यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः ५/मन्त्रः ३६
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान् |
अग्ने नयेत्यस्यागस्त्य ऋषिः। अग्निर्देवता। निचृदार्षी त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥
पुनरीश्वरः किमर्थः प्रार्थनीय इत्युपदिश्यते॥
फिर ईश्वरप्रार्थना किसलिये करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र किया है॥
अग्ने॒ नय॑ सु॒पथा॑ रा॒येऽअ॒स्मान् विश्वा॑नि देव व॒युना॑नि वि॒द्वान्।
यु॒यो॒ध्य᳕स्मज्जु॑हुरा॒णमेनो॒ भूयि॑ष्ठां ते॒ नम॑ऽउक्तिं विधेम॥३६॥
पदपाठः—अग्ने॑। नय॑। सु॒पथेति॑ सु॒ऽपथा॑। रा॒ये। अ॒स्मान्। विश्वा॑नि। दे॒व॒। व॒युना॑नि। वि॒द्वान्। यु॒यो॒धि। अ॒स्मत्। जु॒हु॒रा॒णम्। एनः॑। भूयि॑ष्ठाम्। ते॒। नम॑उक्ति॒मिति॒ नमः॑ऽउक्तिम्। वि॒धे॒म॒॥३६॥
पदार्थः—(अग्ने) सर्वानेतः परमात्मन्! (नय) प्रापय (सुपथा) यथा सुकृतः शोभनेन धर्म्यमार्गेण गच्छन्ति तथा (राये) परमश्रीमोक्षसुखप्राप्तये (अस्मान्) अभ्युदयनिःश्रेयससुखस्पृहावतः (विश्वानि) सर्वाणि (देव) सर्वानन्दप्रापक सर्वजगत्प्रकाशक! (वयुनानि) प्रशस्तानि कर्माणि प्रज्ञाश्च। वयुनमिति प्रशस्यनामसु पठितम्। (निघं॰ ३।९) वयुनं वेतेः कान्तिर्वा प्रज्ञा वा। (निरु॰ ५।१४) वयुनानि विद्वान् प्रज्ञानानि प्रजानन्। (निरु॰ ८.२०) (विद्वान्) यः सर्वं वेत्ति सः (युयोधि) दूरीकुरु। अत्र बहुलं छन्दसि। [अष्टा॰ २.४.७३] इति शपः श्लुः। (अस्मत्) अस्माकं सकाशात् (जुहुराणम्) कुटिलम् (एनः) दुःखफलं पापम् (भूयिष्ठाम्) बहुतमाम् (ते) तव (नम उक्तिम्) यथा नमोभिरुक्तिं विदधति तथा (विधेम) वदेम। अयं मन्त्रः (शत॰ ३।६।३।११) व्याख्यातः॥३६॥
अन्वयः—हे अग्ने देव जगदीश्वर! विद्वांस्त्वं यथा सुकृतो राये सुपथा विश्वानि वयुनानि प्राप्नुवन्ति, तथास्मान्नय, जुहुराणमेनोस्मद्युयोधि वयं ते तव भूयिष्ठां नम उक्तिं विधेम॥३६॥
भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा प्रेम्णोपासितः सन् जगदीश्वरो जीवान् दुष्टमार्गाद् वियोज्य धर्ममार्गे स्थापयित्वैहिकपारमार्थिकसुखानि तत्तत्कर्मानुसारेण ददाति, तथा न्यायाधीशैरपि विधेयम्॥३६॥
पदार्थः—हे (अग्ने) सब को अच्छे मार्ग में पहुंचाने (देव) और सब आनन्दों को देने वाले (विद्वान्) समस्त विद्यान्वित जगदीश्वर! आप कृपा से (राये) मोक्षरूप उत्तम धन के लिये (सुपथा) जैसे धार्मिक जन उत्तम मार्ग से (विश्वानि) समस्त (वयुनानि) उत्तम कर्म, विज्ञान वा प्रजा को प्राप्त होते हैं, वैसे (अस्मान्) हम लोगों को (नय) प्राप्त कीजिये और (जुहुराणम्) कुटिल (एनः) दुःखफलरूपी पाप को (अस्मत्) हम लोगों से (युयोधि) दूर कीजिये। हम लोग (ते) आप की (भूयिष्ठाम्) अत्यन्त (नम उक्तिम्) नमस्काररूप वाणी को (विधेम) कहते हैं॥३६॥
भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सत्य प्रेम से उपासना किया हुआ परमेश्वर जीवों को दुष्ट मार्गों से अलग और धर्म मार्ग में स्थापन करके इस लोक के सुखों को उन के कर्मानुसार देता है, वैसे ही न्याय करने हारे भी किया करें॥३६॥