महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-133
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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कुन्त्या युधिष्ठिरबोधनाय कृष्णंप्रति विदुलोपाख्यानकथनम् ।। 1 ।।
कुन्त्युवाच। | 5-133-1x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् । | 5-133-1a 5-133-1b |
ततः श्रेयश्च भूयश्च यथावद्वक्तुमर्हसि । | 5-133-2a 5-133-2b |
क्षत्रधर्मरता दान्ता विदुला दीर्घदर्शिनी । | 5-133-3a 5-133-3b |
विदुला नाम राजन्या जगर्हे पुत्रमौरसम् । | 5-133-4a 5-133-4b |
विदुलोवाच। | 5-133-5x |
अनन्दन मया जात द्विषतां हर्षवर्धन । | 5-133-5a 5-133-5b |
निर्मन्युश्चाप्यसङ्ख्येयः पुरुषः क्लीबसाधनः । | 5-133-6a 5-133-6b |
माऽऽत्मानमवमन्यस्व मैनमल्पेन बीभरः । | 5-133-7a 5-133-7b |
उत्तिष्ठ हे कापुरुष मा शेष्वैवं पराजितः। | 5-133-8a 5-133-8b |
सुपूरा वै कुनदिका सुपूरो मुषिकाञ्जलिः । | 5-133-9a 5-133-9b |
अप्यहेरारुजन्दंष्ट्रामाश्वेव निधनं व्रज । | 5-133-10a 5-133-10b |
अप्यरेः श्येनवच्छिद्रं पश्येस्त्वं विपरिक्रमन् । | 5-133-11a 5-133-11b |
त्वमेवं प्रेतवच्छेषे कस्माद्वज्रहतो यथा। | 5-133-12a 5-133-12b |
माऽस्तं गमस्त्वं कृपणो वि श्रूयस्व स्वकर्मणा । | 5-133-13a 5-133-13b |
अलातं तिन्दुकस्येव मुहूर्तमपि हि ज्वल । | 5-133-14a 5-133-14b |
मुहूर्तं ज्वलितं श्रेयो न च धूमायितं चिरम् । | 5-133-15a 5-133-15b |
कृत्वा मानुष्यकं कर्म सृत्वाऽऽजिं यावदुत्तमम् । | 5-133-16a 5-133-16b |
अलब्ध्वा यदि वा लब्ध्वा नानुशोचति पण्डितः । | 5-133-17a 5-133-17b |
उद्भावयस्वं वीर्यं वा तां वा गच्छ ध्रुवां गतिम् । | 5-133-18a 5-133-18b |
इष्टापूर्तं हि ते क्लीब कीर्तिश्च सकला हता । | 5-133-19a 5-133-19b |
शत्रुर्निमञ्जता ग्राह्यो जङ्घायां प्रपतिष्यता। | 5-133-20a 5-133-20b |
उद्यम्य धुरमुत्कर्षेदाजानेयकतं स्मरन्। | 5-133-21a 5-133-21b |
उद्भावय कुलं मग्नं त्वत्कृते स्वयमेव हि। | 5-133-22a 5-133-22b |
राशिवर्धनमात्रं स नैव स्त्री न पुनः पुमान् । | 5-133-23a 5-133-23b |
विद्यायामर्थलाभे वा मातुरुच्चार एव सः। | 5-133-24a 5-133-24b |
जनान्योऽभिभवत्यन्यान्कर्मणा हि स वै पुमान् । | 5-133-25a 5-133-25b |
नृशंस्यामयशस्यां च दुःखां कापुरुषोचिताम्। | 5-133-26a 5-133-26b |
लोकस्य समवज्ञातं निहीनासनवाससम् । | 5-133-27a 5-133-27b |
नेदृशं बन्धुमासाद्य बान्धवः सुखमेधते। | 5-133-28a 5-133-28b |
सर्वकामरसैर्हीनाः स्थानभ्रष्टा अकिंचनाः । | 5-133-29a 5-133-29b |
कलिं पुत्रप्रवादेन सञ्जय त्वामजीजनम् । | 5-133-30a 5-133-30b |
मा स्म सीमन्तिनी काचिञ्जनयेत्पुत्रमीदृशम्। | 5-133-31a 5-133-31b |
ज्वल मूर्धन्यमित्राणां मुहूर्तमपि वा क्षणम्। | 5-133-32a 5-133-32b |
क्षमावान्निरमर्षश्च नैव स्त्री न पुनः पुमान् । | 5-133-33a 5-133-33b |
अनुत्थानभये चोभे निरीहो नाश्रुते महत्। | 5-133-34a 5-133-34b |
आयसं हृदयं कृत्वा मृगयस्व पुनः स्वकम् । | 5-133-35a 5-133-35b |
तमाहुर्व्यर्थनामानं स्त्रीवद्य इह जीवति। | 5-133-36a 5-133-36b |
दिष्टभावं गतस्यापि विषये मोदते प्रजा । | 5-133-37a 5-133-37b |
अमात्यानामथो हर्षमादधात्यचिरेण सः ।। | 5-133-38a |
पुत्र उवाच। | 5-133-39x |
किं नु मे मामपश्यन्त्याः पृथिव्या अपि सर्वया। | 5-133-39a 5-133-39b |
मातोवाच। | 5-133-40x |
`पैरर्विहन्यमानस्य जीवितेनापि किं फलम्।' | 5-133-40a 5-133-40b 5-133-40c |
भृत्यैर्विहीयमानानां परपिण्डोपजीविनाम्। | 5-133-41a 5-133-41b |
अनु त्वां तात जीवन्तु ब्राह्मणाः सुहृदस्तथा । | 5-133-42a 5-133-42b |
यमाजीवन्ति पुरुषं सर्वभूतानि संजय। | 5-133-43a 5-133-43b |
यस्य शूरस्य विक्रान्तैरेधन्ते बान्धवाः सुखम्। | 5-133-44a 5-133-44b |
स्वबाहुबलमाश्रित्य योहि जीवति मानवः । | 5-133-45a 5-133-45b |
।। इति श्रीमन्माभारते |
5-133-2 मन्युमती दैन्यवती। विभावरी कुपिता। विभावरी रजन्यां च वक्रयोषितीति विश्वः ।। 5-133-5 अनन्दन कुपुत्र । कुत्सार्थेऽत्र नञ् । 5-133-6 क्लीबे निर्वीर्यै साधनं बाह्वादिकं यस्य स तथा ।। 5-133-7 मा वीभरः मा पालय । प्रतिसंहर भयमिति शेषः ।। 5-133-10 पराक्रमेः पराक्रमं कुरु ।। 5-133-11 विवदन् शत्रुजयार्थं अनेकान् पक्षानुद्भावयन्वा तूष्णींभूतोऽरेश्छिद्रं पश्येः। यथा व्योम्नि अपरिशङ्कितः शत्रोराधिक्याद्भयमपश्यन् श्येनस्तद्वत् ।। 5-133-13 विश्रूयस्व ख्यातो भव। सामभेदौ जघन्यमध्यमौ । दानमधमो नीच उपायः। दण्डस्तूतमः। तत्राद्यत्रयकर्ता माभूः किंतु गर्जितो दण्डयितैव भवेत्यर्थः । ऊर्जित इति वा पाठः ।। 5-133-15 कस्यचिद्राज्ञो गेहे स्वरी गर्दभीव मृदुः अकिञ्चिन्करः जायत इति जनिः पुत्रो माभूत् ।। 5-133-16 आजिं संग्रामम् ।। 5-133-17 प्राणानां प्राणाः बलं तत्साध्यानां कार्याणाम्। आनन्तर्यं अविच्छेदेन कार्यधारामारभते । न धनायते धनं आत्मनो नेच्छति। तृष्णं त्यजतीत्यर्थः ।। 5-133-18 ध्रुवां गतिं मरणम्, अग्रत इत्युपहासः। पृष्ठतः कृत्वेत्यर्थः ।। 5-133-20 निमज्जता प्रपतिष्यता च शत्रुर्जङ्घायां ग्राह्यः । तेनैव सह निमज्जेत्पतेद्वेत्यर्थः । न विषीदेत् निरुद्यमो न भवेत् ।। 5-133-21 आजानेयाः जात्यश्वाः तेषां कृतं कर्म युद्धेऽनवसादरूपं ।। 5-133-22 त्वत्कृते मग्नमिति संबन्धः । 5-133-23 राशिवर्धनः संख्यापूरको नतु प्रयोजनान्तरार्हः ।। 5-133-24 मातुः उच्चारो विष्ठा ।। 5-133-26 यं एन अमित्रा अभिनन्देषु तं बन्धुं बान्धवः आसाद्य न सुखमेधत इति तृतीयश्लोकेन संबन्धः ।। 5-133-27 अहोलाभकरं अल्पेऽपि लाभे अहो लाभो जात इति विस्मयं कुर्वाणम् ।। 5-133-37 दिष्टभावं मरणम् ।।
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