काठकसंहिता (विस्वरः)/वचनम् ०२
← प्रथमं वचनम् | काठकसंहिता (विस्वरः) अश्वमेधः (द्वितीयं वचनम् ) [[लेखकः :|]] |
तृतीयं वचनम् → |
गणानुवचनम् |
अथ द्वितीयं वचनम् ।
गणानुवचनम् ।
एकस्मै स्वाहा द्वाभ्याँ स्वाहा त्रिभ्यस्स्वाहा चतुर्भ्यस्स्वाहा पञ्चभ्यस्स्वाहा षड्भ्यस्स्वाहा सप्तभ्यस्स्वाहाष्टाभ्यस्स्वाहा नवभ्यस्स्वाहा दशभ्यस्स्वाहैकान्नविंशत्यै स्वाहा विंशत्यै स्वाहा नवविँशत्यै स्वाहा त्रिँशते स्वाहैकान्नचत्वारिँशते स्वाहा चत्वारिँशते स्वाहा नवचत्वारिँशते स्वाहा पञ्चाशते स्वाहैकान्नषष्ट्यै स्वाहा नवषष्ट्यै स्वाहा सप्तत्यै स्वाहैकान्नाशीत्यै स्वाहाशीत्यै स्वाहा नवाशीत्यै स्वाहा नवत्यै स्वाहैकान्नशताय स्वाहा शताय स्वाहा द्वाभ्याँ शताभ्याँ स्वाहा सर्वस्मै स्वाहा ॥१॥
एकस्मै स्वाहा त्रिभ्यस्स्वाहा पञ्चभ्यस्स्वाहा सप्तभ्यस्स्वाहा नवभ्यस्स्वाहैकादशभ्यस्स्वाहैकान्नविँशत्यै स्वाहैकविँशत्यै स्वाहा नवविँशत्यै स्वाहैकत्रिँशते स्वाहैकान्नचत्वारिँशते स्वाहैकचत्वारिँशते स्वाहा नवचत्वारिँशते स्वाहैकपञ्चाशते स्वाहैकान्नषष्ठ्यै स्वाहैकषष्ट्यै स्वाहा नवषष्ट्यै स्वाहैकसप्तत्यै स्वाहैकान्नाशीत्यै स्वाहैकाशीत्यै स्वाहा नवाशीत्यै स्वाहैकनवत्यै स्वाहैकान्नशताय स्वाहा शताय स्वाहा सर्वस्मै स्वाहा ॥२॥
द्वाभ्याँ स्वाहा चतुर्भ्यस्स्वाहा षड्भ्यस्स्वाहाष्टाभ्यस्स्वाहा दशभ्यस्स्वाहाष्टादशभ्यस्स्वाहा विँशत्यै स्वाहा त्रिँशते स्वाहाष्टात्रिँशते स्वाहा चत्वारिँशते स्वाहाष्टाचत्वारिँशते स्वाहा पञ्चाशते स्वाहाष्टापञ्चाशते स्वाहा षष्ट्यै स्वाहाष्टाषष्ट्यै स्वाहा सप्तत्यै स्वाहाष्टासप्तत्यै स्वाहाशीत्यै स्वाहाष्टाशीत्यै स्वाहा नवत्यै स्वाहाष्टानवत्यै स्वाहा शताय स्वाहा सर्वस्मै स्वाहा ॥३॥
त्रिभ्यस्स्वाहा पञ्चभ्यस्स्वाहा यथा द्वितीय एवं चतुर्थोऽन्यत् प्रभृतेः ॥४॥
चतुर्भ्यस्स्वाहाष्टाभ्यस्स्वाहा द्वादशभ्यस्स्वाहा षोडशभ्यस्स्वाहा विँशत्यै स्वाहा चतुर्विँशत्यै स्वाहाष्टाविँशत्यै स्वाहा द्वात्रिँशते स्वाहा षट्त्रिँशते स्वाहा चत्वारिँशते स्वाहाष्टाचत्वारिँशते स्वाहा द्वापञ्चाशते स्वाहा षट्पञ्चाशते स्वाहा षष्ट्यै स्वाहा चतुष्षष्ट्यै स्वाहाष्टाषष्ट्यै स्वाहा द्वासप्तत्यै स्वाहा षट्सप्तत्यै स्वाहाशीत्यै स्वाहा चतुरशीत्यै स्वाहाष्टाशीत्यै स्वाहा द्वानवत्यै स्वाहा षण्णवत्यै स्वाहा शताय स्वाहा सर्वस्मै स्वाहा ॥५॥
पञ्चभ्यस्स्वाहा दशभ्यस्स्वाहा पञ्चदशभ्यस्स्वाहा विँशत्यै स्वाहा पञ्चविँशत्यै स्वाहा त्रिँशते स्वाहा पञ्चत्रिँशते स्वाहा चत्वारिँशते स्वाहा पञ्चचत्वारिँशते स्वाहा पञ्चाशते स्वाहा पञ्चपञ्चाशते स्वाहा षष्ट्यै स्वाहा पञ्चषष्ट्यै स्वाहा सप्तत्यै स्वाहाशीत्यै स्वाहा पञ्चाशीत्यै स्वाहा नवत्यै स्वाहा पञ्चनवत्यै स्वाहा शताय स्वाहा सर्वस्मै स्वाहा ॥६॥
दशभ्यस्स्वाहा विँशत्यै स्वाहा त्रिँशते स्वाहा चत्वारिँशते स्वाहा पञ्चाशते स्वाहा षष्ट्यै स्वाहा सप्तत्यै स्वाहाशीत्यै स्वाहा नवत्यै स्वाहा शताय स्वाहा सर्वस्मै स्वाहा ॥७॥
विँशत्यै स्वाहा चत्वारिँशते स्वाहा षष्ट्यै स्वाहाशीत्यै स्वाहा शताय स्वाहा सर्वस्मै स्वाहा ॥८॥
पञ्चाशते स्वाहा शताय स्वाहा द्वाभ्याँ शताभ्याँ स्वाहा त्रिभ्यश्चतुर्भ्यः पञ्चभ्यष्षड्भ्यस्सप्तभ्योऽष्टाभ्यो नवभ्यश्शतेभ्यस्स्वाहा सहस्राय स्वाहा सर्वस्मै स्वाहा ॥९॥
शताय स्वाहा सहस्राय स्वाहायुताय स्वाहा प्रयुताय स्वाहा नियुताय स्वाहार्बुदाय स्वाहा न्यर्बुदाय स्वाहा बद्वाय स्वाहा समुद्राय स्वाहा मध्याय स्वाहान्ताय स्वाहा परार्धाय स्वाहापसे स्वाहा व्युष्ट्यै स्वाहोदेष्यते स्वाहोद्यते स्वाहोदिताय स्वाहा स्वर्गाय स्वाहा लोकाय स्वाहा सर्वस्मै स्वाहा ॥१०॥ [२८४५]
॥ इति श्रीयजुषि काठके चरक शाखायामश्वमेधनामनि पञ्चमे ग्रन्थे गणानुवचनं नाम द्वितीयं वचनं संपूर्णम् ॥२॥