यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः २९/मन्त्रः ६
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान् |
अन्तरेत्यस्य बृहदुक्थो वामदेव्य ऋषिः। मनुष्या देवताः। त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥
पुनस्तमेव विषयमाह॥
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
अ॒न्त॒रा मि॒त्रावरु॑णा॒ चर॑न्ती॒ मुखं॑ य॒ज्ञाना॑म॒भि सं॑विदा॒ने।
उ॒षासा॑ वाᳬसुहिर॒ण्ये सु॑शि॒ल्पेऽऋ॒तस्य॒ योना॑वि॒ह सा॑दयाभि॥६॥
पदपाठः—अ॒न्त॒रा। मि॒त्रावरु॑णा। चर॑न्ती॒ऽइति॒ चर॑न्ती॒। मुख॑म्। य॒ज्ञाना॑म्। अ॒भि। सं॒वि॒दा॒ने इति॑ सम्ऽविदा॒ने उ॒षासा॑। उ॒षसेत्यु॒षसा॑। वा॒म्। सु॒हि॒र॒ण्ये इति॑ सुऽहिर॒ण्ये। सु॒शि॒ल्पे इति॑ सुऽशि॒ल्पे। ऋ॒तस्य॑। योनौ॑। इ॒ह। सा॒द॒या॒मि॒॥६॥
पदार्थः—(अन्तरा) अन्तरौ (मित्रावरुणा) प्राणोदानौ (चरन्ती) प्राप्नुवत्यौ (मुखम्) (यज्ञानाम्) सङ्गन्तव्यानाम् (अभि) पदार्थानाम् (संविदाने) सम्यग्विज्ञापिके (उषासा) प्रातःसायंवेले (वाम्) युवाम् (सुहिरण्ये) सुष्ठु तेजोयुक्ते (सुशिल्पे) सुष्ठु शिल्पक्रिया ययोस्ते (ऋतस्य) सत्यस्य (योनौ) निमित्ते (इह) अस्मिन् गृहे (सादयामि) स्थापयामि॥६॥
अन्वयः—हे शिल्पविद्याप्रचारकौ विद्वांसौ! यथाहमन्तरा मित्रावरुणा चरन्ती यज्ञानां मुखमभि संविदाने सुहिरण्ये सुशिल्पे उषासा ऋतस्य योनाविह सादयामि, तथा वां मह्यं स्थापयेतम्॥६॥
भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा प्रातः सायं वेले शुद्धस्थानसेविते मनुष्याणां प्राणोदानवत्सुखकारिके भवतस्तथा शुद्धदेशे निर्मितं बहुविस्तीर्णद्वारं गृहं सर्वथा सुखयति॥६॥
पदार्थः—हे शिल्पविद्या के प्रचारक दो विद्वानो! जैसे मैं (अन्तरा) भीतर शरीर में (मित्रावरुणा) प्राण तथा उदान (चरन्ती) प्राप्त होते हुए (यज्ञानाम्) संगति के योग्य पदार्थों के (मुखम्) मुख्य भाग को (अभि, संविदाने) सब ओर से सम्यक् ज्ञान के हेतु (सुहिरण्ये) सुन्दर तेजयुक्त (सुशिल्पे) सुन्दर कारीगरी जिस में हो (उषासा) प्रातः तथा सायंकाल की वेलाओं को (ऋतस्य) सत्य के (यौनौ) निमित्त (इह) इस घर में (सादयामि) स्थापन करता हूँ, वैसे (वाम्) तुम दोनों मेरे लिए स्थापना करो॥६॥
भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सेवेरे तथा सायंकाल की वेला शुद्ध स्थान में सेवी हुई मनुष्यों को प्राण-उदान के समान सुखकारिणी होती हैं, वैसे शुद्ध देश में बनाया बड़े-बड़े द्वारों वाला घर सब प्रकार सुखी करता है।॥६॥