेभ्यो भद्रमङ्गिरसो वो अस्तु

प्रति गृभ्णीत मानवं सुमेधसः॥1॥

-ऋ॰ अ॰ 8। अ॰ 2। व॰ 1। मं॰ 1॥

स नो बन्धुर्जनिता स विधाता

धामानि वेद भुवनानि विश्वा।

यत्र देवा अमृतमानशाना-

स्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त॥2॥

-य॰ अ॰ 32। मं॰ 10॥

भाष्यम् - अविद्यास्मितेत्यारभ्याध्यैरयन्तेत्यन्तेन मोक्षस्वरूपनिरूपण-मस्तीति वेदितव्यम्। एषाम् अर्थः प्राकृतभाषायां प्रकाश्यते।

भाषार्थ - (स होवाच ए॰) याज्ञवल्क्य कहते हैं, हे गार्गि! जो परब्रह्म नाश, स्थूल, सूक्ष्म, लघु, दीर्घ, लाल, चिक्कन, छाया, अन्धकार, वायु, आकाश, सङ्ग, शब्द, स्पर्श, गन्ध, रस, नेत्र, कर्ण, वाक्, मन, तेज, प्राण, मुख, नाम, गोत्र, वृद्धावस्था, मरण, भय, आकार, विकास, सङ्कोच, पूर्व, अपर, भीतर, बाह्य अर्थात् बाहर, इन सब दोष और गुणों से रहित मोक्षस्वरूप है, वह साकार पदार्थ के समान किसी को प्राप्त नहीं होता, और न कोई उस को मूर्त्त द्रव्य के समान प्राप्त होता है क्योंकि वह सब में परिपूर्ण, सब से अलग, अद्भुतस्वरूप परमेश्वर है। उस को प्राप्त होने वाला कोई नहीं हो सकता जैसे मूर्त्त द्रव्य को चक्षुरादि इन्द्रियों से साक्षात् कर सकता है। क्योंकि वह सब इन्द्रियों के विषयों से अलग और सब इन्द्रियों का आत्मा है॥13॥

तथा (ये यज्ञेन॰) अर्थात् पूर्वोक्त ज्ञानरूप यज्ञ और आत्मादि द्रव्यों की परमेश्वर को दक्षिणा देने से वे मुक्त लोग मोक्षसुख में प्रसन्न रहते हैं। (इन्द्रस्य॰) जो परमेश्वर के सख्य अर्थात् मित्रता से मोक्षभाव को प्राप्त हो गये हैं, उन्हीं के लिए भद्र नाम सब सुख नियत किये गये हैं। (अङ्गिरसः) अर्थात् उनके जो प्राण हैं, वे (सुमेधसः) उन की बुद्धि को अत्यन्त बढ़ाने वाले होते हैं। और उस मोक्षप्राप्त मनुष्य को पूर्वमुक्त लोग अपने समीप आनन्द में रख लेते हैं और फिर वे परस्पर अपने ज्ञान से एक दूसरे को प्रीतिपूर्वक देखते और मिलते हैं॥1॥

(स नो बन्धुः॰) सब मनुष्यों को यह जानना चाहिए कि वही परमेश्वर हमारा बन्धु अर्थात् दुःख का नाश करने वाला, (जनिता॰) सब सुखों को उत्पन्न और पालन करने वाला है तथा वही सब कामों को पूर्ण करता और सब लोकों को जानने वाला है कि जिस में देव अर्थात् विद्वान् लोग मोक्ष को प्राप्त होके सदा आनन्द में रहते हैं और वे तीसरे धाम अर्थात् शुद्ध सत्त्व से सहित होके सर्वोत्तम सुख में सदा स्वच्छन्दता से रमण करते हैं॥2॥

इस प्रकार संक्षेप से मुक्तिविषय कुछ तो वर्णन कर दिया और कुछ आगे भी कहीं कहीं करेंगे, सो जान लेना। जैसे 'वेदाहमेतं' इस मन्त्र में भी मुक्ति का विषय कहा गया है।

॥इति मुक्तिविषयः संक्षेपतः॥15॥