यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः १/मन्त्रः २९
← मन्त्रः २८ | यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्) अध्यायः १ दयानन्दसरस्वती |
मन्त्रः ३० → |
सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान् |
यजुर्वेदभाष्यम्/अध्यायः १ |
---|
प्रत्युष्टमित्यस्य ऋषिः स एव। यज्ञो देवता सर्वस्य। त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥
पुनः स संग्रामः किं कृत्वा जेतव्यो यज्ञश्चानुष्ठातव्य इत्युपदिश्यते॥
फिर उक्त संग्राम कैसे जीतना और यज्ञ का अनुष्ठान कैसे करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
प्रत्यु॑ष्ट॒ꣳ रक्षः॒ प्रत्यु॑ष्टा॒ऽअरा॑तयो॒ निष्ट॑प्त॒ꣳ रक्षो॒ निष्ट॑प्ता॒ऽअरा॑तयः।
अनि॑शितोऽसि सपत्न॒क्षिद्वा॒जिनं॑ त्वा वाजे॒ध्यायै॒ सम्मा॑र्ज्मि।
प्रत्यु॑ष्ट॒ꣳ रक्षः॒ प्रत्यु॑ष्टा॒ऽअरा॑तयो॒ निष्ट॑प्त॒ꣳ रक्षो॒ निष्ट॑प्ता॒ऽअरा॑तयः।
अनि॑शितासि सपत्न॒क्षिद्वा॒जिनीं॑ त्वा वाजे॒ध्यायै॒ सम्मा॑र्ज्मि॥२९॥
पदपाठः— प्रत्यु॑ष्ट॒मिति॒ प्रति॑ऽउष्टम्। रक्षः॑। प्रत्यु॑ष्टा॒ इति॒ प्रति॑ऽउष्टाः। अरा॑तयः। निष्ट॑प्तम्। निस्त॑प्त॒मिति॒ निःऽत॑प्तम्। रक्षः॑। निष्ट॑प्ताः। निस्त॑प्ता॒ इति॒ निःऽत॑प्ताः। अरा॑तयः। अनि॑शित॒ इत्यनि॑ऽशितः। अ॒सि॒। स॒प॒त्न॒क्षिदिति॑ सपत्न॒ऽक्षित्। वा॒जिन॑म्। त्वा॒। वा॒जे॒ध्याया॒ इति॑ वाजऽइ॒ध्यायै॑। सम्। मा॒र्ज्मि॒। प्रत्यु॑ष्ट॒मिति॒ प्रति॑ऽउष्टम्। रक्षः॑। प्रत्यु॑ष्टा॒ इति॒ प्रति॑ऽउष्टाः। अरा॑तयः। निष्ट॑प्तम्। निस्त॑प्त॒मिति॒ निःत॑प्तम्। रक्षः॑। निष्ट॑प्ताः। निस्त॑प्ता॒ इति॒ निःत॑प्ताः। अरा॑तयः। अनि॑शि॒तेत्यनि॑ऽशिता। अ॒सि॒। स॒प॒त्न॒क्षिदिति॑ सपत्न॒ऽक्षित्। वा॒जिनी॑म्। त्वा॒। वा॒जे॒ध्याया॒ इति॑ वाजऽइ॒ध्यायै॑। सम्। मा॒र्ज्मि॒॥२९॥
पदार्थः— (प्रत्युष्टम्) प्रतिदग्धव्यम् (रक्षः) विघ्नकारी प्राणी (प्रत्युष्टाः) प्रतिदग्धव्याः (अरातयः) सत्यविरोधिनोऽरयः (निष्टप्तम्) यन्नितरां तप्यते तत् (रक्षः) बन्धनेन रक्षयितव्यम् (निष्टप्ताः) नितरां तप्यन्ते ये ते (अरातयः) विद्याविघ्नकारिणः (अनिशितः) न विद्यते नितरां शिता तीव्रा क्रिया यस्मिन् स संग्रामो यज्ञपात्रं वा (असि) भवति। अत्र पुरुषव्यत्ययः (सपत्नक्षित्) सपत्नान् शत्रून् क्षयति येन सः। अत्र कृतो बहुलम् [अष्टा॰भा॰वा॰३.३.११३] इति वार्त्तिकेन करणकारके क्विप्। क्षि क्षये इत्यस्य रूपम्। एतदुवटमहीधराभ्यां क्षिणु हिंसायामित्यस्य भ्रान्त्या व्याख्यातम्। (वाजिनम्) अन्नवन्तं वेगवन्तं वा। वाज इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं॰२।७) (त्वा) तम् (वाजेध्यायै) वाजेनान्नेन युद्धेन वा इध्या दीपनीया सेना यज्ञपात्रं वा यया क्रियया तस्यै (संमार्ज्मि) सम्यक् शोधयामि (प्रत्युष्टम्) नित्यं प्रजापालनाय तापनीयः (रक्षः) परसुखासहो मनुष्यः। (प्रत्युष्टाः) प्रत्यक्षं ज्वालनीयाः। (अरातयः) परसुखासोढारः (निष्टप्तम्) निःसारणीयः (रक्षः) द्यूतजारकर्मशीलः (निष्टप्ताः) निस्सारणीयाः (अरातयः) अन्येभ्यो दुःखप्रदाः (अनिशिता) अतिविस्तीर्णा सेना कार्य्या वेदिर्वा (असि) अस्ति। अत्रापि व्यत्ययः (सपत्नक्षित्) सपत्नान् क्षयति यया सा (वाजिनीम्) बलवेगवतीम् (त्वा) त्वाम् (वाजेध्यायै) वाजेन बहुसाधनसमूहेन संग्रामेण सेनया यज्ञेन वा प्रकाशनीयायै सत्यनीत्यै (संमार्ज्मि) सम्यक् शिक्षया शोधयामि॥ अयं मन्त्रः (शत॰ (१।३।१।४-११) व्याख्यातः॥२९॥
अन्वयः— अहं येन [अनिशितः] अनिशितेन [सपत्नक्षित्] सपत्नक्षिता संग्रामेण प्रत्युष्टं रक्षः [असि] प्रत्युष्टा अरातयो निष्टप्तं रक्षो निष्टप्ता अरातयो भवन्ति [त्वा] तं वाजिनं युद्धाङ्गानि वाजेध्यायै संमार्ज्मि। अहं यया [सपत्नक्षित्] सपत्नक्षिता [अनिशिता] ऽनिशितया सेनया प्रत्युष्टं रक्षः [असि] प्रत्युष्टा अरातयो निष्टप्तं रक्षो निष्टप्ता अरातयो भवन्ति [त्वा] तां वाजिनीं सेनां शिक्षया वाजेध्यायै संमार्ज्मि॥ [इत्येकोऽर्थः]॥
अहं येन [अनिशितः] अनिशितेन [सपत्नक्षित्] सपत्नक्षिता यज्ञेन प्रत्युष्टं रक्षः प्रत्युष्टा अरातयो निष्टप्तं रक्षो निष्टप्ता अरातयो [असि] भवन्ति [त्वा] तं वाजिनं यज्ञं वाजेध्यायै संमार्ज्मि [एवं यया [सपत्नक्षित्] सपत्नक्षिता [अनिशिता] अनिशितया क्रियया प्रत्युष्टं रक्षः प्रत्युष्टा अरातयो निष्टप्तं रक्षो निष्टप्ता अरातयो डऽसि] भवन्ति [त्वा] तां वाजिनीं वाजेध्यायै सम्मार्ज्मि तथैव भवन्तोऽप्येतं, एतां सम्मार्जन्तु॥ इति द्वितीयोऽर्थः॥२९॥
भावार्थः— ईश्वर आज्ञापयति सर्वैर्मनुष्यैर्विद्याशुभगुणदीप्त्या दुष्टशत्रुनिवारणाय नित्यं पुरुषार्थः कर्त्तव्यः। सुशिक्षया शस्त्रास्त्रसत्पुरुषाढ्यसेनया श्रेष्ठानां रक्षणं दुष्टानां ताडनं च नित्यं कर्त्तव्यम्। यतोऽशुद्धिक्षयात् सर्वत्र पवित्रता प्रवर्त्तेत॥२९॥
पदार्थः— मैं जिस [अनिशितः] अतिविस्तृत [सपत्नक्षित्] शत्रुओं के नाश करने वाले संग्राम से (प्रत्युष्टं रक्षः) विघ्नकारी प्राणी और जिससे (प्रत्युष्टा अरातयः) सत्यविरोधी अच्छी प्रकार दाहरूप दण्ड को प्राप्त (असि) होते हैं, वा जिस बन्धन से (निष्टप्तं रक्षः) बांधने योग्य (निष्टप्ता अरातयः) विद्या के विघ्न करने वाले निरन्तर संताप को प्राप्त होते हैं, (त्वा) उस (वाजिनम्) वेग आदि गुण वाले संग्राम को (वाजेध्यायै) जो कि अन्न आदि पदार्थों से बलवान् करने के योग्य सेना है, उसके लिये युद्ध के साधनों को (संमार्ज्मि) अच्छी प्रकार शुद्ध करता हूँ, अर्थात् उनके दोषों का विनाश करता हूँ और मैं जिस (सपत्नक्षित्) शत्रु का नाश करने वाले और (अनिशिता) अति विस्तारयुक्त सेना से (प्रत्युष्टं रक्षः) परसुख का न सहने वाला मनुष्य वा (प्रत्युष्टा अरातयः) उक्त अवगुणवाले अनेक मनुष्य (निष्टप्तं रक्षः) जुआ खेलने और परस्त्रीगमन करने तथा (निष्टप्ता अरातयः) औरों को सब प्रकार से दुःख देने वाले मनुष्य अच्छी प्रकार निकाले जाते हैं, (त्वा) उस (वाजिनीम्) बल और वेग आदि गुणवाली सेना को (वाजेध्यायै) बहुत साधनों से प्रकाशित करने के लिये (संमार्ज्मि) अच्छी प्रकार उत्तम-उत्तम शिक्षाओं से शुद्ध करता हूँ। [यह प्रथम अर्थ हुआ]॥
और जो कि (अनिशितः) बड़ी क्रियाओं से सिद्ध होने योग्य वा (सपत्नक्षित्) दोषों वा शत्रुओं के विनाश करनेहारे (प्रत्युष्टं रक्षः) विघ्नकारी प्राणी और (प्रत्युष्टा अरातयः) जिसमें सत्यविरोधी अच्छी प्रकार दाहरूप दण्ड को प्राप्त (असि) होते हैं, वा (निष्टप्तं रक्षः) जिस बन्धन से बांधने योग्य (निष्टप्ता अरातयः) विद्या के विघ्न करने वाले निरन्तर सन्ताप को प्राप्त होते हैं (त्वा) उस (वाजिनम्) यज्ञ को (वाजेध्यायै) अन्न आदि पदार्थों के प्रकाशित होने के लिये (संमार्ज्मि) शुद्धता से सिद्ध करता हूँ [इस प्रकार जिस (सपत्नक्षित्) शत्रुओं का नाश करने वाली (अनिशिता) अतिविस्तारयुक्त क्रिया से (प्रत्युष्टं रक्षः) विघ्नकारी प्राणी और (प्रत्युष्टा अरातयः) दुर्गुण तथा नीच मनुष्य नष्ट होते हैं, (निष्टप्तं रक्षः) काम, क्रोध आदि राक्षसी भाव दूर होते हैं, (निष्टप्ता अरातयः) जिसमें दुःख तथा दुर्गन्ध आदि दोष नष्ट [(असि)] होते हैं, (त्वा) उस (वाजिनीम्) सत्क्रिया को (वाजेध्यायै) अन्न आदि पदार्थों के प्रकाशित होने के लिये (सम्मार्ज्मि) भली प्रकार सिद्ध करता हूँ। इसी प्रकार आप भी इस यज्ञ तथा सत्क्रिया को पवित्रतापूर्वक सिद्ध करो] यह दूसरा अर्थ हुआ॥२९॥
भावार्थः— ईश्वर आज्ञा देता है कि मनुष्यों को विद्या और शुभ गुणों के प्रकाश और दुष्ट शत्रुओं की निवृत्ति के लिये नित्य पुरुषार्थ करना चाहिये तथा सदैव श्रेष्ठ शिक्षा शस्त्र-अस्त्र और सत्पुरुषयुक्त उत्तम सेना से श्रेष्ठों की रक्षा तथा दुष्टों का विनाश करना चाहिये, जिसे करके अशुद्धि आदि दोषों के विनाश होने से सर्वत्र पवित्रता फैले॥२९॥