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अश्वमेधः (तृतीयं वचनम् )
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अनुवचनम्

अथ तृतीयं वचनम् ।

अनुवचनम् ।
अर्वाङ् यज्ञस्संक्रामत्वमुष्मादधि मामभि । ऋषीणां यः पुरोहितः ॥
निर्देवं निर्वीर्यं कृत्वा विष्कन्धं तस्मिन् हीयतां योऽस्मान् द्वेष्टि ।
शरीरं यज्ञशमलं कुसीदं तस्मिन् सीदतु योऽस्मान् द्वेष्टि ।।
यज्ञ यज्ञस्य यत् तेजस्तेन संक्राम मामभि ।
ब्राह्मणानृत्विजो देवान् यज्ञस्य तपसा तेऽसा अहमाहुवे ॥
इष्टेन पक्वमुप ते हुवेऽसा अहम् । सं ते वृञ्जे सुकृतँ सं प्रजां पशून् ॥
प्रैषान् सामिधेनीराघारा आज्यभागा आश्रुतं प्रत्याश्रुतमाशृणामि ते ।
प्रयाजानुयाजान् स्विष्टकृतमिडामाशिष आवृञ्जे स्वः ॥
अग्निनेन्द्रेण सोमेन सरस्वत्या विष्णुना देवताभिः।
याज्यानुवाक्याभ्यामुप ते हुवेऽसा अहं यज्ञमाददे ते वषट् कृतम् ॥
स्तुतँ शस्त्रं प्रतिगरं ग्रहमिडामाशिष आवृञ्जे स्वः ।
पत्नीसंयाजानुप ते हुवेऽसा अहँ समिष्टयजुराददे तव ॥
पशून् सुतं पुरोडाशान् सवनान्योत यज्ञम् ।
देवान् सेन्द्रानुप ते हुवेऽसा अहमग्निमुखान् सोमवतो ये च विश्वे ॥१॥

भूतं भव्यं भविष्यद्वषट् स्वाहा नम ऋक्साम यजुर्वषट् स्वाहा नमो गायत्री त्रिष्टुब्जगती वषट् स्वाहा नमः पृथिव्यन्तरिक्षं द्यौर्वषट् स्वाहा नमोऽन्नं कृषिर्वृष्टिर्वषट् स्वाहा नमः पिता पुत्रः पौत्रो वषट् स्वाहा नमः प्राणो व्यानोऽपानो वषट् स्वाहा नमो भूर्भुवस्स्वर्वषट् स्वाहा नमः ॥२॥

आ मे गृहा भवन्त्वा प्रजा म आ मा यज्ञो विशतु वीर्यावान् ।
आपो देवीर्यज्ञिया माविशन्तु सहस्रस्य मा भूमा मा प्रहासीत् ॥
आ मे ग्रहा भवन्त्वा पुरोरुक् स्तुतशस्त्रे माविशताँ समीची ।
आदित्या रुद्रा वसवो मे सदस्यास्सहस्रस्य मा भूमा मा प्रहासीत् ॥
आ माग्निष्टोमो विशतूक्थ्यश्चातिरात्रो मा विशत्वापिशर्वरः ।।
तिरोअह्न्या मा सुहुता आविशन्तु सहस्रस्य मा भूमा मा प्रहासीत् ॥३॥

अग्निना तपोऽन्वाभवद्वाचा ब्रह्म मणिना रूपाणि हिरण्येन वर्चोऽद्भिः पृथिवीं वायुनान्तरिक्षँ सूर्येण दिवं चन्द्रमसा नक्षत्राणि यमेन पितॄन् राज्ञा मनुष्यान् फलेन नाद्यानजगरेण सर्पान् व्याघ्रेणारण्यान् पशूञ्छयेनेन पतत्रिणो व्रीहिनान्नानि यवेनौषधीरुदुम्बरेणोर्जं न्यग्रोधेन वनस्पतीन् वृष्णाश्वान् वृषभेण गा वृष्णिनावीर्बस्तेनाजा गायत्र्या छन्दाँसि त्रिवृता स्तोमान् रथन्तरेण सामानि ब्राह्मणेन वाचम् ॥४॥

स्वाहाधिमाधीताय स्वाहा स्वाहाधीतं मनसे स्वाहा स्वाहा मनः प्रजापतये स्वाहा काय स्वाहा कस्मै स्वाहा कतमस्मै स्वाहादित्यै स्वाहादित्यै मह्यै स्वाहादित्यै सुमृडीकायै स्वाहा सरस्वत्यै स्वाहा सरस्वत्यै पावकायै स्वाहा सरस्वत्यै बृहत्यै स्वाहा पूष्णे स्वाहा पूष्णे प्रपथ्याय स्वाहा पूष्णे नरंधिषाय स्वाहा त्वष्ट्रे स्वाहा त्वष्ट्रे तुरीपाय स्वाहा त्वष्ट्रे पुरुरूपाय स्वाहा विष्णवे स्वाहा विष्णवे निखुर्यपाय स्वाहा विष्णवे निभूयपाय स्वाहा विश्वो देवस्य नेतुः ॥५॥

दद्भ्यस्स्वाहा हनुभ्याँ स्वाहोष्ठाभ्याँ स्वाहा नासिकाभ्याँ स्वाहा मुखाय स्वाहा चक्षुर्भ्याँ स्वाहा श्रोत्राभ्याँ स्वाहा पार इक्षवोऽवारीयेभ्यः पक्ष्मभ्यस्स्वाहावार इक्षवः पारीयेभ्यः पक्ष्मभ्यस्स्वाहा शीर्ष्णे स्वाहा भ्रूभ्याँ स्वाहा ललाटाय स्वाहा मूर्ध्ने स्वाहा मस्तिष्काय स्वाहा केशेभ्यस्स्वाहा वहाय स्वाहा ग्रीवाभ्यस्स्वाहा स्कन्धेभ्यस्स्वाहा कीकसाभ्यस्स्वाहा पृष्टिभ्यस्स्वाहा पाजस्याय स्वाहा पार्श्वाभ्याँ स्वाहाँसाभ्याँ स्वाहा दोषभ्याँ स्वाहा बाहुभ्याँ स्वाहा जङ्घाभ्याँ स्वाहा श्रोणिभ्याँ स्वाहोरुभ्याँ स्वाहाष्ठीवद्भ्याँ स्वाहा जङ्घाभ्याँ स्वाहा भसदे स्वाहा शिखण्डेभ्यस्स्वाहा वालधानाय स्वाहाण्डाभ्याँ स्वाहा शेपाय स्वाहा रेतसे स्वाहा प्रजाभ्यस्स्वाहा प्रजननाय स्वाहा पद्य्ास्स्वाहा शफेभ्यस्स्वाहा लोमभ्यस्स्वाहा त्वचे स्वाहा लोहिताय स्वाहा माँसाय स्वाहा स्नावभ्यस्स्वाहास्थिभ्यस्स्वाहा मज्जभ्यस्स्वाहाङ्गेभ्यस्स्वाहात्मने स्वाहा सर्वस्मै स्वाहा ॥६॥

अञ्ज्येताय स्वाहाञ्जिषक्थाय स्वाहा शितिपदे स्वाहा शितिककुदे स्वाहा शितिरन्ध्राय स्वाहा शितिपृष्ठाय स्वाहा शित्यँसाय स्वाहा पुष्पकर्णाय स्वाहा शित्योष्ठाय स्वाहा शितिभ्रवे स्वाहा शितिभसदे स्वाहा श्वेतानूकाशाय स्वाहाञ्जये स्वाहा ललामाय स्वाहासितज्ञवे स्वाहा कृष्णैताय स्वाहा रोहितैताय स्वाहारुणैताय स्वाहेदृशाय स्वाहा कीदृशाय स्वाहा तादृशाय स्वाहा सदृशाय स्वाहा विसदृशाय स्वाहा सुसदृशाय स्वाहा रूपाय स्वाहा सर्वस्मै स्वाहा ॥७॥

कृष्णाय स्वाहा श्वेताय स्वाहा पिशङ्गाय स्वाहा सारङ्गाय स्वाहारुणाय स्वाहा गौराय स्वाहा बभ्रवे स्वाहा नकुलाय स्वाहा शोणाय स्वाहा रोहिताय स्वाहा श्यावाय स्वाहा श्यामाय स्वाहा पालवाय स्वाहा सुरूपाय स्वाहा सरूपाय स्वाहा विरूपाय स्वाहानुरूपाय स्वाहा प्रतिरूपाय स्वाहा शबलाय स्वाहा कमलाय स्वाहा पृश्नये स्वाहा पृश्निसक्थाय स्वाहा सर्वस्मै स्वाहा ॥८॥
 
ओषधीभ्यस्स्वाहा मूलेभ्यस्स्वाहा तूलेभ्यस्स्वाहा पर्वभ्यस्स्वाहा वल्शेभ्यस्स्वाहा पुष्पेभ्यस्स्वाहा फलेभ्यस्स्वाहा गृहीतेभ्यस्स्वाहागृहीतेभ्यस्स्वाहावपन्नेभ्यस्स्वाहा शयानेभ्यस्स्वाहा सर्वस्मै स्वाहा ॥९॥

वनस्पतिभ्यस्स्वाहा मूलेभ्यस्स्वाहा तूलेभ्यस्स्वाहा स्कन्धेभ्यस्स्वाहा शाखाभ्यस्स्वाहा पर्णेभ्यस्स्वाहा पुष्पेभ्यस्स्वाहा फलेभ्यस्स्वाहा गृहीतेभ्यस्स्वाहागृहीतेभ्यस्स्वाहावपन्नेभ्यस्स्वाहा शयानेभ्यस्स्वाहा शिष्टाय स्वाहा परिशिष्टाय स्वाहातिशिष्टाय स्वाहा सँशिष्टाय स्वाहोच्छिष्टाय स्वाहा रिक्ताय स्वाहारिक्ताय स्वाहा प्ररिक्ताय स्वाहा संरिक्ताय स्वाहोद्रिक्ताय स्वाहा सर्वस्मै स्वाहा ॥१०॥

॥इति श्रीयजुषि काठके चरकशाखायामश्वमेधनामनि पञ्चमे ग्रन्थेऽनुवचनं नाम तृतीयं वचनं संपूर्णम् ॥३॥