महाभारतम्-16-मौसलपर्व-009
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अर्जुनेन व्यासाश्रमे तद्दर्शनम्।। 1 ।।
तस्मिन्द्वारकावृत्तान्तनिवेदनम्।। 2 ।।
व्यासेनार्जुनंप्रति युधिष्ठिरादीनामपि स्वर्गगमनसूचनम्।। 3 ।।
ततोऽर्जुनेन हास्तिनपुरमेत्य युधिष्ठिरे द्वारकावृत्तान्तादिनिवेदनम्।। 4 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 16-9-1x |
प्रविश्य त्वर्जुनो राजन्नाश्रमं सत्यवादिनः। ददर्शासीनमेकान्तो मुनिं सत्यवतीसुतम्।। | 16-9-1a 16-9-1b |
स तमासाद्य धर्मज्ञमुपतस्थे महाव्रतम्। अर्जुनोस्मीति नामास्तै निवेद्याभ्यवदत्ततः।। | 16-9-2a 16-9-2b |
स्वागतं तेऽस्त्विति प्राह मुनिः सत्यवतीसुतः। आस्यतामिति होवाच प्रसन्नात्मा महामुनिः।। | 16-9-3a 16-9-3b |
तमप्रतीतमनसं निःश्वसन्तं पुनःपुनः। निर्विष्णमनसं दृष्ट्वा पार्थं व्यासोऽब्रवीदिदम्।। | 16-9-4a 16-9-4b |
नखकेशदशाकुंभवारिणा किं समुक्षितः। आवीरजानुगमनं ब्राह्मणो वा हतस्त्वया।। | 16-9-5a 16-9-5b |
युद्धे पराजितो वाऽसि दतश्रीरिव लक्ष्यसे। न त्वां प्रभिन्नं जानामि किमिदं भरतर्षभ। श्रोतव्यं चेन्मया पार्थ क्षश्रिप्रमाख्यातुमर्हसि।। | 16-9-6a 16-9-6b 16-9-6c |
अर्जुन उवाच। | 16-9-7x |
यः स मेघवपुः श्रीमान्बृहत्पङ्कजलोचनः। स कृष्णः सह रामेण त्यक्त्वा देहं दिवं गतः।। | 16-9-7a 16-9-7b |
`तदनुस्मृत्य संमोहं तदा शोकं महामते। प्रयामि सर्वदा मह्यं मुमूर्षा चोपजायते।। | 16-9-8a 16-9-8b |
तद्वाक्यस्पर्शनालोकसुखं चामृतसन्निभम्। संस्मृत्य देवदेवस्य प्रमुह्यित्यमृतात्मनः।।' | 16-9-9a 16-9-9b |
मौसले वृष्णिवीराणां विनाशो ब्रह्मशापजः। बभूव वीरान्तकरः प्रभासे रोमहर्षणः।। | 16-9-10a 16-9-10b |
एते शूरा महात्मानः सिंहदर्पा महाबलाः। भोजवृष्ण्यन्धका ब्रह्मन्नन्योन्यं तैर्हतं युधि।। | 16-9-11a 16-9-11b |
गदापरिघशक्तीनां सहाः परिघबाहवः। त एरकाभिर्निहताः पश्य कालस्य पर्ययम्।। | 16-9-12a 16-9-12b |
हतं पञ्चशतं तेषां सहस्रं बाहुशालिनाम्। निधनं समनुप्राप्तं समासाद्येतरेतरम्।। | 16-9-13a 16-9-13b |
पुनःपुनर्न मृष्यामि विनाशममितौजसाम्। चिन्तयानो यदूनां च कृष्णस्य च यशस्विनः।। | 16-9-14a 16-9-14b |
शोषणं सागरस्येव मन्दरस्येव चालनम्। नभसः पतनं चैव शैत्यमग्नेस्तथैव च।। | 16-9-15a 16-9-15b |
अश्रद्धेयमहं मन्ये विनाशं शार्ङ्गधन्वनः। न चेह स्थातुमिच्छामि लोके कृष्णविनाकृतः।। | 16-9-16a 16-9-16b |
इतः कष्टतरं चान्यच्छृणु तद्वै तपोधन। मनो मे दीर्यते येन चिन्तयानस्य वै मुहुः।। | 16-9-17a 16-9-17b |
पश्यतो वृष्णिदाराश्च मम ब्रह्मन्सहस्रशः। आभीरैरभिभूयाजौ हृताः पञ्चनदालयैः।। | 16-9-18a 16-9-18b |
धनुरादाय तत्राहं नाशकं तस्य पूरणे। यथापुरा च मे वीर्यं भुजयोर्न तथाऽभवत्।। | 16-9-19a 16-9-19b |
अस्त्राणि मे प्रनष्टानि विविधानि महामुने। शराश्च क्षयमापन्नाः क्षणेनैव समन्ततः।। | 16-9-20a 16-9-20b |
पुरुषस्चाप्रमेयात्मा शङ्खचक्रगदाधरः। चतुर्भुजः पीतवासाः श्यामः पद्मदलेक्षणः।। | 16-9-21a 16-9-21b |
यश्च याति पुरस्तान्मे रथस्य सुमहाद्युतिः। प्रदहन्रिपुसैन्यानि न पश्याम्यहमद्य तम्।। | 16-9-22a 16-9-22b |
येन पूर्वं प्रदग्धानि शत्रुसैन्यानि तेजसा। शरैर्गाण्डीवनिर्मुक्तैरहं पश्चादशातयम्।। | 16-9-23a 16-9-23b |
तमपश्यन्विषीदामि घूर्णामीव च सत्तम। परिनिर्विण्णचेताश्च शान्तिं नोपलभेऽपि च।। | 16-9-24a 16-9-24b |
`देवकीनन्दनं देवं वासुदेवमजं प्रभुम्।' विना जनार्दनं वीरं नाहं जीवितुमुत्सहे।। | 16-9-25a 16-9-25b |
श्रुत्वैव हि गतं विष्णुं ममापि मुमुहुर्दिशः। प्रनष्टज्ञातिवीर्यस्य शून्यस्य परिधावतः।। | 16-9-26a 16-9-26b |
उपदेष्टुं मम श्रेयो भवानर्हति सत्तम।। | 16-9-27a |
व्यास उवाच। | 16-9-28x |
`देवांशा देवभूतेन सम्भूतास्ते गतास्सह। धर्मव्यवस्थारक्षार्थं देवेन समुपेक्षिताः'।। | 16-9-28a 16-9-28b |
ब्रह्मशापविनिर्दग्धा वृष्ण्यन्धकसमहारथाः। विनष्टाः कुरुशार्दूल न ताञ्शोचितुमर्हसि।। | 16-9-29a 16-9-29b |
भवितव्यं तथा तच्च दिष्टमेतन्महात्मनाम्। उपेक्षितं च कृष्णेन शक्तेनापि व्यपोहितुम्।। | 16-9-9a 16-9-9b |
त्रैलोक्यमपि गोविन्दः कृत्स्नं स्थावरजङ्गमम्। प्रसहेदन्यथा कर्तुं कुतः शापं महात्मनाम्।। | 16-9-31a 16-9-31b |
`स्त्रियश्च ताः पुरा शप्ताः प्रभासे कुपितेन वै। अष्टावक्रेण मुनिना तदर्थं त्वद्बलक्षयम्।।' | 16-9-32a 16-9-32b |
रथस्य पुरतो याति यः स चक्रगदाधरः। तव स्नेहात्पुराणर्षिर्वासुदेवश्चतुर्भुजः।। | 16-9-33a 16-9-33b |
कृत्वा भारावतरणं पृथिव्याः पृथुलोचनः। मोक्षयित्वा तनुं प्राप्तः कृष्णः स्वस्थानमुत्तमम्।। | 16-9-34a 16-9-34b |
त्वयाऽपीह महत्कर्म देवानां पुरुषर्षभ। कृतं भीमसहायेन यमाभ्यां च महाभुज।। | 16-9-35a 16-9-35b |
कृतकृत्यांश्च वो मन्ये संसिद्धान्कुरुपुङ्गव। गमनं प्राप्तकालं व इदं श्रेयस्करं विभो।। | 16-9-36a 16-9-36b |
बलं बुद्धिश्च तेजश्च प्रतिपत्तिश्च भारत। भवन्ति भवकालेषु विपद्यन्ते विपर्यये।। | 16-9-37a 16-9-37b |
कालमूलमिदं सर्वं जगद्बीजं धनंजय। काल एव समादत्ते पुनरेव यदृच्छया।। | 16-9-38a 16-9-38b |
स एव बलवान्भूत्वा पुनर्भवति दुर्बलः। स एवेशश्च भूत्वेह परैराज्ञाप्यते पुनः।। | 16-9-39a 16-9-39b |
कृतकृत्यानि चास्त्राणि गतान्यद्य यथागतम्। पुनरेष्यन्ति ते हस्तं यदा कालो भविष्यति।। | 16-9-40a 16-9-40b |
कालो गन्तुं गतिं मुख्यां भवतामपि भारत। एतच्छ्रेयो हि वो मन्ये परमं भरतर्षभ।। | 16-9-41a 16-9-41b |
वैशम्पायन उवाच। | 16-9-42x |
एतद्वचनमाज्ञाय व्यासस्यामिततेजसः। अनुज्ञातो ययौ पार्थो नगरं नागसाह्वयम्।। | 16-9-42a 16-9-42b |
प्रविश्य च पुरीं वीरः समासाद्य युधिष्ठिरम्। आचष्ट तद्यथावृत्तं वृष्ण्यन्धककुलं प्रति।। | 16-9-43a 16-9-43b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शतसाहस्रयां संहितायां वैयासिक्यां मौसलपर्वणि नवमोध्यायः।। 9 ।। | |
।। मौसलपर्व समाप्तम् ।। | |
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अस्यानन्तरं महाप्रस्थानिकं पर्व भविष्यति | |
तस्यायमाद्यः श्लोकः। | |
जनमेजय उवाच। | |
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एवं वृष्ण्यन्धककुले श्रुत्वा मौसलमाहवम्। | |
पाण्डवाः किमकुर्वन्त तथा कृष्णे दिवं गते।। 1 ।। | |
इदं मौसलपर्व कुंभघोणस्थेन टी.आर्. कृष्णाचार्येण टी. आर्. व्यासाचार्येण च मुम्बय्यां निर्णयसागरमुद्रायन्त्रे मुद्रापितम्। शकाब्दाः 1832 सन 1910. |
16-9-5 नखोदकं केशोदकं वस्त्रप्रान्तो दशा तदुदकं कुम्भमुखोदकं च। आवीरजा नारी रजस्वला तस्या रजःप्रस्रबकाले दिनत्रयादर्वाक् अनुगमनं तस्यां मैथुनं ब्राह्मणस्य वधो युद्धे पराजयश्चेति सप्तभिर्निमितैः पुरुषो भ्रष्टश्रीर्भवति। अपि राजोपघातस्ते ब्राह्मणो वेति क.ट.पाठः।। 16-9-6 प्रभिन्नं पराजितं त्वां कदाचिदपि न जानामि।। 16-9-11 हतं मृतम्। मारितवन्त इत्यर्थः।। 16-9-13 पञ्चशतं सहस्रं सहस्रगुणितं पञ्चलक्षामीत्यर्थः।। 16-9-13 न केवलं हतं ताडितमपि तु निधनं प्राप्तमित्यर्थः।। 16-9-18 पश्यतः अनादरे षष्ठी। मां पश्यन्तमनादृत्येत्यर्थः।। 16-9-37 वुद्धिरुपस्थितकार्यावधारणम्। तेजः प्रागल्भ्यम्। प्रतिपत्तिरनागतावेक्षणम्। भवन्ति उत्पद्यन्ते। भवकालेषु ऐश्वर्यावाप्तिसमयेषु। विपर्यये विनाशकाले। विपद्यन्ते विनश्यन्ति।। 16-9-38 कालः ईश्वरः जगद्बीजं वियदादिपञ्चकं। समादत्ते संहरति यदा भूतानामपि संहारो भवति कियांस्तत्र भौतिकानां नाश इति तदर्थं शोकोनुचित इति भावः। य एव बलवान्स एव दुर्बलो भवत्येव विपर्ययोऽपि कालमूलो ज्ञेयः।। 16-9-40 पुनर्युगान्तरे।। 16-9-41 मुख्यां गतिं स्वर्गं गन्तुम् एतत्प्रस्थानं श्रेयः।।
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