महाभारतम्-04-विराटपर्व-007
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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पाण्डवैर्वनमध्ये श्मशानसंनिहिते शमीवृक्षे स्वायुधनिक्षेपः ।। 1 ।।
तथा स्वेषां साङ्केतिकनामकल्पनेन विराटनगरपरिसरगमनम् ।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 4-7-1x |
स राजधानीं संप्राप्य पार्थिवोऽर्जुनमब्रवीत्। | 4-7-1a 4-7-1b 4-7-1c |
सायुधा हि वयं तात प्रवेक्ष्यामः पुरं यदि। | 4-7-2a 4-7-2b |
गाण्डीवं हि नरव्याघ्र त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्। | 4-7-3a 4-7-3b |
यदीद.. धनुरादाय चरेम सजने पुरे। | 4-7-4a 4-7-4b |
एकस्मिन्नपि विज्ञाते समयं नो व्यतीत्य च । | 4-7-5a 4-7-5b |
तस्मात्सर्वाणि शस्त्राणि प्रच्छाद्यान्यत्र यत्र वा । | 4-7-6a 4-7-6b |
वैशंपायन उवाच। | 4-7-7x |
अजातशत्रोर्वचनं श्रुत्वा चैव महायशाः। | 4-7-7a 4-7-7b |
इयं वने मनुष्येन्द्र महती दृश्यते शमी। | 4-7-8a 4-7-8b |
उत्पथे चापि जातेयं मनुष्यैर्न निषेव्यते । | 4-7-9a 4-7-9b |
स्नेहानुबद्धां पश्यामि दुरारोहामिमां शमीम् ।। 10 ।। | 4-7-10a |
समीपे च श्मशानस्य गृहं नास्य विशेषतः। | 4-7-11a 4-7-11b |
न चास्यां चारयिष्यन्ति मनुष्याः पार्थ केचन ।। 12 ।। | 4-7-12a |
धनुर्भिः पुरुषं कृत्वा चर्मकेशास्थिसंवृतम्। | 4-7-13a 4-7-13b 4-7-13c |
एवं परिहरिष्यन्ति मनुष्या वनचारिणः । | 4-7-14a 4-7-14b |
वैशंपायन उवाच । | 4-7-15x |
एवमुक्त्वा स राजानं धर्मात्मानं धनञ्जयः। | 4-7-15a 4-7-15b |
तानि सर्वाणि संनह्य पञ्च पञ्चाचलोपमाः । | 4-7-16a 4-7-16b |
ततो युधिष्ठिरो राजा सहदेवमुवाच ह। | 4-7-17a 4-7-17b |
इति संदिश्य तं पार्थः पुनरेव धनञ्जयम् । | 4-7-18a 4-7-18b |
वैशंपायन उवाच। | 4-7-19x |
येन देवान्मनुष्यांश्च पिशाचोरगराक्षसान् । | 4-7-19a 4-7-19b 4-7-19c |
स्फीताञ्जनपदांश्चान्यानजयत्कुरुनन्दनः। | 4-7-20a 4-7-20b 4-7-20c |
येन वीरः कुरुक्षेत्रमभ्यरक्षत्परंतपः । | 4-7-21a 4-7-21b |
धर्मपुत्रो महातेजाः सर्वलोकवशंकरम्। | 4-7-22a 4-7-22b |
वित्रासनं दानवानां राक्षसानां च नित्यशः । | 4-7-23a 4-7-23b |
पाञ्चालान्येन संग्रामे भीमसेनोऽजयत्पुरा । | 4-7-24a 4-7-24b |
निशम्य यस्य विष्कारं विद्रवन्ति रणे परे । | 4-7-25a 4-7-25b |
सैन्धवं येन राजानं जित्वा क्रुद्धः परामृशत् । | 4-7-26a 4-7-26b |
दिव्यं सौगन्धिकं पुष्पं येनाजैषीत्स पाण्डवः। | 4-7-27a 4-7-27b |
इन्द्राशनिसमस्पर्शं वज्रहाटकभूषितम् । | 4-7-28a 4-7-28b |
नकुलं पुनराहूय धर्मराजो युधिष्ठिरः। | 4-7-29a 4-7-29b |
सुराष्ट्राञ्जितवान्येन शार्ङ्गगाण्डीवसन्निभम् । | 4-7-30a 4-7-30b |
तवानुरूपं सुकृतं चापमेतदलङ्कृतम्। | 4-7-31a 4-7-31b |
वैशंपायन उवाच। | 4-7-32x |
अजयत्पश्चिमामाशां धनुषा येन पाण्डवः। | 4-7-32a 4-7-32b |
| 4-7-33a 4-7-33b |
सहदेवं च संप्रेक्ष्य पुनर्धर्मसुतोऽब्रवीत्। | 4-7-34a 4-7-34b |
येनैव शत्रून्समरे अधाक्षीररिमर्दन। | 4-7-35a 4-7-35b |
वैशंपायन उवाच। | 4-7-36x |
दक्षिणां दक्षिणाचारो दिशं येनाजयत्प्रभुः । | 4-7-36a 4-7-36b |
दीप्तान्खण्डांश्च सुदृढान्सुतीक्ष्णान्कनकत्सरून् । | 4-7-37a 4-7-37b 4-7-37c |
अथाब्रवीद्धर्मराजः सहदेवं परन्तपः। | 4-7-38a 4-7-38b |
इदं गोमृगमभ्याशे गतसत्वमचेतनम् । | 4-7-39a 4-7-39b |
एवमुक्तो महाबाहुः सहदेवो यथोक्तवत् । | 4-7-40a 4-7-40b |
शीतवातातपभयाद्वर्पत्राणाय दुर्जयः। | 4-7-41a 4-7-41b 4-7-41c |
यत्र चापश्यत स वै तिरोवर्पाणि वर्पति। | 4-7-42a 4-7-42b |
ततः परमदूरस्थमुञ्छवृत्तिकलेवरम्। | 4-7-43a 4-7-43b |
तच्चानीय धनुर्मध्ये निबबन्धु पाण्डवाः । | 4-7-44a 4-7-44b |
अस्य बद्धस्य दौर्गन्ध्यान्मनुष्या वनचारिणः। | 4-7-45a 4-7-45b |
अथाब्रवीन्महाराजो धर्मात्मा स युधिष्ठिरः। | 4-7-46a 4-7-46b |
यानि चात्र विशालानि रूढमूलानि मन्यसे। | 4-7-47a 4-7-47b |
वैशंपायन उवाच। | 4-7-48x |
तच्छ्रुत्वा सहदेवस्तु पर्यबध्नत तच्छवम् ।। 48 ।। | 4-7-48a |
युधिष्ठिरः शुचिर्भूत्वा मनसाऽभिप्रणम्य च। | 4-7-49a 4-7-49b |
रुद्रं यमं च विष्णुं च सोमार्कौ धर्ममेव च । | 4-7-50a 4-7-50b 4-7-50c |
दिवाचरा रात्रिचराणि वाऽपि यानीह भूतान्यनुकीर्तितानि । | 4-7-51a 4-7-51b |
सर्वायुधानीह महाबलानि न्यासं महादेवसमीपतो वै। | 4-7-52a 4-7-52b |
एष न्यासो मया दत्तः सोममूर्यानिलान्तिके। | 4-7-53a 4-7-53b |
नेदं भीमे प्रदातव्यमयं क्रुद्धो वृकोदरः। | 4-7-54a 4-7-54b 4-7-54c |
पुनः प्रवेशो नः स्यात्तु वनवासाय सर्वदा । | 4-7-55a 4-7-55b |
एष चार्थश्च धर्मश्च कामः कीर्तिरलं यशः। | 4-7-56a 4-7-56b |
वैशंपायन उवाच। | 4-7-57a |
दैवतेभ्यो नमस्कृत्य शमीं कृत्वा प्रदक्षिणम्। | 4-7-57a 4-7-57b |
आगोपालाविपालेभ्यः कर्षकेभ्यः परंतप। | 4-7-58a 4-7-58b |
अशीतिशतवर्पेयं माताऽस्माकमिहान्तिके । | 4-7-59a 4-7-59b 4-7-59c |
यः समासाद्यते कश्चित्तस्मिन्देशे यदृच्छया। | 4-7-60a 4-7-60b |
विश्रावयन्तस्ते हृष्टा दिशः सर्वा व्यनादयन् । | 4-7-61a 4-7-61b |
वने विचरमाणानां लुब्धानां वनचारिणाम्। | 4-7-62a 4-7-62b |
एवं ते सुकृतं कृत्वा समन्तादवघुष्य च। | 4-7-63a 4-7-63b |
युधिष्ठिरश्च कृष्णा च राजपत्नी सुमध्यमा। | 4-7-64a 4-7-64b |
मत्स्यराज्ञो विराटस्य समीपं वस्तुमञ्जसा। | 4-7-65a 4-7-65b |
अतश्छन्नानि नामानि चकारैषां युधिष्ठिरः । | 4-7-66a 4-7-66b |
आपत्सु नामभिस्त्वेतैः समाह्वामः परस्परम् ।। 66 ।। | 4-7-67a 4-7-67b |
अज्ञातचर्यां वत्स्यन्तो राष्ट्रे वर्षं त्रयोदशम् ।। 67 ।। | 4-7-68a |
।। इति श्रीमन्महाभारते विराटपर्वणि |
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