यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः ४/मन्त्रः १३

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अध्यायः ४
दयानन्दसरस्वती
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान्
यजुर्वेदभाष्यम्/अध्यायः ४


इयन्त इत्यस्याङ्गिरस ऋषयः। आपो देवता। भुरिगार्षी बृहती छन्दः। मध्यमः स्वरः॥

पुनस्ता आपः कीदृशः सन्तीत्युपदिश्यते॥

फिर वे जल कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

इ॒यं ते॑ य॒ज्ञिया॑ त॒नूर॒पो मु॑ञ्चामि॒ न प्र॒जाम्।

अ॒ꣳहो॒मुचः॒ स्वाहा॑कृताः पृथि॒वीमावि॑शत पृथि॒व्या सम्भ॑व॥१३॥

पदपाठः—इ॒यम्। ते॒। य॒ज्ञिया॑। त॒नूः। अ॒पः। मु॒ञ्चा॒मि॒। न। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। अ॒ꣳहो॒मुच॒ इत्य॑ꣳह॒ऽमुचः॑। स्वाहा॑कृता॒ इति॒ स्वाहा॑ऽकृताः। पृ॒थि॒वीम्। आ। वि॒श॒त॒। पृ॒थि॒व्या। सम्। भ॒व॒॥१३॥

पदार्थः—(इयम्) वक्ष्यमाणा (ते) तव (यज्ञिया) या यज्ञमर्हति सा (तनूः) शरीरम् (अपः) सुसंस्कृतानि जलानि (मुञ्चामि) प्रक्षिपामि (न) निषेधार्थे (प्रजाम्) या प्रजायते ताम् (अंहोमुचः) दुःखमोचयित्र्यः (स्वाहाकृताः) याः क्रियया सुसंस्कृताः क्रियन्ते ताः (पृथिवीम्) भूमिम् (आ) समन्तात् (विशत) प्रवेशं कुरुत (पृथिव्या) भूम्या सह (सम्) सम्यगर्थे (भव) सम्पद्यस्व। अयं मन्त्रः (शत॰३.२.२.२०-२१) व्याख्यातः॥१३॥

अन्वयः—हे विद्वन्! यथा ते तव येयं यज्ञिया तनूरपः प्राणान् प्रजां पालनीयां न त्यजति, यं त्वं न मुञ्चसि यथैवाहमेता ईदृशं स्वशरीरं च न मुञ्चामि न परित्यजामि, हे मनुष्याः! यथा यूयं पृथिव्या सह संभवतांहोमुचः स्वाहाकृताः अपः पृथिवीं चाविशत, विज्ञानेन समन्तात् प्रवेशं कुरुताहं च सम्भवाम्याविशामि, तथा त्वमपि सम्भव चाविश॥१३॥

भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सर्वैर्मनुष्यैर्विद्यया परस्परं पदार्थान् मेलयित्वा सेवित्वा रोगरहितं शरीरमात्मानं च पालयित्वा सुखयितव्यम्॥१३॥

पदार्थः—हे विद्वन् मनुष्य! जैसे (ते) तेरा जो (इयम्) यह (यज्ञिया) यज्ञ के योग्य (तनूः) शरीर (अपः) जल, प्राण वा (प्रजाम्) प्रजा की रक्षा करता है, जिसको तू नहीं छोड़ता, मैं भी अपने उस शरीर को विना पूर्ण आयु भोगे प्रमाद से बीच में (न मुञ्चामि) नहीं छोड़ता हूँ। हे मनुष्यो! जैसे तुम (पृथिव्या) भूमि के साथ वैभवयुक्त होते (अंहोमुचः) दुःखों को छुड़ाने वा (स्वाहाकृताः) वाणी से सिद्ध किये हुए (अपः) जल और (पृथिवीम्) भूमि को (आविशत) अच्छे प्रकार विज्ञान से प्रवेश करते हो, मैं इनसे ऐश्वर्य्यसहित और इनमें प्रविष्ट होता हूं, वैसे तू भी (सम्भव) हो और प्रवेश कर॥१३॥

भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि विद्या से परस्पर पदार्थों का मेल और सेवन कर रोगरहित शरीर तथा आत्मा की रक्षा करके सुखी रहना चाहिये॥१३॥