ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (दयानन्दसरस्वतीविरचिता)/३०. प्रश्नोत्तरविषयः
अथ प्रश्नोत्तरविषयः संक्षेपतः
सम्पाद्यताम्प्रश्नः - अथ किमर्था वेदानां चत्वारो विभागाः सन्ति ?
उत्तरम् - भिन्नभिन्नविद्याज्ञापनाय।
प्र॰ - कास्ताः ?
उ॰ - त्रिधा गानविद्या भवति , गानोच्चारणविद्याया द्रुतमध्यमविलम्बित-भेदयुक्तत्वात्। यावता कालेन ह्रस्वस्वरोच्चारणं क्रियते , ततो दीर्घोच्चारणे द्विगुणः , प्लुतोच्चारणे त्रिगुणश्च कालो गच्छतीति। अत एवैकस्यापि , मन्त्रस्य चतसृषु संहितासु पाठः कृतोऽस्ति। तद्यथा - ' ऋग्भिस्स्तुवन्ति। यजुभिर्यजन्ति। सामभिर्गायन्ति ' । ऋग्वेदे सर्वेषां पदार्थानां गुणप्रकाशः कृतोऽस्ति , तथा यजुर्वेदे विदितगुणानां पदार्थानां सकाशात् क्रिययाऽनेकविद्योपकारग्रहणाय विधानं कृतमस्ति। तथा सामवेदे ज्ञानक्रियाविद्ययोर्दीर्घविचारेण फलावधिपर्य्यन्तं विद्याविचारः। एवमथर्ववेदेऽपि त्रयाणां वेदानां मध्ये यो विद्याफलविचारो विहितोऽस्ति तस्य पूर्तिकरणेन रक्षणोन्नती विहिते स्तः। एतदाद्यर्थं वेदानां चत्वारो विभागाः सन्ति।
प्रश्नः - वेदानां चतुःसंहिताकरणे किं प्रयोजनमस्तीति ?
उत्तरम् - यतो विद्याविधायकानां मन्त्राणां प्रकरणशः पूर्वापरसन्धानेन सुगमतया तत्रस्था विद्या विदिता भवेयुरेतदर्थं संहिताकरणम्।
प्र॰- देष्वष्टकमण्डलाध्यायसूक्तषट्ककाण्डवर्ग-दशतित्रिक-प्रपाठकानुवाक-विधानं किमर्थं कृतमस्ति ? इत्यत्र ब्रूमः -
उ॰ - अत्राष्टकादीनां विधानमेतदर्थमस्ति यथा सुगमतया पठनपाठनमन्त्र-परिगणनं , प्रतिविद्यं विद्याप्रकरणबोधश्च भवेदेतदर्थमेतद्विधानं कृतमस्तीति।
प्र॰ - किमर्था ऋग्यजुःसामाथर्वाणः प्रथमद्वितीयतृतीय-चतुर्थसंख्यया क्रमेण परिगणिताः सन्ति ? इत्यत्रोच्यते -
उ॰ - न यावद् गुणगुणिनोः साक्षाज्ज्ञानं भवति , नैव तावत्संस्कारः प्रीतिश्च , न चाभ्यां विना प्रवृत्तिर्भवति , तया विना सुखाभावश्चेति। एतद्विद्याविधायकत्वादृग्वेदः प्रथमं परिगणितुं योग्योऽस्ति। एवं च यथापदार्थगुणज्ञानानन्तरं क्रिययोपकारेण सर्वजगद्धितसम्पादनं कार्य्यं भवति , यजुर्वेद एतद्विद्याप्रतिपादकत्वाद् द्वितीयः परिगणितोऽस्तीति बोध्यम्। तथा ज्ञानकर्मकाण्डयोरुपासनायाश्च कियत्युन्नतिर्भवितुमर्हति , किञ्चैतेषां फलं भवति , सामवेद एतद्विधायकत्वात्तृतीयो गण्यत इति। एवमेवाथर्ववेदस्त्रय्यन्तर्गतविद्यानां परिशेषरक्षण-विधायकत्वाच्चतुर्थः परिगण्यत इति।
अतो गुणज्ञानक्रियाविज्ञानोन्नतिशेषविद्यारक्षणानां पूर्वापरसहभावे संयुक्तत्वात्क्रमेणर्ग्यजुस्सामाथर्वाण इति चतस्रः संहिताः परिगणिताः संज्ञाश्च कृताः सन्ति। ' ऋच स्तुतौ ', ' यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु ,' ' साम सान्त्वने ,' ' षो अन्तकर्मणि ', थर्वतिश्चरतिकर्मा तत्प्रतिषेधः॥
- निरु॰ अ॰ 11। खं॰ 18॥
' चर संशये ', अनेनाथर्वशब्दः संशयनिवारणार्थो गृह्यते। एवं धात्वर्थोक्तप्रमाणेभ्यः क्रमेण वेदाः परिगण्यन्ते चेति वेदितव्यम्।
भाषार्थ - प्र॰ - वेदों के चार विभाग क्यों किये हैं?
उ॰ - भिन्न भिन्न विद्या जनाने के लिये। अर्थात् जो तीन प्रकार की गानविद्या है, एक तो यह कि-उदात्त और षड्जादि स्वरों का उच्चारण ऐसी शीघ्रता से करना, जैसा कि ऋग्वेद के स्वरों का उच्चारण द्रुत अर्थात् शीघ्रवृत्ति में होता है। दूसरी-मध्यमवृत्ति, जैसे कि यजुर्वेद के स्वरों का उच्चारण ऋग्वेद के मन्त्रों से दूने काल में होता है। तीसरी-विलम्बितवृत्ति है, जिस में प्रथमवृत्ति से तिगुना काल लगता है, जैसा कि सामवेद के स्वरों के उच्चारण वा गान में। फिर उन्हीं तीनों वृत्तियों के मिलाने से अथर्ववेद का भी उच्चारण होता है। परन्तु इसका द्रुतवृत्ति में उच्चारण अधिक होता है, इसलिये वेदों के चार विभाग हुए हैं।
तथा कहीं कहीं एक मन्त्र का चार वेदों में पाठ करने का यही प्रयोजन है कि वह पूर्वोक्त चारों प्रकार की गानविद्या में गाया जावे, तथा प्रकरणभेद से कुछ कुछ अर्थभेद भी होता है। इसलिये कितने ही मन्त्रों का पाठ चारों वेदों में किया जाता है।
ऐसे ही 'ऋग्भिस्तु॰' ऋग्वेद में सब पदार्थों के गुणों का प्रकाश किया है, जिससे उन में प्रीति बढ़कर उपकार लेने का ज्ञान प्राप्त हो सके। क्योंकि विना प्रत्यक्ष ज्ञान के संस्कार और प्रवृत्ति का आरम्भ नहीं हो सकता, और आरम्भ के विना यह मनुष्यजन्म व्यर्थ ही चला जाता है। इसलिये ऋग्वेद की गणना प्रथम ही की है।
तथा यजुर्वेद में क्रियाकाण्ड का विधान लिखा है, सो ज्ञान के पश्चात् ही कर्त्ता की प्रवृत्ति यथावत् हो सकती है। क्योंकि जैसा ऋग्वेद में गुणों का कथन किया है, वैसा ही यजुर्वेद में अनेक विद्याओं के ठीक ठीक विचार करने से संसार में व्यवहारी पदार्थों से उपयोग सिद्ध करना होता है। जिनसे लोगों को नाना प्रकार का सुख मिले। क्योंकि जबतक कोई क्रिया विधिपूर्वक न की जाय, तबतक उसका अच्छी प्रकार भेद नहीं खुल सकता। इसलिये जैसा कुछ जानना वा कहना वैसा ही करना भी चाहिए, तभी ज्ञान का फल और ज्ञानी की शोभा होती है।
तथा यह भी जानना आवश्यक है कि जगत् का उपकार मुख्य करके दो ही प्रकार का होता है, एक-आत्मा और दूसरा-शरीर का। अर्थात् विद्यादान से आत्मा, और श्रेष्ठ नियमों से उत्तम पदार्थों की प्राप्ति करके शरीर का उपकार होता है। इसलिये ईश्वर ने ऋग्वेदादि का उपदेश किया है कि जिन से मनुष्य लोग ज्ञान और क्रियाकाण्ड को पूर्ण रीति से जान लेवें। तथा सामवेद से ज्ञान और आनन्द की उन्नति, और अथर्ववेद से सर्व संशयों की निवृत्ति होती है, इसलिये इनके चार विभाग किये हैं।
प्र॰ - प्रथम ऋग्, दूसरा यजुः, तीसरा साम और चौथा अथर्ववेद इस क्रम से चार वेद क्यों गिने हैं?
उ॰ - जबतक गुण और गुणी का ज्ञान मनुष्य को नहीं होता तब पर्य्यन्त उनमें प्रीति से प्रवृत्ति नहीं हो सकती, और इस के विना शुद्ध क्रियादि के अभाव से मनुष्यों को सुख भी नहीं हो सकता था, इसलिये वेदों के चार विभाग किये हैं कि जिस से प्रवृत्ति हो सके। क्योंकि जैसे इस गुणज्ञान विद्या को जनाने से पहले ऋग्वेद की गणना योग्य है, वैसे ही पदार्थों के गुणज्ञान के अनन्तर क्रियारूप उपकार करके सब जगत् का अच्छी प्रकार से हित भी सिद्ध हो सके, इस विद्या के जनाने के लिये यजुर्वेद की गिनती दूसरी बार की है। ऐसे ही ज्ञान, कर्म और उपासनाकाण्ड की वृद्धि वा फल कितना और कहां तक होना चाहिये, इस का विधान सामवेद में लिखा है, इसलिये उस को तीसरा गिना है। ऐसे ही तीन वेदों में जो जो विद्या हैं, उन सब के शेष भाग की पूर्ति-विधान, सब विद्याओं की रक्षा और संशय निवृत्ति के लिये अथर्ववेद को चौथा गिना है।
सो गुणज्ञान, क्रियाविज्ञान, इन की उन्नति तथा रक्षा को पूर्वापर क्रम से जान लेना। अर्थात् ज्ञानकाण्ड के लिये ऋग्वेद, क्रियाकाण्ड के लिए यजुर्वेद, इन की उन्नति के लिए सामवेद और शेष अन्य रक्षाओं के प्रकाश करने के लिये अथर्ववेद की प्रथम, दूसरी, तीसरी और चौथी करके संख्या बांधी है। क्योंकि (ऋच स्तुतौ) (यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु) (षो अन्तकर्मणि) और (साम सान्त्वप्रयोगे) (थर्वतिश्चरतिकर्मा॰) इन अर्थों के विद्यमान होने से चार वेदों अर्थात् ऋग्, यजुः, साम और अथर्व की ये चार संज्ञा रक्खी हैं तथा अथर्ववेद का प्रकाश ईश्वर ने इसलिये किया है कि जिस से तीनों वेदों की अनेक विद्याओं के सब विघ्नों का निवारण और उन की गणना अच्छी प्रकार से हो सके।
प्र॰ - वेदों की चार संहिता करने का क्या प्रयोजन है?
उ॰ - विद्या के जनानेवाले मन्त्रों के प्रकरण से जो पूर्वापर का ज्ञान होना है उस से वेदों में कही हुई सब विद्या सुगमता से जान ली जायें, इत्यादि प्रयोजन संहिताओं के करने में हैं।
प्र॰ - अच्छा अब आप यह तो कहिये कि वेदों में जो अष्टक, अध्याय, मण्डल, सूक्त, षट्क, काण्ड, वर्ग, दशति, त्रिक और अनुवाक रक्खे हैं, ये किसलिये हैं?
उ॰ - इन का विधान इसलिये है कि जिस से पठन-पाठन और मन्त्रों की गिनती विना कठिनता के जान ली जाय तथा सब विद्याओं के पृथक् पृथक् प्रकरण निर्भ्रमता के साथ विदित होकर सब विद्याव्यवहारों में गुण और गुणी के ज्ञानद्वारा मनन और पूर्वापर स्मरण होने से अनुवृत्तिपूर्वक आकाङ्क्षा, योग्यता, आसत्ति और तात्पर्य सब को विदित हो सके, इत्यादि प्रयोजन के लिये अष्टकादि किये हैं।
प्रश्नः - प्रत्येकमन्त्रस्योपरि ऋषिदेवताछन्दःस्वराः किमर्था लिख्यन्ते ?
उत्तरम् - यतो वेदानामीश्वरोक्त्यनन्तरं येन येनर्षिणा यस्य यस्य मन्त्रस्यार्थो यथावद्विदितस्तस्मात्तस्य तस्योपरि तत्तदृषेर्नामोल्लेखनं कृतमस्ति। कुतः ? तैरीश्वरध्यानानुग्रहाभ्यां महता प्रयत्नेन मन्त्रार्थस्य प्रकाशितत्वात् , तत्कृतमहोपकारस्मरणार्थं तन्नामलेखनं प्रतिमन्त्रस्योपरि कर्तुं योग्यमस्त्यतः। अत्र प्रमाणम् -
' यो वाचं श्रुतवान् भवत्यफलामपुष्पामित्यफलाऽस्मा अपुष्पा वाग्भवतीति वा किञ्चित्पुष्पफलेति वा। अर्थं वाचः पुष्पफलमाह। याज्ञदैवते पुष्पफले देवताध्यात्मे वा। साक्षात्कृतधर्माण ऋषयो बभूवुस्तेऽवरेभ्योऽसाक्षात्कृतधर्मभ्य उपदेशेन मन्त्रान् सम्प्रादुरुपदेशाय ग्लायन्तोऽवरे बिल्मग्रहणायेमं ग्रन्थं समाम्नासिषुर्वेदं च वेदाङ्गानि च। बिल्मं भिल्मं भासनमिति वैतावन्तः समानकर्माणो धातवो धातुर्दधातेरेतावन्त्यस्य सत्त्वस्य नामधेयान्येतावतामर्थानामि-दमभिधानं नैघण्टुकमिदं देवतानाम प्राधान्येनेदमिति। तद्यदन्यदैवते मन्त्रे निपतति नैघण्टुकं तत्॥
- निरु॰ अ॰ 1। खं॰ 20॥
(यो वाचं॰) यो मनुष्योऽर्थविज्ञानेन विना श्रवणाध्ययने करोति तदफलं भवति।
प्रश्नः - वाचो वाण्याः किं फलं भवतीत्यत्राह -
उत्तरम् - विज्ञानं तथा तज्ज्ञानानुसारेण कर्मानुष्ठानम्।
य एवं ज्ञात्वा कुर्वन्ति त ऋषयो भवन्ति। कीदृशास्ते ? साक्षात्कृतधर्माणः। यैः सर्वा विद्या यथावद्विदितास्त ऋषयो बभूवुस्तेऽवरेभ्योऽसाक्षात्कृतवेदेभ्यो मनुष्येभ्य उपदेशेन वेदमन्त्रान् सम्प्रादुः , मन्त्रार्थांश्च प्रकाशितवन्तः। कस्मै प्रयोजनाय ? उत्तरोत्तरं वेदार्थप्रचाराय। ये चावरेऽध्ययनायोपदेशाय च ग्लायन्ति तान् वेदार्थविज्ञापनायेमं नैघण्टुकं निरुक्ताख्यं ग्रन्थं त ऋषयः समाम्नासिषुः। सम्यगभ्यासं कारितवन्तः। येन वेदं वेदाङ्गानि यथार्थविज्ञानतया सर्वे मनुष्या जानीयुः। ये समानार्थाः समानकर्माणो धातवो भवन्ति तदर्थप्रकाशो यत्र क्रियते। अस्यार्थस्यैतावन्ति नामधेयान्येतावतामर्थानामिदमभिधानार्थमेकं नाम , अर्थादेकस्यार्थस्यानेकानि नामान्यनेकेषामेकं नामेति तन्नैघण्टुकं व्याख्यानं विज्ञेयम्। यत्रार्थानां द्योत्यानां पदार्थानां प्राधान्येन स्तुतिः क्रियते , तत्र सैवेयं मन्त्रमयी देवता विज्ञेया। यच्च मन्त्राद्भिन्नार्थस्यैव सङ्के तः प्रकाश्यते , तदपि नैघण्टुकं व्याख्यानमिति॥
अतो नैव कश्चिन्मनुष्यो मन्त्रनिर्मातेति विज्ञेयम्। एवं येन येनर्षिणा यस्य यस्य मन्त्रास्यार्थः प्रकाशितोऽस्ति तस्य तस्य ऋषेरेकैकमन्त्रस्य सम्बन्धे नामोल्लेखः कृतोऽस्ति। तथा यस्य यस्य मन्त्रस्य यो योऽर्थोस्ति , सः सोऽर्थस्तस्य तस्य देवताशब्देनाभिप्रायार्थविज्ञापनार्थं प्रकाश्यते। एतदर्थं देवताशब्दलेखनं कृतम्। एवं च यस्य यस्य मन्त्रस्य गायत्र्यादिछन्दोऽस्ति तत्तद्विज्ञानार्थं छन्दोलेखनम्। तथा यस्य यस्य मन्त्रस्य येन येन स्वरेण वादित्रवादनपूर्वकं गानं कर्तुं योग्यमस्ति , तत्तदर्थं षड्जादिस्वरोल्लेखनं कृतमस्तीति सर्वमेतद्विज्ञेयम्।
भाषार्थ - प्र॰ - प्रति मन्त्र के साथ ऋषि, देवता, छन्द और स्वर किसलिये लिखते हैं?
उ॰ - ईश्वर जिस समय आदि सृष्टि में वेदों का प्रकाश कर चुका, तभी से प्राचीन ऋषि लोग वेदमन्त्रों के अर्थों का विचार करने लगे। फिर उन में से जिस जिस मन्त्र का अर्थ, जिस जिस ऋषि ने प्रकाशित किया, उस उस का नाम उसी मन्त्र के साथ स्मरण के लिये लिखा गया है। इसी कारण से उन का ऋषि नाम भी हुआ है। और जो उन्होंने ईश्वर के ध्यान और अनुग्रह से बड़े प्रयत्न के साथ वेदमन्त्रों के अर्थों को यथावत् जानकर सब मनुष्यों के लिये पूर्ण उपकार किया है, इसलिये विद्वान् लोग वेदमन्त्रों के साथ उनका स्मरण रखते हैं।
इस विषय में अर्थसहित प्रमाण लिखते हैं-
(यो वाचं॰) जो मनुष्य अर्थ को समझे विना अध्ययन वा श्रवण करते हैं, उन का सब परिश्रम निष्फल होता है। प्र॰- वाणी का फल क्या है? उ॰- अर्थ को ठीक ठीक जान के उसी के अनुसार व्यवहारों में प्रवृत्त होना वाणी का फल है। और जो लोग इस नियम पर चलते हैं, वे साक्षात् धर्मात्मा अर्थात् ऋषि कहलाते हैं। इसलिये जिन्होंने सब विद्याओं को यथावत् जाना था; वे ही ऋषि हुए थे। जिन्होंने अपने उपदेश से अवर अर्थात् अल्पबुद्धि मनुष्यों को वेदमन्त्रों के अर्थों का प्रकाश कर दिया है। प्र॰- किस प्रयोजन के लिये? उ॰- वेदार्थ प्रचार की परम्परा स्थिर रहने के लिये तथा जो लोग वेद शास्त्रादि पढ़ने को कम समर्थ हैं वे जिस से सुगमता से वेदार्थ जान लेवें, इसलिये निघण्टु और निरुक्त आदि ग्रन्थ भी बना दिये हैं कि जिन के सहाय से सब मनुष्य वेद और वेदाङ्गों को ज्ञानपूर्वक पढ़कर उन के सत्य अर्थों का प्रकाश करें। 'निघण्टु' उस को कहते हैं कि जिस में तुल्य अर्थ और तुल्य कर्मवाले धातुओं की व्याख्या एक पदार्थ को अनेकार्थ तथा अनेक अर्थों का एक नाम से प्रकाश और मन्त्रों से भिन्न अर्थों का सङ्केत है। और 'निरुक्त' उस का नाम है कि जिस में वेदमन्त्रों की व्याख्या है॥1॥
और जिन जिन मन्त्रों में जिन जिन पदार्थों की प्रधानता से स्तुति की है, उनके मन्त्रमय देवता जानने चाहिए। अर्थात् जिस जिस मन्त्र का जो जो अर्थ होता है वही उस का देवता कहाता है। सो यह इसलिये है कि जिस से मन्त्रों को देख के उन के अभिप्रायार्थ का यथार्थ ज्ञान हो जाय। इत्यादि प्रयोजन के लिये देवता शब्द मन्त्र के साथ में लिखा जाता है।
ऐसे ही जिस जिस मन्त्र का जो जो छन्द है, सो भी उस के साथ इसलिये लिख दिया गया है कि उन से मनुष्यों को छन्दों का ज्ञान भी यथावत् होता रहे। तथा कौन कौन सा छन्द किस किस स्वर में गाना चाहिए, इस बात को जनाने के लिये उन के साथ में षड्जादि स्वर लिखे जाते हैं। जैसे गायत्री छन्दवाले मन्त्रों को षड्ज स्वर में गाना चाहिये। ऐसे ही और भी बता दिये हैं कि जिस से मनुष्य लोग गानविद्या में भी प्रवीण हों। इसीलिये वेद में प्रत्येक मन्त्र के साथ उन के षड्ज आदि स्वर लिखे जाते हैं।
प्र॰ - वेदेष्वग्निवाय्विन्द्राश्विसरस्वत्यादिशब्दानां क्रमेण पाठः किमर्थः कृतोऽस्ति ?
उ॰ - पूर्वापरविद्याविज्ञापनार्थं विद्यासङ्ग्यनुषङ्गि-प्रतिविद्यानुषङ्गिबोधार्थं चेति। तद्यथा - अग्निशब्देनेश्वर-भौतिकार्थयोर्ग्रहणं भवति। यथाऽनेनेश्वरस्य ज्ञानव्यापकत्वादयो गुणा विज्ञातव्या भवन्ति , यथेश्वररचितस्य भौतिकस्याग्नेः शिल्पविद्याया मुख्यहेतुत्वात्प्रथमं गृह्यते , तथेश्वरस्य सर्वाधारकत्वानन्त-बलवत्त्वादिगुणा वायुशब्देन प्रकाश्यन्ते। यथा शिल्पविद्यायां भौतिकाग्नेः सहायकारित्वान्मूर्त-द्रव्याधारकत्वात्तदनुषङ्गित्वाच्च भौतिकस्य वायोर्ग्रहणं कृतमस्ति , तथैव वाय्वादीनामाधारकत्वादीश्वरस्यापीति। यथेश्वरस्येन्द्रशब्देन परमैश्वर्य्यवत्त्वादिगुणा विदिता भवन्ति , तथा भौतिकेन वायुनाप्युत्तमैश्वर्य्यप्राप्तिर्मनुष्यैः क्रियते। एतदर्थमिन्द्रशब्दस्य ग्रहणं कृतमस्ति।
अश्विशब्देन शिल्पविद्यायां यानचालनादिविद्याव्यवहारे जलाग्निपृथिवीप्रकाशादयो हेतवः प्रतिहेतवश्च सन्ति , एतदर्थमग्निवायु-ग्रहणानन्तरमश्विशब्दप्रयोगो वेदेषु कृतोऽस्ति। एवं च सरस्वतीशब्देनेश्वरस्यानन्त-विद्यावत्त्वशब्दार्थ-सम्बन्धरूपवेदोपदेष्टृत्त्वादिगुणा वेदेषु प्रकाशिता भवन्ति वाग्व्यवहाराश्च। इत्यादिप्रयोजनायाग्नि-वाय्विन्द्राश्वि-सरस्वत्यादि-शब्दानां ग्रहणं कृतमस्ति। एवमेव सर्वत्रैव वैदिकशब्दार्थव्यवहारज्ञानं सर्वैर्मनुष्यैर्बोध्यमस्तीति विज्ञाप्यते।
भाषार्थ - प्र॰ - वेदों में अनेक वार अग्नि, वायु, इन्द्र, सरस्वती आदि शब्दों का प्रयोग किसलिये किया है?
उ॰ - पूर्वापर विद्याओं के जनाने के लिये, अर्थात् जिस जिस विद्या में जो जो मुख्य और गौण हेतु हैं, उनके प्रकाश के लिए ईश्वर ने अग्नि आदि शब्दों का प्रयोग पूर्वापर सम्बन्ध से किया है। क्योंकि अग्नि शब्द से ईश्वर और भौतिक आदि कितने ही अर्थों का ग्रहण होता है, इस प्रयोजन से कि उस का अनन्त ज्ञान अर्थात् उस की व्यापकता आदि गुणों का बोध मनुष्यों को यथावत् हो सके। फिर इसी अग्नि शब्द से पृथिव्यादि भूतों के बीच में जो प्रत्यक्ष अग्नि तत्त्व है, वह शिल्पविद्या का मुख्य हेतु होने के कारण उस का ग्रहण प्रथम ही किया है।
तथा ईश्वर के सब को धारण करने और उस के अनन्त बल आदि गुणों का प्रकाश जनाने के लिए वायु शब्द का ग्रहण किया गया है। तथा शिल्पविद्या में अग्नि का सहायकारी और मूर्त्तद्रव्य का धारण करनेवाला मुख्य वायु ही है, इसलिये प्रथम सूक्त में अग्नि का और दूसरे में वायु का ग्रहण किया है। तथा ईश्वर के अनन्त गुण विदित होने और भौतिक वायु से योगाभ्यास करके विज्ञान तथा शिल्पविद्या से उत्तम ऐश्वर्य की प्राप्ति करने के लिये इन्द्र शब्द का ग्रहण तीसरे स्थान में किया है, क्योंकि अग्नि और वायु की विद्या से मनुष्यों को अद्भुत अद्भुत कलाकौशलादि बनाने की युक्ति ठीक ठीक जान पड़ती है।
तथा अश्विशब्द का ग्रहण तीसरे सूक्त और चौथे स्थान में इसलिये किया है कि उस से ईश्वर की अनन्त क्रियाशक्ति विदित हो। क्योंकि शिल्पविद्या में विमान आदि यान चलाने के लिए जल अग्नि पृथिवी और प्रकाश आदि पदार्थ ही मुख्य होते हैं। अर्थात् जितने कलायन्त्र विमान नौका और रथ आदि यान होते हैं, वे सब पूर्वोक्त प्रकार से पृथिव्यादि पदार्थों से ही बनते हैं। इसलिये अश्विशब्द का पाठ तीसरे सूक्त और चौथे स्थान में किया है तथा सरस्वती नाम परमेश्वर की अनन्त वाणी का है कि जिस से उस की अनन्त विद्या जानी जाती है, तथा जिस करके उस ने सब मनुष्यों के हित के लिये अपनी अनन्त विद्यायुक्त वेदों का उपदेश भी किया है, इसलिये तीसरे सूक्त और पांचवें स्थान में सरस्वती शब्द का पाठ वेदों में किया है। इसी प्रकार सर्वत्र जान लेना।
भाष्यम् - प्र॰ - वेदानामारम्भेऽग्निवाय्वादिशब्दप्रयोगैः प्रसिद्धिर्जायते वेदेषु भौतिकपदार्थानामेव तत्तच्छब्दैर्ग्रहणं भवति। आरम्भे खल्वीश्वरशब्दप्रयोगो नैव कृतोऽस्ति ?
उ॰ - ' व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिर्नहि सन्देहादलक्षणम्। ' इति महाभाष्यकारेण पतञ्जलिमहामुनिना (लण्) इति सूत्रव्याख्यानोक्तन्यायेन सर्वसन्देहनिवृत्तिर्भवतीति। कुतः वेदवेदाङ्गोपाङ्ग- ब्राह्मणग्रन्थेष्वग्नि-शब्देनेश्वर-भौतिकार्थयोर्व्याख्यानस्य विद्यमानत्वात्। तथेश्वरशब्दप्रयोगेणापि व्याख्यानेन विना सर्वथा सन्देहनिवृत्तिर्न भवति। ईश्वरशब्देन परमात्मा गृह्यते तथा सामर्थ्यवतो राज्ञः कस्यचिन्मनुष्यस्यापीश्वर इति नामास्ति। तयोर्मध्यात् कस्य ग्रहणं कर्त्तव्यमिति शङ्कायां व्याख्यानत एव सन्देहनिवृत्तिर्भवत्यत्रेश्वरनाम्ना परमात्मनो ग्रहणमत्र राजादिमनुष्यस्येति। एवमत्राप्यग्निनाम्नोभयार्थग्रहणे नैव कश्चिद्दोषो भवतीति। अन्यथा कोटिशः श्लोकैस्सहस्रैर्ग्रन्थैरपि विद्यालेखपूर्त्तिरत्यन्तासम्भवास्ति। अतः कारणादग्न्यादिशब्दैर्व्यावहारिक-पारमार्थिकयोर्विद्ययोर्ग्रहणं स्वल्पाक्षरैः स्वल्पग्रन्थैश्च भवतीति मत्वेश्वरेणाग्न्यादिशब्दप्रयोगाः कृताः। यतोऽल्पकालेन पठनपाठनव्यवहारेणाल्पपरिश्रमेणैव मनुष्याणां सर्वा विद्या विदिता भवेयुरिति।
परमकारुणिकः परमेश्वरः सुगमशब्दैस्सर्वविद्योद्देशानुपदिष्टवानिति विज्ञेयम्। तथा च येऽग्न्यादयः शब्दार्थाः संसारे प्रसिद्धाः सन्त्येतैः सर्वैरीश्वरप्रकाशः क्रियते। कुतः ? ईश्वरोऽस्तीति सर्वे दृष्टान्ता ज्ञापयन्तीति बोध्यम्। एवं चतुर्वेदस्थविद्यानां मध्यात् काश्चिद्विद्या अत्र भूमिकायां संक्षेपतो लिखिता , इतोऽग्रे मन्त्रभाष्यं विधास्यते। तत्र यस्मिन् यस्मिन् मन्त्रे या या विद्योपदिष्टाऽस्ति , सा सा तस्य तस्य मन्त्रस्य व्याख्यानावसरे यथावत् प्रकाशयिष्यते।
भाषार्थ - प्र॰ - वेद के आरम्भ में अग्नि वायु आदि शब्दों के प्रयोग से यह सिद्ध होता है कि जगत् में जिन पदार्थों का नाम अग्नि आदि प्रसिद्ध है, उन्हीं का ग्रहण करना चाहिए। और इसीलिए लोगों ने उन शब्दों से संसार के अग्नि आदि पदार्थों को मान भी लिया है, नहीं तो उचित था कि जो जो शब्द जहां जहां होना चाहिये था, वहां वहां उसी का ग्रहण करते कि जिस से कभी किसी को भ्रम न होता। अथवा आरम्भ में उन शब्दों की जगह ईश्वर परमेश्वरादि शब्दों ही का ग्रहण करना था?
उ॰ - यूं तो ऐसा करने से भी भ्रम हो सकता है, परन्तु जब कि व्याख्यानों के द्वारा मन्त्रों के पद पद का अर्थ खोल दिया गया है, तब उन के देखने से सब सन्देह आप से आप ही निवृत्त हो जाते हैं। क्योंकि शिक्षा आदि अङ्ग वेदमन्त्रों के पद पद का अर्थ ऐसी रीति से खोलते हैं कि जिस से वैदिक शब्दार्थों में किसी प्रकार का सन्देह शेष नहीं रह सकता। और जो कदाचित् ईश्वर शब्द का प्रयोग करते तो भी विना व्याख्यान के सन्देह की निवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि ईश्वर नाम उत्तम सामर्थ्यवाले राजादि मनुष्यों का भी हो सकता है। और किसी किसी की ईश्वर संज्ञा ही होती है तथा जो सब ठिकाने एकार्थवाची शब्दों का ही प्रयोग करते तो भी अनेक कोटि श्लोक और हजारों ग्रन्थ वेदों के बन जाने का सम्भव था। परन्तु विद्या का पारावार फिर भी नहीं आता, और न उन को मनुष्य लोग कभी पढ़-पढ़ा सकते। इस प्रयोजन अर्थात् सुगमता के लिए ईश्वर ने अग्न्यादि शब्दों का प्रयोग करके व्यवहार और परमार्थ इन दोनों बातों को सिद्ध करने वाली विद्याओं का प्रकाश किया है कि जिस से मनुष्य लोग थोड़े ही काल में मूल विद्याओं को जान लें।
इसी मुख्य हेतु से सब के सुखार्थ परमकरुणामय परमेश्वर ने अग्न्यादि सुगम शब्दों के द्वारा वेदों का उपदेश किया है। इसलिये अग्न्यादि शब्दों के अर्थ जो संसार में प्रसिद्ध हैं, उनसे भी ईश्वर का ग्रहण होता है, क्योंकि ये सब दृष्टान्त परमेश्वर ही के जानने और जनाने के लिये हैं। इस प्रकार चारों वेदों में जो जो विद्या हैं, उनमें से कोई कोई विद्या तो इस वेदभाष्य की भूमिका में संक्षेप से लिख दी है, शेष सब इस के आगे मन्त्रभाष्य में जिस जिस मन्त्र में जिस जिस विद्या का उपदेश है, सो सो उसी उसी मन्त्र के व्याख्यान में यथावत् प्रकाशित कर देंगे।
॥इति प्रश्नोत्तरविषयः संक्षेपतः॥30॥