यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः ५/मन्त्रः २१
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान् |
विष्णो रराटमित्यस्यौतथ्यो दीर्घतमा ऋषिः। विष्णुर्देवता। भुरिगार्षी पङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः॥
पुनः स कथंभूत इत्युपदिश्यते॥
फिर वह जगदीश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
विष्णो॑ र॒राट॑मसि॒ विष्णोः॒ श्नप्त्रे॑ स्थो॒ विष्णोः॒ स्यूर॑सि॒ विष्णोर्ध्रु॒वो᳖ऽसि॒।
वै॒ष्ण॒वम॑सि॒ विष्ण॑वे त्वा॥२१॥
पदपाठः—विष्णोः॑। र॒राट॑म्। अ॒सि॒। विष्णेः॑। श्नप्त्रे॒ऽइति॒ श्नप्त्रे॑। स्थः॒। विष्णोः॑। स्यूः। अ॒सि॒। विष्णोः॑। ध्रु॒वः। अ॒सि॒। वै॒ष्ण॒वम्। अ॒सि॒। विष्ण॑वे। त्वा॒॥२१॥
पदार्थः—(विष्णोः) व्यापकस्य सकाशात् (रराटम्) परिभाषितं जगत् (असि) अस्ति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः। (विष्णोः) सर्वत्राभिप्रविष्टस्य (श्नप्त्रे) शुद्धे इव। अत्र ष्णा शौच इत्यस्य वर्णव्यत्ययेन सस्य शः। (स्थः) तिष्ठतः (विष्णोः) सर्वसुखाभिव्याप्तात् (स्यूः) यः सीव्यति सः (असि) अस्ति (विष्णोः) सर्वजगत्पालकात् (ध्रुवः) निश्चलः (असि) अस्ति (वैष्णवम्) यद् विष्णोर्यज्ञस्येदं साधनं साधकं वा तत् (असि) अस्ति (विष्णवे) यज्ञाय (त्वा) त्वाम्। अयं मन्त्रः (शत॰ ३। ५। ३। २४-२५) व्याख्यातः॥२१॥
अन्वयः—यदिदं विविधं जगद(स्य)स्ति तद्विष्णो रराटम(स्य)स्ति विष्णोः सकाशादुत्पद्य वर्त्तत इति यावत्। विष्णोः स्यूर(स्य)स्ति सर्वं जगद्वैष्णवम(स्य)स्ति यस्य विष्णोर्जगति द्वे श्नप्त्रे इव ज[चेतनसमूहौ स्थः वर्त्तते, तं सर्वजगदुत्पादकं जगदीश्वरं त्वां विष्णवे यज्ञानुष्ठानाय वयमाश्रयामः॥२१॥
भावार्थः—मनुष्यैः सर्वस्यास्य जगतः परमेश्वर एव रचको धारको व्यापक इष्टदेवोऽस्तीति विज्ञाय सर्वकामसिद्धिः सम्पादनीया॥२१॥
पदार्थः—जो यह अनेक प्रकार का जगत् है, वह (विष्णोः) व्यापक परमेश्वर के सकाश से (रराटम्) उत्पन्न होकर प्रकाशित है, (विष्णोः) सर्व सुख प्राप्त करने वाले ईश्वर से (स्यूः) विस्तृत (असि) है। [(विष्णोः) सब जगत् के पालक ईश्वर से उत्पन्न होने के कारण अपनी-अपनी सत्ता में (ध्रुवः) निश्चल है,] सब जगत् (वैष्णवम्) यज्ञ का साधन (असि) है और (विष्णोः) सब में प्रवेश करने वाले जिस ईश्वर के (श्नप्त्रे) जड़-चेतन के समान दो प्रकार का शुद्ध जगत् है, उस सब जगत् के उत्पन्न करने वाले जगदीश्वर! हम लोग (त्वा) आप को (विष्णवे) यज्ञ का अनुष्ठान करने के लिये आश्रय करते हैं॥२१॥
भावार्थः—मनुष्यों की उचित है कि इस सब जगत् का परमेश्वर ही रचने और धारण करने वाला व्यापक इष्टदेव है, ऐसा जानकर सब कामनाओं की सिद्धि करें॥२१॥