महाभारतम्-17-महाप्रस्थानिकपर्व-003
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शुना सह गच्छन्तं युधिष्ठिरं प्रति इन्द्रेण स्वर्गगमनाय निजरतारोहणचोदना।। 1 ।।
युधिष्ठिरे शुना विना रथारोहणमरोचयमाने यमेन निजस्वरूपप्रकाशनेन तत्प्रशंसनम्।। 2 ।।
ततो यमेन्द्रादिभी रथेन स्वर्गं प्रापितेन युधिष्ठिरेण तत्र भीमाद्यदर्शनादिन्द्रंप्रति भ्रात्रादीन्विना स्वस्य स्वर्गेप्यनभिरुचिकथनपूर्वकं तत्समीपगमनेच्छानिवेदनम्।। 3 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 17-3-1x |
ततः सन्नादयञ्शक्रो दिवं भूमिं च सर्वशः। रथेनोपययौ पार्थमारोहेत्यब्रवीच्च तम्।। | 17-3-1a 17-3-1b |
स्वभ्रातॄन्पतितान्दृष्ट्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः। अब्रवीच्छोकसंतप्तः सहस्राक्षमिदं वचः।। | 17-3-2a 17-3-2b |
भ्रातरः पतिता मेऽत्र गच्छेयुस्ते मया सह। न विना भ्रातृभिः स्वर्गमिच्छे गन्तुं सुरेश्वर।। | 17-3-3a 17-3-3b |
सुकुमारी सुखार्हा च राजपुत्री पुरंदर। साऽस्माभिः सह गच्छेत तद्भवाननुमन्यताम्।। | 17-3-4a 17-3-4b |
शक्र उवाच। | 17-3-5x |
भ्रातॄन्द्रक्ष्यसि स्वर्गे त्वमग्रतस्त्रिदिवं गतान्। कृष्णया सहितान्सर्वान्मा शुचो भरतर्षभ।। | 17-3-5a 17-3-5b |
निक्षिप्य मानुषं देहं गतास्ते भरतर्षभ। अनेन त्वं शरीरेण स्वर्गं गन्ता न संशयः।। | 17-3-6a 17-3-6b |
युधिष्ठिर उवाच। | 17-3-7x |
अयं श्वा भूतभव्येश भक्तो मां नित्यमेव ह। स गच्छेत मया सार्धमानृशंस्या हि मे मतिः।। | 17-3-7a 17-3-7b |
शक्र उवाच। | 17-3-8x |
अमर्त्यत्वं मत्समत्वं च राज- ञ्श्रियं कृत्स्नां महतीं चैव सिद्धिम्। संप्राप्तोद्य स्वर्गसुखानि च त्वं त्यज श्वानं नात्र नृशंसमस्ति।। | 17-3-8a 17-3-8b 17-3-8c 17-3-8d |
युधिष्ठिर उवाच। | 17-3-9x |
अनार्यमार्येणि सहस्रनेत्र शक्यं कर्तुं दुष्करमेतदार्य। मा मे श्रिया सङ्गमनं तयाऽस्तु यस्याः कृते भक्तजनं त्यजेयम्।। | 17-3-9a 17-3-9b 17-3-9c 17-3-9d |
इन्द्र उवाच। | 17-3-10x |
स्वर्गे लोके श्ववतां नास्ति धिष्ण्य- मिष्टापूर्तं क्रोधवशा हरन्ति। ततो विचार्यि क्रियतां धर्मराज त्यज श्वानं नात्र नृशंसमस्ति। | 17-3-10a 17-3-10b 17-3-10c 17-3-10d |
युधिष्ठिर उवाच। | 17-3-11x |
भक्तत्यागं प्राहुरत्यन्तपापं तुल्यं लोके ब्रह्मवध्याकृतेन। तस्मान्नाहं जातु कथञ्चनाद्य त्यक्ष्याम्येनं स्वसुखार्थी महेन्द्रः।। | 17-3-11a 17-3-11b 17-3-11c 17-3-11d |
भीतं भक्तं नान्यदस्तीति चार्तं प्राप्तं क्षीणं रक्षणे प्राणलिप्सुम्। प्राणत्यागादप्यहं नैव मोक्तुं यतेयं वै नित्यमेतद्व्रतं मे।। | 17-3-12a 17-3-12b 17-3-12c 17-3-12d |
इन्द्र उवाच। | 17-3-13x |
शुना दृष्टं क्रोधवशा हरन्ति यद्दत्तमिष्टं विवृतमथो हुतं च। तस्माच्छुनस्त्यागमिमं कुरुष्व शुनस्त्यागात्प्राप्स्यसे देवलोकम्।। | 17-3-13a 17-3-13b 17-3-13c 17-3-13d |
त्यक्त्वा भ्रातॄन्दयितां चापि कृष्णां प्राप्तो लोकः कर्मणा स्वेन वीर। श्वानं चैनं न त्यजसे कथं नु त्यागं कृत्स्नं चास्थितो मुह्यसेऽद्य।। | 17-3-14a 17-3-14b 17-3-14c 17-3-14d |
युधिष्ठिर उवाच। | 17-3-15x |
न विद्यते संधिरथापि विग्रहो मृतैर्मर्त्यैरिति लोकेषु निष्ठा। न ते मया जीवयितुं हि शक्या- स्ततस्त्यागस्तेषु कृतो न जीवताम्।। | 17-3-15a 17-3-15b 17-3-15c 17-3-15d |
प्रतिप्रदानं शरणागतस्य स्त्रिया वधो ब्राह्मणस्वापहारः। मित्रद्रोहस्तानि चत्वारि शक्र भक्तत्यागश्चैव समो मतो मे।। | 17-3-16a 17-3-16b 17-3-16c 17-3-16d |
वैशम्पायन उवाच। | 17-3-17x |
तद्धर्मराजस्य वचो निशम्य धर्मस्वरूपी भगवानुवाच। युधिष्ठिरं प्रीतियुक्तो नरेन्द्रं श्लक्ष्णैर्वाक्यैः संस्तवसंप्रयुक्तैः।। | 17-3-17a 17-3-17b 17-3-17c 17-3-17d |
अभिजातोसि राजेन्द्र पितुर्वृत्तेन मेधया। अनुक्रोशेनि चानेन सर्वभूतेषु भारत।। | 17-3-18a 17-3-18b |
पुरा द्वैतवने चासि मया पुत्र परीक्षितः। पानीयार्थे पराक्रान्ता यत्र ते भ्रातरो हताः।। | 17-3-19a 17-3-19b |
भीमार्जुनौ परित्यज्य यत्र त्वं भ्रातरावुभौ। मात्रोः साम्यमभीप्सन्वै नकुलं जीवमिच्छसि।। | 17-3-20a 17-3-20b |
अयं श्वा भक्त इत्येवं त्यक्तो देवरथस्त्वया। तस्मात्स्वर्गे न ते तुल्यः कश्चिदस्ति नराधिपः।। | 17-3-21a 17-3-21b |
अतस्तवाक्षया लोकाः स्वशरीरेण भारत। प्राप्तोसि भरतश्रेष्ठ दिव्यां गतिमनुत्तमाम्।। | 17-3-22a 17-3-22b |
वैशम्पायन उवाच। | 17-3-23x |
ततो धर्मश्च शक्रश्च मरुतश्चाश्विनावपि। देवा देवर्षयश्चैव रथमारोप्य पाण्डवम्।। | 17-3-23a 17-3-23b |
प्रययुः स्वैर्विमानैस्ते सिद्धाः कामविहारिणः। सर्वे विरजसः पुण्याः पुण्यवाग्बुद्धिकर्मिणः।। | 17-3-24a 17-3-24b |
स तं रथं समास्थाय राजा कुरुकुलोद्वहः। ऊर्ध्वमाचक्रमे शीघ्रं तेजसाऽऽवृत्यरोदसी।। | 17-3-25a 17-3-25b |
ततो देवनिकाय्यस्थो नारदः सर्वलोकवित्। उवाचोच्चैस्तदा वाक्यं बृहद्वादी बृहत्तपाः।। | 17-3-26a 17-3-26b |
येऽपि राजर्षयः पूर्वे ते चापि समुपस्थिताः। कीति प्रच्छाद्य तेषां वै कुरुराजोऽधितिष्ठति।। | 17-3-27a 17-3-27b |
लोकानावृत्य यशसा तेजसा वृत्तसंपदा। स्वशरीरेण सम्प्राप्तं नान्यं शुश्रम पाण्डवात्।। | 17-3-28a 17-3-28b |
तेजांसि यानि दृष्टानि भूमिष्ठेन त्वया विभो। वेश्मानि भुवि देवानां पश्यामूनि सहस्रशः।। | 17-3-29a 17-3-29b |
नारदस्य वचः श्रुत्वा राजा वचनमब्रवीत्। भ्रातॄनपश्यन्धर्मात्मा स्वपक्षांश्चैव पार्थिवान्।। | 17-3-30a 17-3-30b |
शुभं वा यदि वा पापं भ्रातॄणां स्थानमद्य मे। तदेव प्राप्तुमिच्छामि लोकान्यान्न कामये।। | 17-3-31a 17-3-31b |
राज्ञस्तु वचनं श्रुत्वा देवराजः पुरंदरः। आनृशंस्यसमायुक्तं प्रत्युवाच युधिष्ठिरम्।। | 17-3-32a 17-3-32b |
स्थानेऽस्मिन्वस राजेन्द्र कर्मभिर्निर्जिते शुभैः। किं त्वं मानुष्यकं स्नेहमद्यापि परिकर्षसि।। | 17-3-33a 17-3-33b |
सिद्धिं प्राप्तोसि परमां यता नान्यः पुमान्क्वचित्। नैव ते भ्रातरः स्थानं सम्प्राप्ताः कुरुनन्दन।। | 17-3-34a 17-3-34b |
अद्यापि मानुषो भावः स्पृशते त्वां नराधिप। स्वर्गोऽयं पश्य देवर्षीन्सिद्धांश्च त्रिदिवालयान्।। | 17-3-35a 17-3-35b |
युधिष्ठिरस्तु देवेन्द्रमेवंवादिनमीश्वरम्। पुनरेवाब्रवीद्धीमानिदं वचनमर्थवत्।। | 17-3-36a 17-3-36b |
तैर्विना नोत्सहे वस्तुमिह दैत्यनिबर्हण। गन्तुमिच्छामि तत्राहं यत्र मे भ्रातरो गताः।। | 17-3-37a 17-3-37b |
यत्र सा बृहती श्यामा बुद्धिसत्त्वगुणान्विता। द्रौपदी योषितांश्रेष्ठा यत्र चैव सुता मम।। | 17-3-38a 17-3-38b |
।। इति श्रीमन्महाभारते महाप्रस्थानिकपर्वणि तृतीयोऽध्यायः।। 3 ।। | |
महाप्रस्थानिकं पर्वं समाप्तम्।। 17 ।। | |
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अतः परं स्वर्गारोहणपर्वः तस्यायमाद्यः श्लोकः। | |
जनमेजय उवाच। | |
स्वर्गं त्रिविष्टपं प्राप्य मम पूर्वपितामहाः। | |
पाण्डवा धार्तराष्ट्राश्च कानि स्थानानि भेजिरे।। 1 ।। | |
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इदं महाप्रस्थानिकं पर्व कुंभघोणस्येन टी.आर्. कृष्णमाचार्येण टी.आर्. व्यासाचार्येण च मुम्बय्यां निर्णयसागरमुद्रायन्त्रे मुद्रापितम्। शकाब्दाः 1832 सन 1910. |
17-3-8 अस्पृश्यस्य संत्याग नृशंसं निर्दयत्वं नास्ति।। 17-3-10 श्ववतामशुचित्वाद्धिष्ण्यं स्थानं स्वर्गे नास्ति। क्रोधवशा नाम देवगणा अशुचेरिष्टापूर्तफलं घ्नन्ति।। 17-3-18 अभिजातोसि कुलीनोसि। पितुः पाण्डोः।। 17-3-26 निकाय्यस्थो निवासस्थः।। 17-3-27 समुपस्थिताः स्मृतिविषयाः सन्ति।। 17-3-31 यदेव भ्रातॄणां स्थानं प्राप्तुमिच्छामि।। 31
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