यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः ३/मन्त्रः ४५

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अध्यायः ३
दयानन्दसरस्वती
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान्
यजुर्वेदभाष्यम्/अध्यायः ३


यद् ग्राम इत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः। मरुतो देवताः। स्वराडनुष्टुप् छन्दः। गान्धारः स्वरः॥

पुनर्गृहस्थकृत्यमुपदिश्यते॥

फिर अगले मन्त्र में गृहस्थों के कर्मों का उपदेश किया है॥

यद् ग्रामे॒ यदर॑ण्ये॒ यत् स॒भायां॒ यदि॑न्द्रि॒ये।

यदेन॑श्चकृ॒मा व॒यमि॒दं तदव॑यजामहे॒ स्वाहा॑॥४५॥

पदपाठः—यत्। ग्रामे॑। यत्। अर॑ण्ये। यत्। स॒भाया॑म्। यत्। इन्द्रि॒ये। यत्। एनः॑। च॒कृ॒म। व॒यम्। इ॒दम्। तत्। अव॑। य॒जा॒म॒हे॒। स्वाहा॑।४५॥

पदार्थः—(यत्) यस्मिन् वक्ष्यमाणे (ग्रामे) शालासमुदाये, गृहस्थैः सेविते। ग्राम इत्युपलक्षणं नगरादीनाम् (यत्) यस्मिन् वक्ष्यमाणे (अरण्ये) वानप्रस्थैः सेवित एकान्तदेशे वने (यत्) यस्यां वक्ष्यमाणायाम् (सभायाम्) विद्वत्समूहशोभितायाम् (यत्) यस्मिँश्च्छ्रेष्ठे (इन्द्रिये) मनसि श्रोत्रादौ वा (यत्) वक्ष्यमाणम् (एनः) पापम् (चकृम) कुर्महे करिष्यामो वा। अत्र लड्लृटोरर्थे लिट्। अन्येषामपि॰  [अष्टा॰ ६.३.१३७] इति दीर्घश्च। (वयम्) कर्मानुष्ठातारो गृहस्थाः (इदम्) प्रत्यक्षमनुष्ठीयमानं करिष्यमाणं वा (तत्) कर्म (अव) दूरीकरणे (यजामहे) सङ्गच्छामहे (स्वाहा) सत्यवाचा। स्वाहेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰ १.११)। अयं मन्त्रः (शत॰ २.५.२.२५) व्याख्यातः॥४५॥

अन्वयः—वयं यद् ग्रामे यदरण्ये सत्सभायां यदिन्द्रिये यद्यत्रैनश्चकृमस्तदव यजामहे दूरीकुर्मः। यद्यत्र तत्र स्वाहा सत्यवाचा पुण्यकर्म चकृम तत्तत्सर्वं सङ्गच्छामहे॥४५॥

भावार्थः—चतुराश्रमस्थैर्मनुष्यैर्मनसा वाचा कर्मणा सदा सत्यं कर्माचर्यं पापं च त्यक्त्वा सभाविद्याशिक्षाप्रचारेण प्रजायाः सुखोन्नतिः कार्येति॥४५॥

पदार्थः—(वयम्) कर्म के अनुष्ठान करने वाले हम लोग (यत्) ग्रामे) जो गृहस्थों से सेवित ग्राम (यत्) (अरण्ये) वानप्रस्थों ने जिस वन की सेवा की हो (यत्सभायाम्) विद्वान् लोग जिस सभा की सेवा करते हों और (यत्) (इन्द्रिये) योगी लोग जिस मन वा श्रोत्रादिकों की सेवा करते हों, उसमें स्थिर हो के जो (एनः) पाप वा अधर्म (चकृम) करा वा करेंगे सब (अवयजामहे) दूर करते रहें तथा जो-जो उन-उन उक्त स्थानों में (स्वाहा) सत्यवाणी से पुण्य वा धर्माचरण (चकृम) करना योग्य है (तत्) उस-उस को (यजामहे) प्राप्त होते रहें॥४५॥

भावार्थः—चारों आश्रमों में रहने वाले मनुष्यों को मन, वाणी और कर्मों से सत्य कर्मों का आचरण कर पाप वा अधर्मों का त्याग करके विद्वानों की सभा, विद्या तथा उत्तम-उत्तम शिक्षा का प्रचार करके प्रजा के सुखों की उन्नति करनी चाहिये॥४५॥