महाभारतम्-04-विराटपर्व-055
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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अर्जुनेन सेनामध्ये सुयोधनानवलोकनेन तस्य गवामादानेन गमनसंभावनया रथेन गवाग्रं प्रत्यभियानम् ।। 1 ।। भीष्मेण पार्थभावविज्ञानात्सेनया सह तमनुधावनम् ।। 2 ।। गवान्तिकमुपगतवताऽर्जुनेन तद्रक्षिणां बाणगणैरभिहननेन गवां विनिवर्तनम् ।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 4-55-1x |
तमदूरमुपायान्तं दृष्ट्वा पाण्डवमर्जुनम् । | 4-55-1a 4-55-1b |
स तं दृष्ट्वा रथानीकं पार्थः सारथिमब्रवीत् । | 4-55-2a 4-55-2b 4-55-2c |
रक्तवैडूर्यविकृतं मणिप्रवरभूषितम् । | 4-55-3a 4-55-3b |
यद्येनमिह पश्यामि दुर्बुद्धिमतिमानिनम् । | 4-55-4a 4-55-4b |
सर्वानन्याननादृत्य दृष्ट्वा तमतिमानिनम् । | 4-55-5a 4-55-5b |
हनिष्यामि तमेवाद्य शरैर्गाण्डीवनिःसृतैः । | 4-55-6a 4-55-6b |
शरैश्च शमयिष्येऽहं धार्तराष्ट्रं ससौबलम् । | 4-55-7a 4-55-7b |
राजानं नेह पश्यामि निरापिषमिदं बलम्। | 4-55-8a 4-55-8b |
आस्थितो मध्यमाचार्योप्यश्वत्थामाऽप्यनन्तरम्। | 4-55-9a 4-55-9b |
भूरिश्रवाः सोमदत्तो बाह्लीकश्च जयद्रथः । | 4-55-10a 4-55-10b |
साल्वराजो द्युमत्सेनो वृषसेनश्च सौबलः। | 4-55-11a 4-55-11b |
पृष्ठतः कुरुमुख्यश्च भीष्मस्तिष्ठति दंशितः। | 4-55-12a 4-55-12b |
दुर्योधनं न पश्यामि क्व नु राजा स तिष्ठति। | 4-55-13a 4-55-13b |
तं हत्वा संनिवर्तिष्ये गाः स आदाय गच्छति। | 4-55-14a 4-55-14b |
वैशंपायन उवाच। | 4-55-15x |
इत्युक्त्वा समरे पार्थो वैराटिमपराजितः। | 4-55-15a 4-55-15b |
ततो भीष्मोऽब्रवीद्वाक्यं कुरुमध्ये परंतपः। | 4-55-16a 4-55-16b |
अतीव ज्वलते लक्ष्म्या पाकशासनिरागतः। | 4-55-17a 4-55-17b |
सेनामत्यर्थमालोक्य त्वरते ग्रहणेऽस्य च। | 4-55-18a 4-55-18b |
नैषोऽन्तरेण राजानं बीभत्सुः स्थातुमर्हति। | 4-55-19a 4-55-19b |
न ह्येनमभिसंक्रुद्धमेको युद्ध्येत संयुगे। | 4-55-20a 4-55-20b 4-55-20c |
किं नो गावः करिष्यन्ति द्रव्यं वा विपुलं तथा। | 4-55-21a 4-55-21b |
वैशंपायन उवाच। | 4-55-22x |
इत्युक्त्वा समरे भीष्मः सेनया सह कौरवः। | 4-55-22a 4-55-22b |
विक्रोशमात्रं यात्वा तु पार्थो वैराटिमब्रवीत्। | 4-55-23a 4-55-23b |
एतदग्रं गवां दृष्टं मन्दं वाहय सारथे। | 4-55-24a 4-55-24b |
परिक्षिप्य गवां यूथमत्र योत्स्ये सुयोधनम् । | 4-55-25a 4-55-25b |
तत्र गत्वा पशून्वीर सगोपान्परिमोचय। | 4-55-26a 4-55-26b |
इमे त्वतिरथाः सर्वे मम वीर्यपराक्रमम्। | 4-55-27a 4-55-27b |
वैशंपायन उवाच। | 4-55-28x |
ततः स रथिनां श्रेष्ठो नाम विश्राव्य चात्मनः। | 4-55-28a 4-55-28b |
शलभैरिव चाकाशं धाराभिरिव पर्वतम्। | 4-55-29a 4-55-29b |
विकीर्यमाणास्तु शरैस्ते योधा धार्तराष्ट्रिकाः। | 4-55-30a 4-55-30b |
सा चापि बहुला सेना पार्थबाणाभिपीडिता। | 4-55-31a 4-55-31b |
अर्जुनस्तु तदा हृष्टो दर्शयन्वीर्यमात्मनः। | 4-55-32a 4-55-32b |
तेषां नैवापयाने च नाभियाने भवन्मतिः । | 4-55-33a 4-55-33b |
चन्द्रावदातं सामुद्रं कुरुसैन्यभयंकरम्। | 4-55-34a 4-55-34b 4-55-34c |
तस्य शङ्खस्य शब्देन धनुषो निस्वनेन च। | 4-55-35a 4-55-35b 4-55-35c |
ऊर्ध्वं पुच्छं विधून्वाना हेममाणाः समन्ततः । | 4-55-36a 4-55-36b |
ततः स समरे शूरो बीभत्सुः शत्रुपूगहा। | 4-55-37a 4-55-37b |
उत्तरं चाह बीभत्सुर्हर्षयन्पाण्डुनन्दनः । | 4-55-38a 4-55-38b |
यावदेते निवर्तन्ते कुरवो जवमास्थिताः । | 4-55-39a 4-55-39b |
पश्यन्तु कुरवः सर्वे मम वीर्यपराक्रमम् ।। | 4-55-40a |
वैशंपायन उवाच। | 4-55-41x |
ते लाभमिव मन्वानाः कुरवोऽर्जुनमाहव। | 4-55-40b |
दृष्टवा यान्तमदूरस्थं क्षिप्रमभ्यपतन्रथैः ।। | 4-55-41a 4-55-41b |
योधैः प्रासासिहस्तैश्च चापबाणोद्यतायुधैः ।। | 4-55-42a 4-55-42b |
संसर्पन्त इवाकाशे विद्युत्वन्तो वलाहकाः ।। | 4-55-43a 4-55-43b |
पार्थोऽपि वायुवद्धोरं सैन्याग्रं व्यधुनोच्छरैः ।। | 4-55-44a 4-55-44b |
दुर्योधनायाभिमुखं प्रयान्तं कुरुप्रवीराः सहसाऽभ्यगच्छन् ।। | 4-55-45a 4-55-45b |
पशून्समादाय ततो निवृत्ता गोपाः समस्ताः प्रययुश्च राष्ट्रम् ।। | 4-55-46a |
।। इति श्रीमन्महाभारते विराटपर्वणि |
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