महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-146
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति शूद्रधर्माणां मृत्तिकाशौचादीनां च निरूपणम्।। 1 ।।
*युधिष्ठिर उवाच। | 13-146-1x |
शूद्राणामिह शुश्रूषा नित्यमेवानुवर्णिता। कैः कारणैः कतिविधा शुश्रूषा समुदाहृता।। | 13-146-1a 13-146-1b |
के च शुश्रूषया लोका विहिता भरतर्षभ। शुद्राणां भरतश्रेष्ठ ब्रूहि मे धर्मलक्षणम्।। | 13-146-2a 13-146-2b |
भीष्म उवाच। | 13-146-3x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। शूद्राणामनुकम्पार्थं यदुक्तं ब्रह्मवादिना।। | 13-146-3a 13-146-3b |
वृद्धः पराशरः प्राह धर्मं शुभ्रमनामयम्। अनुग्रहार्थं वर्णानां शौचाचारसमन्वितम्।। | 13-146-4a 13-146-4b |
धर्मोपदेशमकिलं यथावदनुपूर्वशः। शिष्यानध्यापयामास शास्त्रमर्थवदर्थवित्।। | 13-146-5a 13-146-5b |
क्षान्तेन्द्रियेण मानेन शुचिनाऽचापलेन वै। अदुर्बलेन धीरेण शान्तेनोत्तरवादिना।। | 13-146-6a 13-146-6b |
अलुब्धेनानृशंसेन ऋजुना ब्रह्मवादिना। चारित्रतत्परेणैव सर्वभूतहितात्मना।। | 13-146-7a 13-146-7b |
अरयः षड्विजेतव्या नित्यं स्वं देहमाश्रिताः। कामक्रोधौ च लोभश्च मानमोहौ मदस्तथा।। | 13-146-8a 13-146-8b |
विधिना धृतिमास्थाय शुश्रूषुरनहंकृतः। वर्णत्रयस्यानुमतो यथाशक्ति यथाबलम्।। | 13-146-9a 13-146-9b |
कर्मणा मनसा वाचा चक्षुषा च चतुर्विधम्। आस्थाय नियमं धीमाञ्शान्तो दान्तो जितेन्द्रियः।। | 13-146-10a 13-146-10b |
रक्षोयक्षजनद्वेषी शेषान्नकृतभोजनः। वर्णत्रयान्मधु यथा भ्रमरो धर्ममाचरेत्।। | 13-146-11a 13-146-11b |
यदि शूद्रस्तपः कुर्याद्वेददृष्टेन कर्मणा।। इह चास्य परिक्लेशः प्रेत्य चास्यासुभागतिः।। | 13-146-12a 13-146-12b |
अधर्म्यमयशस्यं च तपः शूद्रे प्रतिष्ठितम्। अमार्गेण तपस्तप्त्वा म्लेच्छेषु फलमश्नुते।। | 13-146-13a 13-146-13b |
अन्यथा वर्तमानो हि न शूद्रो धर्ममर्हति। अमार्गेणि प्रयातानां प्रत्यक्षादुपलभ्यते। चातुर्वर्ण्यव्यपेतानां जातिमूर्तिपरिग्रहः।। | 13-146-14a 13-146-14b 13-146-14c |
तथा ते हि शकाश्चीनाः काम्भोजाः पारदास्तथा। शबराः पप्लवाश्चैव तुषारयवनास्तथा।। | 13-146-15a 13-146-15b |
दार्वाश्च दरदाश्चैव उज्जिहानास्तथेतराः। वेणाश्च कङ्कणाश्चैव सिम्हला मद्रकास्तथा।। | 13-146-16a 13-146-16b |
किष्किन्धकाः पुलिन्दाश्च कह्वाश्चान्ध्राः सनीरगाः। गन्धिका द्रमिडाश्चैव बर्बराश्चूचुकास्तथा।। | 13-146-17a 13-146-17b |
किराताः पार्वतेयाश्च कोलाश्चोलाः सकाषकाः। आरूकाश्चैव दोहाश्च याश्चान्याम्लेच्छजातयः।। | 13-146-18a 13-146-18b |
विकृता विकृताचारा दृश्यन्ते क्रूरबुद्धयः। अमार्गेणाश्रिता धर्मं ततो जात्यन्तरं गताः।। | 13-146-19a 13-146-19b |
अमार्गोपार्जितस्यैतत्तपसो विदितं फलम्। न नश्यति कृतं कर्म शुभं वा यदि वाऽशुभम्।। | 13-146-20a 13-146-20b |
अत्राप्येते वसु प्राप्य विकर्म तपसार्जितम्। पाषण्डानर्चयिष्यन्ति धर्मकामा वृथा श्रमाः।। | 13-146-21a 13-146-21b |
एवं चतुर्णां वर्णानामाश्रमाणां च पार्थिव। विपरीतं वर्तमाना म्लेच्छा जायन्त्यबुद्धयः।। | 13-146-22a 13-146-22b |
अध्यायधनिनो विप्राः क्षत्रियाणां बलं धनम्। वणिक्कृषिश्च वैश्यानां शूद्राणां परिचारिका।। | 13-146-23a 13-146-23b |
व्युच्छेदात्तस्य धर्मस्य निरयायोपपद्यते। ततो म्लेच्छा भवन्त्येते निर्घृणा धर्मवर्जिताः। पुनश्च निरयं तेषां तिर्यग्योनिश्च शाश्वती।। | 13-146-24a 13-146-24b 13-146-24c |
ये तु सत्यथमास्थाय वर्णाश्रमकृतं पुरा। सर्वान्विमार्गानुत्सृज्य स्वधर्मविधिमाश्रिताः।। | 13-146-25a 13-146-25b |
सर्वभूतदयावन्तो दैवतद्विजपूजकाः। शास्त्रदृष्टेन विधिना श्रद्धया जितमन्यवः।। | 13-146-26a 13-146-26b |
तेषां विधिं प्रवक्ष्यामि यथावदनुपूर्वशः। उपादानविधइं कृत्स्नं शुश्रूषाधिगमं तथा।। | 13-146-27a 13-146-27b |
शिष्टोपनयनं चैव मन्त्राणि विविधानि च। तथा शिष्यपरीक्षां च शास्त्रप्रामाण्यदर्शनात्।। | 13-146-28a 13-146-28b |
प्रवक्ष्यामि यथातत्वं यथावदनुपूर्वशः। शौचकृत्यस्य शौचार्थान्सर्वानेव विशेषतः।। | 13-146-29a 13-146-29b |
महाशौचप्रभृतयो दृष्टास्तत्वार्थदर्शिभिः। तत्रापि शूद्रो भिक्षूणामिदं शेष च कल्पयेत्।। | 13-146-30a 13-146-30b |
भिक्षुभिः सुकृतप्रज्ञैः केवलं दर्ममाश्रितैः। सम्यद्गर्शनसम्पन्नैर्गताध्वनि हितार्थिभिः। अवकाशमिमं मेध्यं निर्मितं तामवीरुधम्।। | 13-146-31a 13-146-31b 13-146-31c |
निर्जनं संवृतं बुद्ध्वा नियतात्मा जितेन्द्रियः। सजलं भाजनं स्थाप्य मृत्तिकां च परीक्षिताम्।। | 13-146-32a 13-146-32b |
परीक्ष्य भूमिं मूत्रार्थी तत आसीत वाग्यतः। उदङ्मुखो दिवा कुर्याद्रात्रौ चेद्दक्षिणामुखः।। | 13-146-33a 13-146-33b |
अन्तर्हितायां भूमौ तु अन्तर्हितशिरास्तथा। असमाप्ते तथा शौचे न वाचं किञ्चिदीरयेत्।। | 13-146-34a 13-146-34b |
कृतकृत्यस्तथाऽऽचम्य गच्छन्नोदीरयेद्वचः। शौचार्थमुपविष्टस्तु मृद्गाजनपुरस्कृतः।। | 13-146-35a 13-146-35b |
स्थाप्यं कमण्डलुं गृह्यि पार्श्वोरुभ्यामथान्तरे। शौचं कुर्याच्छनैर्वीरो बुद्धिपूर्वमसङ्करम्।। | 13-146-36a 13-146-36b |
पाणिना शुद्धमुदकं सङ्गृह्य विधिपूर्वकम्। विप्रुषश्च यता न स्युर्यथा चोरू न संस्पृशेत्।। | 13-146-37a 13-146-37b |
अपाने मृत्तिकास्तिस्रः प्रदेयास्त्वनुपूर्वशः। हस्ताभ्यां च तथा विप्रो हस्तं हस्तेन संस्पृशेत् | 13-146-38a 13-146-38b |
अपाने नव देयाः स्युरिति वृद्धानुशासनम्। मृत्तिका दीयमाना हि शोधयेद्देशमञ्जसा।। | 13-146-39a 13-146-39b |
तस्मात्पाणितले देया मृत्तिकास्तु पुनः पुनः। बृद्धिपूर्वं प्रयत्नेन यथा नैव स्पृशेत्स्फिजौ।। | 13-146-40a 13-146-40b |
यथा घातो हि न भवेत्क्लेदजः परिधानके। तथा गुदं प्रमार्जेत शौचार्थं तु पुनःपुनः।। | 13-146-41a 13-146-41b |
प्रतिपादं ततस्त्यक्त्वा शौचमुत्थाय कारयेत्। सव्ये द्वादश देयाः स्युस्तिस्रस्तिस्रः पुनः पुनः। देया कूर्परके हस्ते पृष्ठे बन्धे पुनः पनः। | 13-146-42a 13-146-42b 13-146-42c |
तथैवादर्शके दद्याच्चतस्रस्तूभयोरपि। उभयोर्हस्तयोरेवं सप्तसप्त प्रदापयेत्।। | 13-146-43a 13-146-43b |
ततोऽन्यां मृत्तिकां गृह्य कार्यं शौचं पुनस्तयोः। हस्तयोरेवमेतद्धि महाशौच विधीयते। ततोऽन्यथा न कुर्वीत विधिरेष सनातनः।। | 13-146-44a 13-146-44b 13-146-44c |
उपस्थे मूत्रशौचं स्यादत ऊर्ध्वं विधीयते। अतोऽन्यथा तु यः सुर्यात्प्रायश्चित्तीयते तु सः।। | 13-146-45a 13-146-45b |
मलोपहतचेलस्य द्विगुणं तु विधीयते। सहपादमथोरुभ्यां हस्तशौचमसंशयम्।। | 13-146-46a 13-146-46b |
अवधीरयमाणस्य सन्देह उपजायते। यथायथा विशुद्ध्येत तत्तथा तदुपक्रमे।। | 13-146-47a 13-146-47b |
सकर्दमं तु वर्षासु गृहमाविश्य सङ्कटम्। हस्तयोर्मृत्तिकास्तिस्रः पादयोः षट् प्रदापयेत्।। | 13-146-48a 13-146-48b |
कामं दत्त्वा गुदे दद्यात्तिस्रः पद्भ्यां तथैव च। हस्तशौचं प्रकर्तव्यं मूत्रशौचविधेस्तथा।। | 13-146-49a 13-146-49b |
मूत्रशौचे तथा हस्तौ पादाभ्यां चानुपूर्वशः। नैष्ठिके स्थानशौचे तु महाशौचं विधीयते।। | 13-146-50a 13-146-50b |
क्षारौषराभ्यां वस्त्रस्य कुर्याच्छौचं मृदा सह। लेपगन्धापनयनममेध्यस्य विधीयते।। | 13-146-51a 13-146-51b |
स्नानशाट्यां मृदस्तिस्रो हस्ताभ्यां चानुपूर्वशः। शौचं प्रयत्नतः कृत्वा कम्पमानः समुद्धरेत्।। | 13-146-52a 13-146-52b |
देयाश्चतस्रस्तिस्रो वा द्वे वाऽप्येकां तथाऽऽपदि। कालमासाद्य देशं च शौचस्य गुरुलाघवम्।। | 13-146-53a 13-146-53b |
विधिनाऽनेन शौचं तु नित्यं कुर्यादतन्द्रितः। अविप्रेक्षन्नसम्भ्रान्तः पादौ प्रक्षाल्य तत्परः।। | 13-146-54a 13-146-54b |
अप्रक्षालितपादस्तु पाणिमामणिबन्धनात्। अधस्तादुपरिष्टाच्च ततः पाणिमुपस्पृशेत्।। | 13-146-55a 13-146-55b |
मनोगतास्तु निश्शब्दा निश्शब्दं त्रिरपः पिबेत्। द्विर्मुखं परिमृज्याच्च खानि चोपस्पृशेद्बुधः।। | 13-146-56a 13-146-56b |
ऋग्वेदं तेन प्रीणाति प्रथमं यः पिबेदपः। द्वितीयं तु यजुर्वेदं तृतीयं साम एव च।। | 13-146-57a 13-146-57b |
मृज्यते प्रथमं तेन अथर्वा प्रीतिमाप्नुयात्। द्वितीयेनेतिहासं च पुराणस्मृतिदेवताः।। | 13-146-58a 13-146-58b |
यच्चक्षुषि समाधत्ते तेनादित्यं तु प्रीणयेत्। प्रीणाति वायुं घ्राणं च दिशश्चाप्यथ श्रोत्रयोः।। | 13-146-59a 13-146-59b |
ब्रह्माणं तेन प्रीणाति यन्मूर्धनि समापयेत्। समुत्क्षिपति चापोर्ध्वमाकाशं तेन प्रीणयेत्।। | 13-146-60a 13-146-60b |
प्रीणाति विष्णुः पद्भ्यां तु सलिलं वै समादधत्।। प्राङ्मुखोदङ्मुखो वाऽपि अन्तर्जानुरुपस्पृशेत्। | 13-146-61a 13-146-61b |
सर्वत्र विधिरित्येष भोजनादिषु नित्यशः।। अन्नेषु दन्तलग्नेषु उच्छिष्टः पुनराचमेत्। | 13-146-62a 13-146-62b |
विधिरेष समुद्दिष्टः शौचे चाभ्युक्षणं स्मृतम्।। शूद्रस्यैव विधिर्दृष्टो गृहान्निष्क्रमतस्ततः। | 13-146-63a 13-146-63b |
नित्यं त्वलुप्तशौचेन वर्तितव्यं कृतात्मना। यशस्कामेन भिक्षुभ्यः शुद्रेणात्महितार्थिना'।। | 13-146-64a 13-146-64b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि षट्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। |
*एतदाद्यष्टाध्याया दाक्षिण्यत्यकोशेष्वेन दृश्यन्ते। 13-146-2 शुश्रूषां भरतश्रेष्ठति ट.पाठः।। 13-146-11 नित्यं रक्ष जनाद्वेषीति क. पाठः।। 13-146-12 विकृताकारा इति थ.पाठः।। 13-146-25 स्वधर्मपथमाश्रिताः इति क.ट.थ. पाठः।। 13-146-48 पदमाविश्य सङ्कटम् इति थ.पाठः।।
अनुशासनपर्व-145 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-147 |