ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (दयानन्दसरस्वतीविरचिता)/२१. नियोगविषयः

अथ नियोगविषयः संक्षेपतः सम्पाद्यताम्

कुह स्विद्दोषा कुह वस्तोरश्विना

कुहाभिपित्वं करतः कुहोषतुः।

को वां शयुत्रा विधवेव देवरं

मर्य्यं न योषा कृणुते सधस्थ आ॥1॥

-ऋ॰ अ॰ 7। अ॰ 8। व॰ 18। मं॰ 2॥

इयं नारी पतिलोकं वृणाना

नि पद्यत उप त्वा मर्त्त्य प्रेतम्।

धर्मं पुराणमनुपालयन्ती

तस्यै प्रजां द्रविणं चेह धेहि॥2॥

-अथर्व॰ कां॰ 18। अनु॰ 3। व॰ 1। मं॰ 1॥

उदीर्ष्व नार्य्यभि जीवलोकं

गतासुमेतमुप शेष एहि।

हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं

पत्युर्जनित्वमभि सं बभूथ॥3॥

-ऋ॰ मं॰ 10। सू॰ 18। मं॰ 8॥

भाष्यम् - एषामभि॰ - अत्र विधवाविस्त्रीकनियोगव्यवस्था विधीयत इति।

(कुहस्विद्दोषा॰) हे विवाहितौ स्त्रीपुरुषौ! युवां (कुह) कस्मिन् स्थाने (दोषा) रात्रौ (वस्तोः) वसथः (कुह अश्विना) दिवसे च क्व वासं कुरुथः (कुहाभि॰) क्वाभिपित्वं प्राप्तिं (करतः) कुरुथः। (कुहोषतुः) क्व युवयोर्निजस्थानवासोऽस्ति। (को वां शयुत्रा) शयनस्थानं युवयोः क्वास्ति। इति स्त्रीपुरुषौ प्रति प्रश्नेन द्विवचनोच्चारणेन चैकस्य पुरुषस्यैकैव स्त्री कर्तुं योग्यास्ति , तथैकस्याः स्त्रिया एक एव पुरुषश्च। द्वयोः परस्परं सदैव प्रीतिर्भवेन्न कदाचिद्वियोग- व्यभिचारौ भवेतामिति द्योत्यते। (विधवेव देवरं) कं केव ? यथा देवरं द्वितीयं वरं नियोगेन प्राप्तं विधवा इव। अत्र प्रमाणम् -

देवरः कस्माद् द्वितीयो वर उच्यते॥ निरु॰ अ॰ 3। खं॰ 15॥ विधवाया द्वितीयपुरुषेण सह नियोगकरणे आज्ञास्ति तथा पुरुषस्य च विधवया सह। विधवा स्त्री मृतकस्त्रीकपुरुषेण सहैव सन्तानार्थं नियोगं कुर्यान्न कुमारेण सह तथा कुमारस्य विधवया सह च। अर्थात् कुमारयोः स्त्रीपुरुषयोरेकवारमेव विवाहः स्यात्। पुनरेवं नियोगश्च। नैव द्विजेषु द्वितीयवारं विवाहो विधीयते। पुनर्विवाहस्तु खलु शूद्रवर्ण एव विधीयते , तस्य विद्याव्यवहाररहितत्वात्। नियोजितौ स्त्रीपुरुषौ कथं परस्परं वर्त्तेतामित्यत्राह -

(मर्यं न योषा) यथा विवाहितं मनुष्यं (सधस्थे) समानस्थाने सन्तानार्थं योषा विवाहिता स्त्री (कृणुते) आकृणुते , तथैव विधवा विगतस्त्रीकश्च सन्तानोत्पत्तिकरणार्थं परस्परं नियोगं कृत्वा विवाहितस्त्रीपुरुषवद्वर्त्तेयाताम्॥1॥

(इयं नारी) इयं विधवा नारी (प्रेतं) मृतं पतिं विहाय (पतिलोकं) पतिसुखं (वृणाना) स्वीकर्तुमिच्छन्ती सती (मर्त्य) हे मनुष्य! (त्वा॰) त्वामुपनिपद्यते , त्वां पतिं प्राप्नोति , तव समीपं नियोगविधानेनागच्छति , तां त्वं गृहाणाऽस्यां सन्तानान्युत्पादय। कथम्भूता सा ? ( धर्मं पुराणं॰) वेदप्रतिपाद्यं सनातनं धर्म्ममनुपालयन्ती सती त्वां नियोगेन पतिं वृणुते , त्वमपीमां वृणु (तस्यै) विधवायै (इह) अस्मिन् समये लोके वा (प्रजां धेहि) त्वमस्यां प्रजोत्पत्तिं कुरु , ( द्रविणं) द्रव्यं वीर्यं (च) अस्यां धेहि अर्थाद् गर्भाधानं कुरु॥2॥

(उदीर्ष्व ना॰) हे विधवे नारि! (एतं गतासुं) गतप्राणं मृतं विवाहितं पतिं त्यक्त्वा (अभिजीवलोकं) जीवन्तं देवरं द्वितीयवरं पतिं (एहि) प्राप्नुहि (उपशेषे) तस्यैवोपशेषे सन्तानोत्पादनाय वर्त्तस्व तत्सन्तानं (हस्तग्राभस्य) विवाहे संगृहीतहस्तस्य पत्युः स्यात्। यदि नियुक्तपत्यर्थो नियोगः कृतस्तर्हि (दिधिषोः) तस्यैव सन्तानं भवेत्। (तवेदं) इदमेव विधवायास्तव (जनित्वं) सन्तानं भवति। हे विधवे! विगतविवाहितस्त्रीकस्य पत्युश्चैतन्नियोगकरणार्थं त्वं (उदीर्ष्व) विवाहितपतिमरणानन्तरमिमं नियोगमिच्छ। तथा (अभिसम्बभूथ) सन्तानोत्पत्तिं कृत्वा सुखसंयुक्ता भव॥3॥

भाषार्थ - नियोग उसको कहते हैं जिस से विधवा स्त्री और जिस पुरुष की स्त्री मर गई हो वह पुरुष, ये दोनों परस्पर नियोग करके सन्तानों को उत्पन्न करते हैं। नियोग करने में ऐसा नियम है कि जिस स्त्री का पुरुष वा किसी पुरुष की स्त्री मर जाय, अथवा उन में किसी प्रकार का स्थिर रोग हो जाय वा नपुंसक वन्ध्यादोष पड़ जाय, और उन की युवावस्था हो तथा सन्तानोत्पत्ति की इच्छा हो तो उस अवस्था में उन का नियोग होना अवश्य चाहिए। इसका नियम आगे लिखते हैं-

(कुहस्वित्॰) अर्थात् तुम दोनों विवाहित स्त्री पुरुषों ने (दोषा) रात्रि में कहां निवास किया था? (कुह वस्तोरश्विना) तथा दिन में कहां बसे थे? (कुहाभिपित्वं करतः) तुम ने अन्न वस्त्र धन आदि की प्राप्ति कहां की थी? (कुहोषतुः) तुम्हारा निवासस्थान कहां है? (को वां शयुत्रा) रात्रि में तुम कहां शयन करते हो? वेदों में पुरुष और स्त्री के विवाहविषय में एक ही वचन के प्रयोग करने से यह निश्चित हुआ कि वेदरीति से एक पुरुष के लिए एक ही स्त्री और एक स्त्री के लिए एक ही पुरुष होना चाहिए, अधिक नहीं। और न कभी इन द्विजों का पुनर्विवाह वा वियोग होना चाहिए।

(विधवेव देवरम्) जैसे विधवा स्त्री देवर के साथ सन्तानोत्पत्ति करती है वैसे तुम भी करो विधवा का जो दूसरा पति होता है, उसको देवर कहते हैं। इस से यह नियम होना चाहिए कि द्विजों अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों में दो दो सन्तानों के लिए नियोग होना और शूद्रकुल में पुनर्विवाह मरणपर्य्यन्त के लिए होना चाहिए। परन्तु माता, गुरुपत्नी, भगिनी, कन्या, पुत्रवधू आदि के साथ नियोग करने का सर्वथा निषेध है। यह नियोग शिष्ट पुरुषों की सम्मति और दोनों की प्रसन्नता से हो सकता है। जब दूसरा गर्भ रहे तब नियोग छूट जाय। और जो कोई इस नियम को तोड़े उस को द्विजकुल में से अलग करके शूद्र कुल में रख दिया जाय॥1॥

(इयं नारी पतिलोकं॰) जो विधवा नारी पतिलोक अर्थात् पति सुख की इच्छा करके नियोग किया चाहे, तो (प्रेतम्) अर्थात् वह पति मर जाने के अनन्तर दूसरे पति को प्राप्त हो। (उप त्वा मर्त्य॰) इस मन्त्र में स्त्री और पुरुष को परमेश्वर आज्ञा देता है कि हे पुरुष! (धर्मं पुराणमनुपालयन्ती) जो इस सनातन नियोग धर्म की रक्षा करनेवाली स्त्री है, उस के सन्तानोत्पत्ति के लिये (तस्यै प्रजां द्रविणं चेह धेहि) धर्म से वीर्य्यदान कर, जिस से वह प्रजा से युक्त होके आनन्द में रहे। तथा स्त्री के लिये भी आज्ञा है कि जब किसी पुरुष की स्त्री मर जाय और वह सन्तानोत्पत्ति किया चाहे, तब स्त्री भी उस पुरुष के साथ नियोग करके उस को प्रजायुक्त कर दे। इसलिये मैं आज्ञा देता हूं कि तुम मन, कर्म और शरीर से व्यभिचार कभी मत करो। किन्तु धर्मपूर्वक विवाह और नियोग से सन्तानोत्पत्ति करते रहो॥2॥

(उदीर्ष्व नारी) हे स्त्री! अपने मृतक पति को छोड़ के (अभि जीवलोकं) इस जीवलोक में (एतमुपशेष एहि) जो तेरी इच्छा हो तो दूसरे पुरुष के साथ नियोग करके सन्तानों को प्राप्त हो। नहीं तो ब्रह्मचर्याश्रम में स्थिर होकर कन्या और स्त्रियों को पढ़ाया कर। और जो नियोगधर्म में स्थित हो तो जब तक मरण न हो तब तक ईश्वर का ध्यान और सत्य धर्म के अनुष्ठान में प्रवृत्त होकर (हस्तग्राभस्य दिधिषोः) जो कि तेरा हस्त ग्रहण करनेवाला दूसरा पति है, उस की सेवा किया कर। वह तेरी सेवा किया करे और उसका नाम 'दिधिषु' है। (तवेदं) वह तेरे सन्तान की उत्पत्ति करनेवाला हो, और जो तेरे लिये नियोग किया गया हो तो वह तेरा सन्तान हो। (पत्युर्जनित्वम॰) और जो नियुक्त पति के लिये नियोग हुआ हो तो वह सन्तान पुरुष का हो। इस प्रकार नियोग से अपने अपने सन्तानों को उत्पन्न करके दोनों सदा सुखी रहो॥3॥

इमां त्वमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां सुभगां कृणु।

दशास्यां पुत्राना धेहि पतिमेकादशं कृधि॥4॥

सोमः प्रथमो विविदे गन्धर्वो विविद उत्तरः।

तृतीयो अग्निष्टे पतिस्तुरीयस्ते मनुष्यजाः॥5॥

-ऋ॰ अष्ट॰ 8। अ॰ 3। व॰ 28, 27। मं॰ 5,10॥

अदेवृघ्न्यपतिघ्नीहैधि

शिवा पशुभ्यः सुयमा सुवर्चाः।

प्रजावती वीरसूर्देवृकामा

स्योनेममग्निं गार्हपत्यं सपर्य॥6॥

-अथर्व॰ कां॰ 14। अनु॰ 2। मं॰ 18॥

भाष्यम् - इदानीं नियोगस्य सन्तानोत्पत्तेश्च परिगणनं क्रियते - कतिवारं नियोगः कर्त्तव्यः कियन्ति सन्तानानि चोत्पाद्यानीति। तद्यथा -( इमां त्वमिन्द्र॰) हे इन्द्र विवाहितपते! (मीढ्वः॰) हे वीर्य्यदान-कर्तस्त्वमिमां (विवाहितस्त्रियं वीर्य्यसेकेन गर्भयुक्तां कुरु। तां (सुपुत्रां) श्रेष्ठपुत्रवतीं (सुभगां) अनुत्तमसुखयुक्तां (कृणु) कुरु। (दशास्यां॰) अस्यां विवाहितस्त्रियां दश पुत्रानाधेहि उत्पादय , नातोऽधिकमिति। ईश्वरेण दशसन्तानोत्पादनस्यैवाज्ञा पुरुषाय दत्तेति विज्ञेयम्। तथा (पतिमेकादशं कृधि) हे स्त्रि! त्वं विवाहितपतिं गृहीत्वैकादशपतिपर्य्यन्तं नियोगं कुरु। अर्थात् कस्याञ्चिदापत्कालावस्थायां प्राप्तायामेकैकस्याभावे सन्तानोत्पत्त्यर्थं दशमपुरुषपर्य्यन्तं नियोगं कुर्य्यात्। तथा पुरुषोऽपि विवाहित-स्त्रियां मृतायां सत्यां सन्तानाभावे एकैकस्या अभावे दशम्या विधवया सह नियोगं करोत्वितीच्छा नास्ति चेन्मा कुरुताम्॥4॥

अथोत्तरोत्तरं पतीनां संज्ञा विधीयते -( सोमः प्रथमः॰) हे स्त्रि! यस्त्वां प्रथमः (विविदे) विवाहितः पतिः प्राप्नोति स सौकुमार्य्यादि-गुणयुक्तत्वात् सोमसंज्ञो भवति। (गन्धर्वो वि॰) यस्तु उत्तरः द्वितीयो नियुक्तः पतिर्विधवां त्वां विविदे प्राप्नोति स गन्धर्वसंज्ञां लभते। कुतः ? तस्य भोगाभिज्ञत्वात्। (तृतीयो अ॰) येन सह त्वं तृतीयवारं नियोगं करोषि सोऽग्निसंज्ञो जायते। कुतः ? द्वाभ्यां पुरुषाभ्यां भुक्तभोगया त्वया सह नियुक्तत्वादग्नि-दाहवत्तस्य शरीरस्थधातवो दह्यन्त इत्यतः (तुरीयस्ते मनुष्यजाः) हे स्त्रि! चतुर्थमारभ्य दशम-पर्य्यन्तास्तव पतयः साधारण-बलवीर्यत्वान्मनुष्यसंज्ञा भवन्तीति बोध्यम्। तथैव स्त्रीणामपि सोम्या , गन्धर्व्याग्नायी , मनुष्यजाः संज्ञास्तत्तद्गुणयुक्तत्वाद् भवन्तीति॥5॥

(अदेवृघ्न्यपतिघ्नि) हे अदेवृघ्नि देवरसेविके! हे अपतिघ्नि विवाहितपतिसेविके स्त्रि! त्वं (शिवा) कल्याणगुणयुक्ता , ( पशुभ्यः सुयमा सुवर्चाः) गृहकृत्येषु शोभननियमयुक्ता , गृहसम्बन्धिपशुभ्यो हिता , श्रेष्ठकान्ति-विद्यासहिता तथा (प्रजावती वीरसूः) प्रजापालनतत्परा , वीरसन्तानोत्पादिका , ( देवृकामा) नियोगेन द्वितीयवरस्य कामनावती , ( स्योना) सम्यक् सुखयुक्ता सुखकारिणी सती (इममग्निं गार्हपत्यं) गृहसम्बन्धिनमाहवनीयादिमग्निं , सर्वं गृहसम्बन्धिव्यवहारं च (सपर्य्य) प्रीत्या सम्यक् सेवय। अत्र स्त्रियाः पुरुषस्य चापत्काले नियोगव्यवस्था प्रतिपादितास्तीति वेदितव्यमिति॥6॥

भाषार्थ - (इमां॰) ईश्वर मनुष्यों को आज्ञा देता है, कि हे इन्द्रपते! ऐश्वर्ययुक्त! तू इस स्त्री को वीर्यदान दे के सुपुत्र और सौभाग्ययुक्त कर। हे वीर्यप्रद! (दशास्यां पुत्रानाधेहि) पुरुष के प्रति वेद की यह आज्ञा है कि इस विवाहित वा नियोजित स्त्री में दश सन्तानपर्यन्त उत्पन्न कर, अधिक नहीं (पतिमेकादशं कृधि) तथा हे स्त्री! तू नियोग में ग्यारह पति तक कर। अर्थात् एक तो उनमें प्रथम विवाहित और दश पर्यन्त नियोग के पति कर, अधिक नहीं।

इस की यह व्यवस्था है कि विवाहित पति के मरने वा रोगी होने से दूसरे पुरुष वा स्त्री के साथ सन्तानों के अभाव में नियोग करे। तथा दूसरे के भी मरण वा रोगी होने के अनन्तर तीसरे के साथ कर ले। इसी प्रकार दसवें तक करने की आज्ञा है। परन्तु एक काल में एक ही वीर्यदाता पति रहे। दूसरा नहीं। इसी प्रकार पुरुष के लिये भी विवाहित स्त्री के मर जाने पर विधवा के साथ नियोग करने की आज्ञा है। और जब वह भी रोगी हो वा मर जाय तो सन्तानोत्पत्ति के लिये दशमस्त्रीपर्यन्त नियोग कर लेवे॥4॥

अब पतियों की संज्ञा कहते हैं-(सोमः प्रथमो विविदे) उन में जो विवाहित पति होता है, उस की सोमसंज्ञा है। क्योंकि वह सुकुमार होने से मृदु आदि गुणयुक्त होता है। (गन्धर्वो विविद उत्तरः) दूसरा पति जो नियोग से होता है, सो गन्धर्वसंज्ञक अर्थात् भोग में अभिज्ञ होता है। (तृतीयो अग्निष्टे पतिः) तीसरा पति जो नियोग से होता है, वह अग्निसंज्ञक अर्थात् तेजस्वी अधिक उमरवाला होता है। (तुरीयस्ते मनुष्यजाः) और चौथे से ले के दशमपर्यन्त जो नियुक्त पति होते हैं, वे सब मनुष्यसंज्ञक कहाते हैं। क्योंकि वे मध्यम होते हैं॥5॥

(अदेवृघ्न्यपतिघ्नी) हे विधवा स्त्रि! तू देवर और विवाहित पति को सुख देनेवाली हो, किन्तु उन का अप्रिय किसी प्रकार से मत कर, और वे भी तेरा अप्रिय न करें। (एधि शिवा) इसी प्रकार मंगलकार्यों को करके सदा सुख बढ़ाते रहो। (पशुभ्यः सुयमा सुवर्चाः) घर के पशु आदि सब प्राणियों की रक्षा करके, जितेन्द्रिय होके, धर्मयुक्त श्रेष्ठ कार्यों को करती रहो तथा सब प्रकार के विद्यारूप उत्तम तेज को बढ़ाती जा। (प्रजावती वीरसूः) तू श्रेष्ठप्रजायुक्त हो, बड़े बड़े वीर पुरुषों को उत्पन्न कर। (देवृकामा) जो तू देवर की कामना करनेवाली है तो जब तेरा विवाहित पति न रहे वा रोगी तथा नपुंसक हो जाय, तब दूसरे पुरुष से नियोग करके सन्तानोत्पत्ति कर। (स्योनेममग्निं गार्हपत्यं सपर्य्य) और तू इस अग्निहोत्रादि घर के कामों को सुखरूप होके सदा प्रीति से सेवन कर॥6॥

इसी प्रकार से विधवा और पुरुष तुम दोनों आपत्काल में धर्म करके सन्तानोत्पत्ति करो और उत्तम उत्तम व्यवहारों को सिद्ध करते जाओ। गर्भहत्या वा व्यभिचार कभी मत करो। किन्तु नियोग ही कर लो, यही व्यवस्था सब से उत्तम है॥

॥इति नियोगविषयः संक्षेपतः॥21॥