यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः ३०/मन्त्रः १४
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान् |
यजुर्वेदभाष्यम्/अध्यायः ३० |
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मन्यव इत्यस्य नारायण ऋषिः। राजेश्वरौ देवते। निचृदत्यष्टिश्छन्दः। गान्धारः स्वरः॥
पुनस्तमेव विषयमाह॥
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
म॒न्यवे॑ऽयस्ता॒पं क्रोधा॑य निस॒रं योगा॑य यो॒क्तार॒ꣳ शोका॑याऽभिस॒र्त्तारं॒ क्षेमा॑य विमो॒क्ता॑रमुत्कूलनिकू॒लेभ्य॑त्रि॒ष्ठिनं॒ व॑पुषे मानस्कृ॒तꣳ शीला॑याञ्जनीका॒रीं निर्ऋत्यै कोशका॒रीं य॒माया॒सूम्॥१४॥
पदपाठः—म॒न्यवे॑। अ॒य॒स्ता॒पमित्य॑यःऽता॒पम्। क्रोधा॑य। नि॒स॒रमिति॑ निऽस॒रम्। योगा॑य। यो॒क्ता॑रम्। शोका॑य। अ॒भि॒स॒र्त्तार॒मित्य॑भिऽस॒र्त्तार॑म्। क्षेमा॑य। वि॒मोक्तार॒मिति॑ विऽमोक्तार॑म्। उ॒त्कू॒ल॒नि॑कू॒लेभ्य इत्यु॑त्कूलऽनिकू॒लेभ्यः॑। त्रि॒ष्ठिन॑म्। त्रि॒स्थिन॒मिति॑ त्रि॒ऽस्थिन॑म्। वपु॑षे। मा॒न॒स्कृ॒तम्। मा॒नः॒ऽकृ॒तमिति॑। मानःऽकृ॒तम्। शीला॑य। आ॒ञ्ज॒नी॒का॒रीमित्या॑ञ्जनीऽका॒रीम्। निर्ऋ॑त्या॒ इति॒ निःऽऋ॑त्यै। को॒श॒का॒रीमिति॑ कोशऽका॒रीम्। य॒माय॑। अ॒सूम्॥१४॥
पदार्थः—(मन्यवे) आन्तर्यक्रोधाय प्रवृत्तम् (अयस्तापम्) लोहसुवर्णतापकम् (क्रोधाय) बाह्यकोपाय प्रवृत्तम् (निसरम्) यो निश्चितं सरति गच्छति तम् (योगाय) युञ्जन्ति यस्मिँस्तस्मै (योक्तारम्) योजकम् (शोकाय) (अभिसर्त्तारम्) अभिमुख्ये गन्तारम् (क्षेमाय) रक्षणाय (विमोक्तारम्) दुःखाद्विमोचकम् (उत्कूलनिकूलेभ्यः) ऊर्द्ध्वनीचतटेभ्यः (त्रिष्ठिनम्) ये त्रिषु जलस्थलान्तरिक्षेषु तिष्ठन्ति ते त्रिष्ठा बहवस्त्रिष्ठा विद्यन्ते यस्य तम् (वपुषे) शरीरहिताय (मानस्कृतम्) मनस्कृतेषु विचारेषु कुशलम् (शीलाय) जितेन्द्रियत्वादिशीलिने (आञ्जनीकारीम्) आञ्जनीः प्रसिद्धाः क्रियाः कर्त्तुं शीलं यस्यास्ताम् (निर्ऋत्यै) भूम्यै (कोशकारीम्) या कोशं करोति ताम् (यमाय) दण्डदानाय प्रवृत्तम् (असूम्) याऽस्यति प्रक्षिपति ताम्॥१४॥
अन्वयः—हे जगदीश्वर! राजन् वा त्वं मन्यवेऽयस्तापं क्रोधाय निसरं शोकायाभिसर्त्तारं यमायासूं परासुव। योगाय योक्तारं क्षेमाय विमोक्तारमुत्कूलनिकूलेभ्यस्त्रिष्ठिनं वपुषे मानस्कृतं शीलायाऽऽञ्जनीकारीं निर्ऋत्यै कोशकारीमासुव॥१४॥
भावार्थः—हे राजादयो मनुष्याः! ये तप्तं लोहमिव क्रुद्धा अन्येषां परितापका धर्मनियमानां विनाशकाः स्युस्तान् दण्डयित्वा योगाभ्यासकर्त्रादीन् सत्कृत्य सर्वत्र यानगमकान् सङ्गृह्य यथावत् सुखं युष्माभिर्वर्द्धनीयम्॥१४॥
पदार्थः—हे जगदीश्वर वा सभापतेराजन्! आप (मन्यवे) आन्तर्य क्रोध के अर्थ प्रवृत्त हुए (अयस्तापम्) लोह वा सुवर्ण को तपाने वाले को (क्रोधाय) बाह्य क्रोध के लिए प्रवृत्त हुए (निसरम्) निश्चित चलने वाले को (शोकाय) शोच के लिए प्रवृत्त हुए (अभिसर्त्तारम्) सन्मुख चलने वाले को और (यमाय) दण्ड देने के लिए प्रवृत्त हुई (असूम्) क्रोध के इधर-उधर हाथ आदि फेंकने वाली को दूर कीजिये और (योगाय) योगाभ्यास के लिए (योक्तारम्) योग करने वाले को (क्षेमाय) रक्षा के लिए (विमोक्तारम्) दुःख से छुड़ाने वाले को (उत्कूलनिकूलेभ्यः) ऊपर-नीचे किनारों पर चढ़ाने-उतारने के लिए (त्रिष्ठिनम्) जल स्थल और आकाश में रहने वाले विमानादि यानों से युक्त पुरुष को (वपुषे) शरीरहित के लिए (मानस्कृतम्) मन से किए विचारों में प्रवीण को (शीलाय) जितेन्द्रियता आदि उत्तम स्वभाव वाले के लिए (आञ्जनीकारीम्) प्रसिद्ध क्रियाओं के करने हारे स्वभाववाली स्त्री को और (निर्ऋत्यै) भूमि के लिए (कोशकारीम्) कोश का संचय करने वाली स्त्री को उत्पन्न वा प्रगट कीजिये॥१४॥
भावार्थः—हे राजा आदि मनुष्यो! जो तपे लोहे के तुल्य क्रोध को प्राप्त हुए औरों को दुःख देने और धर्म नियमों को नष्ट करने वाले हों, उनको दण्ड देकर, योगाभ्यास करने वाले आदि का सत्कार कर, सब जगह सवारी चलाने वालों को इकट्ठा कर, तुम को यथावत् सुख बढ़ाना चाहिए॥१४॥