यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः ५/मन्त्रः ८
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान् |
या त इत्यस्य गोतम ऋषिः। अग्निर्देवता। पूर्वस्य विराडार्षी बृहती छन्दः। या त इति द्वितीयस्य निचृदार्षी बृहती छन्दः। मध्यमः स्वरः॥
पुनः सा विद्युत् कीदृशीत्युपदिश्यते॥
फिर वह बिजुली कैसी है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
या ते॑ऽअग्नेऽयःश॒या त॒नूर्वर्षि॑ष्ठा गह्वरे॒ष्ठा। उ॒ग्रं वचो॒ऽअपा॑वधीत्त्वे॒षं वचो॒ऽअपा॑वधी॒त् स्वाहा॑। या ते॑ऽअग्ने रजःश॒या त॒नूर्वर्षि॑ष्ठा गह्वरे॒ष्ठा। उ॒ग्रं वचो॒ऽअपा॑वधीत्त्वे॒षं वचो॒ऽअपा॑वधी॒त् स्वाहा॑। या ते॑ऽअग्ने हरिश॒या त॒नूर्वर्षि॑ष्ठा गह्वरे॒ष्ठा। उ॒ग्रं वचो॒ऽअपा॑वधीत्त्वे॒षं वचो॒ऽअपा॑वधी॒त् स्वाहा॑॥८॥
पदपाठः—या। ते॒। अ॒ग्ने॒। अ॒यःशये॒त्य॑यःऽश॒या। त॒नूः। वर्षि॑ष्ठा। ग॒ह्व॒रे॒ष्ठा। ग॒ह्व॒रे॒स्थेति॑ गह्वरे॒ऽस्था। उ॒ग्रम्। वचः॑। अप॑। अ॒व॒धी॒त्। त्वे॒षम्। वचः॑। अप॑। अ॒व॒ऽधी॒त्। स्वाहा॑। या। ते॒। अ॒ग्ने॒। र॒जः॒श॒येति॑ रजःश॒या। त॒नूः। वर्षि॑ष्ठा। ग॒ह्व॒रे॒ष्ठा। ग॒ह्व॒रे॒स्थेति॑ गह्वरे॒ऽस्था। उ॒ग्रम्। वचः॑। अप॑। अ॒व॒धी॒त्। त्वे॒षम्। वचः॑। अप॑। अ॒व॒धी॒त्। स्वाहा॑॥८॥
पदार्थः—(या) वक्ष्यमाणा (ते) अस्याः (अग्ने) विद्युतः (अयःशया) याऽयस्सु सुवर्णादिषु शेते सा। अय इति हिरण्यनामसु पठितम्। (निघं॰ १। २) (तनूः) व्याप्तं विस्तृतं शरीरम् (वर्षिष्ठा) अतिशयेन वृद्धा (गह्वरेष्ठा) गह्वरे गहने गभीर आभ्यन्तरे तिष्ठतीति (उग्रम्) क्रूरं भयङ्करम् (वचः) वचनम् (अप) व्यपेत्येतस्य प्रातिलोम्यम्। (निरु॰ १। ३) (अवधीत्) हन्ति। अत्र सर्वत्र लडर्थे लुङ्। (त्वेषम्) प्रदीप्तम् (वचः) परिभाषणम् (अप) पृथक्करणे (अवधीत्) हन्ति (स्वाहा) सुहुतं हविरन्नम् (या) (ते) (अग्ने) (रजःशया) या रजःसु सूर्य्यादिलोकेषु शेते सा (तनूः) व्याप्तिः (वर्षिष्ठा) (गह्वरेष्ठा) (उग्रम्) दुःसहम् (वचः) परिभाषणम् (अप) पृथक्करणे (अवधीत्) (त्वेषम्) प्रकाशितम् (वचः) वचनम् (अप) पृथक्करणे (अवधीत्) हन्ति (स्वाहा) सुहुतां वाचम्। अयं मन्त्रः (शत॰ ३। ४। २३-२५) व्याख्यातः॥८॥
अन्वयः—हे मनुष्या! यूयं या तेऽग्नेऽस्या विद्युतो वर्षिठा गह्वरेष्ठा तनूरुग्रं वचोऽपावधीदपहन्ति त्वेषं वचः स्वाहा सुहुतं हविरन्नं चापावधीत्। या तेऽग्नेऽस्या विद्युतो वर्षिष्ठा गह्वरेष्ठा रजःशया तनूरुग्रं वचोऽपावधीत् त्वेषं वचः स्वाहा सुहुतां वाचं चापावधीद्धन्ति तां सम्यक् विदित्वोपकुरुत॥८॥
भावार्थः—मनुष्यैर्विद्युतो या व्याप्तिर्मूर्त्तामूर्त्तद्रव्यस्था वर्त्तते तां युक्त्या सम्यक् विदित्वोपसंप्रयोज्य सर्वाणि दुःखान्यपहन्तव्यानि॥८॥
पदार्थः—हे मनुष्य लोगो! तुम को (या) जो (ते) इस (अग्ने) बिजुलीरूप अग्नि का (अयःशया) सुवर्णादि में सोने (वर्षिष्ठा) अत्यन्त बड़ा (गह्वरेष्ठा) आभ्यन्तर में रहने वाला (तनूः) शरीर (उग्रम्) क्रूर भयङ्कर (वचः) वचन को (अपावधीत्) नष्ट करता और (त्वेषम्) प्रदीप्त (वचः) शब्द वा (स्वाहा) उत्तमता से हवन किये हुए अन्न को (अपावधीत्) दूर करता और जो (ते) इस (अग्ने) बिजुलीरूप अग्नि का (वर्षिष्ठा) अत्यन्त विस्तीर्ण (गह्वरेष्ठा) आभ्यन्तर में स्थित होने (रजःशया) लोकों में सोने वाला (तनूः) शरीर (उग्रम्) क्रूर (वचः) कथन को (अपावधीत्) नष्ट करता है (त्वेषम्) प्रदीप्त (वचः) कथन वा (स्वाहा) उत्तम वाणी को (अपावधीत्) नष्ट करता है, उसको जान के उससे कार्य्य लेना चाहिये॥८॥
भावार्थः—मनुष्यों को योग्य है कि सब स्थूल और सूक्ष्म पदार्थों में रहने वाली जो बिजुली की व्याप्ति है, उस को अच्छे प्रकार जानकर उपयुक्त करके सब दुःखों का नाश करें॥८॥