ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (दयानन्दसरस्वतीविरचिता)/५. वेदसंज्ञाविचारः

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दयानन्दसरस्वती
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थानीयसंस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान्


अथ वेदसंज्ञाविचारः सम्पाद्यताम्


ब्राह्मणग्रन्थ वेद नहीं सम्पाद्यताम्

अथ कोऽयं वेदो नाम? मन्त्रभागसंहितेत्याह। किञ्च ‘मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्’ इति कात्यायनोक्तेर्ब्राह्मणभागस्यापि वेदसंज्ञा कुतो न स्वीक्रियत इति?

प्रश्न—वेद किनका नाम है?

उत्तर—मन्त्रसंहिताओं का।

प्रश्न—जो कात्यायन ऋषि ने कहा है कि ‘मन्त्र और ब्राह्मणग्रन्थों का नाम वेद है,’ फिर ब्राह्मणभाग को भी वेदों में ग्रहण आप लोग क्यों नहीं करते हैं?

मैवं वाच्यम्। न ब्राह्मणानां वेदसंज्ञा भवितुमर्हति। कुतः? पुराणेतिहाससंज्ञकत्वाद् वेदव्याख्यानाद् ऋषिभिरुक्तत्वादनीश्वरोक्तत्वात् कात्यायनभिन्नैर्ऋषिभिर्वेदसंज्ञायामस्वीकृतत्वान्मनुष्य- बुद्धिरचितत्वाच्चेति।

उत्तर—ब्राह्मणग्रन्थ वेद नहीं हो सकते, क्योंकि उन्हीं का नाम इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा और नाराशंसी भी है। वे ईश्वरोक्त नहीं हैं, किन्तु महर्षि लोगों के किये वेदों के व्याख्यान हैं। एक कात्यायन को छोड़ के किसी अन्य ऋषि ने उनके वेद होने में साक्षी नहीं दी है। और वे देहधारी पुरुषों के बनाये हैं। इन हेतुओं से ब्राह्मणग्रन्थों की वेदसंज्ञा नहीं हो सकती। और मन्त्रसंहिताओं का वेद नाम इसलिये है कि ईश्वररचित और सब विद्याओं का मूल है।


लौकिक इतिहास होने से ब्राह्मणग्रन्थ वेद नहीं सम्पाद्यताम्

यथा ब्राह्मणग्रन्थेषु मनुष्याणां नामलेखपूर्वका लौकिका इतिहासाः सन्ति, न चैवं मन्त्रभागे।

[जैसे ब्राह्मणग्रन्थों में मनुष्यों के नामोल्लेखपूर्वक लौकिक इतिहास हैं, वैसे मन्त्रभाग में नहीं हैं।]

किञ्च भोः!

त्र्या॒यु॒षं ज॒मद॑ग्नेः क॒श्यप॑स्य त्र्यायु॒षम्।

यद्दे॒वेषु॑ त्र्यायु॒षं तन्नो॑ अस्तु त्र्यायु॒षम्॥ (यजु॰३.६२)

इत्यादीनि वचनान्यृषीणां नामाङ्कितानि यजुर्वेदादिष्वपि दृश्यन्ते। अनेनेतिहासादिविषये मन्त्रब्राह्मणयोस्तुल्यता दृश्यते, पुनर्ब्राह्मणानामपि वेदसंज्ञा कुतो न मन्यते?

प्रश्न—जैसे ऐतरेय आदि ब्राह्मणग्रन्थों में याज्ञवल्क्य मैत्रेयी, गार्गी और जनक आदि के इतिहास हैं, वैसे ही (त्र्यायुषं जमदग्नेः०) इत्यादि वेदों में भी पाये जाते हैं। इससे मन्त्र और ब्राह्मणभाग ये दोनों बराबर होते हैं। फिर ब्राह्मणग्रन्थों को वेदों में क्यों नहीं मानते हो?

मैवं भ्रमि। नैवात्र जमदग्निकश्यपौ देहधारिणौ मनुष्यस्य नाम्नी स्तः। अत्र प्रमाणम्—

चक्षुर्वै जमदग्निर्ऋषिर्यदेनेन जगत्पश्यत्यथो मनुते तस्माच्चक्षुर्जमदग्निर्ऋषिः॥ (श॰ब्रा॰८.१.२.३)

उत्तर—ऐसा भ्रम मत करो, क्योंकि जमदग्नि और कश्यप ये नाम देहधारी मनुष्यों के नहीं हैं। इसका प्रमाण शतपथ-ब्राह्मण में लिखा है कि—‘चक्षु का नाम जमदग्नि और प्राण का नाम कश्यप है।’ इस कारण से यहाँ प्राण से अन्तःकरण और आँख से सब इन्द्रियों का ग्रहण करना चाहिये अर्थात् जिनसे जगत् के सब जीव बाहर और भीतर देखते हैं।

‘कश्यपो वै कूर्मः।’ (श॰ब्रा॰७.५.१.५)

‘प्राणो वै कूर्मः।’ (श॰ब्रा॰७.५.१.७)

अनेन प्राणस्य कूर्मः कश्यपश्च संज्ञास्ति। शरीरस्य नाभौ तस्य कूर्माकारावस्थितेः।

[इससे प्राण की कूर्म और कश्यप संज्ञा है। क्योंकि शरीर की नाभि में वह कूर्म के समान स्थित है।]

अनेन मन्त्रेणेश्वर एव प्रार्थ्यते। तद्यथा—हे जगदीश्वर! भवत्कृपया नोऽस्माकं जमदग्निसंज्ञकस्य चक्षुषः कश्यपाख्यस्य प्राणस्य च (त्र्यायुषम्) त्रिगुणमर्थात् त्रीणि शतानि वर्षाणि यावत्तावदायुरस्तु। चक्षुरित्युपलक्षणमिन्द्रियाणां, प्राणो मन आदीनां च (यद्देवेषु त्र्यायुषम्) अत्र प्रमाणम्—

विद्वाꣳसो हि देवाः॥ (श॰ब्रा॰३.७.३.१०)

अनेन विदुषां देवसंज्ञास्ति, देवेषु विद्वत्सु यावद्विद्याप्रभावयुक्तं त्रिगुणमायुर्भवति, (तन्नो अस्तु त्र्यायुषम्) तत्सेन्द्रियाणां समनस्कानां नोऽस्माकं पूर्वोक्तं सुखयुक्तं त्रिगुणमायुरस्तु भवेत्। येन सुखयुक्ता वयं तावदायुर्भुञ्जीमहि। अनेनान्यदप्युपदिश्यते। ब्रह्मचर्यादिसुनियमैर्मनुष्यैरेतत्रिगुणमायुः कर्तुं शक्यमस्तीति गम्यते।

(त्र्यायुषं ज॰) सो इस मन्त्र से ईश्वर की प्रार्थना करनी चाहिये कि—हे जगदीश्वर! आपके अनुग्रह से हमारे प्राण आदि अन्तःकरण और आँख आदि सब इन्द्रियों की (३००) तीन सौ वर्ष तक उमर बनी रहे। (यद्देवेषु॰) सो जैसी विद्वानों के बीच में विद्यादि शुभगुण और आनन्दयुक्त उमर होती है, (तन्नो अस्तु॰) वैसी ही हम लोगों की भी हो। तथा ‘त्र्यायुषं जमदग्नेः०’ इत्यादि उपदेश से यह भी जाना जाता है कि मनुष्य ब्रह्मचर्यादि उत्तम नियमों से त्रिगुण, चतुर्गुण आयु कर सकता है, अर्थात् (४००) चार सौ वर्ष तक भी सुखपूर्वक जी सकता है।

अतोऽर्थाभिधायकैर्जमदग्न्यादिभिः शब्दैरर्थमात्रं वेदेषु प्रकाश्यते। अतो नात्र मन्त्रभागे हीतिहासलेशोऽप्यस्तीत्यवगन्तव्यम्। अतो यच्च सायणाचार्यादिभिर्वेदप्रकाशादिषु यत्र कुत्रेतिहासवर्णनं तद् भ्रममूलमस्तीति मन्तव्यम्।

इससे यह सिद्ध हुआ कि वेदों में सत्य अर्थ के वाचक शब्दों से सत्यविद्याओं का प्रकाश किया है, लौकिक इतिहासों का नहीं। इससे जो सायणाचार्यादि लोगों ने अपनी-अपनी बनाई टीकाओं में वेदों में जहाँ-तहाँ इतिहास का वर्णन किये हैं, वे सब मिथ्या हैं।


ब्राह्मणग्रन्थ से भिन्न वेद और पुराण इतिहास नहीं सम्पाद्यताम्

तथा ब्राह्मणग्रन्थानामेव पुराणेतिहासादिनामास्ति, न ब्रह्मवैवर्तश्रीमद्भागवतादीनां चेति निश्चीयते।

और इस हेतु से ब्राह्मणग्रन्थों का ही ‘इतिहासादि’ नाम जानना चाहिये, श्रीमद्भागवतादि का नहीं।

किंच भोः! ब्रह्मयज्ञविधाने यत्र क्वचित् ब्राह्मणसूत्रग्रन्थेषु ‘यद् ब्राह्मणानीतिहासान् पुराणानि कल्पान् गाथा नाराशंसी’रित्यादीनि वचनानि दृश्यन्ते, एषां मूलमथर्ववेदेऽप्यस्ति—

स बृ॑ह॒तीं दिश॒मनु᳡ व्यचलत्। तमि॑तिहा॒सश्च॑ पुरा॒णं च॒ गाथा॑श्च नाराशं॒सीश्चा॑नु॒व्य᳡ चलन्। इ॒ति॒हा॒सस्य॑ च॒ वै स पु॑रा॒णस्य॑ च॒ गाथा॑नां च नाराशं॒सीनां॑ च प्रि॒यं धाम॑ भवति॒ य ए॒वं वेद॑॥ (अथर्व॰१५.६.१२)

अतो ब्राह्मणग्रन्थेभ्यो भिन्ना भागवतादयो ग्रन्था इतिहासादिसंज्ञया कुतो न गृह्यन्ते?

प्रश्न—जहाँ-जहाँ ब्राह्मण और सूत्रग्रन्थों में (यद्ब्राह्मण॰) इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा, नाराशंसी इत्यादि वचन देखने में आते हैं, तथा अथर्ववेद में भी इतिहास, पुराणादि नामों का लेख है, इस हेतु से ब्राह्मणग्रन्थों से भिन्न ब्रह्मवैवर्त्त, श्रीमद्भागवत, महाभारतादि का ग्रहण इतिहास पुराणादि नामों से क्यों नहीं करते हो?

मैवं वाचि। एतैः प्रमाणैर्ब्राह्मणग्रन्थानामेव ग्रहणं जायते, न श्रीमद्भागवतादीनामिति। कुतः? ब्राह्मणग्रन्थेष्वितिहासादीनामन्तर्भावात्। तत्र—

उत्तर—इनके ग्रहण में कोई प्रमाण नहीं है। क्योंकि उनमें मतों के परस्पर विरोध और लड़ाई आदि की असम्भव मिथ्या कथा अपने-अपने मत के अनुसार लोगों ने लिख रक्खी है। इससे इतिहास और पुराणादि नामों से इनका ग्रहण करना किसी मनुष्य को उचित नहीं।

देवासुराः संयत्ता आसन्॥ (तै॰स॰१.५.१.१) इत्यादयः इतिहासा ग्राह्याः।

जो ब्राह्मणग्रन्थों में (देवासुराः संयत्ता आसन्) अर्थात् ‘देव विद्वान् और असुर मूर्ख ये दोनों युद्ध करने को तत्पर हुए थे’ इत्यादि कथाओं का नाम इतिहास है।

सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्॥ (छान्दो॰६.२.१)

आत्मा वा इदमेकमेवाग्र आसीन्नान्यत् किंचन मिषत्॥ (ऐ॰उ॰१.१.१)

आपो ह वा इदमग्रे सलिलमेवास॥ (श॰ब्रा॰११.१.६.१)

इदं वा अग्रे नैव किंचिदासीत्॥

इत्यादीनि जगतः पूर्वावस्थाकथनपूर्वकाणि वचनानि ब्राह्मणान्तर्गतान्येव पुराणानि ग्राह्याणि।

(सदेव सो॰) अर्थात् जिसमें जगत् की उत्पत्ति आदि का वर्णन है, उस ब्राह्मण भाग का नाम पुराण है।


कल्प सम्पाद्यताम्

कल्पा मन्त्रार्थसामर्थ्यप्रकाशकाः, तद्यथा—

‘इषे त्वोर्जे त्वेति वृष्ट्यै तदाह, यदाहेषे त्वेत्यूर्जे त्वेति यो वृष्टाद् ऊर्ग् रसो जायते तस्मै तदाह। सविता वै देवानां प्रसविता सवितृप्रसूताः॥’ (श॰ब्रा॰१.७.१.२, ४) इत्यादयो ग्राह्याः।

(इषे त्वोर्जे त्वेति वृष्ट्यै॰) जो वेदमन्त्रों के अर्थ अर्थात् जिनमें द्रव्यों के सामर्थ्य का कथन किया है, उनका नाम ‘कल्प’ है।


गाथा सम्पाद्यताम्

गाथा याज्ञवल्क्यजनकसंवादो। यथा शतपथ-ब्राह्मणे गार्गीमैत्रेय्यादीनां परस्परं प्रश्नोत्तरकथनयुक्ताः सन्तीति।

इसी प्रकार जैसे शतपथ-ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य, जनक, गार्गी, मैत्रेयी आदि की कथाओं का नाम ‘गाथा’ है।


नाराशंसी सम्पाद्यताम्

नाराशंस्यश्च, अत्राहुर्यास्काचार्याः—

‘नराशंसो यज्ञ इति कात्थक्यो नरा अस्मिन्नासीनाः शंसन्त्यग्निरिति शाकपूणिर्नरैः प्रशस्यो भवति॥’ (निरु॰८.६)

नॄणां यत्र प्रशंसा नृभिर्यत्र प्रशस्यते ता ब्राह्मणनिरुक्ताद्यन्तर्गताः कथा नाराशंस्यो ग्राह्या नातोऽन्या इति।

और जिनमें नर अर्थात् मनुष्य लोगों ने ईश्वर, धर्म आदि पदार्थविद्याओं और मनुष्यों की प्रशंसा की है, उनको ‘नाराशंसी’ कहते हैं।

ब्राह्मणों के इतिहासादि होने में अन्य प्रमाण सम्पाद्यताम्

किंच तेषु तेषु वचनेष्वपीदमेव विज्ञायते यत् यस्माद् ब्राह्मणानीति संज्ञीपदमितिहासादिस्तेषां संज्ञेति। तद्यथा—ब्राह्मणान्येवेतिहासान् जानीयात् पुराणानि कल्पान् गाथा नाराशंसीश्चेति।

(ब्राह्मणानीतिहासान्॰) इस वचन में ‘ब्राह्मणानि’ संज्ञी और इतिहासादि संज्ञा हैं अर्थात् ब्राह्मणग्रन्थों का नाम इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा और नाराशंसी है। सो ब्राह्मण और निरुक्तादि ग्रन्थों में जो-जो जैसी-जैसी कथा लिखी हैं, उन्हीं का इतिहासादि से ग्रहण करना चाहिये, अन्य का नहीं।

अन्यदप्यत्र प्रमाणमस्ति न्यायदर्शनभाष्ये—

[न्यायदर्शनभाष्य में अन्य भी प्रमाण है—]

वाक्यविभागस्य चार्थग्रहणात्॥१॥ (न्या॰सू॰२.१.६०)

अस्योपरि वात्स्यायनः

[इस सूत्र के ऊपर वात्स्यायन का भाष्य है—]

‘प्रमाणं शब्दो यथा लोके, विभागश्च ब्राह्मणवाक्यानां त्रिविधः।’

अयमभिप्रायः—ब्राह्मणग्रन्थशब्दा लौकिका एव, न वैदिका इति। तेषां त्रिविधो विभागो लक्ष्यते—

[इसका अभिप्राय यह है कि ब्राह्मणग्रन्थ के शब्द लौकिक होते हैं, वैदिक नहीं। उनका विभाग भी तीन प्रकार का होता है।]


ब्राह्मणग्रन्थ में तीन प्रकार के वाक्य सम्पाद्यताम्

सूत्रम्— विध्यर्थवादानुवादनवचनविनियोगात्॥२॥ (न्या॰सू॰२.१.६१)

अस्योपरि वात्स्यायनः

[इस सूत्र के ऊपर वात्स्यायन का भाष्य है—]

‘त्रिधा खलु ब्राह्मणवाक्यानि विनियुक्तानि, विधिवचनान्यर्थवादवचनान्यनुवादवचनानीति।’

[ब्राह्मणवाक्यों का विनियोग तीन प्रकार से होता है—१. विधिवचन, २. अर्थवादवचन, ३. अनुवादवचन।]


विधि सम्पाद्यताम्

तत्र—

[उनमें से विधि का लक्षण है—]

सूत्रम्— विधिर्विधायकः॥३॥ (न्या॰सू॰२.१.६२)

अस्योपरि वात्स्यायनः

[इस सूत्र के ऊपर वात्स्यायन का भाष्य है—]

‘यद्वाक्यं विधायकं चोदकं स विधिः। विधिस्तु नियोगोऽनुज्ञा वा, यथाऽग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम’ इत्यादि।’ ब्राह्मणवाक्यानामिति शेषः।

ब्राह्मणग्रन्थों की इतिहासादि संज्ञा होने में और भी प्रमाण हैं—जैसे लोक में तीन प्रकार के वचन होते हैं, वैसे ब्राह्मणग्रन्थों में भी हैं। उनमें से एक-विधिवाक्य है, जैसे—‘देवदत्तो ग्रामं गच्छेत् सुखार्थम्’ सुख के लिये देवदत्त ग्राम को जाय, इसी प्रकार ब्राह्मणग्रन्थों में भी हैं—‘अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः’ जिसको सुख की इच्छा हो, वह अग्निहोत्रादि यज्ञों को करे।


अर्थवाद सम्पाद्यताम्

सूत्रम्-स्तुतिर्निन्दा परकृतिः पुराकल्प इत्यर्थवादः॥४॥ (न्या॰सू॰२.१.६३)

अस्योपरि वात्स्यायनः

[इस सूत्र के ऊपर वात्स्यायन का भाष्य है—]


स्तुति सम्पाद्यताम्

‘विधेः फलवादलक्षणा या प्रशंसा सा स्तुतिः संप्रत्ययार्थं स्तूयमानं श्रद्दधीतेति प्रवर्तिका च फलश्रवणात् प्रवर्त्तते। सर्वजिता वै देवाः सर्वमजयत् सर्वस्याप्त्यै सर्वस्य जित्यै सर्वमेवैतेनाप्नोति सर्वं जयतीत्येवमादि।

दूसरा—अर्थवाद है, जो कि चार प्रकार का होता है—एक—(स्तुति), अर्थात् पदार्थों के गुणों का प्रकाश करना, जिससे मनुष्यों की श्रद्धा उत्तम काम करने और गुणों के ग्रहण में ही हो। [उदा॰ सबकी प्राप्ति और सबकी विजय के लिये देवों ने सर्वजित् नामक याग से यजन किया और सबको जीत लिया। जो इस सर्वजित् नामक याग से यजन करता है, वह सब-कुछ प्राप्त कर लेता है और सबको जीत लेता है।]


निन्दा सम्पाद्यताम्

अनिष्टफलवादो निन्दा, वर्जनार्थं, निन्दितं न समाचरेदिति। स एष वा प्रथमो यज्ञो यज्ञानां यज्ज्योतिष्टोमो य एतेनानिष्ट्वाऽन्येन यजते गर्त्ते पतत्ययमेवैतज्जीर्यते वा इत्येवमादि।

दूसरी—(निन्दा), अर्थात् बुरे काम करने में दोषों का दिखलाना, जिससे उनको कोई न करे। [उदा॰यज्ञों में प्रथम यज्ञ ज्योतिष्टोम है। इससे यजन न कर जो अन्य याग का अनुष्ठान करता है, वह पतित हो जाता है, जीर्णशीर्ण होकर नष्ट हो जाता है। यहाँ सोमप्रधान यागों में सर्वश्रेष्ठ ज्योतिष्टोम को छोड़कर अन्य याग के अनुष्ठान की निन्दा की गई है, जिससे कोई ऐसा न करे।]


परकृति सम्पाद्यताम्

अन्यकर्त्तृकस्य व्याहतस्य विधेर्वादः परकृतिः। हुत्वा वपामेवाऽग्रेऽभिधारयन्ति, अथ पृषदाज्यम्। तदु ह चरकाध्वर्यवः पृषदाज्यमेवाग्रेऽभिधारयन्ति। अग्नेः प्राणाः पृषदाज्यं स्तोममित्येवमभिदधतीत्येवमादि।

तीसरा—(परकृतिः), जैसे इस चोर ने बुरा काम किया, इससे उसको दण्ड मिला, और साहूकार ने अच्छा काम किया, इससे उसकी प्रतिष्ठा और उन्नति हुई। [कतिपय होता अग्निहोत्र का प्रारम्भ करके वपा का ही पृथक् अग्नि में सेचन करते हैं, परन्तु चरकशाखा के अध्वर्युगण दधिमिश्रित घृत की ही प्रथम आहुति देते हैं। स्तुत्य दधि-घृत अग्नि के प्राण हैं, ऐसा प्रतिपादन करते हैं। इस सन्दर्भ में भिन्नकर्तृक परस्पर विरोधी दो विधियों का उल्लेख परकृति नामक अर्थवाद कहा जाता है।]


पुराकल्प सम्पाद्यताम्

ऐतिह्यसमाचरितो विधिः पुराकल्प इति। तस्माद्वा एतेन ब्राह्मणा बहिः पवमानं साम स्तोममस्तौषन् योनेर्यज्ञं प्रतनवामह इत्येवमादि। कथं परकृतिपुराकल्पौ अर्थवादा इति। स्तुतिनिन्दावाक्येनाभिसम्बन्धाद् विध्याश्रयस्य कस्य कस्यचिदर्थस्य द्योतनादर्थवाद इति।

चौथा—(पुराकल्प) अर्थात् जो बात पहले हो चुकी हो, जैसे जनक की सभा में याज्ञवल्क्य, गार्गी, शाकल्य आदि ने इकट्ठे होके आपस में प्रश्नोत्तर रीति से संवाद किया था, इत्यादि इतिहासों को पुराकल्प कहते हैं। [उदा॰इस कारण उवत क्रम के अनुसार वेदज्ञ ऋत्विजों ने बहिष्पवमान नामक सामस्तोत्र के द्वारा स्तुति की। इतिहास के समान प्रतीत होनेवाला बीते हुए अर्थ का यह विवरण पुराकल्प अर्थवाद है।]


अनुवाद सम्पाद्यताम्

सूत्रम्—

विधिविहितस्यानुवचनमनुवादः॥५॥ (न्या॰सू॰२.१.६४)

अस्योपरि वात्स्यायनः

[इस सूत्र के ऊपर वात्स्यायन का भाष्य है—]

‘विध्यनुवचनं चानुवादो, विहितानुवचनं च। पूर्वः शब्दानुवादोऽपरोऽर्थानुवादः।’

इसका तीसरा भाग—अनुवाद है, अर्थात् जिसका पूर्व विधान करके उसीका स्मरण और कथन करना। सो भी दो प्रकार का है—एक—शब्द का, और दूसरा—अर्थ का। जैसे ‘वह विद्या को पढ़े’ यह ‘शब्दानुवाद’ है। ‘विद्या को पढ़ने से ही ज्ञान होता है’ इसको ‘अर्थानुवाद’ कहते हैं।

जिसकी प्रतिज्ञा उसीमें हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन को घटाना हो। जैसे परमेश्वर नित्य है, यह ‘प्रतिज्ञा’ है। विनाश रहित होने से यह ‘हेतु’ है। आकाश के समान है, इसको ‘उदाहरण’ कहते हैं। जैसा आकाश नित्य है, वैसा परमेश्वर भी है, इसको ‘उपनय’ कहते हैं। और इन चारों का क्रम से उच्चारण करके पक्ष में यथावत् योजना करने को ‘निगमन’ कहते हैं। जैसे—परमेश्वर नित्य है, विनाशरहित होने से आकाश के समान, जैसा आकाश नित्य है, वैसा परमेश्वर भी।

इससे समझ लेना चाहिये कि जिस शब्द और अर्थ का दूसरी बार उच्चारण और विचार हो, इसको ‘अनुवाद’ कहते हैं। सो ब्राह्मणपुस्तकों में यथावत् लिखा है।

अनेन प्रमाणेनापीतिहासादीनामभिर्ब्राह्मणान्येव गृह्यन्ते, नान्यदिति।

इस हेतु से भी ब्राह्मणपुस्तकों का नाम इतिहास आदि जानना चाहिये। क्योंकि इनमें इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा और नाराशंसी ये पाँच प्रकार की कथा सब ठीक-ठीक लिखी है। और भागवतादि को इतिहासादि नहीं जानना चाहिये, क्योंकि उनमें मिथ्या कथा बहुत सी लिखी है।

सूत्रम्—न चतुष्ट्वमैतिह्यार्थापत्तिसंभवाभावप्रामाण्यात्॥६॥ (न्या॰सू॰२.१.६५)

अस्योपरि वात्स्यायनः

[इस सूत्र के ऊपर वात्स्यायनभाष्य में लिखा है—]

‘न चत्वार्येव प्रमाणानि, किं तर्हि, ऐतिह्यमर्थापत्तिः संभवोऽभाव इत्येतान्यपि प्रमाणानि। इति होचुरित्यनिर्दिष्टप्रवत्तृकं प्रवादपारंपर्यमैतिह्यम्।’

[केवल चार ही प्रमाण नहीं होते, तो फिर कितने होते हैं? उक्त चार के अतिरिक्त ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव ये चार भी प्रमाण हैं। वे ऐसा कहते हैं कि जिसका प्रवक्ता अनिर्दिष्ट हो, ऐसा परम्परा से चला आने वाला प्रवाद ऐतिह्य है।]

अन्यच्च—ब्राह्मणानि तु वेदव्याख्यानान्येव सन्ति, नैव वेदाख्यानीति। कुतः? ‘इषे त्वोर्जे त्वेति’ (श॰ब्रा॰१.७.१.२) इत्यादीनि मन्त्रप्रतीकानि धृत्वा ब्राह्मणेषु वेदानां व्याख्यानकरणात्।

[इसके अतिरिक्त] ब्राह्मणग्रन्थों की वेदों में गणना नहीं हो सकती, क्योंकि ‘इषे त्वोर्जे त्वेति॰’ इस प्रकार से उनमें मन्त्रों की प्रतीक धर-धर के वेदों का व्याख्यान किया है। और मन्त्रभाग संहिताओं में ब्राह्मणग्रन्थों की एक भी प्रतीक कहीं नहीं देखने में आती। इससे जो ईश्वरोक्त मूलमन्त्र अर्थात् चार संहिता हैं, वे ही वेद हैं, ब्राह्मणग्रन्थ नहीं।


ब्राह्मणों के वेद न होने में व्याकरण से भी समर्थन सम्पाद्यताम्

अन्यच्च महाभाष्येऽपि—

‘केषां शब्दानाम्? लौकिकानां वैदिकानां च। तत्र लौकिकास्तावत्—गौरश्वः पुरुषो हस्ती शकुनिर्मृगो ब्राह्मण इति। वैदिकाः खल्वपि—‘शन्नो देवीरभिष्टये। इषे त्वोर्जे त्वा। अग्निमीळे पुरोहितम्। अग्न आ याहि वीतय इति॥’ [महा॰भा॰१.१.१]

यदि ब्राह्मणग्रन्थानामपि वेदसंज्ञाभीष्टाभूत् तर्हि तेषामप्युदाहरणमदात्। अत एव महाभाष्यकारेण मन्त्रभागस्यैव वेदसंज्ञा मत्वा प्रथममन्त्रप्रतीकानि वैदिकेषु शब्देषूदाहृतानि। किन्तु यानि ‘गौरश्व’ इत्यादीनि लौकिकोदाहरणानि दत्तानि तानि ब्राह्मणादिग्रन्थेष्वेव घटन्ते। कुतः? तेष्वीदृग्शब्दपाठव्यवहारदर्शनात्।

ब्राह्मणग्रन्थों की वेदसंज्ञा नहीं होने में यह व्याकरण महाभाष्य का भी प्रमाण है, जिसमें लोक और वेदों के भिन्न-भिन्न उदाहरण दिये हैं। जैसे—‘गौरश्वः’ इत्यादि लोक के और ‘शन्नो देवीरभिष्टय’ इत्यादि वेदों के हैं। किन्तु वैदिक उदाहरणों में ब्राह्मणों का एक भी उदाहरण नहीं दिया और ‘गौरश्वः’ इत्यादि जो लोक के उदाहरण दिये हैं, वे सब ब्राह्मणपुस्तकों के हैं, क्योंकि उनमें ऐसा ही पाठ है। इसी कारण से ब्राह्मणपुस्तकों की वेदसंज्ञा नहीं हो सकती।

द्वितीया ब्राह्मणे॥१॥ (अष्टा॰२.३.६०)

चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि॥२॥ (अष्टा॰२.३.६२)

पुराणप्रोक्तेषु ब्राह्मणकल्पेषु॥३॥ (अष्टा॰४.३.१०५)

अत्रापि पाणिन्याचार्यैर्वेदब्राह्मणयोर्भेदेनैव प्रतिपादनं कृतम्। तद्यथा—पुराणैः प्राचीनैर्ब्रह्माद्यृषिभिः प्रोक्ता ब्राह्मणकल्पग्रन्था वेदव्याख्यानाः सन्ति। अत एवैतेषां पुराणेतिहाससंज्ञा कृतास्ति। यद्यत्र छन्दोब्राह्मणयोर्वेदसंज्ञाभीष्टा भवेत् तर्हि ‘चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसी’त्यत्र छन्दोग्रहणं व्यर्थं स्यात्। कुतः? ‘द्वितीया ब्राह्मण’ इति ब्राह्मणशब्दस्य प्रकृतत्वात्। अतो विज्ञायते न ब्राह्मणग्रन्थानां वेदसंज्ञास्तीति। अतः किं सिद्धम्? ब्रह्मेति ब्राह्मणानां नामास्ति। अत्र प्रमाणम्—

[यहाँ पर भी पाणिनि आचार्य ने वेद और ब्राह्मण का भेदपूर्वक प्रतिपादन किया है। जैसे—प्राचीन ब्रह्मा आदि ऋषियों के द्वारा प्रोक्त ब्राह्मण और कल्प ग्रन्थ वेदव्याख्यान हैं। इसलिये इनकी पुराण और इतिहास संज्ञा है। यदि यहाँ छन्दस् और ब्राह्मण की वेदसंज्ञा अभीष्ट होती तो ‘चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि’ यहाँ ‘छन्दस्’ ग्रहण व्यर्थ हो जाता, क्योंकि ‘द्वितीया ब्राह्मणे’ इस सूत्र में ब्राह्मण शब्द प्रकृत से आ रहा है। इससे विदित होता है कि ब्राह्मणग्रन्थों की वेदसंज्ञा नहीं है। इससे क्या सिद्ध हुआ कि ब्रह्म ही ब्राह्मणों का नाम है। इस विषय में प्रमाण है—]


ब्रह्म प्रोक्त होने से ब्राह्मणसंज्ञा सम्पाद्यताम्

‘ब्रह्म वै ब्राह्मणः क्षत्रꣳ राजन्यः॥’ (श॰ब्रा॰१३.१.५.३)

‘समानार्थावेतौ [वृषशब्दो वृषन् शब्दश्च] ब्रह्मन् शब्दो ब्राह्मणशब्दश्च॥’

(इति व्याकरणमहाभाष्ये अ॰५.१.१)

चतुर्वेदविद्भिर्ब्रह्मभिर्ब्राह्मणैर्महर्षिभिः प्रोक्तानि यानि वेदव्याख्यानानि तानि ब्राह्मणानि।

इससे यह सिद्ध हुआ कि ‘ब्रह्म’ नाम ब्राह्मण का है, सो ब्रह्मादि जो वेदों के जानने वाले महर्षि लोग थे, उन्हीं के बनाये ऐतरेय, शतपथ आदि वेदों के व्याख्यान हैं। इसी कारण से उनके किये ग्रन्थों का नाम ब्राह्मण हुआ है। इससे निश्चय हुआ कि मन्त्रभाग की ही वेदसंज्ञा है, ब्राह्मणग्रन्थों की नहीं।

सहचार उपाधि लक्षणा से भी मन्त्र ब्राह्मण नहीं सम्पाद्यताम्

अन्यच्च—कात्यायनेनापि ब्रह्मणा वेदेन सहचरितत्वात् सहचारोपाधिं मत्वा ब्राह्मणानां वेदसंज्ञा संमतेति विज्ञायते। एवमपि न सम्यगस्ति। कुतः? एवं तेनानुक्तत्वादतोऽन्यैर्ऋषिभिरगृहीतत्वात्। अनेनापि न ब्राह्मणानां वेदसंज्ञाभवितुमर्हतीति। इत्यादिबहुभिः प्रमाणैर्मन्त्राणामेव वेदसंज्ञा, न ब्राह्मणग्रन्थानामिति सिद्धम्।

और कात्यायन के नाम से जो दोनों की वेदसंज्ञा होने में वचन है, सो सहचार उपाधि लक्षणा से किया हो, तो भी नहीं बन सकता। क्योंकि जैसे किसी ने किसी से कहा कि ‘उस लकड़ी को भोजन करा दो,’ और दूसरे ने इतने ही कहने से तुरन्त जान लिया कि लकड़ी जड़ पदार्थ होने से भोजन नहीं कर सकती, किन्तु जिस मनुष्य के हाथ में लकड़ी है, उसको भोजन कराना चाहिये, इस प्रकार से कहा हो तो भी मानने के योग्य नहीं हो सकता। क्योंकि इसमें अन्य ऋषियों की एक भी साक्षी नहीं है।


वेद के समान ब्राह्मणग्रन्थों का प्रामाण्य नहीं सम्पाद्यताम्

किञ्च भो! ब्राह्मणग्रन्थानामपि वेदवत्प्रामाण्यं कर्त्तव्यमाहोस्विन्नेति?

प्रश्न—हम यह पूछते हैं कि ब्राह्मणग्रन्थों का भी वेदों के समान प्रमाण करना उचित है वा नहीं?

अत्र ब्रूमः। नैतेषां वेदवत्प्रामाण्यं कर्त्तुं योग्यमस्ति। कुतः? ईश्वरोक्ताभावात्, तदनुकूलतयैव प्रमाणार्हत्वाच्चेति, परन्तु सन्ति तानि परतः प्रमाणयोग्यान्येवेति।

उत्तर—ब्राह्मणग्रन्थों का प्रमाण वेदों के तुल्य नहीं हो सकता, क्योंकि वे ईश्वरोक्त नहीं हैं। परन्तु वेदों के अनुकूल होने से प्रमाण के योग्य तो हैं।

इति वेदसंज्ञाविचारः