महाभारतम्-04-विराटपर्व-018
← विराटपर्व-017 | महाभारतम् चतुर्थपर्व महाभारतम्-04-विराटपर्व-018 वेदव्यासः |
विराटपर्व-019 → |
महाभारतस्य पर्वाणि |
---|
कीचकेन सुदेष्णांप्रति द्रौपद्याः स्ववशीकरणप्रार्थना ।। 1 ।।
सुदेष्णया कीचके सुराहरणव्याजेन तद्गृहंप्रति द्रौपदीप्रेषणप्रतिज्ञानम् ।। 2 ।।
तथा बलात्कारेण द्रौपद्याः सुरानयनाय कीचकगृहंप्रति गमनचोदना ।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 4-18-1x |
प्रत्याख्यातश्च पाञ्चाल्या कीचकः काममोहितः। | 4-18-1a 4-18-1b |
सोभिवीक्ष्य सुकेशान्तां सुदेष्णां भगिनीं प्रियाम् । | 4-18-2a 4-18-2b |
स तु मूर्ध्र्यञ्जलिं कृत्वा भगिन्याश्चरणावुभौ । | 4-18-3a 4-18-3b |
स प्रोवाच सुदुःखार्तो भगिनीं निश्वसन्मुहुः । | 4-18-4a 4-18-4b |
यथा सुदेष्णे सैरन्ध्र्या संगच्छेयं सकामया । | 4-18-5a 4-18-5b |
यदीयमनवद्याङ्गी न मामद्यापि काङ्क्षते । | 4-18-6a 4-18-6b |
वैशंपायन उवाच। | 4-18-7x |
तमुवाच परिष्वज्य सुदेष्णा भ्रातरं प्रियम्। | 4-18-7a 4-18-7b |
शरणागतेयं सुश्रोणी मया दत्ताभया च सा। | 4-18-8a 4-18-8b |
एषा हि शक्या नान्येन स्प्रष्टुं पापेन चेतसा। | 4-18-9a 4-18-9b |
एवमेषा ममाचष्टे तथा प्रथमसंगमे। | 4-18-10a 4-18-10b 4-18-10c |
राजा चैव समीक्ष्यैनां संमोहं गतवानिह । | 4-18-11a 4-18-11b |
सोप्येनामनिशं दृष्ट्वा मनसैवाभ्यनन्दत। | 4-18-12a 4-18-12b 4-18-12c |
ते हि क्रुद्धा महात्मानो गरुडानिलतेजसः। | 4-18-13a 4-18-13b |
सैनन्ध्र्या ह्येतदाख्यातं मम तेषां महद्बलम्। | 4-18-14a 4-18-14b |
मा गमिष्यसि वै कृच्छ्रां गतिं परमदुर्गमाम्। | 4-18-15a 4-18-15b |
तस्मान्नास्यां मनः कर्तुं यदि प्राणा प्रियास्तव। | 4-18-16a 4-18-16b |
वैशंपायन उवाच। | 4-18-17x |
एवमुक्तस्तु दुष्टात्मा भगिनीं कीचकोऽब्रवीत्। | 4-18-17a 4-18-17b 4-18-17c |
न च त्वमभिजानीषे स्त्रीणां गुह्यमनुत्तमम् । | 4-18-18a 4-18-18b |
रहसीह नरं दृष्ट्वा नानागन्धविभूषितम्। | 4-18-19a 4-18-19b |
मां निरीक्ष्यानुलिप्ताङ्गं सर्वाभरणभूषितम्। | 4-18-20a 4-18-20b 4-18-20c |
वैशंपायन उवाच। | 4-18-21x |
एवमुक्ता सुदेष्णा तु शोकेनाभिप्रपीडिता। | 4-18-21a 4-18-21b |
प्रारुदद्भृशदुःखार्ता विपाकं तस्य वीक्ष्य सा। | 4-18-22a 4-18-22b |
त्वत्कृते विनशिष्यन्ति भ्रातरः सुहृदश्च मे। | 4-18-23a 4-18-23b |
न च श्रेयोऽभिजानीषे काममेवानुवर्तसे। | 4-18-24a 4-18-24b 4-18-24c |
अपि चैतत्पुरा प्रोक्तं निपुणैर्मनुजोत्तमैः । | 4-18-25a 4-18-25b |
गतस्त्वं धर्मराजस्य विषयं नात्र संशयः। | 4-18-26a 4-18-26b |
एतत्तु मे दुःखतरं येनाहं भ्रातृसौहृदात्। | 4-18-27a 4-18-27b |
गच्छ शीघ्रमितस्त्वं हि स्वमेव भवनं शुभम्। | 4-18-28a 4-18-28b |
कृते चान्ने सुरायां च प्रेषयिष्यसि मे पुनः । | 4-18-29a 4-18-29b |
ततः संप्रेषितामेनां विजने निरवग्रहाम्। | 4-18-30a 4-18-30b |
सद्यः कृतमिदं सर्वं शेषमत्रानुचिन्तय ।। 31 ।। | 4-18-31a |
वैशंपायन उवाच। | 4-18-32x |
सुदेष्णयैवमुक्तस्तु कीचकः कालचोदितः। | 4-18-32a 4-18-32b |
आगम्य च गृहं रम्यं सुरामन्नं चकार ह। | 4-18-33a 4-18-33b |
भक्षांश्च विविधाकारान्बहूंश्चोच्चावचांस्तदा। | 4-18-34a 4-18-34b |
त्वरावान्कालपाशेन कण्ठे बद्धः पशुर्यथा । | 4-18-35a 4-18-35b |
आनीतायां सुरायां तु कृते चान्ने सुसंस्कृते। | 4-18-36a 4-18-36b |
मधु मांसं च बहुधा भक्ष्याश्च बहुधा कृताः। | 4-18-37a 4-18-37b |
केनचित्त्वद्य कार्येण त्वर शीघ्रं मम प्रियम्। | 4-18-38a 4-18-38b 4-18-38c |
वैशंपायन उवाच। | 4-18-39x |
सा तमाह विनिःश्वस्य प्रतिगच्छ स्वकं गृहम्। | 4-18-39a 4-18-39b |
एवमुक्तस्तु पापात्मा कीचकस्त्वरितः पुनः । | 4-18-40a 4-18-40b |
कीचकं तु गतं ज्ञात्वा त्वरमाणं स्वकं गृहम्। | 4-18-41a 4-18-41b |
गच्छ सैरन्ध्रि मत्प्रीत्यै कीचकस्य निवेशनम् । | 4-18-42a 4-18-42b |
वैशंपायन उवाच। | 4-18-43x |
सुदेष्णयैवमुक्ता सा निःश्वसन्ती नृपात्मजा। | 4-18-43a 4-18-43b |
सूतपुत्रो हि मां भद्रे कामात्मा चाभिमन्यते । | 4-18-44a 4-18-44b 4-18-44c |
समयश्च कृतो भद्रे यथा प्रथमसंगमे। | 4-18-45a 4-18-45b |
कीचकश्च सुकेशान्ते मूढो मदनगर्वितः । | 4-18-46a 4-18-46b 4-18-46c |
बह्व्यः सन्ति तव प्रेष्या राजपुत्रि वशानुगाः। | 4-18-47a 4-18-47b |
कीचकस्यालयं देवि न यामि भयकम्पिता। | 4-18-48a 4-18-48b |
एवमुक्ता तु पाञ्चाल्या दैवयोगेन कैकयी । | 4-18-49a 4-18-49b |
कीचकं चैव गच्छ त्वं बलात्कारे चोदिता। | 4-18-50a 4-18-50b |
अवश्यं त्वेव गन्तव्यं किमर्थं मां विवक्षसि। | 4-18-51a 4-18-51b |
न हीदृशो मम भ्राता किं त्वं समभिशङ्कसे। | 4-18-52a 4-18-52b |
भाजनं प्रददौ चास्यै सपिधानं हिरण्मयम्। | 4-18-53a 4-18-53b |
सा शङ्कमाना रुदती वेपन्ती द्रुपदात्मजा। | 4-18-54a 4-18-54b |
यथाऽहमन्यं पार्थेभ्यो नाभिजानापि मानवम्। | 4-18-55a 4-18-55b |
यथाऽहं पाण्डुपुत्रेभ्यः पञ्चभ्यो नान्यगामिनी। | 4-18-56a 4-18-56b |
।। इति श्रीमन्महाभारते विराटपर्वणि |
4-18-2 अभिमन्यसे कामयसे ।। 2 ।। 4-18-5 मिथ्याभिगृध्नः वितथाभिनिवेशी । महद्भयं मृत्युम् ।। 5 ।। 4-18-20 मन्यसे लिप्ससे शिशोश्चन्द्रवदहं तव दुर्लभास्मीति भावः ।। 20 ।। 4-18-21 या स्वीयं अर्थयेत कामयेत शुभेच्छारूपा तव नास्तीत्यर्थः। तेन च शुभेन परदारनिवृत्तिरूपेण कामितेन संजीवनं भवतीति शेषः। अन्यथा मरिष्यसीत्यर्थः ।। 21 ।।
विराटपर्व-017 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | विराटपर्व-019 |