महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-144
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति छत्रोपानत्प्रवृत्तिप्रदाननिदानकथनाय सूर्यजमदग्निसंवादानुवादः।। 1 ।। जमदग्निना रेणुकायाः स्वधनुर्निस्सृतशराणां पुनःपुनरादाने नियोजनेन बाणक्रीडारम्भः।। 2 ।। रेणुकया सूर्यतेजः प्रतप्तशिरः पादतया तरुच्छायाश्रयणेन शरानयनविलम्बने रुष्टेन मुनिना तत्कारणप्रश्नः।। 3 ।। रेणुकया तन्निवेदने मुनिना कोपाच्छस्त्रेण भूमौ सूर्यनिपातनोद्यमनम्।। 4 ।। भयात्सूर्येण विप्ररूपधारणेन भुवमेत्य तत्प्रसादनम्।। 5 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-144-1x |
यदिदं श्राद्धकृत्येषु दीयते भरतर्षभ। छत्रं चोपानहौ चैव केनैतत्सम्प्रवर्तितम्।। | 13-144-1a 13-144-1b |
कथं चैतत्समुत्पन्नं किमर्थं चैव दीयते। न केवलं श्राद्धकृत्ये पुण्यकेष्वपि दीयते।। | 13-144-2a 13-144-2b |
बहुष्वपि निमित्तेषु पुण्यमाश्रित्य दीयते। एतद्विस्तरतो ब्रह्मञ्श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः।। | 13-144-3a 13-144-3b |
भीष्म उवाच। | 13-144-4x |
शृणु राजन्नवहितश्छत्रोपानहविस्तरम्। यथैतत्प्रथितं लोके यथा चैतत्प्रवर्तितम्।। | 13-144-4a 13-144-4b |
यथा चाक्षय्यतां प्राप्तं पुण्यतां च यथागतम्। सर्वमेतदशेषेण प्रवक्ष्यामि नराधिप।। | 13-144-5a 13-144-5b |
`इतिहासं पुरावृत्तमिदं शृणु नराधिप।' जमदग्नेश्च संवादं सूर्यस्य च महात्मनः।। | 13-144-6a 13-144-6b |
पुरा स भगवान्साक्षाद्धनुषा क्रीडति प्रभो। सन्धायसन्धाय शरांश्चिक्षेप किल भार्गवः।। | 13-144-7a 13-144-7b |
तान्क्षिप्तान्रेणुका सर्वांस्तस्येषून्दीप्ततेजसः। आनीय सा तदा तस्मै प्रादादसकृदच्युत।। | 13-144-8a 13-144-8b |
अथ तेन स शब्देनि ज्यायाश्चैव शरस्य च। प्रहृष्टः सम्प्रचिक्षेप सा च प्रत्याजहार तान्।। | 13-144-9a 13-144-9b |
ततो मध्याह्नमारूढे ज्येष्ठामूले दिवाकरे। स सायकान्द्विजो मुक्त्वा रेणुकामिदमब्रवीत्।। | 13-144-10a 13-144-10b |
गच्छानय विशालाक्षि शरानेतान्धनुश्च्युतान्। यावदेतान्पुनः सुभ्रु क्षिपामीति जनाधिप।। | 13-144-11a 13-144-11b |
सा गच्छन्त्यन्तरा छायां वृक्षमाश्रित्य भामिनी। तस्थौ तस्या हि सन्तप्तं शिरः पादौ तथैव च।। | 13-144-12a 13-144-12b |
स्थिता सा तु मूहूर्तं वै भर्तुः शापभयाच्छुभा। ययावानयितुं भूयः सायकानसितेक्षणा। प्रत्याजगाम च शरांस्तानादाय यशस्विनी।। | 13-144-13a 13-144-13b 13-144-13c |
सा वै प्रस्विन्नसर्वाङ्गी पद्भ्यां दुःखं नियच्छती। उपाजगाम भर्तारं भयाद्भर्तुः प्रवेपती।। | 13-144-14a 13-144-14b |
स तामृषिस्तदा क्रुद्धो वाक्यमाह शुभाननाम्। रेणुके किं चिरेण त्वमागतेति पुनःपुनः।। | 13-144-15a 13-144-15b |
रेणुकोवाच। | 13-144-16x |
शिरस्तप्तं प्रदीप्तौ मे पादौ चैव तपोधन। सूर्यतेजोनिरुद्धाऽहं वृक्षच्छायां समाश्रिता।। | 13-144-16a 13-144-16b |
एतस्मात्कारणाद्ब्रह्मंश्चिरायैतत्कृतं मया। एतच्छ्रुत्वा मम विभो मा क्रुधस्त्वं पतोधन।। | 13-144-17a 13-144-17b |
जमदग्निरुवाच। | 13-144-18x |
अद्यैनं दीप्तकिरणं रेणुके तव दुःखदम्। शरैर्निपातयिष्यामि सूर्यमस्त्राग्नितेजसा।। | 13-144-18a 13-144-18b |
भीष्म उवाच। | 13-144-19x |
स विष्फार्य धनुर्दिव्यं गृहीत्वा च शरान्बहूंन्। अतिष्ठत्सूर्यमभितो यतो याति ततोमुखः।। | 13-144-19a 13-144-19b |
अथ तं प्रेक्ष्य सन्नद्धं सूर्योऽभ्येत्य वचोऽब्रवीत्। द्विजरूपेण कौन्तेय किं ते सूर्योऽपराध्यति।। | 13-144-20a 13-144-20b |
आदत्ते रश्मिभिः सूर्यो दिवि तिष्ठंस्ततस्ततः। रसं हृतं वै वर्षासु प्रवर्षति दिवाकरः।। | 13-144-21a 13-144-21b |
ततोऽन्नं जायते विप्र मनुष्याणां सुखावहम्। अन्नं प्राणा इति यथा वेदेषु परिपठ्यते।। | 13-144-22a 13-144-22b |
अथाऽभ्रेषु निगूढश्च रश्मिभिः परिवारितः। सप्तद्वीपानिमान्ब्रह्मन्वर्षेणाभिप्रवर्षति।। | 13-144-23a 13-144-23b |
ततस्तदौषधीनां च वीरुधां पुष्पपत्रजम्। सर्वं वर्षाभिनिर्वृत्तमन्नं सम्भवति प्रभो।। | 13-144-24a 13-144-24b |
जातकर्माणि सर्वाणि व्रतोपनयनानि च। गोदानानि विवाहाश्च तथा यज्ञसमृद्धयः।। | 13-144-25a 13-144-25b |
सत्राणि दानानि तथा संयोगा वित्तसञ्चयाः। अन्नतः सम्प्रवर्तन्ते यथा त्वं वेत्थ भार्गव।। | 13-144-26a 13-144-26b |
रमणीयानि यावन्ति यावदारम्भिकाणि च। सर्वमन्नात्प्रभवति विदितं कीर्तयामि ते।। | 13-144-27a 13-144-27b |
सर्वं हि वेत्थ विप्र त्वं यदेतत्कीर्तितं मया। प्रसादये त्वां विप्रर्षे किं ते सूर्यो निपात्यते।। | 13-144-28a 13-144-28b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि चतुश्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 144 ।। |
13-144-2 पुण्यकेषु स्त्रीणां व्रतोत्सवेषु।। 13-144-4 ज्येष्ठामूले दक्षिणावर्ते भ्रमम्मणे भचक्रे ज्येष्ठानां समसूत्रे पतितं रोहिणीनक्षत्रं तदेव ज्येष्ठानां मूलं। यथाश्रुतार्थग्रहणं तु न। ज्येष्ठामूलस्थेर्के हेमन्ते शिरःपाददाहस्यानवसरात्। लोके येन चैव प्रकीर्तितदिति ध.पाठः।। 13-144-10 द्विजो विद्ध्वतिट. ध.पाठः।। 13-144-28 किं ते सूर्यं निपात्य वै इति झ.पाठः।।
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