यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः २९/मन्त्रः १०
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान् |
अश्व इत्यस्य बृहदुक्थो वामदेव्य ऋषिः। सूर्य्यो देवता। निचृत् त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥
पुनस्तमेव विषयमाह॥
फिर उसी विषय की अगले मन्त्र में कहा है॥
अश्वो॑ घृ॒तेन॒ त्मन्या॒ सम॑क्त॒ऽउप॑ दे॒वाँ२ऽऋ॑तु॒शः पाथ॑ऽएतु।
वन॒स्पति॑र्देवलोकं प्र॑जा॒नन्न॒ग्निना॑ ह॒व्या स्व॑दि॒तानि॑ वक्षत्॥१०॥
पदपाठः—अश्वः॑। घृ॒तेन॑। त्मन्या॑। सम॑क्त॒ इति॒ सम्ऽअ॑क्तः। उप॑। दे॒वान्। ऋ॒तु॒श इत्यृ॑तु॒ऽशः। पाथः॑। ए॒तु॒। वन॒स्पतिः॑। दे॒व॒लो॒कमिति॑ देवऽलो॒कम्। प्र॒जा॒नन्निति॑ प्रऽजा॒नन्। अ॒ग्निना॑। ह॒व्या। स्व॒दि॒तानि॑। व॒क्ष॒त्॥१०॥
पदार्थः—(अश्वः) आशुगामी वह्निः (घृतेन) उदकेन (त्मन्या) आत्मना। अत्राकारलोपो विभक्तेर्यादेशश्च। (समक्तः) सम्यक् प्रकटयन् (उप) (देवान्) दिव्यान् व्यवहारान् (ऋतुशः) ऋतावृतौ (पाथः) अन्नम् (एतु) प्राप्नोतु (वनस्पतिः) वनानां किरणानां पालकः सूर्यः (देवलोकम्) देवानां विदुषां लोकं दर्शकं व्यवहारम् (प्रजानन्) प्रकर्षेण विदन्त्सन् (अग्निना) पावकेन (हव्या) अत्तुमर्हाणि (स्वदितानि) आस्वादितानि (वक्षत्) वहेत् प्रापयेत्॥१०॥
अन्वयः—हे विद्वन्! देवलोकं प्रजानन्त्सन् यथा घृतेन संयोजितोऽश्वस्त्मन्या ऋतुशो देवान्त्समक्तः सन् पाथ उपैतु अग्निना सह वनस्पतिः स्वदितानि हव्या यक्षत् तथा त्मन्या वर्त्तस्व॥१०॥
भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो मनुष्याः! यथा सूर्य ऋतून् विभज्योत्तमानि सेवितव्यानि वस्तूनि जनयति, तथोत्तमानधमान् विद्यार्थिनो विद्याञ्चाऽविद्याञ्च पृथक् परीक्ष्य सुशिक्षितान् सम्पादयन्तु, अविद्याञ्च निवर्त्तयन्तु॥१०॥
पदार्थः—हे विद्वन् (देवलोकम्) सब को मार्ग दिखाने वाले विद्वानों के मार्ग को (प्रजानन्) अच्छे प्रकार जानते हुए जैसे (घृतेन) जल संयुक्त किया (अश्वः) शीघ्रगामी अग्नि (त्मन्या) आत्मा से (ऋतुशः) ऋतु-ऋतु में (देवान्) उत्तम व्यवहारों को (समक्तः) सम्यक् प्रकट करता हुआ (पाथः) अन्न को (उप, एतु) निकट से प्राप्त हूजिए (अग्निना) अग्नि के साथ (वनस्पतिः) किरणों का रक्षक सूर्य (स्वदितानि) स्वादिष्ठ (हव्या) भोजन के योग्य अन्नों को (वक्षत्) प्राप्त करे, वैसे आत्मा से वर्ताव कीजिए॥१०॥
भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वान् मनुष्यो! जैसे सूर्य ऋतुओं का विभाग कर उत्तम सेवने योग्य वस्तुओं को उत्पन्न करता है, वैसे उत्तम, अधम विद्यार्थी और विद्या-अविद्या की अलग-अलग परीक्षा कर अच्छे शिक्षित करें और अविद्या की निवृत्ति करें॥१०॥