यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः २९/मन्त्रः ५६

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अध्यायः २९
दयानन्दसरस्वती
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान्
यजुर्वेदभाष्यम्/अध्यायः २९


आ क्रन्दयेत्यस्य भारद्वाज ऋषिः। वादयितारो वीरा देवताः। भुरिक् त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥

राजपुरुषैः किं कर्त्तव्यमित्याह॥

राजपुरुषों को क्या करना चाहिए, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

आ क्र॑न्दय॒ बल॒मोजो॑ न॒ऽआधा॒ निष्ट॑निहि दुरि॒ता बाध॑मानः।

अप॑ प्रोथ दुन्दुभे दु॒च्छुना॑ऽइ॒तऽइन्द्र॑स्य मु॒ष्टिर॑सि वी॒डय॑स्व॥५६॥

पदपाठः—आ। क्र॒न्द॒य। बल॑म्। ओजः॑। नः॒। आ। धाः॒। निः। स्त॒नि॒हि॒। दु॒रि॒तेति॑ दुःऽइ॒ता। बाध॑मानः। अप॑। प्रो॒थ॒। दु॒न्दु॒भे॒। दु॒च्छुना॑। इ॒तः। इन्द्र॑स्य। मु॒ष्टिः। अ॒सि॒। वी॒डय॑स्व॥५६॥

पदार्थः—(आ) (क्रन्दय) समन्तादाह्वय रोदय वा (बलम्) (ओजः) पराक्रमम् (नः) अस्मभ्यम् (आ) (धाः) धेहि (निः) नितराम् (स्तनिहि) विस्तृणीहि (दुरिता) दुष्टानि व्यसनानि (बाधमानः) निवारयन् (अप) (प्रोथ) परि प्राप्नुहि (दुन्दुभे) दुन्दुभिरिव गर्जितसेन! (दुच्छुनाः) दुष्टाः श्वान इव वर्त्तमानाः (इतः) सेनायाः (इन्द्रस्य) विद्युतः (मुष्टिः) मुष्टिरव (असि) (वीडयस्व) दृढय॥५६॥

अन्वयः—हे दुन्दुभे! दुरिता बाधमानस्त्वं नो बलमाक्रन्दयौज आधाः सैन्यं निष्टनिहि ये दुच्छुनास्तानपाक्रन्दय यतस्त्वं मुष्टिरसि तस्मादित इन्द्रस्य वीडयस्व सुखानि प्रोथ॥५६॥

भावार्थः—राजपुरुषैः श्रेष्ठाः सत्कर्त्तव्या दुष्टा रोदनीयाः सर्वेषां दुर्व्यसनानि दूरीकारयित्वा सुखानि प्राप्तव्यानि॥५६॥

पदार्थः—हे (दुन्दुभे) नगाड़ों के तुल्य जिनकी सेना गर्जती ऐसे सेनापते! (दुरिता) दुष्ट व्यसनों को (बाधमानः) निवृत्त करते हुए आप (नः) हमारे लिए (बलम्) बल को (आ, क्रन्दय) पहुंचाइये (ओजः) पराक्रम को (आ, धाः) अच्छे प्रकार धारण कीजिए, सेना को (निष्टनिहि) विस्तृत कीजिए, जो (दुच्छुनाः) दुष्ट कुत्तों के तुल्य वर्त्तमान हैं, उनको (अप) बुरे प्रकार रुलाइये जिस कारण आप (मुष्टिः) मूठों के तुल्य प्रबन्धकर्त्ता (असि) हैं, इससे (इतः) इस सेना से (इन्द्रस्य) बिजुली के अवयवों को (वीडयस्व) दृढ़ कीजिए और सुखों को (प्रोथ) पूरण कीजिए॥५६॥

भावार्थः—राजपुरुषों को चाहिए कि श्रेष्ठों का सत्कार करें, दुष्टों को रुलावें, सब मनुष्यों के दुर्व्यसनों को दूर करके सुखों को प्राप्त करें॥५६॥