ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (दयानन्दसरस्वतीविरचिता)/३३. व्याकरणनियमविषयः
अथ व्याकरणनियमविषयः
सम्पाद्यताम्अथात्र चतुर्षु वेदेषु व्याकरणस्य ये सामान्यतो नियमाः सन्ति , त इदानीं प्रदर्श्यन्ते। तद्यथा - वृद्धिरादैच्॥1॥ - अ॰। 1।1।1॥
' उभयसंज्ञान्यपि छन्दांसि दृश्यन्ते। तद्यथा - स सुष्टुभा स ऋक्वता गणेन , पदत्वात्कुत्वं भत्वाज्जश्त्वं न भवति ' इति भाष्यवचनम्।
अनेनैकस्मिन् शब्दे भपदसंज्ञाकार्य्यद्वयं वेदेष्वेव भवति , नान्यत्र॥1॥
स्थानिवदादेशोऽनल्विधौ॥2॥
- अ॰ 1।1।56॥
' प्रातिपदिकनिर्देशाश्चार्थतन्त्रा भवन्ति , न काञ्चित्प्राधान्येन विभक्तिमाश्रयन्ति। यां यां विभक्तिमाश्रयितुं बुद्धिरुपजायते सा सा आश्रयितव्या ' इति भाष्यम्।
अनेनार्थप्राधान्यं भवति , न विभक्तेरिति बोध्यम्॥2॥
न वेति विभाषा॥3॥
- अ॰ 1। 1। 44॥
' अर्थगत्यर्थः शब्दप्रयोगः ' इति भाष्यसूत्रम्। लौकिकवैदिकेषु शब्देषु सार्वत्रिकः समानोऽयं नियमः॥
अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्॥4॥
- अ॰ 1। 2। 45॥
' बहवो हि शब्दा एकार्था भवन्ति। तद्यथा - इन्द्रः , शक्रः , पुरुहूतः , पुरन्दरः , कन्दुः , कोष्ठः , कुसूल इति। एकश्च शब्दो बह्वर्थः। तद्यथा - अक्षाः , पादाः , माषाः ,' सार्वत्रिकोऽयमपि नियमः। यथाग्न्यादयः शब्दा वेदेषु बह्वर्थवाचकास्त एव बहव एकार्थाश्च॥
ते प्राग्धातोः॥5॥
- अ॰ 1। 4। 80॥
' छन्दसि परव्यवहितवचनं च। '
आयातमुपनिष्कृतम् , उपप्रयोभिरागतम्॥ अनेन वार्त्तिकेन गत्युपसर्गसंज्ञकाः शब्दाः क्रियायाः परे पूर्वे दूरे व्यवहिताश्च भवन्ति॥
भाषार्थ - अब चारों वेदों में व्याकरण के जो जो सामान्य नियम हैं, उन को यहां लिखते हैं-(उभ॰) वेदों में एक शब्द के बीच में 'भ' तथा 'पद' ये दोनों संज्ञा होती हैं। जैसे 'ऋक्वता' इस शब्द में पद संज्ञा के होने से चकार के स्थान में ककार हुआ है, और भ संज्ञा के होने से ककार के स्थान में गकार नहीं हुआ॥
(प्रातिपदिक॰) वेदादि शास्त्रों में जो जो शब्द पढ़े जाते हैं उन सब के बीच में यह नियम है कि जिस विभक्ति के साथ वे शब्द पढ़े हों, उसी विभक्ति से अर्थ कर लेना, यह बात नहीं है, किन्तु जिस विभक्ति से शास्त्र मूल युक्ति और प्रमाण के अनुकूल अर्थ बनता हो, उस विभक्ति का आश्रय करके अर्थ करना चाहिए।
क्योंकि-(अर्थग॰) वेदादि शास्त्रों में शब्दों के प्रयोग इसलिये होते हैं कि उन के अर्थों को ठीक ठीक जान के उन से लाभ उठावें। जब उन से भी अनर्थ प्रसिद्ध हो तो वे शास्त्र किसलिये माने जावें? इसलिये यह नियम लोकवेद में सर्वत्र घटता है॥
(बहवो हि॰) तीसरा नियम यह है कि वेद तथा लोक में बहुत शब्द एक अर्थ के वाची होते, और एक शब्द भी बहुत अर्थों का वाची होता है। जैसे अग्नि, वायु, इन्द्र आदि बहुत शब्द एक परमेश्वर अर्थ के वाची और इसी प्रकार वे ही शब्द संसारी पदार्थों के नाम होने से अनेकार्थ हैं। अर्थात् इस प्रकार के एक एक शब्द कई कई अर्थों के वाची हैं॥
(छन्दसि॰) व्याकरण में जो जो गति और उपसर्गसंज्ञक शब्द हैं, वे वेद में क्रिया के आगे पीछे दूर अर्थात् व्यवधान में भी होते हैं। जैसे 'उप प्रयोभिरागतं' यहां 'आगतं' क्रिया के साथ 'उप' लगता तथा 'आयातमुप॰' यहां 'उप' 'आयातं' क्रिया के पूर्व लगता है, इत्यादि इसमें विशेष यह है कि लोक में पूर्वोक्त शब्द क्रिया के पूर्व ही सर्वत्र लगाये जाते हैं।
चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि॥6॥
- अ॰ 2। 3। 62॥
' षष्ठ्यर्थे चतुर्थी वक्तव्या। या खर्वेण पिबति तस्यै खर्वो जायते तिस्रो रात्रीरिति , तस्या इति प्राप्ते। ' एवमन्यत्रापि। अनेन चतुर्थ्यर्थे षष्ठी , षष्ठयर्थे चतुर्थी द्वे एव भवतः। महाभाष्यकारेण छन्दोवन्मत्वा ब्राह्मणानामुदाहरणानि प्रयुक्तानि। अन्यथा ब्राह्मणग्रन्थस्य प्रकृतत्वाच्छन्दो-ग्रहणमनर्थकं स्यात्॥
बहुलं छन्दसि॥7॥
- अ॰ 2। 4। 39॥
अनेन अद्धातोः स्थाने घस्ऌ आदेशो बहुलं भवति। घस्तान्न्यूनम् सग्धिश्च मे। अत्तामद्य मध्यतो मेद उद्भृतम्। इत्याद्युदाहरणं ज्ञेयम्॥
बहुलं छन्दसि॥8॥
- अ॰ 2। 4। 73॥
वेदविषये शपो बहुलं लुग्भवति। वृत्रं हनति , अहिः शयते। अन्येभ्यश्च भवति - त्राध्वं नो देवाः॥
बहुलं छन्दसि॥9॥
- अ॰ 2। 4। 76॥
वेदेषु शपः स्थाने श्लुर्बहुलं भवति। दाति प्रियाणि ; धाति प्रियाणि। अन्येभ्यश्च भवति - पूर्णा विवष्टि ; जनिमा विवक्ति , इत्यादीन्युदाहरणानि सन्तीति बोध्यम्॥
भाषार्थ - (या खर्वेण॰) इत्यादि पाठ से यही प्रयोजन है कि वेदों में षष्ठी विभक्ति के स्थान में चतुर्थी हो जाती है, लौकिक ग्रन्थों में नहीं। इस में ब्राह्मणों के उदाहरण इसलिये दिये हैं कि महाभाष्यकार ने ब्राह्मणों को वेदों के तुल्य मान के, अर्थात् इन में जो व्याकरण के कार्य्य होते हैं वे ब्राह्मणों में भी हो जाते हैं और जो ऐसा न मानें तो 'द्वितीया ब्राह्मणे' इस सूत्र में से ब्राह्मण शब्द की अनुवृत्ति हो जाती, फिर 'चतुर्थ्यर्थे॰' इस सूत्र में 'छन्दः' शब्द का ग्रहण व्यर्थ हो जाय॥
(बहुलं॰) इस सूत्र से 'अद्' धातु के स्थान में 'घस्ऌ' आदेश बहुल अर्थात् बहुधा होता है॥
(बहुलं॰) वेदों में 'शप्' प्रत्यय का लुक् बहुल करके होता है, और कहीं नहीं भी होता। जैसे 'वृत्रं हनति' यहां 'शप्' का लुक् प्राप्त था, सो भी न हुआ, तथा 'त्राध्वं॰' यहां त्रैङ् धातु से प्राप्त नहीं था, परन्तु हो गया। महाभाष्यकार के नियम से शप् के लुक् करने में श्यनादि का लुक् होता है, क्योंकि शप् के स्थान में श्यनादि का आदेश किया जाता है। शप् सामान्य होने से सब धातुओं से होता है, जब शप् का लुक् हो गया तो श्यनादि प्राप्त ही नहीं होते। ऐसे ही श्लु के विषय में भी समझ लेना॥
(बहुलं॰) वेदों में शप् प्रत्यय के स्थान में श्लु आदेश बहुल करके होता है, अर्थात् उक्त से भी नहीं होता और अनुक्त से भी हो जाता है। जैसे 'दाति॰' यहां शप् के स्थान में श्लु प्राप्त था परन्तु न हुआ, और 'विवष्टि' यहां प्राप्त नहीं फिर हो गया॥
सिब्बहुलं लेटि॥10॥
- अ॰ 3। 1। 34॥
' सिब्बहुलं छन्दसि णिद्वक्तव्यः। ' सविता धर्म साविषत् , प्रण आयूंषि तारिषत्। अयं लेटि विशिष्टो नियमः॥
छन्दसि शायजपि॥11॥
- अ॰ 3। 1। 84॥
' शायच्छन्दसि सर्वत्रेति वक्तव्यम्। ' क्व सर्वत्र ? हौ चाहौ च। किं प्रयोजनम् ? महीः अस्कभायत् , यो अस्कभायत् , उद् गभायत् , उन्मथायतेत्येवमर्थम्। अयं लोटि मध्यमपुरुषस्यैकवचने परस्मैपदे विशिष्टो नियमः॥
व्यत्ययो बहुलम्॥12॥
- अ॰ 3। 1। 85॥
सुप्तिङुपग्रहलिङ्गनराणां कालहलच्स्वरकर्त्तृयङां च। व्यत्ययमिच्छति शास्त्रकृदेषां सोऽपि च सिध्यति बाहुलकेन॥1॥
व्यत्ययो भवति स्यादीनामिति। अनेन विकरणव्यत्ययः , सुपां व्यत्ययः , तिङां व्यत्ययः वर्णव्यत्ययः , लिङ्गव्यत्ययः , पुरुषव्यत्ययः , कालव्यत्ययः , आत्मनेपदव्यत्ययः , परस्मैपदव्यत्ययः , स्वरव्यत्ययः , कर्त्तृव्यत्ययः , यङ् व्यत्ययश्च।
एषां क्रमेणोदाहरणानि - युक्ता मातासीद्धुरि दक्षिणायाः , दक्षिणायामिति प्राप्ते। चषालं ये अश्वयूपाय तक्षति , तक्षन्तीति प्राप्ते। त्रिष्टुभौजः शुभितमुग्रवीरम् , शुधितमिति प्राप्ते। मधोस्तृप्ता इवासते , मधुन इति प्राप्ते। अधा स वीरैर्दशभिर्वियूयाः , वियूयादिति प्राप्ते। श्वोऽग्नीनाधास्यमानेन , श्वः सोमेन यक्ष्यमाणेन , आधाता यष्टेति प्राप्ते। ब्रह्मचारिणमिच्छते , इच्छतीति प्राप्ते। प्रतीपमन्य ऊर्मिर्युध्यति , युध्यत इति। आधाता यष्टेति लुट्प्रथमपुरुषस्यैकवचने प्रयोगौ। व्यत्ययो भवति , स्यादीनामित्यस्योदाहरणं , तासि प्राप्ते स्यो विहितः॥
बहुलं छन्दसि॥13॥
-अ॰ 3। 2। 88॥
अनेन क्विप्प्रत्ययो वेदेषु बहुलं विधीयते। मातृहा , मातृघातः इत्यादीनि॥
छन्दसि लिट्॥14॥
- अ॰ 3। 2। 105॥
वेदेषु सामान्यभूते लिड् विधीयते। अहं द्यावापृथिवी आततान॥
लिटः कानज्वा॥15॥
- अ॰ 3। 2। 106॥
वेदविषये लिटः स्थाने कानजादेशो वा भवति। अग्निं चिक्यानः , अहं सूर्य्यमुभयतो ददर्श। प्रकृतेऽपि लिटि पुनर्ग्रहणात्परोक्षार्थस्यापि ग्रहणं भवति॥
क्वसुश्च॥16॥
- अ॰ 3। 2। 107॥
वेदे लिटः स्थाने क्वसुरादेशो वा भवति। पपिवान् , जङ्गिमवान्। न च भवति - अहं सूर्य्यमुभयतो ददर्श।
क्याच्छन्दसि॥17॥
- अ॰ 3। 2। 170॥
क्यप्रत्ययान्ताद्धातोश्छन्दसि विषये तच्छीलादिषु कर्त्तृषु उकारप्रत्ययो भवति। मित्रयुः , संस्वेदयुः , सुम्नयुः। ' निरनुबन्धकग्रहणे सानुबन्धकस्यापि ग्रहणं भवति ' इत्यनया परिभाषया क्यच्क्यङ्क्यषां सामान्येन ग्रहणं भवति॥
भाषार्थ - (सिब्बहुलं॰) लेट् लकार में जो सिप् प्रत्यय होता है, वह वेदों में बहुल करके णित्संज्ञक होता है, कि जिस से वृद्धि आदि कार्य हो सकें जैसे (साविषत्) यहाँ सिप् को णित् मान के वृद्धि हुई है। यह लेट् में वेदविषयक विशेष नियम है।
(शायच्छन्दसि) वेद में 'हि' प्रत्यय के परे रहने पर 'श्ना' प्रत्यय के स्थान में जो 'शायच्' आदेश विधान किया है, वह 'हि' से अन्यत्र भी होता है॥
(व्यत्ययो॰) वेदों में जो व्यत्यय अर्थात् विपरीतभाव बहुधा होता है, वह भाष्यकार पतञ्जलि जी ने नव प्रकार से माना है। वे सुप् आदि ये हैं-सुप्; तिङ्; वर्ण; लिङ्ग-पुँल्लिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग; पुरुष-प्रथम, मध्यम और उत्तम; काल-भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान; आत्मनेपद और परस्मैपद; वर्ण-वेदों में अचों के स्थान में हल् और हलों के स्थान में अच् के आदेश हो जाते हैं, स्वर-उदात्तादि का व्यत्यय, कर्त्ता का व्यत्यय, और यङ् का व्यत्यय होते हैं। इन सब के उदाहरण संस्कृत में लिखे हैं, वहां देख लेना॥
(बहुलम्॰) इस से क्विप् प्रत्यय वेदों में बहुल करके होता है॥
(छन्दसि॰) इस सूत्र से लिट् लकार वेदों में सामान्य भूतकाल में भी होता है॥
(लिटः का॰) इस सूत्र से वेदों में लिट् लकार के स्थान में कानच् आदेश विकल्प करके होता है। इस के 'आततान' इत्यादि उदाहरण बनते हैं। 'छन्दसि॰' इस सूत्र में लिट् की अनुवृत्ति हो जाती, फिर लिट्ग्रहण इसलिये है कि 'परोक्षे लिट्' इस लिट् के स्थान में भी कानच् आदेश हो जावे॥
(क्वसुश्च) इस सूत्र से वेदों में लिट् के स्थान में क्वसु आदेश हो जाता है॥
(क्या॰) इस सूत्र से वेदों में क्यप्रत्ययान्त धातु से 'उ' प्रत्यय हो जाता है॥
कृत्यल्युटो बहुलम्॥18॥
- अ॰ 3। 3। 113॥
कृल्ल्युट् इति वक्तव्यम्। कृतो बहुलमिति वा। पादहारकाद्यर्थम् , पादाभ्यां ह्रियते पादहारकः। अनेन धातोर्विहिताः कृत्संज्ञकाः प्रत्ययाः कारकमात्रे वेदादिषु द्रष्टव्याः। अयं लौकिकवैदिकशब्दानां सार्वत्रिको नियमोऽस्तीति वेद्यम्॥
छन्दसि गत्यर्थेभ्यः॥19॥
- अ॰ 3। 3। 129॥
ईषदादिषु कृच्छ्राकृच्छ्रार्थेषूपपदेषु सत्सु गत्यर्थेभ्यो धातुभ्यश्छन्दसि विषये युच्प्रत्ययो भवति। उ॰ - सूपसदनोऽग्निः॥
अन्येभ्योऽपि दृश्यते॥20॥
- अ॰ 3। 3। 130॥
अन्येभ्यश्च धातुभ्यो युच्प्रत्ययो दृश्यते। उ॰ - सुदोहनमाकृणोद् ब्रह्मणे गाम्॥
छन्दसि लुङ् लङ् लिटः॥21॥
- अ॰ 3। 4। 6॥
वेदविषये धातुसम्बन्धे सर्वेषु कालेषु लुङ्लङ्लिटः प्रत्यया विकल्पेन भवन्ति। उ॰ - लुङ् - अहं तेभ्योऽकरं नमः। लङ् - अग्निमद्य होतारमवृणीतायं यजमानः। लिट् - अद्य ममार॥
लिङर्थे लेट्॥22॥
- अ॰ 3। 4। 7॥
यत्र विध्यादिषु हेतुहेतुमतोः शकीच्छार्थेषूर्ध्वमौहूर्तिकेष्वर्थेषु लिङ् विधीयते , तत्र वेदेष्वेव लेट लकारो वा भवति। उ॰ - जीवाति शरदः शतम् , इत्यादीनि॥
उपसंवादाशङ्कयोश्च॥23॥
- अ॰ 3। 4। 8॥
उपसंवादे आशङ्कायाम् च गम्यमानायां वेदेषु लेट्प्रत्ययो भवति। उ॰ (उपसंवादे) अहमेव पशूनामीशै। आशङ्कायां - नेज्जिह्मायन्तो नरकं पताम। मिथ्याचरणेन नरकपात आशङ् क्यते॥
लेटोऽडाटौ॥24॥
- अ॰ 3। 4। 94॥
लेटः पर्यायेण अट्आट्आगमौ भवतः॥
आत ऐ॥25॥
- अ॰ 3। 4। 95॥
छन्दस्यनेनात्मनेपदे विहितस्य लेडादेशस्य द्विवचनस्थस्याकारस्य स्थाने ऐकारादेशो भवति।
उ॰ - मन्त्रयैते ; मन्त्रयैथे॥
वैतोऽन्यत्र॥26॥
- अ॰ 3। 4। 96॥
' आत ऐ ' इत्येतस्य विषयं वर्जयित्वा लेट एकारस्य स्थाने ऐकारादेशो वा भवति।
उ॰ - अहमेव पशूनामीशै ईशे वा॥
इतश्च लोपः परस्मैपदेषु॥27॥
- अ॰ 3। 4। 97॥
लेटः स्थान आदिष्टस्य तिबादिस्थस्य परस्मैपदविषयस्येकारस्य विकल्पेन लोपो भवति।
उ॰ - तरति , तराति , तरत् , तरात्। तरिषति , तरिषाति , तरिषत् , तरिषात्। तारिषति , तारिषाति , तारिषत् , तारिषात्। तरसि , तरासि , तरः , तराः। तरिषसि , तरिषासि , तरिषः , तरिषाः। तारिषसि , तारिषासि , तारिषः , तारिषाः। तरामि , तराम् , तरिषामि , तरिषाम् , तारिषामि , तारिषाम्। एवमेव सर्वेषां धातूनां प्रयोगेषु लेड्विषये बोध्यम्॥
स उत्तमस्य॥
- 28॥ अ॰ 3। 4। 98॥
लेट उत्तमपुरुषस्य सकारस्य लोपो वा भवति। करवाव , करवावः , करवाम , करवामः॥28॥
भाषार्थ - (छन्दसि॰) इस सूत्र से ईषत्, दुर, सु ये पूर्वपद लगे हों तो गत्यर्थक धातुओं से वेदों में युच् प्रत्यय होता है॥
(अन्येभ्यो॰) और धातुओं से भी वेदों में युच् प्रत्यय देखने में आता है, जैसे 'सुदोहनं' यहां सुपूर्वक 'दुह' धातु से युच् प्रत्यय हुआ है।
(छन्दसि॰) जो तीन लकार लोक में भिन्न भिन्न कालों में होते हैं, वे वेदों में लुङ् लङ् और लिट् लकार ये सब कालों में विकल्प करके होते हैं।
(लिङर्थे॰) अब लेट् लकार के विषय के जो सामान्य सूत्र हैं, उनको यहां लिखते हैं। यह लेट् लकार वेदों में ही होता है। सो वह लिङ् लकार के जितने अर्थ हैं, उन में तथा उपसंवाद और आशङ्का इन अर्थों में लेट् लकार होता है।
(लेटो॰) लेट् को क्रम से अट् और आट् आगम होते हैं, अर्थात् जहां अट् होता है, वहां आट् नहीं होता, जहां आट् होता है वहां अट् नहीं होता।
(आत ऐ) लेट् लकार में प्रथम और मध्यम पुरुष के 'आतां' के आकार को ऐकार आदेश हो जाता है। जैसे 'मन्त्रयैते' यहां आ के स्थान में ऐ हो गया है॥
(वैतोऽन्यत्र) यहां लेट् लकार के स्थान में जो एकार होता है, उस के स्थान में ऐकार आदेश हो जाता है॥
(इतश्च॰) यहां लेट् के तिप्, सिप् और मिप् के इकार का लोप विकल्प से हो जाता है॥
(स उत्त॰) इस सूत्र से लेट् लकार के उत्तम पुरुष के वस् मस् के सकार का विकल्प करके लोप हो जाता है॥
यह लेट् का विषय थोड़ा सा लिखा, आगे किसी को सब जानना हो तो वह अष्टाध्यायी पढ़ के जान सकता है, अन्यथा नहीं।
तुमर्थे सेसेनसेअसेन्कसेकसेनध्यैअध्यैन्कध्यैकध्यैन्शध्यै-शध्यैन्तवैतवेङ्तवेनः॥ 29॥
- अ॰ 3।4।9॥
धातुमात्रात्तुमुन्प्रत्ययस्यार्थे से , सेन् , असे , असेन् , कसे , कसेन् , अध्यै , अध्यैन् , कध्यै , कध्यैन् , शध्यै , शध्यैन् , तवै , तवेङ् , तवेन् इत्येते पञ्चदश प्रत्यया वेदेष्वेव भवन्ति।
' कृन्मेजन्त ' इति सर्वेषामव्ययत्वम्। सर्वेषु नकारोऽनुबन्धः स्वरार्थः। ककारो गुणवृद्धिनिषेधार्थः , ङकारोऽपि। शकारः शिदर्थः। से - वक्षेण्यः , सेन् - तावामेषे रथानाम् ; असे असेन् - क्रत्वे दक्षाय जीवसे ; कसे कसेन् - श्रियसे ; अध्यै अध्यैन् - कर्मण्युपाचरध्यै ; कध्यै - इन्द्राग्नी आहुवध्यै ; कध्यैन् - श्रियध्यै ; शध्यै शध्यैन् - पिबध्यै , सह मादयध्यै ; अत्र शित्वात् पिबादेशः , तवै - सोममिन्द्राय पातवै ; तवेङ् - दशमे मासि सूतवे ; तवेन् - स्वर्देवेषु गन्तवे॥
शकि णमुल्कमुलौ॥30॥
- अ॰ 3। 4। 12॥
शक्नोतौ धातावुपपदे धातुमात्रात्तुमर्थे वेदेषु णमुल्कमुलौ प्रत्ययौ भवतः। णकारो वृद्ध्यर्थः। ककारो गृणवृद्धिप्रतिषेधार्थः। लकारः स्वरार्थः। अग्निं वै देवा विभाजं नाशक्नुवन् , विभक्तुमित्यर्थः॥
ईश्वरे तोसुन्कसुनौ॥31॥
- अ॰ 3। 4। 13॥
ईश्वरशब्द उपपदे वेदे तुमर्थे वर्तमानाद्धातोस्तोसुन्कसुनौ प्रत्ययौ भवतः। ईश्वरोऽभिचरितोः ; कसुन् - ईश्वरो विलिखः॥
कृत्यार्थे तवैकेन्केन्यत्वनः॥ 32॥
- अ॰ 3। 4। 14॥
कृत्यानां मुख्यतया भावकर्मणी द्वावर्थौ स्तोऽर्हादयश्च। तत्र वेदविषये तवै , केन् , केन्य , त्वन् इत्येते प्रत्यया भवन्ति। तवै - परिधातवै ; केन् - नावगाहे ; केन्य - दिदृक्षेण्यः , शुश्रूषेण्यः , त्वन् - कर्त्वं हविः॥
भाषार्थ - (तुमर्थे॰) इस सूत्र से वेदों में 'से' इत्यादि 15 प्रत्यय सब धातुओं से हो जाते हैं। (शकि॰) शक धातु का प्रयोग उपपद हो, तो धातुमात्र से 'णमुल्' 'कमुल्' ये दोनों प्रत्यय वेदों में हो जाते हैं। इस के होने से 'विभाजं' इत्यादि उदाहरण सिद्ध होते हैं॥
(ईश्वरे॰) वेदों में ईश्वर शब्दपूर्वक धातु से 'तोसुन्' 'कसुन्' ये प्रत्यय होते हैं॥
(कृत्यार्थे॰) इस सूत्र से वेदों में भावकर्मवाचक 'तवै' 'केन' 'केन्य' 'त्वन्' ये प्रत्यय होते हैं।
इससे 'परिधातवै' इत्यादि उदाहरण सिद्ध होते हैं॥
नित्यं संज्ञाछन्दसोः॥33॥
- अ॰ 4। 1। 29॥
अन्नन्ताद् बहुव्रीहेरुपधालोपिनः प्रातिपदिकात्संज्ञायां विषये छन्दसि च नित्यं स्त्रियां ङीप्प्रत्ययो भवति। गौः पञ्चदाम्नी ; एकदाम्नी॥
नित्यं छन्दसि॥ 34॥
- अ॰ 4। 1। 46॥
बह्वादिभ्यो वेदेषु स्त्रियां ङीष् प्रत्ययो भवति। बह्वीषु हित्वा प्रपिबन्॥
भवे छन्दसि॥ 35॥
- अ॰ 4। 4। 110॥
सप्तमीसमर्थात्प्रातिपदिकाद्भव इत्येतस्मिन्नर्थे छन्दसि विषये यत्प्रत्ययो भवति। अयमणादीनां घादीनां चापवादः। सति दर्शने तेऽपि भवन्ति। मेध्याय च विद्युत्याय च नमः॥
इतः सूत्रादारभ्य यानि प्रकृतिप्रत्ययार्थविशेषविधायकानि पादपर्य्यन्तानि वेदविषयकाणि सूत्राणि सन्ति , तान्यत्र न लिख्यन्ते , कुतस्तेषामुदाहरणानि यत्र यत्र मन्त्रेष्वागमिष्यन्ति तत्र तत्र तानि लेखिष्यामः।
बहुलं छन्दसि॥36॥
- अ॰ 5। 2। 122॥
वेदेषु समर्थानां प्रथमात्प्रातिपादिकमात्राद् भूमादिष्वर्थेषु विनिः प्रत्ययो बहुलं विधीयते।
तद्यथा - भूमादयः -
तदस्याऽस्त्यस्मिन्निति मतुप्॥37॥
- अ॰ 5। 2। 94॥
भूमनिन्दाप्रशंसासु नित्ययोगेऽतिशायने।
सम्बन्धेऽस्तिविवक्षायां भवन्ति मतुबादयः॥
अस्य सूत्रस्योपरि महाभाष्यवचनादेतेषु सप्तस्वर्थेषु ते प्रत्यया वेदे लोके चैते मतुबादयो भवन्तीति बोध्यम्।
(बहुलं) अस्मिन्सूत्रे प्रकृतिप्रत्ययरूपविशेषविधायकानि बहूनि वार्त्तिकानि सन्ति , तानि तत्तद्विषयेषु प्रकाशयिष्यामः॥
अनसन्तान्नपुंसकाच्छन्दसि॥ 38॥
- अ॰ 5। 4। 103॥
' अनसन्तान्नपुंसकाच्छन्दसि वेति वक्तव्यम् ' । ब्रह्मसामं , ब्रह्मसाम ; देवच्छन्दसं , देवच्छन्दः॥
सन्यङोः॥ 39॥
- अ॰ 6। 1। 9॥
' बह्वर्था अपि धातवो भवन्ति। तद्यथा - वपिः प्रकरणे दृष्टश्छेदने चापि वर्त्तते , केशान् वपति। ईडिः स्तुतिचोदनायां चासु दृष्ट ईरणे चापि वर्त्तते। अग्निर्वा इतो वृष्टिमीट्टे मरुतोऽमुतश्च्यावयन्ति। करोतिरयमभूतप्रादुर्भावे दृष्टः , निर्मूलीकरणे चापि वर्त्तते , पृष्ठं कुरु , पादौ कुरु उन्मृदानेति गम्यते। निक्षेपणेऽपि वर्त्तते , कटे कुरु , घटे कुरु। अश्मानमितः कुरु , स्थापयेति गम्यते। '
एतन्महाभाष्यवचनेनैतद्विज्ञातव्यम् , धातुपाठे येऽर्था निर्दिष्टास्तेभ्योऽन्येऽपि बहवोऽर्था भवन्ति।
त्रयाणामुपलक्षणमात्रस्य दर्शितत्वात्॥
शेश्छन्दसि बहुलम्॥40॥
- अ॰ 6। 1। 70॥
वेदेषु नपुंसके वर्त्तमानस्य शेर्लोपो बहुलं भवति। यथा - विश्वानि भुवनानीति प्राप्ते विश्वा भुवनानीति भवति॥
बहुलं छन्दसि॥41॥
- अ॰ 6। 1। 34॥
अस्मिन्सूत्रे वेदेषु एषां धातूनामप्राप्तमपि सम्प्रसारणं बहुलं विधीयते। यथा - हूमहे इत्यादिषु॥
इकोऽसवर्णे शाकल्यस्य ह्रस्वश्च॥ 42॥
- अ॰ 6। 1। 127॥
' ईषा अक्षादिषु च छन्दसि प्रकृतिभावमात्रं द्रष्टव्यम्। ' ईषा अक्षा ईमिरे , इत्याद्यप्राप्तः प्रकृतिभावो विहितः॥
देवताद्वन्द्वे च॥43॥
- अ॰ 6। 3। 26॥
देवतयोर्द्वन्द्वसमासे पूर्वपदस्य आनङ् इत्यादेशो विधीयते। ङित्त्वादन्त्यस्य स्थाने भवति।
उ॰ - सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् ; इन्द्राबृहस्पती इत्यादीनि।
अस्य सूत्रस्योपरि द्वे वार्त्तिके स्तः। तद्यथा -
' देवताद्वन्द्वे उभयत्र वायोः प्रतिषेधः॥ ' अग्निवायू ; वाय्वग्नी।
' ब्रह्मप्रजापत्यादीनां च॥ ' ब्रह्मप्रजापती ; शिववैश्रवणौ ; स्कन्दविशाखौ।
सूत्रेण विहित आनङादेशो वार्तिकद्वयेन प्रतिषिध्यते , सार्वत्रिको नियमः॥
बहुलं छन्दसि॥ 44॥
- अ॰ 7। 1। 8॥
अनेनात्मनेपदसंज्ञस्य झकारप्रत्ययस्य रुडागमो विधीयते।
उ॰ - देवा अदुह्र॥
बहुलं छन्दसि॥45॥
- अ॰ 7। 1। 10॥
अनेन वेदेषु भिसः स्थाने ऐस् बहुलं विधीयते। यथा - देवेभिर्मानुषे जने॥
सुपां सुलुक्पूर्वसवर्णाच्छेयाडाड्यायाजालः॥ 46॥
-अ॰ 7। 1। 39॥
' सुपां च सुपो भवन्तीति वक्तव्यम्। तिङां च तिङो भवन्तीति वक्तव्यम्। ' ' इयाडियाजीकाराणामुपसंख्यानम् ' इया - दार्विया परिज्मन्। डियाच् - सुमित्रिया न आप॰ , सुक्षेत्रियाः , सुगातुया। ईकार - दृतिं न शुष्कं सरसी शयानम्। ' आङ्याजयारां चोपसंख्यानम् ' । आङ् - प्रबाहवा। अयाच् - स्वप्नया वाव सेचनम्। अयार् - स नः सिन्धुमिव नावया।
सुप् , लुक् , पूर्वसवर्ण , आत् , शे , या , डा , ड्या , याच् , आल् , इया , डियाच् , ई , आङ् , अयाच् , अयार् , वैदिकेषु शब्देषु ह्येव सुपां स्थाने सुबाद्ययारान्ता षोडशादेशा विधीयन्ते। तिङां च तिङिति पृथङ् नियमः। सुप् - ऋजवः सन्तु पन्था , पन्थान इति प्राप्ते , लुक् - परमे व्योमन् व्योम्नीति प्राप्ते। पूर्वसवर्ण - धीती मती , धीत्या मत्या इति प्राप्ते। आत् - उभा यन्तारा , उभौ यन्तारौ इति प्राप्ते। शे - न युष्मे वाजबन्धवः , यूयमिति प्राप्ते। या - उरुया , उरुणा इति प्राप्ते। डा - नाभा पृथिव्याः , नाभौ इति प्राप्ते। ड्या - अनुष्ट्या , अनुष्टुभा इति प्राप्ते। याच् - साधुया , साधु इति प्राप्ते। आल् - वसन्ता यजेत , वसन्ते इति प्राप्ते॥
आज्जसेरसुक्॥47॥
- अ॰ 7। 1। 50॥
अनेन प्रथमाया बहुवचने जसः पूर्वं असुक् इत्ययमागमो विहितः। उ॰ - विश्वे देवास आगत , विश्वेदेवा इति प्राप्ते। एवं दैव्यासः। तथैवान्यान्यपि ज्ञातव्यानि॥
भाषार्थ - (नित्यं संज्ञा॰) इस सूत्र से वेदों में अन्नन्त प्रातिपदिक से ङीप् प्रत्यय होता है॥
(नित्यं॰) इस सूत्र से बह्वादि प्रातिपादकों से वेदों में ङीष् प्रत्यय नित्य होता है॥
(भवे॰) इस सूत्र से भव अर्थ में प्रातिपदिक मात्र से वेदों में यत् प्रत्यय होता है॥
इस सूत्र से आगे पादपर्य्यन्त सब सूत्र वेदों ही में लगते हैं, सो यहां इसलिये नहीं लिखे वे एक-एक बात के विशेष हैं, सो जिस-जिस मन्त्र में विषय आवेंगे वहां-वहां लिखे जायेंगे।
(बहुलं॰) इस सूत्र से प्रातिपदिकमात्र से विन् प्रत्यय वेदों में मतुप् के अर्थ में बहुल करके होता है। इस सूत्र के ऊपर वैदिक शब्दों के लिए वार्त्तिक बहुत हैं, परन्तु विशेष हैं इसलिये नहीं लिखे॥
(अनसन्ता॰) इस सूत्र से वेदों में समासान्त टच् प्रत्यय विकल्प करके होता है॥
(बह्वर्था अपि॰) इस महाभाष्यकार के वचन से यह बात समझनी चाहिए कि धातुपाठ में धातुओं के जितने अर्थ लिखे हैं, उन से अधिक और भी बहुत अर्थ होते हैं। जैसे 'ईड' धातु का स्तुति करना तो धातुपाठ में अर्थ पढ़ा है, और चोदना आदि भी समझे जाते हैं। इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिए॥
(बहुलं॰) इस से धातुओं को अप्राप्त सम्प्रसारण होता है॥
(शेश्छ॰) इस से प्रथमा विभक्ति को जस् के स्थान में नपुंसकलिङ्ग में 'शि' आदेश होता है, इस का लोप वेदों में बहुल से हो जाता है॥
(ईषा॰) इस नियम से अप्राप्त भी प्रकृतिभाव वेदों में होता है॥
(देवताद्व॰) इस सूत्र से दो देवताओं के द्वन्द्व समास में पूर्वपद को दीर्घ हो जाता है। जैसे सूर्य्याचन्द्रमसौ॰' यहां सूर्या शब्द दीर्घ हो गया है। और इस सूत्र से जिस कार्य का विधान है, उसका प्रतिषेध महाभाष्यकार दो वार्त्तिकों से विशेष शब्दों में दिखाते हैं। जैसे-'इन्द्रवायू' यहां इन्द्र शब्द को दीर्घ नहीं हुआ। यह नियम लोक और वेद में सर्वत्र घटता है॥
(बहुलं॰) इस सूत्र से प्रथम पुरुष के बहुवचन आत्मनेपद में 'झ' प्रत्यय को 'रुट् का आगम होता है॥
(बहुलं॰) इस से भिस् के स्थान में ऐस्भाव बहुल करके होता है॥
(सुपां सु॰) इस से सब विभक्तियों के सब वचनों के स्थान में 'सुप्' आदि 16 आदेश होते हैं॥
(आज्जसे॰) इस सूत्र से वेदों में प्रथमा विभक्ति का बहुवचन जो जस् है, उस को असुक् का आगम होता है, जैसे-'दैव्याः' ऐसा होना चाहिए वहां 'दैव्यासः' ऐसा हो जाता है। इत्यादि जान लेना चाहिए॥
बहुलं छन्दसि॥ 48॥
- अ॰ 7। 3। 97॥
वेदेषु यत्र क्वचिदीडागमो दृश्यते तत्रानेनैव भवतीति वेद्यम्॥
बहुलं छन्दसि॥ 49॥
- अ॰ 7। 4। 78॥
अनेनाभ्यासस्य इत् इत्ययमादेशः श्लौ वेदेषु बहुलं विधीयते॥
छन्दसीरः॥50॥
-अ॰ 8। 2। 15॥
अनेन मतुपो मकारस्याप्राप्तं वत्त्वं विधीयते। उ॰ - रेवान् इत्यादि॥
कृपो रो लः॥ 51॥
- अ॰ 8। 2। 18॥
' संज्ञाछन्दसोर्वा कपिलकादीनामिति वक्तव्यम्। ' कपिलका ; कपिरका इत्यादीनि॥
धि च॥ 52॥
- अ॰ 8। 2। 25॥
घसिभसोर्न सिध्येत्तु तस्मात् सिज्ग्रहणं न तत्।
छान्दसो वर्णलोपो वा यथेष्कर्त्तारमध्वरे॥1॥
उ॰ - निष्कर्तारमध्वरस्येति प्राप्ते। अनेन वेदेषु वर्णलोपो विकल्प्यते। अप्राप्तविभाषेयम्॥
दादेर्धातोर्घः॥53॥
- अ॰ 8। 2। 32॥
' हृग्रहोश्छन्दसि ' हस्य भत्वं वक्तव्यम्। उ॰ - गर्दभेन सम्भरति ; मरुदस्य गृभ्णाति॥
मतुवसो रुः सम्बुद्धौ छन्दसि॥54॥
-अ॰ 8। 3। 1॥
वेदविषये मत्वन्तस्य वस्वन्तस्य च सम्बुद्धौ गम्यमानायां रुर्भवति। गोमः , हरिवः , मीढ्वः॥
वा शरि॥54॥
- अ॰ 8। 3। 36॥
वा शर्प्रकरणे खर्परे लोपो वक्तव्यः। वृक्षा स्थातारः , वृक्षाः स्थातारः। अनेन ' वायव स्थ ' इत्यादीनि वेदेष्वपि दृश्यन्ते। अतः सामान्येनायं सार्वत्रिको नियमः॥
भाषार्थ - (बहुलं) इस सूत्र से वेदों में ईट् का आगम होता है॥
(बहुलं॰) इस सूत्र से वेदों में धातु के अभ्यास को इकारादेश हो जाता है॥
(छन्दसीरः) इस से वेदों में मतुप् प्रत्यय के मकार को वकारादेश हो जाता है॥
(संज्ञा॰) इस से वेदों में रेफ को लकार विकल्प करके होता है॥
(घसि॰) इस से वेदों में किसी किसी अक्षर का कहीं कहीं लोप हो जाता है॥
(हृग्रहो॰) इस से वेदों में हृ और ग्रहधातु के हकार को भकार हो जाता है॥
(मतु॰) इस से वेदों में मतुप् और वसु के नकार को रु होता है॥
उणादयो बहुलम्॥56॥
- अ॰ 3। 3। 56॥
बहुलवचनं किमर्थम् ? ' बाहुलकं प्रकृतेस्तनुदृष्टेः '- तन्वीभ्यः प्रकृतिभ्य उणादयो दृश्यन्ते न सर्वाभ्यो दृश्यन्ते। ' प्रायः समुच्चयनादपि तेषाम् '- प्रायेण खल्वपि ते समुच्चिता न सर्वे समुच्चिताः। ' कार्य्यसशेषविधेश्च तदुक्तम् '- कार्य्याणि खल्वपि सशेषाणि कृतानि न सर्वाणि लक्षणेन परिसमाप्तानि। किं पुनः कारणं तन्वीभ्यः प्रकृतिभ्यः उणादयो दृश्यन्ते न सर्वाभ्यः। किञ्च कारणं प्रायेण समुच्चिता न सर्वे समुच्चिताः। किञ्च कारणं कार्य्याणि सशेषाणि कृतानि न पुनः सर्वाणि लक्षणेन परिसमाप्तानि ? " नैगमरूढिभवं हि सुसाधु "- नैगमाश्च रूढिशब्दाश्चावैदिकास्ते सुष्ठु साधवः कथं स्युः।
" नाम च धातुजमाह निरुक्ते "- नाम खल्वपि धातुजमाहुर्नैरुक्ताः। " व्याकरणे शकटस्य च तोकम् "- वैयाकरणानां च शाकटायन आह धातुजं नामेति। अथ यस्य विशेषपदार्थो न समुत्थितः कथं तत्र भवितव्यम् ? " यन्न विशेषपदार्थसमुत्थं प्रत्ययतः प्रकृतेश्च तदूह्यम् "- प्रकृतिं दृष्ट्वा प्रत्यय ऊहितव्यः , प्रत्ययं दृष्ट्वा प्रकृतिरूहितव्या।
संज्ञासु धातुरूपाणि प्रत्ययाश्च ततः परे।
कार्य्याद्विद्यादनुबन्धमेतच्छास्त्रमुणादिषु॥3॥
(बाहुलकं॰) उणादिपाठे अल्पाभ्यः प्रकृतिभ्य उणादयः प्रत्यया विहितास्तत्र बहुलवचनाद- विहिताभ्योऽपि भवन्ति। एवं प्रत्यया अपि न सर्व एकीकृताः किन्तु प्रायेण सूक्ष्मतया प्रत्यय- विधानं कृतं , तत्रापि बहुलवचनादेवाविहिता अपि प्रत्यया भवन्ति , यथा फिडफिड्डौ भवतः। तथा सूत्रैर्विहितानि कार्य्याणि न भवन्त्यविहितानि च भवन्ति। यथा दण्ड इत्यत्र डप्रत्ययस्य डकारस्य इत्संज्ञा न भवति। एतदपि बाहुलकादेव।
(किं पुनः॰) अनेनैतच्छङ् क्यते उणादौ यावत्यः प्रकृतयो यावन्तः प्रत्यया यावन्ति च सूत्रैः कार्य्याणि विहितानि तावन्त्येव कथं न स्युः ? अत्रोच्यते -
(नैगम॰) नैगमा वैदिकाः शब्दा रूढयो लौकिकाश्च सुष्ठु साधवो यथा स्युः। एवं कृतेन विना नैव ते सुष्ठु सेत्स्यन्ति। (नाम॰) संज्ञाशब्दान् निरुक्तकारा धातुजानाहुः , ( व्याकरणे॰) शकटस्य तोकमपत्यं शाकटायनः तोकमित्यस्यापत्यनामसु पठितत्वात्।
(यन्न॰) यत् विशेषात्पदार्थान्न सम्यगुत्थितमर्थात्प्रकृति-प्रत्ययविधानेन न व्युत्पन्नं तत्र प्रकृतिं दृष्ट्वा प्रत्यय ऊह्यः प्रत्ययं च दृष्ट्वा प्रकृतिः। एतदूहनं क्व कथं च कर्तव्यमित्यत्राह - संज्ञाशब्देषु धातुरूपाणि पूर्वमूह्यानि परे च प्रत्ययाः। (कार्य्याद्वि॰) कार्य्यमाश्रित्य धातुप्रत्ययानुबन्धान् जानीयात् , एतत्सर्वं कार्य्यमुणादिषु बोध्यम्॥
भाषार्थ - (उणादयो॰) इस सूत्र के ऊपर महाभाष्यकार पतञ्जलि मुनि उणादिपाठ की व्यवस्था बांधते हैं कि-(बाहुलकं॰) उणादिपाठ में थोड़े से धातुओं से प्रत्ययविधान किया है सो बहुल के होने से वे प्रत्यय अन्य धातुओं से भी होते हैं। इसी प्रकार प्रत्यय भी उस ग्रन्थ में थोड़े से नमूना के लिए पढ़े हैं, इनसे अन्य भी नवीन प्रत्यय शब्दों में देखकर समझ लेना चाहिए। जैसे 'ऋफिडः' इस शब्द में ऋ धातु से फिड प्रत्यय समझा जाता है, इसी प्रकार अन्यत्र भी जानना चाहिए। तथा जितने शब्द उणादिगण से सिद्ध होते हैं, उन में जितने कार्य सूत्रों करके होने चाहिए वे सब नहीं होते हैं, सो भी बहुल ही का प्रताप है।
(किं पुनः॰) इस में जो कोई ऐसी शङ्का करे कि उणादिपाठ में जितने धातुओं से जितने प्रत्यय विधान किये और जितने कार्य शब्दों की सिद्धि में सूत्रों से हो सकते हैं, उन से अधिक क्यों होते हैं? तो इस का उत्तर यह है कि (नैगम॰) वेदों में जितने शब्द हैं तथा संसार में असंख्य संज्ञाशब्द हैं, ये सब अच्छी प्रकार सिद्ध नहीं हो सकते, इसलिये पूर्वोक्त तीन प्रकार के कार्य बहुलवचन से उणादि में होते हैं। जिस के होने से अनेक प्रकार के हजारों शब्द सिद्ध होते हैं।
(नाम॰) अब इस विषय में निरुक्तकारों का ऐसा मत है कि संज्ञाशब्द जितने हैं, वे सब धातु और प्रत्ययों से बराबर सिद्ध होने चाहिए तथा वैयाकरण जितने ऋषि हैं, उन में से शाकटायन ऋषि का मत निरुक्तकारों के समान है, और इनसे भिन्न ऋषियों का मत यह है कि संज्ञाशब्द जितने हैं वे रूढि हैं।
अब इस बात का विचार करते हैं कि जिन शब्दों में धातु प्रत्यय मालूम कुछ भी नहीं होता वहां क्या करना चाहिए? उन शब्दों में इस प्रकार विचार करना चाहिए कि व्याकरणशास्त्र में जितने धातु और प्रत्यय हैं, इन में से जो धातु मालूम पड़ जाय तो नवीन प्रत्यय की कल्पना कर लेनी, और जो प्रत्यय जाना जाय तो नवीन धातु की कल्पना कर लेनी। इस प्रकार उन शब्दों का अर्थ विचार लेना चाहिए और दूसरी कल्पना यह भी है कि उन शब्दों में जिस अनुबन्ध का कार्य दीखे वैसा ही धातु वा प्रत्यय अनुबन्ध के सहित कल्पना करनी। जैसे कोई आद्युदात्त शब्द हो उस में 'ञ्' अथवा 'न्' अनुबन्ध के सहित प्रत्यय समझना। यह कल्पना सर्वत्र नहीं करने लगना, किन्तु जो संज्ञाशब्द लोक वेद से प्रसिद्ध हों, उनके अर्थ जानने के लिए शब्द के आदि के अक्षरों में धात्वर्थ की और अन्त में प्रत्ययार्थ की कल्पना करनी चाहिए।
ये सब ऋषियों का प्रबन्ध इसलिए है कि शब्दसागर अथाह है, इस की थाह व्याकरण से नहीं मिल सकती। जो कहें कि ऐसा व्याकरण क्यों नहीं बनाया कि जिस से शब्दसागर के पार पहुंच जाते तो यह समझना कि कितने ही पोथा बनाते और जन्मजन्मान्तरों भर पढ़ते तो भी पार होना दुर्लभ हो जाता। इसलिये यह सब पूर्वोक्त प्रबन्ध ऋषियों ने किया है, जिस से शब्दों की व्यवस्था मालूम हो जाय॥
॥इति व्याकरणनियमविषयः॥33॥