महाभारतम्-17-महाप्रस्थानिकपर्व-002
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मेरुगिरिंप्रति गच्छन्तं युधिष्ठिरं ज्येष्ठ्यक्रमादनुगच्छत्सु दौपद्यादिषु योगभ्रंशात्क्रमेण भूमौ निपतत्सु भीमप्रश्नात्तं प्रति युधिष्ठिरेण तेषां पतने हेतुकथनम्।। 1 ।।
तथा ततः शुना केवलमनुगम्यमानेन सता पुरोगमनम्।। 2 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 17-2-1x |
ततस्ते नियतात्मान उदीचीं दिशमास्थिताः। ददृशुर्योगयुक्ताश्च हिमवन्तं महागिरिम्।। | 17-2-1a 17-2-1b |
तं चाप्यतिक्रमन्तस्ते ददृशुर्वालुकार्णवम्। अवैक्षन्त महाशैलं मेरुं शिखरिणां वरम्।। | 17-2-2a 17-2-2b |
तेषां तु गच्छतां शीघ्रं सर्वेषां योगधार्मिणाम्। याज्ञसेनी भ्रष्टयोगा निपपात महीतले।। | 17-2-3a 17-2-3b |
तां तु प्रपतितां दृष्ट्वा भीमसेनो महाबलः। उवाच धर्मराजानं याज्ञसेनीमवेक्ष्य ह।। | 17-2-4a 17-2-4b |
नाधर्मश्चरितः कश्चिद्राजपुत्र्या परंतप। कारणं किंनु तद्ब्रूहि यत्कृष्णा पतिता भुवि।। | 17-2-5a 17-2-5b |
युधिष्ठिर उवाच। | 17-2-6x |
पक्षपातो महानस्या विशेषेण धनंजये। तस्यैतत्फलमद्यैषा भुङ्क्ते पुरुषसत्तम।। | 17-2-6a 17-2-6b |
वैशम्पायन उवाच। | 17-2-7x |
एवमुक्त्वाऽनवेक्ष्यैनां ययौ भरतसत्तमः। समाधाय मनो धीमान्धर्मात्मा पुरुषर्षभः।। | 17-2-7a 17-2-7b |
सहदेवस्ततो विद्वान्निपपात महीतले। तं चापि पतितं दृष्ट्वा भीमो राजानमब्रवीत्।। | 17-2-8a 17-2-8b |
योऽयमस्मासु सर्वेषु शुश्रूषुरनहंकृतः। सोयं माद्रवतीपुत्रः कस्मान्निपतितो भुवि।। | 17-2-9a 17-2-9b |
युधिष्ठिर उवाच। | 17-2-10x |
आत्मनः सदृशं प्राज्ञं नैषोऽमन्यत कञ्चन। तेन दोषेण पतितो विद्वानेष नृपात्मजः।। | 17-2-10a 17-2-10b |
वैशम्पायन उवाच। | 17-2-11x |
इत्युक्त्वा तं समुत्सृज्य सहदेवं ययौ तदा। भ्रातृभिः सह कौन्तेयः शुना चैव युधिष्ठिरः।। | 17-2-11a 17-2-11b |
कृष्णं निपतितां दृष्ट्वा सहदेवं च पाण्डवम्। आर्तो बन्धुप्रियः शूरो नकुलो निपपात ह।। | 17-2-12a 17-2-12b |
तस्मिन्निपतिते वीरे नकुले चारुदर्शने। पुनरेव तदा भीमो राजानमिदमब्रवीत्।। | 17-2-13a 17-2-13b |
योऽयमक्षतधर्मात्मा भ्राता वचनकारकः। रूपेणाप्रतिमो लोके नकुलः पतितो भुवि।। | 17-2-14a 17-2-14b |
इत्युक्तो भीमसेनेन प्रत्युवाच युधिष्ठिरः। नकुलं प्रति धर्मात्मा सर्वबुद्धिमतांवरः।। | 17-2-15a 17-2-15b |
रूपेणि मत्समो नास्ति कश्चिदित्यस्य दर्शनम्। अधिकश्चाहमेवैक इत्यस्य मनसि स्थितम्।। | 17-2-16a 17-2-16b |
नकुलः पतितस्तस्मादागच्छ त्वं वृकोदर। यस्य यद्विहितं वीर सोऽवश्यं तदुपाश्नुते।। | 17-2-17a 17-2-17b |
तांस्तु प्रपतितान्दृष्ट्वा पाण्डवः श्वेतवाहनः। पपात शोकसंतप्तस्ततोनु परवीरहा।। | 17-2-18a 17-2-18b |
तस्मिंस्तु पुरुषव्याघ्रे पतिते शक्रतेजसि। म्रियमाणे दुराधर्षे भीमो राजानमब्रवीत्।। | 17-2-19a 17-2-19b |
अनृतं न स्मराम्यस्य स्वैरेष्वपि महात्मनः। अथ कस्य विकारोऽयं येनायं पतितो भुवि।। | 17-2-20a 17-2-20b |
युधिष्ठिर उवाच। | 17-2-21x |
एकोहं निर्दहेयं वै शत्रूनित्यर्जुनोऽब्रवीत्। न च तत्कृतवानेष शूरमानी ततोपतत्।। | 17-2-21a 17-2-21b |
अवमेने धनुर्ग्राहानेष सर्वांश्च फल्गुनः। तथा चैतन्न तु तथा कर्तव्यं भूतिमिच्छता।। | 17-2-22a 17-2-22b |
वैशम्पायन उवाच। | 17-2-23x |
इत्युक्त्वा प्रस्थितो राजा भीमोथ निपपात ह। पतितश्चाब्रवीद्भीमो धर्मराजं युधिष्ठिरम्।। | 17-2-23a 17-2-23b |
भोभो राजन्नवेक्षस्व पतितोहं प्रियस्तव। किंनिमित्तं च पतनं ब्रूहि मे यदि वेत्थ ह।। | 17-2-24a 17-2-24b |
युधिष्ठिर उवाच। | 17-2-25x |
अतिभुक्तं च भवता प्राणेन च विकत्थसे। अनवेक्ष्य परं पार्थ तेनासि पतितः क्षितौ।। | 17-2-25a 17-2-25b |
इत्युक्त्वा तं महाबाहुर्जगामानवलोकयन्। श्वाप्येकोनुययौ यस्ते बहुशः कीर्तितो मया।। | 17-2-26a 17-2-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते महाप्रस्थानिकपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः।। 2 ।। |
17-2-1 ततो दिक्त्रयप्रदक्षिणीकरणानन्तरम्। योगयुक्ताः समाहितमनसः।। 17-2-3 भ्रष्टयोगा ध्यानात् स्खलितमानसा।। 17-2-7 अनवेक्ष्य स्वर्गान्तरायरूपः स्नेहो माभूदिति भावः।।
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