यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः ३०/मन्त्रः ९
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान् |
यजुर्वेदभाष्यम्/अध्यायः ३० |
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सन्धय इत्यस्य नारायण ऋषिः। विद्वान् देवता। भुरिगत्यष्टिश्छन्दः। गान्धारः स्वरः॥
पुनस्तमेव विषयमाह॥
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
स॒न्धये॑ जा॒रं गे॒हायो॑पप॒तिमार्त्यै॒ परि॑वित्तं॒ निर्ऋ॑त्यै परिविविदा॒नमरा॑द्ध्याऽ एदिधिषुः प॒तिं निष्कृ॑त्यै पेशस्का॒रीᳬ सं॒ज्ञाना॑य स्मरका॒रीं प्र॑का॒मोद्या॑योप॒सदं॒ वर्णा॑यानु॒रुधं॒ बला॑योप॒दाम्॥९॥
पदपाठः—स॒न्धय॒ इति॑ स॒म्ऽधये॑। जा॒रम्। गे॒हाय॑। उ॒प॒प॒तिमित्यु॑पऽप॒तिम्। आर्त्या॒ऽऽइत्याऽऋ॑त्यै। परि॑वित्त॒मिति॒ परि॑ऽवित्तम्। निर्ऋ॑त्या॒ इति॒ निःऽऋ॑त्यै। प॒रि॒वि॒वि॒दा॒नमिति॑ परिऽविविदा॒नम्। अरा॑ध्यै। ए॒दि॒धि॒षुः॒प॒तिमित्यो॑दिधिषुःऽ प॒तिम्। निष्कृ॑त्यै। निःकृ॑त्या॒ इति॒ निःकृ॑त्यै। पे॒श॒स्का॒रीम्। पे॒शः॒का॒रीमिति॑ पेशःका॒रीम्। सं॒ज्ञाना॒येति॑ स॒म्ऽज्ञाना॑य। स्म॒र॒का॒रीमिति॑ स्मरऽका॒रीम्। प्र॒का॒मोद्या॒येति॑ प्रकाम॒ऽउद्या॑य। उ॒प॒सद॒मित्यु॑प॒ऽसद॑म्। वर्णा॑य। अ॒नु॒रुध॒मित्य॑नु॒ऽरुध॑म्। बला॑य। उ॒प॒दामित्यु॑प॒ऽदाम्॥९॥
पदार्थः—(सन्धये) परस्त्रीसमागमनाय प्रवर्त्तमानम् (जारम्) व्यभिचारिणम् (गेहाय) गृहपत्नीसङ्गमाय प्रवृत्तम् (उपपतिम्) यः पत्युः समीपे वर्त्तते तम् (आर्त्यै) कामपीडायै प्रवृत्तम् (परिवित्तम्) कृतविवाहे कनिष्ठे बन्धावविवाहितं ज्येष्ठम् (निर्ऋत्यै) पृथिव्यै प्रवृत्तम्। निर्ऋतिरिति पृथिवीनामसु पठितम्॥ (निघ॰।१।१) (परिविविदानम्) अप्राप्तदाये ज्येष्ठे प्राप्तदायं कनिष्ठम् (अराध्यै) अविद्यमानसंसिद्धये प्रवृत्तम् (एदिधिषुःपतिम्) अकृतविवाहायां ज्येष्ठायां पुत्र्यामूढा कनिष्ठा तस्याः पतिम्। (निष्कृत्यै) प्रायश्चित्ताय प्रवर्त्तमानम् (पेशस्कारीम्) रूपकर्त्रीम् (सञ्ज्ञानाय) सम्यक् ज्ञानं कामप्रबोधं तस्मै प्रवृत्ताम् (स्मरकारीम्) या स्मरं कामं करोति तां दूतिकाम् (प्रकामोद्याय) यः प्रकृष्टैः कामैरुद्यतस्तस्मै (उपसदम्) यः समीपे सीदति तम् (वर्णाय) स्वीकरणाय प्रवृत्तम् (अनुरुधम्) योऽनुरुणद्धि तम् (बलाय) बलवृद्धये (उपदाम्) उप समीपे दीयते ताम्॥९॥
अन्वयः—हे जगदीश्वर सभेश राजन् वा! त्वं सन्धये जारं गेहायोपपतिमार्त्यै परिवित्तं निर्ऋत्यै परिविविदानमराध्यै एदिधिषुःपतिं निष्कृत्यै पेशस्कारीं सञ्ज्ञानाय स्मरकारीं प्रकामोद्यायोपसदं वर्णायानुरुधं बलायोपदां परासुव॥९॥
भावार्थः—हे राजन्! यथा परमेश्वरो जारादीन् दुष्टान् दण्डयति, तथा त्वमेतान् दण्डय। यथेश्वरः पापत्यागिनोऽनुगृह्णाति तथा त्वं धार्मिकाननुगृहाण॥९॥
पदार्थः—हे जगदीश्वर वा सभापति राजन्! आप (सन्धये) परस्त्रीगमन के लिए प्रवृत्त (जारम्) व्यभिचारी को (गेहाय) गृहपत्नी के संग के लिए प्रवृत्त हुए (उपपतिम्) पति की विद्यमानता में दूसरे व्यभिचारी पति को (आर्त्यै) कामपीड़ा के लिए प्रवृत्त हुए (परिवित्तम्) छोटे भाई का विवाह होने में बिना विवाहे ज्येष्ठ भाई को (निर्ऋत्यै) पृथिवी के लिए प्रवृत्त हुए (परिविविदानम्) ज्येष्ठ भाई के दाय को न प्राप्त होने में दाय को प्राप्त हुए हुए छोटे भाई को (अराध्यै) अविद्यमान पदार्थ को सिद्ध करने के लिए प्रवृत्त हुए (एदिधिषुःपतिम्) ज्येष्ठ पुत्री के विवाह के पहिले विवाहित हुई छोटी पुत्री के पति को (निष्कृत्यै) प्रायश्चित के लिए प्रवृत्त हुई (पेशस्कारीम्) शृङ्गार विशेष से रूप करनेहारी व्यभिचारिणी को (सम्, ज्ञानाय) उत्तम कामदेव को जगाने के अर्थ प्रवृत्त हुई (स्मरकारीम्) कामदेव को चेतन कराने वाली दूती को (प्रकामोद्याय) उत्कृष्ट कामों से उद्यत हुए के लिए (उपसदम्) साथी को (वर्णाय) स्वीकार के लिए प्रवृत्त हुए (अनुरुधम्) पीछे से रोकने वाले को (बलाय) बल बढ़ाने के अर्थ (उपदाम्) नजर भेंट वा घूंस को पृथक् कीजिए॥९॥
भावार्थः—हे राजन्! जैसे परमेश्वर जार आदि दुष्टजनों को दण्ड देता, वैसे आप भी इन को दण्ड दीजिए और ईश्वर पाप छोड़ने वालों पर कृपा करता है, वैसे आप धार्मिक जनों पर अनुग्रह किया कीजिए॥९॥